दिनांक 02/11/23 को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने चुनावी बांड के बारे में तीसरे और अंतिम दिन की सुनवाई पूरी की। इस मामले में, बहस के अंतिम दिन, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा कि, "क्या वह कंपनियों द्वारा दिए गए चंदे पर, पर लाभ प्रतिशत - आधारित सीमा को फिर से लागू करने के लिए कंपनी अधिनियम में संशोधन करने की योजना बना रहा है।"
संविधान पीठ ने यह भी टिप्पणी की कि, "हालांकि वह सरकार से नकदी-आधारित चंदा प्रणाली पर वापस जाने के लिए नहीं कह रहे हैं, लेकिन, वह इस योजना को आनुपातिक, अनुरूप तरीके से बनाने के लिए कह रहे हैं, जिसमें वर्तमान योजना से उत्पन्न होने वाली गंभीर खामियों का निराकरण किया जा सके।"
भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, बीआर गवई, जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की संविधान पीठ ने योजना के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की, जिसमें पारदर्शिता पर इसका प्रभाव और भ्रष्टाचार की संभावना भी शामिल है। पीठ ने अपना फैसला भी सुरक्षित रख लिया।
लाभ प्रतिशत आधारित दान को वर्तमान सरकार ने चुनावी बांड योजना को लागू करने के लिए कंपनी अधिनियम में संशोधन कर के बदल दिया है। दरअसल, चुनावी बांड योजना शुरू होने से पहले, कंपनियों को, एक सीमा तक ही दान देने की अनुमति थी कि, वे पिछले तीन वर्षों के औसत शुद्ध लाभ का केवल 7.5% तक ही, पॉलिटिकल फंडिंग कर सकते थे। पर नए कानून के अनुसार, यह सीमा, कंपनी अधिनियम में संशोधन कर के, हटा दी गई। अब कंपनियां, बेहिसाब चंदा दे सकती हैं। चुनावी बॉन्ड योजना, 2018 द्वारा, इस सीमा को खत्म करने के बाद, चुनावी बांड के जरिए कंपनियां राजनीतिक दलों को, अब जितना चाहें, उतना पैसा दे सकती हैं। यही महत्वपूर्ण सवाल, पीठ ने सरकार के वकील से पूछा।
राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता बनाए रखने और फर्जी कंपनियों को बड़ी रकम देने से हतोत्साहित करने के मकसद से, तीसरे दिन, की चर्चा शुरू हुई। सरकार की तरफ से, एसजी ने तर्क दिया कि, "इन संशोधनों का उद्देश्य सिस्टम में स्वच्छ धन (White money) के प्रवेश के लिए प्रोत्साहित करना और नकद लेनदेन से बचना है।"
हालाँकि, सीजेआई, डीवाई चंद्रचूड़ ने रेखांकित किया कि, "योजना शुरू होने से पहले, कंपनियां पिछले तीन वित्तीय वर्षों के अपने शुद्ध लाभ का केवल 7.5% ही दान कर सकती थीं। इसके विपरीत, योजना की शुरुआत के बाद, कोई भी कंपनी अपने लाभ या हानि की स्थिति की परवाह किए बिना योगदान कर सकती है।"
सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि, "जो कंपनी लाभ में नहीं चल रही हो, वह दान नहीं दे सकती।"
इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा, "क्योंकि तब एक शेल कंपनी दान कर सकती है। इससे उद्देश्य विफल हो जाता है।"
सीजेआई ने सॉलिसिटर जनरल से पूछा, "तो आप क्या करेंगे? आप कंपनी अधिनियम में संशोधन लाएंगे?...क्या सरकार यह बयान दे रही है कि, हम कंपनी अधिनियम में संशोधन करके उस स्थिति को वापस लाएंगे कि दान लाभ का प्रतिशत होगा?"
