Monday, 30 March 2020

क्या लॉक डाउन प्रबंधन एक गंभीर प्रशासनिक विफलता है ? / विजय शंकर सिंह

दिल्ली यूपी सीमा पर जब हज़ारो की भीड़ दिल्ली से निकल कर यूपी बिहार स्थित अपने गांव घर की ओर जाने के लिये 25 मार्च को उमड़ी तो लॉक डाउन या सोशल डिस्टेंसिंग का उद्देश्य ही विफल हो गया। लॉक डाउन का उद्देश्य ही यह था कि लोग अपने अपने घरों में 21 दिन तक बंद रहें ताकि कोविड 19 वायरस का जीवन चक्र टूट जाय और इसका प्रसार तथा प्रकोप बाधित हो जाय। सोशल मीडिया पर और अन्य मीडिया चैनलों पर जब यह अफरातफरी फैलने लगी तो सारी जिम्मेदारी दिल्ली के मुख्यमंत्री के ऊपर डाली जाने लगी। हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार ने भी बसों की व्यवस्था की पर जितने लोग सड़कों पर निकल आये थे, उतने लोगों के लिये बसे नहीं थी। लोग पैदल ही सड़कों पर चल रहे थे। सरकार को भी बाद में यह आभास हो गया कि प्रबंधन में एक बड़ी और गहरी चूक हो गयी है । फिर सरकार ने दिल्ली सरकार के दो सचिव स्तर के अधिकारियों को निलंबित किया और एक अपर मुख्य सचिव स्तर के अधिकारी का जवाब तलब किया। 

दंडात्मक कार्यवाही का उद्देश्य, भविष्य में फिर ऐसी भूल या गलती दुहराई न जाय, होता है, पर जो गलती हो चुकी है और उससे जो दुष्परिणाम सामने आएंगे वे तो आएंगे ही। बात केवल दिल्ली की ही नही है बल्कि हरियाणा, पंजाब, गुजरात, आंध्र, महाराष्ट्र, कर्नाटक यहां तक कि सुदूर केरल के औद्योगिक  क्षेत्रो से उत्तर प्रदेश और बिहार के कामगारों के पलायन की खबरे मिल रही हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि, सरकार ने या तो इस गंभीर आपदा और लॉक डाउन जन्य इस जटिल समस्या पर सोचा नहीं या अगर सोचा तो उसके प्रबंधन में कहीं न कहीं कमी रह गई। हालांकि अब सरकार सक्रिय हुयी है। इस पलायन को संभालने की कोशिश की जा रही है पर इससे कम्युनिटी स्प्रेडिंग का खतरा जो कोविड 19 का तीसरा चरण है अभी टला नहीं है। 

कहा जा रहा है कि, दिल्ली से सबसे अधिक पलायन हुआ। केजरीवाल सरकार पर आरोप है कि उसने अपने राज्य में रह रहे मजदूरों को नही रोका और सबको यूपी की सीमा में ठेल दिया। लगता है, कोई  तैयारी दिल्ली सरकार द्वारा की ही नही गयी। यह केंद राज्य या राज्य राज्य के बीच कोऑर्डिनेशन का अभाव है या, लॉक डाउन प्रबंधन में कमी, क्या कहा जाय। दिल्ली ने गलती की और केंद उस गलती को निहारता रहा। एक आधी अधूरी सरकार ने केंद्र के इस अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय का मज़ाक बना कर रख दिया और भारत सरकार कुछ नहीं कर पा रही है। अब तक देश मे कोरोना प्रकोप से मरने वालों की संख्या कम है और लॉक डाउन के कुप्रबंधन से मरने वालों की संख्या 22 हो गयी है। ये वे प्रवासी मज़दूर थे जो अपने काम की जगहों से वापस अपने अपने घरों को जा रहे थे। 

