अर्नब की चीखती और शोर मचाने वाली पत्रकारिता की आड़ में सरकार द्वारा जो कुछ भी किया जा रहा है उसे देखिए, पढिये और समझिए । अर्नब ने जो कुछ भी कहा या किया है, उस पर लोगों ने मुक़दमे दर्ज कराये हैं और अब यह काम पुलिस का है, कि वह अपनी कानूनी कार्यवाही करे। पत्रकारिता के मानदंडों और उसके गिरने उठने पर बहस होती रहती है। नैतिकता पर बहस और नसीहतें हमारी विशेषता हैं। यह हम वैदिक काल से करते आये हैं और आज तक यह जारी है। पर इस पूरे शोर शराबे में खून में व्यापार की तासीर वाली सरकार कर क्या रही है, यह समझना बहुत ज़रूरी है। अर्नब न कभी महत्वपूर्ण रहे हैं और न आज हैं। उन्हें एक अंग्रेजीदां ट्रोल ही समझिये और इससे अधिक कुछ नहीं।
असल सवाल है, सरकार, जो बिल गेट्स से सर्वे करा कर अपनी पीठ थपथपा रही है कि वह दुनियाभर में सबसे अच्छा काम इस कोरोना आपदा काल मे कर रही है को एक्सपोज करना और उस सच को उजागर करना जिसे तोपने ढंकने के लिये अर्नब जैसे सॉफिस्टिकेटेड ट्रोल गढ़े गए हैं । सरकार हमेशा असल सवालों और मूल मुद्दों से बचना चाहती है क्योंकि वह उन पर कुछ कर ही नहीं रही है क्योंकि वह एक प्रतिभाहीन सरकार है औऱ भ्रमित तो अपने जन्म से ही है।
आज के ज्वलन्त मुद्दे है, कोरोना आपदा प्रबंधन, बिगड़ती आर्थिकी और इन सब भंवर में से सरकार कैसे देश को संकट से मुक्त कराती है। कोरोना आपदा वायरसजन्य है तो आर्थिकी का यह संकट, सरकार की गलत और गिरोहबंद पूंजीवादी नीतियों का परिणाम है। अर्नब के शोर को इसीलिए उछाला गया है कि आज जब चारों तरफ टेस्ट किट से लेकर पीपीई तक की कमी और उनकी गुणवत्ता पर सवाल उठ रहे हैं, तो लोगों का ध्यान भटके और पूरा गांव कुत्तों को खदेड़ने में लग जाय । जब खराब आर्थिकी और वित्तीय कुप्रबंधन पर सवाल उठ रहे हैं, तो केवल इसी लिहो लिहो का विकल्प बचता है जिससे सरकार कुछ समय के लिये अपने विरुद्ध उठ रहे सवालों को टाल सकती है ।
एक बात याद रखिये मक्खी मारने के लिये हथौड़ा नहीं उठाया जाता है। ट्रोल तो चाहेंगे कि जनता इसी में उलझी रहे और सरकार इलेक्टोरल बांड के एहसान उतारती रहे। सरकार की प्राथमिकता में केवल और केवल उनके चहेते पूंजीपति हैं, और कुछ भी नहीं, कोई भी नहीं। अर्नब एंड कम्पनी को बुद्ध की साधना में आये मार की तरह लीजिए। मेरी समझ मे यह इसी प्रकार की चीज के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। बस कानून ने उनके कृत्य पर मुकदमा दर्ज किया है तो अब कानून उस पर अपनी कार्यवाही करें।
अब आप इस कैमोफ्लाज की आड़ में सरकार द्वारा या सत्तारूढ़ दल द्वारा लिये जा रहे कुछ निर्णयों को देखें जो मैं लक्ष्मीप्रताप सिंह के एक लेख से उद्धृत कर रहा हूँ।
● तीन दिन पहले रिज़र्व बैंक, आरबीआई ने सरकार की कम समय के लिये उधार लेने की नीति, शार्ट टर्म बौरोइंग लिमिट, यानी सरकार की आरबीआई से उधार लेने की सीमा 1.2 से अचानक 65% बड़ा कर 2 लाख करोड़ कर दी है। हाल ही में सरकार ने जो 1.75 लाख करोड़ आरबीआई से लिया था वह कहाँ गया, उस पर सवाल पूछने पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बताया था कि यह उन्हें भी पता नहीं है। वह धन कॉरपोरेट को उनकी सेहत सुधारने के नाम पर सरकार ने दे दिया। ध्यान दीजिये यह कोई सामान्य बैंक नहीं है, बल्कि देश का केंद्रीय बैंक आरबीआई है, जिसे सरकार कंगाल कर रही है।