एसजी ने नकारात्मक जवाब दिया और कहा कि, "वह केवल इस बात पर जोर दे रहे थे कि केवल लाभ कमाने वाली कंपनी ही दान दे सकती है।"
सीजेआई ने तब किसी कंपनी को, बिना किसी आनुपातिक सीमा के अपना पूरा लाभ, चाहे वह 1 रुपये या 100 रुपये हो, दान करने की अनुमति देने के पीछे के तर्क पर सवाल उठाया। सीजेआई ने पूछा, "मान लें कि कोई कंपनी, लाभ कमा रही है - इसमें 1 रुपये का लाभ या 100 रुपये का लाभ हो सकता है - यदि आपके पास प्रतिशत का बंधन नहीं है, तो कोई कंपनी क्यों, किस संभावित कारण से अपने मुनाफे का 100% दान करेगी? यही कारण है कि लाभ प्रतिशत प्रतिबंध लगाए गए थे, वे समय की कसौटी पर खरे भी उतरे। इसका कारण भी, बहुत वैध था - क्योंकि आप एक कंपनी हैं - आपका उद्देश्य व्यवसाय करना है, राजनीतिक दलों को दान देना नहीं। और यदि आपका उद्देश्य दान देना नहीं है, तो भी आपको दान अवश्य देना चाहिए और आप दान दे सकते हैं, पर उसकी राशि कम होगी।"
सीजेआई का संकेत केवल दान देने के लिए ही किसी कंपनी का गठन नहीं किया जाना चाहिए, इसीलिए यह प्रतिबंध लगाया गया था। सीजेआई की इस टिप्पणी पर, एसजी ने बताया कि, "पिछले अनुभवों से पता चला है कि, कुछ क्षेत्रों में कुछ कंपनियां 7.5% की सीमा से अधिक दान करना चाहती थीं, जिसके कारण उन्होंने इस सीमा से बचने के लिए शेल कंपनियां बनाईं। इस मुद्दे को सुलझाने और राजनीतिक चंदे के लिए फर्जी कंपनियों के गठन को हतोत्साहित करने के लिए सरकार ने इस सीमा को पूरी तरह खत्म करने का फैसला किया। इसके अलावा, यह निर्णय कंपनियों को उनके योगदान की सीमा तय करने की अनुमति देने के लिए किया गया था, जब तक कि वे लाभ कमाने वाली संस्थाएं थीं और इसका उद्देश्य शेल कंपनियों को हतोत्साहित करना था।"
इस दलील पर सीजेआई ने कहा, "संकीर्ण रूप से तैयार किए गए प्रावधान होने के कारण ही, आपको (कंपनी को) कुछ वर्षों तक व्यवसाय करना होगा। आपके पास एक निश्चित टर्नओवर, परिसंपत्ति आधार होना चाहिए - ये आमतौर पर शेल कंपनियों को व्यवसाय करने से रोकने के लिए स्वीकृत मानदंड हैं, हमें इसके उद्देश्यों में नहीं जाना है। हम पूरी तरह से उस प्रक्रिया का सम्मान करते हैं। मुद्दा यह नहीं है। हम केवल नकद प्रणाली में वापस नहीं जाना चाहते हैं। हम बस इतना कह रहे हैं कि इसकी इसकी गंभीर कमियाँ को दर्ज करते हुए, इसे
आनुपातिक, तरीके से करें ।"
उन्होंने आगे पूछा, "क्या यह वैध होगा- अगर किसी कंपनी को अपने राजस्व का 100% भी दान करना हो तो ? क्या यह परोपकारी उद्देश्यों से निर्देशित है ?"
० योजना में पर्याप्त सुरक्षा उपाय हैं।
एसजी ने इस बात पर प्रकाश डाला कि चुनावी बांड योजना का उद्देश्य राजनीतिक चंदे में शेल कंपनियों और नकद लेनदेन के उपयोग को हतोत्साहित करना था। उन्होंने तर्क दिया कि, "इस योजना का उद्देश्य, सिस्टम में स्वच्छ धन को प्रवाहित करके राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाना है।"
एसजी ने देश के विकास में वाणिज्यिक क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख किया और भारत में सबसे बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक से जुड़े चल रहे मामले का उल्लेख करते हुए इस क्षेत्र में मजबूत विनियमन की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने आगे बताया कि, "इस योजना ने पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न उपाय पेश किए हैं, जैसे दानदाताओं और राजनीतिक दलों दोनों के लिए नामित खाते और रिकॉर्ड रखने की आवश्यकता।"
