Tuesday, 3 December 2019

कविता - पत्थर / विजय शंकर सिंह


दूर से लुभाती ये पथरीली इमारतें, 
पास खींचती तो हैं, 
पर बुलाती नहीं है।

बहुत पास जाकर देखना कभी, 
रंगों से  भरी 
चमकदार वजनी शीशों से सजी 
ये इमारतें कितनी रहस्यमयी किस्से कहानियां 
दिल मे अपने समेटे हुये हैं।

दूर से बेहद लुभावनी यह इमारतें, 
बच्चों के खेलने के खिलौनों की तरह, 
यादों में बसी ब्लॉक के समान दिखती है। 

नज़दीक से देखा 
शीशा तो था, 
पर धुंध के पार कुछ भी नहीं था, 
इमारतों पर रंग तो थे, 
पर रंगीनियां नहीं थी, 
चमकीले अक़्स तो थें, 
पर चमक में आमंत्रण नहीं था।

पत्थरों में एक खुदगर्जी भी होती है, 
चिकने और लुभावने हों तो भी, 
खुदगर्जी जाती नहीं उनकी, 
रंग और चमक से भरे ठस पत्थर, 
बस लुभाते हैं, ललचाते हैं, 
पर बुलाते कभी नहीं हैं।

अपनी जड़ता और संगदिली की तासीर लिये,
अपनी ही एक दुनिया रचते हैं।
उनकी दुनिया का मौसम, 
मेरी दुनिया के मौसम से जुदा है। 

उनकी दुनिया मे हवाएं 
अपनी मर्जी से नहीं बहती, 
और मेरी दुनिया मे, 
हवाएं किसी मर्ज़ी की पाबंद नहीं है।

ज़िंदगी जब पाबंद हो जाय 
तो वह सिर्फ एक मशीन रह जाती है, 
हयात नहीं !!

© विजय शंकर सिंह 

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