सूचना का अधिकार, आरटीआई एक्ट, 2005, संसद द्वारा पारित अब तक के सभी कानूनों में सबसे सशक्त जनपक्षधर क़ानून है जो जनता को यह एहसास दिलाता है कि वह अपनी सरकार से उसके कृत्यों के बारे में नाम मात्र के शुल्क पर कुछ भी कानूनी तौर पर एक सूचना मांग कर जवाब तलब कर सकती है। जवाबदेही लोकतंत्र का मूल भाव होती है। अगर सरकार अपनी जनता के प्रति जवाबदेह नहीं है तो ऐसी सरकार से बिना सरकार ही शासन अच्छा है। 2005 के पहले जनता की जवाबदेही जनता के प्रतिनिधियों तक ही सीमित थी, जो हमारी विधानसभा और संसद में बैठे हुए हैं और सदन के प्रश्नकाल के दौरान सरकार से जवाब मांग कर हमें उन सूचनाओं से लाभान्वित कराते रहते हैं। 2005 के इस कानून ने पारदर्शिता की इस सीमा को जनता तक विस्तारित कर दिया। इससे जनता को तो लाभ हुआ पर सरकार और सरकारी अफसर असहज हुये। क्योंकि वे जो सूचना सार्वजनिक नहीं करना चाहते थे, वे दबी रह्ती थी। सूचना के अधिकार का सबसे बड़ा लाभ हुआ कि अनियंत्रित भाई भतीजावाद, पक्षपात और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा। यह बात भी सही है कि भाईभतीजावाद, पक्षपात और भ्रष्टाचार अब भी है पर इस कानून ने इसके स्वच्छंद आचरण को काफी हद तक रोका है।
इस कानून के असर का ही यह परिणाम है कि सभी राजनैतिक दल अपने को इस कानून के दायरे से बाहर रखने पर बजिद हैं, सुप्रीम कोर्ट जो हमारे मूल अधिकारों का लिखा पढ़ी में संरक्षक है, वह भी जजों की नियुक्ति प्रक्रिया के लिये स्वयंभू कॉलेजियम की कार्यवाही को सार्वजनिक करने के लिये राजी नहीं है। वह तो जजों के यात्रा पर हुए खर्च को भी सार्वजनिक नहीं करना चाहता है। यह डर इस कानून की ताकत को स्पष्ट करता है। आप कितने भी ऊपर हों, कानून और जनता के प्रति आप की जवाबदेही सर्वोपरि है। मैंने नौकरशाही में भी बहुत दबंग, तेज तर्रार और राजकृपा वाले नौकरशाही को भी इस कानून के भय से किसी का पक्ष लेने में हिचकते हुये देखा है।
सरकार के पक्षधर, इस कानून में हो रहे संशोधन के बारे में यह तर्क दे सकते हैं कि मूल कानून में तो कोई बदलाव नहीं किया गया है बस सूचना आयुक्तों और मुख्य सूचना आयुक्त की सेवा शर्तों में बदलाव किया गया है। यह एक भ्रम है और कानून को नहीं तो कानून के लागू करने वालों को ही पिजड़े में रख लिया जाय, यही सरकार का इरादा है।
अभी तक सूचना आयुक्त और मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति एक तयशुदा कार्यकाल के लिये होती है। अधिनियम के अनुसार, आयुक्तों और मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति संबंधी शर्ते इस प्रकार हैं। अधिनियम की धारा 13 के अनुसार,
13. (1) सूचना आयुक्त, उस तारीख से, जिसको वह अपना पद ग्रहण करता है पांच वर्ष की अवधि के लिए अपना पद धारण करेगा और पुनर्नियुक्त के लिए पात्र नही होगा।
परन्तु यह और कि कोई मुख्य सूचना आयुक्त पैंसठ वर्ष आयु प्राप्त करने के पश्चात् पद धारण नहीं करेगा|
