देश के आर्थिक हालात सुधर नहीं रहे हैं। बाजारों में सन्नाटा दिखाई देने लगा है। एक व्यापारी मित्र के अनुसार, बाजार में यह मंदी का संकेत है, जिसका असर सरकार को दिए जाने वाले करों पर पड़ रहा है। सरकार का राजस्व संग्रह घट रहा है। सरकार इस घटती कर संग्रह से, चिंतित भी है। यहां तक कि बहीखाता 2019 यानी बजट में राजकोषीय घाटा का गलत आंकड़ा भी दिया गया।
घटते कर संग्रह के कारण आयकर और जीएसटी विभाग पर उसे किसी भी तरह से बढ़ाने के लिये दबाव है। आयकर और जीएसटी के छापे, जांचे और अन्य सख्तियां दिन प्रतिदिन बढ़ रही है। कर चोरी करने वालों पर अंकुश आवश्यक है। पर जिस प्रकार से यह छापे पड़ रहे हैं, उनसे यह भी संदेश जा रहा है कि अधिकतर छापे और जांचे राजनीतिक दुर्भावना का परिणाम है। एक मित्र ने इसे extortion यानी जबरन वसूली की जगह Taxtortion यानी ज़बरन कर वसूली, का नाम दिया है। कुछ कर संग्रह हो तो रहा है पर व्यापारी समुदाय इससे प्रताड़ित भी हो रहा है। इसका असर उनके व्यापार पर भी पढ़ रहा है। व्यापार मंदा हो गया है।
सरकार अक्सर कुछ अभियान चलाती है कभी अपराध नियंत्रण के लिये तो कभी कर वसूली के लिये। पर अक्सर इन अभियानों में होने वाली कार्यवाही सवालों के घेरे में आ जाती है। कभी कभी निर्दोष व्यक्ति भी पकड़े जाते हैं तो कभी कभी ऐसे अभियानों में अवैध धन की उगाही और भ्रष्टाचार की बहुत सी शिकायतें आने लगती है। आजकल जो आयकर और जीएसटी के छापे पड़ रहे हैं, उनको लेकर भी यही धारणा व्यापारिक समाज मे फैल रही है।
व्यापार की मंदी का एक और कारण है नकदी के प्रवाह में कमी। 2016 में की गई नोटबंदी का असर अभी तक गया है। नकदी के प्रवाह के बाधित होने से बाजार को जो आघात लगा था, वह अभी और गहरा हो गया है। नोटबंदी ने, डिजिटल इकोनॉमी, काले धन पर लगाम और नकली मुद्रा के खात्मे जैसे एक भी लक्ष्य पूरे नहीं किये, उल्टे बाजार नकदी संकट से और ग्रस्त हो गया। परिणामतः लोग खर्च कम कर रहे हैं। इससे मांग कम हो रही है। मांग से उत्पादन पर असर पड़ रहा है और उत्पादन तो, उसी के अनुरूप घटाना पड़ेगा। मांग और आपूर्ति की इस श्रृंखला में कच्चे माल से लेकर मार्केटिंग तक पर आ रही इस मंदी का असर पड़ रहा है।
सबसे दुःखद स्थिति यह है कि, इसका सीधा असर, रोजगार पर पड़े रहा है, जो अब तक सबसे कम स्तर पर पहुंच गया है। सरकार के ही आंकडो के अनुसार, देश 45 वर्षों के बाद सबसे बड़ी बेरोजगारी से जूझ रहा है। इस मंदी का असर शेयर बाजार पर भी पड़ रहा है। लोकसभा चुनाव 2019 के बाद से अब तक शेयर बाजार में, 12 लाख करोड़ रुपये का नुकसान निवेशकों को हो चुका है। यह नुकसान अब भी हो रहा है। आज भी शेयर बाजार गिरा है।
शेयर मार्केट के गिरने का असर विदेशी पूंजी निवेश पर पड़ेगा। अभी जब लगातार गिरावट का ट्रेंड जारी रहेगा तो विदेशी निवेशक भी अपना स्टॉक बेचना शुरू करेंगे, तब बाजार और गिरने लगेगा। शेयर बाजार की बढोत्तरी और गिरावट के पीछे विदेशी निवेशकों की बड़ी भूमिका होती है। असल पूंजी निवेश उन्ही विदेशी निवेशकों का ही रहता है। सरकार को भी इस संभावित संकट का अंदाज़ा है। पर जब एक बार अर्थव्यवस्था जब रपटीली राह पर घिसटने लगती है तो उसे संभालने के लिये जिस प्रोफेशनल कुशलता और राजनैतिक इच्छा शक्ति की ज़रूरत होती है उसका इस सरकार में अभाव है।
सरकार ने 2004 के बाद नियमित पेंशन योजना बंद कर दी है और उसके स्थान पर, राष्ट्रीय पेंशन स्कीम एनपीएस NPS जारी की गई है। इसमे कर्मचारी अपनी तरफ से कुछ अंशदान करते हैं और कुछ सरकार भी देती है। खबर यह है कि सरकार यह धन, कही न कहीं निवेश कर रही है, विशेषकर म्युचुअल फंड में।
शेयर मार्केट की गिरावट के बाद, म्युचुअल फंड की नेंट असेट वैल्यू NAV भी गिरना शुरू हो गई है। अक्सर निवेश सलाहकार म्युचुअल फंड को एक सुरक्षित निवेश बताते हैं, पर जब गिरावट आती है तो वह सभी आर्थिक सूचकांकों को भी प्रभावित करती है। इस योजना में करोड़ो वेतनभोगी लोग है जिसमे सुरक्षा बल के लोग भी हैं। जिनके नाम पर चुनाव 2019 लड़ा गया था।
