Saturday, 30 November 2019

अपराधी का महिमामंडन अपराध की मनोवृत्ति को बढ़ाता है / विजय शंकर सिंह

जब तक संसद और विधान सभाओं से बड़े और गम्भीर आपराधिक मुकदमों में लिप्त, आरोपी नेताओं को पहुंचने से, चुनाव सुधार कानून बना कर, उसे सख्ती से लागू कर, नहीं रोका जाएगा, तब तक अपराध करने की मनोवृत्ति पर अंकुश नहीं लगेगा। ज़रूरत तो ग्राम पंचायत स्तर से शुरुआत करने की है, पर कम से कम हम संसद और विधानसभा स्तर से इसे शुरू तो करें।  अपराध करके स्वयं ही आत्मगौरव का भान करने वाला समाज भी हम धीरे धीरे बनते जा रहे हैं। यह इसी महिमामंडन का परिणाम है। 

क्या कारण है कि अच्छे भले लोग दरकिनार हो रहे हैं, और हरिशंकर तिवारी, मुख्तार अंसारी, मदन भैया, डीपी यादव, वीरेंद्र शाही आदि आदि जैसे लोग, जिनके खिलाफ आइपीसी की गंभीर धाराओं में मुक़दमे दर्ज हैं, अदालतों में उनकी पेशी हो रही है, और वे अपने अपने जाति, धर्म और समाज के रोल मॉडल के तौर पर युवाओं में देखे जाते हैं ? 

ऐसे आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओ के लिये एक शब्द है रंगबाज़। यह शब्द बहुत लुभाता है युवा वर्ग को। थोड़ी हेकड़ी, थोड़ी गोलबंदी, कुछ मारपीट, फिर लोगों और कमज़ोर पर अत्याचार, थोड़े छोटे छोटे अपराध, फिर किसी छुटभैये दबंग नेता या व्यक्ति का संरक्षण, फिर बिरादरी या धर्म से जुड़े किसी आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति का आशीर्वाद, थाना पुलिस से थोड़ी रब्त ज़ब्त, दबंग क्षवि के नाम पर छोटे मोटे ठेके और फिर इस कॉकटेल से जो वर्ग निकलता है वही कल कानून, अपराध नियंत्रण और देशप्रेम और बड़ी बड़ी बातें करता है। 

मीडिया में बलात्कार की खबरों को देखकर सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर, राज्यों के हाईकोर्ट में दर्ज बलात्कार के मामलों के आंकड़े मंगाए थे। उनके अनुसार, 1 जनवरी 2019 से लेकर 30 जून 2019 तक 24, 212 बलात्कार के मामले दर्ज हुए थे। ये सभी मामले केवल नाबालिग बच्चों और बच्चियों से संबंधित थे।  इसी रिकार्ड को देखें तो 12,231 केस में पुलिस आरोप पत्र दायर कर चुकी थी और 11,981 केस में जांच कर रही थी। 

दिल्ली की निर्भया न तो पहला मामला था, और हैदराबाद की रेड्डी न तो अंतिम मामला है। कल से लोग विक्षुब्ध हैं। दुःखी हैं। अपनी अपनी समझ से लड़कियों को सलाह दे रहे हैं। कुछ अपना धार्मिक और साम्प्रदायिक एजेंडा भी साध रहे हैं। महिलाएं अधिक उद्वेलित हैं क्योंकि वे भुक्तभोगी होती है। पुलिस की अक्षमता, समाज की निर्दयता आदि को लोग रेखंकित कर रहे हैं। पर मेरा मानना है कि जब तक अपराध और अपराधी का महिमामंडन नहीं रुकेगा तब तक अपराध का रोका जाना संभव नहीं है। 

मैं उन अपराधों के बारे में नहीं कह रहा हूँ जो लोग अपने अधिकार के लिये लड़ते हुए आइपीसी की दफाओं में दर्ज हो जाते हैं, बल्कि उन अपराधों के लिये कह रहा हूँ जो गम्भीर और समाज के लिये घातक है । ऐसा ही एक अपराध है बलात्कार। यह अपराध अपनी गम्भीरता में हत्या से भी जघन्य अपराध है। यह पूरे समाज, स्त्री जाति और हम ज़बको अंदर से हिला देता है। हत्या का कारण रंजिश होती है पर बलात्कार का कारण रंजिश नहीं होती है। बलात्कार का कारण, कुछ और होता है। इसका कारण महिलाओं के प्रति हमारी सोच और समझ होती है। उन्हें देखने का नज़रिया होता है। यौन कुंठा होती है। 

हैदराबाद के बलात्कार कांड में मुल्ज़िम पकड़े गए हैं। वे जेल भी जाएंगे। उन्हें सजा भी होगी। पर क्या निर्भया और रेड्डी की त्रासद पुनरावृत्ति नहीं होगी ? छेड़छाड़ से बलात्कार तक एक ही कुंठा अभिप्रेरित करती है। बस अपराधी मन और अवसर की तलाश होती है। यह बात बहुत ज़रूरी है कि लड़कियों को सुरक्षित जीने के लिये बेहतर सुरक्षा टिप दिए जांय। उन्हें परिवार में अलग थलग और डरा दबा कर न रखा जाय। उन्हें पूरे पुरूष जाति से डराना भी ठीक नहीं है पर उन्हें उन जानवरों की आंखे, ज़ुबान और देहभाषा पढ़ना ज़रूर सिखाया जाय जिनके लिये स्त्री एक कमोडिटी है माल है।

