Tuesday, 31 May 2022

प्रवीण झा / रोम का इतिहास - तीन (4)

यहूदी यूँ तो शांत प्रवृत्ति के लोग थे, लेकिन उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएँ थी। उनके दो फाँक थे। पहले कहलाते सदुसी, जो ग्रीको-रोमन संस्कृति में घुल-मिल रहे थे। दूसरे कहलाते फारिसी, जो इस मिलावट के विरोधी थे, शुद्धतावादी थे। यीशु मसीह और उनके अनुयायियों को जो सजा मिली, वह फारिसी गुट से मिली, क्योंकि उनके अनुसार यीशु लोगों को धर्म से भटका रहे थे। वहीं, रोम में आग लगने के बाद जो सजाएँ मिली, वह फारिसी यहूदियों को मिली क्योंकि वे रोम-विरोधी थे।

रोम में लगी आग के बाद सदियों से शांत पड़े यहूदी अचानक आक्रामक हो गए। इसके कारण समझने के लिए यहूदियों के इतिहास और मिथक में कुछ पीछे लौटता हूँ। 

‘ओल्ड टेस्टामेंट’ के अनुसार राजा सोलोमन ने जेरूसलम की पवित्र भूमि में एक मंदिर (first temple) बनाया था। अंदाज़ लगाया जाता है कि यह ईसा से हज़ार वर्ष पुरानी बात है। ईसा से लगभग छह सदी पूर्व बेबीलोन के राजा नबूनज्जर ने यह मंदिर लूट कर इसका नाश कर दिया। सभी यहूदियों को गुलाम बना कर वह बेबिलोन ले गए।

कुछ यहूदियों ने बेबिलोन से भाग कर पुन: जेरूसलम की पहाड़ी पर एक मंदिर (second temple) स्थापित किया। कालांतर में यहूदी धीरे-धीरे अपनी पितृ-भूमि लौटे, और राजा हिरोड के समय इस मंदिर को भव्य बनाया गया।  यह पूरा यूदाया प्रांत (फ़िलिस्तीन) यूनानियों और रोमनों के समय यहूदी-बहुल रहा। लेकिन, इनके पास सैन्य-शक्ति नहीं थी। ये शासकों से समन्वय बना कर, ज़रूरत पड़ी तो रिश्वत देकर, अपनी जगह सुरक्षित रखते।

इनका एक धार्मिक न्यायालय ‘सन्हेद्रिन’ था, जो इनके निजी मामलों को सुलझाता। यीशु को भी सजा इन्होंने ही दी। इनके धार्मिक निर्णयों में अमूमन रोमन प्रशासन हस्तक्षेप नहीं करते। इसके बदले वे अपने मंदिर (सिनागॉग) में रोमन राजा की वंदना करते, और रोमन राज्यपालों (गवर्नर) को खुश रखते।

लेकिन, रोम में लगी आग के बाद यहूदियों का रुख बदलने लगा। उन्हें यह आभास हुआ कि रोम की सत्ता अब खत्म होने वाली है। यह संभावना तो खैर है ही कि वाकई कुछ फारिसी यहूदियों ने षडयंत्र के तहत यह आग लगायी हो। अब यहूदियों के सामूहिक रूप से भड़कने, और संगठित होकर लड़ने की बात थी, क्योंकि यहाँ वे कमजोर थे। सदियों सर झुका कर जिए, अब क्या लड़ते? फिर भी, धर्म को लेकर कट्टर तो थे ही। 

66 ई. में यूदाया प्रांत के सीजेरिया स्थान पर कुछ यूनानियों ने यहूदी सिनागॉग के बाहर चिड़ियों की बलि देनी शुरू की। यहूदी भड़क गए कि यह बदमाशी जान-बूझ कर की जा रही है। उनके पवित्र स्थल में पाप किया जा रहा है। उस समय यूदाया के रोमन गवर्नर फ्लोरस से उनकी नाराज़गी चल रही थी, क्योंकि उन्होंने यहूदियों पर कर बढ़ा दिए थे। सिनागॉग का ख़ज़ाना भी उन्होंने जब्त कर लिया था। 

यहूदियों के एक युवा धर्मगुरु इलीज़ार ने कहा, “जागो भाइयों! कब तक इन रोमनों की जी-हज़ूरी करते रहोगे। यह हमारी पवित्र भूमि है। निकाल बाहर करो इन अपवित्र लोगों को”

यहूदी पूरे प्रांत में दंगे करने लगे। रोमन राजाओं की वंदना की प्रथा बंद हो गयी। खुले-आम गवर्नर को ‘भिखारी’ कहते, और उनका भेष धारण कर कटोरा लेकर घूमते।

जब नीरो तक खबर पहुँची, तो क़िस्सा है कि वह हमेशा की तरह गा-बजा रहे थे। उन्होंने देखा कि जहाँ बाकी लोग वाह-वाही कर रहे हैं, उनके सिपहसलार वेस्पासियस खर्राटे मार रहे हैं। उन्होंने उनको उठा कर यूदाया भेज दिया कि अगर संगीत नहीं पसंद तो वहाँ जाकर दंगे संभालें।

वेस्पासियस और फ्लोरस ने मिल कर यहूदियों को सूली पर लटकाना शुरू किया। लेकिन, इससे यहूदी एकजुट ही होते गए, और रोमनों पर भारी पड़ते गए।

