ग़ालिब - 115.
क्यों न हो बेइल्तिफ़ाती, उसकी खातिर जमअ है,
जानता है महव ए पुराशिसहा ए पिनहानी मुझे !!
Kyon na ho be'iltifaatee, uskii khaatir jama'a hai
Jaanataa hai, mahv e purashis'haa e pinahaanee mujhe !!
- Ghalib
उसकी उपेक्षा से मैं दुखी नहीं हूं, चाहे उपेक्षा वह कितनी भी करे पर मुझे यह पता है कि वह अंदर ही अंदर मेरा ध्यान रखता है।
ग़ालिब का यह अद्भुत आशावाद है। इश्क़ ए हक़ीक़ी के संदर्भ में लें तो भी और इश्क़ ए मजाज़ी के संदर्भ में लें तो भी। वे निरन्तर 'उसके' उपेक्षा भाव से त्रस्त हैं, पर उन्हें लगता है कि :उसकी' यह सारी उपेक्षा ऊपर ऊपर की ही है। इस आहनी ( लोहे की ) और संगदिली ( पत्थर जैसी ) उपेक्षा के भीतर का जो मौसम है वह बेहद खूबसूरत और दिल को सुकून देने वाला है। यह दीवार टूटेगी और वही मौसम फिर से आएगा। यहां यह ईश्वर के लिये कहा गया है। ग़ालिब का एक स्थायी भाव यह है, कि वे उपेक्षा से विचलित नहीं होते हैं और न उससे घबराते हैं। वे इस उपेक्षा के खत्म होने की सदैव एक उम्मीद बांधे रहते हैं। उनका यह शेर जो लगभग इसी तासीर का है पढ़े,
माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन,
हम खाक हो जाएंगे, तुमको खबर होने तक !!
यहां भी उनकी उम्मीद शेष है। तमाम तगाफुल उपेक्षा के बावजूद उन्हें यह उम्मीद है कि यह उपेक्षा का दौर खत्म होगा और वक़्त फिर अपने तौर में लौट आएगा, तभी वे एक छोटी सी शिकायत करते हैं कि हमे विश्वास है कि तुम मेरी उपेक्षा नहीं करोगे लेकिन जब तक तुम हमारी सुध लोगे हम मिट्टी हो जाएंगे यानी ज़िंदा ही नहीं बचेंगे। यह वे अल्लाह के लिये कह रहे हैं या किसी और के लिये यह हम सब अपनी अपनी तरह से सोच सकते हैं।
जिन मुसीबतों के बीच ग़ालिब ने ज़िंदगी गुज़ारी है उन मुसीबतों में कोई सकारात्मक आशावादी व्यक्ति ही जी सकता है। यही आशावाद उन्हें दिल्ली से लखनऊ फिर बाँदा होते हुए बनारस ले गया जहां गंगा के घाटों और मंदिरों की शंख तथा घण्ट ध्वनि ने उन्हें बांध लिया और वे कह बैठे कि काश हम पूरा जीवन बनारस में ही बिता पाते। पर वे रुकते कैसे। मक़सद तो उनका कलकत्ता जाने का था। वे कलकत्ता गए और फिर बिना किसी उपलब्धि के वापस दिल्ली आ गए। मसला उनकी पेंशन का था। बाद में उन्हें जो कुछ शाही ख़ज़ाने से मिलता था,वह भी 1858 में ब्रिटिश सरकार के पूरी तरह से दिल्ली पर कब्ज़ा कर लेने के बाद बंद हो गया। अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर तो गिरफ्तार कर के रंगून भेज दिए गए थे। लाल किले की मौसिकी और सुखन की सारी महफ़िल उजड़ गयी थी और वहां तो फौजी बूटों की कवायद हो रही थी। ग़ालिब 1857 के विप्लव के साक्षी थे। उनके पत्रों के संग्रह जो ग़ालिब अकादेमी ने छापे हैं में इस विप्लव का उल्लेख है।
" मुश्किलें इतनी पड़ी मुझ पर की आसां हो गयी। "
ग़ालिब का जीवन उनकी लेखनी की तरह से ही अबूझ और कई तरह से व्याख्यायित हो सकने वाला है। मैं उनके शेरो को पढ़ने और समझने की एक कोशिश कर रहा हूँ। जो समझ पाया वह आप सब से साझा कर रहा हूं।
( विजय शंकर सिंह )
#vss
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