कल सोशल मीडिया पर एक छोटी सी विडियो क्लिप घूम रही थी कि दिल्ली में साकेत के पास मोटरसाइकिल से एक सिपाही वर्दी में जा रहा था, उसे कुछ वकील मिल कर अनायास पीटने लगे। सिपाही ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। शायद अकेला था इसलिए उसने खामोशी और सब्र रखना बेहतर समझा। पर वह वीडियो यह बताता है वकीलों के बीच का अराजक समूह कितना मुखर हो चुका है। अगर उस समय सिपाही अकेला नहीं रहता या उसके पास कोई हथियार होता तो हो सकता है कि तीसहजारी जैसी कोई घटना फिर घट जाती।
मॉब लिंचिंग की परंपरा से बहुत पहले ही कचहरियों में मुल्ज़िम के साथ जो पेशी पर ले जाये जाते हैं कि लिंचिंग की परंपरा, पढे लिखे, कानून के जानकार और कानून के पैरोकार कहे जाने वाले वकीलों द्वारा शुरू की जा चुकी है। पर इस एलीट लिंचिंग से खबरें तो बनीं, पर इसकी न भर्त्सना हुयी न मुक़दमे कायम हुये न जांच हुयी । कुछ ने सराहना भी की। कुछ ने इसे औचित्यपूर्ण भी ठहरा दिया। कुछ ने सबक सिखाने के लिये ऐसी एलीट लिंचिंग आयोजित भी कराई। कुछ ने यह भी तर्क दिया कि सज़ा हो न हो कम से कम यही सही। वैसे भी सज़ा कहां इतनी जल्दी मिलती है। कम से कम यही कुछ सज़ा हो।
यह प्रवित्ति हमे विधिपालक समाज के बजाय एक ऐसे समाज की बना रही है जहां विधि की अवज्ञा ही समाज का स्थायी भाव बनता जा रहा है। अगर आप इस पर समझौता कर बैठेंगे कि सजाएं चाहे वकीलों द्वारा कचहरियों में मारपीट कर के दी जांय या पुलिस गैरकानूनी तरीक़ो से, कुछ हद तक उचित है तो वह हद कभी न कभी बेहद होगी ही। तब उसकी जद में आप हम सभी आएंगे। कानून को कानूनी तऱीके से ही लागू होने पर ज़ोर दीजिए अन्यथा एक विधिविहीन और अराजक समाज की दस्तक सुनने के लिये तैयार रहिये।
आये दिन वकीलों के कभी पुलिस तो कभी किसी सामान्य व्यक्ति के साथ ऐसी मारपीट की खबरें आती रहती हैं। यह रोग तो अब हाईकोर्ट तक मे पहुंच गया है। न्यायिक अधिकारियों से बात कीजिए तो वे भी इस उद्दंडता और गुंडई से दुःखी हैं पर वे भी कुछ कर नहीं पाते हैं। कानपुर में भी आज से वकीलों की अनिश्चित कालीन हड़ताल है। कारण यह है कि वकीलों ने एक रेस्टोरेंट में जाकर मारपीट की और जब मौके पर पुलिस पहुंची तो उससे भी उलझे और जब इस मामले पर मुकदमा दर्ज हुआ तो उन्होंने हड़ताल कर दी।
जब कभी बड़े वकीलों से बात कीजिए तो वे भी दुःखी नज़र आते हैं। वे कहते हैं अपने इस जमात के आचरण और व्यवहार से दुखी हैं। लेकिन इसका कोई हल उनके पास नहीं है। ज्यादती हो सकता हो, किसी भी पक्ष की हो। तैश में कोई भी आ गया हो। पर कानून की जानकारी रखने वाला तबका जब अराजक हो जाता है तो सोचना पड़ता है। वकीलों का यह आचरण एक विधिविरुद्ध गिरोह की तरह ऐसे अवसर पर आचरण करता है। जज साहबान बहुत कुछ उनके खिलाफ कर भी नहीं सकते और न ही करते हैं।
