Monday, 23 March 2020

क्या व्यापक कोरोना प्रकोप को हमारी स्वास्थ्य सेवाएं झेल पाएंगी ? / विजय शंकर सिंह

22 मार्च को प्रधानमंत्री की अपील पर पूरा देश बंद रहा और शाम को लोगो ने घँटे शंख थाली आदि बजाकर स्वास्थ्य विभाग के डॉक्टरों औऱ अन्य स्वास्थ्य कर्मियों का मनोबल बढ़ाया। आज पूरा देश एक वायरस के आतंक से जूझ रहा है। चीन के वुहान शहर से शुरू हुआ मौत और दहशत का यह घातक वायरस अब धीरे धीरे पूरी दुनिया मे फैल गया है। भारत मे सबसे पहला मामला 30 जनवरी को केरल में सामने आया और अब तक लगभग 450 मामले सामने आ चुके हैं। 4 लोग इस वायरस के कारण मर चुके हैं। यह वायरस अपने प्रकोप के दूसरे चरण को पार कर के तीसरे चरण जिसे कम्युनिटी स्प्रेडिंग चरण कहते हैं में न पहुंच जाय इसी लिए 22 मार्च का एक दिन लॉक डाउन रखा गया था, पर शाम को जब घन्टे और थाली बज रही थी तो यह लॉक डाउन टूट गया और लोग उत्साह में सड़कों पर आ गए। सरकार ने जिस उद्देश्य से इस बंदी की अपील की थी, वह कुछ तो मूर्खता के अतिरेक और कुछ चाटुकारिता भरे उत्साह के कारण विफल हो गयी । इस प्रकोप से बचने का एक बड़ा उपाय सामाजिक दूरी है और दुनियाभर के देश इसी निरोधात्मक उपाय को अपना रहे हैं तो हमने भी देर से ही सही, इस उपाय को अपनाते हुए पूर्ण बंदी को स्वीकार कर लिया। राजस्थान, दिल्ली, पंजाब पूरा बंद है, उत्तर प्रदेश के कई शहर बंद हैं। बस आवश्यक सेवाओं को इनसे मुक्त रखा गया है। अब लगभग हर जगह लॉक डाउन है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन को 31 दिसंबर को इस महामारी के संकेत मिले और 30 जनवरी को भारत मे पहला मामला मिला। इसे अंतरराष्ट्रीय चिन्ता वाली विश्व स्वास्थ्य इमरजेंसी घोषित कर दिया गया। 2 फ़रवरी को सरकार का बयान आता है कि सरकार इसकी निगरानी कर रही है। लेकिन विदेशों से आने वाले लोगों की जांच और उन्हें अलगथलग रखने की कोई प्रक्रिया तब तक नहीं शुरू की गयी। 24 और 25 फरवरी को इसी आपात स्थिति में अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा निपटता है। इटली और दक्षिण कोरिया में जहां यह महामारी भीषण रूप ले चुकी है के लोगों के भी आने पर कोई रोक नहीं लगायी और न ही सघन टेस्टिंग आदि की कार्यवाही की गयी। 11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे वैश्विक महामारी घोषित किया।  प्रधानमंत्री द्वारा 22 मार्च को एकदिनी जनता कर्फ्यू की घोषणा की गई और 22 मार्च को जो कर्फ्यू जैसी स्थिति बनी वह शाम तक तमाशा बन गयी। 

19 मार्च को लोग महानगरों से अपने गाँव क़स्बों को भागे और उन्हें जहां वे हैं वही रोके रखने या कम से कम उनकी गतिविधि हो इसे भी चेक करने की कोई योजना नहीं बनी। 22 मार्च को जनता कर्फ्यू लगता है और उसके बाद अधिकतर शहरों में लॉक डाउन हो जाता है। अब तक, 23 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 419 भारतीय और 41 विदेशियों में कोविड - 19 के मामले पाए गए हैं। 23 लोग ठीक हो गए हैं। एक व्यक्ति बाहर चला गया है और सात मौतें हो चुकी हैं। 22 मार्च से सरकार ने सभी अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर प्रतिबंध लगा दिया है। सभी गैर आवश्यक यात्री परिवहन रोक दिया गया है।

भारत मे डॉक्टरों और अन्य मेडिकल स्टाफ के समक्ष सबसे बडी समस्या यह है बचाव उपकरणों जैसे मास्क, सैनिटाइजर, आदि के साथ साथ कोरोना टेस्टिंग लैब, किट, अस्पतालों में बिस्तर और गंभीर रोगियों के लिये आईसीयू और वेंटिलेटर की पर्याप्त कमी है। पीपीई, ( पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्यूपमेंट,) उपकरण बनाने वालों के सामने यह भी एक समस्या है कि वह किस मानक से यह उपकरण बनाएं और कितना बनाएं। फरवरी में ही इन उपकरणों के निर्माताओं ने स्वास्थ्य मंत्रालय को इनका मानक आदि तय कर, निर्देश देने का अनुरोध किया था, पर अब तक स्वास्थ्य विभाग उस पर चुप्पी साधे रहा है। गुणवत्ता मानक के अभाव में यह उपकरण कैसे बनेंगे, यह भी उपकरण निर्माताओं के समक्ष एक समस्या है । सबसे पहले तीन कोरोना वायरस के मामले केरल में आये लेकिन केरल की स्वास्थ्य व्यवस्था अपेक्षाकृत बेहतर होने के कारण उन्होंने इसे संभाल लिया। लेकिन पहले मामले के सामने आने के बाद भी जो सतर्कता सरकारों से अपेक्षित थी वह नहीं हो पायी। 

सुरक्षात्मक उपकरणों की सबसे पहली आवश्यकता डॉक्टरों और अन्य मेडिकल स्टाफ को होती है। उन्हें तो इन मरीजों के बीच रहना ही है और अगर वे सुरक्षित रहेंगे तभी इस महामारी को नियंत्रित किया जा सकेगा। कई जगहों से मेडिकल स्टाफ के भी संक्रमित होने की खबरें आ रही हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के इमरजेंसी रिस्पॉन्स डिवीजन के सीएमओ डॉ यूबी दास ने मास्क के लिये बताया कि अभी टेक्सटाइल मंत्रालय यह तय नहीं कर पा रहा था, कि इबोला के समय जो मास्क बना था उसी स्तर का मास्क चाहिए या कोई और। अब यह तय हुआ है कि कोरोना के लिये इबोला से कम टेस्ट होते हैं अतः अलग मास्क चाहिए। अतः यूरोपीय यूनियन के मानक के अनुसार अब यह तय हुआ है कि मास्क बनाया जाएगा। 18 मार्च की मीटिंग में यह मानक तय हुआ। स्वास्थ्य मंत्रालय को कुल 7.25 लाख बॉडी कवर, 60 लाख एन 95 मास्क, और 1 करोड़ तीन पर्तो वाले मास्क की ज़रूरत है। इन सबकी मांगे पूरी करने के लिये वस्त्र मंत्रालय ने राज्य सरकारों की टेक्सटाइल मिलों को भी कहा है। इन ज़रूरतों को लेकर, वस्त्र मंत्रालय और स्वास्थ्य मंत्रालय में अलग ही विवाद है और इसी कारण से यह उपकरण बनाने वाली कम्पनियों के संगठन के एक पदाधिकारी राजीव नाथ ने कहा है कि यह जिम्मेदारी स्वास्थ्य विभाग की है उसे मानक तय करके निर्माणकर्ताओं को देना है। इसी लिये बाजार में मास्क और अन्य प्रोटेक्टिव उपकरणों की कमी हो गयी हैं और वे महंगे दामों पर बिक रहे हैं। जमाखोरी की समस्या तो अलग है ही। 

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में भारत, बांग्लादेश, चीन, भूटान और श्रीलंका समेत अपने कई पड़ोसी देशों से भी पीछे है। स्वास्थ्य सेवाओं पर, शोध करने वाली  एजेंसी 'लैंसेट' ने अपने 'ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज' नामक अध्ययन में एक खुलासा किया है, जिसके अनुसार भारत स्वास्थ्य देखभाल, गुणवत्ता व पहुंच के मामले में 195 देशों की सूची में 145 वें स्थान पर है। विडंबना है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार नहीं हो सका है। यह किसी सरकार की प्राथमिकता में है भी या  नही ? सरकारी अस्पतालों का तो और भी बुरा हाल है। ऐसे हालात में निजी अस्पतालों का बढ़ना स्वास्थ्य सेवाओं का एक प्रकार से बाज़ारीकरण ही है। 2017 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान बताया था कि भारत में 8.18 लाख डॉक्टर हैं जो सक्रिय सेवाओं के लिए उपलब्ध हैं। 1.33 अरब जनसँख्या के साथ यह 0.62 डॉक्टर प्रति 1000 आबादी का अनुपात बनता है।

भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का सबसे कम खर्च करने वाले देशों में आता है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, भारत स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का महज 1.3 प्रतिशत खर्च करता है, जबकि ब्राजील स्वास्थ्य सेवा पर लगभग 8.3 प्रतिशत, रूस 7.1 प्रतिशत और दक्षिण अफ्रीका लगभग 8.8 प्रतिशत खर्च करता है। दक्षेस देशों में अफगानिस्तान 8.2 प्रतिशत, मालदीव 13.7 प्रतिशत और नेपाल 5.8 प्रतिशत खर्च करता है। भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने पड़ोसी देशों चीन, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी कम खर्च करता है।
 
2015-16 और 2016-17 के वार्षिक बजट में स्वास्थ्य बजट के मद में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, लेकिन मंत्रालय से जारी बजट में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के हिस्से में पहले की अपेक्षा गिरावट आई और यह मात्र 48 प्रतिशत रहा। परिवार नियोजन में 2013-14 और 2016-17 में स्वास्थ्य मंत्रालय के कुल बजट का 2 प्रतिशत रहा। सरकार की इसी उदासीनता का फायदा निजी चिकित्सा संस्थान उठा रहे हैं। देश में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर जहां प्रति 1,000 आबादी पर 1 डॉक्टर होना चाहिए, वहां भारत में 7,000 की आबादी पर मात्र 1 डॉक्टर है। इसके अतिरिक्त, ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों द्वारा काम पर न जाने की उदासीनता भी एक बड़ी समस्या है।

भारत में बड़ी तेज गति से स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में निजी अस्पतालों की संख्या 8 प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 93 प्रतिशत हो गई है, वहीं स्वास्थ्य सेवाओं में निजी निवेश 75 प्रतिशत तक बढ़ गया है। इन निजी अस्पतालों का एक लक्ष्य मुनाफा बटोरना भी है। उच्च आय वर्ग और मध्यम आय वर्ग के लोगों जिनके पास मेडिक्लेम जैसी तरह तरह की सुविधाओं वाली बीमा पॉलिसी होती हैं उन्हें तो बहुत राहत है पर ग्रामीण क्षेत्र और कम आय वर्ग के नागरिकों के लिये ये निजी अस्पताल तो उन्हें उजाड़ ही देते हैं। महंगे चिकित्सक, महंगी जांचे और महंगी दवाइयां इन निजी अस्पतालों को कमज़ोर और गरीब तबके के लिये उपलब्ध ही नहीं हो पाते और सरकार, सरकारी अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र के प्रति उदासीन दृष्टिकोण अपनाए हुए हैं। 

यह समझ से परे है कि भारत जैसे देश में जहां आज भी आर्थिक पिछड़ेपन के लोग शिकार हैं, वहां चिकित्सा एवं स्वास्थ्य जैसी सेवाओं को निजी हाथों में सौंपना कितना उचित है? एक अध्ययन के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं के महंगे खर्च के कारण भारत में प्रतिवर्ष 4 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। रिसर्च एजेंसी 'अर्न्स्ट एंड यंग' द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 80 फीसदी शहरी और करीब 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर देते हैं।
 
भारत में बीमारी के इस बोझ का महत्वपूर्ण कारण अनियंत्रित शहरीकरण, साफ पानी का अभाव, साफ-सफाई, खाद्य असुरक्षा, पर्यावरण क्षरण और व्यापक जाति व्यवस्था जैसे सामाजिक निर्धारक हैं। भारत के मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था के सुधार मे, कमज़ोर प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली, कुशल मानव संसाधन की कमी, निजी क्षेत्र के बेहतर विनियमन, स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च में वृद्धि, स्वास्थ्य सूचना प्रणाली में सुधार और जवाबदेही के मुद्दे बड़ी चुनौतियां हैं। 

भारत का कमज़ोर स्वास्थ्य सेवाओं का इंफ्रास्ट्रक्चर क्या इस महामारी के तीसरे या चौथे चरण का सामना करने के लिये सक्षम है ? इसका सीधा उत्तर होगा, नहीं। हमारी पूरी कोशिश होनी चाहिए कि हम इसे तीसरे चरण जिसे कम्यूनिटी स्प्रेडिंग या सामाजिक विस्तार का स्तर है वहां तक पहुंचने ही न दें। शहरों को लॉक डाउन करने के निर्णय के पीछे यही उद्देश्य है। अभी तक राहत की बात यही है कि सवा अरब की आबादी में कोरोना पीड़ित मरीजों की संख्या बहुत ही कम है। हालांकि सरकार ने एयरपोर्ट और अन्य स्थानों पर चेकिंग की व्यवस्था की है पर हमारे पास टेस्ट लैब और टेस्ट किट की उतनी व्यापक व्यवस्था नहीं है जितनी होनी चाहिए। आईसीएमआर ने चिंता जताई है कि कहीं हम वास्तविक संख्या से कम संख्या, पीड़ितों की तो, नहीं दिखा रहे हैं ? अगर ऐसा होगा तो यह स्थिति भयावह हो सकती है। इसलिए अभी इस संभावना को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि हम  कम्यूनिटी स्प्रेडिंग के चरण से बच गए हैं। खतरा अभी टला नहीं है। 

अभी जो टेस्ट की सुविधा या स्क्रीनिंग की प्रक्रिया है, वह एयरपोर्ट या बाहर से आने वालों और उनके सम्पर्क में आये लोगों की जांच और उन्हें तालेबंदी में रहने तक सीमित है। पर ऐसे लोग जो  बिना चेक किये या बिना लक्षण के ही बाहर से आकर घूमफिर रहे हैं, इस महामारी के लिये अधिक घातक हैं। इसपर आईसीएमआर ने कहा है कि, अभी तक कम्युनिटी प्रसार की संभावना नहीं मिली है पर जब उसके संकेत मिलने लगेंगे तो टेस्टिंग रणनीति बदली जाएगी। अभी की रणनीति यही है कि सभी बाहर से आने वालों को 14 दिन के लिये अलग रखा जाय। उनक़ी पांचवे और 14 वे दिन जांच की जाय और सभी मेडिकल स्टाफ को भी नियमित निगरानी और जांच में रखा जाय। विश्व स्वास्थ्य संगठन ( डब्ल्यूएचओ ) ने कहा है कि टेस्ट, ट्रीट औऱ ट्रेस यानी जांच करो, इलाज करो, और खोजो की तकनीक पर काम करना होगा तभी इस महामारी पर नियंत्रण पाया जा सकता है। पर भारत मे अभी इन पर उतनी गंभीरता से काम नहीं हो रहा है, जितनी गंभीरता से होना चाहिए। 

दुनियाभर में इस महामारी को लेकर भयाकुल सन्नाटा पसरा है। दुनियाभर में जो हो रहा है उसे देखें।
श्रीलंका में कर्फ्यू लग गया है। 15 अप्रैल को होने वाले संसदीय चुनाव को टाल दिया गया है। ब्रिटेन ने घोषणा की है कि जितने भी ब्रिटिश वर्कर हैं उनकी अस्सी फीसदी सैलरी सरकार देगी। यानि 2500 पाउन्ड प्रति माह। यहां की सात लाख छोटी कंपनियों को 10,000 पाउन्ड की नगद मदद दी जाएगी। 
अमरीका ने हर नागरिक को 1000 डॉलर देने और 104 बिलियन डॉलर के पैकेज की घोषणा की है।  सैंपल टेस्ट, मुफ्त और बिना बीमा के टेस्ट की सुविधा भी है। 
जर्मनी ने एक अरब यूरो के कर्ज पैकेज का एलान किया है।  करों में भी छूट दी जा रही है। कोरोना वायरस के टीका के लिए 145 मिलियन यूरो की घोषणा की गयी है।
बावेरिया प्रांत ने 10 बिलियन यूरो का एलान किया है। 
स्पेन ने 200 अरब यूरो का पैकेज और सामाजिक सेवाओं में 600 मिलियन देने की बात की है। 
पुर्तगाल में 18 मार्च से ही आपातकाल है और वहां की सरकार जीडीपी के चार प्रतिशत के बराबर यानि 10 बिलियन यूरो का पैकेज देगी। 
कनाडा में 83 बिलियन डालर के पैकेज का एलान किया गया है। इसमें से 55 बिलियन डॉलर टैक्स छूट के रूप में दिए जाएंगे। टैक्स भुगतान की समय सीमा में छूट देकर यह राहत दी गई

भारत मे भी सरकार ने अनेक राहतों का एलान किया है। लेकिन हमारे यहां उन विकसित देशों की तरह संसाधनों का अभाव है। अब जब आग लग गई है तो रातोंरात न तो कुंवा खोदा जा सकता है और न ही कोई अधिक व्यवस्था की जा सकती है। ऐसी स्थिति में तुरन्त अस्पतालों में बिस्तर बढ़ जांय, टेस्टिंग लैब और टेस्टिंग किट उपलब्ध हो जांय, वेंटिलेटर उपलब्ध हो जांय यह भी सम्भव नहीं है। जब सारी गतिविधियां ठप हैं तो सरकार के राजस्व में और कमी आएगी जो पहले से ही कम करसंग्रह से पीड़ित है। सरकार धन और संसाधनों के लिये निजी क्षेत्रों पर दबाव डाले और अगर वे राजी न हों तो राष्ट्रीयकरण करने पर भी विचार करे जिससे व्यापक इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध हो सके। यूरोपीय पूंजीवादी देश और अमेरिका ने भी इस भयावह आपदा में यह विकल्प सोचा है। हर नागरिक की अपेक्षा अपने सरकार से होती है कि वह अपने नागरिकों को सुलभ और सुगम स्वास्थ्य सुविधाएं दे। यह आपदा सरकार के लिये परीक्षा की घड़ी भी है कि कैसे वह अपने नागरिकों की न्यूनतम स्वास्थ्य हानि के साथ इस महाविपत्ति से पार पाती है। 

( विजय शंकर सिंह )

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