कल्पना कीजिये, दिल्ली की भीड़ अगर आनन्द विहार और यूपी बॉर्डर के बजाय लुटियन ज़ोन की ओर रुख करती तो क्या दिल्ली पुलिस उन्हें नहीं रोकती ? दिल्ली स्थित सभी केंद्रीय पुलिस बल की टुकड़ियां उन्हें रोकने में लग जाती और पूरी सरकारी मशीनरी अब तक व्यवस्था में जुट जाती । क्योंकि राजा और राजन्य की नींद में खलल पड़ने का भय था। लेकिन यह भीड़ सरकारों की नींद में खलल डालने की आदत छोड़ चुकी है इसलिए उधर जाएगी नहीं। उसे यह भी पता है कि समाधान उधर भी नहीं है। जव कोई समाधान नहीं रहता है तो हम अपने गांव घर की तरफ ही निकल पड़ते हैं। आज भारत की चर्चा दुनिया भर में जितनी कोरोना प्रकोप के कारण नहीं हो रही है उससे अधिक इस लॉक डाउन की बदइंतजामी के लिये हो रही है। 

अब यह एक राष्ट्रीय आपदा घोषित हो चुकी है और यह संकट जाति धर्म और राजनीतिक विचारधाराओं की सीमा तोड़ कर सर्वव्यापी हो चुका है। सरकार को चाहिए कि वह एक सर्वदलीय बैठक बुलाये और स्वास्थ्य, वित्त, वाणिज्य, आपदा प्रबंधन के विशेषज्ञों सहित अन्य जो इस संकट की घड़ी में कुछ समाधान सुझा सकते हैं की एक अधिकार सम्पन्न कमेटी बनाये और एक इस समस्या से निपटने के लिये तुरन्त ब्ल्यू प्रिंट तैयार कर उस पर काम करे। 

समाज के सबसे कमजोर वर्ग के सामने लॉकडाउन के चलते खाने की समस्या है और यह वर्ग अपनी पेट भरने की ज़रूरत से जूझ रहा है और आगे मुश्किलें और बढ़ने वाली हैं। लॉक डाउन से बने इन हालात पर सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की एक  रिपोर्ट के अनुसार, "कामगारों और दिल्ली में रह रहे प्रवासियों की इस वक़्त सबसे बड़ी समस्या भूख यानी खाने की कमी की है. दैनिक मजूदरों के पास दो-तीन दिनों से ज़्यादा राशन का पैसा हाथ में नहीं होता और 22 तारीख से लॉकडाउन शुरू हो गया था तो अब तक उनके पास खाने का पैसा ख़त्म हो गया होगा. वो खाना ढूंढने के लिए इधर से उधर जा रहे है। जैसे ही नाइट शेल्टर्स में खाना देने की घोषणा हुई तो लोग शेल्टर्स की तरफ बढ़ने लगे और शेल्टर्स में भीड़ बहुत बढ़ गई. शेल्टर में खाना सीमित होता है तो जो लोग शेल्टर में पहले से मौजूद हैं और जो बाद में आए उनमें झगड़ा भी हुआ। राशन की घर-घर डिलीवरी होगी इसकी घोषणा हुई थी लेकिन यह अभी शुरू नहीं हो पाया है। शेल्टर को कहा गया था कि वो खाना बनाएं फिर उनके खर्चे की भरपाई कर दी जाएगी। लेकिन, शेल्टर होम्स की इतनी क्षमता नहीं है कि वो अपने खर्चे पर इतना खिला पाएं. साथ ही खाने की समान की ठीक से आपूर्ति भी नहीं हो पा रही है. इससे उन लोगों के जीवन को भी ख़तरा है, जो लोग शेल्टर होम्स में काम करते हैं। शेल्टर्स होम्स में एक दिक्कत यह भी है, कि वहां लोगों की भीड़ इतनी बढ़ गई कि लॉकडाउन या सोशल डिस्टेंसिंग का मकसद ही ख़त्म हो गया। शेल्टर होम्स की संख्या भी कम है. जहां औद्योगिक कामगार रहते हैं वहां पर शेल्टर ज़्यादा नहीं हैं।"

