Saturday, 21 March 2020

कोरोना प्रकोप के इस आफत में हमारा निजी क्षेत्र कहाँ है ? / विजय शंकर सिंह

टाटा स्टील का एक विज्ञापन पहले आता था, जिसमे एक भव्य स्कूल, शहर, हंसते खेलते बच्चे और स्वस्थ सुखी परिवार दिखता था और फिर अंत मे लिखा रहता था, हम स्टील भी बनाते हैं। इस विज्ञापन का अर्थ यह था कि भले ही हमारी कम्पनी स्टील बनाती हो पर हम उससे पहले समाज और अपने कामगारों के हित की बात पहले करते हैं। इधर बहुत दिनों से वह विज्ञापन दिखा नही। टाटा देश का अग्रणी औद्योगिक घराना रहा है और उद्योगपतियों की जमात में प्रगतिशील और बेहतर सोच वाला माना जाता है। अब उसकी प्रथम बीस घरानों में नीचे आ गयी है। हालांकि यह कोई खास बात नहीं है, लक्ष्मी चंचला होती हैं। व्यापारियों और धनाढ्य लोगों द्वारा धर्मादा और समाजसेवा के लिये पहले भी बहुत कार्य किये जाते रहे हैं। परोपकार करना, एक धार्मिक और स्वर्गाकांक्षी भाव भी हमारे यहाँ माना जाता है। टाटा के अतिरिक्त बिरला, डालमिया, जयपुरिया, बांगड़ आदि व्यावसायिक घरानों ने मंदिर, अस्पताल आदि बनवाये हैं। लेकिन यह पुरानी बात है। 

2014 में कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के नाम से एक कानून लाया गया जिसमें कॉरपोरेट को यह बाध्य किया गया कि वह अपने लाभ का 2 % का धन सीएसआर के रूप में सामाजिक और जनहित के कार्यों में लगाये। 

लेकिन यह प्रवित्ति इधर कम हो गयी है। बडे बडे औद्योगिक घरानों की संख्या तो बढ़ी पर उनके द्वारा किये जा रहे सार्वजनिक और लोककल्याण के कार्य कम ही दिखते हैं। जो हैं भी वे भी एक लाभदायक कॉरपोरेट संस्थान की ही तरह हैं। यह कानून बड़ी कंपनियों पर लागू किया गया है और सरकार ने यह भी कंपनियों की ही मर्ज़ी पर छोड़ा है कि वे जैसे चाहें जनहित के कार्य करें। इसकी योजनाएं वह स्वय बनाएं और खुद ही लागू करें। हालांकि सरकार ने कुछ क्षेत्रों को चिह्नित भी कर दिया है कि ये योजनाएं उन्ही क्षेत्रों में लागू की जाय जहां जनता को बहुत अधिक ज़रूरत है। जैसे, भुखमरी उन्मूलन, गरीबी, बच्चो के स्वास्थ्य, लैंगिक अनुपात ठीक रखने वाली परिवार कल्याण योजनाएं, पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी से जुड़ी समस्याएं आदि। कम्पनियों को यह भी कहा गया कि वे जहां पर स्थित हैं उसी क्षेत्र के लोगों के कल्याण की योजनाओं में यह धन लगाएं। साथ ही अगर कोई कंपनी अपनी खुद की सीएसआर की योजनाएं नहीं चला पाती है तो वह सरकार की सामाजिक आर्थिक जनकल्याण की योजनाओं में अपने सीएसआर का धन दे दे। यह कानून 2014 से लागू है और इसके नियम भी बन चुके हैं, पर इसके व्यय का सारा दायित्व कॉरपोरेट पर ही है। सभी पूंजीपतियों को सस्ती दर पर ज़मीन, कर राहत, तथा अन्य सुविधाएं सरकार पहले से ही देती रही हैं और अब भी दे रही हैं। इसके पीछे सरकार की यह मंशा होती है कि उद्योग बढ़ेंगे तो इससे लोगों को रोजगार मिलेगा और विकास होगा। ऐसा होता भी है। 