(२) प्रत्येक सूचना आयुक्त, उस तारीख से, जिसको वह अपना पद ग्रहण करता है, पांच वर्ष की अवधि के लिए पैंसठ वर्ष की आयु प्राप्त करने तक, इनमें से जो भी पूर्वतर हो, पद धारित करेगा और ऐसे सूचना आयुक्त के रूप में पुनर्नियुक्ति के लिए पात्र नहीं होगा:
परन्तु प्रत्येक सुचना आयुक्त, इस उपधारा के अधीन अपना पद रिक्त करने पर धारा 12 की उपधारा (२) में विनिर्दिष्ट में मुख्य सूचना आयुक्त के रूप में नियुक्त के लिए पात्र होगा:
परन्तु और कि जहाँ सूचना आयुक्त को मुख्य सूचना आयुक्त के रूप में नियुक्त किया जाता है वहाँ उसकी पदावधि सूचना आयुक्त और मुख्य सूचना आयुक्त के रूप में कुल मिलाकर पांच वर्ष से अधिक नहीं होगी|
5 (3) मुख्य सूचना आयुक्त या कोई सूचना आयुक्त, अपना पद ग्रहण करने से पूर्व राष्ट्रपति या उनके द्वारा ऐसे निमित प्राधिकृत किसी अन्य व्यक्ति के समक्ष पहली अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए उपवर्णित प्रारूप के अनुसार एक शपथ या प्रतिज्ञान लेगा और उस पर हस्ताक्षर करेगा|
(4) मुख्य सूचना आयुक्त या कोई सूचना आयुक्त, किसी भी समय, राष्ट्रपति को सम्बोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा:
परन्तु मुख्य सूचना आयुक्त या कोई सूचना आयुक्त को धारा 14 में विनिदृ विनिर्दिष्ट रीति से हटाया जा सकेगा| (5) (क) मुख्य सूचना आयुक्त को संदेय वेतन और भत्ते तथा उनकी सेवा के अन्य निबंधन और शर्तें वे होंगी जो मुख्य निर्वाचन आयुक्त की हैं:
ख) सूचना आयुक्त को संदेय वेतन और भत्ते तथा उनकी सेवा के अन्य निबंधन और शर्तें वे होंगी जो मुख्य निर्वाचन आयुक्त की हैं:
15. परन्तु यदि मुख्य सूचना आयुक्त और कोई सूचना आयुक्त, अपनी नियुक्ति के समय, भारत सरकार के अधीन या किसी राज्य सरकार के अधीन किसी पूर्व सेवा के सम्बन्ध में कोई पेंशन (अक्षमता या क्षति पेंशन से भिन्न) प्राप्त कर रहा है तो मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त के रूप में सेवा के सम्बन्ध में उसके वेतन में से, उस पेंशन की, जिसके अंतर्गत पेंशन का ऐसा कोई भाग भी है, जिसे सारांशीकृत किया गया था और सेवानिवृत्त उपदान के समतुल्य पेंशन को छोड़कर, सेवानिवृत्त फायदों के अन्य रूपों के समतुल्य पेंशन भी है,रकम को कम कर दिया जायेगा:
परन्तु यह और यदि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त, अपनी नियुक्ति के समय, किसी केन्द्रीय अधिनियम या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित किसी निगमन या केंद्रीय सरकार या राज्य के सरकार के स्वामित्वाधीन या नियंत्रणाधीन किसी सरकारी कम्पनी में की गई किसी पूर्व सेवा के सम्बन्ध में सेवानिवृत्त फायदे प्राप्त कर
रहा है तो सूचना आयुक्त या सूचना उपायुक्त के रूप में सेवा की बाबत उसके वेतन में से, सेवानिवृत्त फायदों के समतुल्य पेंशन की रकम कम क्र दी जाएगी:
परन्तु यह भी कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त के वेतन, भत्तों और सेवा की अन्य शर्तों में जिसकी नियुक्ति के पश्चात् उसको अलाभकर रूप में परिवर्तन नहीं किया जायेगा|
इस प्राविधान के अनुसार, मुख्य तथा अन्य सूचना आयुक्तों का एक तयशुदा कार्यकाल है, तयशुदा वेतन है और उन्हें सरकार की सनक पर न तो हटाया जा सकता है और न ही पदावनत किया जा सकता है।