 कल से यह सलाह दी जा रही है कि बेटियों को जुडो कराटे आत्मरक्षा के उपाय सिखाये जांय। यह सलाह उचित है। लेकिन बेटियों को जिनसे बचना है उन्हें क्या सिखाया जाय ? समाज मे महिलाएं हो या पुरूष अलग थलग नहीं रह सकते हैं। वे मिलेंगे ही। अपने काम काज की जगहों पर, रेल बस और हाट बाजार और अन्य सार्वजनिक जगहों पर। दोनों को ही एक दूसरे के बारे में क्या सोच रखनी है, मित्रता की क्या सीमा रेखा हो, उस सीमारेखा के उल्लंघन का क्या परिणाम हो सकता है, यह न केवल लड़कियों को ही समझाना होगा बल्कि लड़को को यह सीख देनी होगी। 

हर स्त्री पुरूष मित्रता बलात्कार तक नहीं जाती है। बल्कि बहुत ही कम। बेहद कम। मर्जी से यौन संबंधों की मैं बात नहीं कर रहा हूँ। मैं बलात और हिंसक बनाये गए यौन सम्बंध की बात कर रहा हूँ। इन सब के बारे में हमें अपने घरों में जहां युवा लड़के लड़कियां हैं इन सब के बारे में, इनके संभावित खतरे के बारे में खुल कर बात करनी होगी। अगर यह आप सोच रहे हैं कि लैंगिक आधार पर दोनों को अलग अलग खानों में बंद कर दिया जाय तो ऐसे अपराध रुक जाएंगे तो यह सोच इस अपराध को बढ़ावा ही देगी। अधिकतर मुक्त समाजो में बलात्कार कम होते हैं क्योंकि वहाँ लैंगिक कुंठा भी कम हॉती है। सोशल मीडिया और सूचना क्रांति के इस दौर में दुनियाभर में जो भी अच्छा बुरा हो रहा है उससे न हम बच सकते हैं और न ही अपने घर परिवार समाज को ही बचा सकते हैं । बलात्कार एक जघन्य अपराध है पर बलात्कार का अपराध जिस मस्तिष्क में जन्म लेता है वह घृणित मनोवृत्ति है। अपराध से तो पुलिस निपटेगी ही, पर इस मनोवृति से तो हमे आप और हमारे समाज को निपटना होगा। 

समाज मे जब तक यह धारणा नहीं बनेगी कि अपराध और अपराधी समाज के लिये घातक हैं तब तक अपराध कम नहीं होंगे और न अपराधी खत्म होंगे। आज हम जिस समाज मे जी रहे हैं वह कुछ हद तक अपराध और अपराधी को महिमामंडित करता है। यह महिमामंडन उन युवाओँ को उसी अपराध पथ पर जाने को प्रेरित भी करता है। एक ऐसा समाज जो विधिपालक व्यक्ति को तो मूर्ख और डरपोक तथा कानून का उल्लंघन करके जीने वाले चंद लोगों को अपना नायक और कभी कभी तो रोल मॉडल चुनता है तो वह समाज अपराध के खिलाफ मुश्किल से ही खड़ा होगा। 

अक्सर ऐसी बीभत्स घटनाओं के बाद कड़ी से कड़ी सजा यानी फांसी देने की मांग उठती है। सज़ा तो तब दी जाएगी जब मुक़दमे का अंजाम सज़ा तक पहुंचेगा। अंजाम तक मुक़दमा तब पहुंचेगा जब गवाही आदि मिलेगी। गवाही तब मिलेगी जब समाज मानसिक रूप से यह तय कर लेगा कि चाहे जो भी पारिवारिक दबाव अभियुक्त का उन पर पड़े वे टूटेंगे नहीं और जो देखा सुना है वही गवाही देंगे। एक स्वाभाविक सी बात है कि मुल्ज़िम के घर वाले मुल्ज़िम को बचाने की कोशिश करेंगे। यह असामान्य भी नही है। पर अन्य गवाहों को जो उसी पास पड़ोस के होंगे को पुलिस की तरफ डट कर गवाही के लिए खड़े रहना होगा। अदालत केवल सुबूतों पर ही सज़ा और रिहा करती है, यह एक कटु यथार्थ है। 

अगर आप यह समझते हैं कि पांच लाख की आबादी पर नियुक्त पांच दरोगा, पचास सिपाही आप को अपराधमुक्त रख देंगे तो आप भ्रम में हैं। बलात्कार जैसी घटनाएं केवल और केवल पुलिस के दम पर ही, नहीं रोकी जा सकती है। हाँ बलात्कार के बाद मुल्ज़िम तो पकड़े जा सकते हैं, उन्हें फांसी भी दिलाई जा सकती है, पर आगे ऐसी कोई घटना न हो यह जिम्मा कोई पुलिस अफसर भले ही आप से यह कह कर ले ले, कि, वह अब ऐसा नहीं होने देगा तो इसे केवल सदाशयता भरा  एक औपचारिक आश्वासन ही मानियेगा। यह संभव नही है। हमे खुद ही ऐसी अनर्थकारी घटनाओं की पुनरावृत्ति से सतर्क रहना होगा औऱ उपाय करने होंगे। 

© विजय शंकर सिंह 

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