क्या सरकार यह अनुमान नहीं लगा पायी कि, 21 दिन का लॉक डाउन कर देने से सारे कामकाज बंद हो जाएंगे ओर जो कामगार तथा दिहाड़ी मजदुर है उनका क्या होगा ? यह कैसे अपना पेट भरेंगे और कैसे जीवन यापन करेंगे । लॉक डाउन के निर्णय के पहले इस सबसे जटिल समस्या की तरफ सोचा भी गया था या इसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया था। खबर है कि उत्तराखंड सहित अन्य राज्य सरकारें अपने इलाके के कामगारों के लिये बस सेवा चलाना चाहते थे पर केंद्र की तरफ से कोई दिशा निर्देश ही नही मिला । देश की निजी विमानन कंपनियों स्पाइसजेट, इंडिगो और गोएयर ने भी प्रवासी कामगारों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए अपनी सेवाएं देने की पेशकश की। इंडिगो के सीईओ धनंजय दत्ता ने नागर विमानन मंत्री हरदीप सिंह पुरी को बताया,'देश में संकट की इस घड़ी में इंडिगो लोगों की जान बचाने में सहयोग करने के लिए पूरी तरह तैयार है। जब समस्या की विकरालता सामने आयी तो, गृह सचिव अजय कुमार भल्ला ने शुक्रवार को राज्यों के मुख्य सचिवों को भेजे पत्र में कहा,'मैं इस बात से वाकिफ हूं कि राज्य इस बारे में कई कदम उठा रहे हैं लेकिन असंगठित क्षेत्र के कामगारों खासकर प्रवासी मजदूरों में बेचैनी है। इस स्थिति पर तुरंत काम करने की जरूरत है। अब गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को आदेश जारी किया है. जिसके तहत राज्यो से कहा गया है कि मजदूरों के लिए राज्य आपदा राहत फंड जो लगभग 29 हज़ार करोड़ रुपये का है, से राहत शिविरों की व्यवस्था की जाए।"

कोरोना ने दुनियाभर में अपनी दस्तक दिसंबर में ही दे दी थी। वुहान से भयावह करने वाली खबरें आने लगी थीं। चीन ने वुहान को लॉक डाउन कर दिया  था। भारत मे केरल से पहला मामला मिला था 30 जनवरी को। वह मामला था विदेश से आये एक व्यक्ति का। केरल के बहुत से प्रवासी खाड़ी देशों सहित दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में रहते हैं। तब यह तय हो गया था कि अगर यह वायरस आता है तो इसका रास्ता एयरपोर्ट ही होगा। लेकिन सरकार ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया। अगर उसके बाद ही समस्त अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर सघन चेकिंग और आने वालों को 14 दिन के क्वारन्टीन में रखने की योजना बना कर उसका क्रियान्वयन कर लिया गया होता तो आज यह स्थिति नहीं होती। इसके साथ ही ऐसी आकस्मिकता से निपटने के लिये अस्पताल और ज़रूरी निजी सुरक्षा के उपकरण एन95 मास्क, सेनेटाइजर और वेंटिलेटर आदि की उपलब्धता की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए थी। पर न हवाई अड्डों पर सतर्कता बरती गयी और न ही अस्पतालों को दुरुस्त किया गया। अब कैबिनेट सचिव कह रहे हैं कि राज्य सरकारें सभी विदेश से आने वालों की जांच पहचान कर उन्हें अलगथलग करें, तो यह काम आसान नहीं है। सरकार का मुख्य काम है योजना और नीति बनाना। सरकार इस मामले में बुरी तरह से चूक गयी है। 