अब इन्हें हटाये जाने की प्रक्रिया भी पढ़ लें,
सूचना आयुक्त या सूचना उपायुक्त का हटाया जाना
14. (1) उपधारा (3) के उपबंदों के अधीन रहते हुए, मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त को राष्ट्रपति के आदेश द्वारा साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर उसके पद से तभी हटाया जायेगा, जब उच्च न्यायालय ने, राष्ट्रपति द्वारा उसे किये गए निर्देश पर जाँच के पश्चात् यह रिपोर्ट दी हो कि, यथास्थिति, मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त को आयुक्त को उस आधार पर हटा दिया जाना चाहिए|
(2) राष्ट्रपति, उस मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना उपायुक्त को, जिसके विरुद्ध उपधारा (1) के अधीन उच्चतम न्यायालय को निर्देश किया गया है, ऐसे निर्देश पर उच्चतम न्यायालय की रिपोर्ट प्राप्त होने पर राष्ट्रपति द्वारा आदेश पारित किये जाने तक पद से निलबिंत कर सकेगा और यदि आवश्यक समझे तो, जाँच के दौरान कार्यालय में उपस्थित होने से भी प्रतिषिद्ध कर सकेगा|
(3) उपधारा (1) में अंतवृष्टि किसी बात के होते हुए भी राष्ट्रपति, किसी मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त को पद से हटाने का आदेश कर सकेगा, यदि, यथास्थिति, मुख्य सूचना आयुक्त या सूचना आयुक्त,
(क) दिवालिया न्यायनिर्णित है, या
(ख) वह ऐसे अपराध के लिए दोषसिद्ध ठहराया गया है, जिसमें राष्ट्रपति की राय में नैतिक अक्षमता अंत वर्लित है, या
(ग) अपनी पदावधि के दौरान, अपने पद के कर्तव्यों से परे किसी वैतनिक नियोजन में लगा हुआ है, या
(घ) राष्ट्रपति की राय में, मानसिक या शारीरिक अक्षमता के कारण वह पद पर बने रहने के योग्य हो,
(ड.) उसने ऐसे वित्तीय और अन्य हित अर्जित किये हैं, जिनसे किसी सूचना आयुक्त या सूचना उपयुक्त के रूप में उस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना है|
(4) यदि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त, किसी रूप में भारत सरकार द्वारा या उसकी ओर से की गई किसी संविदा या करार से संबद्ध या उसमें हितबद्ध रहा है या किसी निगमित कम्पनी के सदस्य से अन्यथा किसी रूप में और उसके अन्य सदस्यों के साथ संयुक्त रूप में उसके लाभ में या उससे प्रोदभूत होने वाले किसी फायदे या परिलब्धियों में हिस्सा लेता है तो वह, उपधारा (1) के प्रयोजनों के लिए, कदाचार का दोषी समझा जायेगा|
अगर यह कानून संशोधित हो जाता है तो कानून में निम्न बदलाव हो जाएंगे -
* सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 13, और 16 जो नियुक्ति, और पद से हटाने से सम्बंधित है और धारा 16 जो सेवा शर्तों से संबंधित है में बदलाव हो जाएगा।
* 2005 के कानून में सेक्शन 13 में जिक्र था कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का कार्यकाल पांच साल या फिर 65 साल की उम्र तक, जो भी पहले हो, होगा.।
* 2019 में संशोधित कानून कहता है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का कार्यकाल केंद्र सरकार पर निर्भर करेगा.
