छात्रों को चाहिए कि वे अपना आंदोलन का एजेंडा, एनआरसी सीएए से थोड़ा अलग कर के सस्ती शिक्षा और सस्ते स्वास्थ्य के मुद्दे पर ले आएं। फेसबुक के मित्रो से भी यही अनुरोध है कि अब हमें आर्थिक मुद्दों पर ही केंद्रित होना चाहिये। क्योंकि सरकार इसी मुद्दे पर बगलें झांकने लगती है। अगर देश की आर्थिक स्थिति ठीक होती और आर्थिक एजेंडे पर सरकार की कुछ उपलब्धियां होती तो सरकार बिलकुल ही एनआरसी के चक्कर मे नहीं पड़ती। पर सरकार करे भी तो क्या करे। दरअसल भाजपा के पास कोई अर्थदृष्टि है ही नहीं। क्योंकि इन्होंने इस पर कभी सोचा ही नहीं है। आप जनसंघ से लेकर आज तक भाजपा के आर्थिक प्रस्तावों को देख लीजिए कहीं भी कोई ठोस आर्थिक सोच मिलेगी ही नहीं। निजीकरण की बात मिलेगी, पूंजीवाद की बात मिलेगी पर पूंजीवाद के विकास के भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव आपको इनकी सोच में मिलेगा।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल-नवंबर, 2019 के बीच सेंट्रल जीएसटी कलेक्शन बजट अनुमान से 40 फीसद कम रहा है। अब इस घाटे की पूर्ति के लिए दिसंबर 2019 से मार्च 2020 के बीच हर महीने 1 लाख 10 लाख करोड़ रुपये का जीएसटी कलेक्शन लक्ष्य रखा गया है। जब से जीएसटी लागू हुआ है आज तक जीएसटी का मंथली कलेक्शन कभी भी 1 लाख 4 हजार करोड़ नही पुहंचा है। चालू वित्त वर्ष के आठ महीनों में से चार महीनों का जीएसटी कलेक्शन एक लाख करोड़ रुपये से ऊपर रहा है। इनमें से सिर्फ एक महीने वसूली का आंकड़ा 1.1 लाख करोड़ रुपये के ऊपर रहा है, लेकिन अब कहा जा रहा है कि लक्ष्य तक पुहंचने के लिए हर महीने 1 लाख 10 हजार करोड़ रुपये चाहिए। यह कैसे होगा ? इसका कोई जवाब सरकार के पास नही है! अब तो आरबीआई के गवर्नर को भी मंदी दिखने लगी है वैसे हम हर महीने 1 लाख 10 हजार करोड़ वसूलने से भी हम लक्ष्य तक नही पुहंचेंगे, लक्ष्य के लिए इन चार महीनों में किसी एक महीने में टैक्स कलेक्शन 1.25 लाख करोड़ रुपये होना चाहिए।
सरकार जब आर्थिक दृष्टिकोण से विफल होने लगी तो इसने राष्ट्रवाद का अप्रासंगिक मुद्दा छेड़ दिया। जब देश आजाद होने के लिये व्यग्र था, एक लंबी और विविधता भरी लड़ाई लड़ रहा था, एक व्यापक राष्ट्रवाद के प्रति समर्पित था, जब ये जिन्ना के बगलगीर हो, अंग्रेजों के मुखबिर बने थे और हिटलर मार्का संकीर्ण और श्रेष्ठतावादी राष्ट्रवाद के विभाजनकारी मार्ग पर बढ़ रहे थे। आज भी बांटने और लड़ाने की वही पुरानी आदत गयी नहीं है। यह एनआरसी और सीएए उसी सोच का परिणाम है। सरकार को कहिये कि वह उसे लागू करे। इसकी नियमावली पहले बने। महकमे बनें। बजट तय हो। कुछ तो शुरू करे। रातोरात न तो कोई देश से बाहर भेजा जा रहा है और न डिटेंशन कैंप बन जा रहे हैं। असम से सीखिये। उन्होंने इस आंदोलन को आज भी, धर्म और साम्प्रदायिक भेदभाव से बचाकर रखा है। सरकार और सत्तारूढ़ दल की पूरी कोशिश है कि यह मुद्दा साम्प्रदायिक रंग ले ले। दरअसल इसके अलावा उन्हें कुछ आता ही नहीं है। सरकार की इस कोशिश को प्रछन्न रूप से कामयाब मत होने दीजिए।
डिटेंशन कैंप भी अब बनने शुरू हो जाने चाहिये। इसका ठेका भी एलेक्टोरेल बांड से पैसा भेजने वाले लोगों की हैसियत देख कर हो। क्योंकि सरकार का इरादा तो चट्टान की तरह है। अब जब हुकूमत पत्थर हो जाय तो उससे सिर नहीं टकराना चाहिये। उस पर चढ़ना चाहिये। उसे चढ़ कर पार करना चाहिये। क्योंकि चट्टान जड़ हो जाती है। जड़ता हमारी संस्कृति में हेय समझी गयी है। चेतन बनिये । चैतन्य रहिये। सरकार को एनआरसी लाने दीजिए। अगर कागज़ात हैं आप के पास तो सम्भाल के रखिये। जब सरकार उसे मांगने आएगी तो देखा जाएगा। पहले वह मांगने की स्थिति तक तो आये। पढ़ाई लिखाई के डिग्री की चिंता नहीं करनी है। यह सरकार डिग्री नहीं मांगेगी। डिग्री की बात करते ही सरकार शरमाने लगती है। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट ने कह रखा है कि आधार और वोटर आईडी है तो व्यक्ति नागरिक है। सुप्रीम कोर्ट ने आज पचास याचिकाओं पर नोटिस जारी की है। सुनवायी हो ही रही है।
अहिंसक विरोध करें। लेख लिखें। सेमिनार आयोजित करें। पढ़ाई के साथ साथ लोगो जो आर्थिक मुद्दों पर ले जाँय। महंगाई, बिगड़ती आर्थिक हालात, बेरोजगारी, और सरकारी दुर्व्यवस्था की ओर लोगो को ले जांय। अपनी बात कहें और समझाएं । हर सरकार को हिंसक आंदोलन सूट करता है। हिंसक आंदोलन का दमन आसान होता है। क्योंकि सुरक्षा बलों को हिंसक भीड़ पर बल प्रयोग करने का अवसर कानूनन मिल जाता है। अहिंसक आंदोलन अक्सर सुरक्षा बलों को खिजा देता है। क्योंकि वहां धैर्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर अहिंसक आंदोलन पर नाजायज बल प्रयोग होता है तो उसकी बदनामी सरकार औऱ सुरक्षा बलों पर आती है। इससे दोनों ही बचना चाहते हैं। गांधी जी यह मर्म समझ गए थे। सार्वजनिक संपत्ति, प्रकारांतर से हम सबकी सम्पत्ति है। केवल इलेक्टोरल बांड से घूस लेने वाले राजनीतिक दलों की ही नहीं।
© विजय शंकर सिंह
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