सीएसआर के धन के उपयोग के लिये बड़े बड़े कॉरपोरेट ने अपने अपने निजी एनजीओ बना रखे हैं और उन्ही के द्वारा वे जनहित के कार्य करते हैं। अब वे एनजीओ क्या करते हैं कैसे करते हैं इसकी ऑडिट भी होती है। सभी कॉरपोरेट के पास अपने अपने हॉस्पिटल, और यूनिवर्सिटी भी हैं। लेकिन इनका भी उद्देश्य कोई चिकित्सा लाभ या शिक्षा जनता को देना नहीं है बल्कि इससे भी मुनाफा कमाना ही है। कॉरपोरेट की हर योजना में मुनाफा सबसे पहला और अनिवार्य अवयव होता है। सरकार का कोई नियंत्रण या भूमिका इन मामलों में सिवाय  आंकड़े एकत्र कर कॉरपोरेट के किसी आयोजन में उपस्थित हो धन्यवाद और प्रशस्ति गान करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है। सोशल दायित्व का यह लाभ समाज के किस तबके तक पहुंच रहा है इसका भी कोई आकलन सरकार करती भी है या नहीं यह स्पष्ट नहीं है। 

सरकार को चाहिए कि सीएसआर के अंतर्गत जो धन इन कम्पनियों के पास हो उसे कोरोना महामारी के निपटने के लिये उनसे ले ले और अगर वे न दें तो ज़ब्त कर लें। उससे चिकित्सा तथा अन्य टेस्ट लैब की जो सुविधाएं वह दे सकती हैं जनता को दे। सीएसआर का दुरुपयोग भी कम नहीं होता है और यह पैसा  घूमफिर कर पुनः इन्हीं पूंजीपतियों के पास चला भी जाता है। यह एक अच्छा खासा घोटाला है। यह भी चर्चा है कि यह धन समाज कल्याण के मुखौटे के रूप में बनायी गई कुछ एनजीओ द्वारा राजनीतिक दलों के पास उनके चुनावी फंड के रूप में वापस चला जाता है। इस पूरे घोटाले में सरकार, राजनीतिक दल, और कॉरपोरेट पूंजीपतियों की सांठगांठ रहती है। यही अपवित्र गठजोड़, गिरोहबंद पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज़्म कहलाता है। फिलहाल तो यही प्राथमिकता है कि,  सरकार सीएसआर  की रकम का उपयोग सरकारी अस्पताल, पीएचसी, आदि को मजबूत बनाने में करे न कि कॉरपोरेट के निजी क्षेत्रों के एनजीओ के द्वारा दिखावटी समाजसेवा के लिये। स्वास्थ्य का इंफ्रास्ट्रक्चर इससे कुछ तो सुधरेगा ।

अब जरा सरकार के आंकड़ों पर नज़र डालते हैं। भारत सरकार ने कुल जीडीपी का मात्र 1.03 % ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करने का प्रावधान बजट में किया है, जो सवा अरब की आबादी वाले देश के लिए बेहद कम है। ग्लोबल हैल्थ सिक्योरिटी इंडेक्स 2019 के अनुसार गंभीर संक्रामक रोगों और महामारी से लड़ने की क्षमता के पैमाने पर भारत विश्व में 57वें नम्बर पर आता है। नेशनल हैल्थ प्रोफाइल 2019 के अनुसार भारत में केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों द्वारा संचालित लभभग 26,000 सरकारी अस्पताल हैं। सरकारी अस्पतालों में पंजीकृत नर्सों और दाइयों की संख्या लगभग 20.5 लाख है। कुल मरीजों के लिए बिस्तरों की संख्या 7.13 लाख के करीब है। अब यदि देश की सवा अरब की आबादी को सरकारी अस्पतालों की कुल संख्या से भाग दिया जाए तो प्रत्येक एक लाख की आबादी पर मात्र 2 अस्पताल मौजूद हैं। प्रति 610 व्यक्तियों पर मात्र 1 नर्स उपलब्ध है. प्रति  10,000 लोगों के लिए मुश्किल से 6 बिस्तर उपलब्ध हैं। सरकारी अस्पतालों में जरूरी दवाओं और चिकित्सकों की भारी कमी है। चिकित्सा जांच के लिए आवश्यक उपकरण या तो उपलब्ध ही नहीं है, और यदि उपलब्ध भी हैं तो तकनीकी खराबी के कारण बेकार पड़े रहते हैं। ग्रामीण इलाकों में तो स्वास्थ्य सेवाएं और भी मुश्किल हालात में हैं। निजी अस्पताल, जहाँ चिकित्सकों की कमी नहीं है, आधुनिकतम चिकित्सा उपकरण उपलब्ध हैं और स्वच्छता के उच्चतम मानदंडों का पालन किया जाता है, वे अपनी आसमान छूती महँगी चिकित्सा सुविधाओं के कारण इस देश की अधिसंख्य गरीब निम्नवर्गीय आबादी की पहुँच से बाहर हैं। सरकारी अस्पतालों एवं स्वास्थ्य सेवाओं में आमजन का भरोसा बहुत कम है। 