● भाजपा के राजयसभा सांसद राकेश सिन्हा ने मध्य मार्च में संविधान से "समाजवाद" सोशलिज्म शब्द को हटाने का प्रस्ताव दिया है। 23 को संसद निरस्त होने की वजह से इस निजी बिल पर चर्चा नहीं हो सकी। दरअसल इस के दो कारण हैँ, पहला तो आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र के सपने के बीच संविधान के सेक्युलर, और समाजवाद शब्द आड़े आते हैँ। पहले समाजवाद हटेगा फिर बारी आएगी सेक्युलर की और जब देश धर्म-निरपेक्ष नहीं है तो स्वतः आधिकारिक रूप से "हिन्दू राष्ट्र" घोषित करने मे आसानी रहेगी। 2015 के गणतंत्र दिवस के सरकारी विज्ञापन में समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द गायब थे जिस पर बवाल भी हुआ था।
दूसरा कारण है, समाजवाद शब्द वर्ष 1976 में 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से इंदिरा गाँधी सरकार द्वारा संविधान की प्रस्तावना में संशोधन किया गया और इसमें तीन नए शब्द (समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता) जोड़े गए। मोदी जी को इंदिरा जी के कद से बड़ा बनने के लिए उनके निर्णयों को उलटना है। समाजवाद दरअसल पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच की व्यवस्था है जिसमे दोनों की अच्छाइयां होती हैँ। धनाढ्य वर्ग से धन लेकर गरीबों को के लिए योजनाओं द्वारा दिया जाता है।
● तीसरी बड़ी खबर है कि फिलहाल कोरोना जाँच किट, डाक्टरों द्वारा पहने जाने वाली प्रोटेक्टिव गियर, वेंटिलेटर इत्यादि पर 12% का जीएसटी, आयात शुल्क व अन्य सेस लग रहे थे। स्वास्थ्य के लिए आने वाले उपकरणों पर भी "स्वास्थ्य सेस" लिया जा रहा था। राहुल गाँधी व शशि थरूर ने मांग की कि कोरोना के उपचार में प्रयोग होने वाली सभी किट्स, उपकरणों पर लगने वाले टेक्स को हटा दिया जाये ताकि टेस्ट व उपचार सस्ता हो जाये। सरकार के इशारे पे कपड़ा मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली संस्था द ऐपरेल एक्सपोर्ट काउंसिल ऑफ इंडिया, ने टेक्स हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से मना कर दिया। इनका मत था कि मेन्युफेक्चरिंग और किट्स कि कीमतों पे कोई असर नहीं पड़ेगा। एक बच्चा भी समझ सकता है कि यदि टेक्स हटेगा तो कीमत कम होंगी। पता नहीं इनके इस विचार के लिए एक्सप्लानेशन क्योँ नहीं मांगी गयी।
यह व्यापारी वर्ग है, कोरोना के उपकरण राज्य सरकारें खरीदेंगी लेकिन सोर्सिंग केंद्र सरकार कार रही है, जीएसटी लगेगा तो लागत में जोड़ के वसूल लिया जायेगा जनता के पैसे से। इस लिए व्यापारियों की सेहत पर कोई नुकसान नहीं होगा और अधिक पैसा तो जनता की जेब से जायेगा, और बजट की वजह से दोष राज्य सरकारों पर आएगा।
जब ज्यादा लोग मरते हैँ तो गिद्ध और लकड़भग्गे खुश होते हैँ, क्योंकि उनके लिए खाने का वही अवसर है। और हमारा सिस्टम तो गिद्धों का ही है, कोरोना के बहाने अपने मकसद पूरे करने मे लगे हैँ।
असल सवाल और मुद्दे यही और इनसे मिलते जुलते हैं जो लक्ष्मीप्रताप सिंह ने उठाये हैं और ऐसे ही सवाल न उठे, और कोई उठाने की कोशिश करे तो भटकाव के लिये ही, अर्नब गोस्वामी जैसे ट्रोल उतार दिए जाते हैं। अर्नब गोस्वामी के खिलाफ बहुत कुछ होगा तो हो सकता है वे माफी मांग लेंगे जो इस गिरोह की यूएसपी औऱ पुरानी आदत है। पर इसी हंगामे में वे सारे सवाल जो आज उठने चाहिए, फिलवक्त के लिये टल जाएंगे।