जब 68 ई. में नीरो ने आत्महत्या कर ली, तो रोम में कोई शासक नहीं बचा। उस एक साल के अंदर चार शासक आए। ज़ाहिर है कि एक-दूसरे को मार कर ही आए। आखिर वेस्पासियस को ही रोम संभालने लौटना पड़ा। उन्होंने अपने पुत्र टाइटस को यहूदी-विद्रोह की ज़िम्मेदारी सौंप दी।

70 ई. में टाइटस ने ऐसा कत्ल-ए-आम मचाया कि यहूदी लगभग पूरी तरह से साफ़ हो गए। उस ख़ौफ़नाक मंजर का वर्णन करने वाले जोसेफस के अनुसार ग्यारह लाख यहूदी मारे गए। उनका पवित्र मंदिर तोड़ दिया गया। पूरे यूदाया में एक यहूदी नहीं बचा। जो प्रवासी थे, उन्होंने ही थोड़ा-बहुत धर्म बचा कर रखा। उनमें भी कई अपनी पहचान छुपाने के लिए मूर्ति-पूजक बन गए।

यीशु के अनुयायियों ने इस घटना को ईश्वर का दंड माना, जो यीशु को सजा देने के कारण मिला। कई यहूदी चुपचाप इस नए पंथ से जुड़ गए। किताब (ओल्ड टेस्टामेंट) एक ही थी, और यीशु वाली बात उन्हें ठीक लग रही थी। उन्हें लगा कि वाकई यीशु ईश्वर के दूत थे, तभी उनकी अवहेलना से यह भीषण तबाही आयी। 

यूँ कहा जा सकता है कि इस घटना के बाद यहूदा के वंशज यहूदी और ईसा के अनुयायी ईसाई दो अलग-अलग धर्मों का रूप लेने लगे।
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सदुसी- Sadducee, फारिसी- Pharisee
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

रोम का इतिहास - तीन (3) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/05/3_30.html 
#vss

'खराब शब्दावली के भाषण से, आतंकवादी कृत्य नहीं बनता है।' / विजय शंकर सिंह

अमरावती में जेएनयू के छात्र नेता और एक्टिविस्ट उमर खालिद द्वारा दिए गए,  फरवरी 2020 के एक भाषण का जिक्र करते हुए, दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोमवार को कहा कि 
" भाषण, जो सुनने में भले ही खराब हो सकता है, लेकिन इससे कोई आतंकवादी कृत्य या अपराध नहीं बनता है।"
हाइकोर्ट के न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति रजनीश भटनागर की खंडपीठ, इस मामले में जमानत देने से इनकार करने वाले निचली अदालत के आदेश को चुनौती देने वाली, उमर खालिद की जमानत याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

पीठ ने कहा, 
"... कि भाषण खराब स्वाद (bad taste)  में है, तो भी इसे आतंकवादी कार्य नहीं कहा जा सकता है। हम इसे बहुत अच्छी तरह से समझते हैं। यदि अभियोजन पक्ष का मामला भाषण कितना आक्रामक था, इस पर आधारित है, तो यह स्वयं में कोई अपराध नहीं होगा। हम  उन्हें,  (अभियोजन को) अपनी बात कहने का अवसर देंगे।," 
न्यायमूर्ति मृदुल ने मौखिक रूप से इस प्रकार की टिप्पणी की।
उन्होंने कहा, 
"... यह आपत्तिजनक और अरुचिकर था। यह मानहानि, अन्य अपराधों के समान तो हो सकता है, लेकिन यह एक आतंकवादी गतिविधि के अपराध के समान नहीं है।"

उमर खालिद की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता त्रिदीप पेस ने 17 फरवरी, 2020 को उनके द्वारा दिए गए अमरावती भाषण के आरोप का हवाला देते हुए अपनी बात रखी। यह ध्यान दिया जा सकता है कि बेंच ने पहले कहा था कि 
"विचाराधीन भाषण अप्रिय, घृणित, आपत्तिजनक और प्रथम दृष्टया स्वीकार्य नहीं था।"
आज की सुनवाई में, एडवोकेट सान्या कुमार ने इस मामले में पेस की सहायता करते हुए, सिएरा, स्मिथ, इको, डेल्टा और गामा जैसे विभिन्न संरक्षित गवाहों के बयान पढ़े। यह दिखाने के लिए कि उनमें से किसी ने भी सीलमपुर की बैठक को गुप्त बैठक के रूप में नहीं कहा, जो कि अभियोजन पक्ष का आरोप है। अभियोजन पक्ष के आरोपों को खारिज करते हुए सान्या कुमार ने यह भी कहा कि 
"सह आरोपी नताशा नरवाल के कॉल डिटेल रिकॉर्ड से पता चलता है कि वह सीलमपुर में हुई मीटिंग की तारीख पर मौजूद नहीं थी।"
सान्या कुमार ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि 
"संरक्षित गवाहों सिएरा और स्मिथ द्वारा दिए गए बयान और उनके द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा, एक तरह से थे।"

