आज विजयादशमी है। मान्यता है कि आज ही के दिन राम ने लंकाधिपति रावण को युद्ध मे पराजित कर उसका वध किया था औऱ अपनी पत्नी सीता को उसके कब्जे से मुक्त कराया गया था। भारतीय समाज मे रामकथा के सैंकड़ों संस्करण है। असंख्य लोकश्रुतियाँ हैं। अनेक भारतीय भाषा, बोली में, अलग अलग तरह से अलग अलग समय पर लेखकों, और कवियों ने अपने अपने मेधा और रुचि के अनुसार, काव्य और कथाएं लिखी हैं, और अपने अपने मन्तव्य दिए हैं। पर सारी कथा का मूल है बुराई पर अच्छाई की विजय। रावण, बुराई का प्रतीक है और राम अच्छाई के। इसी प्रतीक रूप में यह त्योहार देश भर में धूमधाम से मनाया जाता है।
शारदीय नवरात्र के तुरन्त बाद मनाए जाने वाले इस पर्व का आधार शक्ति की आराधना है। जिसे सामान्यतः दुर्गा पूजा के नाम से हम जानते हैं। दुर्गा शक्ति की प्रतीक हैं और मान्यता है कि उनका अवतरण असुरों के संहार हेतु हुआ था। देव दानव, सुर असुर आदि की कल्पनाओं में भी बहुत सी कथाएँ है। पर मूलतः इनका भी संघर्ष बुराई और अच्छाई पर ही जाकर शेष होता है। दुर्गा पूजा मूलतः पूर्वी भारत का पर्व है पर अब वैश्विक वातावरण में यह केवल बंग क्षेत्र, जिसमे बंगाल, बांग्लादेश, असम और नॉर्थ ईस्ट के क्षेत्र हैं, का ही पर्व नहीं रहा, बल्कि पूरे देश मे दुर्गा प्रतिमाओं की स्थापना करके इस पर्व को अब मनाया जाने लगा है। बंगाल इसका मूल केंद्र है और वहां भी दुर्गा पूजा के परम्परा का एक रोचक इतिहास है जो रामकथा से जुड़ा है।
दुर्गापूजा का इतिहास पढ़ने के पूर्व पहले यह पंक्तियां पढ लीजिए,
"कहती थीं माता मुझको सदा राजीवनयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मात एक नयन।"
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त लक लक करता वह महाफलक।
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय। "
यह पंक्तियां, महाप्राण, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कालजयी कविता, ' राम की शक्तिपूजा ' की अंतिम अंश की कुछ पंक्तियां है। यह लंबी कविता हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कविताओं में तो अपना स्थान रखती ही है, बल्कि कुछ आलोचक इसे विश्व साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कविताओं में भी एक कविता मानते हैं। कविता में निराला ने दिखाया है कि किस प्रकार, राम, रावण से लंका की लड़ाई में हार रहे हैं. और तब अपनी इस दशा से विचलित राम कहते हैं, ‘हाय! उद्धार प्रिया (सीता) का हो न सका। ' इसी समय उनके अनुभवी और वयोवृद्ध सलाहकार जांबवंत सुझाव देते हैं कि वे यह युद्ध इसलिए हार रहे हैं कि उनके साथ केवल नैतिक बल है। शक्ति नहीं है। कोई भी युद्ध केवल नैतिक बल से नहीं जीता जा सकती, उसके लिए तो युद्ध शक्ति का होना आवश्यक है। कविता में जांबवंत कहते हैं, ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन! छोड़ दो समर जब तक सिद्धि न हो, रघुनंदन!!’ जांबवंत की इन बातों का आशय दुर्गा की नौ दिनों तक कठोर साधना से था। जाम्बवंत का यह विवरण अन्य राम कथा में विस्तार से नहीं मिलता है।
