अब्र गहन, चकित नयन
स्मिति मदिर, मधुर अधर
खिल उठे पुष्प सभी,
बिखर गए पराग कण।
महक उठा वातायन,
बेखुद हुआ मस्त पवन,
स्तब्ध है, सघन गगन,
जाग उठे स्वप्न सजन !
दूर कहीं, कूक ध्वनि,
आम्र कुञ्ज से आयी,
सागर कहीं अंतर में,
घुमड़ पडा आज प्रिये ।
कुछ शब्द कहीं उद्गमित,
कुछ भाव कहीं घनीभूत,
कुछ नाद कहीं मुखरित ,
हहर हहर बरस गये।
सोचा कह डालूँ ,आज
अधरों पर जो अटका है,
पर तुम, खुद ही, बेखुद हो,
कब तक चुपचाप रहूं ।
अब कह दूं, जो कहना है,
घुमड़ रहा है , भीतर जो,
अब्र, जो पलकों में छुपा,
अब उसे बस कहना है.
अब उसे बस बहना है !!
© विजय शंकर सिंह
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