सान्या कुमार ने कहा, कि, 
" स्मिथ, जिसका बयान मेरी (उमर खालिद की ) गिरफ्तारी से दो या तीन दिन पहले दर्ज किया गया था, वह एकमात्र गवाह है जो मेरे बारे में हथियारों के संग्रह में होने की बात करता है। जबकि, मुझसे कोई वसूली नहीं हुई है।"
सान्या कुमार ने यह भी तर्क दिया कि, 
"अन्य संरक्षित गवाह अर्थात् इको, जिन्होंने सीलमपुर की बैठक के साथ-साथ सीलमपुर में उमर खालिद के भाषण का भी उल्लेख किया ने धारा164 सीआरपीसी में दिए अपने बयान में ऐसा नहीं कहा जो उसने धारा 161 सीआरपीसी के अंतर्गत अपने बयान में कहा था।"
"तब वह (इको) कहते हैं, "पब्लिक को भड़काया"। लेकिन उन्होंने यह उल्लेख नहीं किया कि किस शब्द का इस्तेमाल किया गया था, क्या कहा गया था… ..अभियोजन यह भी मामला नहीं बना सका कि, उमर खालिद द्वारा दिए गए भाषण से, सीलमपुर में उत्तेजना फैल गई थी।" 
सान्या कुमार ने अन्य तथ्य प्रस्तुत किए।

इसके अतिरिक्त, सीलमपुर में कथित गुप्त बैठक के संबंध में उमर खालिद और सह आरोपी व्यक्तियों सहित अन्य व्यक्तियों की तस्वीर का जिक्र करते हुए, जिसे फेसबुक से हासिल किया गया था, पेस ने इस प्रकार तर्क दिया:
"यह एक तस्वीर है, उसके बाद एक और तस्वीर है। यह एक अभियोजन दस्तावेज और इसे अभियोजन एक षडयंत्रकारी बैठक बता रहा है। क्या कोई भी जो एक साजिश रचना चाहता है, एक सेल्फी ले लेगा और इसे फेसबुक पर डाल देगा?"
पेस ने आगे तर्क दिया कि 
" आक्षेपित आदेश का आधार, जिसमें विशेष न्यायाधीश ने खालिद को जमानत देने से इनकार किया था, स्वयं गलत था।"
"क्या अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि यह एक षडयंत्रकारी बैठक थी क्योंकि चार्जशीट ऐसा कहती है?…। क्या अदालत को व्यापक संभावनाओं को देखने और यह देखने की जरूरत नहीं है कि कैसे यह गुप्त साजिश बैठक थी। ... अदालत में अभियोजन ने कुछ भी खुलासा नहीं किया है।"
उमर खालिद के वकील पैस ने यह बात कही। 

उमर खालिद को शहर की कड़कड़डूमा कोर्ट ने 24 मार्च को जमानत देने से इनकार कर दिया था। उन्हे 13 सितंबर, 2020 को गिरफ्तार किया गया था और तब से वह हिरासत में है। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत का विचार था कि,
"उमर खालिद का कई आरोपी व्यक्तियों के साथ संपर्क था और दिसंबर 2019 में नागरिकता (संशोधन) विधेयक पारित होने से लेकर फरवरी 2020 के दंगों तक की अवधि के दौरान कई व्हाट्सएप समूहों में उसकी उपस्थिति थी। इसे समग्रता में पढ़ा जाना चाहिए, न कि, टुकड़ों टुकड़ों में।"
पेस द्वारा उठाए गए अन्य तर्क पर कि, उमर खालिद दंगों के समय दिल्ली में मौजूद नहीं थे, अदालत का विचार था कि एक साजिश के मामले में, यह आवश्यक नहीं है कि हर आरोपी मौके पर मौजूद हो।

इस प्रकार, चार्जशीट और साथ के दस्तावेजों को देखते हुए, अदालत की राय थी कि उमर खालिद के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सही थे और इसलिए यूएपीए की धारा 43 डी के तहत जमानत देने पर रोक लगाई गई थी। कोर्ट ने कहा कि साजिश की शुरुआत से लेकर दंगों तक उमर खालिद का नाम बार-बार आता है।  वह जेएनयू के छात्रों के व्हाट्सएप ग्रुप के सदस्य थे।  उन्होंने विभिन्न बैठकों में भाग लिया।  उन्होंने अपने अमरावती भाषण में डोनाल्ड ट्रम्प का संदर्भ दिया।  जेसीसी के निर्माण में उनका महत्वपूर्ण योगदान था।  दंगों के बाद हुई कॉल रिकॉर्ड में उनका उल्लेख किया गया था।कोर्ट ने कहा कि,
"लक्ष्य मिश्रित आबादी वाले क्षेत्रों में सड़कों को अवरुद्ध करना और वहां रहने वाले नागरिकों के प्रवेश और निकास को पूरी तरह से रोकना और फिर महिला प्रदर्शनकारियों द्वारा पुलिस कर्मियों पर हमला करने के लिए अन्य आम लोगों द्वारा पीछा किए जाने और घेरने के लिए आतंक पैदा करना था।  एक दंगे में क्षेत्र और इसे यूएपीए की धारा 15 के तहत आतंकवादी अधिनियम की परिभाषा के तहत कवर किया जाएगा।"

मामले की सुनवाई अब 4 जुलाई को दोपहर 2:15 बजे होगी, जब पेस अपनी दलीलें पूरी करेंगे। यह लेख लाइव लॉ और बार एंड बेंच की रिपोर्ट पर आधारित है। 

(विजय शंकर सिंह)

Monday, 30 May 2022

सिध्दू मूसेवाला की सुरक्षा संबंधी फैसले का प्रचार करना, पंजाब सरकार का एक अनुचित कृत्य है / विजय शंकर सिंह