हमने विकास के अर्थ के रूप में चार लेन या आठ लेन के एक्सप्रेस वे, बडी बडी टाउनशिप, गगनचुंबी इमारतों और महंगे निजी अस्पतालों और चमक दमक भरी निजी यूनिवर्सिटी का होना ही समझ लिया है। यह विकास के मापदंड तो है पर क्या सवा अरब की आबादी वाले देश मे जो विश्व हंगर इंडेक्स में 102 स्थान पर हो, बेरोजगारी और विपन्नता में लगातार 'प्रगति' कर रहा हो की अधिकांश जनता को विकास का यह मॉडल लाभ पहुंचा रहा है ? बिल्कुल नही। देश की आर्थिक और सामाजिक संरचना दो भागों में बंटती जा रही है। एक वे जिनके पास बहुत कुछ है तो दूसरे वे जिनके पास कुछ भी नही है या है भी तो बहुत कम है। अमीर औऱ गरीब का यह बढ़ता अंतर देश के विकास की एक अजीब तस्वीर पेश कर रहा है। विकास का पैमाना है देश की आबादी के कितने हिस्से को रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य की सुलभ और सुगम सुविधाएं मिल चुकी हैं और कितनो को अभी इन सुविधाओं का मिलना शेष है। हर बजट के समय इन सब पैरामीटर पर सरकार को समीक्षा करनी चाहिए और अधिकतम जनता को यह लाभ पहुंचाना चाहिए। पर हम बुलेट ट्रेन, स्मार्ट सिटी, अत्याधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न नगर को ही विकास समझने की भूल कर बैठते हैं। 

अभी कुछ दिनों पहले यह खबर आई थी कि सरकार सरकारी अस्पतालों को निजी क्षेत्रों में देने जा रही है। यह बहुत आसान है और कॉरपोरेट तथा हेल्थकेयर की बड़ी बड़ी कंपनियां खुशी खुशी अस्पताल ले भी लेंगी। पर क्या वे इससे मुनाफा नहीं कमाएंगी ? जब मुनाफे को केंद्र में रख कर वे अस्पताल का विकास करेंगी तो फिर उस जनता को चिकित्सा का लाभ कैसे वे दे पाएंगी जो मुश्किल से अपना गुजर बसर कर रही है ? समस्या हम जैसो की नही है जो आर्थिक, सामाजिक रूप से थोड़े बेहतर हैं, समस्या उनकी है जो सरकारी अस्पतालों की ओपीडी में सुबह से लाइन लगाए खड़े रहते हैं और एक सामान्य से टेस्ट के लिये भी दिनभर दौड़ते भागते रहते हैं। अगर राज्य के उद्देश्य में जनकल्याण का एजेंडा नहीं है तो फिर यह लोककल्याणकारी राज्य कैसा ? और अगर लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा केवल एक नारा है तो यह लोकतंत्र कैसा ? 