इन पंक्तियों की पृष्ठभूमि यह है, राम रावण से निर्णायक युद्ध करने सागर तट पर पहुंच गए हैं। उन्होंने दुर्गा की पूजा शुरू की। उनका संकल्प है कि वे देवी के चरणों मे 108 कमल के पुष्प अर्पित करेंगे। मंत्रोच्चार होने लगा। राम कमल पुष्प देवी के चरणों मे अर्पित करने लगे। राम मंत्रमुग्ध पूजा में निमग्न थे। अंतिम पुष्प जब वे अर्पित करने के लिये पात्र, जिसमे पुष्प रखे थे, में ढूंढा तो वहां उन्हें कोई पुष्प नहीं मिला। राम अजीब दुविधा में भर गए। अगर अब, वह आसन छोड़ कर दूसरा कमल पुष्प लेने निकलते हैं तो, उनकी साधना भंग होती है, और 108 पुष्पों का अर्पण पूरा नहीं होता है तो, उनका संकल्प टूट जाता है। अचानक उन्हें याद आया, उनकी सुंदर और आकर्षक आंखों को उनकी मां, कमल नयन कहती थी, बस तुरन्त उन्होंने यह निश्चय किया कि वह अपनी एक आंख, पुष्प के स्थान पर अर्पित कर देंगे। उन्होंने तीर उठाकर आंख पर प्रहार करना चाहा, तभी, देवी प्रगट हो गयीं और अंतिम कमल पुष्प जो देवी ने ही चुपके उठा लिया था, राम को सौंप दिया। राम ने वह पुष्प अर्पित कर के अपना संकल्प पूरा किया। देवी ने पूजा स्वीकार की और रावण के विरुद्ध युद्ध मे राम को विजयी होने का आशीर्वाद दिया।
निराला की यह कविता, न तो वाल्मीकि की रामायण पर आधारित है और न तुलसी की रामचरितमानस पर। माना जाता है कि निराला ने इस कविता का कथानक पंद्रहवीं सदी के सुप्रसिद्ध बांग्ला भक्तकवि कृत्तिबास ओझा के महाकाव्य ‘श्री राम पांचाली’ से लिया था।पंद्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में रची गई यह रचना वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में लिखी गई ‘रामायण’ का बांग्ला संस्करण है. इसे कृत्तिबासी रामायण’ भी कहा जाता है. इसकी विशेषता यह है कि यह संस्कृत से इतर किसी भी अन्य उत्तर भारतीय भाषा में लिखा गया पहला रामायण है। अवधी भाषा में तुलसीदास के रामचरित मानस के रचे जाने से भी डेढ़ सदी पहले कृतिवास का यह बांग्ला काव्य आ गया था। बंगाल में आधुनिक दुर्गा पूजा के प्रारंभ का इतिहास कृतिवास के उक्त रामायण से माना जाता है। बांग्ला भी तब एक बोली ही थी। जब तक ईश्वरचंद्र विद्यसागर ने बांग्ला भाषा को आधुनिक रूप में नहीं ढाला, यह एक समृद्ध बोली ही बनी रही।
शारदीय नवरात्र में दशमी के दिन, विजयादशमी यानी दशहरा एक धूमधाम से मनाया जाने वाला त्योहार है। बात चाहे मैसुरु के जंबू सावरी दशहरे की हो या कुल्लू-मनाली के दशहरे की या गुजरात के गरबा नृत्य के साथ मनाए जाने वाले उत्सव की, देश के हर भूभाग में इस त्योहार का अलग ही रंग होता है। पर बंगाल की दुर्गापूजा का रंग सबसे अलग है। 10 दिनों तक चलने वाले इस त्योहार के दौरान वहां का पूरा माहौल शक्ति की देवी दुर्गा के रंग में रंग जाता है। ढाक की ध्वनि, विभिन्न मुद्राओं में दुर्गा की भव्य और अचंभित कर देने वाली मृतिका प्रतिमाएं आदि बंगाल की समृद्ध सभ्यता और संस्कृति का परिचय देते हैं।बंगाली जनमानस के लिए दुर्गा और काली की आराधना से बड़ा कोई उत्सव नहीं है। जिस दिन देश भर में दीपावली मनाई जाती है, उसी दिन बंगाल में काली पूजा की धूम होती है। बंगाल के लोग, देश-विदेश जहां कहीं भी रहें, इस पर्व को खास बनाने में वे कोई कसर नहीं छोड़ते। ऐसे में एक स्वाभाविक जिज्ञासा उठती है कि, आखिर वह कौन सी घटना या परंपरा रही जिसके चलते बंगाल में शक्ति पूजा ने सभी त्योहारों में सबसे प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया है।