वीआईपी कल्चर के नाम पर विज्ञापन जारी करते हुए, पंजाबी के गायक और कोंग्रेस नेता, सिध्दू मुसेवाला की सुरक्षा हटाए जाने का प्रचार, पंजाब सरकार का एक गलत फैसला था। सुरक्षा देने या न देने, उसे वापस लेने या न लेने का निर्णय सरकार का होता है पर किसे सुरक्षा दी जाए, किसे न दी जाए, इसका आकलन न तो राजनीतिक गुणा भाग से तय होना चाहिए, और न ही सरकार की सनक से। हर राज्य में पुलिस का, इंटेलिजेंस विभाग होता है, जिसके अधीन सुरक्षा शाखा होती है, जो वीआईपी सुरक्षा का पर्यवेक्षण करती है। किसी किसी राज्य में सुरक्षा शाखा अलग से भी हो सकती है। I इंटेलिजेंस और सुरक्षा यह दोनो ही विभाग गोपनीय कार्य करते हैं और इनकी रिपोर्ट सरकार को सील्ड कवर में या इनके प्रमुख, सूचना की गंभीरता के अनुसार, निजी तौर पर सरकार के सचिव या मुख्यमंत्री से मिल कर उस रिपोर्ट की अहमियत के बारे में अपनी बात रख देते हैं। 

सुरक्षा शाखा, जिसे सुरक्षा देनी होती है उसके जीवन भय का एक मूल्यांकन करती है और फिर उस थ्रेट परसेपशन के आधार पर सुरक्षा की विभिन्न श्रेणी X, Y या Z तय करते हैं। पर यह इतनी आसानी से और नियमानुकूल होता भी नहीं है। सरकार के स्तर से भी यह बता दिया जाता है कि अमुक की सुरक्षा करनी है और उसे गनर या श्रेणिगत सुरक्षा दे दी जाए। फिर इस निर्देश का पालन होता ही है। सरकार पर भी सुरक्षा और गनर के लिए बहुत दबाव रहता है, और राजनीतिक होने के नाते ऐसे दबावों से उनके निर्णय प्रभावित होते भी हैं। इसका कारण है, गनर रखना एक प्रकार का महत्व दिखाना भी होता है और कभी कभी यह सुरक्षा का कम, भौकाल का विंदु अधिक हो जाता है। 

अब आते हैं, पंजाब के सिध्दू मूसेवाला की हत्या पर। पंजाब पुलिस ने इस संबंध में कुछ प्रगति की है और उम्मीद है कि हत्या का कारण, षडयंत्र और हत्यारे मय सुबूतों के पकड़े जाएंगे और इस दुःखद अपराध का सच सामने आ सकेगा। एक बात कही जा रही है कि यह गैंग वार का परिणाम है। क्या सिध्दू मूसेवाला का भी कोई गैंग था कि वह किसी प्रतिद्वंदी गैंग के निशाने पर था। या मूसेवाला, खुद ही किसी गैंग के निशाने पर थे जो उनसे रंगदारी वसूलना चाहते थे। यदि वह किसी गैंग के निशाने पर थे तो अचानक उनकी सुरक्षा क्यों कर दी गई? क्या उनको, उनपर होने वाले थ्रेट परसेपशन से, उन्हे आगाह किया गया था कि अब जीवन भय का खतरा कम हो गया है, इसलिए सुरक्षा कम की जा रही है ? यह सब सवाल निश्चय ही, इस हत्या की तफतीश में उठेंगे और हो सकता है उठ भी रहे हों। पंजाब में ड्रग माफिया का लम्बा चौड़ा जाल है और ड्रग अपराध, सभी संगठित अपराधो को जन्म देते हैं। हो सकता है, यह भी अपराध का एक एंगल हो। 

सरकार द्वारा जनहित की योजनाओं का प्रचार प्रसार, करने, विज्ञापन देने आदि पर कोई आपत्ति नहीं है क्यों कि यह सरकार का दायित्व है कि, वह लोगों को जागरूक करे और उनके हित की योजनाएं बताए। पर इधर हर सरकारी कार्य को उपलब्धि के रूप में बता कर दिखाने का जो एक नया चलन शुरू हो गया हैं उसमे सरकार एक प्रचार या पीआर एजेंसी बन कर रह गई है। मूसेवाला की सुरक्षा संबंधित निर्णय उचित था या अनुचित यह तो बाद में तय होगा, लेकिन उसका सार्वजनिक रूप से प्रचार करने और उसे एक उपलब्धि के रूप में दिखाने का सरकार का फैसला न केवल अनुचित था बल्कि यह एक प्रकार की गोपनीयता को भंग करना भी है। इंटेलिजेंस और सुरक्षा से जुड़ी सूचनाएं आरटीआई के अंतर्गत भी नहीं दी जाती हैं क्यों कि, इनके सार्वजनिक होने से अनेक समस्याएं उठ खड़ी हो सकती हैं। पुलिस या कानून व्यवस्था का मामला सनक, राजनीतिक द्वेष या जिद से नहीं हल होता है। इसे प्रोफेशनल तरीके से ही निपटाया जा सकता है और प्रोफेशनल तरीके से ही निपटाया जाना चाहिए।

(विजय शंकर सिंह)

डायर्मेड मक्कलक / ईसाइयत का इतिहास - अ हिस्ट्री ऑफ़ क्रिश्चियनिटी ( 8 )

आगे बढ़ने के पहले उस समय के पैलेस्टीन से पुनर्परिचय कर लेना उचित होगा. पैलेस्टीन का भूखंड भूमध्य सागर के पूर्वी-दक्षिणी तट पर था. इसके प्रमुख क्षेत्र पश्चिम में सागर और पूर्व में जॉर्डन नदी से घिरे थे. जॉर्डन नदी उत्तर से दक्षिण दिशा में बहती है. माउंट हर्मन (~2800 मीटर) से निकल कर यह गलीली सागर से उसके उत्तरी सिरे पर मिलती है फिर दक्षिणी सिरे से निकल कर मृत सागर (समुद्र तल से 420 मीटर नीचे) में मिलजाती है. ईराक से आते यहूदियों को अपनी प्रतिश्रुत भूमि (प्रॉमिस्ड लैंड) तक पहुँचने के लिए जॉर्डन नदी पार करना पड़ा था. उनके प्रमुख क्षेत्र नदी के पश्चिम में स्थित थे. पैलेस्टीन उस काल में चार क्षेत्रों में बँटा था - (उत्तर से) गलीली, समारिया, जूडेआ, और इडोमेआ (एडोम). ईसा का परिवार गलीली क्षेत्र का था.

