● गांधी की हत्या के प्रयास 1934 से ही किये जा रहे थे। गांधीजी भारत आये उसके बाद उनकी हत्या का पहला प्रयास 25 जून, 1934 को किया गया। पूना में गांधीजी एक सभा को सम्बोधित करने के लिए जा रहे थे, तब उनकी मोटर पर बम फेंका गया था। गांधीजी पीछे वाली मोटर में थे, इसलिए बच गये। हत्या का यह प्रयास हिन्दुत्ववादियों के एक गुट ने किया था। बम फेंकने वाले के जूते में गांधीजी तथा नेहरू के चित्र पाये गये थे, ऐसा पुलिस रिपोर्ट में दर्ज है।
● गांधीजी की हत्या का दूसरा प्रयास 1944 में पंचगनी में किया गया। जुलाई 1944 में गांधीजी बीमारी के बाद आराम करने के लिए पंचगनी गये थे। तब पूना से 20 युवकों का एक गुट बस लेकर पंचगनी पहुंचा। दिन भर वे गांधी-विरोधी नारे लगाते रहे। इस गुट के नेता नाथूराम गोडसे को गांधीजी ने बात करने के लिए बुलाया। मगर नाथूराम ने गांधीजी से मिलने के लिए इन्कार कर दिया। शाम को प्रार्थना सभा में नाथूराम हाथ में छुरा लेकर गांधीजी की तरफ लपका। पूना के सूरती-लॉज के मालिक मणिशंकर पुरोहित और भीलारे गुरुजी नाम के युवक ने नाथूराम को पकड लिया।
● गांधीजी की हत्या का तीसरा प्रयास भी इसी 1944 सितम्बर में वर्धा में किया गया था।
गांधीजी, मुहम्मद अली जिन्ना से बातचीत करने के लिए बम्बई जाने वाले थे। गांधीजी बम्बई न जा सकें, इसके लिए पूना से एक गुट वर्धा पहुॅचा। उसका नेतृत्व नाथूराम कर रहा था।
उस गुट के एक व्यक्ति थने के पास से एक छुरा बरामद हुआ था। यह बात पुलिस रिपोर्ट में दर्ज है। कहा गया यह छुरा गांधीजी की मोटर के टायर को पंक्चर करने के लिए लाया गया था, ताकि एक तय जगह पर उनकी हत्या कर दी जाय। ऐसा बयान थने ने अपने बचाव में दिया था।
इस घटना के सम्बन्ध में प्यारेलाल (म.गांधी के सचिव) ने लिखा है :
'आज सुबह मुझे टेलीफोन पर जिला पुलिस-सुपरिन्टेण्डेण्ट से सूचना मिली कि आरएसएस के स्वयंसेवक गम्भीर शरारत करना चाहते हैं,
इसलिए पुलिस को मजबूर होकर आवश्यक कार्रवाई करनी पडेगी।
बापू ने कहा कि मैं उसके बीच अकेला जाऊंगा और वर्धा रेलवे स्टेशन तक पैदल चलूगा,
स्वयंसेवक स्वयं अपना विचार बदल लें और मुझे मोटर में आने को कहें तो दूसरी बात है।
बापू के रवाना होने से ठीक पहले पुलिस-सुपरिन्टेण्डेण्ट आये और बोले कि धरना देने वालों को हर तरह से समझाने-बुझाने का जब कोई हल न निकला, तो पूरी चेतावनी देने के बाद मैंने उन्हें गिरफ्तार कर लिया है। धरना देनेवालों का नेता बहुत ही उत्तेजित स्वभाववाला, अविवेकी और अस्थिर मन का आदमी मालूम होता था, इससे कुछ चिंता होती थी। गिरफ्तारी के बाद तलाशी में उसके पास एक बडा छुरा निकला।
(महात्मा गांधी : पूर्णाहुति : प्रथम खण्ड, पृष्ठ 114)
इस बार भी स्वयंसेवकों की यह योजना विफल हुई।
● गांधीजी की हत्या का चौथा प्रयास 29 जून, 1946 को किया गया था।
गांधीजी विशेष ट्रेन से बम्बई से पूना जा रहे थे,
उस समय नेरल और कर्जत स्टेशनों के बीच में रेल पटरी पर बडा पत्थर रखा गया था।
उस रात को ड्राइवर की सूझ-बूझ के कारण गांधीजी बच गये।
दूसरे दिन, 30 जून की प्रार्थना-सभा में गांधीजी ने पिछले दिन की घटना का उल्लेख करते हुए कहा : ''परमेश्वर की कृपा से मैं सात बार अक्षरशः मृत्यु के मूंह से सकुशल वापस आया हूँ। मैंने कभी किसी को दुख नहीं पहुंचाया। मेरी किसी के साथ दुश्मनी नहीं है, फिर भी मेरे प्राण लेने का प्रयास इतनी बार क्यों किया गया, यह बात मेरी समझ मे नहीं आती। मेरी जान लेने का कल का प्रयास निष्फल गया।'
नाथूराम गोडसे उस समय पूना से 'अग्रणी' नाम की मराठी पत्रिका निकालता था। गांधीजी की 125 वर्ष जीने की इच्छा जाहिर होने के बाद 'अग्रणी' के एक अंक में नाथूराम ने लिखा- 'पर जीने कौन देगा ? यानी कि 125 वर्ष आपको जीने ही कौन देगा ? गांधीजी की हत्या से डेढ वर्ष पहले नाथूराम का लिखा यह वाक्य है।
यह कथन साबित करता है कि वे गांधीजी की हत्या के लिए बहुत पहले से प्रयासरत थे।
