खबर है कि वाराणसी से इंदौर जाने वाली महाकाल एक्सप्रेस में, एक साइड अपर बर्थ भगवान शिव के लिये स्थायी रूप से आरक्षित है। उस पर एक चित्र के रूप मे शिव माला फूलों से सजे विराजमान हैं। महाकाल को रेल से ही भेजना था तो एक सैलून लगा देते। शास्त्रीय विधि से प्राण प्रतिष्ठित विग्रह रखते। साइड अपर सीट पर, वैसे भी जिसे मिलती है, वह बदलवाने के जुगाड़ में लग जाता है, पर शिव को अलॉट कर के भेजना तो शिव का अपमान ही हुआ ! जब धर्म का उपयोग केवल नफरत फैलाने के लिये किया जाता है तो, धर्म की अधोगति प्रारम्भ हो जाती है। वैसे भी जो सर्वव्यापी है उसे किसी एक भवन, कक्ष या साइड अपर बर्थ पर एडजस्ट करना उसके सर्वव्यापकता की शाश्वत अवधारणा पर ही सवाल उठाना है। फिर भी अगर उन्हें कहीं स्थापित ही करना है तो जो शास्त्रीय विधि विधान से ही किया जाय अन्यथा न किया जाय। यह कौन सी आस्था है कि साइड अपर सीट पर शिव विराजमान हों और सामने केबिन और नीचे की बर्थ पर लोग जूते पहने बैठे या लेटे रहें या पड़े पड़े खर्राटे मारें। न मंदिर की शुचिता का ख्याल न पूजा की मर्यादा का कोई विचार।
बनारस के एक कवि थे चकाचक बनारसी। बनारस के मेरे मित्रगण ज़रूर उन्हें जानते होंगे । वह अब दिवंगत हो गए। मेरी सीधे उनसे कोई जान पहचान नहीं थी, पर बनारस के कवि सम्मेलनों में कभी कभार बतौर श्रोता हम भी चले जाते थे तो उनको सुनते थे। उस समय यूपी कॉलेज में अक्टूबर नवम्बर के महीने में संस्थापक सप्ताह समारोह होता था। उसमें कवि सम्मेलन का भी एक आयोजन होता था। उसी में हमने पहली बार नीरज, दान बहादुर सिंह सूंड, बेधड़क बनारसी, और चकाचक बनारसी को भी सुना था। चकाचक की कविताएं काशिका बोली में थी। यह बोली बनारस के पक्के महाल में बोली जाती है। भोजपुरी से थोड़ी सी भिन्न है। हमलोग जो बोलते हैं वह चन्दौली के तरफ की बोली है। काशिका, जो असली बनारसी लोग हैं वे बोलते हैं। चकाचक उसी में आपनी कविताएं सुनाते थे।
1983 में काशी विश्वनाथ मंदिर में चोरी हो गयी थी। बाबा के अर्घा के तल के सोने के पत्तर को चोरों ने काट लिया था। रात चोरी हुयी और सुबह जब यह घटना सबको पता लगी तो बनारस के लिये यह अनर्थकारी घटना बन गयी। तब केंद में इंदिरा गांधी की सरकार थीं और उत्तर प्रदेश में नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री थे। कमलापति त्रिपाठी जी तब जीवित थे। त्रिनाथ मिश्र सर वहां के एसएसपी थे। विरोध, क्षोभ और आक्रोश मे बनारस बंद रहा। केंद सरकार ने अतिरिक्त सोने की तुरन्त व्यवस्था की और पुनः सब पहले की तरह स्वर्ण से ही अर्घा बना और पूजा शुरू हो गई। स्थिति सामान्य हो गई। बाद में चोर पकड़े गए वे बिहार के थे।
जब चोरी की यह घटना हुयी थी तो मैं मथुरा में नियुक्त था। तब मोबाईल नहीं था और जो लैंड लाइन का फोन था वह भी कम ही लोगों के पास था। जो सूचना मिलती थी वह अखबारों के ही माध्यम से मिलती थी। बाद में विश्वनाथ मंदिर की सुरक्षा बढ़ा दी गयी और वहां के महंत के हांथो से मंदिर प्रबंधन का काम लेकर सरकार ने अपने हांथ में ले लिया। इसी पर चकाचक बनारसी ने एक कविता लिखी थी, जो बहुत लोकप्रिय हुयी। उस लम्बी और हास्य कविता की प्रथम दो पंक्तियां मुझे याद हैं, जो इस प्रकार हैं ,
का हो राजा विश्वनाथ जी,
हो गईला तोहूँ सरकारी !