अर्नब गोस्वामी के खिलाफ जो मुकदमे दर्ज हैं उनकी पैरवी होनी चाहिये और कानून को अपना रास्ता तय करना चाहिये। अर्नब गोस्वामी अकेले नहीं है बल्कि अंजना ओम कश्यप, रुबिका लियाकत, दीपक चौरसिया सुधीर चौधरी जैसे कई नामी पत्रकार चेहरे इस बदलते परिवेश में ट्रॉल की तरह रूपांतरित हो गए हैं। ऐसे कई ट्रॉल सरकार के पास हैं वह वक़्त ज़रूरत उन्हें निकालती रहती है और आगे भी निकालती रहेगी। अभी सरकार के चार साल शेष है। उन्हें भी पता है कि वे पिछले 6 सालों में कुछ नहीं कर पाए और अब अगले चार साल में भी कुछ नहीं कर पाएंगे तो बस ऐसे ही ट्रॉल उनके सहारे हैं, जो वक़्ती राहत दे सकते हैं।
अर्नब गोस्वामी द्वारा रिपब्लिक टीवी पर सोनिया गांधी पर कुछ टिप्पणी की जाने के बाद देर रात यह खबर आयी कि उनपर दो व्यक्तियों ने हमला किया है। हमले की सूचना रिपब्लिक टीवी ने अपने ट्विटर हैंडल पर दी। यह ट्वीट 23 अप्रैल 2020 की रात एक बज कर छह मिनट का है। अर्नब खुद लाइव होते हैं और अपने ऊपर हुए हमले की सूचना देते हैं। अब इस हमले पर भी कुछ सवाल उठ रहे हैं जिन्हें देखिए।
घटनाक्रम देखिये.
● अर्नब गोस्वामी ने एक वीडियो संदेश जारी किया कि उनकी पत्नी और उन पर 22/ 23 अप्रैल 2020 को हमला किया गया।
● अब यह देखते हैं कि वह वीडियो जो अर्नब ने जारी किया है उसे कब बनाया गया था।
● एक वेदसाइट है जो ऐसे तथ्यों की पड़ताल करती है। उसका नाम और लिंक www.metadata2go.com है।
● जांच का परिणाम यह निकलता है कि वह वीडियो जो हमले की बात कर रहा है, वह वास्तव में 22 अप्रैल को रात 8.17 बजे बनाया गया था। पर यह टाइम अलग टाइम जोन का है जो जीएमटी टाइम बताता है। भारतीय समय से यह बिंदु वीडियो को गलत साबित नहीं करता है। सत्य क्या है केवल इसी तकनीक के सहारे नहीं कहा जा सकता है। तकनीक एक दिशा देती है पर अन्य जरूरी साक्ष्य उसे साबित करने के लिये आवश्यक होते हैं।
● यह कैसे संभव है कि हमला रात में हो, उसका विडियो हमले के पहले ही तैयार हो जाय ? जांच में इस विंदु को भी ध्यान में रखा जाय और जांच गंभीरता से की जाय।
● यह निश्चित रूप से एक साजिश है जिसमे अर्नब का इस्तेमाल हो रहा है और इसका एक ही उद्देश्य है मूल समस्याओं से ध्यान भटकाना।
कहा जा रहा है कि अर्नब पर दो लोगो ने हमला किया जिसे सिक्योरिटी वालों ने पकड़ा और दोनों हमलावरों ने सिक्योरिटी वालों के सामने यह कबूल किया कि उन्हें हमला करने के लिये भेजा गया है और वे यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ता है। फिर अर्नब के साथ नियुक्त सुरक्षा कर्मियों ने उन हमलावरों को छोड़ दिया। होना तो यह चाहिए था कि पुलिस को उन्हें सौंप दिया जाता।
एक औऱ महत्वपूर्ण विंदु सामने आ रहा है कि, रिपब्लिक टीवी 23 अप्रैल की रात 1.06 बजे हमले की सूचना ट्विटर पर देता है और बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा 1.05 बजे और अशोक पंडित 00.55 पर हमले की निंदा कर देते हैं। कैसे ?
या तो रिपब्लिक टीवी ने ट्वीट करने के पहले ही संबित पात्रा और अशोक पंडित को हमले की बात बताई हो या उन दोनों को ही हमले के बारे में जानकारी हो। अब सच क्या है जब सबसे अलग अलग पूछताछ होगी तो पता चल जाएगा। असल बात यह है कि हमले के बारे में अर्नब ने थाने पर कोई मुकदमा लिखाया या नहीं और अगर लिखाया तो उसमें घटना का क्या समय दर्ज कराया गया है ?