लॉक डाउन का यह निर्णय भी बिना किसी योजना के लागू किये गए, नोटबंदी और जीएसटी के निर्णयों की तरह ही अनेक प्रकार की बदइन्तजामियों से भरा पड़ा है। जैसे नोटबंदी और जीएसटी लागू करते समय सरकार यह अनुमान नहीं लगा पायी कि उसके अच्छे और बुरे परिणाम क्या होंगे, अगर कुछ बुरे परिणाम हुए तो उससे कैसे निपटा जाएगा। वैसे ही 21 दिनी लॉक आउट का निर्णय लेते हुए सरकार यह होम वर्क नहीं कर पायी कि, इस फैसले से, कौन कौन सी समस्याएं आ सकती हैं, उन समस्याओं के समाधान के लिये क्या क्या एक्शन प्लान है, कितना धन लगेगा, धन की व्यवस्था कहाँ से होगी, प्रशासन और पुलिस की क्या भूमिका होगी, कैसे यह लॉक डाउन दंगो और शांति व्यवस्था बिगड़ने की स्थितियों में लगाये गए धारा 144 सीआरपीसी के अंतर्गत कर्फ्यू से अलग है, आदि अनेक विंदु हैं जिस पर सोचा जाना चाहिए था, जो नहीं सोचा गया । अगर होम वर्क किया गया होता तो बहुत सी कठिनाइयां आती भी नहीं और अगर आतीं भीं तो उनका समाधान कर लिया जाता।प्रशासन का अर्थ केवल आदेश जारी करना ही नहीं होता है, बल्कि उसे इस तरह से लागू करना भी है, जिससे, जिसके हित के लिये यह आदेश दिया जा रहा है, उसे कोई दिक्कत न हो या हो भी तो, कम से कम हो। 

यह बात कि गरीब मज़दूरों के पलायन की समस्या भी आ सकती है, यकीन मानिए यह बात किसी के भी जेहन में नहीं आयी होगी। लेकिन यह ज़रूर नीति नियंताओ के जेहन में आ गया होगा कि इस तालाबंदी से कॉरपोरेट को कितना नुकसान होगा और कॉरपोरेट अपने लॉबी और इलेक्टोरल बांड की ताकत के भरोसे उस नुकसान की भरपाई की गुणा भाग में  लग भी गया होगा। यकीन न हो तो जब यह विपदा टले तो देख लीजिएगा, सरकार सबसे पहले और मोटी राहत का ऐलान उन्ही के लिये करेगी। कोई भी फैसला अच्छा बुरा नही होता है। अच्छा बुरा होता है उस फैसले का परिणाम क्या रहा। 

एक ट्वीट पर राजधानी एक्सप्रेस में दूध उपलब्ध करा कर अपनी पीठ थपथपाना और एक ट्वीट पर विदेशों में फंसे किसी को बुला लेना एक प्रशंसनीय कदम ज़रूर है पर अचानक लॉक डाउन करने के पहले, और वह भी महीने के अंत मे जब अधिकतर लोगों जेब खाली रहती है, उन  कामगारों के लिये कोई वैकल्पिक व्यवस्था न करना और उन्हें उन्ही के हाल पर छोड़ देना, यह न केवल निंदनीय कदम है बल्कि क्रूर और घोर लापरवाही भी है। चुनाव और कुम्भ मेले जैसे बड़े आयोजनों के दौरान तैयारियां की जाती हैं, और वे शानदार तरह से निपटते भी हैं। सरकार की प्रशंसा भी इस बात के लिये होती है। ऐसा भी नहीं कि प्रशासन सक्षम नहीं है, लेकिन सरकार चाहती क्या है उसे वह स्पष्ट बताये तो ? लॉक आउट निश्चित ही एक ज़रूरी कदम है पर, लोगो को कम से कम असुविधा हो यह भी कम ज़रुरी नहीं है। 

