अक्सर हम अखबारों में पढ़ते हैं कि जब भी नया मंत्रिमंडल शपथ लेता है तो उन मंत्रियों के आवास, दफ्तर आदि की साज सज्जा पर काफी धन खर्च होता है। सब कुछ नया किया जाता है। रंगाई पुताई, सोफा, पर्दे, ऐसी आदि बदले जाते हैं। कभी कभी वह सब चीज़े भी बदल दी जाती है जिनके बदलने की कोई ज़रूरत भी नही थी। यह रिवाज या आदत केवल मंत्रियों में ही है ऐसा भी नहीं है। यह सभी बडे सरकारी अफसरों मे जिनको सरकारी आवास की सुविधा मिलती है उन्हें भी अगर उनके विभाग में ठीक ठाक बजट हो तो यही क्रम चलता रहता है। अखबारों में भी अक्सर यह छपता रहता है कि अमुक सरकार के मंत्रियों या अमुक अफसर ने इतनी फ़िज़ूलखर्ची की और, पैसों की बर्बादी की। पर इसे एक परंपरा मान कर नज़रअंदाज कर दिया जाता है।
इस आदत पर एक मनोवैज्ञानिक ने अलग तरह का शोध किया है फिर एक रोचक निष्कर्ष निकाला है। यह शोध, देश की प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक और दिल्ली की लेडी इरविन कॉलेज की प्रोफेसर डॉ दत्ता ने किया है और इसे एक प्रकार की मानसिक बीमारी बताया है। इस मनोरोग का नाम उन्होने, ग्रन्डिओसीटी Grandiocity बताया है।
Grandiosity नामक यह रोग, राजनेताओं और ब्यूरोक्रेट्स में विशेष रूप हो जाता है। इस रोग में मरीज को लगता है कि, उसके पास बहुत पैसा है, अधिकार है और वह उसके प्रदर्शन से आत्मसुख प्राप्त करता है। अधिकार सुख कितना मादक होता है यह सभी जानते हैं। नया पद या नए अधिकार मिल जाने पर, इस रोग से पीड़ित व्यक्ति, उस पद से जुड़े अधिकार का रोब प्रदर्शित करने के लिये, सब कुछ बदल कर खुद को अलग दिखाने की सोचना लगता है। यह आत्ममुग्धता की पराकाष्ठा होती है। वह अपने परिवार और दोस्तों को इसी बहाने खुद को उनसे अलग कर के दिखाने की मानसिकता में आ जाता है।
इस बीमारी से पीड़ित, मरीज यह भूल जाता है कि उसकी फिजूलखर्ची सुविधाओं की अय्याशी की तुलना में, देश के करोड़ों लोग कैसे अपना जीवन किसी प्रकार से जीते हैं। ऐसे लोग मनोवैज्ञानिक शब्दावली में, पेथोलोजिकल माइंडसेट के कहे जाते हैं। डॉ दत्ता ने मीडिया से अपने शोध के बारे में यह जानकारी दी। न्यूज़ 18 को दिये एक साक्षात्कार में वे कहती हैं, " इस बीमारी से ग्रस्त लोग दूसरों से बेहतर दृष्टिकोण, दूसरों की तुलना में दूसरों के प्रति तिरस्कार या नीचता के साथ-साथ विशिष्टता की भावना रखते हैं। व्यक्ति अव्यवहारिक और कृत्रिम तरीके से प्रतिभा, क्षमता और उपलब्धियों को बढ़ा कर दिखाता है। व्यक्ति अपनी अयोग्यता में विश्वास करता है या अपनी सीमाओं को नहीं पहचानता है. इस बीमारी में व्यक्ति के दिमाग में भव्य कल्पनाएं बैठ जाती हैं. व्यक्ति मानता है कि उसे अन्य लोगों की आवश्यकता नहीं है। "
© विजय शंकर सिंह
No comments:
Post a Comment