Sunday, 31 July 2022

आए भी वो, गए भी वो, खत्म हुआ फ़साना सारा / विजय शंकर सिंह

राकेश अस्थाना, गुजरात कैडर के आईपीएस अफसर हैं और अभी अभी रिटायर हुए हैं। वैसे तो उन्हे एक साल पहले रिटायर हो जाना चाहिए था, पर उनके रिटायरमेंट के ठीक पहले केंद्र सरकार ने, उन्हे एक साल का सेवा विस्तार दे दिया था और उन्हें दिल्ली का पुलिस कमिश्नर नियुक्त कर दिया था। सरकार के इस फैसले पर पुलिस सहित अन्य नौकरशाही में भी फुसफुसाहट हुई, और आंखों आंखों और इशारों में लोगों ने तबादला ए खयालात किया। नौकरशाही की एक मजबूरी यह भी है कि, वह ऐसे, शो मी योर फेस, आई विल शो यू द रूल, (Show me your face, I will show you the rule) जैसे उदाहरणों पर फुसफुसा ही सकती है। और ऐसी फुसफुसाहटों को व्हिस्पर्स इन कॉरिडोर यानी गलियारों की फुसफुसाहट कहा जाता है। यह गलचौर, अक्सर तनाव कम भी करता है जो नौकरशाही का एक समय के बाद, स्थाई भाव बन जाता है। 

दिल्ली यूटी कैडर के अंतर्गत आती है तो, यूटी कैडर के पुलिस अफसरों की स्वाभाविक इच्छा होती है कि वे राजधानी के पुलिस कमिश्नर पद को सुशोभित करें। पर नियमों के अनुसार, यह कोई बाध्यता नहीं है कि, यहां यूटी कैडर के ही आईपीएस नियुक्त हों। पहले भी अन्य प्रदेशों के आईपीएस दिल्ली के पुलिस कमिश्नर रह चुके हैं। बल्कि दिल्ली के पहले पुलिस कमिश्नर, जे एन चतुर्वेदी, यूपी कैडर के आईपीएस थे जो बाद में यूपी के डीजीपी भी बने। वे बहुत काबिल और तेज तर्रार अफसर थे। राकेश अस्थाना के बाद जो सज्जन दिल्ली पुलिस कमिश्नर के पद पर नियुक्त हुए हैं, वे भी यूटी कैडर के नहीं हैं, बल्कि वे तमिलनाडु कैडर के हैं। 

राकेश अस्थाना की सेवा विस्तार के बाद हुई उनकी नियुक्ति पर काफी विवाद हुआ था, जिसका कारण, अचानक एक साल का सेवा विस्तार, जो आज तक किसी भी आईपीएस को नहीं मिला था, और सीबीआई में डायरेक्टर सीबीआई से उनके विवाद, जब वे स्पेशल डायरेक्टर थे, था, है। राकेश अस्थाना के इस सेवा विस्तार और दिल्ली पुलिस कमिश्नर के पद पर उनकी नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट के वकील, प्रशांत भूषण ने एक पीआईएल दायर कर के, सुप्रीम कोर्ट में उनके सेवा विस्तार और नियुक्ति को चुनौती भी दी थी। मैं उन दलीलों के विस्तार पर नहीं जाना चाहता, जिनके आधार पर यह पीआईएल दायर की गई थी। उस पीआईएल पर अदालत में एक या दो तारीखें पड़ी, पर कोई नतीजा नहीं निकला और अब उस पीआईएल का कोई मतलब भी नहीं रहा, क्योंकि अब राकेश अस्थाना रिटायर हो गए हैं। 

यहां एक महत्वपूर्ण सवाल, यह उठता है कि, जब सुप्रीम कोर्ट ने, इस पीआईएल को सुनवाई के लिए स्वीकार किया तो, इस पर प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई क्यों नहीं की। क्योंकि यदि उस पर फैसला जल्दी नहीं आता है तो फिर ऐसे पीआईएल का औचित्य ही नहीं रहता है। साल भर बाद तो वैसे भी राकेश अस्थाना को रिटायर हो जाना था, जो वह हो भी गए। वैसे भी सरकार, किसी भी अफसर की नियुक्ति, तबादले और सेवा विस्तार देने के लिए नियम बनाती है और खुद ही, 'जनहित' शब्द की आड़ में ऐसे नियमों को, शिथिल करके, अपनी इच्छानुसार नियुक्तियां करती रहती है। उन पर विवाद भी मचता है, फुसफुसाहटें भी उभरती हैं, पर होता वही है, जो सरकार चाहती है। यह वर्तमान सरकार के संदर्भ में नहीं हर सरकार के संदर्भ में लागू है। 

सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस पीआईएल को या तो सुनवाई के लिए स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए था, और यदि स्वीकार कर लिया गया तो इसकी सुनवाई प्राथमिकता के आधार पर, यह ध्यान में रखते हुए करनी चाहिए थी कि, एक साल बाद, इस पीआईएल का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। इस प्रकार, सुनवाई में प्राथमिकता न देने के कारण, ऐसी पीआईएल से, एक संदेश यह भी जाता है कि अदालत, किन्ही विशेष कारणों से इसे सुनना नहीं चाहती है, बल्कि इसे लटकाए रखना चाहती है। पिछले आठ सालों में सुप्रीम कोर्ट में, इलेक्टोरल बांड, अनुच्छेद 370 में संशोधन, सीएए नागरिकता अधिनियम, यूएपीए सहित कई मामले लंबित हैं जो बेहद महत्वपूर्ण हैं, और इन मामलो के आगे राकेश अस्थाना का यह मामला कहीं नहीं ठहरता है। 

अभी दो और महत्वपूर्ण मामले हैं, एक पेगासस से जुड़ा और दूसरा महाराष्ट्र के एकनाथ शिंदे गुट के दलबदल का मामला। दोनो की सुनवाई अगस्त में ही होने की उम्मीद है। पीआईएल, जनहित याचिकाएं होती हैं और जिन याचिकाओ में व्यापक जनहित निहित हो या महत्वपूर्ण संवैधानिक विंदु हो, उन्हे अदालत द्वारा पहले निपटाया जाना चाहिए। जब एक्जीक्यूटिव यानी कार्यपालिका के प्रति, निराशा छाने लगे और विधायिका लगभग अप्रासंगिक होने  लग जाय, तो उम्मीद, न्यायपालिका से स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है। आज लगभग ऐसी ही स्थिति है। अब यह जिम्मेदारी, न्यायपालिका की है कि वह उस उम्मीद के प्रति कैसे अपने आपको ढालती है। 

(विजय शंकर सिंह)

औरंगज़ेब की शहज़ादी मख़्फी: जो गाती थी प्रेम के तराने



"मैं कोई मुसलमान नहीं
मैं तो हूँ एक बुतपरस्त,
झुकता है सर मेरा सज़दे में
प्रेम की देवी की मूरत के सामने।

कोई ब्राह्मण भी नहीं हूँ मैं;
पहनी थी गले में जो अपने
पवित्र धागों की माला,
निकाल कर बाहर उसे
लपेट ली है मैंने अपनी जुल्फ़ो की लटें।"
(अंग्रेजी से अनुवाद: शिव शंकर पारिजात)

इसलाम के स्थापित मूल्यों और इसी तरह हिंदू धर्म के पवित्र चिन्हों को नकार कर प्रेम की देवी की हिमायत करने वाली उक्त पंक्तियां 17 वीं सदी के उस दौर में लिखी गयी हैं जब हिंदुस्तान के तख़्त पर अपनी कट्टर व संकीर्ण धार्मिक नीतियों के लिये बदनाम बादशाह औरंगज़ेब काबिज था। आपको यह जानकार जरूर थोड़ी और हैरानी होगी कि सूफ़ियाना अंदाज़ में ईश्वर को परम् सौंदर्य की प्रतिमूर्ति मान, प्रेम की देवी की इबादत में इस कलाम को लिखने वाली शायरा कोई और नहीं, खुद औरंगज़ेब की बड़ी बेटी शहज़ादी जेबुन्निसा है। शेरों-शायरी और गीत-संगीत से अपने पिता की नफ़रत के मद्देनज़र जेबुन्निसा 'मख़्फी' के छद्म नाम से अपने कलाम लिखा करती थी। फ़ारसी शब्द मख़्फी का अर्थ होता है छिपा हुआ, अर्थात गुमनाम।

जैबुन्निसा का जन्म 15 फरवरी, 1638 ई. में दौलताबाद में हुआ था। उस समय उसके दादा शाहज़हाँ हिंदुस्तान के बादशाह थे और शहज़ादा औरंगज़ेब दक्कन का वायसरॉय था। अपने चाचा सुलेमान शिकोह की तरह जैबुन्निसा उर्फ मख़्फी एक खुबसूरत, शिक्षित और सुसंस्कृत महिला थी जिसका गला बड़ा ही सुरीला था। वह अत्यंत उदार विचारों वाली थी। 'लर्नेड मुगल वुमेन ऑफ औरंगज़ेब्स टाईम: जैबुन-निशा' में सोमा मुखर्जी बताती हैं कि पवित्र कुरान के नियमों व सिद्धांतों की गहरी जानकारी के बावजूद वह अपने पिता की तरह धार्मिक कट्टर नहीं थी और अपने मज़हबी विचारों में उदार थी।
अपने पिता औरंगज़ेब की सख़्त नापसंदगी के बावजूद शायरी जेबुन्निसा के रग-रग में समायी हुई थी। गहरी अनुभूतियों से लबरेज़ उसकी कविताएं इतनी लयात्मक, रुहानी व आवेगों से परिपूर्ण होती थीं कि कोई भी वाहवाही करने के लिये मज़बूर हो जाता था। इसका सबसे माकूल उदाहरण है उसके 500 से भी ज़्यादा नज़्मों व गज़लों का संग्रह 'दीवान-ए-मख़्फी'। इसके अलावे 'जलवा-ए-खिज्र' व 'तजकिरा-ए-शरायत-ए-उर्दू' भी जैबुन्निसा की शायरी के लाज़वाब नमूने हैं।
उदाहरण बताते हैं कि शायद अपने पिता के विचारों की ख़िलाफ़त जेबुन्निसा की फितरत बन गयी थी। खुले खयालात वाली जेबुन्निसा को अपने प्यार की ऐसी कीमत चुकानी पड़ी कि शायद ही इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण देखने को मिले। उसने अपने मंगेतर को कैद में तिल-तिलकर दम तोड़ते हुए देखा, वहीं उसने अपनी नज़रों के अपने प्रेमियों का कत्ल होते हुए देखा। खुद उसे दिल्ली के सलीमगढ़ किले में 20 वर्षों तक कैदी की जिंदगी काटते हुए वहीं दम तोड़ने के लिये मज़बूर होना पड़ा। जाने-माने इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक 'ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ औरंगजे़ब' में इस बात का जिक्र किया है कि चूंकि औरंगज़ेब कविताई अर्थात शेरों-शायरी से नफ़रत करता था, इस कारण जेबुन्निसा को दरबार की कई सुविधाओं से वंचित कर दिया गया था।

गौरतलब है कि जेबुन्निसा ने अपना छद्म नाम मख़्फी याने कि छिपा हुआ अर्थात गुमनाम क्या रख लिया, उसकी खुद की जिंदगी भी आधी हकीकत और आधा फसाना बनकर रह गयी। विडम्बना ये है कि तवारीख़ के पन्नों में उसके बारे में जितने ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध नहीं, उससे अधिक किस्से-कहानियां, दंत-कथाएं व अफवाहें मौजूद हैं। इस बात की पड़ताल करते हुए 'दीवान-ए-मखफ़ी' के अनुवादक द्वय मगनलाल और जस्सी डंकन वेस्टब्रुक बताते हैं कि जेबुन्निसा की जिंदगी के बारे में मुकम्मिल तौर पर जानकारी हासिल करना कठिन है; क्योंकि यह सिलसिलेवार ढंग से लिखी ही नहीं गई है। कारण, उसे अपनी जिंदगी के बाद के दिनों में अपने पिता के कोप का भाजन बनना पड़ा जिसके चलते उस समय के कोई भी दरबारी इतिहासकार उसके बारे में लिखने की हिमाकत नहीं कर पाये।

जेबुन्निसा की मौत के वर्षों बाद जब उसके नज़्म संकलित होकर दीवान की शक्ल में प्रकाशित हुए तब लोगों ने जाना कि मख़्फी क्या चीज थी, और, बाद में कई इतिहासकार व लेखक उसकी ओर आकर्षित हुए।

ऐसा नहीं था कि जेबुन्निसा के मुतल्लिक शुरू से औरंगज़ेब का नजरिया कठोर था। प्रारंभ में वह अपने पिता की अत्यंत चहेती बेटी थी और उसे न सिर्फ उच्च कोटि की शिक्षा मुहैय्या करायी गयी, वरन् कई मामलों में उसे अन्य शहज़ादियों के मुकाबले अधिक छूट भी प्राप्त थी। दरबार की सबसे काबिल उस्तानी अर्थात शिक्षिका हाफ़िजा मरियम को उसकी पढ़ाई-लिखाई की जिम्मेवारी दी गई थी। जेबुन्निसा ने  हाफ़िजा मरियम के साथ फ़ारसी के विद्वान मोहम्मद सईद अशरफ़ मजंदरानी की शागिर्दी में न सिर्फ अरबी, फ़ारसी और उर्दू, बल्कि अदबीयत (साहित्य) के साथ ज्ञान के अन्य क्षेत्र दर्शन, विज्ञान, गणित व नक्षत्र विज्ञान आदि में भी महारत हासिल की।

उसका दिमाग अपने पिता (औरंगज़ेब) की तरह कुशाग्र (तेज) था जिसके कारण मात्र 7 वर्ष की उम्र में पवित्र कुरान की सारी आयतें याद कर वह 'हाफिज़ा' बन गई जिससे खुश होकर औरंगज़ेब ने अपनी शहजादी व उसकी उस्तानी (शिक्षिका) को बतौर ईनाम 30-30 हज़ार सोने की मोहरें देने के साथ सार्वजनिक छुट्टी घोषित कर बहुत बड़ा जश्न भी आयोजित करवाया।

जेबुन्निसा के जीवनी लेखकों और इतिहासकारों ने उसे मुगल हरम की सबसे शक्तिशाली और शिक्षित महिला के रूप में चित्रित किया है। औरंगज़ेब जब हिंदुस्तान के तख़्त पर बैठा था, उस समय जेबुन्निसा की उम्र 21 वर्ष की थी। पर उसकी विद्वता, काबिलियत और मज़हबी मामलों में विशेषज्ञता के कारण औरंगज़ेब उससे कई मसलों पर सलाह-मशविरा किया करता था। उसके रुतबे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुगल दरबार में उसके दाखिल होने के समय हरम की अन्य शहजादियां बादशाह के हुक्म से उसकी अगुआनी में खड़ी रहती थीं।
शासक बादशाह की बड़ी शहज़ादी होने के नाते जागीर के तौर पर उसे तीस हज़ारी बाग दिया गया था जहाँ उसका एक आलीशान महल था। पढ़ने-लिखने की शौकीन जेबुन्निसा ने वहाँ एक समृद्ध पुस्तकालय बनवाया था जिसके बारे में इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक 'ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ औरंगज़ेब' में लिखा है कि यह किसी भी निजी पुस्तकालय की तुलना में बढ़-चढ़कर था। जेबुन्निसा को अपने निजी खर्च के लिये सलाना 4 लाख की राशि मिलती थी जिसका एक अच्छा हिस्सा वह उत्कृष्ट साहित्य के श्रृजन व अनुवाद पर व्यय करती थी। इसके लिये उसने वज़ीफ़े पर विद्वानों तथा सुलेखकों (कैलिग्राफर्स) की नियुक्ति कर रखी थी। रहमदिल व धार्मिक विचारों वाली जेबुन्निसा जरूरतमंदों लोगों एवं हज़ यात्रियों की भी मदद करती थी।

खुद एक अच्छी कवियित्री होने के नाते जेबुन्निसा मुशायरों की शान मानी जाती थी। साथ ही वह शायरों को संरक्षण भी प्रदान करती थी। उसकी साहित्य-मंडली  में उस समय के अज़ीम शायर सरहिंद के नासिर अली सहित सैयब, शम्स वलीउल्लाह, अब्दुल बेदिल, कलीम कसानी, साहब तबरेजी के नाम आते हैं। मुशायरों में शिरकत करते समय वह इस बात का ध्यान जरूर रखती थी कि उसका चेहरा नकाब से ढंका हो।

अपनी हाज़िरजवाबी से जेबुन्निसा ने सबको कायल कर रखा था। इस संबंध में एक किस्सा यूं है कि उसकी शायरी व शोहरत से नाखुश औरंगजे़ब की शह पर एक बार नासिर अली नाम के एक पारसी शायर ने उसके सामने यह शर्त रखी कि उसके लिखे कलाम की पहली पंक्ति की जोड़ में वह तीन दिनों के अंदर दूसरी पंक्ति लिखकर दे, अन्यथा हमेशा के लिये शायरी करना छोड़ दे।

नासिर अली की लिखी पहली पंक्ति इस प्रकार थी: "है नामुमकिन ढूंढ पाना ऐसे मोती को/ जो सफेद भी हो और काला भी।" इसके तोड़ में जब जेबुन्निसा ने नियत समय में दूसरी पंक्ति लिखकर आगे बढ़ाई, तो उसकी काबिलियत के सभी कायल हो गये: "है जरूर नामुमकिन ढूंढ पाना ऐसे मोती को/ पर आंसुओं के उन मोतियों को छोड़कर/ जो टपकी हों काजल से भींगी किसी खुबसूरत आंखों से।"

अपने नाम के शब्द का अर्थ-'औरतों का गहना'-के अनुरूप जेबुन्निसा का सौंदर्य अप्रतिम था। परिधान के मामले में वह सादगी पसंद थी, पर उसके कपड़ें सुरुचिपूर्ण होते थे। आज महिलाओं के बीच लोकप्रिय अंगिया कुर्ती उसी की देन है। गहने के नाम पर वह अपने गले सिर्फ मोतियों की माला पहनती थी, जो उस पर खूब फबती थी। भले ही जेबुन्निसा सादगीपसंद थी, पर उसके शायराना दिल को अपनी खुबसूरती का ऐहसास था। तभी तो वह कह उठती है:

"जब भी उठाती हूँ मैं चेहरे से अपने नकाब,
तो मुरझाकर पीले पड़ जाते हैं गुलाब।"

जेबुन्निसा का दिल खुशमिजाज था और उसके दिन खुशगवार गुजर रहे थे। पर स्थितियां उस समय से बदलने लगीं जब औरंगजे़ब अपने पिता शाहजहां को बंदी बना और भाइयों की हत्या कर गद्दी पर बैठा। औरंगजे़ब की कट्टर धार्मिक नीतियों और संकीर्ण मानसिकता के कारण पूरे मुल्क में दहशत का साम्राज्य कायम हो गया। जो भी उसके राजनीतिक जोड़-घटाव के समीकरण के माफिक नहीं उतरा और जिसपर भी उसे बगावत की आशंका हुई, उसे अपने रास्ते से हटाने में उसने कोई भी गुरेज़ नहीं किया। यहाँ तक कि इस बिना पर उसने अपनी चहेती लाडली जेबुन्निसा को भी नहीं बख्शा। जेबुन्निसा का सूफ़ियाना मिजाज, उदारवादी धार्मिक विचार और शायराना अंदाज़ उसकी दुश्वारियों के सबब बने।

अपने चाचा और औरंगजे़ब के भाई दारा शिकोह के प्रति जेबुन्निसा का लगाव भी उसके मुतल्लिक अपने पिता की नाराजगी का कारण बना। दारा से जेबुन्निसा की नजदीकियों की एक वज़ह उसका (दारा शिकोह का) खुद एक अव्वल सूफ़ी शायर होना था और दूसरा महत्वपूर्ण कारण उसके  बेटे सुलेमान शिकोह का जेबुन्निसा का मंगेतर होना था। सुलेमान के साथ उसकी शादी खुद उसके दादा बादशाह जहांगीर ने तय की थी।

राजनीतिक समीकरण के हिसाब से औरंगजे़ब दारा शिकोह को अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी मानता था और उसके बेटे सुलेमान के बारे में उसे (औरंगजे़ब को) यह आशंका थी कि जेबुन्निसा से उसके निकाह हो जाने पर कहीं वह तख़्त का दावेदार न बन बैठे। फलतः समरूगढ़ की लड़ाई के दौरान जहाँ उसने दारा का सर कलम करवा डाला, वहीं सलीमगढ़ के किले में सुलेमान को कैद कर अफ़ीम का नशा देकर उसे तिल-तिलकर मरने को मजबूर कर डाला। इस तरह जेबुन्निसा ने अपनी आंखों के सामने अपने पहले प्यार को फ़ना होते देखा।

इसे मुगलिया इतिहास की विडंबना ही कही जा सकती है कि शहंशाह अकबर की बेटी आराम बानू, जहांगीर की बेटी निथार बानू, शाहजहां की बेटियां जहांआरा व रौशन आरा की तरह जेबुन्निसा को भी अकेली अविवाहित जिंदगी गुजारनी पड़़ी। पर शायर मिजाजी जेबुन्निसा का दिल रूमानी था। वह खुद के बारे में कहती भी है: "ऐसे तो हूँ मैं प्रेम-कथाओं की लैला/ करता है प्यार दिल मेरा जुनूनी मजनूं की तरह।" और, कहते हैं कि इसी रूमान में वह ऐसे दो शख़्स को दिल दे बैठी जो मुगलिया रवायत के अनुरूप शाही खानदान का न होने के कारण औरंगजे़ब के कोपभाजन बने।

जेबुन्निसा के रूमान अर्थात इश्क की दो वाक़यातों की बराबर बात होती है, हलांकि ऐतिहासिक दस्तावेजों में इसकी पुख़्ता चर्चा नहीं है। पहली कहानी है लाहौर के  युवा गवर्नर अकिल खां की और दूसरी पारसी शायर नासिर अली की। 1662 ई. में जब औरंगजे़ब एक बार बीमार पड़ा तो अपने चिकित्सकों की सलाह पर वह आबोहवा बदलने की खातिर लाहौर गया था जहाँ के शायरमिजाज युवा गवर्नर अकिल खां से जेबुन्निसा की आंखें दो-चार हो गयीं। पर बादशाह की नाराजगी को भांपते हुए पहले तो अकिल ने अपने कदम पीछे हटा लिये, पर बाद लुक-छिपकर शहज़ादी से मिलने लगा। इसी क्रम में उसे एक बार जब औरंगजे़ब ने उसे बाग में देखा, तो जेबुन्निसा के सामने ही उसे खौलती कड़ाही (देग) में तड़पाकर मारवा डाला। इसी तरह जेबुन्निसा के एक दूसरे शायर प्रेमी नासिर अली को भी औरंगजे़ब के हुक्म से मौत के घाट उतार दिया गया।

जेबुन्निसा के प्रति औरंगजे़ब की नाराजगी का एक कारण मराठा योद्धा छत्रपति शिवाजी को लेकर भी बताया जाता है। राव साहेब जी.के. (पूर्व डी.एस.पी., इंटेलिजेंस, भारत सरकार) अपनी पुस्तक 'द डेलिवरेंस ऑर इस्केप ऑफ शिवाजी द ग्रेट फ्रॉम आगरा'  (1929) में इतिहासकार डोव के हवाले से बताते हैं कि औरंगजे़ब की शहजादी जेबुन्निसा मराठा योद्धा शिवाजी की बहादुरी के किस्से सुनकर उनसे प्रभावित हो गई थी। राजनयिक परिस्थितिवश कछवाहा राजपूत राजा जय सिंह की मध्यस्थता के कारण शिवाजी औरंगजे़ब के दरबार में जाने को तैयार हो गये, तो हरम की अन्य प्रमुख महिलाओं के साथ जेबुन्निसा भी पर्दे के पीछे से यह नज़ारा देख रही थी। शिवाजी के बैठने हेतु उचित स्थान नहीं दिये जाने पर भरे दरबार में उनकी प्रतिक्रिया देख उनकी जांबाजी पर शहजादी का दिल आ गया। बाद में अपनी प्यारी बेटी के अनुरोध पर औरंगजे़ब ने एक बार फिर शिवाजी को अपने दरबार में आमंत्रित किया। पर इस बार भी अपने को जन्मजात राजकुमार बताते हुए शिवाजी सिंहासन के पास जाकर बादशाह के समक्ष सर झुकाने से इनकार कर गये, जिसके कारण उन्हें नज़रबंद कर लिया गया जहाँ से वे बाद में फरार होने में सफल हो गये। कहते हैं कि औरंगजे़ब को इस फरारी में जेबुन्निसा की शह होने का शक हो गया था। इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने भी 'शिवाजी एण्ड हिज़ टाइम' में औरंगजे़ब के दरबार में शिवाजी के साथ उचित व्यहवार नहीं किये जाने की चर्चा की है।

इस तरह उदार धार्मिक विचार से युक्त सूफ़ियाना रूझानों वाली शायराना मिजाज की मल्लिका जेबुन्निसा की खुशियां एक-एक कर औरंगजे़ब की संकीर्ण रुढ़िवादी मानसिकता की भेंट चढ़ती गयीं। उसके चहेते चाचाजान दारा शिकोह का सिर कलम कर दिया गया, उसके पहले प्यार सुलेमान शिकोह को तिल-तिलकर मरने पर मजबूर किया गया। यहाँ तक कि अकिल खां और नासिर अली को भी मौत के घाट उतार दिया गया। कहते हैं कि जेबुन्निसा औरंगजे़ब द्वारा फैलाये गये इस आतंक के साम्राज्य से ऊब चुकी थी और उससे खुद की व आवाम की निज़ात चाहती थी।

इस संबंध में 'द ग्रेट मुगल एण्ड देयर इंडिया' के लेखक, जो मुगल दरबार को नजदीकी से जानने वाले थे, डर्क कोलियर के कथन महत्त्वपूर्ण जान पड़ते हैं: जेबुन्निसा को सलीमगढ़ किले में इसलिये बंदी बनाकर नहीं रखा गया कि उसे सुलेमान शिकोह अथवा अकिल खां से इश्क था। वरन् उसे इसलिये बंदी बनाया गया क्योंकि वह औरंगजे़ब की दमनकारी नीतियों के खिलाफ थी और जब उसके छोटे भाई मोहम्मद अकबर ने बादशाह के विरुद्ध बगावत छेड़ी, तो जेबुन्निसा ने पिता की बजाय विद्रोहियों का पक्ष लिया। इस कवायद में विद्रोही तो मारे गये और उसे सलाखों के पीछे डाल दिया गया।

जेबुन्निसा की जिंदगी के अंतिम 20 साल दिल्ली के सलीमगढ़ किले की ऊंची-ऊंची के अंदर निर्जन एकांत में बेहद तनहाई में व्यतीत हुए। उसकी जिंदगी के आखिरी दिनों के दर्द बरबस उसकी नज़्मों में छलक उठते हैं: "अरे ओ मख़्फी/बहुत लम्बे हैं अभी तेरे निर्वासन के दिन/और शायद उतनी ही लम्बी है/तेरी अधूरी ख़्वाहिशों की फेहरिस्त/अभी कुछ और लम्बा होगा तुम्हारा इंतजार।" इन दिनों में हालात ऐसे हो गये कि जब सगे-संबंधियों व चाहने वालों ने भी उससे खैरोआफ़ियत (कुशल-मंगल) तक पूछना छोड़ दिया, तो उसके दिल से आह निकल उठी: "शायद तुम रास्ता देख रही हो/कि उम्र के किसी मोड़ पर/किसी दिन/लौट सकोगी अपने घर/लेकिन बदनसीब/घर कहां बच रहा तुम्हारे पास।"

अंततः सलीमगढ़ किले की ऊंची दीवारों के अंदर ही 64 वर्ष की आयु में सात दिनों की बीमारी के बाद जेबुन्निसा ने 26 मई, 1702 ई. को अपनी अंतिम सांसें ली। उस समय उसका पिता औरंगजे़ब दक्कन के दौरे पर था।  भले ही जीतेजी जेबुन्निसा की कई ख्वाहिशें अधूरी रह गयीं हों, पर मरने के बाद उसे उसकी पसंदीदा जगह कश्मीरी दरवाज़ा के निकट तीस हज़ारी में दफनाया गया।

अपनी मृत्यु के बाद जेबुन्निसा का नाम तकरीबन 22 वर्षों तक गुमनामी के अंधेरे में खोया रहा और लोग उसकी शख्सियत से गाफ़िल रहे। जब 1724 ई. में जेबुन्निसा की बिखरी रचनाओं को संग्रहित कर 'दीवान-ए-मख़्फी' का प्रकाशन हुआ तब पूरी दुनिया को उसकी सलाहियत का इल्म हुआ। उसके नज़्मों खासकर सूफ़ी कलामों की लोकप्रियता इस कदर बढ़ती गयी कि सूफ़ी-संतों के मजारों-दरगाहों और जलसों में  इन्हें पूरी अकीदत के साथ गाया जाने लगा जिसका सिलसिला आज तक जारी है। समय-समय पर उसके दीवान के कई संस्करण प्रकाशित हुए जिनमें 1913 ई. में मगनलाल व जेस्सी डंकन वेस्टब्रुक का अंग्रेजी अनुवाद प्रमुख है। जेबुन्निसा के कलामों की पाण्डुलिपियां पेरिस के नेशनल लाइब्रेरी, ब्रिटिश म्यूजियम के लाइब्रेरी और तुविंगर यूनिवर्सिटी (जर्मनी) सहित कोलकाता के एशियाटिक सोसायटी के आर्काइव में सहेज कर रखे हुए हैं।

जेबुन्निसा की त्रासदी भरी जिंदगी पर रूचिर गुप्ता ने 'द हिड्न वन-द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ औरंगजे़ब्स डाऊटर', पॉल स्मिथ ने 'प्रिंस दारा शिकोह एण्ड हिज नीस प्रिंसेस जेब-उन-निशा (मख़्फी)-टू सूफ़ी पोएट्स मार्टियर्स अंडर द फंडामेंटालिस्ट मुगल एम्परर ऑफ इंडिया, औरंगजे़ब' तथा के. क्रायनिक व इंजुम हामिद ने 'कैप्टिव प्रिंसेस जेबुन्निसा, डाऊटर ऑफ एम्परर औरंगजे़ब' में विस्तार से प्रकाश डाले हैं।
आज भले ही जेबुन्निसा उर्फ मख़्फी का नाम बीते दिनों की बात हो गयी है, पर उसके लिखे नज़्म मानों आज भी जमाने से और खासकर खुदा से अपने उन ख़ताओं के हिसाब मांग रही है जो उसने कभी की ही नहीं:

"अगर इंसाफ के दिन खुदा कहे
कि तुम्हें हर्जाना दूंगा
उन तमाम दुखों का
जो जीवन भर तुमने सहे
तो क्या हर्जाना दे सकेगा वह मुझे
जन्नत के तमाम सुखों के बाद भी
वह एक शख़्स तो उधार ही रह जायेगा
खुदा पर तुम्हारा।"

शिव शंकर सिंह पारिजात
© Shiv Shanker Singh Parijat 
#livehistoryindia #vss 

Saturday, 30 July 2022

मंजर जैदी / भारत के वह ऐतिहासिक स्थल जो अब पाकिस्तान में हैं (19)

लाल शहबाज़ क़लंदर ~

मोहनजोदाड़ो से बाहर आए तो हमें बताया गया कि कराची के रास्ते में सहवान शहर है जहां प्रसिद्ध सूफी संत लाल शहबाज़ कलंदर का मज़ार है। लाल शहबाज कलंदर के विषय में पहले भी सुन चुके थे। विशेष रूप से यह कव्वाली जो उनके सम्मान में तैयार की गई है, 'दमा दम मस्त कलंदर' अनेक बार सुन चुके थे । इस कव्वाली की कम्पोज़िंग में पाकिस्तान की प्रख्यात गायिका नूरजहां तथा नुसरत फतेह अली खान और आबिदा परवीन जैसे चोटी के गायकों ने अहम भूमिका निभाई है। अतः  उनके बारे में विस्तृत रूप से जानने और उनके मज़ार पर जाने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। 

सहवान मोहनजोदाड़ो से 148 किलोमीटर की दूरी पर है जो पाकिस्तान के सिंध प्रांत में जनपद दादू का शहर है। लगभग ढाई घंटे में हम वहां पहुंच गए । एक सुंदर भव्य भवन के अंदर उनकी क़ब्र है। वहां पर काफी  लोग थे जो उनकी क़ब्र पर चादर और फूल चढ़ा रहे थे। हमने भी वहां चादर चढ़ाई। वहां से निकलकर हम चारों ओर का भ्रमण करने लगे। एक स्थान पर एक पेड़ जमीन पर गिरा हुआ था। गिरे हुए पेड़ के तने और जमीन के बीच थोड़ी जगह थी। हमने देखा कि मर्द और औरतें जमीन पर लेट कर उस पेड़ के नीचे से निकल रहे हैं। जब उनसे ऐसा करने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि इस प्रकार हम अपने लिए मन्नत मानते हैं। एक जगह बहुत से धागे बंधे हुए थे और चूड़ियां लटक रही थी जो मन्नत मान कर बांधे गये थे। एक स्थान पर काफी संख्या में बच्चों के झूले रखे थे। उनके बारे में बताया गया कि जो लोग बच्चों की मन्नतें मानते हैं और उनकी मन्नत पूरी हो जाती है तो वह यहां झूला रखकर जाते हैं। एक  स्थान पर पानी का कुंआ  दिखाई दिया जिसके बारे में वहां बताया कि यह कुएं की शक्ल में बना दिया गया है वास्तव में यह पानी का स्रोत है। जब लाल शहबाज़ कलंदर इस स्थान पर आए तो यहां के लोगों ने उन्हें नमाज़ के लिए वज़ू करने को पानी नहीं दिया। उनके द्वारा यहां  ज़मीन पर पैर मारने से पानी का चश्मा (स्रोत) उबल पड़ा था। इस पानी के नीचे पत्थर पर अभी भी उनके पैर का निशान मौजूद है। थोड़ी दूरी पर मिट्टी, पत्थर और ईंटों की टूटी हुई इमारतें जैसी दिखाई दी जिसके बारे में बताया कि यह 'उल्टा किला' है। देखने से प्रतीत होता था कि वह कभी आवास रहे होंगे। 

उन्होंने यह भी बताया कि लाल शहबाज़ क़लंदर हवा में उड़ जाते थे लेकिन वह इन सब का विवरण नहीं बता सके। परंतु उनके द्वारा लाल शहबाज़ क़लंदर के चमत्कार सुनकर मन में और अधिक जानकारी प्राप्त करने का शौक उत्पन्न हुआ । अतः हमने वहां के सज्जादा नशीन (मज़ार से संबंधित महत्वपूर्ण व्यक्ति) पीर साहब से संपर्क किया और उनसे लाल शहबाज़ कलंदर के बारे में विस्तृत रूप से बताने का आग्रह किया। 

उन्होंने बताया कि सूफी संत लाल शहबाज़ क़लंदर का नाम सैयद उस्मान मरन्दी था। इनका जन्म 1177 ईस्वी में मरन्द शहर, जो ईरान में  आज़रबाईजान के निकट है और उस समय आज़रबाईजान की राजधानी था, में हुआ था। इनके पिता सैयद कबीरूद्दीन भी पहुंचे हुए पीर व मुर्शिद थे। लाल शहबाज़ कलंदर फारस के महान कवि रूमी के समकालीन थे। वह विभिन्न जगहों  का भ्रमण करने के उपरांत 1251 ईस्वी में सहवान में आए और वहीं बस गए जहां उन्होंने खानकाह (मीटिंग भवन) बनाई।  वह मज़हब के काफी जानकार थे और पश्तो, फारसी, तुर्की, अरबी, हिंदी और संस्कृत भाषा जानते थे। उन्होंने कई किताबों की रचना की जिसमें 'मीज़ान उस सुर्फ'  'क़सम ए दोयम'  और 'अक्द और ज़ुबदा' प्रसिद्ध हैं। वह पाकिस्तान के शहर मुल्तान गए जहां उनकी दोस्ती अन्य सूफी संतों, हज़रत बहाउद्दीन ज़करिया, हज़रत जलालुद्दीन बुखारी और बाबा फरीदुद्दीन से हुई। यह सूफी मत के चार यार कहलाए। 19 फरवरी 1274 ईस्वी को उनका देहांत हो गया तथा सेहवान में उन्हें दफन कर दिया गया। 1356 ईस्वी में फिरोज़शाह तुग़लक़ ने उन का मक़बरा बनवाया जिसका विस्तार बाद में मिर्ज़ा  जानी बैग और उनके पुत्र मिर्ज़ा ग़ाज़ी बेग ने कराया। अंत में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिक़ार  अली भुट्टो ने इसका सौंदर्यकरण कराया।
 

हमने पीर साहब से कहा कि बाहर बहुत से व्यक्ति लाल शहबाज़ कलंदर के चमत्कारों के विषय में बोल रहे थे। इस संबंध में आप कुछ बताएं। उन्होंने कहा कि वैसे तो उनके बहुत से चमत्कार हैं जिनमें से कुछ के बारे में आपको बताता हूं।
 
एक दिन वह जज़ब (स्थान का नाम) में छोटे छोटे पत्थरों से खेल रहे थे। इन पत्थरों को हवा में उछाल देते और कुर्ते का दामन फैलाकर उसमें समेट लेते थे। एक व्यक्ति वहां से गुज़र रहा था। उसने उन्हें ऐसा करते देखा तो कहा, हज़रत आप पत्थरों से खेल रहे हैं आप जैसे अल्लाह वालों को हीरे, जवाहरात और लाल ( रूबी पत्थर) से खेलना चाहिए। आप ने उससे कहा कि किसने कहा कि यह पत्थर हैं। उन्होंने अपने कुर्ते का दामन खोला तो उसमें से हीरे, जवाहरात और लाल गिरने लगे। जब लोगों को यह बात पता चली तो उन्होंने आपको हजरत उस्मान लाल कहना आरम्भ कर दिया। वह लाल रंग के कपड़े पहनते थे जिसके कारण कुछ लोग उन्हें पहले से ही लाल कहते थे। 

हमने पीर साहब से कहा कि सुना है वह हवा में उड़ जाते थे इस बारे में भी कुछ प्रकाश डालें। उन्होंने कहा कि एक बार शहबाज़ क़लंदर  अपने तीनों दोस्तों के साथ जा रहे थे अचानक वह ठहर गए। साथियों ने पूछा हज़रत क्या हुआ। आपने फरमाया मुझे इलहाम  (देववाणी, आकाशवाणी) हुआ है कि मेरा एक शिष्य मुसीबत में है। उसे उस गुनाह की सजा दी जा रही है जो उसने नहीं किया है। मुझे वहां जाकर उसे बचाना है। उन्होंने पूछा कि आपका शिष्य कहां रहता है। तो उन्होंने कहा कि यहां से हजारों मील दूरी पर रहता है। उनके दोस्तों ने कहा फिर आप उसकी मदद कैसे करेंगे। उन्होंने कहा ऐसे और जमीन पर एक छलांग लगाई और हवा में उड़कर अदृश्य हो गये। कुछ समय के पश्चात वह अपने शिष्य के साथ वापस आगए। उनके साथियों ने कहा कि वाह आप तो शहबाज़ हैं अर्थात (उड़ने वाले पक्षी) बाज़ से भी तेज। इस प्रकार उनका नाम लाल शहबाज़ हो गया और क्योंकि वह इधर-उधर भ्रमण करते रहते थे अतः लाल शहबाज़ कलंदर कहलाने लगे।  

वह झूलेलाल भी कहलाते थे। पीर साहब ने बताया कि वार्षिक उर्स (मेले) के समय  लगभग 20 लाख श्रद्धालु मज़ार पर आते हैं जिसमें सिंध प्रांत में रहने वाले हिंदू भी होते हैं। कुछ हिंदुओं का मानना है कि लाल शहबाज़ क़लंदर सिंध प्रांत के हिंदुओं के लोकप्रिय नेता झूलेलाल का पुनर्जन्म हैं। हमने पीर साहब से पूछा कि बाहर कुछ व्यक्ति 'उल्टा किला' के बारे में चर्चा कर रहे थे। इस पर भी कुछ प्रकाश डालिए। उन्होंने बताया कि यहां का राजा बहुत ज़ालिम  और क्रूर था। वह जनता पर बहुत ज़ुल्म करता था। जब लाल शहबाज़ कलंदर को पता चला तो उन्होंने एक  बुजुर्ग बोदला को राजा के पास यह संदेश लेकर भेजा है कि वह जनता पर ज़ुल्म करना बंद कर दे। राजा ने उनकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया बल्कि उन्हें क़त्ल करा दिया और उनकी लाश को टुकड़े-टुकड़े करके फिकवा दिया। लाल शहबाज़ कलंदर जब उनको ढूंढते हुए वहां आए और उन्होंने बोदला को आवाज दी तो उनके बदन के टुकड़े एकत्रित होकर पुनः इंसानी शक्ल में आ गए। बोदला ने जब सारी कहानी उन्हें सुनाई तो उन्होंने  क्रोधित होकर राजा का किला उल्ट दिया। वहां पर बोदला बुजुर्ग का मज़ार अभी मौजूद है। बहुत से लोग उस उल्टे क़िले को देखने आते हैं। उन्होंने बताया कि पुरातत्व विभाग के अधिकारी व कर्मचारी जब यहां किले की खुदाई करने आते हैं तो उनकी मशीनें खराब हो जाती हैं और वह क़िले की खुदाई करके कुछ खोजने में असफल हो जाते हैं।

शाम के चार बज गये थे अतः हम उनको धन्यवाद कहकर  बाहर आ गए। हमारे जो संबंधी सक्खर से हमारे साथ मोहनजोदाड़ो और फिर सहवान तक आए थे वह वापस सक्खर चले गए तथा हमारी कार कराची की ओर चल पड़ी। कराची अभी 370 किलोमीटर की दूरी पर था अतः केवल पाकिस्तान के शहर हैदराबाद में थोड़ी देर खाने के लिए रुके वर्ना लगभग 100 किलोमीटर की रफ्तार से लगातार चलते रहे। रात को 10:30 बजे कराची में प्रवेश किया परंतु वहां ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे अभी शाम है। बाजार में अधिकतर दुकानें खुली हुई थी। सड़क पर मोटरसाइकिलें, कारें व अन्य वाहन दौड़ रहे थे। रात को 11:00 बजे हम घर  पहुंच गए जहाँ हमारी बहन, बहनोई और उनके बच्चे हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। 
 
कराची में शादी और कराची व उसके  निकट के ऐतिहासिक स्थलों के यादगार क्षण बाद में शेयर किए जाएंगे। अभी इस श्रंखला को यहीं समाप्त किया जाता है।

मंजर ज़ैदी 
© Manjar Zaidi 

भारत के वह ऐतिहासिक स्थल जो अब पाकिस्तान में हैं (19)
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मंजर जैदी / भारत के वह ऐतिहासिक स्थल जो अब पाकिस्तान में हैं (18)

मोहनजोदाड़ो ~
 

प्रातः 8:00 बजे हम सब तीन कारों में बैठकर सक्खर से मोहनजोदाड़ो  के लिए रवाना हो गए। सक्खर से मोहनजोदाड़ो 115 किलोमीटर है। सड़क अच्छी होने के कारण हम 2 घंटे से भी कम समय में वहां पहुंच गए। मोहनजोदाड़ो के महत्व को देखते हुए पर्यटकों की सुविधा के लिए वहां पर हवाई अड्डा भी बनाया गया है। मोहनजोदाड़ो पाकिस्तान में सिंध प्रांत के जिला लड़काना में स्थित है। मोहनजोदाड़ो का अर्थ है, मरे हुए का टीला। हमें वहां टीला और अन्य अवशेष देखने को मिले। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के विषय में बचपन में स्कूल की पुस्तकों में पढ़ा था यहां उनके अवशेष देख कर मन में और अधिक जानकारी प्राप्त करने की जिझासा उत्पन्न हूई। जो जानकारी वहां प्राप्त हुई उसके अनुसार मोहनजोदाड़ो  प्राचीन इंडस वैली सभ्यता के बड़े शहरों में से एक है। मानव जाति की जानी-मानी सभ्यताओं में प्राचीन समय में मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा जुड़वां शहर माने जाते थे। ईसा मसीह से लगभग 2500 वर्ष पूर्व यह रहस्यमय संस्कृति उभरी। सिंधु नदी के दाएं किनारे पर 2 किलोमीटर की दूरी पर 250 हेक्टेयर भूमि पर यह आवाद हुए और नदी के किनारे उपजाऊ जमीनों का उन्होंने खूब लाभ उठाया और पास ही के मैसोपोटेनिया सभ्यता से व्यापार किया। इस शहर में बहुत अधिक उन्नति व प्रगति हुई थी। सिविल इंजीनियरिंग के कार्य और शहरी प्लानिंग बहुत सुंदर ढंग से की गई थी। शहर के पानी के निकासी की उचित व्यवस्था थी। एक सुनहरा युग देखने के बाद यह शहर ईसा मसीह से लगभग 1900 वर्ष पूर्व समय की रेत के नीचे दफन हो गया जो इस समय टीले और खंडहर के रूप में है। इन 600 वर्षों में यह नदी की बाढ़ के कारण 7 बार तबाह हुआ और इसका पुनर्निर्माण किया गया। सर्वप्रथम डी आर हंडारकर  1911- 12 में इस ओर आकर्षित हुए। इसके पश्चात 1921 में भारतीय पुरातत्व विभाग के सुपरिंटेंडेंट आर्कोलॉजिस्त आर के बनर्जी ने इस रहस्यमय  शहर को उजागर करने के लिए खुदाई का कार्य आरंभ कराया जो 1922 से 1931 तक चलता रहा। खुदाई में स्पष्ट हुआ कि मोहनजो दाड़ो शहर दो भागों में बटा था। एक सिटडैल और दूसरा निचला नगर । पश्चिम की ओर एक टीले पर लगभग 12 मीटर की ऊंचाई पर दुर्ग बना था। कई बड़ी-बड़ी इमारतों के ढांचे यह दर्शाते हैं कि यह क्षेत्र सामाजिक, धार्मिक  एवं अन्य महत्वपूर्ण गतिविधियों के आयोजनों के लिए प्रयोग किया जाता होगा। इस क्षेत्र में एक स्टूप भी बना हुआ था। दुर्ग के दक्षिण क्षेत्र में लोगों के इकट्ठा होने के लिए एक असेंबली हॉल भी था। ग्रेट बाथ भी बना था।  जिसमें नीचे जाने के लिए सीढ़ियां थीं। इसे शासक नहाने के लिए प्रयोग करते थे। ग्रेट बाथ के बगल में एक बड़ी इमारत थी जो गरेनरी कहलाती थी। विशाल लकड़ी के ढांचे से अनाज के गोदाम भी बनाए गए थे। शहर का निचला हिस्सा निचला नगर था जिसका क्षेत्रफल अधिक था। अधिकांश लोग इसी में रहते थे। यहां पर छोटे-छोटे घर बनाए गए थे जिनमें अलग-अलग कमरे थे।  उनके दरवाजे सड़क की ओर खुलते थे। शहर की विशेषता थी, अच्छे ढंग से की गई सुनियोजित जल निकासी व्यवस्था। घरों का गंदा पानी शहर की सड़कों से गटर में जाकर शहर की सीमा से दूर नदी में चला जाता था। जबकि आज के समय में इतनी उन्नति हो जाने के पश्चात भी शहरों में जल निकासी की समस्या बनी रहती है। 

खुदाई में 700 से अधिक निजी एवं सार्वजनिक कुएं मिले। खुदाई में बहुत सी वस्तुएं मिली जिनमें बैठे और खड़े आकार के पुतले, तांबे और पत्त्थर के औज़ार, नक्काशी की गई मोहरें, तराजू और बाट, सोने और चीनी मिट्टी के गहने और बच्चों के खिलौने। कुछ सिद्धांत कहते हैं कि आर्यन इस जमीन पर रहते थे और उन्होंने ही मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा के शहर बसाए थे। ब्रिटिश खोजकर्ता  डेविड डेवनपोर्ट ने इस क्षेत्र का अध्ययन किया और माना कि यह शहर किसी विपत्ति पूर्ण घटना, जिसमें कोई बम धमाका भी हो सकता है, मैं नष्ट हो गया होगा। दूसरे सिद्धांत दर्शाते हैं कि पूर्ण सभ्यता सिंधु नदी में बाढ़ आने से तबाह हो गई होगी अथवा यह भी हो सकता है कि इंडस नदी ने अपना रुख बदल दिया हो और पानी की त्रासदी के कारण लोग यहां से चले गए हो और उसके कई दशकों के पश्चात मकान गिरने लगे हो और पूरा शहर मिट्टी और रेत में दब गया हो। बहरहाल कारण कोई भी हो परंतु एक विशालकाय शहर एक सुनहरा युग देखने के बाद रेत और मिट्टी के नीचे दफन हो गया। अब इस शहर के अवशेष हमें महान सभ्यता की कहानी सुनाते हैं। 
(जारी) 
मंजर ज़ैदी
(Manjar Zaidi) 

भारत के वह ऐतिहासिक स्थल जो अब पाकिस्तान में हैं (17) 
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डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (19)

पूर्वोत्तरी - स्पिरिट ऑफ नार्थईस्ट “ब” ~
 

"कलाकेंद्र में किसी महान कार्यक्रम के पहले दिन कलाकार की मौत" यह एक ऐसा न्यूज होता जो सभी के मेहनत पर पानी डाल सकता था। लेकिन भला हो दिवंगत कलाकार के परिवार के सदस्यों का और हमारी टीम भावना का कि हम बच गए।

इस दुर्घटना ने एक बार पुनः उत्तरपूर्व भारत के लोगों के बारे में मेरे मन में असीम श्रद्धा और प्रेम उत्पन्न कर दिया। लग रहा था कितनी सहजता से मृतक कलाकार की पत्नी और बेटा हमे बता रहे थे कि, उनको पहले से दिल की बीमारी थी। मृत्यु दुखद है लेकिन इस बीमारी में यह अनहोनी घटना नहीं है। न शिकवा न शिकायत। हमने जो किया वे संतुष्ट थे। यह जरुर कह रहे थे कि जब भी कोई कार्यक्रम करें उनके लिए सोच लें। अगर ईमानदारी से सोचें तो यह तो नितांत मानवीय गुण है। इसमें कहीं से भी बुराई नहीं है। कलाकारों का जीवन तो ऐसे ही चलता है। हमारे देश में कलाकार के बारे में सोचता कौन है? लोक कलाकार तो और भी हाशिये पर चले गए हैं। किसी भी योजना, सोच, चिंतन, विकास के फॉर्मेट का ये हिस्सा नही होते। कौन सोचता है इनके बारे में? न सत्ता पक्ष न विपक्ष। बड़े ओहदे के अधिकारी तो इन्हें दोयम दर्ज़े का मनुष्य समझते हैं। लोक कला से लोक कलाकार उदासीन होते जा रहे हैं। 100 में से 80 लोक कलाकार अपने बच्चों को अपनी लोक कला नही सिखाते। उन्हें डर है कि इनके बच्चे इन कलाओं के बल पर दो जून की रोटी भी ढंग से नहीं खा सकेंगे। 

पहले दिन की दुर्घटना से यह ज्ञान तो मिल ही चुका था कि अब मीडिया से बहुत दोस्ती नहीं रखनी है। अगर एक गलती के कारण ब्रेकिंग न्यूज़ में हमारी असावधानी को, 'असफ़लता और धन का दुरूपयोग' बता दिया तो फिर हम सिर ही पिटते रह जायेंगे। पत्रकारिता के 95 फ़ीसदी लोग तो Man biting a Dog (मनुष्य ने कुत्ते को काट लिया) को ही ब्रेकिंग न्यूज बनाते हैं। शायद हम पाठक और श्रोता भी इसके लिए दोषी हैं। एक पत्रकारिता से संबंधित घटना याद कर पा रहा हूं। उसका जिक्र यहां जरूरी है। मेरी एक दोस्त थी। वह एक अंग्रेजी अखबार पायोनियर के लिए काम करती थी। मुझे हरेक सप्ताह एक लेख कला संस्कृति एवं कला संस्थानों पर केंद्रित करते हुए लगभग 1200 शब्द में लिखने बोलती थी। मैने लिखना शुरू किया। अजंता पर लिखा, एलोरा के कैलाश गुफा पर लिखा, अनेक लोक कलाओं पर लिखा वह नियमित मेरे आलेख छापती रही। एक दिन बोली: "यार के के तुम कला संस्थानों पर भी सबकुछ अच्छा है, ऐसा लिखते हो। तुम्हारे लिए सही होगा लेकिन हमारे लिए यह सेंसेशन नही बनता। ज्ञान ब्रेकिंग न्यूज नही बन सकता। इसको स्कूल और कॉलेज के सिलेबस में डालकर पढ़ाया जा सकता है। मैं तो कहूंगी कि संस्थानों की कमजोर कड़ी, या कुछ और लिखो। रूटीन और कला सौंदर्य पर एक आध पैराग्राफ लिखकर आगे निकल जाओ।"
मैं बोला: "यह मेरे से नही होगा। में सौंदर्य पक्ष पर ही लिखूंगा। कला के प्रमाण, इतिहास, विन्यास, रंग परफॉर्मेटिव परम्परा, कला और कलाकार पर लिखूंगा, उनके उद्भव और विकास पर लिखूंगा। नैराश्य अथवा नकारात्मक पक्ष पर नहीं लिखूंगा। यह काम शोधकर्मी अथवा संस्कृति कर्मी का नही है। यह काम किसी पत्रकार से करवा लो आप। मुझे मुक्त कर दो इस जिम्मेदारी से।" इसके बाद एक आध अंक के लिए लिखकर मैने पायोनियर अखबार के लिए लिखना छोड़ दिया। 

प्रसंग अनेक हैं। किसको लिखूं किसको छोडूं यह निर्णय सहज नही है। एक प्रसंग कलाकारो से संबंधित है उसका  जिक्र करना अनिवार्य है। चलिए, इस घटना को याद कर लें।  एक बार एक एनीमेशन के वर्कशॉप के लिए मैंने आदिवासी और लोक कलाकारों को बुलाया था। एनीमेशन के प्रशिक्षण के लिए नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ डिजाईन (NID) के एसोसिएट प्रोफेसर के साथ उनको भी हवाई जहाज से आने के लिए कह दिया था। मेरे ऊपर तो, एकाउंट्स से लेकर सभी अधिकारियों ने, प्रश्नों की झड़ी लगा दी। उनके ऑब्जेक्शन का उत्तर देते-देते मैं पागल हो गया। एक राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लोक कलाकार को ये लोग एक एसोसिएट प्रोफेसर के समकक्ष नहीं मानते थे। अपनी अज्ञानता पर इतना घमंड तो कहीं देखा नहीं। खैर बहुत ही मुश्किल से वे माने और इस हिदायत के साथ उस फाइल को स्वीकार किया कि, मैं भविष्य में इस तरह की गलती न करूँ। क्या करता, गलती मान लिया – मरता क्या नहीं करता।

अपनी गति में फिर हम सभी गतिमान हो गये थे। दस दिन तक ना खाने का समय न अपने बारे में सोचने का समय। 24 X 7 हम व्यस्त रहते थे। लेकिन काम सही चल रहा था। विद्वान, कलाकार, तक्निशियन, सभी अपनी जिम्मेवारी समझ रहे थे। व्यस्तता में परमानन्द की अनुभूति कर रहा था। कार्य की सफलता मानो खाली पेट में भी अनेक भोज्य विधानों का रस दे रहा था। वाह, क्या दिन थे। एक दिन जब असम के माजुली द्वीप के सतरा लोग भाव नृत्य का कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे थे तो लग रहा था कि कितने अभागे हैं हमलोग जो पूर्वोत्तर भारत के इस वैष्णव कला से अनभिज्ञ हैं जिसका प्रारम्भ सतरहवीं शताब्दी में श्रीमंत शंकरदेव ने किया। बाद में इस परम्परा को श्रीमंत शंकरदेव के शिष्य श्रीमंत माधवदेव ने आगे बढाया। कहता चलूँ की सतरा नृत्य पहले केवल पुरुषों द्वारा किया जाता था। अब यद्यपि महिलाये भी इस नृत्य को सिखने लगीं हैं और इसका प्रदर्शन भी करने लगी हैं। सतराधिकारियों के पाण्डुलिपि और उनके ज्ञान एवं भक्ति पर हमलोगों ने दिन में ही एक दिन संगोष्ठी के साथ-साथ परफॉरमेंस का भी आयोजन किया था। पूरा माहौल मानो कृष्णमय हो गया था – “हरे कृष्ण गोबिंद मोहन मुरारे। यही नाम हरदम हो मुख में हमारे।”

इतना ही नहीं, पूर्वोत्तर भारत के लोग अनेक तरह के शाकाहारी और मांसाहारी व्यंजनों का स्टाल लगाये हुए थे। इसमें सुबह 9 बजे से लेकर रात के 12 बजे तक कोई भी आकर अपने मन पसंद का भोजन खरीदकर खा सकता था। हमने सभी पूर्वोत्तर राज्यों के मुख्यमंत्री एवं राज्यपाल को निमंत्रित किया था। इतना ही नहीं उत्तरपूर्व भारत के सांसद, मिनिस्टर, राज्यों के रेजिडेंट कमिश्नर, सभी आमंत्रित थे। ख़ुशी इस बात की थी कि सभी एक-एक कर अलग अलग दिन और कार्यक्रमों में आ भी रहे थे। दूसरे राज्यों के सांसद, अधिकारी को भी हम बुला रहे थे। हमने दिल्ली के अनेक विद्यालयों से एक समझौता कर लिया था कि वे अपने बच्चो को पूर्वोत्तरी का प्रदर्शनी, फिल्म शोज, कार्यक्रम आदि देखने के लिए भेजेंगे। कुछ कॉलेज के छात्र छात्राएं भी भाग ले रहे थे। अनेक देशों के राजनयिक एवं अन्य अधिकारीयों को आमंत्रित किया गया था। पूरा कैंपस दुल्हन की तरह सजा हुआ था। परिधान, खान-पान, नृत्य, गीत, फोटोग्राफी, गृह आर्किटेक्चर, जडीबुटी, प्राकृतिक फल, फुल, शब्जी, कंद, मूल, पेय पदार्थ, दैनिक व्यवहार के उपकरण, वाद्ययंत्र, गहने, पगड़ी, और न जाने क्या-क्या। जो भी खोजिये, मिलेगा। इन सभी चीज का व्यवस्थापन अगर कोई कर रहा था तो वह था गौतम शर्मा। इसका मतलब यह नही कि और राज्य के लोग कार्य नही कर रहे थे। गौतम शर्मा उन सभी के साथ एक लिंक का कार्य कर रहे थे। 

शाम के समय नागाओ का युद्ध नृत्य और गीत, उनके पारंपरिक खेल का प्रदर्शन, मणिपुर का मार्शल नृत्य और अन्य करतब, अनेक आदिवासियों के प्रेम गीत के साथ सौन्दर्य से लबालब गान एवं नृत्य, लड़के और लड़कियों का समवेत नृत्य और गान, सभी कुछ मनमोहक थे। अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र के मोनपा आदिवासी के मुखौटा नृत्य, सिक्किम के भूटिया, लेपचा, लिम्बू, एवं अन्य समुदाय के नृत्य, गीत, अनेक वस्त्र और गहनों से सुसज्जित महिला पुरुष का संस्कृति प्रेम और न जाने क्या-क्या सब कुछ विलक्षण था। अलग-अलग तरह के एवं कुछ अजूबे वाद्ययंत्र, उनसे निकलते अपूर्व ध्वनि, कलाकारों का करतव, दर्शक और श्रीताओं के मध्य मधुर समन्वय, सब कुछ मंत्रमुग्ध करनेवाला था। लोग अर्थात सामान्य दर्शक और श्रोता सब कुछ देखकर मंत्रमुग्ध थे। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि पूर्वोत्तर भारत के इस तरह के समपन्न सांस्कृतिक और प्राकृतिक सम्पदा से वे आज तक अनभिज्ञ थे। सुबह-सुबह कलाकार वाद्ययंत्रों को उच्च, मध्यम और लघु ताल में बजाकर लोगों के कान में मानो मधुर रस घोलकर उठाते हों। 

अनेक आदिवासी समुदाय के बुजुर्गों, पुरुष एवं महिलाओं को बुलाया गया था। वे लोग आपस में अपने झगड़े, जमीन का विवाद, लड़ाई झगडा आदि का निराकरण कैसे करते हैं अर्थात कस्टमरी लॉ की क्या भूमिका है आदि पर उनसे उन्हें अलग-अलग समूह में बिठाकर उनके क्रिया कलाप को डिजिटली डॉक्यूमेंट किया जा रहा था। लोगों के वाद्ययंत्रों को बनाने की कला, सिखाने का परंपरागत तरीका, अलग-अलग समुदाय के लोगों का भेषजीय ज्ञान, अलग-अलग देवताओं के बारे में विस्तृत जानकारी, प्रकृति के बारे में उनकी धारणा, महिला और पुरुष की भूमिका, लोक कथा, लोक गाथा, गीत, नृत्य, जादू, टोना, मेन्टल लेंडस्केपिंग, और न जाने क्या-क्या। 

उधर अलग-अलग बिंदु पर संगोष्ठी पर चर्चा किया जा रहा था। ताई अहोम, उनका ऐतिहासिक, प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक महत्व, दीमासा किंगडम की ऐतिहासिक विशेषताएं, इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स और पूर्वोत्तर भारत के निवासी, ट्राइबल आइडेंटिटी, प्रकृति के साथ संस्कृति और वहाँ के निवासियों का तारतम्य, बढ़ते समय के साथ परंपरागत कृषि, विशेषकर झूम कल्टीवेशन का आज के समय में महत्व एवं उसमे परिवर्तन, उत्तरपूर्व की समस्याए एवं उसके निदान में स्थानीय नेता, युवक, महिला, विद्यार्थी एवं विद्वानों के साथ-साथ निति निर्धारकों की भूमिका, उत्तरपूर्व भारत का इतिहास, पूरा इतिहास, भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में उत्तरपूर्व भारत की भूमिका क्या कुछ नही थे। यह कार्यक्रम एक फेस्टिवल नही अपितु मेगा-इवेंट था – न भूतो, न भविष्यति। 

और, अभागा मैं! मुझे किसी भी कार्यक्रम को एक जगह बैठकर देखने का, सुनने का, निहारने का और उसपर सोचने का वक्त कहाँ मिल पाता था। मैं तो केवल यह सोचकर निश्चिन्त था कि सभी कार्यक्रम का व्यवस्थित ऑडियो-विसुअल रिकॉर्डिंग हो रहा है, मौका मिलने पर उनको एक-एक कर देख सकता हूँ। 

कार्यक्रम का अंतिम दिन था। जॉइंट सेक्रेटरी मेरे पास आई। पीछे से मेरे पीठ पर हाथ रखी। लगा किसी आत्मीय व्यक्ति ने हाथ रख दिया है। पीछे मुड़कर देखा तो जॉइंट सेक्रेटरी थी। मैं एकाएक डर गया। लगा: “फिर डाटने आ गयी है। पता नही क्या-क्या कहेगी!” अभिवादन करते हुए बोला: “जी मैडम! बताएं क्या करना है। वह आत्मिक बनी रही। हंसती रही। फिर बोली: “बहुत अच्छा काम कर रहे हो। मुझे नहीं मालुम था कि तुम इतनी गम्भीरता और समर्पण से उत्तरपूर्व भारत के लिए कार्य कर रहे हो। मुझे डॉ टीना ने गलत जानकारी दी थी। कोई बात नही। इस इवेंट की समाप्ति के बाद तुम मुझसे मिलो। मैं तुम्हारे साथ कुछ और महत्वपूर्ण कार्य करना चाहती हूँ।”
मुझे लग रहा था कि ये क्या हो रहा है। सच है या सपना देख रहा हूँ ! लेकिन अधिक ख़ुशी व्यक्त करना उचित नही लगा। विनम्रता से बोल दिया: “जी मैडम, आप जो आज्ञा देंगी, करूँगा। इवेंट की समाप्ति के तुरत बाद आपसे अपॉइंटमेंट लेकर मिलता हूँ।” 
जॉइंट सेक्रेटरी बोली: “नहीं-नहीं कैलाश। तुमको अपॉइंटमेंट लेने की जरुरत नही है। ये लो मेरा मोबाइल नंबर। जब मन हो फोन कर लो और आ जाओ।”
मुझे लगा, हे भगवान, यह क्या हो रहा है! खैर मैं वहाँ से कहीं और चला गया। 

आज मेगा इवेंट का दसवां और अंतिम दिन था। सभी लोग मौजूद थे। दिन भर हमलोग व्यस्त रहे। शाम का कार्यक्रम शुरू हो चुका था। आज कपिला वात्स्यायन भी आई थीं। अनेक राज्यपाल और दो मुख्यमंत्री आये थे। मुझे डॉ चक्रवर्ती अपने पास बुलाकर यह निर्देश दे दिए थे कि कहीं की दर्शकों के साथ रहो। कार्यक्रम शुरू था। कार्यक्रम के बीच मुझे स्टेज पर बुलाया गया। मैं इसके लिए तैयार नहीं था। मैं बोला: “मुझे नहीं कुछ बोलना है। कार्यक्रम को आगे बढाइये।” डॉ चक्रवर्ती बोल पड़े : “जाओ बोलो। तुम्हे सोचने की क्या जरुरत है? तुम तो इस इवेंट के सूत्रधार हो। जाओ स्टेज पर जाते ही खुद ही समझ जाओगे तुम्हे क्या बोलना है।”
अब मैं स्टेज को ओर चल पड़ा। मेरे स्टेज पर पहुँचते ही जितने भी पूर्वोत्तर भारत के कलाकार और अन्य लोग थे , सभी एक साथ बोल पड़े “मिश्रा सर!” बता नहीं सकता कि इन दो शब्दों में कितना मिठास था। फिर वे बहुत देर तक ताली बजाते रहे। मैं बोलने लगा। चन्द शब्द बोल पाया। क्या बोला मुझे नहीं पाता लेकिन इतना जरुर लग रहा था – आज मैं ऊपर, आस्मां नीचे!
(क्रमशः) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र

नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (18)
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डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (18)

पूर्वोत्तरी - स्पिरिट ऑफ नार्थईस्ट “अ” ~ 
 

अनुभव अनंत है। सुकरात महोदय कहते थे लिखकर आप किसी के बारे में संशय ही उत्पन्न करते हो। लिखने का मतलब पूरे अनुभव को बौना करना है। आप जो देखते हो उसका मुश्किल से दस से बारह फ़ीसदी लिख पाते हो। फिर क्यों लिखना? एक मित्र पूछ रहे थे, "कैलाश भईया, आप पूर्वोत्तर भारत के बारे में लिख रहे हो। अच्छा लग रहा है। एक प्रश्न है। क्या उनमें कहीं कोई नकारात्मक चीज नही हैं? या फिर आप लिखना नहीं चाहते?"

मैं इनको क्या बताऊं। उनके सकारात्मक पक्ष का एक प्रतिशत हिस्सा भी अभी नहीं लिख पाया हूं तो नकारात्मक पक्ष पर क्या लिखूं। चंचल मन धैर्य रखो। मतलब लिखना भी सार्थक क्रिया है। क्यों? इसलिए कि लोगों के पास एक प्रतिशत जानकारी नहीं हैं। जब आपके घर की अन्न की कोठी खाली है तब आपको यह नहीं सोचना है कि किस अनाज का भण्डारण करूं। जो मिले, रखते जाइए। यही अवस्था है यहां। 

लगातार चार साल से कार्य करते जा रहे थे। पुराने ज्वाइंट सेक्रेटरी जा चुके थे। एक विक्षिप्त मानसिकता वाली ज्वाइंट सेक्रेटरी आ चुकी थी। वे हर चीज में नुक्स निकालती। डॉ टीना उनसे दोस्ती बना ली थी। मेरे बारे में जितना अधिक हो सकता था उनको बरगला कर चली आई थी। सौभाग्य से मेंबर सेक्रेट्री नहीं बदले थे। ज्वाइंट सेक्रेटरी को जब मन करे मुझे बुलाकर अपमानित करने लगती। एक बात पूछती और फिर स्वयं उसपर अपना उत्तर गढ़ती। बोलती: "तुम लोग लकड़ी, बांस, बेंत, कद्दू के सामान लाकर यहां कबाड़ जमा कर रहे हो। "

मुझे पहली बार लगा कि पूरे मेहनत पर पानी डाल रही है।  उत्तरपूर्व भारत में महल एवं अन्य वस्तु तो मिलेंगे नही। बेंत, लकड़ी, बांस, हड्डी उनका जीवन है। उनके शॉल को देखकर आप अंदाज लगा सकते हैं कि वे कितने कलात्मक हैं। उनको, अपने परिवेश और संस्कृति से कितना प्यार है,यह सामान्य जन जो उनको जानता नही कैसे  जानेंगे!  ऊपर से जितने ऑब्जेक्ट खरीदे गए सभी उन कलाकारों से सीधे लिए गए थे। उनपर कैप्शन तैयार किए जा रहे थे। उनको राज्य क्षेत्र आदिवासी समुदाय स्त्री, पुरुष आदि के आधार पर सजाए जा रहे थे। वे ऑब्जेक्ट्स हमारे लिखित दस्तावेज के जीवंत प्रमाण थे। उनको लाने के लिए अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा था। लेकिन ये लोग क्या जाने! हमारी समस्या यह है कि हम निरक्षर को मूर्ख मान लेते हैं। सच तो यह है कि साक्षर लोग अधिक मुर्ख होते हैं। वे अपनी वर्णमाला और अपनी संस्कृति और संस्कार से समस्त संसार को देखते हैं। किसी से समझना नहीं चाहते। जो उनके जैसा नहीं है वह मूर्ख है, अविकसित है, असभ्य है। हमारी नयी जॉइंट सेक्रेटरी वैसी ही थीं और उनके हाँ में हाँ मिलनेवाली थी, विद्वानों की लेडी विभीषण, डॉ टीना। डॉ टीना अब विभागाध्यक्ष भी बन चुकी थी। तेवर दिखाना कोई उनसे सीखे । 

एकदिन डॉ चक्रवर्ती मुझसे कहने लगे: जॉइंट सेक्रेटरी और डॉ टीना तुम लोगों को काम नहीं करने देना चाहती हैं। रोज मेरे पास तुम्हारे शिकायत का पुलिंदा लेकर पहुँच जाती हैं। मैंने तो जॉइंट सेक्रेटरी से इतना तक कह दिया है कि उसको परेशान मत करो। बहुत अच्छा काम कर रहा हैं। पुरे उत्तरपूर्व भारत के लोगों, संस्था, कलाकार, विद्वान आदि के साथ वह सदैव लगा रहता है। सभी उसका सम्मान करते हैं। दुर्गम से दुर्गम स्थानों पर भी जाने से नहीं घबराता। लेकिन मेरे दलील का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। डॉ टीना उसका ब्रेनवाश करती रहती है।”

मैंने उत्तर दिया: “ठीक है सर, मैं उत्तरपूर्व की जिम्मेवारी से अपने आपको मुक्त कर लेता हूँ”। हमेशा की तरह डॉ त्रिवेणी इस बार भी मेरा साथ देते हुए बोली: “ठीक है सर, मैं भी उत्तरपूर्व भारत के क्रियाकलाप से डॉ कैलाश के साथ ही अपने को अलग करती हूँ।” डॉ त्रिवेणी का ऐसा कहना मुझे एक अपूर्व आत्मबल प्रदान कर रहा था। 

डॉ चक्रवर्ती बहुत गंभीर प्रशासक और विद्वान थे। उन्होंने सहजता से उत्तर दिया: “आप दोनों चिंता मत करो। जीवन में ऐसे नकारात्मक लोग मिलते रहते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि आप वह काम करना ही छोड़ दें। डॉ टीना यही तो चाहती है कि आप लोग तंग आकर यह काम छोड़ दो। आप एक काम करो। अभी तक जितना काम किये हो उसका शोकेस करो। सभी ऑब्जेक्ट्स का प्रदर्शनी करो। 10 दिन का एक मेगा इवेंट दिल्ली में आयोजित करो जिसमे हरेक पूर्वोत्तर भारत के राज्य का प्रातिनिधित्व निर्धारित करो। एक विस्तृत योजना तैयार करो। इसमें डॉ टीना और जॉइंट सेक्रेटरी को संलग्न करो। उनकी भूमिका निश्चित करो। एकाउंट्स से लेकर सभी विभाग के लोगों को किसी न किसी कार्य में लगा दो। जाओ पहले एक कार्यक्रम की रुपरेखा तैयार करो। उसका बजट तैयार करो।”

मुझे लगा, डॉ चक्रवर्ती एक बार पुनः मुझे फंसा रहे हैं। लेकिन दूसरा कोई उपाय भी नहीं था मेरे पास। मैं डॉ त्रिवेणी के साथ वापस आ गया। तीन दिन लगातार लोगों से बात करने के बाद यह निर्णय लिया गया कि हमलोग 10 दिन का कार्यक्रम बनायेंगे। नाम होगा: “पूर्वोत्तरी – The Spirit of Northeast”। इसमें प्रथम और अंतिम दिन समवेत कार्यक्रम होंगे और आठ दिन तक हरेक दिन एक राज्य को समर्पित होगा – असम, मणिपुर, मिज़ोरम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मेघालय, त्रिपुरा, और सिक्किम। निर्णय यह लिया गया कि दिन में सेमिनार, कलाकृतियों और अन्य सभी इकत्रित ऑब्जेक्ट्स का प्रदर्शनी, फिल्म शोज, नाटक आदि का आयोजन और रात्रि में सांस्कृतिक कार्यक्रम अर्थात नित्य और संगीत। यह भी निर्णय लिया गया कि हमलोगों ने अभी तक जितने फोटोग्राफ अपने कैमरे में कैद किये हैं उनको भी प्रदर्शनी में दिखाया जायेगा। कलाकेन्द्र के २३ एकड़ के कैंपस को मिनिएचर पूर्वोत्तर भारत के रूप में बदल दिया जायेगा। संस्थान का एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो इस कार्यक्रम में किसी न किसी रूप में संलग्न न हो। 

मुझे लगा कि गौतम शर्मा, एवं प्रत्येक राज्य से कुछ प्रतिनिधियों को बुलाकर कार्यकर्म का ब्लू प्रिंट बना लें। सभी राज्य के लोग, राज्य के विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर, कलाकारों के प्रतिनिधि, जनजातीय प्रतिनिधि, आदि को बुलाकर एक तीन दिन का कार्यशाला का आयोजन किया गया। अब पूरा संस्थान इसमें संलग्न था। हमें यह चिंता नहीं थी कि अतिथियों को आने जाने और रहने की व्यवस्था कौन करेगा? अनेक समिति और उपसमिति बना दिए गए थे। अंत में जॉइंट सेक्रेटरी ने ही मुझे उसका कोऑर्डिनेटर बना दिया। इतनी समितियां होने के बाद भी लोग मेरे पास आते थे। मैं दो रिसर्च स्कॉलर के साथ एक कमरे से सारा कार्य करता रहा। इस बीच भी डॉ टीना पूरे मन से मुझे प्रताड़ित करती रही। प्लान बनाती रही कि किसी तरह से पूरा कार्यकर्म फ्लॉप हो जाए और उसकी जिम्मेवारी मेरे सिर पर मढ़ दिया जाए। 

खैर होना कुछ और ही था। बैनर, पोस्टर, एक एक कार्यक्रम की रुपरेखा हमलोग कभी कभी तो दिन क्या देर रात तक बनाते रहे। लोगों को किस तरह का भोजन देना है, कितने डारमेट्री, कितने होटल के रूम बुक करने हैं। रेल और हवाई जहाज में कैसे टिकट्स कन्फर्म करवाने हैं। किस तरह से पूर्वोत्तर भारत के सभी जाति, जनजाति, समुदाय का प्रतिनिधित्व हो सके, इसका प्लानिंग, डॉक्टर दल की व्यवस्था, पुलिस की परमिशन, एम्बुलेंस की व्यवस्था, मीडिया रिपोर्टिंग और टीम मैनेजमेंट, सभी कुछ पर एक साथ काम चल रहा था। जीवन में पहली बार २३ एकड़ के कैंपस में पत्ते पत्ते को गतिमान देखा था। दिन रात तो, हम मानो भूल ही गए थे। 
सेमिनार के लिए थीम का निर्धारण, उसके लिए चेयरपर्सन, वक्ता का चयन, उनसे शोध पेपर लिखने का आग्रह, समय से उनका पेपर, बायोडाटा, छवि आ जाये, इसका निर्धारण, कलाकारों का चयन एवं उन्हें पूर्व से ही जानकारी भेजना, काम का अंत ही नही था। उपर से अगर किसी भी समिति का कोई व्यक्ति कहीं फंसता तो सीधे मेरे पास आता या फोन करता। लेकिन इस तमाम प्रक्रिया में डॉ चक्रवर्ती की भूमिका का जितना वर्णन करूँ काम होगा। चक्रवर्ती महोदय सतत हमलोगों के लिए उपलब्ध रहते। भाषा प्रवीण भी थे वे। हमारे लिखे हरेक ड्राफ्ट को गम्भीरता से पढ़ते। हमें समझाते। लगता था जैसे कोई हाई स्कूल का अंग्रेजी का शिक्षक हमें व्याकरण सिखा रहा है। उनका साहचर्य अनंत उर्जा प्रदान करने का तंत्र ही तो था। 

कभी-कभी मन करे, “क्यों ले लिया इस झंझट को मोल!  टाल देना था डॉ चक्रवर्ती के विचार को!” फिर सोचता: “यही तो है जीवन की चुनौती। अगर सफल हो गए तो एक इतिहास हो जायेगा। कभी-कभी पिताजी से बात कर लेता था। कार्य तेजी से चल रहा था। 

इसी बीच एकाएक पिताजी का फोन आया। फोन पर रोने लगे। मैंने पूछा क्या हुआ: “बोले, अब नहीं बचूंगा।” इतना कहकर पिताजी फोन माँ को पकड़ा दिए। माँ कहने लगी: "समझ में नहीं आ रहा है, क्या हो गया है। तुम्हारे भैया भाभी भी यहाँ नही है। पिताजी को देखना है तो जल्द आ जाओ।”

दुसरे दिन सुबह मैं पटना हवाई जहाज से चला गया। मुझसे बड़ी बहन धनबाद से पटना आ चुकी थी, पिताजी दरभंगा के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में भर्ती थे। वहाँ जाने पर पता चला कि उनको हार्ट अटैक हुआ था। स्थिति क्रिटिकल है। खैर। हम यह आश लगाये पिताजी का इलाज कराते रहे कि ठीक हो जायेंगे। लेकिन होना कुछ और था। चार दिन के बाद वहाँ के डॉक्टर ने जवाब दे दिया। हमलोग दरभंगा  से पिताजी को लेकर पटना चल पड़े। हाजीपुर के पास पिताजी चल बसे। वापस घर आ गये। होनी को कौन टाल सकता था। 

जब डॉ चक्रवर्ती को यह पता चला तो उन्होंने पूर्वोत्तरी के कार्यक्रम को 2 महीने आगे बढ़ा दिया। पिताजी के श्राद्ध कर्म के बाद मैं दिल्ली वापस आया। डॉ चक्रवर्ती बोले: “यह जीवन की सच्चाई है। स्वीकार करो। पूर्वोत्तरी तुम्हे ही करना है। मैंने दो महीने आगे कर दिया है। पांच दिन और आराम कर लो उसके बाद लग जाओ काम में।”

मुझे एक दिन अँधेरे में ऐसा लगा जैसे पिताजी मेरे साथ चल रहे हों। रात में अनेक बार पिताजी सपने में आये। कहने लगे: “माता-पिता मरते नही हैं। केवल स्थूल से सूक्ष्म में बदल जाते हैं। मैं तुम्हारे साथ हूँ। अपना काम शुरू करो। जीवन का यही विधान है।”
मैंने मान लिया कि पिताजी सदैव साथ हैं। उनकी आज्ञा की अवहेलना उचित नही है मेरे लिए। यही सोचकर मैं पांच दिन क्या तीसरे दिन ही डॉ चक्रवर्ती से मिला और उन्हें बता दिया कि अगले दिन से काम पर लग जाऊंगा। अब पुनः अपने मिशन पर एक योद्धा की तरह काम करने लगा था मैं। 

कार्यक्रम निर्धारित तिथि को आरंभ हुआ। सभी कुछ उत्तम। किसी भी व्यवस्था में कोई कमी नही। अलग-अलग मिडिया को भी आमंत्रित किया गया था। दिन का कार्यक्रम तो उत्तम रहा। रात में सांस्कृतिक कार्यक्रम होने थे । उनका भी प्रारम्भ हो चुका था। 
एक खास प्रदेश का कार्यक्रम चल रहा था। एकाएक एक कलाकार मेरे पास आया। बोला आप स्टेज के पीछे आओ। जरुरी काम है।”

मै स्टेज के पीछे भागा। पता चला एक कलाकार का हार्ट अटैक हो चूका है। वह वेहोश है। संयोग से उसकी पत्नी और बेटा भी साथ थे। मैं उनको लेकर कैंप में ही बैठे आपातकालीन डॉक्टर के पास ले गया। डॉक्टर ने उस कलाकार को मृत घोषित कर दिया। अब क्या हो!
मुझे लगा: “अगर मीडिया के लोगों को इसकी जानकारी हो गयी तो सारे मेहनत को बरबाद कर देंगे: “सुबह के सभी अखबारों का ब्रेकिंग न्यूज़ होगा: “कलाकेन्द्र में कलाकार का मौत”! मृतक के परिवार वाले बता रहे थे कि कलाकार को पहले भी हार्ट अटैक आ चुके हैं। वे लोग दुखी तो बहुत थे लेकिन मृत्यु के लिए हमें अथवा किसी भी व्यक्ति को दोषी नहीं मान रहे थे। इधर स्टेज पर कार्यक्रम चलता रहा। मृतक के लाश को हमने एक जगह रख दिया। जब कार्यक्रम समाप्त हो गया तब इसकी जानकारी डॉ चक्रवर्ती को दिया। उसका डेथ सर्टिफिकेट लिया गया और लाश को उसके परिवार के लोगों के साथ उनके गृह राज्य भेज दिया गया। इस घटना की सुचना किसी को भी नही दिया गया। केवल तीन चार लोगों को इसकी जानकारी थी। मेरा प्राण बच चुका था। 
भगवान से प्रार्थना करता रहा : हे इश्वर, जो हुआ सो हो गया। आगे इज्जत रखना प्रभु! 
(क्रमशः) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र

नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (18) 
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डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (17)



एसटीडी से जूझती मणिपुर की  महिलाएं:  मरने से पहले जीने की तमन्ना ~ 
 

निश्चित ही उत्तरपूर्व भारत से मेरा पूर्व जन्म का रिश्ता रहा है। कभी-कभी अवसर मिल ही जाते हैं वहां के किसी क्षेत्र में जाने के लिए। लोगों से मिलने और उनके जीवन के एक या अनेक पक्ष को समझने के लिए। सभी अनुभव अनूठे हैं।  एक-एक अनुभव को इन नैनों ने बंद कर रखें हैं अपने इंटरनल मेमोरी में। यह मेमोरी खास है साहब। इसमें वायरस आ ही नही सकता। इसका इनबिल्ट एंटी वायरस कमाल का है। यह मेमोरी मेरे साथ है, मेरे साथ रहेगा। यह मेरे सांसों के साथ लयबद्ध होकर मधुर झंकार करते हुए चलता है – तेरे बिना जिया जाये ना”! इसबार जो अनुभव बांट रहा हूं उसको धैर्य और मानवीय संवेदना को जागृत करके पढ़ें। समझें कि मृत्यु के पूर्व जो जीवन जीने का जज्बा है उसका आनन्द क्या है। अगर आप इस भाव से पढ़ेंगे तो मानवीय पक्ष के परतों को कतरा-कतरा समझते जायेंगे।

हुआ यह कि मैं एक अंतरराष्ट्रीय गैरसरकारी संस्था के लिए मणिपुर के दो केंद्र का विस्तृत बेसलाइन सर्वे कर रहा था। उद्देश्य यह भी था कि वहां का संपूर्ण एथनोग्राफीक दस्तावेज बना दूं। मैने वहां की एक नागा लड़की जो असम सेंट्रल यूनिवर्सिटी, सिलचर से सोशल वर्क में पीएचडी कर रही थी को रिसर्च स्कॉलर के रूप में रखा था। वह लड़की ईमानदारी से कार्य कर रही थी। आज वह मणिपुर ट्राइबल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर है। 

जब वह एक महीना तक कार्य कर ली तो मुझे लगा कि मैं जाकर देखूं कि बेसलाइन आख़िर किस दिशा में बढ़ रहा है। मैं वहां एक सप्ताह के लिए चला गया। उस केंद्र का संचालन एक मेतई महिला सामाजिक कार्यकर्ता कर रही थी। वे संजय गांधी के समय से ही युवा कांग्रेस से जुड़ी हुई थी। लगातार तीन बार से विधानसभा का चुनाव लड़ रही थी और हर बार चंद वोट से पराजित हो जाती थीं। लेकिन थी वह जीवट की। हार नही मानना मानो उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य था। अंततः एक ऐसा दिन भी आया जब वह चुनाव जीत गई। विधानसभा की सदस्य बनी और महिला विभाग की मंत्री भी बनी। दो बार लगातार जीती भी और मंत्री भी बनी रही। उनका रुतबा देखने लायक था। समाज सेवा में इतना निपुण थी कि पक्ष को छोड़िए विपक्षी भी उनका सम्मान करते थे। समाज सेवा के व्रत को पूरा करने के चक्कर मे उन्होंने आजन्म कुंवारी रहने का व्रत लिया था। 

तो हम उनके साथ कार्य कर रहे थे। उनके केंद्र पर उस गांव और अगल - बगल के 15 गांव से महिलाएं आती थी। जिस गांव में केंद्र था उसका नाम तुबैलुमा था। अनेक कार्यक्रम चल रहे थे। महिलाएं  शॉल, फनेक आदि बुन रहीं थीं। जीवन का क्रम चल रहा था। एक महिला चप्पल तो दूसरी जूते बनाने का कार्य कर रही थी। कुछ महिलाऐं स्वयं सहायता समूहों का संचालन कर मेंबर महिलाओं को लघु व्यापार जैसे चूड़ी, सब्जी, फल, आदि के लिए ऋण भी दे रही थीं। महिलाओं को नेतृत्व क्षमता विकसित करने के लिए, स्वरोजगार उन्मुख होने के लिए प्रशिक्षण भी दिया जा रहा था। कुछ महिलाऐं मधुमक्खी पालन का कार्य तो कुछ कुकुरमुत्ता की खेती भी कर रही थीं। जेंडर के प्रति जागरूक भी उन्हें किया जा रहा था। कुल मिलाकर यहाँ का माहौल अच्छा था। 

यह केंद्र विशिष्ट था क्योंकि इसमें मेतै, आदिवासी सभी महिलाएं आती थी। सबकी  सहभागिता निश्चित थी। लगभग 20 नागा महिलाएं भी जो इम्फाल शहर के अगल बगल की थी वे भी यहाँ आती थीं। 

मुझे लगा कि यह तो सबसे अच्छा केंद्र है। यहाँ पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है। सबसे बड़ी बात यह थी कि महिलाएं बहुत निश्चिन्त होकर अपने बेटी  और बहु को यहाँ भेजती थीं। उनको लगता था कि उनकी लड़कियां यहाँ सर्वाधिक सुरक्षित है। संचालक महिला का समर्पण भाव और निर्लोभ होकर कुछ कर गुजरने की भावना इस केंद्र के प्रति लोगों में बढ़ते विश्वास के कारण थे। 

मैंने सभी महिलाओं के अनेक समूह बनाकर उनसे वार्ता किया। उनकी समस्याएँ सुनी। अपनी समस्याओं का वे कैसा समाधान चाहते हैं, इसपर उनके विचार सुने। सभी योजनाओं के लागत मूल्य का अनुमान लगाया। बहुत कुछ सिखने के लिए मिल रहा था। सात दिन कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। सभी महिलाये मुझसे अपनी बात खुलकर कहने लगी। उनको एकाएक ऐसा लगने लगा कि कोई है जो उनकी बात को गम्भीरता से सुनता है। उसपर कुछ करना भी चाहता है। 

मेरे दिल्ली वापस आने से दो दिन पहले सायंकाल तीन लड़कियां मेरे पास आई। मैंने उन्हें बैठने के लिए कहा। वे बैठ गयीं। लगभग दस मिनट तक कुछ नहीं बोली। कभी मेरी तरफ देखती कभी सिर नीचे झुका कर धरती माता के मिटटी कण को निहारने लगती। उनके जीवन में उल्लास और दर्द के मिश्रित तरंग उत्पन्न हो रहे थे। कभी दर्द अपना उफान दिखाना चाहे तो कभी उल्लास। वे सही अर्थ में दोनों की उभयवृत्तता में झूल रही थी। कुछ तो इनकी समस्या अलग है, इतना तो मैं समझ गया था। मैंने सोचा ये समय ले लें अपनी बात को सहजता के साथ मुझे समझने के लिए। यह भी सच है कि मौन होकर किसी के साथ कुछ पल रहने से आपको अधिक गंभीर बना देता है। आप उस मौन से उर्जा प्राप्त कर अधिक गंभीर बात आत्मविश्वास से कर सकते हैं। मैं चुपचाप उनके विचारो के तूफान का अवलोकन करता रहा। 

15 मिनट के बाद उनमे से एक लड़की बोली: “मिश्र सर, हमलोग आपसे बात करना चाहते हैं। हमलोगों का एक समूह है जिसमे 42 महिलाएं हैं। सभी की एक खास समस्या है। वे सभी आपसे बात करना चाहती हैं। लेकिन वहाँ केवल आप होगे और वे महिलाएं होंगी। केंद्र के बड़े हाल में हमलोग अगर आप अपनी सहमति प्रदान करेंगे तो इस मीटिंग का आयोजन कल पांच बजे सायंकाल करेंगे।”

मुझे लग गया कि कुछ तो विवशता है इनकी। मैं भी कुछ मिनट के लिए मौन हो गया। सोचने लगा: “महिलाओं के विशाल दल के साथ अकेले में बात करना उचित रहेगा क्या?” फिर सोचा: “चलो कर लेते हैं।”
इधर दोनों लड़कियां मेरी स्वीकृति का इन्तजार करती रही। मौन भंग करते हुए मैं बोला: “ठीक है, कल ठीक पांच बजे सायंकाल हमलोग एक घंटा के लिए मिलते हैं।” वे लोग मुस्कान बिखेरते हुए धन्यवाद देकर चली गयी। जाते समय उनके पदचापों की गति उनके उत्साह के साक्षी बन रहे थे। 

खैर! रात भर मैं नही सो पाया। सदैव सोचता रहा: “आखिर ये महिलाएं कौन हैं? एक दो तो हैं नहीं इनकी संख्या 42 हैं और ये सभी मुझसे अकेले में क्यों मिलना चाहती हैं? मैं इतना भी सामर्थ्यवान तो नहीं कि इनके लिए कुछ कर पाऊं। आखिर इनकी समस्या क्या है?”

खैर, दुसरे दिन निर्धारित समय से पांच मिनट पहले ही मैं उनसे मिलने के लिए तैयार था। ठीक पांच बजे वही दो लड़कियां मेरे पास आई और बोली: “चले उस हॉल में सर हमारे समूह की महिलाओं से मिलने के लिए?”
मैं बोला: “जी चलते हैं। मैं तो पांच मिनट से आपलोगों का इन्तजार कर रहा था।” यह कहते हुए मैं उनके साथ प्रथम तल पर बने उस विशाल कक्ष की ओर चल पड़ा। कक्ष में कोई भी नहीं था। करीब पचास कुर्सी लगे हुए थे। मुझे बीच के कुर्सी पर बैठने के लिए निर्देश दी। मै बैठ गया। अब रूम को बंद कर दिया गया। सभी लाइट बंद कर दिए गए। रूम में पूरा अंधकार था। मैं कौतुहल की दृष्टि से सभी कुछ देखता रहा। कुछ ही क्षणों में मुझे अनेक पदचापों का अनुभव हुआ। अँधेरा अभी भी छाया हुआ था। इतना तो स्पष्ट था कि सभी कुर्सियों पर महिलाएं आकर बैठ रही थी। शायद उनको निर्देश था कि वे किसी तरह की आवाज न निकालें। पांच मिनट के अन्दर फिर से सभी बल्व को जला दिया गया। अब मैने देखा कि 42 महिलाएं कुर्सियों पर बैठी हुई हैं। सभी अपने अपने मुंह को एक ओढ़नी से ढकी हुई थीं। 
सबने एक साथ खड़े होकर मेरा अभिवादन किया। उनमे अनेक महिलाये ऐसी थी जो मेरे से ना तो हिंदी में न ही अंग्रेजी भाषा में वार्तालाप कर सकती थी। हाँ अन्य लड़कियां उनके और मेरे बीच दो भाषिये का कार्य कुशलतापूर्वक निभाने लगीं। अब एक महिला उठी और अपने बुर्के को उठाते हुए सभी महिलाओं को पर्दा उठाने का निर्देश दी। उसके निर्देश मिलते ही सभी महिलाओं ने अपने-अपने मुंह पर से पर्दा उठा लिया। वह महिला तब तक खड़ी रही। फिर बोली: “सर, हमलोग आपका पुनः स्वागत करते हैं। आपको बताना याह चाहती हूँ कि हम सभी महिलाये HIV पॉजिटिव हैं अर्थात सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिजीज के मरीज हैं। अधिकांश केस में गलती महिलाओं की नहीं है। हमारे पति इस वीमारी को बाहर से लाकर हमे संक्रमित करते हैं। जो भी हो अब तो हम सभी इसके कुचक्र में फंस चुके हैं। हमलोग अभी भी अपना जीवन जी रहे हैं। हमें अपने से अधिक बच्चो की चिंता है। हम मरने से पहले जीना चाहते हैं। अपने बच्चो के बेहतर जीवन जीने के लिए जीना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे हमारे इस दुनिया से चले जाने के बाद सड़कों पर भीख न मांगे। बाज़ार में पॉकेटमारी न करें। वे सभ्य नागरिक बने। पढ़े। उन्हें आर्थिक विपन्नता का भार न झेलना पड़े।” इतना कहकर वो महिला बैठ गयी। 

अब दूसरी महिला खड़ी हुई। वह बोली: “सर, हमने सभी को आपके बारे में बता दिया है। फिर भी मैं चाहती हूँ कि अब एक-एक महिला अपना अति संक्षिप्त परिचय आपको दे। अंत में आप स्वयं इनको अपने बारे में बता दें।”
मैंने सिर हिलाकर स्वीकृति दे दी।
अब सभी महिला अपना परिचय देने लगी। लगभग एक घंटा परिचय में चला गया। सभी को उनके बारे में उनके मुंह से जानना अच्छा लग रहा था। बहुत कुछ समझ पा रहा था। नारी उत्थान के लिए लोग क्या कर रहे हैं, इसको समझ पा रहा था। कथनी और करनी के अंतर को देख पा रहा था। अंत में अपना परिचय देते हुए मैंने उनसे कहा: “मेरा नाम कैलाश कुमार मिश्र है। मैं कुछ संस्थाओं के लिए कंसल्टेंसी करता हूँ। आपकी बात उनतक रखता हूँ। योजनाओं का प्रतिवेदन तैयार करता हूँ । उसको कैसे और कितना वे स्वीकार करते हैं यह उनपर, उनकी आर्थिक स्थिति, उदेश्य आदि पर निर्भर करता है।”

एक महिला उठी और बोलने लगी: “सर, हमलोगों को दवाई एवं अन्य सुविधाए किसी न किसी तरह से सरकारी संस्थाओं से मिल जाती हैं। हमलोग चाहते हैं कि हम सभी 42 महिलाये मिलकर लगभग 9 तरह के लघु एवं कुटीर उद्योग का सञ्चालन अलग-अलग गांवो में करे। हमने डिटर्जेंट, चप्पल, बिस्कुट्स, स्थानीय खिलौने, बेकरी, जनरल स्टोर आदि के लिए परियोजना का निर्माण भी कर लिया है। हमलोगों का अपना स्वयं सहायता समूह भी है। हमारी समस्या अर्थ की है। हम आपसे निवेदन करते हैं कि आप संस्थाओं के बात करें एवं हमारी परियोजनाओं के लिए हमें बैंक के इंटरेस्ट पर मूलधन उपलब्ध करा दें। हमलोग धीरे-धीरे सभी कर्ज सूद के साथ वापस कर देंगे। अगर यह हो जायेगा तो हम सभी चैन की जिन्दगी जीते हुए चैन से मर सकेंगे।” इतना कहकर वह भद्र महिला बैठ गयी। 
मुझे समझ में नही आ रहा था कि मैं क्या बोलूं? हिम्मत बटोरते हुए मै बोलने लगा: “मुझपर विश्वास करने के लिए आप सभी का धन्यवाद। जैसा कि मैंने अपने इंट्रोडक्शन में बता दिया है, मैं निर्णय लेने वाला अधिकारी नहीं हूँ। आप सबों की परियोजनाए मुझे बेहद प्रमाणिक लग रहे हैं। मै एक काम कर सकता हूँ कि इन डाक्यूमेंट्स को अपने साथ रख लूँ। इस संस्था एवं अन्य संस्थाओं के निर्णय लेनेवाले अधिकारी से बात करूँगा। अगर उनलोगों ने किसी तरह का इंटरेस्ट दिखाया तो उन्हें लेकर आपके पास आऊंगा।”

मेरे इतना कहने पर सभी महिलाओं ने अपनी छवि, पता और मोबाइल नंबर मुझे दे दीं। मैंने उन्हें फिर आश्वासन दिया: “आप लोगों की छवि, मोबाइल नंबर और पता मैं किसी को तबतक नहीं दूंगा जबतक वे आपके प्रोजेक्ट को स्वीकार न कर लें।”
इसके बाद हम लोग अनेक तरह की बाते करते रहे। उस समूह में मेतै, अनेक आदिवासी समूह की महिलाएं भी थीं। किसी का उम्र 35 से अधिक नहीं था। सभी सुंदर थी। आशावान थीं। एक आध को छोड़कर सभी के बाल बच्चे थे। कितनी महिलाये ऐसी भी थीं जिनके पति को यह है। उन्ही से इनको हो गया है । पति अभी भी उनके साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करते हैं। एक तो इस अवस्था में भी गर्भवती थी। राम ही जाने, क्या होगा उनका!

अंत में मैंने उन सभी को अगले दिन के भोजन के लिए इसी स्थान पर निमंत्रित किया। वे सभी तैयार हो गयी।
मणिपुर से दिल्ली आने पर मैंने अपने इंटरनेशनल NGO एवं अनेक संगठनों से बात किया। सभी बात बनाते रहे। किसी ने इनकी समस्या को सुलझाने का जिम्मा नहीं लिया। NGOs ऐसे ही रिपोर्ट में चमकते रहते हैं। आजकल रंगीन, आंकड़ों से भरे, सिंगल स्टोरी से भरे रिपोर्ट पढ़ने को मिलते रहते हैं। लोग फोटोबाज बनते जा रहे हैं। ग्रास रूट की कौन सुनता है! इट हप्पेंस ओनली इन इंडिया!
(क्रमशः) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र

नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (16) 
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मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी ~ मोटेराम जी शास्त्री

1.
पण्डित मोटेराम जी शास्त्री को कौन नही जानता! आप अधिकारियों का रूख देखकर काम करते है। स्वदेशी आन्दोलने के दिनों मे अपने उस आन्दोलन का खूब विरोध किया था। स्वराज्य आन्दोलन के दिनों मे भी अपने अधिकारियों से राजभक्ति की सनद हासिल की थी। मगर जब इतनी उछल-कूद पर उनकी तकदीर की मीठी नींद न टूटी, और अध्यापन कार्य से पिण्ड न छूटा, तो अन्त मे अपनी एक नई तदबीर सोची। घर जाकर धर्मपत्नी जी से बोले—इन बूढ़े तोतों को रटाते-रटातें मेरी खोपड़ी पच्ची हुई जाती है। इतने दिनों विद्या-दान देने का क्याफल मिला जो और आगे कुछ मिलने की आशा करूं।
धर्मपत्नी ने चिन्तित होकर कहा—भोजनों का भी तो कोई सहारा चाहिए।
मोटेराम—तुम्हें जब देखो, पेट ही की फ्रिक पड़ी रहती है। कोई ऐसा विरला ही दिन जाता होगा कि निमन्त्रण न मिलते हो, और चाहे कोई निन्दा करें, पर मै परोसा लिये बिना नहीं आता हूं। आज ही सब यजमान मरे जाते है? मगर जन्म-भर पेट ही जिलया तो क्या किया। संसार का कुछ सुख भी तो भोगन चाहिए। मैने वैद्य बनने का निश्चय किया है।
स्त्री ने आश्चर्य से कहा—वैद्य बनोगे, कुछ वैद्यकी पढ़ी भी है?
मोटे—वैद्यक पढने से कुछ नही होता, संसार मे विद्या का इतना महत्व नही जितना बुद्धि क। दो-चार सीधे-सादे लटके है, बस और कुछ नही। आज ही अपने नाम के आगे भिष्गाचार्य बढ़ा लूंगा, कौन पूछने आता है, तुम भिषगाचार्य हो या नही। किसी को क्या गरज पड़ी है जो मेरी परिक्षा लेता फिरे। एक मोटा-सा साइनबोर्ड बनवा लूंगा। उस पर शब्द लिखें होगे—यहा स्त्री पुरूषों के गुप्त रोगों की चिकित्सा विशेष रूप से की जाती है। दो-चार पैसे का हउ़-बहेड़ा-आवंला कुट छानकर रख लूंगा। बस, इस काम के लिए इतना सामान पर्याप्त है। हां, समाचारपत्रों मे विज्ञापन दूंगा और नोटिस बंटवाऊंगा। उसमें लंका, मद्रास, रंगून, कराची आदि दूरस्थ स्थानों के सज्जनों की चिटिठयां दर्ज की जाएंगी। ये मेरे चिकित्सा-कौशल के साक्षी होगें जनता को क्या पड़ी है कि वह इस बात का पता लगाती फिरे कि उन स्थानों मे इन नामों के मनुष्य रहते भी है, या नहीं फिर देखों वैद्य की कैसी चलती है।
स्त्री—लेकिन बिना जाने-बूझ दवा दोगे, तो फायदा क्या करेगी?
मोटे—फायदा न करेगी, मेरी बला से। वैद्य का काम दवा देना है, वह मृत्यु को परस्त करने का ठेका नही लेता, और फिर जितने आदमी बीमार पड़ते है, सभी तो नही मर जाते। मेरा यह कहना है कि जिन्हें कोई औषधि नही दी जाती, वे विकार शान्त हो जाने पर ही अच्छे हो जाते है। वैद्यों को बिना मांगे यश मिलता है। पाच रोगियों मे एक भी अच्छा हो गया, तो उसका यश मुझे अवश्य ही मिलेगा। शेष चार जो मर गये, वे मेरी निन्दा करने थोडे ही आवेगें। मैने बहुत विचार करके देख लिया, इससे अच्छा कोई काम नही है। लेख लिखना मुझे आता ही है, कवित्त बना ही लेता हूं, पत्रों मे आयुर्वेद-महत्व पर दो-चार लेख लिख दूंगा, उनमें जहां-तहां दो-चार कवित्त भी जोड़ दूंगा और लिखूगां भी जरा चटपटी भाषा मे । फिर देखों कितने उल्लू फसते है यह न समझो कि मै इतने दिनो केवल बूढे तोते ही रटाता रहा हूं। मै नगर के सफल वैद्यो की चालों का अवलोकन करता रहा हू और इतने दिनों के बाद मुझे उनकी सफलता के मूल-मंत्र का ज्ञान हुआ है। ईश्वर ने चाहा तो एक दिन तुम सिर से पांव तक सोने से लदी होगी।
स्त्री ने अपने मनोल्लास को दबाते हुए कहा—मै इस उम्र मे भला क्या गहने पहनूंगी, न अब वह अभिलाषा ही है, पर यह तो बताओं कि तुम्हें दवाएं बनानी भी तो नही आती, कैसे बनाओगे, रस कैसे बनेगें, दवाओ को पहचानते भी तो नही हो।
मोटे—प्रिये! तुम वास्तव मे बड़ी मूर्ख हो। अरे वैद्यो के लिए इन बातों मे से एक भी आवश्यकता नही, वैद्य की चुटकी की राख ही रस है, भस्म है, रसायन है, बस आवश्यकता है कुछ ठाट-बाट की। एक बड़ा-सा कमरा चाहिए उसमें एक दरी हो, ताखों पर दस-पांच शीशीयां बोतल हो। इसके सिवा और कोई चीज दरकार नही, और सब कुछ बुद्धि आप ही आप कर लेती है। मेरे साहित्य-मिश्रित लेखों का बड़ा प्रभाव पड़ेगा, तुम देख लेना। अलंकारो का मुझे कितना ज्ञान है, यह तो तुम जानती ही हो। आज इस भूमण्डल पर मुझे ऐसा कोई नही दिखता जो अलंकारो के विषय मे मुझसे पेश पा सके। आखिर इतने दिनों घास तो नही खोदी है! दस-पाचं आदमी तो कवि-चर्चा के नाते ही मेरे यहां आया जाया करेगें। बस, वही मेरे दल्लाह होगें। उन्ही की मार्फत मेरे पास रोगी आवेगें। मै आयुर्वेद-ज्ञान के बल पर नही नायिका-ज्ञान के बल पर धड़ल्ले से वैद्यक करूंगा, तुम देखती तो जाओ।
स्त्री ने अविश्वास के भाव से कहा—मुझे तो डर लगता है कि कही यह विद्यार्थी भी तुम्हारे हाथ से न जाए। न इधर के रहो ने उधर के। तुम्हारे भाग्य मे तो लड़के पढ़ाना लिखा है, और चारों ओर से ठोकर खाकर फिर तुम्हें वी तोते रटाने पडेगें।
मोटे—तुम्हें मेरी योग्यता पर विश्वास क्यों नही आता?
स्त्री—इसलिए कि तुम वहां भी धूर्तता करोगे। मै तुम्हारी धूर्तता से चिढ़ती हूं। तुम जो कुछ नही हो और नही हो सकते, बक क्या बनना चाहते हो? तुम लीडर न बन सके, न बन सके, सिर पटककर रह गये। तुम्हारी धूर्तता ही फलीभूत होती है और इसी से मुझे चिढ़ है। मै चाहती हूं कि तुम भले आदमी बनकर रहो। निष्कपट जीवन व्यतीत करो। मगर तुम मेरी बात कब सुनते हो?
मोटे—आखिर मेरा नायिका-ज्ञान कब काम आवेगा?
स्त्री—किसी रईस की मुसाहिबी क्यो नही कर लेते? जहां दो-चार सुन्दर कवित्त सुना दोगे। वह खुश हो जाएगा और कुछ न कुछ दे ही मारेगा। वैद्यक का ढोंग क्यों रचते हों!
मोटे—मुझे ऐसे-ऐसे गुर मालूम है जो वैद्यो के बाप-दादों को भी न मालूम होगे। और सभी वैद्य एक-एक, दो-दो रूपये पर मारे-मारे फिरते है, मै अपनी फीस पांच रूपये रक्खूगा, उस पर सवारी का किराया अलग। लोग यही समझेगें कि यह कोई बडे वैद्य है नही तो इतनी फीस क्यों होती?
स्त्री को अबकी कुछ विश्वास आया बोली—इतनी देर मे तुमने एक बात मतलब की कही है। मगर यह समझ लो, यहां तुम्हारा रंग न जमेगा, किसी दूसरे शहर को चलना पड़ेगा।
मोटे—(हंसकर) क्या मै इतना भी नही जानता। लखनऊ मे अडडा जमेगा अपना। साल-भर मे वह धाक बांध दू कि सारे वैद्य गर्द हो जाएं। मुझे और भी कितने ही मन्त्र आते है। मै रोगी को दो-तीन बार देखे बिना उसकी चिकित्सा ही न करूंगा। कहूंगा, मै जब तक रोगी की प्रकृति को भली भांति पहचान न लूं, उसकी दवा नही कर सकता। बोलो, कैसी रहेगी?
स्त्री की बांछे खिल गई, बोली—अब मै तुम्हे मान गई, अवश्य चलेगी तुम्हारी वैद्यकी, अब मुझे कोई संदेह नही रहा। मगर गरीबों के साथ यह मंत्र न चलाना नही तो धोखा खाओगे।

2.
साल भर गुजर गया।
भिषगाचार्य पण्डित मोटेराम जी शास्त्री की लखनऊ मे घूम मच गई। अलंकारों का ज्ञान तो उन्हे था ही, कुछ गा-बजा भी लेते थे। उस पर गुप्त रोगो के विशेषज्ञ, रसिको के भाग्य जागें। पण्डित जी उन्हें कवित सुनाते, हंसाते, और बलकारक औषधियां खिलाते, और वह रईसों मे, जिन्हें पुष्टिकारक औषधियों की विशेष चाह रहती है, उनकी तारीफों के पुल बांधते। साल ही भर मे वैद्यजी का वह रंग जमा, कि बायद व शायदं गुप्त रोगों के चिकित्सक लखनऊ मे एकमात्र वही थे। गुप्त रूप से चिकित्सा भी करते। विलासिनी विधवारानियों और शौकीन अदूरदर्शी रईसों मे आपकी खूब पूजा होने लगी। किसी को अपने सामने समझते ही न थे।
मगर स्त्री उन्हे बराबर समझाया करती कि रानियों के झमेलें मे न फसों, नही क दिन पछताओगे।
मगर भावी तो होकर ही रहती है, कोई लाख समझाये-बुझाये। पंडितजी के उपासको मे बिड़हल की रानी भी थी। राजा साहब का स्वर्गवास हो चुका था, रानी साहिबा न जाने किस जीर्ण रोग से ग्रस्त थी। पण्डितजी उनके यहां दिन मे पांच-पाचं बार जाते। रानी साहिबा उन्हें एक क्षण के लिए भी देर हो जाती तो बेचैन हो जाती, एक मोटर नित्य उनके द्वार पर खड़ी रहती थी। अब पण्डित जी ने खूब केचुल बदली थी। तंजेब की अचकन पहनते, बनारसी साफा बाधते और पम्प जूता डाटते थे। मित्रगण भी उनके साथ मोटर पर बैठकर दनदनाया करते थे। कई मित्रों को रानी सहिबा के दरबार मे नौकर रखा दिया। रानी साहिबा भला अपने मसीहा की बात कैसी टालती।
मगर चर्खे जफाकार और ही षययन्त्र रच रहा था।
एक दिन पण्डितजी रानी साहिबा की गोरी-गोरी कलाई पर एक हाथ रखे नब्ज देख रहे थे, और दूसरे हाथ से उनके हृदय की गति की परिक्षा कर रहे थे कि इतने मे कई आदमी सोटै लिए हुए कमरे मे घुस आये और पण्डितजी पर टूट पड़े। रानी भागकर दूसरे कमरे की शरण ली और किवाड़ बन्द कर लिए। पण्डितजी पर बेभाव पड़ने लगे। यों तो पण्डितजी भी दमखम के आदमी थे, एक गुप्ती संदैव साथ रखते थे। पर जब धोखे मे कई आदमियों ने धर दबाया तो क्या करते? कभी इसका पैकर पकड़ते कभी उसका। हाय-हाय! का शब्द मुंह से निकल रहा था पर उन बेरहमों को उन पर जरा भी दया न आती थी, एक आदम ने एक लात जमाकर कहा—इस दुष्ट की नाक काट लो।
दूसरा बोला—इसके मुंह मे कलिख और चूना लगाकर छोड़ दो।
तीसरा—क्यों वैद्यजी महाराज, बोलो क्या मंजूर है? नाक कटवाओगे या मुंह मे कालिख लगवाओगें?
पण्डित—भूलकर भी नही सरकार। हाय मर गया!
दूसरा—आज ही लखनऊ से रफरैट हो जाओं नही तो बुरा होगा।
पणिडत—सरकार मै आज ही चला जाऊगां। जनेऊ की शपथ खाकर कहता हूं। आप यहां मेरी सूरत न देखेगें।
तीसरा—अच्छा भाई, सब कोई इसे पांच-पाचं लाते लगाकर छोड़ दो।
पण्डित—अरे सरकार, मर जाऊगां, दया करो
चौथा—तुम जैसे पाखंडियो का मर जाना ही अच्छा है। हां तो शुरू हो।
पंचलत्ती पड़ने लगी, धमाधम की आवाजें आने लगी। मालूम होता था नगाड़े पर चोट पड़ रही है। हर धमाके के बाद एक बार हाय की आवाज निकल आती थी, मानों उसकी प्रतिध्वनी हो।
पंचलत्ती पूजा समाप्त हो जाने पर लोगों ने मोटेराम जी को घसीटकर बाहर निकाला और मोटर पर बैठाकर घर भेज दिया, चलते-चलते चेतावनी दे दी, कि प्रात:काल से पहले भाग खड़े होना, नही तो और ही इलाज किया जाएगा।

3.
मोटेराम जी लंगड़ाते, कराहते, लकड़ी टेकते घर मे गए और धम से गिर पड़े चारपाई पर गिर पडे। स्त्री ने घबराकर पूछा—कैसा जी है? अरे तुम्हारा क्या हाल है? हाय-हाय यह तुम्हारा चेहरा कैसा हो गया!
मोटे—हाय भगवान, मर गया।
स्त्री—कहां दर्द है? इसी मारे कहती थी, बहुत रबड़ी न खाओं। लवणभास्कर ले आऊं?
मोटे—हाय, दुष्टों ने मार डाला। उसी चाण्डालिनी के कारण मेरी दुर्गति हुई । मारते-मारते सबों ने भुरकुस निकाल दिया।
स्त्री—तो यह कहो कि पिटकर आये हो। हां, पिटे हो। अच्छा हुआ। हो तुम लातो ही के देवता। कहती थी कि रानी के यहां मत आया-जाया करो। मगर तुम कब सुनते थे।
मोटे—हाय, हाय! रांड, तुझे भी इसी दम कोसने की सूझी। मेरा तो बुरा हाल है और तू कोस रही है। किसी से कह दे, ठेला-वेला लावे, रातो-रात लखनऊ से भाग जाना है। नही तो सबेरे प्राण न बचेगें।
स्त्री—नही, अभी तुम्हारा पेट नही भरा। अभी कुछ दिन और यहां की हवा खाओ! कैसे मजे से लड़के पढात थे, हां नही तो वैद्य बनने की सूझी। बहुत अच्छा हुआ, अब उम्र भर न भूलोगे। रानी कहां थी कि तुम पिटते रहे और उसने तुम्मारी रक्षा न की।
पण्डित—हाय, हाय वह चुडैल तो भाग गई। उसी के कारण । क्या जानता था कि यह हाल होगा, नहीं ता उसकी चिकित्सा ही क्यों करता?
स्त्री—हो तुम तकदीर के खोटे। कैसी वैद्यकी चल गई थी। मगर तुम्हारी करतूतों ने सत्यनाश मार दिया। आखिर फिर वही पढौनी करना पड़ी। हो तकदीर के खोटे।
प्रात:काल मोटेराम जी के द्वार पर ठेला खड़ा था और उस पर असबाब लद रहा था। मित्रो मे एक भी नजर न आता था। पण्डित जी पड़े कराह रहे थे ओर स्त्री सामान लदवा रही थी।
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(‘माधुरी’ जनवरी, १९२८)
साभार, hindikahani.hindi.kavita.com से।

Friday, 29 July 2022

संविधान और तिरंगे के बारे में 1949 में क्या सोचता था संघ / विजय शंकर सिंह


हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। सरकार ने इस अवसर पर सेल्फी विद तिरंगा का एक अभियान शुरू किया है। तिरंगा, देश का प्रतीक है और हमारी आन बान और शान भी है। तिरंगे के लिए लोगों ने लाठी गोलियां खाई, अपना बलिदान किया, और देश की आजादी के लिए, कुछ ने तो अपना सर्वस्व तक बलिदान कर दिया। पर आज सरकार जिस सत्तारूढ़ दल की है उसकी विचारधारा और सोच के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के प्रति क्या सोच और धारणा थी, यह आज की पीढ़ी को जानना चाहिए।

व्हाट्सएप द्वारा फैलाए जा रहे दुष्प्रचार और गोएबलिज्म के इस कालखंड में लोगो को यह जानना चाहिए कि, आज जिस तिरंगे के साथ सेल्फी की प्रतियोगिता आयोजित करके खुद को देशभक्त साबित करने की कोशिश की जा रही, उनके वैचारिक पुरखों की स्वाधीनता संग्राम में क्या भूमिका रही है। बात मैं बीजेपी का वैचारिक आगार, थिंक टैंक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरएसएस की कर रहा हूं। यह सवाल और जिज्ञासा भी आरएसएस के ही मित्रो से है कि, सन 1925 से 1947 तक जब लोग तिरंगे के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे, अपनी जान की बाजी लगा रहे थे, तब आज राष्ट्रवाद और देशभक्ति का मंत्र हर बयान के साथ संपुटित रूप से जोड़ कर अपनी बात कहने वाले किस फिक्र में मुब्तिला थे ?

आरएसएस देश की मुख्य धारा से अपने जन्म के समय से ही अलग रहा है। 1925 में अपनी स्थापना के बाद से ही, संघ का चाल चरित्र चेहरा, भारत के अंदर विद्यमान लोकप्रिय और प्रमुख धारा से अलग ही, अपनी बात कहता रहा है। संघ अपनी विचारधारा को राष्ट्रवादी विचारधारा कह कर प्रचारित करता है और उसी का राजनीतिक संस्करण भारतीय जनता पार्टी भी खुद को राष्ट्रवादी ही कहती है। पर इस जिज्ञासा का समाधान कोई भी संघी मित्र नहीं करता है, कि जब आज़ादी का एक राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था तो संघ का राष्ट्रवाद कहाँ था? संघ जिस राष्ट्रवाद की बात करता है उनके उस राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या है ?

हमारा स्वाधीनता संग्राम जिस राष्ट्रवाद पर आधारित था, वह तिलक, गोखले, गांधी, टैगोर, अरविंदो, नेहरू, पटेल, आज़ाद आदि की सोच और भारतीय अस्मिता ( जो बहुलता में एकता की बात सदा से करती आयी है) से विकसित हुआ राष्ट्रवाद था। जबकि संघ जिस राष्ट्रवाद की बात करता है, वह यूरोपीय एकल समाज के राष्ट्रवाद से प्रभावित है। जिसे हम जर्मन राष्ट्रवाद कह सकते हैं। यह राष्ट्रवाद एक संकीर्ण विचारधारा का राष्ट्रवाद है, जो किसी जाति, या धर्म के श्रेष्ठतावाद पर आधारित है। और हमारी दीर्घ परंपरा में बसे हुये वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत से अलग और विपरीत है।

वर्ष 1925 में अपनी स्थापना से लेकर, वर्ष  1947, भारत के आज़ाद होने तक, संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार, और एमएस गोलवलकर संघी विचारधारा के मुख्य प्रणेता रहे हैं। डॉ हेडगेवार तो संघ के संस्थापक ही थे और गोलवलकर जिन्हें गुरु जी के नाम से संघ जगत में जाना जाता है, वह संघ की विचारधारा के प्रमुख प्रस्तोता रहे हैं। एमएस गोलवलकर ने संघ की विचारधारा पर अपनी पुस्तक द बंच ऑफ थॉट जिसका हिंदी अनुवाद विचार नवनीत है, में भारतीय संविधान के बारे में अपने जिन विचारों को व्यक्त किया है, इससे संघ का भारत के संविधान के संबंध में क्या दृष्टिकोण रहा है, स्पष्ट होता है। इस किताब को पढ़ना और देखना रोचक होगा। मैं इस लेख में संविधान के बारे में गोलवलकर के  कुछ महत्वपूर्ण उद्धरण जो उनके भाषणों और उनकी पुस्तक बंच ऑफ थॉट से लिये गये हैं प्रस्तुत करूँगा, जिससे भारतीय संविधान के बारे में उनके विचारों का पता चलता है।

अगर भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास की बात करें तो, संघ या हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग भारत के स्वाधीनता संग्राम की मूल धारणा, अंग्रेजों भारत छोड़ो के विपरीत थे। न सिर्फ इस महान आंदोलन के, बल्कि भारत की आज़ादी के लिये चलाये जा रहे किसी भी आंदोलन या क्रांतिकारी गतिविधियों में उनकी रुचि नहीं थी। भारत आज़ाद हो, यह उनका उद्देश्य कभी रहा ही नहीं है। मुस्लिम लीग भी मुसलमानों के लिये एक आज़ाद और अलग संप्रभु देश ज़रूर चाहते थी  और उसी के लालच में वे अंग्रेजों से अंत तक चिपके भी रहे। जब कांग्रेस का भारत छोड़ो आंदोलन और नेताजी सुभाष बाबू का आज़ाद हिंद फौज का अभियान चल रहा था, तब हिन्दू महासभा, संघ और मुस्लिम लीग अंग्रेजों की सरपरस्ती में साझी सरकार चला रहे थे।

वर्ष 1940 तक आते आते, जिस पवित्र राष्ट्रवाद के आधार पर एक आज़ाद भारत के लिये एक स्वाधीनता संग्राम चल रहा था। वह धर्म पर आधारित देश के लिये अलग अलग खानों में बंट गया और दुर्भाग्य से देश के साझे दुश्मन ब्रिटिश न हो कर, हिन्दू और मुस्लिम हो गए। 1937 में हिन्दू एक राष्ट्र है और 1940 में मुस्लिम एक राष्ट्र है, की अवधारणा ने जन्म ले लिया और भारत एक राष्ट्र है, की अवधारणा पीछे हो गयी। इस प्रकार, धर्म पर आधारित द्विराष्ट्रवाद का जन्म हुआ और भारत दो भागों में बंट गया। जिन्ना और मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान तो पा लिया, पर हिन्दू महासभा और सावरकर जो हिन्दू राष्ट्र के स्वयंभू प्रणेता थे, उनको उनका इच्छित नहीं मिल सका। क्योंकि शेष भारत तो उन्ही मूल्यों के साथ मजबूती से खड़ा रहा, जो मूल्य हज़ारों साल से भारत की अस्मिता और भारत की पहचान बने हुए हैं। वह मूल्य थे सर्वधर्म समभाव के और बहुलतावाद के। संघ की मानसिकता ही बहुलतावाद के विपरीत रही है।

1947 में मिली आज़ादी के प्रति आरएसएस का दृष्टिकोण अलग था। उन्होंने इसे आज़ादी के रूप में नहीं देखा। वे यह तो चाहते थे कि देश धर्म के आधार पर न बंटे, अखंड बना रहे, और अगर बंटे भी तो भारत एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में आज़ाद हो जैसा कि पाकिस्तान एक इस्लामी मुल्क के रूप में अलग हो गया था।  आज भी संघ की विचारधारा से प्रशिक्षित मित्र यह मासूम सवाल करते हैं, कि जब मुस्लिमों के लिये धर्म के आधार पर एक अलग देश, पाकिस्तान बना है। तो भारत केवल हिंदुओ के लिये ही क्यों नहीं बनाया गया। संकीर्णता के साथ अगर यह तर्क सुनियेगा तो लगेगा यह एक वाजिब सवाल है। पर जब भारतीय, इतिहास, वांग्मय, दर्शन, परंपरा और सांस्कृतिक प्रवाह में पैठियेगा तो यही तर्क एक खोखला और आधारहीन लगने लगेगा।
यह सवाल उठाने वाले मित्र यह भूल जाते हैं, कि भारत की आज़ादी के संघर्ष में सम्मिलित सभी दल, चाहे वह कांग्रेस हो, या समाजवादी, या कम्युनिस्ट या क्रांतिकारी आंदोलन के जाबांज युवक, ये सभी धर्म आधारित राष्ट्र के लिये नहीं बल्कि ब्रिटिश ग़ुलामी के विरुद्ध लड़ रहे थे। भगत सिंह और उनके साथियों का तो उद्देश्य ही अलग था। वे उपनिवेशवाद के खिलाफ थे और एक समाजवादी शोषण विहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। इन तमाम संघर्षों के बीच, आरएसएस, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग जब 1940 के बाद स्वाधीनता के लिये निर्णायक संघर्ष शुरू हुआ तो आज़ादी के आंदोलन से न केवल बाहर और खिलाफ थे, बल्कि अंग्रेजों के साथ थे और कुछ तो उनके मुखबिर भी थे। ऐसा भी नहीं कि वे केवल महात्मा गांधी औऱ नेहरू के ही खिलाफ थे, बल्कि वे सुभाष बाबू के भी खिलाफ थे, पटेल के भी और भगत सिंह की विचारधारा के खिलाफ तो थे ही।

1947 में आज़ादी के बाद संविधान बना। 1935 के अधिनियम के अनुसार गठित असेंबली ही संविधान सभा मे बदल गयी। पहले सच्चिदानंद सिन्हा, इस संविधान सभा के अध्यक्ष बने। बाद में इस पद पर डॉ राजेंद्र प्रसाद आसीन हुये। संविधान ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष डॉ बीआर अंबेडकर बने और इस प्रकार दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे विशाल संविधान जो लगभग 400 अनुच्छेदों का है, बना। संविधान सभा मे ऐसा भी नही था कि, सभी सदस्य कांग्रेस के ही थे, बल्कि विभिन्न विचारधारा से आये हुए लोग थे। डॉ आंबेडकर तो स्वाधीनता संग्राम से भी जुड़े नहीं थे, बल्कि वे तो ब्रिटिश राज के ही एक अंग थे। पर जब उन्हें यह दायित्व देने की बात आयी तो, उनकी प्रतिभा और मेधा को देखा गया न कि उनकी पृष्ठभूमि को। सभी सदस्य तमाम मतभेदों के बावजूद इस बात पर एकमत थे कि देश का संविधान, पंथ निरपेक्ष और उदार संसदीय लोकतंत्र के प्रति समर्पित होगा। हालांकि, संविधान के 42 वें संशोधन में, दो शब्द, समाजवादी और पंथ निरपेक्ष ( सेकुलर ) बाद में जोड़े गए हैं, जो मूल प्रस्तावना में नहीं हैं, लेकिन इसके बावजूद मूल संविधान की आत्मा पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत पर ही आधारित है।

एनएस गोलवलकर का यह उद्धरण पढें, जो उन्होंने वर्ष 1949 में आरएसएस प्रमुख के रूप में, अपने एक भाषण में कहा था। वे कहते हैं
“संविधान बनाते समय अपने ‘स्वत्व’ को, अपने हिंदूपन को विस्मृत कर दिया गया। उस कारण एक सूत्रता की वृत्तीर्ण रहने से देश में विच्छेद उत्पन्न करने वाला संविधान बनाया गया। हम में एकता का निर्माण करने वाली भावना कौन सी है, इसकी जानकारी नहीं होने से ही यह संविधान एक तत्व का पोषक नहीं बन सका। एक देश, एक राष्ट्र तथा एक ही राज्य की एकात्मक शासन रचना स्वीकार करनी होगी। एक ही संसद हो, एक ही मंत्रिमण्डल हो, जो देश की शासन सुविधा के अनुकूल विभागों में व्यवस्था कर सके।”
(गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-2, पृष्ठ 144)
यहां गोलवलकर संविधान को कोसते हैं। वे संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है। वे एक एकीकृत भारत चाहते हैं। पर वे यह ऐतिहासिक तथ्य भूल जाते हैं कि भारत मे एक ही सम्राट या राज्य कभी रहा ही नही है। एक ही धर्म सनातन धर्म रहते हुए भी इस धर्म की असंख्य शाखा प्रशाखा हैं और, और इस बहुजातीय, बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक भारत मे एक ही समाज की बात करना, देश की परंपरा और दीर्घ विरासत को नकार देना है। उनको वह संविधान पसंद है जो ‘मनुस्मृति’ में है। उन्हें इस बात से आपत्ति है कि भारत में अलग-अलग राज्य क्यों हैं ?

गोलवलकर ने 1940 में चेन्नई में आरएसएस के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए जो कहा था, अब उसे पढें,
“एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने कोने में प्रज्वलित कर रहा है।”
(गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-1, पृष्ठ 11)
गोलवलकर के सिद्धांत जनवाद विरोधी और हिटलरी तानाशाही को मानने वाले थे। राष्ट्रवाद का यह यूरोपीय संस्करण था जो मुसोलिनी और हिटलर की श्रेष्ठतावाद से प्रभावित ही नहीं कहीं कहीं उसकी अनुकृति भी लगता है। यह राष्ट्रवाद भारतीय स्वाधीनता संग्राम के राष्ट्रवाद से बिलकुल उलट है। यही कारण है कि केवल संघ, और हिन्दू महासभा के कुछ लोगो को छोड़कर राष्ट्रवाद की इस नेशन स्टेट वाली अवधारणा को किसी ने भी न तो स्वीकार किया और न ही इस बारे मे सावरकर के साथ खड़े दिखे।
भारत के संविधान में संघीय राज्य की कल्पना की गयी है । भारत एक संघ है। एक राज्य नहीं बल्कि राज्यों का एक समूह है। सभी राज्य अपने आंतरिक राज व्यवस्था और प्रशासन के लिये स्वशासित हैं और अपनी अपनी विधायिकाओं द्वारा जनता के प्रति उत्तरदायी हैं। कुछ अधिकार राज्यों के दायरे में हैं और कुछ अधिकार केंद्र सरकार के दायरे में है। इस संकल्पना के पीछे बहु संस्कृति, भाषा और मान्यताओं के सम्मान और अधिकार की धारणा का सिद्धांत है मगर आरएसएस को  विविधता की यह अवधारणा ही नापसंद है।

एमएस गोलवलकर की पुस्तक ‘विचार नवनीत’ में एक शासक अनुवर्त्तिता को लागू करने के लिए कहा गया है। अब इसे पढें,
“इस लक्ष्य की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी कदम यह होगा कि हम अपने देश के विधान से संघीय ढाँचे (फेडरल) की सम्पूर्ण चर्चा को सदैव के लिए समाप्त कर दें, एक राज्य के अर्थात भारत के अंतर्गत अनेक स्वायत्त अथवा अर्ध स्वायत्त राज्यों के अस्तित्व को मिटा दें तथा एक देश, एक राज्य, एक विधान मण्डल, एक कार्य पालिका घोषित करें। उसमें खंडात्मक, क्षेत्रीय, सांप्रदायिक, भाषाई अथवा अन्य प्रकार के गर्व के चिह्न को भी नहीं होना चाहिए। इन भावनाओं को हमारे एकत्व के सामंजस्य को विध्वंस करने का अवकाश नहीं मिलना चाहिए।”
(एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ -227)
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, “आज की संघात्मक (फेडरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण तथा पोषण करने वाली, एक राष्ट्र भाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटाकर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्मक शासन प्रस्थापित हो।”
(गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-3, पृष्ठ 128)
भाषा, क्षेत्र और संस्कृति की अनेकताओं को समाप्त कर संघ हर क्षेत्र में जिस “शुद्धता” की बात करता है वह एक ऐसी “शुद्धता” है जिसमें देश की बहु संस्कृति को फासीवादी, ब्राह्मणवादी, वर्चस्वकारी तानाशाही शुद्धता में बदलना है। इसके सिवा और क्या कारण हो सकता है कि वह तमाम सांस्कृतिक विविधता को मिटा देना चाहता है ? वह चाहता है कि जैसे संघ सोचता है वैसे ही लोग सोचें और बोलें। संघ लोगों के मस्तिष्क से उनके खुद के विवेक को हटाकर उन्हें मानसिक रूप से अपना गुलाम बनाना चाहता है।

किसी भी देश का ध्वज इतिहास और परंपराओं  से निर्धारित होता है। भारत का ध्वज भी इसका अपवाद नहीं है। हमारे राष्ट्रीय ध्वज, तिरंगे का भी एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। कांग्रेस के बेजवाड़ा अधिवेशन ( जो अब विजयवाड़ा है ) में,  आंध्र प्रदेश के एक युवक पिंगली वैंकैया ने एक झंडा बनाया और उसे गांधी जी को दिया। यह ध्वज दो रंगों का बना था। लाल और हरा रंग जो दो प्रमुख समुदायों अर्थात हिन्दू और मुस्लिम का प्रतिनिधित्वं करता है। गांधी जी ने सुझाव दिया कि भारत के शेष समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए इसमें एक सफेद पट्टी और राष्ट्र की प्रगति का संकेत देने के लिए एक चलता हुआ चरखा होना चाहिये। वर्ष 1931, तिरंगे के इतिहास में एक स्मरणीय वर्ष है। तिरंगे ध्वज को भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया और इसे राष्ट्र-ध्वज के रूप में मान्यता मिली।

यह ध्वज जो वर्तमान स्वरूप का पूर्वज है, केसरिया, सफेद और मध्य में गांधी जी के चलते हुए चरखे के साथ था। यह भी स्पष्ट रूप से बताया गया था कि इसका कोई साम्प्रदायिक महत्त्व नहीं था। 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने वर्तमान ध्वज को भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया। स्वतंत्रता मिलने के बाद इसके रंग और उनका महत्व बना रहा। केवल ध्वज में चलते हुए चरखे के स्थान पर सम्राट अशोक के चौबीस तीलियों वाले धर्म चक्र को स्थान दिया गया। इस प्रकार तिरंगा, स्वतंत्र भारत का ध्वज बना।
ध्वज एक प्रतीक के रूप में जनता के बलिदानों, संघर्षों और लक्ष्यों को प्रतिबिम्बित करता है। किसी मुल्क में ध्वज उस मुल्क की जनता का प्रतीक तभी बनता है जब उसके साथ जनता का संघर्ष और उसकी आकांक्षाएं शामिल हो। तिरंगे को साथ लिये लिये सीने पर गोलियां और सिर पर लाठी खाने के अनेक उदाहरण स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में बिखरे पड़े हैं। इस प्रकार संघर्षरत जनता अपने ध्वज को बदलती है और पुराने ध्वज जो शासक वर्गों के प्रतीक में बदल गए होते हैं उन्हें हटाती है। संघर्षरत जनता का अपना ध्वज चुनना एक बात है और प्रतीकों की राजनीति करना और इनके आधार पर लोगों को बाँटना दूसरी बात।

यह सच है कि आज़ादी के दौरान तिरंगा स्वीकार किया गया । लेकिन ध्वज के मुद्दे पर, आरएसएस अलग ही राग अलापता है। दूसरों से बात-बात पर देश-प्रेम, संविधान प्रेम और तिरंगा प्रेम का प्रमाण मांगने वाले संघ ने खुद क्या कभी तिरंगे झण्डे को अपनाया? जब आज़ादी की लड़ाई के दौरान 26 जनवरी 1930 को तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया तब आरएसएस प्रमुख डॉ. हेडगेवार ने एक आदेश पत्र जारी कर तमाम शाखाओं पर भगवा झंडा फहराने का निर्देश दिया।

आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी पत्र ऑर्गनाइज़र में 14 अगस्त 1947 वाले अंक में लिखा,
“वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगा थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा ना इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा और ना ही अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हो वह बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेह होगा।”
गोलवलकर ने अपने लेख में आगे कहा है,
“कौन कह सकता है कि यह एक शुद्ध तथा स्वस्थ राष्ट्रीय दृष्टिकोण है? यह तो केवल राजनीतिक, कामचलाऊ और तात्कालिक उपाय था। यह किसी राष्ट्रीय दृष्टिकोण अथवा राष्ट्रीय इतिहास तथा परंपरा पर आधारित किसी सत्य से प्रेरित नहीं था। वही ध्वज आज कुछ छोटे से परिवर्तनों के साथ राज्य ध्वज के रूप में अपना लिया गया है। हमारा राष्ट्र एक प्राचीन तथा महान राष्ट्र है जिसका गौरवशाली इतिहास है। तब क्या हमारा कोई अपना ध्वज नहीं था? क्या सहस्त्र वर्षों में हमारा कोई राष्ट्रीय चिन्ह नहीं था? निःसन्देह, वह था। तब हमारे दिमाग में यह शून्यतापूर्ण रिक्तता क्यों?”
(एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ- 237)

दरअसल आरएसएस महाराष्ट्रीय ब्राह्मण शासक पेशवाओं के भगवा झंडे को भारत का राष्ट्रध्वज बनाना चाहता है। गोलवलकर ने इस बारे में कहा,
“हमारी महान संस्कृति का परिपूर्ण परिचय देने वाला प्रतीक स्वरूप हमारा भगवा ध्वज है जो हमारे लिए परमेश्वर स्वरूप है। इसलिए इसी परम वंदनीय ध्वज को हमने अपने गुरुस्थान में रखना उचित समझा है। यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि अंत में इसी ध्वज के समक्ष सारा राष्ट्र नतमस्तक होगा।”
(गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’,भारतीय विचार साधना, नागपुर, खंड-1, पृष्ठ 98)
संघ संविधान से अपनी असहमतियां तार्किक आधार पर नहीं रखता है क्योंकि तर्क से तो संघ का छत्तीस का आँकड़ा है। अतार्किकता के बल पर ही उसने नफरत का धंधा खड़ा किया है। संघ के संविधान विरोध का आधार उसका झूठा प्राचीनता का बहाना है जिसके अनुसार प्राचीन काल में ‘स्वर्ण युग’ था जबकि ऐतिहासिक सत्यता इस बात को कहीं भी प्रमाणित नहीं करते हैं। जब से संविधान लागू हुआ तब से आरएसएस के प्रमुख नेताओं ने उसका विरोध ही किया है। एक तरफ संघ अतार्किक रूप से संविधान को अप्रश्नेय और पवित्र-पूज्य बनाने की मनोवृत्ति का प्रचार करता है। दूसरी तरफ उसके नेताओं के मन में एक तानाशाही पूर्ण व्यवस्था का सपना है जहां जनवाद, आधुनिक मूल्यों और समानता जैसे विचार हैं ही नहीं।

हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाया जाता है। हम संविधान को, उसने जो अधिकार हमे दिये हैं, उन्हें, एक अच्छे नागरिक के रूप में संविधान जो हम नागरिकों से अपेक्षा करता है उस उम्मीद को हर साल याद करते हैं। संविधान भले ही 26 नवंबर 1949 को स्वीकार किया गया हो, पड़ वह लागू 26 जनवरी 1950 से हुआ। संसार मे कुछ भी पूर्ण नही है और न ही कोई विकल्पहीन है। संविधान भी अपवाद नहीं है। वह भी अंतिम नहीं है। समय के अनुसार उसमे  भी संशोधन हुये हैं और आगे भी होते रहेंगे। संविधान में सत्तर सालों में सौ से अधिक संशोधन किये गए हैं। पहले संविधान, संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार मानता था, अब यह अधिकार नहीं रहा। समय और सरकार की विचारधारा के साथ साथ संविधान बदलता रहता है। पर संविधान का मूल ढांचा यानी, संसदीय प्रणाली, लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता, मौलिक अधिकार, संघीय स्वरूप आदि में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है और यह अधिकार संसद जिसकी सर्वोच्चता निर्विवाद है, के पास भी नहीं है।

© विजय शंकर सिंह