* साल 2005 के कानून में सेक्शन 13 में मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त की तनख्वाह का जिक्र है।. मुख्य सूचना आयुक्त की तनख्वाह मुख्य निर्वाचन आयुक्त की तनख्वाह के बराबर होगी और सूचना आयुक्त का वेेेतन निर्वाचन आयुक्त के वेतन के बराबर होगा ।
* सशोधित कानून के अनुसार, मुख्य सूचना आयुक्त की सैलरी और सूचना आयुक्त की सैलरी केंद्र सरकार तय करेगी।
विपक्ष और कानून के जानकारों का मानना है कि इन संशोधनों से इस संस्था की स्वायत्तता नष्ट हो जाएगी। इस बात की पूरी संभावना है कि, अब सरकार अपने मनपसंद जी जहाँ पनाह टाइप सूचना आयुक्तों का कार्यकाल बढ़ा कर उन्हें उपकृत कर सकती है और जब मन चाहे, उनका वेतन बढ़ा सकती है। साथ ही, अगर सरकार को किसी सूचना आयुक्त का कोई आदेश पसंद नहीं आया, तो उसका कार्यकाल खत्म हो सकता है या फिर उसका वेतन कम किया जा सकता है।
2005 में जब यह बिल पारित हुआ था, तो पास होने के पहले यह बिल संसद की कई समितियों जैसे कार्मिक मामलों की संसदीय समिति, लोक शिकायत समिति और कानून और न्याय समिति के सामने गया था और वहां से मंजूर हुआ था। इस समितियों में उस वक्त भाजपा के सांसद और अब के राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद, बलवंत आप्टे और राम जेठमलानी जैसे लोग शामिल थे। उस वक्त इन बीजेपी नेताओं की कमिटी ने कहा था कि मुख्य सूचना आयुक्त की सैलरी केंद्र सरकार के सेक्रेटरी के बराबर होनी चाहिए। वहीं कमिटी ने कहा था कि केंद्र के सूचना आयुक्त और राज्य के सूचना आयुक्त की सैलरी केंद्र सरकार के अडिशनल सेक्रेटरी या जॉइंट सेक्रेटरी के बराबर होनी चाहिए। ईएमएस नचीअप्पन के नेतृत्व में बनी संसदीय समिति ने 2005 में जब अपनी रिपोर्ट पेश की, तो नए नियम सामने आए, जो 14 साल तक चले।
अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि 2014 के बाद अब 2019 में यह संशोधन क्यों लाया गया। इसका कारण एक यह है कि, प्रधानमंत्री जी की डिग्री को लेकर सूचना आयोग ने जो आक्रामक तेवर अपना रखा था, उससे खुद पीएम की भी काफी किरकिरी हुई थी। अंततः सूचना आयोग के लाख आदेशो के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय ने कह दिया कि डिग्री से संबंधित अभिलेख खो गए। यह क्रियाकलाप पूरे पांच साल सोशल मीडिया और जनता के बीच चर्चित रहा।
दूसरे आरटीआई से रिज़र्व बैंक द्वारा बड़े डिफॉल्टरों की सूची मांगी गयी थी। रिज़र्व बैंक ने डिफाल्टर सूची आरटीआई को तो नहीं दी पर उसने यह सूचना दी कि 2015 में ही बड़े डिफॉल्टरों की सूची प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गयी है। अब दबाव सरकार पर पड़ा कि वह उस सूची को सार्वजनिक करे। पर सरकार ने कतिपय कारणों से सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भी वह सूची जारी नहीं की।
ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं जिनमे आरटीआई कार्यकर्ताओं ने सरकार से विभिन्न विषयों पर तरह तरह की सूचनाएं मांग कर के भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के अनेक मामले उजागर किये। पर यह अजीब विडंबना है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस की बात करने वाली यह सरकार, पारदर्शी होने से डर रही है ।