ईसा के जन्म के वर्ष पर मतैक्य नहीं है.  जूलियस अफ्रीकानस (160-240 ई.) उस काल के एक विद्वान् थे जो बाद में चर्च के इतिहास के संभवतः पहले अध्येता भी हुए, जूलियस अपने समय में ईसाई बनने वाले पहले कुछ नामी व्यक्तियों में रहे. उन्होंने ही ईस्वी सन को लैटिन (तदनुसार अंग्रेजी भी ) में एडी (अन्नस डोमिनी - हमारे प्रभु का वर्ष) का नाम दिया. उनकी गणना से मसीहा का जन्म सृष्टि के पाँच हजार पाँच सौंवें वर्ष में हुआ था. बाद के इतिहासकारों ने जूलियस की गणना को बिना गुण-दोष परखे स्वीकार कर लिया. जूलियस का मानना था कि ईसा हेरोड के राज्य-काल के अंतिम वर्ष में जन्मे थे, जैसा ल्यूक और मैथ्यू के सुसमाचारों में लिखा है. वास्तव में हेरोड की मृत्यु 4 ई. में हुई थी.

ईसा के जन्म और शैशव को छोड़ कर हम वयस्क हो चुके ईसा को जानने और उनके द्वारा छेड़े जन-आंदोलन को समझने के प्रयास करते हैं. ईसा ने अपने उपदेशों में प्रभु को मानवता का पिता बताया है. ईसा के पहले, तनख़ में बस एक बार ईश्वर को पिता कहा गया है. न्यू टेस्टामेंट में जीसस हमेशा ईश्वर को पिता कहते देखे जाते हैं. 

ईसा ने ईश्वर के लिए सदा आरमाइक शब्द 'अब्बा' का प्रयोग किया था, जिसका यहूदी परम्परा में ईश्वर के लिए कभी प्रयोग नहीं हुआ था.

इस नवीनता को स्थापित रखने के लिए न्यू टेस्टामेंट के यूनानी अनुवाद में भी इस आरमाइक शब्द 'अब्बा' को बरकरार रखा गया था. मानवता का पिता ईश्वर है, यह जीसस के सन्देश का एक महत्वपूर्ण अंग था. इसे 'प्रभु की प्रार्थना' (द लॉर्ड्स प्रेयर) में भी देखा जाता है जो जीसस ने अपने शिष्यों को सिखाया था. लेकिन इस प्रार्थना के यूनानी अनुवाद में अब्बा की जगह यूनानी शब्द 'पाटेर' आ गया और शायद इसी के चलते अधिकांश ईसाइयों के लिए 'अब्बा' अपरिचित रह गया.

सुसमाचार (गॉस्पेल) ईसा के जन्म और शैशव के बाद के दो दशकों पर मौन हैं. ईसा की अगली चर्चा उनके सेवा-काल (मिनिस्ट्री) की है, जब वे जनता को उपदेश दे रहे होते हैं या रोगियों को चंगा करते दीखते हैं. 28-29 ई. में, ल्यूक के अनुसार, ईसा के रिश्ते के एक भाई जॉन द बैप्टिस्ट ने भी आम जनता को उपदेश देना शुरू किया था. इस के जल्द बाद ईसा उपदेश देते मिलते हैं. ल्यूक के अनुसार ईसा लगभग तीस के थे जब उन्होंने उपदेश देना शुरू किया था. 

यह उपदेश काल जॉन के सुसमाचार के अनुसार तीन वर्ष का था और शेष तीन सुसमाचारों के अनुसार एक वर्ष का.  उपदेश के क्षेत्र में, शायद जॉन (द बैप्टिस्ट) और ईसा एक सीमा तक प्रतिद्वंद्वी थे, क्योंकि चारो सुसमाचार इस बात पर काफी जोर देते हैं कि ईसा जॉन से अच्छे और अधिक प्रभावोत्पादक उपदेशक थे. मैथ्यू, ल्यूक और मार्क के अनुसार ईसा का उपदेश-काल मुख्यतः पैलेस्टीन के उत्तरी भाग गलीली में बीता था और अंत में वे दक्षिण की तरफ आए थे. जॉन के सुसमाचार में ईसा के जूडेआ में उपदेश देने की बात है.

ईसा अपने उपदेशों में कैसे शब्दों का व्यवहार करते थे इस पर चारो सुसमाचार एक मत नहीं हैं. मैथ्यू, ल्यूक और मार्क के सुसमाचारों में कुछ समानाताएं हैं जो प्रायः जॉन के लिखे में नहीं मिलतीं. चारो सुसमाचार पहली सदी ई. के लिखे हैं लेकिन जॉन ने शायद शेष तीनो के एकाध दशक बाद लिखा. मैथ्यू, ल्यूक और मार्क के सुसमाचारों को एक साथ सिनॉप्टिक गॉस्पेल्स कहा जाता है. सिनॉप्टिक गॉस्पेल्स में ईसा ने कभी अपने को ईश्वर का पुत्र नहीं बताया है. जॉन के सुसमाचार में उन्हें ऐसा बोलते दिखाया गया है. 

