सावन में बच्चे मरते ही हैं, यह बयान आपको याद होगा। यह बयान दिया था उत्तरप्रदेश के मंत्री ने जब गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज में में बहुत से बच्चे घातक मस्तिष्क ज्वर से पीड़ित होकर मर गए। डॉ कफील वहां शिशु रोग विभाग में डॉक्टर थे। यह बात सामने आयी कि बच्चों की इस दुःखद मृत्यु का कारण, ऑक्सीजन की कमी है और अस्पताल में ऑक्सिजन गैस के सिलेंडरों की कमी के चलते यह हादसा हुआ है। ऑक्सिजन गैस के सिलेंडरों की कमी के लिये डॉ कफील को जिम्मेदार ठहराया गया और उन्हें निलंबित कर दिया गया।
बाद में उनपर लापरवाही का मुकदमा भी चला और वह जेल भी भेजे गए। उनके खिलाफ एक विभागीय जांच हुयी और अब वे उस विभागीय जांच में दोषमुक्त पाए गए हैं। उनपर तीन आरोप थे।
* उन्होंने चिकित्सा में लापरवाही किया था जिससे इतने बच्चे मरे।
* वे सरकारी ऑक्सीजन सिलेंडर को बाजार में निजी नर्सिंग होम में बेच दिया करते थे।
* वे निजी प्रैक्टिस करते थे।
द हिन्दू की एक खबर के अनुसार, इन तीनो आरोपों की जांच हुयी थी, और यह आरोप जांच के बाद प्रमाणित नहीं पाए गए।
हालांकि डॉ कफील के खिलाफ लगाए गए तीसरे आरोप, कि वे निजी प्रैक्टिस करते हैं, के सम्बंध में उन्हें पूरी तरह से आरोप मुक्त नहीं किया गया है। अब इस पर सरकार क्या अग्रिम कार्यवाही करती है यह तो पता नहीं पर सरकारी डॉक्टर द्वारा निजी प्रैक्टिस का आरोप कोई गम्भीर आरोप नहीं है बल्कि अधिकतर सरकारी डॉक्टर निजी प्रैक्टिस करते है यह एक सामान्य धारणा है और यह सच है। पर इलाज में लापरवाही और ऑक्सिजन सिलिंडर की हेराफेरी में जैसा कि वे और अन्य अखबार बता रहे हैं उनपर दोष सिद्ध नहीं हुआ है।
डॉ कफील खान ने अपनी दोषमुक्ति पर एनडीटीवी से जो कहा उसे भी पढें,
' मैं काफ़ी ख़ुश हूं मुझे सरकार से ही क्लीनचिट मिली है। पर मेरे ढाई साल वापस नहीं आ सकते। अगस्त 2017 में गोरखपुर में लिकविड ऑक्सिजन कमी से 70 बच्चों की मौत हुई थी। मैंने बाहर से ऑक्सीजन सिलेंडर मंगा कर बच्चों की जान बचाई। उस समय के बड़े अधिकारियों और स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह को बचाने के लिए मुझे फंसाया गया। मुझे 9 महीनों के लिए जेल भेज दिया गया जहां टॉयलेट में बंद कर दिया जाता था। जब मैं जेल से वापस आया तो मेरी छोटी बेटी ने मुझे पहचाना तक नहीं। मेरा परिवार सौ-सौ रुपए के लिए मोहताज हो गया था'।
आगे फिर कहते हैं,
" मेरे भाई पर हमला कराया गया। अप्रैल 2019 को सरकार की जांच पूरी हो गई थी पर मुझे अब ये रिपोर्ट सौंपी गई है. मैं चाहता हूं कि जो 70 बच्चे मरे उनको इंसाफ मिले. मैं उम्मीद करता हूं कि योगी सरकार मेरा निलंबन वापस लेगी'।"
डॉ कफील खान की आरोप मुक्ति पर कुछ विवाद भी खड़े हो गए हैं। एक विवाद उनके द्वारा निजी प्रैक्टिस करने का है। इस पर एक वीडियो बयान डॉ कफील ने जारी किया है कि वे जब से बीआरडी मेडिकल कॉलेज में नियुक्त हुए हैं उसके बाद निजी प्रैक्टिस करने का कोई भी आरोप उनपर प्रमाणित नहीं हुआ है।
डॉ कफील खान ने अपनी फेसबुक पेज पर इस जांच के बारे में जो कहा है वह मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ,