केंद्र और राज्यों में तालमेल का अभाव किसी भी योजना को ध्वस्त कर सकता है। दिल्ली सरकार ने केंद्र सरकार की सारी योजना बिगाड़ दी और केंद्र सरकार असहाय हो गयी। केंद्र और दिल्ली दोनों एक दूसरे को नहीं जानते हैं क्या ? कभी 300 लोग यूपी से आकर दिल्ली में एक सुनियोजित दंगा करा कर चले जाते हैं और पचास से अधिक लोग मारे जाते हैं करोड़ो की संपत्ति आग के हवाले हो जाती है, तो कभी केजरीवाल सारी फैक्ट्रियों के कामगारों को दिल्ली से निकाल कर यूपी सीमा पर छोड़ आते है और बेचारी सर्व शक्ति सम्पन्न केंद सरकार यह सब देखती रह जाती है। कितनी मासूमियत की बात है। आज तक न उन 300 यूपी से गये दंगाइयों का पता लगा, और न केंद्र यह पता लगा पायेगा कि केजरीवाल ने कैसे लॉक डाउन को विफल कर दिया। क्या इसे प्रशासनिक विफलता नहीं कहा जाना चाहिए ?

हाल की राजनीति में एक नयी परंपरा और नयी राजनीतिक शब्दावली का विकास हुआ है। जैसे जो प्रधानमंत्री की नीतियों का विरोध करता है वह देशद्रोही, जो गरीबो की बात करता है वह वामपंथी अराजक, जो सरकार के खिलाफ बोलता है वह देशतोड़क, जो धर्म के पाखंड की बात करता है वह तो पक्का धर्मद्रोही, आदि नयी शब्दावली ने देश के संघीय ढांचे, बहुदलीय व्यवस्था और बहुलतावादी राजनीतिक विचारधारा के परस्पर मान्य मतभेदों को शत्रु भाव मे बदल कर रख दिया है। यही कारण है केंद्र और राज्य में जहां अलग अलग दलों की सरकारें हैं उनके बीच न केवल वैमनस्य दिख रहा है बल्कि यह शत्रु भाव मे बदल रहा है। जिसे जहाँ मौका मिल रहा है वहीं एक दूसरे को रगड़ दे रहा है। इसलिए केंद्र राज्य में समन्वय की कमी हर बड़े फैसले में रहती है। जब तक यह परस्पर  अविश्वास बना रहेगा, एक भी योजना चाहे जैसी भी हो, जितनी भी उपयोगी हो सफल हो ही नहीं सकती है । 

कभी किसी राष्ट्रीय समस्या पर सर्वदलीय बैठक या औपचारिक अनौपचारिक भेंट मुलाकात प्रधानमंत्री द्वारा राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ हुयी है ? कभी किसी राष्ट्रीय मसले पर सभी दलों के नेता एक साथ सामने आए हैं ? कभी केंद्र ने अपने अत्यंत महत्वपूर्ण विधेयकों चाहे वह जम्मू कश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल 2019 हो, या कश्मीर में लंबे समय तक लॉक डाउन करने की बात हो, या एनआरसी, एनपीआर सीएए से उपजा व्यापक असंतोष हो, या अब यह कोरोना प्रकोप हो, के विषय पर केंद और राज्य के बीच कोई समन्वय बैठक हुयी है ? ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि भाजपा और अन्य दलों के बीच अब केवल वैचारिक मतभेद ही नहीं रहे, अब वह एक पट्टीदारी के झगड़े में बदल गये हैं। जब शत्रुता और वैमनस्य का भाव निजी स्तर पर संक्रमित हो जाता है तो ऐसी ही समस्याएं आएंगी कि सरकार और विपक्ष, जिसे जहां मौका मिलेगा एक दूसरे को नीचा दिखाने का अवसर नहीं छोड़ेंगे, बल्कि ऐसे अवसर गढ़े भी जाएंगे। इन सब रस्साकशी में सबसे पीड़ित और ठगे जाएंगे, हम भारत के लोग। 