केंद्र सरकार आरटीआई कानून में सिर्फ इतना बदलाव कर रही है कि सूचना आयुक्तों की नियुक्ति, उनके वेतन, भत्ते, सेवाशर्तें जो फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर है, उसे अपने नियंत्रण में लेने जा रही है. अभी सूचना आयोग सरकार के सामने आंख मिलाकर खड़ा हो सकता है क्योंकि वह कानूनी रूप में स्वतंत्र और स्वायत्त है. सरकार उसे सीबीआई की तरह पिजड़े का तोता बनाना चाहती है. सब अधीनस्थ रहें. वह जिसे चाहे नियुक्त करे, जब चाहे हटा दे, जितना चाहे वेतन दे, न चाहे तो बर्खास्त कर दे. भ्रष्टाटार सरकार में बैठे लोग करते हैं। आरटीआई इन्हीं खिलाफ आया था। लोकपाल भी इन्हीं के खिलाफ आया।
सरकार का यह तर्क है कि सूचना आयोग और चुनाव आयोग में अंतर है। चुनाव आयोग संविधान की धारा 324 के अंतर्गत शक्तियां और अधिकार पाता है जबकि सूचना आयोग का कोई संवैधानिक अस्तित्व नहीं है। यह बात सही है पर अचानक सरकार को यह इलहाम कैसे हो गया कि इस स्वायत्त संस्था को भी पिंजरे का तोता बना दिया जाय।
इस कानून में एक और विसंगति है। यह कानून संघीय ढांचे और राज्यों के स्वायत्तता के सिद्धांत के विपरीत है। अभी तक राज्य सरकारें अपने अपने अधीन सूचना आयुक्तों और मुख्य सूचना आयुक्त को नियुक्त करती रही हैं। अब यह अधिकार भी इस संशोधन के बाद, केंद सरकार के पास चला जायेगा।
सात मुख्य सूचना आयुक्तों, वजाहत हबीबुल्ला, दीपक संधू, शैलेश गांधी, श्रीधर आचार्यालु, एमएम अंसारी, यशोवर्धन आज़ाद, अन्नपूर्णा दीक्षित, ने जनाधिकार पर सीधे हमला माना है। जानने का अधिकार, जनता का मौलिक अधिकार है और यह उसे जानने का पूरा अधिकार है कि सरकार क्या, कैसे, क्यों, और किस लिये कर रही है। उन्होंने सरकार से यह अनुरोध किया है कि वह यह संशोधन जनहित में वापस ले।
नेशनल कमीशन फॉर पीपल्स राईट टू इनफार्मेशन (एनसीपीआरआई) की सह संयोजक अंजलि भारद्वाज ने कहा कि सरकार द्वारा सूचना आयोग को कमज़ोर बनाने के लिए निरंतर प्रयास किये जा रहे हैं. वर्ष 2014 के बाद से सरकार ने कोर्ट के निर्देश के बगैर किसी सूचना आयुक्त की नियुक्ति नहीं की है. उन्होंने कहा कि देश भर में इसके खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं और अगर ये बिल पास हुआ तो नागरिकों के सूचना के अधिकार का हनन होगा। आरटीआई एक्टिविस्ट लोकेश बत्रा ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए कहा कि सरकार को सूचना आयुक्तों की निष्पक्ष और समय से नियुक्ति के निर्देश दिए गए थे, परन्तु आज तक भी सूचना आयोग में खाली पड़ी 4 मुख्य सूचना आयुक्तों के पद पर कोई नियुक्ति नहीं हुई है।
आरटीआई कानून देश के नागरिकों के पास सरकार के भ्रष्टाचार को रोकने और उसे सामने लाने का हथियार है. सरकार मीडिया तो खरीद सकती है, लेकिन कानून कैसे खरीदे, इसलिए कानून को कमजोर किया जा रहा है। इस संशोधन का विरोध आवश्यक है।
© विजय शंकर सिंह
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