सुबह की चाय
ज़िंदगी का एक हिस्सा बन गयी है,
या यूं कहें, ज़िंदगी ही है,
गर्म लिहाफ में,
नीम नींद में डूबी आंखें,
जब पूरी कायनात को,
अलसायी बना देतीं है,
तब एक अदद चाय,
एक खूबसूरत नेमत नज़र आती है।
चाय अपने हमसफ़र अखबार के साथ,
नमूदार हो तो,
चाय की चुस्कियों के साथ लगता है,
एक मुकम्मल दुनिया,
मेरे ख्वाबगाह में शब्दों के पैरहन पहने,
पसर आयी है।
कभी कभी सोचता हूँ,
चाय बनी ही न होती तो,
क्या सुबह, इतनी ही अलसायी सी,
किसी तलाश में मुब्तिला,
नीमकश आंखे लिये,
सुस्त पर दिलकश सी होती कभी ?
( विजय शंकर सिंह )
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