एसजी ने राजनीतिक दल की पात्रता के लिए 1% वोट सीमा को उचित ठहराया, यह कहते हुए कि, "इसका उद्देश्य केवल छूट का दावा करने के उद्देश्य से नकली पार्टियों के गठन को रोकना था।"
गुमनाम दान के बारे में चिंताओं को दूर करने के लिए, एसजी ने केवाईसी (अपने ग्राहक को जानें) आवश्यकताओं को समझाया, जिसमें आधार संख्या और पते प्रदान करना शामिल था। उन्होंने संभावित एग्रीगेटर्स के बारे में चिंताओं को भी संबोधित किया, जिसमें कहा गया था कि सिस्टम को दानकर्ताओं को कई एग्रीगेटर्स ढूंढने की आवश्यकता होगी यदि वे महत्वपूर्ण रकम दान करना चाहते हैं, जो आसान नहीं था क्योंकि इसमें उच्च मूल्य रकम के कई लेनदेन शामिल होंगे, जिससे कई व्यक्ति उजागर होंगे। उन्होंने कहा कि, "यहां तक कि इसके दुरुपयोग की भी कुछ संभावना है, लेकिन, यह योजना को रद्द करने का आधार नहीं है।"
उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि कोई भी प्रणाली पूरी तरह से फुलप्रूफ नहीं हो सकती है।"
अदालत में अपना पक्ष रखते हुए, जब एसजी तुषार मेहता ने, जब इस बात पर प्रकाश डालते हुए कहा कि, "बांड की वैधता जारी होने की समय सीमा, केवल 15 दिनों की रखी गई है।" और यह कहते हुए, उन्होंने, इस अल्प समय सीमा के महत्व पर भी जोर दिया गया। एसजी ने जोर देकर कहा कि, "15 दिन की समय सीमा ने चंदे के बदले में, पक्षपाती सौदों की संभावना को कम कर दिया है क्योंकि दानकर्ताओं को इस अवधि के भीतर ही बांड देने की आवश्यकता होती है।"
जोखिम को और कम करने के लिए, उन्होंने उल्लेख किया कि, "यदि बांड को निर्धारित समय सीमा के भीतर भुनाया नहीं गया, तो यह राशि पीएम राहत कोष में चली जाएगी, और दानकर्ता इसे वापस नहीं ले पाएगा। इससे यह सुनिश्चित हुआ कि दानदाताओं को राजनीतिक दलों द्वारा समय पर बांड जमा कराने के लिए प्रोत्साहन मिले।"
चुनावी बांड में सीक्रेसी या गोपनीयता, सॉलिसिटर जनरल द्वारा उठाए गए बिंदुओं का भी एक पहलू था। उन्होंने दलील दी कि, "दानदाताओं की गोपनीयता बनाए रखना आवश्यक था और बांड को इसीलिए कड़े गोपनीयता प्रतिबंधों के साथ डिजाइन किया गया है। इस गोपनीयता का उल्लंघन करने से, पहचान साबित हो जाने का जोखिम लिए, डिजिटल संकेत सामने आएंगे और इसमें शामिल लोगों के लिए, यह दिक्कततलब हो आएगा। गोपनीयता के ही कारण, जांच एजेंसियां भी, केवल अदालत के आदेश से ही दानदाताओं के विवरण तक पहुंच सकती हैं।"
० योजना का उद्देश्य पारदर्शिता सुनिश्चित करना है।
अपने तर्कों में, एसजी मेहता ने जोर देकर कहा कि, "कोई भी योजना, तब तक नहीं चल सकती जब तक कि, दानदाता के विवरण को गोपनीय नहीं रखा जाता क्योंकि, गोपनीयता के बिना, एक दानदाता हमेशा, नकद के माध्यम से दान करने का विकल्प चुनेगा। चुनावी बांड योजना को इस तरह से तैयार किया गया था कि यह दानदाता की गोपनीयता को पूरी तरह से सुनिश्चित करता है जब तक कि अदालत, इस संबंध में कोई, अन्यथा आदेश न दे। केवल उसी पार्टी को दानकर्ता का विवरण पता चल सकेगा, जिसे दान दिया गया है और इससे किसी अन्य राजनीतिक दल द्वारा दानकर्ता का प्रतिशोध और उत्पीड़न रोका जा सकेगा।"
एसजी की उपरोक्त दलील के बाद, पीठ की तरफ से, न्यायमूर्ति गवई ने पूछा- "मतदाताओं के अधिकार के बारे में क्या कहना है?"