उनकी यह कविता बहुत लोकप्रिय हुयी।गांडीव दैनिक में भी यह कविता छपी थी। शिव के बारे में भी हास्य बोध से परिपूर्ण रोचक अंश थे।
जब 1984 में मेरा स्थानांतरण मथुरा से मिर्ज़ापुर हुआ तो मुझे चुनार सर्किल में पोस्टिंग मिली। तब मेरा वाराणसी बहुत आना जाना होने लगा। इसी क्रम में जब एक बार विश्वनाथ मंदिर गया तो वहां के पुराने महंत जी जो मंदिर के सरकारीकरण से काफी दुखी थे, से भी मिलने गया। मैंने जिज्ञासावश उनसे पूछा कि " गुरु चोरी कैसे हो गई। "
उन्होंने भोजपुरी मे बड़ा रोचक उत्तर दिया, " ई चोरी थोड़े भईल। ई त बाबा कहलन चोरवन से, ले जो सारे तोहनी के जेतना सोना चाही त काट ले जो। हम का करब सोना क। हम्मे त केहू दे देही ! "
फिर आगे कहा कि, " तोहीं बतावा, बे बाबा के मर्जी के ऊ कुल सोना काट सकत रहलन हां ? '
फिर जब मैंने कहा कि " गार्द भी थी। वे सब भी नहीं देख पाए। '
इसपर खिलखिला कर बनारसी उन्मुक्त हंसी मे महंत जी ने कहा कि, " ओनहन क त अँखिये बाबा मूंद देहलें रहलन। बाबा क माया उहे जाने। "
बनारस में शिव की अलग स्थिति है। कहते हैं कि आर्यों के कबीलों के आने के पहले ही शिव यहां आ चुके थे। हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार डॉ शिवप्रसाद सिंह ने काशी त्रयी के रूप में काशी के इतिहास के तीन अलग अलग कालखंडों पर तीन बड़े उपन्यास लिखे हैं। ये हैं वैश्वानर, नीला चांद और गली आगे मुड़ती है। वैश्वानर का कालखण्ड राजा दिवोदास की काशी है। नीला चांद, राजपूत युगीन भारतीय मध्यकाल पर है और गली आगे मुड़ती है, आज़ादी के बाद सत्तर के दशक की काशी पर है। वैश्वानर कोई काल्पनिक गल्प नही है बल्कि शिवप्रसाद जी ने ऋग्वैदिक ऋचाओ के उद्धरण के साथ उसे बड़ी प्रमाणिकता से लिखा है। वैश्वानर की हिंदी क्लिष्ट और संस्कृतनिष्ठ है, पर उपन्यास में प्रवाह है। रोचकता है। रुचि हो तो उसे पढिये। आनंद आएगा।
वैश्वानर उपन्यास के अनुसार, काशी में शिव के तीन मुख्य स्थान थे। उनमे से एक विश्वेश्वर था, जो मध्यकाल में नाथ सम्प्रदाय के प्रभाव से विश्वनाथ हो गया। तब काशी गंगा और वरुणा के संगम पर जो अब राजघाट कहलाता है वहां थी। वहां के रेलवे स्टेशन का भी नाम काशी ही है। तब बनारस में किरातों की बस्ती थी और यह एक जनजाति है जो मध्य हिमालय में निवास करती है। वहां से यह कब काशी आयी इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। लेकिन इतना तय है कि आर्यों के काशी पहुंचने के पूर्व ही यह जनजाति काशी आ चुकी थी। इनके इष्टदेव शिव थे जो इनके साथ ही आ चुके थे। मणिकर्णिका श्मशान भी तभी का है। नगर की सीमा मैदागिन जहां एक छोटी नदी जिसका नाम मन्दाकिनी था वह बहती थी। उसके बाद सब कुछ जंगल था। शिव के तीन प्रसिद्ध स्थान अविमुक्तेश्वर, मध्यमेश्वर और विश्वेश्वर स्थपित हो चुके थे। यह तीनों मिल कर एक त्रिकोण बनाते है। इस त्रिकोण का भी कुछ तांत्रिक महत्व है जो मुझे बहुत ज्ञात नहीं है।