यह भी कहा जा रहा है कि अर्नब गोस्वामी को वाय Y श्रेणी की सुरक्षा मिली है। इस श्रेणी में कुल 11 सुरक्षा कर्मी नियुक्त होते हैं और हर समय वह व्यक्ति सुरक्षा घेरे में ही रहता है जिसे सुरक्षा दी गयी है। अर्नब के साथ भी ऐसा ही था। उंस समय सुरक्षा में जो गनर उनकी गाड़ी में बैठा था उससे भी इस बारे में गहराई से पूछताछ करनी चाहिये। क्योंकि उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वह सुरक्षा बनाये रखे। घटना की जांच तुरन्त होनी चाहिए और हमलावर की गिरफ्तारी भी होनी चाहिए।
संतो की हत्या पर प्रधानमंत्री जी और गृहमंत्री का भी कोई ट्वीट आंखों से नहीं गुजरा। उद्धव ठाकरे ने, अपने एक बयान में कहा है कि उन्होंने घटना के बारे में गृहमंत्री को उसी दिन, जिस दिन यह सब सोशल मीडिया पर आ रहा था, बता दिया था। चूंकि हमला और हत्या संतों की थी तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जी ने भी इस घटना के बारे में उद्धव ठाकरे से जानना चाहा। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के अनुसार उन्होंने योगी आदित्यनाथ जी को जो घटना हुयी थी, उससे अवगत करा दिया था। अर्नब को शिकायत सोनिया गांधी से यह है कि उन्होंने संतो की हत्या पर कुछ क्यों नहीं कहा। पर वे यह भूल गए कि कांग्रेस महाराष्ट्र में सरकार में है और यह सरकार का दायित्व है कि वह मुल्ज़िम को गिरफ्तार करे। सरकार अपना दायित्व पूरा कर भी रही है। अगर नहीं पूरा कर रही है तो सोनिया गांधी के साथ साथ यही सवाल, इसी अंदाज़ में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से कर लेते।
घटना के बाद एक वीडियो चलता है कि उसमें शोएब का नाम कोई ले रहा है। उस पर भी यह सवाल उठता है कि क्या उस गांव में जहां यह घटना हुयी थी कोई शोएब नाम का व्यक्ति है भी । इस तथ्य की जानकारी तो उस गांव में जाकर कोई भी खोजी पत्रकार कर सकता है औऱ यह पता करना इतना कठिन काम भी नहीं है। पर जैसा कि महाराष्ट्र के गृहमंत्री ने जो सूची जारी की है उसमें एक भी मुस्लिम नहीं है और पुलिस ने जानबूझकर कर किसी मुस्लिम या शोएब को छोड़ दिया है तो उसका नाम उजागर कर खबरें दी जा सकती हैं। पर आज तक यह नहीं हुआ। न तो टीवी चैनलों ने यह बात बताई और न ही मराठी और अन्य अखबारों ने।
अर्नब गोस्वामी के पालघर लिंचिंग के संदर्भ में सोनिया गांधी को लेकर जो कुछ भी कहा गया, उसकी बेहद गम्भीर प्रतिक्रिया हुयी और ट्विटर पर अर्नब गोस्वामी के खिलाफ #arrestarnabgoswami ट्रेंड करने लगा। रात तक पता लगा उन पर रायपुर सहित अन्य जगहों पर भी साम्प्रदायिकता फैलाने के संदर्भ में आईपीसी की धाराओं में कई मुक़दमे दर्ज हो गए है। ट्विटर पर अरेस्ट अर्नब गोस्वामी ट्रेंड होते ही भाजपा आईटी सेल के लोग सक्रिय हो गए। यह तो एक वैचारिक द्वंद्व है और पक्ष विपक्ष में ऐसे द्वंद और हैशटैग ट्रेंड चलते रहते हैं। यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है।
पर जो संदेश ट्विटर पर फैलाया गया, उसे पढ़े । एक ही संदेश एक ही कमांड से आया, और सन्देश था, strong support for ture indian. Ture का क्या अर्थ क्या है यह मुझे नहीं पता। हो सकता है वे true लिखना चाहते हों पर स्पेलिंग की गलती हो गयी हो। स्लिप ऑफ की बोर्ड हो यह, और वे true यानी सच्चा कहना चाहते हैं पर सही टाइप न हो पाया हो।