एसजी ने यह कहते हुए जवाब दिया कि, "मतदाता का अधिकार केवल यह जानना है कि किस पार्टी को क्या जानकारी मिली। मतदाताओं से केवल विशिष्ट व्यक्तियों या संगठनों के अभियान योगदान के आधार पर निर्णय लेने की अपेक्षा करना यथार्थवादी नहीं है। इसके बजाय, मतदाताओं को अपने निर्णय, विचारधारा, सिद्धांतों, नेतृत्व और एक राजनीतिक दल की दक्षता जैसे कारकों पर आधारित करने चाहिए। उद्योग और व्यवसाय, उन राजनीतिक दलों का समर्थन कर सकते हैं जो उनके संचालन के लिए अनुकूल वातावरण बनाते हैं, लेकिन इसमें आवश्यक रूप से एक प्रतिदान व्यवस्था शामिल नहीं है जहां वित्तीय योगदान से राजनीतिक लाभ मिलता है।"
आगे एसजी ने कहा, "चुनाव की शुचिता मतदान के अधिकार से सर्वोपरि है। मतदाता, इस आधार पर वोट नहीं करते कि, कौन सी पार्टी किसके द्वारा वित्त पोषित है, मतदाता विचारधारा, सिद्धांत, नेतृत्व, पार्टी की दक्षता के आधार पर वोट करते हैं।"
एसजी ने आगे स्पष्ट किया कि, "योजना का उद्देश्य सत्तारूढ़ दल को चंदा अभियान योगदान के बारे में, जानकारी प्राप्त करने में, सक्षम बनाना नहीं था। इसका उद्देश्य राजनीतिक लाभ की सुविधा के बजाय पारदर्शिता और निष्पक्षता है।"
इस मौके पर सीजेआई ने पूछा, "क्या आपका तर्क है कि इस योजना के तहत, सत्तारूढ़ दल को पता नहीं है कि दानकर्ता कौन हैं?"
इस पर, एसजी ने कहा कि प्रत्येक राजनीतिक दल अपने स्वयं के दानदाताओं के बारे में जानता है। दानदाताओं के संबंध में गोपनीयता मुख्यतः अन्य दलों के लिए भी। जबकि उन्होंने एक पार्टी द्वारा दान के स्रोत के बारे में अनभिज्ञता का नाटक करने की संभावना का उल्लेख किया, किसी के उदाहरण का उपयोग करते हुए दावा किया कि उन्हें अपने दानपात्र में गुमनाम रूप से बड़ी राशि प्राप्त हुई। ऐसा परिदृश्य यथार्थवादी नहीं था क्योंकि पर्याप्त राजनीतिक दान, आम तौर पर गुमनाम रूप से नहीं बनाए गए थे।"
न्यायमूर्ति खन्ना ने टिप्पणी की- "यदि ऐसा है, तो इसे क्यों नहीं खोला जाता?जैसा कि यह है, हर कोई जानता है। एकमात्र व्यक्ति जो इस जानकारी से वंचित है, वह मतदाता है।"
इसके बाद सीजेआई की टिप्पणी आई जिन्होंने चुनावी वित्तपोषण के क्षेत्र में पांच महत्वपूर्ण विचारों को रेखांकित किया। इन विचारों में,
० चुनावी प्रक्रिया में नकदी पर निर्भरता को कम करने की अनिवार्यता,
० चंदा दान अभियान योगदान के लिए अधिकृत बैंकिंग चैनलों को बढ़ावा देना,
० इन चैनलों का उपयोग करने वाले दानदाताओं के लिए गोपनीयता को प्रोत्साहित करना,
० चुनावी वित्तपोषण में पारदर्शिता की सर्वोपरि आवश्यकता और
० सत्ता में मौजूद लोगों और वित्तीय लाभार्थियों के बीच रिश्वत या बदले की भावना पर किसी भी तरह की रोकथाम शामिल है।
सीजेआई ने इस बात पर जोर दिया कि एक संतुलित प्रणाली ढूंढना जरूरी है, जो चुनावी प्रक्रिया की अखंडता को बनाए रखने के लिए अपारदर्शिता या दुरुपयोग को बढ़ावा दिए बिना इन कारकों को प्रभावी ढंग से संबोधित कर सके।
अपनी बात रखते हुए सीजेआई ने आगे कहा,