जांच कमेटी ने निष्कर्ष निकाला है कि, मैं 08/08/16 को गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में परिवीक्षाधीन व्याख्याता के रूप में शामिल हुआ था। बीआरडी की दुखद त्रासदी के समय, मैं परिवीक्षाधीन था, इसलिए ऑक्सीजन की खरीद या रखरखाव में किसी भी प्रशासनिक या पर्यवेक्षी प्रक्रिया में मेरी भागीदारी का कोई सवाल ही नहीं था।
2- 10/08/17 को छुट्टी पर होने के बावजूद वह निर्दोष लोगों की जान बचाने के लिए बीआरडी मेडिकल कॉलेज गोरखपुर पहुंचे।
जांच में यह भी पाया गया है कि 10.08.2017 को, जब बीआरडी मेडिकल कॉलेज में दुखद त्रासदी हुई थी, मैं छुट्टी पर था और जैसे ही सूचना मिली, छुट्टी पर होने के बावजूद और किसी भी डॉक्टर के पास होने पर, मैं तुरंत अस्पताल पहुंचा। और मेरी टीम के साथ, उन 54 घंटों में 500 सिलेंडरों की व्यवस्था करने में कामयाब रहे।
3 - "उन्होंने उस भयावह रात को 26 लोगों को फोन किया।"
पूछताछ ने इस बात पर भी सहमति जताई है कि मैंने अपनी पूरी क्षमता के लिए हर संभव प्रयास किया था जिसमें बीआरडी मेडिकल कॉलेज के सभी अधिकारियों के साथ खुद के द्वारा किए गए फोन कॉल भी शामिल थे।
4- कोई सबूत नहीं है कि भ्रष्टाचार में उनकी संलिप्तता का पता चलता है
5- वह ऑक्सीजन आपूर्ति के भुगतान / आदेश / निविदा / रखरखाव के लिए जिम्मेदार नहीं था ।
6- वह इंसेफेलाइटिस वार्ड के प्रमुख नहीं थे
7- इस बात का कोई सबूत नहीं है कि वह 08/08/16 के बाद निजी प्रैक्टिस कर रहा था। उसका नाम 28/04/17 * को निजी प्रैक्टिशनर के रूप में हटा दिया गया था
8- किसी भी पदार्थ के बिना चिकित्सकीय लापरवाही के आरोप निराधार थे ।(बलहीन और असंतुलित)
इस सम्बंध में डॉ कफील को, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जमानत देते हुए ही कहा था, कि उनके खिलाफ चिकित्सा में की गयी लापरवाही का कोई सबूत नहीं है और जहाँ से तरल ऑक्सीजन की खरीद या इसकी निविदा प्रक्रिया होती थी उज़मे वे शामिल नहीं थे।
हाल ही में एक आरटीआई में, सरकार ने स्वीकार किया है कि 10 से 12 अगस्त 2017 तक बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 54 घंटे के लिए तरल ऑक्सीजन की कमी थी और डॉ कफील ने बीमार बच्चों को बचाने के लिए जंबो ऑक्सीजन सिलेंडर की व्यवस्था की थी।
उच्च न्यायालय के हलफनामे में, सरकार ने ऑक्सीजन की आपूर्ति में कमी को स्वीकार किया है। माननीय उच्च न्यायालय ने 30 अप्रैल 2018 को अपने फैसले में कहा कि तरल ऑक्सीजन की आपूर्ति में अचानक व्यवधान के कारण तरल ऑक्सीजन की कमी थी जो आपूर्तिकर्ता को बकाया भुगतान न करने के कारण हुई।
सरकार इस जांच के निष्कर्षों से सहमत होगी और अब उनका निलंबन वापस होगा, या नही होगी, या यह हो सकता है कुछ विन्दुओं पर और जांच कराए, यह बाद की बात है। पर जिन परिस्थितियों में और जैसे इस घटना में डॉ कफील को बच्चों की मृत्यु का आरोपी बनाया गया था वह किसी सरकारी अधिकारी पर उसके द्वारा की गई लापरवाही का आरोप कम, एक बदला लेने की प्रवित्ति अधिक थी। मीडिया में डॉ कफील की लापरवाही को इस प्रकार से प्रचारित किया गया जैसे वे ही बीआरडी मेडिकल कॉलेज के सर्वेसर्वा हों। जब कि किसी भी विभाग में साज ओ सामान के आपूर्ति की एक श्रृंखला और प्रक्रिया होती है और ऐसी सप्लाई के ठेके से सभी डॉक्टर जुड़े भी नहीं होते हैं। लेकिन यह गाज केवल डॉ कफील पर ही गिरी। न तो प्रिंसिपल के बारे में कुछ पता चला कि उनका क्या हुआ, और न ही बजट, अनुदान और आपूर्ति से जुड़े विभागों के अफसरों के बारे में कुछ ज्ञात हो गया।
डॉ कफील खान ने इस पूरे मामले की सीबीआई से भी जांच कराने की मांग की है। डॉ कफील भले ही बच गए हों पर 34 बच्चों की अकाल मृत्यु का कारण तो उनके माता पिता और जनता को तो पता चलना ही चाहिये। जो भी लापरवाही, प्रमाद, या कदाचार, इन बच्चों के इलाज में हुआ है यह आज तक नहीं पता चला। तब तो सबका इल्ज़ाम, डॉ कफील पर था। वे निलंबित भी हुये और जेल भी भेजे गए। पर अब जब वे आरोप मुक्त हो गए हैं तो मूल प्रश्न कि बच्चों की अकाल मृत्यु का जिम्मेदार कौन है यह आज भी खड़ा है और इसका उत्तर ढूंढा जाना चाहिये। डॉ कफील का फंसना या बचना उनके और उनके मित्रों, विभाग आदि के लिये महत्वपूर्ण हो सकता है पर बच्चों के अकाल मृत्यु का जिम्मेदार कौन है, यह जानना सबसे अधिक ज़रूरी है।
सत्यमेव जयते, यानी सत्य की विजय होती है। मुंडक उपनिषद का यह श्लोकांश हमारा राष्ट्रीय बोध वाक्य है। यह बात सच है कि सत्य की विजय होती है पर इस सच की यह भी एक नियति है कि यह विजय कभी कभी सबकुछ या बहुत कुछ गंवा कर होती है, तब वह विजय केवल एक आत्मिक तोष बनकर ही रह जाती है। महाभारत के महाविनाश से लेकर आज तक दुनियाभर में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे। फिर ऐसी विजय कभी कभी वीतरागी बना देती है, और यह जय आक्षेप, आरोप, अफवाह, दुष्प्रचार आदि के तमाम छींटों को जीवन भर नहीं मिटा पाती है। डॉ कफील की भी व्यथा कुछ ऐसी ही है, जब वे यह कहते हैं कि उनके जेल में बिताए गये दिन कौन लौटाएगा। उत्तर है कोई भी नही लौटा सकता। सर्वशक्तिमान ईश्वर भी नहीं। बेहतर से बेहतर भविष्य के दिनों के बावजूद यह जमा हुआ अंधकार भरा अतीत एक फॉसिल की तरह है वह न नष्ट होता है और न विलीन। शायद वह हमें भविष्य के किसी सबक की तरह याद रहे इसलिए नियति ने ऐसा कोई प्राविधान कर रखा है।
सरकारी अफसर और कर्मचारी ऐसी लंबी औऱ मानसिक यातना भरी जांचे झेलते रहते हैं। कभी कभी तो ऐसी भी जांचे झेलनी पड़ती हैं जिनके बारे में जांच का आदेश देने वाले से लेकर जांच करने वाले तक सबको यह पता रहता है कि इस जांच में कुछ नहीं होगा और न ही कोई तथ्य हैं, फिर भी सरकारी मुलाजिम जांच झेलते हैं, निलंबित होते हैं, कुछ जेल भी जाते हैं, पर बच भी निकलते हैं। कभी कभी जांचे सनक के कारण भी बैठा दी जाती हैं। ऐसी सनक भरी जांचों और दंड से सबसे अधिक पीड़ित मेरा ही विभाग है, यानी पुलिस विभाग। ऐसी जांचों से न केवल सरकार और विभाग की न्यायप्रियता पर सरकारी सेवक के मन मे आक्रोश उपजता है बल्कि इसका असर मनोबल पर भी पड़ता है। पर सत्ता का मूल चरित्र ही अहंकार से प्रेरित होता है।
डॉ कफील का निलंबन भी वापस होगा और उन्हें वे सारे आर्थिक लाभ भी मिल जाएंगे। बीआरडी मेडिकल कॉलेज में नौकरी अगर वे करना चाहेंगे तो करेंगे भी। पर उन्हें वह अंधकार भरे दिन कभी वापस नहीं मिलेंगे, यह वह भी जानते हैं और हम सब भी। शायद ऐसे ही अंधकार भरे दिनों के लिये कोई ढांढस बढ़ाये, इन्हें भुला दे, नियति और ईश्वरीय विधान का अविष्कार मानव मात्र ने किया हो, क्या पता ।
© विजय शंकर सिंह
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