ईसा ने "मनुष्य का पुत्र" का कई बार प्रयोग किया है. जैसे, एक बार सबात (यहूदी सप्ताहांत) पर बोलते हुए ईसा ने कहा था सबात मनुष्य के लिए बना है न कि मनुष्य सबात के लिए, इस लिए मनुष्य का पुत्र सबात का भी स्वामी है.

कई बार ईसा अपने उपदेश का प्रारम्भ "आमेन" से करते थे, जैसे "आमेन, मैं तुमसे कहता हूँ ..".  हिब्रू लेखन में ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया था. संवाद के आरम्भ में आते इस आमेन को इतना महत्वपूर्ण समझा गया था कि यूनानी अनुवादों में भी इसे यथावत रहने दिया गया. सोलहवीं या सत्रहवीं सदी से इंग्लैंड में इस आमेन के लिए "वेरिली" (अर्थ: वस्तुतः) लिखा जाने लगा.

ईसा के प्रवचन में ताने, विडम्बना या परिहास को जगह मिली थी या नहीं इस पर पक्के तौर पर कुछ कहना कठिन है. हास या कभी कभी व्यंज्ञोक्ति भी उन छोटी कहानियों में देखने को मिल जाती हैं जिन्हे हम आज पैरेबल कहते हैं. यहूदी परम्परा में पैरेबल जैसी कोई चीज नहीं होती थी. ईसा के बाद हिब्रू साहित्य में पैरेबल एक साहत्यिक विधा के रूप में स्थापित होगया. क्या उपदेश का यह रूप इतना प्रभावी था कि वे यहूदी भी, जो ईसा के अनुगामी नहीं बने थे, उनकी इस शैली से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके?

जीसस के पैरेबल बहुत असरदार होते होंगे क्योंकि उसमे सामयिक समाज की ऐसी कहानियाँ रहतीं थीं जिनसे उनके श्रोता भली भाँति परिचित रहते थे. उदाहरण के लिए अलेक्सेंड्रिआ में बसे यहूदी समाज में एक धनी और एक निर्धन की अंत्येष्टि / शवयात्रा की एक प्रचलित कहानी को जीसस के द्वारा कुछ विशेष बातों पर जोर देते हुए दो विभिन्न पैरेबल में कहा गया है. उनके पैरेबल, प्रायः, आने वाले 'ईश्वर के राज्य' की ओर इशारा करते थे. और कैसे लोगों को उसके लिए तैयार रहना चाहिए. 

एक पैरेबल में, गृहस्वामी की अनुपस्थिति में उसके घर में चोरी हो गयी. जीसस ने कहा, यदि गृहस्वामी को पहले से पता रहता कि चोर किस समय आने वाले हैं तब उस समय वह अनुपस्थित नहीं रहता. तात्पर्य यह कि ईश्वर का राज्य आने वाला है, हम सबों को इस बात की सूचना (जीसस से) मिल गयी है अब हमारा दायित्व है कि हम उसके लिए तैयार रहें. यह कुछ अजीब लगता है कि ईश्वर के राज्य के आने की तुलना यहाँ चौर कर्म से हो गयी है.

आने वाले दिनों में, ईश्वर के राज्य में, सब कुछ बदल जाएगा इस आशय की कई कहानियों का संग्रह मैथ्यू में मिलता है - सरमन ऑन द माउंट शीर्षक में. ल्यूक ने अपने सुसमाचार में एक छोटा संग्रह रखा है और उन्होंने ईसा को पर्वत पर बोलते हुए नहीं दिखा आकर मैदानों में बोलते दिखाया है. ईसाइयों में मैथ्यू का वर्णन अधिक लोकप्रिय है. (गांधी जी के चलते अनेक गैर ईसाई भारतीय भी मैथ्यू के सरमन ऑन द माउंट से पूरी तरह अपरिचित न होंगे.)

सरमन ऑन द माउंट का मुख्य बिंदु है निःश्रेयस या स्वर्गसुख (बीऐटटूड). संक्षेप में, इस दुनिया के दुखी ईश्वर के राज्य में दुखी नहीं रहेंगे - जो निर्धन हैं, भूखे हैं, रो रहे हैं या जिन्हे सभी घृणा की दृष्टि से देखते हैं उन सबों के भाग्य ठीक विपरीत रूप ले लेंगे. सरमन ऑन द माउंट की यह बात चर्च के साथ सदियों से चिपकी रही है. कभी तो चर्च के ऊँचे पदाधिकारियों के समृद्ध और भव्य जीवन को देख कर यह बात याद आ जाती है, कभी यही बात दरिद्र लोगों को अपना जीवन जी पाने का सहारा बन जाती है और कभी इस से प्रभावित हो चर्च से सम्बंधित अनेक व्यक्ति आजन्म दरिद्रता की शपथ भी लेते दीखते हैं. 'ईश्वर का राज्य' वस्तुतः ईसा के सबसे महत्वपूर्ण संदेशों में रहा है. 

इस ईश्वर के राज्य का उल्लेख प्रभु की प्रार्थना (द लॉर्ड्स प्रेयर) में भी मिलता है - 'दाई किंगडम कम'. कहते हैं, ईश्वर का राज्य आने पर अपने विश्वास के चलते ही ईसा यहूदियों के (मूसा के दिए) नियमों की अवहेलना कर देते थे: ईश्वर का राज्य आएगा और तब नए नियम भी आएँगे. 

ईसाई चर्च के प्रारम्भिक वर्षों में एक बहुत महत्वपूर्ण विषय रहा था, ईश्वर का राज्य कब आएगा?
(समाप्त) 

~ सचिदानंद सिंह Sachidanand Singh की टाइमलाइन से। 

ईसाइयत का इतिहास (7) 
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डायर्मेड मक्कलक / ईसाइयत का इतिहास - अ हिस्ट्री ऑफ़ क्रिश्चियनिटी (7)

अब हम लोग बेथलहम आते हैं. जहाँ कहा जाता है, जोशुआ का जन्म एक अस्तबल में हुआ था क्योंकि सराय में जगह नहीं थी. जोशुआ के जन्म, उनकी मृत्यु और क्राइस्ट के पुर्नोत्थान (रेज़रेक्शन) के वर्णन हमें उनके चार प्रमुख शिष्यों, मैथ्यू, ल्यूक, जॉन और पॉल,के लिखे वृतांतों से मिलते हैं. ये वृत्तांत गॉस्पेल कहलाते हैं. इस शब्द का मूल भी यूनानी भाषा में है 'एवंजेलिओन', जिसका अर्थ है अच्छी खबर. लैटिन विद्वानों ने इसे लगभग हू-ब-हू अपनाकर 'एवंजेलियम' कह दिया. इंग्लैंड के ऐंग्लो-सैक्सन अध्येताओं ने यूनानी शब्द के अर्थ पर एक अंग्रेजी शब्द गढ़ा, 'गॉडस्पेल' और वापस मौलिक अर्थ पर आ गए. यही गॉडस्पेल कालांतर में गॉस्पेल बना और हिंदी में इसे 'सुसमाचार' कहने लगे जो यूनानी मूल का शाब्दिक अर्थ है.

ऊपर लिखे चार सुसमाचारों में बस दो, मैथ्यू और ल्यूक, में जीसस के बेतलहम के अस्तबल में, हेरोड के शासन काल के अंतिम दिनों में जन्म लेने का प्रसंग आया है. लेकिन चारो सुसमाचारों को ध्यान से पढ़ने पर यह पूरी तरह स्थापित नहीं होता. जॉन का सुसमाचार कहता है, जीसस के वयस्क होने पर जब कुछ यहूदी उन्हें मसीहा बताने लगे थे, तब बहुतों ने इस पर यह कहते हुए आपत्ति की थी कि पैगम्बर (प्रॉफ़ेट) मिकाह के अनुसार यहूदियों के मसीहा को बेतलहम में आना था लेकिन जीसस बेतलहम क्या जूडेआ के भी नहीं थे, वे उत्तर में स्थित गलीली के थे. 

ध्यातव्य है कि चारो सुसमाचार, वे दो भी जो कहते हैं कि जीसस का जन्म बेतलहम में हुआ है, बताते हैं कि वे गलीली क्षेत्र के एक गाँव नज़रेथ के रहने वाले थे. मैथ्यू और ल्यूक में आये जन्म के प्रसंग को छोड़कर कहीं कोई संदर्भ नहीं मिलता कि जीसस बेतलहम के थे, जैसा मिकाह के अनुसार मसीहा को होना था.

ल्यूक के सुसमाचार में जीसस के जन्म के अधिक विस्तृत विवरण हैं. इसके अनुसार जीसस के माता पिता को एक रोमन आदेश का पालन करने क्रम में उन दिनों, जीसस के जन्म के ठीक पहले, नज़रेथ से बेतलहम जाना पड़ गया था. ल्यूक कहते हैं, रोमन एक एक कर-सम्बंधित जनगणना करा रहे थे और चूंकि जीसस के पिता जोसेफ़ यहूदियों के दूसरे राजा डेविड के वंशज थे, इसलिए उन्हें बेतलहम जाने का फरमान मिला था. इसके समर्थन में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलते. 

पहली बात तो यह कि जूडेआ कोई रोमन प्रांत नहीं था, वह एक मांडलिक राजा हेरोड का राज्य था. दूसरी, यदि उस समय ऐसी जनगणना हुई होती तो उसके प्रमाण पूरे भूमध्य क्षेत्र में छितराए मिलते. ऐसी जनगणना वास्तव में हुई थी, लेकिन 6 ई. में और उसके पर्याप्त ऐतिहासिक प्रमाण भी मिलते हैं. तब अधिक संभावना यह है कि ल्यूक से, जो घटना की आधी सदी के बाद अपना सुसमाचार लिख रहे थे, भूल हुई. और तब लगता है, शायद, जीसस का जन्म बेतलहम में नहीं हुआ हो.

एक स्वाभाविक प्रश्न है, यदि जीसस का जन्म बेतलहम में नहीं हुआ था तो दो सुसमाचारों में ऐसा लिखने की क्या जरूरत थी. एक कारण यह यह हो सकता है कि इस तरह मसीहा के बारे में मिकाह की भविष्यवाणी जीसस पर लागू हो सके. ईसाई विश्वास यह भी है कि बेतलहम में जीसस के जन्म का बहुत अधिक, सृष्ट्यात्मक  प्राय महत्व है. 