दिल्ली पुलिस ने अपने अधिकारियों को हटा दिया गया है। दोनों तरफ से मुक़दमे दर्ज है। तफतीश चल रही है। आगे क्या होता है यह तो जांच हो जाने के बाद ही पता चलेगा। पर एक बात तय है वकील साहबान का कुछ बिगड़े या न बिगड़े पर पुलिस के अधिकारी और कर्मचारी तो दंडित हो ही जायेंगे। यह मेरा अनुभव है।
अब दिल्ली पुलिस की तरफ से भी एक बड़ी प्रतिक्रिया हुयी है। तीसहजारी कोर्ट के बाहर पुलिस और वकीलों के बीच हुई भिड़ंत का मामला बढ़ता जा रहा है। 5 नवम्बर, मंगलवार की सुबह दिल्ली पुलिस हेडक्वार्टर के बाहर भारी संख्या में दिल्ली पुलिस के जवान इकट्ठा हो, अपने हाथ में काली पट्टी बांधकर वकीलों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। जवानों के प्रदर्शन के बीच दिल्ली पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक ने कहा है कि ये हमारे लिए परीक्षा की घड़ी है, सभी जवान शांति बनाए रखें और अपनी ड्यूटी पर वापस लौटें।
दिल्ली के तीसहजारी कोर्ट की घटना भीडहिंसा के प्रति नरम रुख रखने और उसे मौन सहमति देकर गुंडागर्दी का वातावरण बनाने का परिणाम है । यह एक ऐसी मनोवृत्ति को जन्म दे रहा है, जो त्वरित न्याय या इंस्टेंट जस्टिस के तौर पर खुद को ही फरियादी, और खुद को ही मुंसिफ के तौर पर समझ रहा और तदनुसार आचरण कर रहा है। यह मनोवृत्ति बदला लेने की है। प्रतिशोध की है। अपराध और दंड का दर्शन प्रतिशोध की बात नहीं करता है वह कानून के अनुसार जांच, गवाह, सुबूत और दंड की बात करता है। अपराधी को दंड देना किसी भी प्रकार का बदला लेना नहीं है। वह एक न्यायिक प्रक्रिया है जिसके अंग वकील भी हैं और पुलिस भी। पर लगता है हम एक अधीर, उद्दंड और जिद्दी समाज मे बदलते जा रहे हैं। जिसके पास जितना सँख्याबल और शारीरिक ताक़त मौके पर होगी वह अपने विरोधी से सड़क पर निपट लेगा और कुछ इसका औचित्य भी ढूंढ लेंगे। जो पिटेगा वह भी मौका ढूंढेगा और बदला ले लेगा।
वकीलों को सबसे बड़ी खुन्नस यह है कि वे खुद को किसी भी कानूनी प्रक्रिया से ऊपर समझते हैं। चाहे उनके खिलाफ मुकदमा कायम हो जाय, या उनकी गाड़ी ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन में पकड़ी जाय वे इसे अपनी निजी तौहीन समझने लगते हैं और अगर वाहन पर एडवोकेट लिखा हो तो क्या कहने फिर तो यह शब्द ही उनके लिये कवच, कीलक अर्गला सब बन जाता है। यह प्रवित्ति एक प्रकार की हीन भावना का द्योतक है कि हम भी महत्वपूर्ण हैं और हमे भी महत्वपूर्ण समझिये।
ऐसा नहीं है कि कुछ वकीलों के समूह की उद्दंडता और अराजकता से केवल पुलिस ही पीड़ित हो, बल्कि इनसे न्यायिक अधिकारी, जज और बड़े वकील भी पीड़ित होते हैं। नए और बिना काम के वकीलों में एक बात घर कर जाती है कि वे कानून और कानूनी प्रक्रिया के ऊपर हैं। यही बात उन्हें आक्रामक बना देती है। बार काउंसिल हो या बार एसोशिएशन दोनों को ही इस प्रवित्ति पर अंकुश लगाना होगा अन्यथा इस प्रवित्ति से सबसे अधिक हानि वादकारियों की होगी।
© विजय शंकर सिंह
No comments:
Post a Comment