कृत्तिबासी रामायण की कई मौलिक कल्पनाओं में रावण को हराने के लिए राम द्वारा शक्ति की पूजा करने का भी प्रसंग है।विद्वानों के अनुसार इस प्रसंग पर बंगाल की नारी-पूजा की परंपरा का प्रभाव है। बंगाल ही नहीं, पूरा पूर्वी भारत, असम से लेकर त्रिपुरा के तक मातृ पूजा का प्रभाव है। यह शाक्त परंपरा का प्रभाव है। इसी परंपरा का अनुसरण करते हुए कृतिवास ओझा ने अपने इस महाकाव्य में शक्ति पूजा का विस्तार से वर्णन किया। उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गांव गढ़ाकोला के मूल निवासी महाकवि निराला के जीवन का एक बड़ा भाग, महिषादल, बंगाल में बीता था। उनपर बांग्ला समाज, संस्कृति और भाषा का बहुत प्रभाव पड़ा था। कुछ विद्वानो के अनुसार उनको कृतिवास रामायण के इस प्रसंग ने यह अद्भुत कविता लिखने की प्रेरणा दी, और, अंतत: उन्होंने इसे अपनी कविता का कथानक बनाने का निश्चय किया।
कवि कृत्तिवास ओझा के विषय में उनकी रामकथा के लोकप्रिय होने के बावजूद लोगो को उनके बारे में अधिक जानकारी नहीं थी। उनकी रामायण के प्रारंभ अथवा प्रत्येक कांड के अंत में एक-दो ऐसी पंक्तियाँ अवश्य मिल जाती थीं जिनसे ज्ञात होता था कि इस रामायण के रचयिता का नाम कृत्तिवास हैं और वे एक प्रतिभासंपन्न कवि थे। बांग्ला साहित्य के विद्वानों नगेंद्रनाथ वसु एवं निदेशचंद्र सेन नेे, एक हस्तलिखित ग्रंथ जो कृत्तिवास का आत्मचरित कहा जाता है को दिनेश चंद्र सेन ने 1901 ई. में अपने ग्रंथ 'बंगभाषा व साहित्य' के द्वितीय संस्करण में प्रकाशित किया था । इसके बाद एक अन्य बांग्ला विद्वान नलिनीकांत भट्टशाली ने भी एक हस्तलिखित पोथी कहीं से प्राप्त की। इन पोथियों के अनुसार कृत्तिवास पुरुलिया के रहनेवाले थे। इनके पितामह का नाम मुरारी ओझा, पिता का नाम वनमाली एव माता का नाम मानिकी था। कृत्तिवास पाँच भाई थे। ये पद्मा नदी के पार वारेंद्रभूमि में पढ़ने गए थे। वे अपने अध्यापक आचार्य चूड़ामणि के अत्यंत प्रिय शिष्य थे। अध्ययन समाप्त करने के बाद वे गौड़ेश्वर के दरबार में गए। जनश्रुति के अनुसार कृत्तिवास ने गौड़ेश्वर को पाँच श्लोक लिखकर भेजे। उन्हें पढ़कर राजा अतीव प्रसन्न हुए और इन्हें तुरंत अपने समक्ष बुलाया। वहाँ जाकर इन्होंने कुछ और श्लोक सुनाए। राजा ने इनका अत्यंत सम्मान से स्वागत और सत्कार किया तथा बंग भाषा में रामायण लिखने का अनुरोध किया। कृतिवास ने गौड़ेश्वर के राज्याश्रय से बांग्ला के प्रसिद्ध, महाकाव्य की रचना की।
