Friday, 6 September 2019

चांद, नील आर्मस्ट्रांग, गांधी और चन्द्रयान 2 / विजय शंकर सिंह

यह शीर्षक कुछ अटपटा लग सकता है। पर बात इसी शीर्षक की हो रही है। कल रात हम सब चांद के सफर पर थे। न हम चन्द्रयान पर सवार थे और न ही हम इसरो के कंट्रोल रूम में मौजूद थे, हम सब अपने अपने घर मे ही चांद की ओर जाता हुआ विक्रम लैंडर देखते रहे। अंतिम समय पर विक्रम लैंडर का सम्पर्क इसरो के कंट्रोल रूम से टूट गया औऱ आगे क्या हम चांद पर उतर पाये या नहीं,  इसकी स्पष्ट सूचना, अभी तक इसरो के पास भी नहीं है। भारत, चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर कोई यान भेजने वाला पहला देश है। अब तक चांद पर गए ज़्यादातर मिशन इसकी भूमध्य रेखा के आस-पास ही उतरे हैं । विक्रम लैंडर को चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरना था। चाँद की सतह से मात्र 2.1 किलोमीटर की दूरी तक सब ठीक रहा लेकिन उसके बाद विक्रम लैंडर से संपर्क टूट गया। अब डेटा का आँकलन किया जा रहा है। विक्रम का कंट्रोल रूम से सम्पर्क पुनः जुड़ सकता है। यह सफलता भी कम नही है। विज्ञान की सारी उपलब्धियों के पीछे, प्रयोग, असफलता, पुनः प्रयोग, सफलता और निरंतर सुधार का अनन्त चक्र चलता रहता है। यह भी उसी की एक कड़ी है। चन्द्रयान 2 की इस सफलता के लिये भी, इसरो की सराहना की जानी चाहिये। यह अंतिम नहीं है बल्कि चांद के पार असीम अंतरिक्ष की ओर बढ़ते जाने का एक मिशन है, जिसके लिये इसरो के वैज्ञानिक समुदाय को शुभकामनाएं ।

अब इस शीर्षक पर आइए। चांद, नील आर्मस्ट्रांग, गांधी और चन्द्रयान 2 में गांधी ऑड मैन आउट की तरह लग रहे हैं। गांधी की तासीर ही ऐसी है कि वह ऑड मैन आउट रहते हुये भी हर जगह यूं फिट हो जाते हैं, जैसे वहीं के लिये बने हों। ब्रिटिश सम्राट के ऐश्वर्यपूर्ण दरबार से लेकर, दांडी में सागर तट पर एक मुट्ठी नमक हांथ में लिये तत्कालीन विश्व के सबसे ताकतवर सम्राट को चुनौती देते हुये वह एक ऑड मैन आउट सरीखे ही तो इतिहास में दिखते हैं। फिर भी कुछ की तमाम कोशिशों के बावजूद वह इतिहास से खारिज नहीं किये जा पा रहे हैं !यही प्रासंगिकता ही उनकी जीवंतता है। 1969 में नील आर्मस्ट्रांग ने चन्द्रमा पर कदम रखा था। वह मिशन अपोलो 11 था। नील आर्मस्ट्रांग वापसी में अपने साथ चांद की ज़मीन के कुछ टुकड़े भी लाये थे। उन्हीं टुकड़ों में से एक छोटा सा टुकड़ा भारत में भी आया था। उसकी एक प्रदर्शनी बनारस के टाउनहॉल में, जो मैदागिन पर है,  हुयी थी। टाउनहॉल के बड़े से हॉल में एक ऊंची मेज़ पर एक शीशे के बड़े से पात्र में उसे रखा गया था। एक दरवाजे से लोग अंदर लाइन लगा कर जाते थे और दूर से ही उंस चांद की मिट्टी को देखते थे।

हम उस समय छात्र थे, जो उदय प्रताप कॉलेज के इंटर में पढ़ते थे, भी उंस चांद के टुकड़े को देखने गए थे। पर वह कल्पना के चांद के टुकड़े की तुलना में बिल्कुल उलट और अपनी शस्य श्यामला धरती की मिट्टी से बहुत सूखा और काला लगा। कुछ लोग फूल माला भी लिए थे, जो उस जार में रखे चांद के पत्थर की ओर उछाल देते थे। फिर फूल माला को अंदर ले जाने से रोक दिया गया। चांद का वह पत्थर कोयले की तरह मुझे दिखा था। यही हम सबके लिये अचरज की बात थी कि हमने अब तक आसमान में उधार की रोशनी से जगमग करते सबको लुभाते हुए चांद को कभी आसमान में खोया खोया चांद, जैसी कल्पना में ही देखा करते थे, यहां उसी के एक अंश को साक्षात देख रहे हैं।

संसार मे सबसे पहले अंतरिक्ष कार्यक्रम यूएस और सोवियत रूस द्वारा शुरू किए गये। इन अंतरिक्ष कार्यक्रमों का एक उद्देश्य शीतयुद्ध काल मे एक दूसरे की जासूसी करना भी था, क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध मे रूस और अमेरिका के एक साथ आने की जो वजह थी वह समाप्त हो गयी थी और फ़िर दोनों के आपसी वैचारिक द्वंद्व उभर आये थे। धीरे धीरे इन उद्देश्यों का दायरा बढ़ा और यह सभी कार्यक्रम अखिल विश्व के कल्याणार्थ हैं,  स्वीकार कर लिये गये। रूस के यूरी गागरिन पहले अंतरिक्ष यात्री थे जो 12 अप्रैल 1961 को अंतरिक्ष मे गये थे। उनकी यह यात्रा वोस्टोक - 1 अंतरिक्ष यान से हुयी थी।

बाद में भारत ने भी अपने एक अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा को अंतरिक्ष मे भेजा। 1984 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन और सोवियत संघ के इंटरकॉसमॉस कार्यक्रम के एक संयुक्त अंतरिक्ष अभियान के अंतर्गत राकेश शर्मा आठ दिन तक अंतरिक्ष में रहे। ये उस समय भारतीय वायुसेना के स्क्वाड्रन लीडर और विमानचालक थे। 2 अप्रैल 1984 को दो अन्य सोवियत अंतरिक्ष यात्रियों के साथ सोयूज टी-11 में राकेश शर्मा को लॉन्च किया गया। इस उड़ान में और साल्युत 7 अंतरिक्ष केंद्र में उन्होंने उत्तरी भारत की फोटोग्राफी की और गुरूत्वाकर्षण-हीन योगाभ्यास किया। वे अंतरिक्ष मे जाने वाले भारत के पहले ओर विश्व के 138 वे व्यक्ति थे।

चंद्रयान- 1 भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के चंद्र अन्वेषण कार्यक्रम के अंतर्गत द्वारा चंद्रमा की ओर जाने वाला भारत का पहला अंतरिक्ष यान था। इस अभियान के अन्तर्गत एक मानवरहित यान को 22 अक्टूबर, 2008 ई को चन्द्रमा पर भेजा गया और यह 30 अगस्त, 2009 ई,  तक सक्रिय रहा। यह यान पोलर सेटलाईट लांच वेहिकल,( पी एस एल वी) के एक संशोधित संस्करण वाले राकेट की सहायता से सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से प्रक्षेपित किया गया था। इसे चन्द्रमा तक पहुँचने में कुल 5 दिन लगे थे, पर चन्द्रमा की कक्षा में स्थापित करने में इसको 15 दिनों का समय लग गया। चंद्रयान ऑर्बिटर का मून इम्पैक्ट प्रोब (MIP) 14 नवंबर 2008 को चंद्र सतह पर उतरा, जिससे भारत चंद्रमा पर अपना ध्वज  लगाने वाला दुनिया में चौथा देश बन गया। 15 अगस्त 1969 में इसरो की स्थापना हुयी थी । आर्यभट्ट से लेकर आज चन्द्रयान 2 तक इसरो ने सफलता के कई महत्वपूर्ण सोपान तय किये हैं। यह सिलसिला आगे भी चलेगा। थमेगा नही यही उम्मीद है।

वैज्ञानिक अभियान, प्रोजेक्ट होते हैं, इवेंट नहीं। दुनिया का शायद ही कोई प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति अगर वह प्रोफेशनल वैज्ञानिक नहीं है तो ऐसे अंतरिक्ष कार्यक्रमों में जब कि सालों साल की मेहनत के बाद एक ऐसा क्षण आने वाला हो जब वह प्रोजेक्ट अपनी पूर्णता पर पहुंच रहा हो तो कंट्रोल रूम में नहीं जाता है। यह एक नायाब प्रथा हमारे यहां ही पड़ रही है कि हौसला अफजाई के लिये प्रधानमंत्री जी को जाना पड़ रहा है।

जो वैज्ञानिक लंबे समय से चन्द्रयान 2 प्रोजेक्ट पर लगे हैं उनमें मनोबल की कमी नहीं ही सकती है। विज्ञान के छात्र प्रयोगधर्मी होते हैं। उन्हें अपने प्रोजेक्ट के लिये निरंतर नए नए प्रयोग करने पड़ते हैं। कई बार प्रयोग असफल हो जाते हैं और कई बार ऐसा भी होता है जिस उद्देश्य से प्रयोग किया जा रहा हो, उससे अलग ही कोई नयी चीज निकल कर आ जाती है। विज्ञान के छात्र स्वभावतः तार्किक होते हैं। तर्क, जिज्ञासा और सन्देह ही वैज्ञानिक खोज का मूलाधार होता है। अक्सर ऐसे अवसर पर जब कोई वीवीआईपी कंट्रोल रूम में उपस्थित होता है तो प्रोजेक्ट के संचालित करने वाले वैज्ञानिको पर एक मानसिक दबाव होता है और उस समय वह हर हालत में उसे पूरा कर ही डालना चाहता है। इसरो प्रमुख के आंसू इसी दबाव के परिणाम हैं। उनकी मेहनत में कोई कमी नहीं और न उनकी प्रतिभा में। बस परिणाम अपेक्षाकृत नहीं आया, और यह वैज्ञानिक प्रयोगों में होता रहता है।

सरकार का यह दायित्व है कि वैज्ञानिक शोधों के लिये अपने शीर्षस्थ वैज्ञानिक नौकरशाहो की बात सुने, उनपर विश्वास करे, जो वे अनुदान मांगे अनुदान दे और उनके प्रोजेक्ट को सफल होने के लिये पूरा प्रयास करे। और अगर प्रोजेक्ट असफल होते हैं तो इसकी भी छानबीन कराए ताकि उन कारणों का पता लगाया जा सके जिससे कि अमुक प्रोजेक्ट क्यों नहीं अपनी पूर्णता को प्राप्त हुआ है। दुनियाभर में ऐसे प्रोजेक्ट जब वे ऑपरेशन में हों तो  अमूमन मीडिया से दूर रखे जाते हैं और जब वह सफल या विफल होता है तो मीडिया को उंस संस्थान का प्रमुख ही यह सूचना देता है।

हम भारतीय स्वभावतः उत्सवधर्मी होते है। यह उत्सवधर्मिता ही हमे हर गम्भीर प्रोजेक्ट को एक इवेंट में बदलने के लिये प्रेरित करती रहती है। संचार क्रांति के इस युग मे अब मिनटों में किसी भी घटना को एक इवेंट बना देना मुश्किल नहीं है। मीडिया ने इस उत्सवधर्मिता के स्वभाव को कुछ अधिक ही अपना लिया है। कोई एंकर स्पेस सूट पहन कर चांद पर पहुंचने का स्वांग रच रहा है तो कोई ठकुरसुहाती की सारी सीमाएं ही लांघ जा रहा है। इस इवेंट भाव और दुनिया हमे देख रही है का मनोवैज्ञानिक असर प्रोजेक्ट पूरा करने में लगे वैज्ञानिकों पर अनजाने में, एक दबाव और तनाव के रूप में पड़ता है। किसी भी वीवीआइपी की उपस्थिति से यह असर और पड़ता है।

कल रात जो वैज्ञानिक प्रयोग असफल हुआ उसे एक प्रोफेशनल वैज्ञानिक प्रयोग के रूप में हमे देखना चाहिये। कल पीएम ने भी यही बात कही। यह फिर नए सिरे से शुरू होगा। हमसे कहीं ज्यादा वैज्ञानिक प्रतिभा सम्पन्न और तकनीकी में अग्रणी देशों के भी अंतरिक्ष कार्यक्रम कई कई बार असफल हुये है। पर वे बाद में फिर सफल हुए हैं। वैज्ञानिकों की प्रतिभा, श्रम और उनकी मेधा को बधाई। पर एक चीज हमे यह स्वीकार करनी पड़ेगी कि यह कोई इवेंट या तमाशा नहीं है। यह एक अंतरिक्ष अभियान है और सभी अभियान सफल भी नहीं होते हैं।

अब इस शीर्षक को प्रासंगिक बनाता यह  रोचक उद्धरण पढें। यह मैंने साहित्यकार उदय प्रकाश जी की फेसबुक वॉल से लिया है। 1969 महात्मा गांधी का जन्म शताब्दी वर्ष था। उसी अवधि में नील आर्मस्ट्रांग भारत की यात्रा पर आए थे। उन्होंने अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम और महात्मा गांधी की विश्व को दी गयीं विरासत को स्मरण करते हुये कहा था,

“Gandhi worked for promoting peace and brotherhood among men. The US air space programme was conceived in the same belief as a peaceful effort based on international co-operation, the fruits of which are to be shared by all mankind… In this way, space science and technology can make an important contribution to the fulfillment of Mahatma Gandhi’s dream”.

" गांधी ने लोगों में भाई चारा और शांति बनाए रखने के प्रयास किये थे। इसी विश्वास से, शांतिपूर्ण अंतरराष्ट्रीय सहयोग हेतु यूएस के अंतरिक्ष कार्यक्रमों की अवधारणा की गयी है कि उसका फल सम्पूर्ण मानवता को मिले, और अंतरिक्ष, विज्ञान और तकनीकी से मानव कल्याण का उद्देश्य जो महात्मा गांधी का स्वप्न है वह पूरा हो। "

एक बार फिर इसरो के वैज्ञानिकों, और सरकार के अंतरिक्ष कार्यक्रमों को शुभकामनाएं। फिलहाल इसरो ने अपने आधिकारिक बयान में कहा है कि,
" विक्रम लैंडर योजना अनुरूप उतर रहा था और गंतव्य से 2.1 किलोमीटर पहले तक उसका प्रदर्शन सामान्य था. उसके बाद लैंडर का संपर्क जमीन पर स्थित केंद्र से टूट गया. डेटा का विश्लेषण किया जा रहा है। "

© विजय शंकर सिंह

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