"ऐसा नहीं है कि, या तो ऐसा है, या - कि या तो आप ऐसा करें, या पूरी तरह से नकदी पर वापस जाएं। आप एक अन्य प्रणाली डिज़ाइन कर सकते हैं, जिसमें इस प्रणाली की खामियां नहीं हों - वे अपारदर्शिता पर केंद्रित हैं। आप अभी भी एक डिज़ाइन कर सकते हैं जो, प्रणाली को, आनुपातिक तरीके से संतुलित बनाती है। यह कैसे किया जाना है यह आप पर निर्भर है, यह हमारा क्षेत्र नहीं है।"
० सूचनात्मक गोपनीयता का अधिकार सुनिश्चित किया जाना चाहिए
एसजी ने तब केएस पुट्टास्वामी फैसले का हवाला दिया, जिसमें अदालत ने सूचनात्मक गोपनीयता के मौलिक अधिकार को मान्यता दी थी। एसजी ने जानने के अधिकार और सूचनात्मक गोपनीयता के अधिकार को संतुलित करने की आवश्यकता पर जोर दिया, यह तर्क देते हुए कि, "सूचनात्मक गोपनीयता के अधिकार को जानने के सामान्य अधिकार के विरुद्ध दावा किया जा सकता है।"
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि, "हालांकि जनता को जानने का अधिकार है, लेकिन यह वास्तविक सार्वजनिक हित के मामलों तक ही सीमित होना चाहिए, और जिज्ञासु या उत्सुक पूछताछ से किसी व्यक्ति की निजता का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।"
सॉलिसिटर जनरल ने तर्क दिया कि, "खुलासे में वैध, राज्य हित को सार्वजनिक हित से जोड़ा जाना चाहिए। किस कंपनी ने कितने बांड खरीदे और किस राजनीतिक दल ने कितने बांड प्राप्त किए, इसकी जानकारी पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में है। इससे परे कोई भी अतिरिक्त खुलासा नकदी आधारित अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित कर सकता है, जो राज्य के हित में उचित नहीं होगा।"
आगे उन्होंने अपनी दलील में यह जोड़ते हुए कहा, "गोपनीयता स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के प्रतिकूल नहीं है। कभी-कभी यह वर्तमान मामले की तरह यह योजना स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को बढ़ाती है। यह दान को, नकदी से, बैंकिंग चैनलों में, स्थानांतरित करती है।"
वकील कनु अग्रवाल ने एसजी की दलीलों को पूरक करते हुए कहा कि, "इस योजना ने ₹20,000 से कम के दान को रोका है।" जिसे उन्होंने "संदिग्ध योगदान" कहा।
० अनपेक्षित परिणाम कानून को रद्द करने का कारण नहीं हो सकता।
इसके बाद भारत के अटॉर्नी जनरल, आर वेंकटरमणी की दलीलें आईं जिन्होंने, चुनावी फंडिंग पर वैश्विक कैनवास को बहुरूपदर्शक के रूप में वर्णित किया। एजी ने कहा कि, "इन याचिकाओं की चुनौती में इस योजना के बारे में चिंता जताई है कि, यह संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों, जैसे कि अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19, अनुच्छेद 21 का उल्लंघन कर रही है और यहां तक कि संविधान की मूल संरचना को भी कमजोर कर रही है।"
उन्होंने अदालत से संवैधानिक व्याख्या के महत्वपूर्ण सवालों पर ध्यान केंद्रित करने का आग्रह किया, न कि व्यापक "राजनीतिक बहस" पर। एजी ने आगे कहा, "कुछ बहुत ही सटीक, प्रत्यक्ष बातें कही जानी चाहिए, न कि, कोई लंबा भाषण, जो एक राजनीतिक बहस जैसा हो। इस जानकारी तक पहुंचने के माध्यम से मैं किस उद्देश्य का उपयोग करूंगा? सामान्य राजनीतिक बहस या यह निर्धारित करना कि कौन सी पार्टी बेहतर प्रदर्शन करेगी ? यह जानकारी किस ठोस उद्देश्य के लिए प्रासंगिक होगी?"