ऑटोमोबाइल सेक्टर के बैठने की खबर कई महीने से आ रही है। बडे शो रूम बंद हो रहे हैं और ऑटोमोबाइल यूनिट्स ने अपने कई कारखानों का काम कम कर दिया है। इससे इस सेक्टर में बेरोजगारी बढ़ने लगी है। ऑटोमोबाइल उद्योग के साथ साथ अनेक सहयोगी छोटी छोटी उत्पादन की इकाइयां भी होती हैं। मांग घटते ही वे भी बंद होने लगेगी। इससे मंदी और बढ़ेगी। निवेश का आलम यह है कि ऐसे विपरीत आर्थिक माहौल में कौन उद्योगपति पूंजी निवेश करेगा।
कानून व्यवस्था की स्थिति भी निवेश के संदर्भ में एक बड़ा मुद्दा है। अपराध दुनियाभर में होते है। अमेरिका में अपराध की दर हमारे यहां से अधिक है। पर अपराध को जब राजनैतिक संरक्षण की खबर फैल जाती है तो यह किसी भी व्यापारी के लिये वहां धन निवेश करना बहुत मुश्किल हो जाता है। सरकार का संरक्षण हो या न हों, पर भीडहिंसा, गौरक्षा और बीफ के नाम पर साम्प्रदायिक विवाद जो फैल रहा है उसमें शामिल लोगों को सत्तारूढ़ दल के कुछ लोगों का स्पष्ट समर्थन है।
अर्थव्यवस्था की यह शृंखला एक आम उपभोक्ता से लेकर देश की सबसे बड़ी कम्पनी के मालिक तक पहुंचती है। मंदी का असर पहले नीचे बाजार में दिखता है फिर धीरे धीरे ऊपर तक यह पहुंचता है जो अमूमन दिखता नहीं है। हम उपभोक्ता मंदी को स्वीकार ही नहीं करते बल्कि उसे बार बार अपनी व्यथा की तरह कहते भी रहते हैं। पर बड़ी कम्पनिवां इससे निपटने के उपाय तलाशती हैं, प्रबंधन में जुटी हुयी मैनेज तो करती हैं पर मंदी की खबरें बाहर नहीं आने देती। क्योंकि ऐसी खबरों से उनके शेयर पर असर पड़ता है और प्रतिष्ठा हानि तो होती ही है। अब यह खीज उद्योगपतियों के खेमे में भी आ गयी है। कैफे कॉफी डे के सिद्धार्थ की दुःखद मृत्यु इसका एक उदाहरण है।
आर्थिक मामलों पर अक्सर लिखने वाले गिरीश मालवीय की यह टिप्पणी भी पढ़ लें,
" इंडियन फाउंडेशन ऑफ ट्रांसपोर्ट रिसर्च एंड ट्रेनिंग की रिपोर्ट में फ्रेट डिमांड यानी माल ढुलाई की डिमांड में मौजूदा कमी की तुलना 2008-09 की ग्लोबल मंदी से की गई है,
इस रिपोर्ट के मुताबिक नवंबर 2018 के बाद से ट्रक रेंटल में 15% की गिरावट आ चुकी है, लेकिन फ्लीट यूटिलाइजेशन इससे कहीं ज्यादा घटा है। सभी 75 ट्रंक रूटों पर ट्रांसपोर्टर बेड़े में कटौती कर रहे हैं। अप्रैल से जून के बीच फ्लीट यूटिलाइजेशन पिछले साल की पहली तिमाही के मुकाबले 25% से 30% घट गया है। इससे ट्रांसपोर्टर्स की आय भी लगभग 30% घटी है। कई ऑपरेटर अगली तिमाही में फ्लीट की ईएमआई डिफॉल्ट की हालत में भी आ सकते हैं।
औद्योगिक उत्पादन में कमी का फ्रेट डिमांड पर साफ असर दिख रहा है। ट्रक ढुलाई में सबसे ज्यादा योगदान देने वाले मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से डिमांड न्यूनतम स्तर पर बनी हुई है। शहरों और ग्रामीण इलाकों में उपभोक्ता खर्च घटा है और कृषि क्षेत्रों में ढुलाई अप्रैल की पीक डिमांड के बाद लगभग सुस्त हो गई है। जून में एफएमसीजी से फल-सब्जियों की ढुलाई डिमांड भी 20% तक घट चुकी है।
ढुलाई डिमांड घटने के चलते पहली तिमाही में देश के सभी बड़े रूटों पर ट्रक फ्लीट में 30% तक कमी आई है, यह सब मोदी सरकार द्वारा मूर्खता पूर्ण आर्थिक नीतियों को लागू करने का नतीजा है। "
फिलहाल तो अर्थ व्यवस्था से जुड़े हर क्षेत्र से निराशाजनक खबरें आ रही हैं। बैंकिंग सेक्टर एनपीए से परेशान है, सरकार के पास पैसा नहीं है। वह कभी आरबीआई तो कभी सेबी से धन मांग रही है। आरबीआई के एक गवर्नर उर्जित पटेल और डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य रिज़र्व फंड के मांग के सवाल पर इसे आरबीआई की स्वायत्तता पर आघात बता कर त्यागपत्र दे चुके हैं, हालांकि उन्होंने इस्तीफा देने का कारण निजी बताया है। डॉलर बांड के रूप में विदेशों से कर्ज लेने की योजना है। पर अर्थशास्त्री सरकार की इस कर्ज़ लेने की योजना को आत्मघाती योजना बता रहे हैं। किसान, मंदी झेल ही रहे हैं। सरकार के सारे आंकड़े विश्वस्तर पर फ़र्ज़ी समझे जा रहे हैं। कुल मिलाकर आर्थिक स्थिति कठिन राह पर है।
© विजय शंकर सिंह
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