लेकिन, कृतिवास की यह रचना तो जन जन में लोकप्रिय हो गयी, पर उनके बारे में बहुत कुछ लोगो को ज्ञात न हो सका। मध्यकाल के भक्ति कवियों के बारे में जितना उनकी रचनाओं का प्रसार हुआ है, उसकी अपेक्षा उनके जीवन के बारे में लोगों को कम ही जानकारी है। यही बात, हिन्दी की दिग्गज त्रयी कबीर, सूर और तुलसी के बारे में भी कही जा सकती है। कृत्तिवास ओझा की निश्चित जनमतिथि और जीवनी के महत्वपूर्ण अंश का पता इस आत्मचरित से भी नहीं ज्ञात होता है । योगेशचंद्र राय 1433, दिनेशचंद्र 1385 से 1400 ई. के बीच तथा सुकुमार सेन 15वीं शती के उत्तरार्ध में इनका जन्म मानते हैं।
इतिहास के मध्यकाल में महाराष्ट्र से पंजाब तक और राजस्थान से असम तक कई भक्त कवि हुए। सूरदास, तुलसीदास, कबीरदास, रैदास, दादू, नानक, शंकरदेव, तुकाराम, मीराबाई जैसे इन सभी संतों ने भक्ति पर आधारित अपने साहित्य को रचा। अधिकतर निर्गुण परम्परा और कर्मकांड के विरोध में उठा यह आंदोलन, मुस्लिम आक्रमण के बाद बदलते हुए समाज की एक सशक्त साहित्यिक मुखरता थी। हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रथम लेखक आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ' इन कवियों ने अपनी रचना और भक्ति से विदेशी आंक्रांताओं के आक्रमण से हताश जनता को बहुत बड़ा संबल दिया. उनके अनुसार इनका मूल उद्देश्य कविता करना नहीं बल्कि अपने इष्टदेव की आराधना करना था. यानी ये पहले भक्त और फिर कवि थे। ' कृत्तिबास ओझा की भक्ति की संकल्पना के अनुसार इष्ट और भक्त दोनों बराबर नहीं हो सकते, इनमें हमेशा अंतर रहता है। उनका मानना था कि भक्त यदि पूजा, साधना, जप-तप आदि उपायों को करे तो ही उसे अपने इष्ट का साथ मिल सकता है। उनकी रचना इसी भक्ति भाव का परिणाम है।
ऐसा माना जाता है कि कृतिवास रामायण ने ही बंगाल में दुर्गा पूजा की परंपरा को विकसित किया। वाल्मीकि रामायण की बांग्ला भाषा में पुनर्प्रस्तुति इसी सोच का परिणाम थी। कुछ आलोचकों के अनुसार रामकथा के माध्यम से कृत्तिबास समाज में न्याय और अन्याय के द्वंद्व और अंततः, अन्याय पर न्याय की विजय को दिखाना चाहते थे। उनका मकसद था कि लोग समझें कि जीत अंतत: सत्य, न्याय और प्रेम की ही होती है। वे बताना चाहते थे कि रावण और उसके जैसे तमाम आतताइयों को एक दिन हारना ही होता है। आलोचकों का मानना है कि उनकी इस रचना का मकसद केवल भक्ति करना नहीं, बल्कि लोगों में इतिहास और मानव सभ्यता के प्रति समझ विकसित करना भी था. उनके अनुसार इस प्रसंग का आशय यही था कि केवल नैतिक बल से अन्याय को हराया नहीं जा सकता। उसकी हार तो तभी होती है जब न्यायी और सत्य के साथ खड़ा योद्धा शक्ति सम्पन्न भी हो। बंकिम चंद्र के आनन्द मठ का सुप्रसिद्ध और हमारा राष्ट्रगीत, वंदे मातरम, भी उसी मातृपूजा की आराधना है। यहां देश की ही कल्पना मातृ रूप में की गयी है। हालांकि यह कल्पना भी नयी नहीं है। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी, का उदाहरण हमारे यहां पहले से ही मौजूद था।