उन्होंने आगे कहा कि, "अदालत के समक्ष अनुभवजन्य विश्लेषण प्रस्तुत नहीं किया गया था। सरकार एक अनियमित (unregulated) प्रणाली से एक विनियमित (regulated) प्रणाली की ओर बढ़ रही है। कोई यह नहीं कह सकता कि, वे प्रत्येक क़ानून को अलग-अलग दृष्टि से देखेंगे और उन पर सवाल उठाएंगे। यह योजना किसी भी व्यक्ति के मौजूदा अधिकार का उल्लंघन नहीं करती है।"
आगे एजी ने अपनी दलील रखी, "हम इस सिद्धांत को स्वीकार नहीं कर सकते कि, एक परिधीय अधिकार, जो किसी नामित मौलिक अधिकार के प्रयोग को सुविधाजनक बनाता है या उसे सार प्रदान करता है, वह स्वयं नामित मौलिक अधिकार के साथ शामिल एक गारंटीशुदा अधिकार है।"
इस पर सीजेआई ने टिप्पणी की, "पुट्टास्वामी फैसले के बाद इस तर्क में बदलाव आया है। संविधान के तहत निजता के अधिकार को स्पष्ट रूप से मान्यता नहीं दी गई है, लेकिन हम इसे जीवन, गरिमा, प्रस्तावना मूल्यों आदि के अधिकार के रूप में पढ़ते हैं। एक पहलू के, एक भाग के रूप में घोषित करते हुए, घोषित अधिकार, शक्तियों के पृथक्करण पर बाधा नहीं डालता है। उदाहरण के लिए, हमने कहा है कि यौन अभिविन्यास अनुच्छेद 15 में निहित है। यह शक्तियों के पृथक्करण पर बाधा नहीं डालता है। यदि न्यायालय कोई विधायी उपाय निर्धारित करता है, जो अलगाव पर प्रभाव डालता है शक्तियों का। संविधान में एक अधिकार ढूंढ़ना, हम कर सकते हैं। हमने कहा था कि शिक्षा का अधिकार भाग III का हिस्सा बनने से पहले ही एक अधिकार था। आज हमारे पास एक ढांचा है। हम कोई ढांचा नहीं बना रहे हैं। हम रूपरेखा की वैधता का परीक्षण कर रहे हैं।"
तब एजी ने तर्क दिया कि, "भले ही अवांछनीय परिणाम हों, वे परिणाम इच्छित नहीं हैं और कोई अनपेक्षित परिणाम कानून को रद्द करने का कारण नहीं हो सकता।"
सरकार के वकीलों की दलीलों के बाद, याचिकाकर्ता के वकीलों की जवाबी दलीलें प्रस्तुत की गई।
याचिकाकर्ता के वकील, प्रशांत भूषण ने बताया कि, "संशोधन ने राजनीतिक दलों को नकद दान को प्रभावी ढंग से सीमित नहीं किया है, बल्कि, नकदी चैनल खुले छोड़ दिए हैं। आयकर छूट सीमा को 20,000 से घटाकर 2,000 रुपये करने से कोई व्यावहारिक अंतर नहीं आया क्योंकि राजनीतिक दलों ने केवल 2,000 रुपये से ऊपर के दान की घोषणा की, जिससे उस राशि से नीचे का दान प्रभावी रूप से गुमनाम हो गया।"
हालाँकि, CJI ने जवाब दिया कि, "योजना का मुख्य उद्देश्य नियमित बैंकिंग चैनलों के माध्यम से राजनीतिक योगदान को प्रसारित करके पारदर्शिता बढ़ाना है।"
न्यायमूर्ति खन्ना ने योजना के पीछे के इरादे पर प्रकाश डाला और इस बात पर जोर दिया कि, "इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि, पैसा नियमित बैंकिंग चैनलों के माध्यम से अपने ग्राहक को जानें (केवाईसी) आवश्यकताओं के साथ आए, जो नकद दान के मामले में नहीं था। इस योजना का उद्देश्य विभिन्न कारणों से दानदाताओं की पहचान की रक्षा करना है।
तब प्रशांत भूषण ने तर्क दिया कि, "इस योजना ने नागरिकों के यह जानने के अधिकार को निष्कृय कर दिया कि, राजनीतिक दलों को किसने चंदा दिया है, जिसे अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत मान्यता प्राप्त है। भले ही नकद दान पर रोक नहीं है, लेकिन चुनावी बांड के माध्यम से एक गुमनाम चैनल शुरू करना उचित नहीं है।"
सीजेआई ने इस बात पर जोर देते हुए जवाब दिया कि, "योजना की वैधता जरूरी नहीं कि काले धन को कम करने में इसकी सफलता से जुड़ी हो और इसका मुख्य उद्देश्य पारदर्शिता बढ़ाना था।"
आगे उन्होंने कहा, "संवैधानिक स्तर पर, यह तर्क टिक नहीं पाएगा। तथ्य यह है कि वे सभी नकदी स्रोतों को समाप्त करने में असमर्थ रहे हैं या उन्होंने ऐसा नहीं किया है। यह योजना की वैधता को चुनौती देने का आधार नहीं है।"