अग्रणी का यह अंक शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध है।
● इसके बाद 20 जनवरी 1948 को मदनलाल पाहवा ने गांधीजी पर प्रार्थना सभा में बम फेंका
● 30 जनवरी 1948 के दिन नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या कर दी। आज वही दुर्भाग्यपूर्ण दिन है। यह हत्या स्वाधीन भारत की पहली आतंकी घटना है।
कश्मीरनामा और कश्मीरी पंडितों पर शोधपरक किताबे लिखने वाले अशोक कुमार पांडेय का यह उद्धरण भी पठनीय है,
" उसने गांधी को मारा क्योंकि उसका हृदय घृणा से भर दिया गया था। घृणा ने उसके उपेक्षित जीवन को एक उद्देश्य दे दिया था। उसे बताया गया था कि राष्ट्र का अर्थ हिन्दू राष्ट्र है। उसे भरोसा दिलाया गया था कि एक अस्सी साल के वृद्ध की हत्या पुण्य कार्य है। उसे बताया गया था कि नफ़रत प्रेम से बड़ी चीज़ है।
उसने गाँधी को मारा क्योंकि वह राष्ट्र के लिए कुछ करना चाहता था और उसे बताया गया था कि वह कुछ नहीं कर सकता। उसे इतिहास की कन्दराओं में ऐसे पटक दिया गया था कि वह भविष्य देख पा रहा था न वर्तमान।
उसने गांधी को मारा क्योंकि उसे धर्म के नाम पर राजनीति का एक कुत्सित पाठ पढ़ाया गया था। वह हिंदुत्व नाम के एक षड्यंत्र का शिकार होकर हिंदू होना तक भूल चुका था। उन्होंने एक उत्साही युवा को हत्यारे में बदल दिया। पिस्तौल पर अंगुली उसकी थी लेकिन दिमाग़ में ज़हर उन्होंने भरा था जो एक बड़े षड्यंत्र के निर्माता थे - हमारे देश की संकल्पना को विकृत करने के षड्यंत्र के।
आज भी वे हमारे इर्द गिर्द हैं। उनका ज़हर प्रचंड होता जा रहा है। युवाओं का एक समूह अभिशप्त प्रेतों सा चल रहा है उनके पीछे उन्मत्त। धर्म को गालियों और कुत्सित नारों का पर्याय बनाते हुए उन्होंने हमला बोल दिया है।
उनसे अपने बच्चों को बचा कर नफ़रत की गोलियों के आगे प्रेम का सीना बन जाना ही आज हमारा युगधर्म है। "
गांधी जी की अंतिम यात्रा का अंश भी पढ़े, रेडियो पत्रकार, मैलविल डी मैलो की कलम से जो मैंने शुक्रवार पत्रिका के संपादक श्री अम्बरीष कुमार की फेसबुक टाइमलाइन से उठाया है।
" राजकीय शोक यात्रा में रेडियो की मेरी गाड़ी धीरे धीरे रेंगती हुई चल रही थी।क्वीसवे,किंग्जवे, हारडिंग एवेन्यू और बेला रोड, होते हुए राजघाट की ओर। हमारी रेडियो गाड़ी के ठीक पीछे था वह विशेष वाहन, जिस पर महात्मा गांधी का पार्थिव शरीर आम जनता के दर्शन के लिए रखा हुआ था। इनके शरीर के आसपास पंडित नेहरू , सरदार वल्लभभाई पटेल, देवदास गांधी, सरदार बलदेव सिंह, आचार्य कृपलानी और राजेंद्र प्रसाद कुछ ऐसे अस्थिर से खड़े थे मानो संगमरमर की मूर्ति हो। और रास्ते में खड़े थे दोनों तरफ लाखों लोग। लाखों कंट बापू के प्रिय भजनों को गा रहे थे। लाखों उनकी अमरता, उनकी जय-जयकार कर रहे थे। और सब रो रहे थे_लोगों के इस समुद्र में मुझे एक भी आंख ऐसी नहीं देखी जो सुखी हो। चंदन की लकड़ियों की चिता से पहली लपट आकाश की ओर उठी और उधर सूरज डूब गया था। लहरों की तरह लोग आगे बढ़ रहे थे तुम बिना और इन लहरों से उठ रही थी सिसकियों की आवाजें। लगता था मानो राजघाट कोई तूफान उतरआया हो। यह भावनाओं का तूफान था। अब तक की व्यवस्था इसने तोड़ दी थी। स्त्री पुरुष सबने बार तोड़ दी, रस्सी से खंबे तार सब टूट गए थे । पुलिस सब कुछ उस तूफान का हर एक हिस्सा बन चुके थे। अब सब धीरे-धीरे उस चंदन की चिता की परिक्रमा में लगे थे। चंदन की लगते भी ऊपर उड़ चली थी और उसकी सुगंध अब पूरी सांझ के प्रकाश में फैल गई थी। राज्यपाल राजदूत केंद्रीय मंत्री और सर्वसाधारण सब लोग जमुना के किनारे के इस छोटे से टुकड़े में समा गए थे आज। मानवता की अटूट इस श्रृंखला में होती लहरों के बीच मैंने अपने को इस पर सवार उस लाचार चींटी की तरफ आया था जो एक भवर के बीच थक गई हो।"
© विजय शंकर सिंह
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