बंगाल में नारी-पूजा की परंपरा प्राचीन समय से प्रचलित है. इसलिए वहां शक्ति की पूजा करने वाले शाक्त संप्रदाय का काफी असर है। दूसरी ओर वहां वैष्णव संत भी हुए हैं, जो राम और कृष्ण की आराधना में यकीन रखते हैं। पहले इन दोनों संप्रदायों में अक्सर संघर्ष होता था। शैव वैष्णव संघर्ष का तो एक लंबा इतिहास है ही। कृत्तिबास ओझा ने अपनी रचना के माध्यम से शाक्तों और वैष्णवों में एकता कायम करने की काफी कोशिश की। बंग साहित्य के समीक्षकों के अनुसार राम को दुर्गा की आराधना करते हुए दिखाकर वे दोनों संप्रदायों के बीच एकता और संतुलन कायम करने में सफल रहे। यही निष्कर्ष कुछ विद्वान, तुलसी की चौपाई, शिव द्रोही मम दास कहावा, से भी निकलते हैं कि यह शैव वैष्णव एका का तुलसी प्रयास था। इस प्रसंग से राम का नायकत्व तो स्थापित हुआ ही, शक्ति, यानी नारी की अहमियत भी बरकरार रही। कृत्तिबास रामायण में लिखी गयी यह कथा, धीरे-धीरे पूरे बंगाल में प्रसिद्ध होती चली गई। बाउल गीतों से फैलने लगी। इसके साथ साथ दुर्गा भी वहां के जनमानस में लोकप्रिय होती गईं। यही नहीं पिछली पांच शताब्दियों में दुर्गा पूजा बंगाल का एक महत्वपूर्ण त्योहार बन चुका है. इस पर बंगाल का असर यदि देखना हो तो दुर्गा की प्रतिमाओं की बनावट को देखा जा सकता है जिन पर बंगाली मूर्तिकला का साफ असर है।
भले ही दुर्गा पूजा की परंपरा का प्रारंभ कृतिवास के काव्य से प्रेरित होकर पड़ी हो पर दुर्गा पूजा में जो मंत्र पढें जाते हैं और जो विधियां हैं वह दुर्गा सप्तशती से ली गयी है। 700 श्लोकों की यह रचना मूलतः मार्कण्डेय पुराण का एक अंश है। दुर्गा की विभिन्न रूपों में उनकी ओजस्वी स्तुतियां की गयी है। यह रचना देखने से ही युद्ध के आह्वान के लिये लिखी गयी लगती है। पहले स्वरक्षा के लिये कवच, कीलक और अर्गला के मंत्र हैं। फिर दुर्गा के उत्पत्ति की कथा है और फिर उनके द्वारा असुरों के संहार के वर्णन हैं। अंत मे क्षमा प्रार्थना है। दुर्गा यहां एकता के प्रतीक के रूप में भी देखी जा सकती हैं। सभी देवताओं के मुख से निकले तेज ने एक होकर जिस तेजपुंज का रूप लिया, वह नारी रूप बना। उसे सभी प्रमुख देवताओं ने अपने अपने अस्त्र शस्त्र दिये, और सबके तेज को समेट उस शक्ति स्वरूपा ने असुर संहार का दायित्व निभाया। कुछ विद्वान इसे आर्य अनार्य संघर्ष से भी जोड़ते हैं, और कुछ इसे आर्यो के भारत पर हमला कर के तत्कालीन मूल संस्कृति, जो कुछ विद्वानों के अनुसार, द्रविण सभ्यता का प्राचीन अंश थी, को नष्ट करने के सिद्धांत से जोड़ कर देखते है।
कोलकाता के दुर्गा पूजा का धार्मिक महत्व उतना नहीं है जितना कि इसका सांस्कृतिक महत्व है। दुनियाभर के बंगाली समाज के लोग इस 'पुजो' के अवसर पर अपने घर जाते हैं और इस समारोह में भाग लेते हैं।अष्टमी को पूजा का मुख्य दिन माना जाता है। पांच दिनों की मूर्ति स्थापना के बाद, दशमी के दिन इन मूर्तियों का विसर्जन हो जाता है जिसे बंगाल में भसान कहते हैं। मूर्तियों के बनाने, सजाने, पंडाल के निर्माण में भी नए नए प्रयोग होते रहते हैं, और अब थीम पूजा या पंडाल भी बनने लगे हैं। इसका एक बड़ा कारण आर्थिक संपन्नता और उपभोक्तावाद की संस्कृति का प्रसार भी है। बंगाल ललित कलाओं में प्रयोग करता रहता है। इनोवेटिव बांग्ला मस्तिष्क नित नये विचार और सोच को अपने सांचे में ढाल कर देखता रहता है। यही प्रयोगवाद पूजा पंडालों और देवी प्रतिमाओं की थीम पर भी उतर आता है। यही प्रयोगवाद आप को सत्यजीत रे, मृणाल सेन, हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में भी मिलता है।
बंग क्षेत्र का एक प्रमुख भूभाग, बांग्लादेश की राजधानी ढांका में दुर्गा पूजा की धूम ढाकेश्वरी मंदिर में होती है। यह मंदिर बांग्लादेश का राष्ट्रीय (जातीय ) मंदिर माना जाता है। ढाका, कलकत्ता से कहीं पुराना शहर है। इसका पुराना नाम जहांगीर नगर था। पर यह ढाका नाम से अब प्रसिद्ध है। ढाकेश्वरी' ढाका की देवी' है। ढाकेश्वरी मंदिर का निर्माण मूल रूप से 12 वीं शताब्दी में सेन राजवंश के राजा बल्लाल सेन द्वारा किया गया था। ढाका में सबसे बड़े मंदिरों में से एक होने के नाते, ढाकेश्वरी में पूजा उत्सव उन लोगों के लिए एक अद्भुत अनुभव है, जो उत्सव में मां षष्ठी की पूजा करना चाहते हैं। इसके अतिरिक्त, ढाका के स्वामीबाग रोड पर स्थित, इस्कॉन हरे कृष्ण मंदिर में दुर्गा पूजा की शुरुआत 'उल्टो रथ यात्रा' के साथ शुरू होती है, जो भगवान जगन्नाथ के रथ से निकलकर ढाकेश्वरी मंदिर से महालय के परिसर तक जाती है। ज्ञातव्य है कि अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ इस्कॉन, इंटरनेशनल सोसायटी फ़ॉर कृष्णा कॉन्शसनेस के संस्थापक, प्रभुपाद स्वयं बंगाल के थे औऱ चैतन्य परम्परा के वैष्णव संत थे। इसके अतिरिक्त, ढाका के सबसे बड़े पूजा मंडपों में से एक गुलशन-बनानी सरबजनिन पूजा परिषद द्वारा आयोजित किया जाता है।
जब बंगाल की बात की जाती है तो इसे वृहत्तर बंगाल समझना चाहिये। इसमे आज का बांग्लादेश, बिहार उड़ीसा तीनो है। दुर्गापूजा का विस्तार पूरे बंगाल में हुआ और जब ब्रिटिश राज में कलकत्ता राजधानी बना और पढा लिखा बंगीय समाज नौकरियों के कारण बंगाल से बाहर गया तब वह अपनी भाषा सभ्यता संस्कृति के साथ साथ दुर्गापूजा की यह विशिष्ट परंपरा भी लेता गया। आज दुर्गापूजा केवल बंगाल में ही नहीं बल्कि उत्तर भारत के गैर बंगाली स्थानों में भी खूब धूमधाम से मनाई जा रही है। यह अलग बात है बंगाल के लावण्य और नम वातावरण और ओजस्वी ढाक ध्वनि के परंपरागत माहौल की जगह अब फिल्मी धुनों पर डीजे के कर्कश शोर ने कब्ज़ा जमा लिया गया है।
लोककथाओं और धर्मकथाओ का एक उद्देश्य यह होता है कि जनमानस उसके माध्यम से सार्थक जीवन जीने की ओर अग्रसर हो। भारतीय वांग्मय परंपरा में, पंचतंत्र, जातक कथाएं, कथा सरित्सागर आदि लोककथाओं की एक समृद्ध परंपरा रही है। रावण अपने विशद ज्ञान, अपार पराक्रम और अपरिमित वैभव के बाद में अपने कुछ कृत्यों के कारण समाज मे निंदित हुआ और युद्ध मे पराजित हो मारा गया। हम कितने भी विद्वान हों, पराक्रमी हों और अपार संपदा भी पास हो भी अगर कुमार्ग पर चलेंगे तो समाज और इतिहास में निंदित और खलनायक के तौर पर ही देखे जाएंगे। रामकथा और इस महापर्व का यही संदेश है।
© विजय शंकर सिंह
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