तब प्रशांत भूषण ने तर्क दिया कि, "इस योजना ने कंपनियों को सत्ता में पार्टियों को गुमनाम रिश्वत देने की अनुमति देकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। निजता का अधिकार नागरिकों के सूचना के अधिकार को खत्म नहीं कर सकता है और सरकार के पास उपलब्ध जानकारी अभी भी कंपनियों के उत्पीड़न का कारण बन सकती है।
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने अपनी दलीलों में चुनावी बांड योजना की तीखी आलोचना की और इसे असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक और अनुचित बताया। सिब्बल ने तर्क दिया कि, "इस योजना ने संविधान की मूल संरचना को कमजोर कर दिया और स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को बढ़ावा नहीं दिया, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं। यह योजना अनुचित है, क्योंकि इससे उद्योगपतियों पर दान देने के लिए अनुचित दबाव डाला गया और सत्तारूढ़ दल को इससे अनुचित लाभ हुआ। योजना और चुनाव प्रक्रिया के बीच कोई सीधा संबंध नहीं था क्योंकि राजनीतिक दल नहीं बल्कि उम्मीदवार चुनाव लड़ते है। दान के लिए कोई प्रतिशोध नहीं होगा, क्योंकि उद्योगपति सत्तारूढ़ दल सहित कई दलों को योगदान देते रहते हैं और देंगे।"
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने योजना में पारदर्शिता की कमी की आलोचना करते हुए कहा कि, "यह दाता की जानकारी को निजी रखकर भ्रष्ट लेनदेन के लिए सुरक्षा प्रदान करता है।"
कपिल सिब्बल ने आगे चिंता जताते हुए कहा, "आप उस जानकारी को सार्वजनिक डोमेन में न डालकर भ्रष्ट लेनदेन को संरक्षण दे रहे हैं। मैं एफआईआर दर्ज नहीं कर सकता क्योंकि मुझ पर मानहानि का मुकदमा किया जाएगा। मैं अदालत नहीं जा सकता क्योंकि मेरे पास कोई डेटा नहीं होगा। तो क्या हुआ क्या हम अदालत के आदेश के बारे में बात कर रहे हैं? यह राजनीतिक निरंतरता सुनिश्चित करने का सबसे सुरक्षित तरीका है। इसमें कोई असमान खेल का मैदान नहीं है। जानकारी अज्ञात होने का एकमात्र कारण सिस्टम का संरचनात्मक डिजाइन है। मैं और कुछ नहीं कहना चाहता।"
कपिल सिब्बल ने दानदाता की जानकारी रोककर किए गए जनहित पर सवाल उठाते हुए अपना निष्कर्ष निकाला और यह दलील दी कि, "इस योजना ने सत्ता में बैठे लोगों की संरक्षण दिया है, जिससे राजनीतिक निरंतरता बनी रहे। अदालत को सरकार को इन मुद्दों को पारदर्शी तरीके से संबोधित करने की सलाह देनी चाहिए।
अधिवक्ता शादान फरासत ने राजनीतिक फंडिंग में बदले की भावना को रोकने और पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए सार्वजनिक प्रकटीकरण के महत्व पर जोर दिया। फरासत ने तर्क दिया कि, "योजना की नींव दाता डेटा के गैर-सार्वजनिक प्रकटीकरण पर टिकी हुई है। उन्होंने अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के एक बयान का हवाला दिया, जिसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया था कि किसी राजनीतिक दल के वास्तविक इरादों को निर्धारित करने के लिए उसके फंडिंग स्रोतों को जानना महत्वपूर्ण है। उन्होंने तर्क दिया कि नीतिगत प्रभाव, विधायी प्रभाव और भ्रष्टाचार के बीच अंतर करने, बदले की भावना को रोकने के लिए सार्वजनिक प्रकटीकरण आवश्यक था।"
इस प्रकार इस महत्वपूर्ण मामले पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सुनवाई पूरी की और साथ ही भारत निर्वाचन आयोग को यह निर्देश भी दिया कि, वह 30 सितंबर तक, किस किस ने चुनावी बांड खरीदा और किस किस दल को किस किस व्यक्ति या कंपनी ने, कितना कितना धन चंदे के रूप में, कब कब दिया। अदालत ने फैसला सुरक्षित रख लिया है।
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh