आरएसएस खुद को राष्ट्रवादी कहते नहीं थकता है। उसके राष्ट्रवादी चरित्र को समझने के लिये देश के क्रांतिकारी आंदोलन के महानतम योद्धा, भगत सिंह के बारे में, जब देश आज़ादी की लड़ाई में गांधीवादी तरीकों से लेकर, हिंसक और क्रांतिकारी आंदोलन के साथ वैचारिक मतभेदों को भुला कर एक व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन चला रहा था, तो उसकी क्या सोच थी, वह इस #उद्धरण से जाना जा सकता है। टुकड़ों टुकड़ो में बिखरे इस इतिहास तंतु को देखें तो संघ के संकीर्ण और जिन्ना मॉडल राष्ट्रवाद जिसे द्विराष्ट्रवाद कहते हैं, का अक़्स नज़र आता है। हिंदू महासभा, आरएसएस के सिद्धांतकार, स्वाधीनता संग्राम के दुर्घर्ष दिनों में आज़ादी के लिये हो रहे संघर्षों से अलग ही नहीं बल्कि कभी कभी वे इसके विपरीत और अंग्रेज़ों तथा विभाजनकारी ताकतों के साथ दिखते हैं। तत्कालीन संघ साहित्य में भगत सिंह के संघर्षों और उनकी शहादत के बारे में एक प्रकार की चुप्पी ही मिलती है।
भगत सिंह और उनके साथियों के बारे में आरएसएस के विचार का एक उद्धरण आप यहां पढ़ सकते हैं।
मधुकर दत्तात्रेय देवरस आरएसएस के तीसरे प्रमुख थे। उन्होंने जब भगत सिंह और साथियों को फांसी दे दी गयी तो बहुत ही उद्वेलित अवस्था मे डॉ हेडगेवार जो आरएसएस के प्रमुख थे से वे और उनके साथी मिले। देवरस और उनके युवा साथी देश की आज़ादी के लिये कुछ करना चाहते थे, पर डॉ हेडगेवार ने उन्हें समझा बुझा कर मना कर दिया। देवरस के ही शब्दों में पढ़ें ।
“जब भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई थी, तब हम कुछ दोस्त इतने उत्साहित थे कि हमने साथ में कसम ली थी कि हम भी कुछ खतरनाक करेंगे और ऐसा करने के लिए घर से भागने का फैसला भी ले लिया था. पर ऐसे डॉक्टर जी (हेडगेवार) को बताए बिना घर से भागना हमें ठीक नहीं लग रहा था तो हमने डॉक्टर जी को अपने निर्णय से अवगत कराने की सोची और उन्हें यह बताने की जिम्मेदारी दोस्तों ने मुझे सौंपी. हम साथ में डॉक्टर जी के पास पहुंचे और बहुत साहस के साथ मैंने अपने विचार उनके सामने रखने शुरू किए. ये जानने के बाद इस योजना को रद्द करने और हमें संघ के काम की श्रेष्ठता बताने के लिए डॉक्टर जी ने हमारे साथ एक मीटिंग की. ये मीटिंग सात दिनों तक हुई और ये रात में भी दस बजे से तीन बजे तक हुआ करती थी. डॉक्टर जी के शानदार विचारों और बहुमूल्य नेतृत्व ने हमारे विचारों और जीवन के आदर्शों में आधारभूत परिवर्तन किया. उस दिन से हमने ऐसे बिना सोचे-समझे योजनाएं बनाना बंद कर दीं. हमारे जीवन को नई दिशा मिली थी और हमने अपना दिमाग संघ के कामों में लगा दिया.”
—मधुकर दत्तात्रेय देवरस ( संघ के तीसरे प्रमुख)
( स्मृतिकण- परम पूज्य डॉ. हेडगेवार के जीवन की विभिन्न घटनाओं का संकलन, आरएसएस प्रकाशन विभाग, नागपुर, 1962, पेज- 47-48)
आरएसएस की भूमिका आज़ादी की लड़ाई में बहुत कम रही है। कोई उल्लेख नहीं मिलता है। कहने को तो वे कहते हैं कि वे गोपनीय रूप से आज़ादी के लिये लगे थे, पर कहां लगे थे यह वे नहीं बताते हैं। सच तो यह है किआजादी के पहले के संगठन जैसे हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और मुस्लिम लीग भी थे जो इन क्रांतिकारियों के आदर्शों से कोई इत्तेफाक नहीं रखते थे बल्कि इनकी फांसी पर भी चुप्पी साधे रहे । पर दिलचस्प पहलू यह है कि इन तीनों सांप्रदायिक संगठनों में से आरएसएस, जो अंग्रेजों के खिलाफ हुए उस पूरे संघर्ष के दौरान खामोश बना रहा, पिछले कुछ समय से ऐसा साहित्य सामने ला रहा है जो दावा करता है कि आजादी की लड़ाई के दौर में उनका इन क्रांतिकारियों से जुड़ाव रहा था. एनडीए के शासन काल में जब संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी देश चला रहे थे तब राकेश सिन्हा द्वारा संपादित और प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार में एक आश्चर्यजनक दावा किया गया कि संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार 1925 में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु से मिले थे और इन क्रांतिकारियों की बैठकों में भी भाग लिया करते थे और राजगुरु जब सांडर्स की हत्या के बाद भूमिगत हुए थे तब उन्हें आश्रय भी दिया था.।
(देखें- डॉ केशव बलिराम हेडगेवार :
राकेश सिन्हा, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, पेज- 160)
भगत सिंह से डॉ हेडगेवार से मिलने और उनके संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी / एसोशिएशन की गोपनीय बैठकों में भाग लेने की बात का सिवाय इस पुस्तक के कहीं और उल्लेख नहीं मिलता है। भगत सिंह और आरएसएस दोनों ही दो वैचारिक ध्रुवों पर हैं। भगत सिंह पर व्यापक शोध करने वाले जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर चमनलाल, बराइच साहब, कुलदीप नैयर, भगत सिंह के साथी और प्रसिद्ध लेखक यशपाल, कानपुर के प्रसिद्ध क्रांतिकारी शिव वर्मा, पत्रकारिता के पुरोधा गणेश शंकर विद्यार्थी जो इस क्रांतिकारी गुट के संरक्षक के समान थे, दुर्गा भाभी आदि से जुड़े संस्मरणों में डॉ हेडगेवार से हुई ऐसी मुलाक़ात का कोई जिक्र नहीं है।
महात्मा गांधी के धुर विरोधी एमए जिन्ना भगत सिंह के प्रशंसकों में थे और उन्होंने असेंबली में इन क्रांतिकारियों के लिये जो कहा उसे देखें।
कुछ साल पहले ऐतिहासिक रिकॉर्ड होने के बावजूद मोहम्मद अली जिन्ना और भगत सिंह के बीच के संबंधों के बारे में कुछ खास नहीं लिखा गया। 1996 में एजी नूरानी की किताब 'द ट्रायल ऑफ़ भगत सिंह पॉलिटिक्स ऑफ़ जस्टिस' आने के बाद इस महत्वपूर्ण घटनाक्रम का उल्लेख मिलता है।
इस किताब में न केवल सेंट्रल असेंबली की पृष्ठभूमि का उल्लेख किया गया है बल्कि उन्होंने 13 सितंबर 1929 को लाहौर जेल में भूख हड़ताल करने पर जतिन दास की शहादत के बाद और पहले दिए गए जिन्ना के पूरे भाषण को भी शामिल किया है।
अब यह उद्धरण पढें,
" भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 14 जून, 1929 को भूख हड़ताल शुरू की थी।
उन दोनों को दिल्ली बम धमाके में दिल्ली की अदालत ने दोषी ठहराया था. इसके बाद उन्हें पंजाब के मियांवली और लाहौर जेल में भेज दिया गया था। 8 अप्रैल, 1929 उन्होंने सेंट्रल असेंबली (अब संसद भवन) पर एक बम फेंका, तब से उन्हें 12 जून तक दिल्ली में ट्रायल पर रखा गया. ट्रायल के दौरान उन्हें अख़बारों और अच्छे भोजन की सभी सुविधाएं प्रदान की जा रही थीं।
लेकिन दोषी ठहराए जाने और पंजाब की जेल भेज दिए जाने के बाद उनसे सभी सुविधाएं वापस ले ली गईं। लाहौर और पंजाब तक यात्रा के समय उन्होंने 'राजनीतिक कैदी के तरह व्यवहार करने और अख़बार और अच्छे भोजन की मांग की. लेकिन न मिलने पर उन्होंने वहीं से भूख हड़ताल शुरू करने का फैसला किया."
भगत सिंह को मियांवली जेल ले जाया गया और बीके दत्त को लाहौर जेल में रखा गया। जब 10 जुलाई, 1929 को सॉन्डर्स हत्याकांड की सुनवाई शुरू हुई तो भगत सिंह को स्ट्रैचर पर कोर्ट लाया गया। तभी बाकी के कॉमरेड को भगत सिंह और बीके दत्त की भूख हड़ताल के बारे में पता चला।
लाहौर षड्यंत्र केस के लिए सभी को लाहौर जेल में रखा गया था. तभी जतिन दास और अन्य लोग भी भूख हड़ताल में शामिल हुए।
केवल जतिन दास को ही कांग्रेस आंदोलन के दौरान जेल में भूख हड़ताल देखने और राजनीतिक कैदी होने का अनुभव था। इससे उन्होंने अपने अन्य कॉमरेड साथियों को अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल के लिए सावधान रहने के लिए कहा था। उन्होंने घोषणा की कि चाहे दूसरे भूख हड़ताल तोड़ दें पर वे नहीं तोड़ेगें। जब सभी राजनीतिक गतिविधियों और लाहौर के मीडिया केंद्र में भूख हड़ताल पर सब एक साथ आए तो ये एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया. इसे शिमला में सेंट्रल असेंबली सत्र में भी उठाया गया.
14 जुलाई को लाहौर ने 'द ट्रिब्यून' में उनकी सभी मांगों को प्रकाशित किया था और इससे देश भर में सरकार के खिलाफ प्रतिकूल वातावरण बन रहा था। जवाााााह
जवाहरलाल नेहरू जब लाहौर जेल में इन क्रांतिकारियों से मिलने गए तो, उन्हें यह बताया गया कि
" उनके साथ दिल्ली में सही से व्यवहार किया गया लेकिन मियांवली और लाहौर जेल भेजने के बाद से उनके साथ सामान्य अपराधियों जैसा व्यवहार किया जा रहा है। हड़ताल करने वाले सभी लोगों को जेल के अधिकारी ज़बरदस्ती खाना खिला रहे हैं। लेकिन जतिन दास के इरादे बुलंद थे और उन्हें भूख हड़ताल का पहले से भी अनुभव था। उन्होंने इसका कड़ा विरोध किया. उनके साथ जेल के अधिकारियों ने क्रूर व्यवहार किया और ज़बरदस्ती फेफड़ों में पंप से दूध पहुंचाया गया, जिससे उनकी तबियत खराब हो गई।
इसके बाद जतिन दास को जेल के हॉस्पिटल में भेजा गया लेकिन उनकी हालत और बिगड़ती गई।"
जेल के डॉक्टर के अलावा जेल के बाहर के डॉक्टर और कांग्रेस पार्टी के नेता डॉ गोपी चंद भार्गव आए दिन जेल में जतिन दास से मिलने आया करते थे.
भगत सिंह जतिन दास को तरल पदार्थ लेने को कहते थे, लेकिन जतिन दास को मनाना बहुत मुश्किल था। जतिन दास नके छोटे भाई किरन दास को उनके साथ रहने की इजाजत दे दी गई. लेकिन इससे भी जतिन दास की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। भगत सिंह के कहने पर जतिन दास एक बार तरल पदार्थ लेने को तैयार हो गए. क्योंकि वे भगत सिंह से बहुत प्यार और सम्मान करते थे।
ये मामला 12 सितम्बर, 1929 को केंद्रीय विधानसभा में उठा. उस दिन विधानसभा का सत्र होम मेंबर सर जेम्स क्रेरार के बिल से शुरू हुआ। इस बिल में संशोधन किया गया कि कुछ मामलों में आरोपी के अनुपस्थिति होने पर भी मुकद्दमे को आगे बढ़ाया जा सकता है.
इस पर जिन्ना ने सवाल उठाया, ''आप उन पर मुकद्दमा चलाना चाहते हो या उन्हें परेशान करना चाहते हैं?''
जिन्ना का यह सवाल, भगत सिंह और उनके दूसरे साथियों के संदर्भ में था, जो भूख हड़ताल पर थे और ट्रायल के लिए कोर्ट में उपस्थित नहीं हो सकते थे.
जिन्ना ने बहस में दखल दिया और कहा,
" जो आदमी भूख हड़ताल करता है वो उसकी खुद की मर्जी होती है। वे अपने अंतरमन की आवाज सुनते हैं और न्याय में विश्वास करते हैं.।"
जिन्ना ने पंजाब को 'एक डरावनी जगह कहा'!
जिन्ना ने विधानसभा के कानून के जानकारों को भूखा रखने को कहा ताकि उन्हें पता चले कि भूख हड़ताल के बाद मनुष्य के शरीर पर क्या असर पड़ता है।
उन्होंने कहा,
" भूख हड़ताल पर हर कोई नहीं रह सकता. कभी रहने की कोशिश करें और देखें कि क्या होता है। "
जिन्ना ने 12 सितंबर को अपना भाषण शुरू किया, तब जतिन दास जीवित थे. और 14 सितंबर को भाषण की समाप्ति हुई। हालांकि जतिन दास की मौत 13 सितंबर को ही हो गई थी. और सदस्यों ने चर्चा में शामिल होने से मना कर दिया.
जिन्ना ने अपनी तार्किक क्षमता और ओजस्वी भाषण से अंग्रेजी न्याय व्यवस्था के निष्पक्षता की पोल खोल कर रख दी।
"आपको नहीं लगता कि लोगों के विरोध और संघर्ष का कारण कठोर उपचार और दबाव नीति से ज्यादा है."
एजी नूरानी के अनुुुसार,
''जिन्ना को भगत सिंह और उनके साथियों का सम्मान मिला. जिन्ना ने कहा कि अगर यह संशोधन हुआ तो ट्रायल सिर्फ 'न्याय के लिए एक मजाक' बन कर रह जायेगा".
आज भगत सिंह के जन्मदिन पर उनकी मेधा, संघर्षशीलता, साहस, तार्किक सोच और जनपक्षधर विचारों की सराहना की जानी चाहिये। उन्होंने हमारे भविष्य के लिये अपने वर्तमान को कंटकाकीर्ण बना दिया और स्वाभिमान से मृत्यु का वरण किया। अपने समय मे वे महात्मा गांधी से भी अधिक लोकप्रिय हो गए थे।
उन्हें कोटि कोटि प्रणाम और उनका विनम्र स्मरण।
© विजय शंकर सिंह
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