लॉक डाउन के बाद, 1.70 हज़ार करोड़ रूपये का कोरोना महामारी से निपटने के लिये सरकार ने ज़ारी किया है । गरीबों के लिये कई योजनाओं और उनके खाते में सहायता राशि सीधे जमा करने के लिये वित्तमंत्री ने घोषणा की है। यह एक अच्छा कदम है। इसकी सफलता इसके सुगम क्रियान्वयन पर है।  राहत धन डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर, यानी सीधे प्राप्तकर्ता के बैंक खाते में जायेगा, यह एक अच्छी बात है। इससे 80 करोड़ ग़रीब, भूखे लोगों को 10 किलो अनाज और नकद सहायता दी जाएगी । यह न युद्ध है न साम्प्रदायिक दंगे, न कोई स्थानीय दैवी आपदा, जैसे बाढ़, भूकम्प या भयावह आग कि जिसका प्रबंधन एक ही स्थान पर केंद्रित हो बल्कि यह एक ऐसी आपदा है जो घर घर मे घुस कर पीड़ित कर देने की क्षमता रखती है। इसके सटीक प्रबंधन की योजना बनानी पड़ेगी। सरकार को सभी अनावश्यक और अनुपयोगी खर्चे रोक देने चाहिए। संसद के विस्तार के लिये 20 हजार करोड़ की योजना तुरन्त स्थगित कर दी जानी चाहिए। सभी निजी अस्पतालों को कोविड 19 के मरीजों के इलाज और टेस्ट के लिए तैयार रहने हेतु सख्ती से हिदायत दे देनी चाहिए और अगर वे आनाकानी करें तो जब तक स्थिति सामान्य नहीं हो जाती तब तक के लिये उनका अधिग्रहण कर लेना चाहिए। 

असल समस्या, धन नहीं बल्कि ऐसे आफत विपत में कैसे इसे संभाला जाय, यह है। धन की व्यवस्था तो हो जाएगी । पर धन रहते हुए भी चीजें कैसे पटरी पर आये यह अक्सर समस्या से विचलित मन सोच भी नहीं पाता है। सर्वदलीय और विशेषज्ञों की कमेटी और एक योजना बनाने की बात मैं इसी लिये कह रहा हूँ। एनडीआरएफ, औऱ एसडीआरएफ जैसे आपदा से निपटने के संगठन देश मे हैं और इनसे निपटने के लिये सरकार के पास शक्तियों की कमी नहीं है। और अगर अधिकारों की कमी है भी तो अध्यादेश केंद्र और राज्य सरकार पारित कर नए कानून बना भी सकती है। देर तो हो ही चुकी है पर यह सब केंद्रीय स्तर पर राज्यों से तालमेल कर के तुरन्त शुरू करना होगा अन्यथा जैसा कि कोरोना के स्टेज 3 यानी कम्यूनिटी स्प्रेडिंग की बात चिकित्सा विशेषज्ञ बता रहे है तब यह सब करना भी कठिन हो जाएगी।

बडी आपदाओं के समय सर्वदलीय मीटिंग की परंपराएं रही है । विरोध और समर्थन के शोर के बीच सरकार और विपक्ष में आपसी संवादहीनता की स्थिति जैसी है वैसी पहले कभी नहीं रही है। जबकि सरकारें 1977 के बाद से लगातार बदलती रही हैं। यह एक घातक सोच विकसित हो रही है कि, जो सरकार या प्रधानमंत्री के विरोध में बोलता है वह देशद्रोही है। यह एक अलोकतांत्रिक मानसिकता है। यह 2014 के बाद का एक निंदनीय बदलाव है। ज़रूरत है ऐसे सर्वदलीय और विशेषज्ञों के कमेटी कि जो न केवल अनुभव, ज्ञान और दृष्टि से समृद्ध हो बल्कि उनमे एक पेशेवर इच्छा शक्ति भी हो। केवल लफ़्फ़ाज़ी और हवाबाजी कि सब एकजुट रहे, राष्ट्र को बचाना है, जैसे जुमले काम नही आएंगे। 

( विजय शंकर सिंह )

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