गंगा यमुना के संगम पर सबसे पहला राज्य प्रतिष्ठानपुर था, जो आधुनिक झूंसी है की स्थापना आर्यों ने किया था। कहते हैं कि सरस्वती उपकंठ से जब आर्यो के कबीले पूर्व की ओर आये तो वे प्रतिष्ठानपुर में ही जमे और यहीं राज्य की स्थापना की। मनु की पुत्री इला को वह राज्य मिला। इसी इला के नाम पर यह इलावास बना। आर्यो का विस्थापन औऱ विस्तार गंगा के किनारे किनारे होता हुआ चरणाद्रि ( चुनार ) पार करते हुऐ गंगा और वरुणा के संगम पर पहुंचा। इस काफिले मे धन्वंतरि औऱ उनका परिवार था। जब यह काफिला काशी पहुंचा तो वहां के किरातों में एक भयंकर महामारी फैली थी, जिसका नाम उपन्यास में तकमा लिखा गया है। इस रोग के जो लक्षण हैं उसके अनुसार यह रोग आधुनिक मलेरिया प्रतीत होता है। वैद्यराज धन्वंतरि, उस रोग से ग्रस्त लोगों को देखकर द्रवित हो गए और उन्होंने रोगग्रस्त पीड़ित लोगो का इलाज करना शुरू कर दिया। कुछ दिन के इलाज के बाद यह महामारी नियंत्रित हुयी औऱ तब किरातों ने धन्वंतरि को धन्यवाद दिया और उन्हें अपना राजा स्वीकार करते हुए राजा बनने का आग्रह किया। लेकिन धन्वंतरि ने राजा बनना स्वीकार नहीं किया। तब काशी के राजा के रूप में धन्वंतरि के पुत्र दिवोदास काशी के पहले राजा हुये।
कहते हैं दिवोदास के समय मे शासन व्यवस्था इतनी चुस्त दुरुस्त थी कि देवताओं की वहां कोई आवश्यकता ही नहीं रह गई। केवल शिव ही अकेले वहां रहे। कहा जाता है कि तभी शिव को आर्यो ने अपने देव के रूप मे अंगीकार किया और उन्हें देवाधिदेव की उपाधि दी। काशी तब से उन्ही महादेव की है जिन्हें ट्रेन में आज रेल विभाग ने एक अदद अपर बर्थ दी है। धर्म और आस्था जब केवल राजनीति के ही चश्मे से देखी जाने लगती है तो धर्म ईश्वर और आस्था तीनों का अवमूल्यन होने लगता है। यहां भी उद्देश्य महाकाल की पूजा और अर्चना नहीं है, बल्कि धर्म और ईश्वर के नाम पर आस्था का दोहन करना है।
© विजय शंकर सिंह
Waaaaah .... likhne kya kya andaaz hai eik pal ko usi daur me khud ko mahsoos kiya.
ReplyDeleteधन्यवाद और आभार इतनी विशद जानकारी इतने सूक्ष्म सार में साझा करने के लिए।
ReplyDeleteआभार।
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