हमने विकास के जिस मॉडल को अंगीकार किया है उसमें कॉरपोरेट एक देवलोक सरीखा है। उद्योगपति देवता हैं, जो स्वर्ग में रहते हैं, अनेक घोड़ो से खींचे जाने वाले रथों पर चलते है, और सरकार को अपनी जेब मे रखते हैं।  सरकार की हर प्राथमिकता, चाहे वह बजट हो, या कर राहत, या कोई भी अन्य सुविधा, इन सब पर पहला हक़ सरकार की नज़र में कॉरपोरेट का ही है । यह एक अलिखित संविधान की परंपरा की तरह है। बस वोट लेने के लिये अंत्योदय और एकात्म मानववाद जैसे यूटोपियन शब्द गढ़ लिए गए हैं। मूर्ख बनाने के लिये नियतिवाद और समय का कालचक्र जैसी धारणाएं हैं । दूसरी तरफ, धन के लिये कॉरपोरेट है ही। यही दो सहारे वर्तमान जनतंत्र में राजनीतिक दलों के लिए प्रासंगिक हैं। एक वोट देकर उसे सत्ता में लाता है और दूसरा धन देकर अपना आकार बढ़ाता रहता है। सरकार ने सीएसआर के खर्चे के लिये किसी नियंत्रण मैकेनिज़्म की व्यवस्था भी नही कर रखी है। इनकी ऑडिट ज़रूर होती है और कुछ न कुछ कागजों का पेट भी भरा जाता होगा पर यह धनराशि जो कॉरपोरेट के कुल लाभ का 2 % होती है का सच मे कोई लाभ, जनता पहुंच रहा है, इसकी भी पड़ताल ज़रुरी है। 

कोरोना वायरस की जांच की कोई सुलभ और सुगठित व्यवस्था नहीं है। आज जिस तरह से दुनिया के तमाम देश व्यापक स्तर पर अपने नागरिकों की जांच करा रहे हैं हम उतनी व्यापकता से जांच नहीं करा पा रहे हैं। एक तो जांच लैब की कमी और दूसरे किट की जितनी आवश्यकता है उतनी अनुपलब्ध है। सरकार को जन संचार के माध्यम से हर शहर या कम से कम जिला मुख्यालय में स्थित शहरों में ऐसे जांच लैब का स्थान, जांच का समय और जांच का शुल्क अगर कुछ निर्धारित है तो, प्रचारित करना चाहिए। जहां नहीं है वहां सैम्पल लेने, सुरक्षित रखने, और जांच कराने, फिर जांच रिपोर्ट मंगा कर संदिग्ध व्यक्ति को देने की व्यवस्था करनी चाहिए।  अभी तक सरकार अपील करते हुए निजी लैब को जांच करने की मंजूरी दे रही थी लेकिन शुक्रवार को उच्च अधिकारियों की हुई बैठक में जांच के लिए पांच हजार रुपये शुल्क तय करने पर सहमति बन चुकी है। यह तो महामारी में भी लूट है। जो रोज कमाकर खाते हैं, वे  5 हजार रुपये में इतनी महंगी जांच कैसे करवाएंगे ? सरकार को या तो यह जांच मुफ्त कराने के लिये निजी अस्पतालों पर दवाव डालना चाहिए या जांच की दर सस्ती हो और जो गरीब हों उनके लिये मुफ्त हो। जो अस्पताल ऐसा न करें उनके लिए दंडात्मक प्राविधान हों। यह एक मेडिकल आपात स्थिति है। इस विपत्ति में कोई भी संस्था अगर मुनाफा से प्रेरित होकर कुछ कर रही है तो उसे कठोर दंड देना चाहिए। 

जनता को राहत देते हुए, केरल हाईकोर्ट ने बैंकों, वित्तीय संस्थानों, आयकर और जीएसटी के कर संग्रह को कोरोना के प्रकोप को देखते हुए अस्थायी तौर पर स्थगित कर दिया था। यह कदम नागरिकों को कुछ आर्थिक राहत देने के लिये था। ऐसा ही एक आदेश, इलाहाबाद हाईकोर्ट का भी है कि उसने भी 6 अप्रेल तक के लिये वसूली पर रोक लगा दी है। 

अब केंद्र सरकार की अपील पर, सुप्रीम कोर्ट ने उक्त स्थगन को रद्द कर दिया है। निश्चित रूप से सरकार को राजस्व की हानि होगी और इससे वित्तीय प्रबंधन में दिक्कत आ सकती है। अगर अर्थव्यवस्था की स्थिति चौपट नही हुयी होती तो बहुत अधिक आघात आर्थिकी पर नहीं पड़ता। लेकिन अब जब सामान्य कार्य के लिये भी सरकार को धन की कमी पड़ रही है तब तो यह एक बड़ी आपदा है। सरकार का राजस्व संग्रह इस वित्तीय वर्ष का कम है। इसका कारण मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से लेकर सभी आर्थिक सूचकांक नीचे हैं। 

ऐसी ही आपदाओं के लिये ही आरबीआई का रिजर्व फंड होता है जो सरकार के अर्थतंत्र को मुसीबत में पड़ने पर, संभाल ले। पर सरकार ने 1 लाख 76 हज़ार करोड़ रुपये आरबीआई से पहले ही ले लिये हैं और उसे मंदी से बचने के उपाय के रूप में, अपने चहेते पूंजीपतियों को बांट दिए। अब आरबीआई के पास भी उतना धन शेष नहीं है कि वह कुछ मदद कर सके। 

22 मार्च को होने वाला, जनता कर्फ्यू इस प्रकोप से बचने का एक समाधान ज़रूर है और दुनियाभर में यह स्वतः एकांत अपनाया जा रहा है, लेकिन इसकी सवसे बडी मार रोज कमाने रोज खाने और आकाशवृति से जीवनयापन करने वालों को होगी। यूपी सरकार ने दिहाड़ी मज़दूरों को कुछ आर्थिक सहायता देने की बात की है। पर यह लाभ अभी मिलना शुरू हुआ है या नही, यह पता नही। कोरोना वायरस के प्रकोप से निपटने के लिए केरल सरकार ने कुछ उत्तम उपाय किये हैं। 20000 करोड़ रुपए के आर्थिक पैकेज की घोषणा की गयी हैं।  दो महीने का वेलफेयर पेंशन एडवांस में दिया जायेगा जिसमें वृद्धा पेंशन-विधवा पेंशन और सरकारी पेंशन सभी शामिल हैं! सबको महीने भर का राशन मुफ़्त देने की बात है। कोरोना से निपटने के लिए 500 करोड़ रूपयों का हेल्थ स्कीम अलग से लागू की गयी है। किसी को भी बिजली-पानी का बिल एक महीने तक देने की अनिवार्यता की कोई ज़रुरत नहीं 2000 करोड़ रूपये ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार गारंटी के लिए और 2000 करोड़ रूपयों की घोषणा उपभोक्ता लोन के लिए रखा गया है। जो परिवार बहुत ग़रीब हैं जिनको पेंशन भी नहीं मिलती (जैसे दिहाड़ी मजदूर, रिक्शा चालक) सबको एकमुश्त 1000 रुपए की मदद और राज्यभर में 1000 फ़ूड स्टाल जहाँ 20 रूपये प्रति थाली भोजन मिलेगा। पश्चिम बंगाल की सरकार ने छह माह तक अनाज मुफ्त देने की घोषणा की है। हो सकता है कुछ राज्य सरकारें, और भारत सरकार और भी राहत का एलान करें। 

सरकार को स्वतः एकांत से उत्पन्न इस समस्या पर भी सोचना ही होगा। क्योंकि यह कम से कम दस दिन तो चलेगा ही। हमे घर मे बैठ कर भीड़ से दूर रहकर ही इस समस्या का समाधान करना होगा, क्योंकि स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमारे पास बेहद कमजोर इंफ्रास्ट्रक्चर है जो इस महामारी को कंट्रोल कर सके। जब विकसित और कम आबादी वाले सम्पन्न देश जिनके यहां स्वास्थ्य सेवा का तामझाम मज़बूत है, वे इसे नियंत्रित करने में हांफ जा रहे हैं। हम उनसे इस मामले में पीछे हैं। वैसे भी जहां अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर है, वहां भी सामाजिक दूरी को ही एक उचित और कारगर समाधान माना गया है। इसे सरकार नहीं लागू कर सकती है, जनता को ही इसे स्वतः खुद पर लागू करना होगा। 

दुनियाभर के देश अपने अपने नागरिकों को आर्थिक सहायता और पैकेज उपलब्ध करा रहे हैं। जबकि हमारी सरकार कच्चे तेल की कमी में जो राहत हमे मिल रही है उसका भी लाभ हम तक पहुंचानी नहीं चाहती है। ज़रूरी चीजों की कालाबाज़ारी रुके इसके लिये अपील ज़रूर होगी लेकिन ऐसे कालाबाज़ारियों पर कोई कार्यवाही होगी, यह मुझे नहीं लगता है। सरकार को इधर भी ध्यान देना होगा। दुनियाभर से जो खबरें कोरोना प्रकोप को लेकर जो आ रही हैं, वह भयावह हैं और चिंतित करने वाली हैं। 

( विजय शंकर सिंह )

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