खैर स्पेलिंग की गलतियां हो जाती है। पर जिस प्रकार से यह कट पेस्ट किया गया है वह मानसिक दासता और विवेक के लेशमात्र भी उपयोग न करने का एक दुःखद उदाहरण है। बात स्पेलिंग या वर्तनी या हिज्जे के मज़ाक़ उड़ाने की नहीं है उतनी जितनी यह सोच कर चिंतित होने की है कि देश की सभ्यता, संस्कृति, विद्या, पौरुष, आदि की बात बात में बात करने वाले लोगों का आईटीसेल एक कम्प्यूटर प्रोग्राम्ड मस्तिष्क में बदल गया है, जिसका रिमोट किसी एक के पास है जो वह कोई भी सन्देश गढ़ता है और फिर उसे जैसे ही भेजता है वह पुरानी फिल्मों में छपते हुए अखबारों की तरह निकलने लगता है।हम एक ऐसे समाज मे बदल रहे हैं जो अपने विवेक का प्रयोग ही भूलता जा रहा है। सवाल करना, संदेह जताना, अपने अधिकारों के लिये आंख में आंखें डालकर बात करना गुण नहीं दुर्गुण समझे जाने लगे है।
लोकतंत्र भेड़तन्त्र नहीं है। भारतीय वांग्मय, सभ्यता संस्कृति और परंपरा में प्रश्नाकुलता एक स्थायी भाव है। गुरु शिष्य परंपरा से लेकर समाज मे खुलकर वाद विवाद, सवाल जवाब होते थे। असहज से असहज सवाल उठते थे। उनका उत्तर नहीं दिया जा सकता था तो, उत्तर ढूंढे जाते थे। शोध होते थे। अनुसंधान की बात की जाती थी। सनातन धर्म सेमेटिक धर्मो से मूल रूप से अलग ही इस दृष्टि में है कि यहां तो ईश्वर के अस्तित्व पर भी सवाल उठा है और उसके भी उत्तर दिए गए हैं। आज उसी देश मे उसी परम्परा में चुने हुए अपने प्रतिनिधि से सवाल उठाना ही कुछ लोगो की नज़र में गलत हो गया है। क्या यह बौद्धिक प्रतिगामिता और दारिद्र्य नहीं है।
चीखना, चिल्लाना, अतिथि को भले ही वह विपरीत विचारधारा का हो उसे अपने सामने बुला कर अपमानित करना, उन्माद के लक्षण तो हो सकते हैं पर वह पत्रकारिता तो नहीं ही है । गम्भीर पत्रकारिता और टीआरपी के उद्देश्य से की गयी कानफोड़ू पत्रकारिता का फर्क ही समाप्त हो गया है। अर्नब आज से नहीं चीख रहे हैं वे बल्कि वे तो टाइम्स नाउ के समय से ही चीख रहे है। मुझे तो कभी कभी हैरानी होती है कि अतिथि पैनलिस्ट उनके शो में जाते ही क्यों हैं और वे यह शोर शराबा, बदतमीजी भरी ज़ुबान बर्दाश्त कैसे कर लेते हैं ?
अर्नब का एक वीडियो है जिसमे वे योगी आदित्यनाथ को कह रहे हैं कि वे धर्म के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। क्या यह बात संत समाज के सम्मान में कही गयी है ? पर एक दूसरे वीडियो में अर्नब, योगी जी की प्रशंसा करते नहीं अघाते हैं। दूसरे वीडियो के समय योगी जी मुख्यमंत्री बन चुके थे। यह सम्मान का विलक्षण मापदंड है जो संतत्व से नहीं राजदंड परिभाषित होता है।
अर्नब ने सोनिया गांधी से सवाल पूछा, इसमे कोई आपत्तिजनक नहीं है पर उन्होंने कभी भी न तो प्रधानमंत्री से सवाल पूछा और न ही गृहमंत्री से। मैं दावे के साथ कहता हूं कि पत्रकारिता का यह अर्नब मॉडल वे कभी भी उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के खिलाफ नहीं आजमाएंगे क्योंकि वे यह अच्छी तरह से जानते हैं कि चीखना चिल्लाना कहाँ है और दुम दबाकर सरक जाना कहां से है !
अगर अर्नब की सुरक्षा कम है तो उसे सरकार बढ़ा दे। क्योंकि आगे भी इन्हीं अर्नब और अर्नब की इन्ही अंदाजे बयानी से सरकार को अपने मुद्दे भटकाने हैं। अगर यह सरकार के एजेंडे से अलग हट गए तो ऐसा नायाब नमूना तो सरकार को पत्रकारिता जगत में जल्दी मिलने से रहा।
( विजय शंकर सिंह )
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