बेतलहम में जन्म की बात करने के बाद मैथ्यू और ल्यूक के सुसमाचारों में कुछ भिन्नताएं आती हैं. मैथ्यू कहते हैं कि ईश्वरीय सन्देश पाकर हत्यारे राजा हेरोड से शिशु जीसस को सुरक्षित रखने के लिए तीनो, जोसेफ़, मेरी और जीसस, मिश्र चले गए थे और तब तक वहीँ रहे जब तक हेरोड की मृत्यु नहीं हो गयी और उन्हें वापस पैलेस्टीन लौटने के ईश्वरीय सन्देश नहीं मिले. यह भी एक पुरानी यहूदी भविष्यवाणी - मैं अपने पुत्र को मिश्र से बुलाऊंगा - को पूरी करती बात दीख रही है. 

यह प्रसंग ल्यूक में नहीं है. मैथ्यू और ल्यूक दोनों जोसेफ़ के पूर्वजों के नाम गिनाते हैं. डेविड के नाम दोनों ने गिनाएं हैं किन्तु दोनों सुसमाचारों में वर्णित वंशावलियों में बहुत भिन्नताऐं है.

जीसस के जन्म से सम्बंधित एक महत्वपूर्ण बात है मेरी के कौमार्य की. इसके मूल में मैथ्यू के सुसमाचार में उद्धृत, पहले यहूदी प्रॉफ़ेट यशायाह के कथन का यूनानी अनुवाद जो यूनानी बाइबिल सेप्टुअजिंट (देखें अ हिस्ट्री ऑफ़ क्रिश्चियनिटी 5) से लिया गया है: "देखना, एक कुमारी गर्भवती होगी और एक बेटे को जन्म देगी जिसका नाम होगा एमैनुएल". 

तनख में संकलित हिब्रू रूप में यशायाह 'एक युवती' के गर्भवती होने और बेटे को जन्म देने की बात करते हैं. सेप्टुअजिंट में हिब्रू 'युवती' के लिए यूनानी 'कुमारी' (पार्थेनॉस) का प्रयोग किया गया है और शायद यहीं से यह ईसाई विश्वास पनपा कि मेरी कुंवारी थीं. ईसाई विश्वास यह भी है कि मेरी आजन्म कुंवारी ही रहीं. किन्तु बाइबिल में जीसस के भाइयों और उनकी बहनों के स्पष्ट उल्लेख हैं (लेखक ने संदर्भ नहीं दिए हैं) और जीसस के वे भाई बहन पवित्र आत्मा (होली घोस्ट) से नहीं आ सकते इसलिए मेरी का आजन्म कौमार्य शायद कुछ भाष्यकारों द्वारा बनाया एक मिथक है.

(नोट: ऊपर अनेक बातें ऐसी हैं जिन पर श्रद्धालु ईसाइयों को घोर आपत्ति हो सकती है. उनसे क्षमा मांगते हुए कहना है कि इन बातों पर अपना मंतव्य देने का मुझे कोई अधिकार नहीं है. मैं बस इस पुस्तक का सार संक्षेप हिंदी में लिख रहा हूँ. दूसरी बात, आज इसे पढ़ कर मैं बहुत देर तक उधेड़बन में रहा कि इसे लिखूं या छोड़ दूँ. सब कुछ सोच कर मुझे लिखना उचित लगा. इसे लिख कर जिन किसी को कष्ट पंहुचाया है उनसे क्षमा मांग रहा हूँ.)
(क्रमशः) 

~ सचिदानंद सिंह Sachidanand Singh जी की टाइमलाइन से। 
#vss 

प्रवीण झा / रोम का इतिहास - तीन (3)

चित्र: माउंट विसुवियस की राख के नीचे मिले  शहर पॉम्पे के अवशेष

“यहूदियों पर यहूदी होने का कर लगाया गया। उन पर भी, जो रोमन मंदिर जाते, लेकिन छुप-छुपा कर अपना यहूदी धर्म-पालन कर रहे थे। कुछ यहूदी जैसे अन्य पंथ भी गुप्त रूप से अपनी गतिविधियाँ कर रहे थे [संभवत: आरंभिक ईसाई]। शक होने पर जाँच की जाती। मेरी किशोरावस्था की एक स्मृति है जब एक नब्बे वर्ष के बुजुर्ग को भरे दरबार में नंगा कर यह जाँच किया गया कि उसका खतना हुआ है या नहीं।”

- सूटोनियस (69-122 ई.)

रोमन राजा वेस्पासियस ने यहूदियों पर विजय के बाद एक मेहराब (Arch of Titus) बनवाया, जो आज भी रोम में मौजूद है। यह भविष्य के विजयों के लिए एक चिह्न बन गया। पेरिस के मेहराब से लेकर दिल्ली के इंडिया गेट तक इसी की नकल पर बने।

‘यहूदी कर’ लगाने के बावजूद वेस्पासियस की छवि एक कुशल राजा की है, जिनके समय नीरो द्वारा खाली किया खजाना पुन: भर गया। यह और बात है कि उन्होंने जनता पर तरह-तरह के कर लगाए। उस समय चर्मकार सार्वजनिक मूत्रालयों से पेशाब लाकर चमड़ा कमाने (tanning) में उपयोग करते थे। उन्होंने पेशाब पर भी कर लगा दिया! 

वेस्पासियस जूलियस सीज़र या किसी शाही परिवार के नहीं थे। वह आम जनता से उठकर गद्दी तक पहुँचे थे। हालाँकि उन्होंने भी अपना वंश ही आगे बढ़ाया। उनके बाद उनके पुत्र टाइटस और डोमिटियन एक-एक गद्दी पर बैठे। टाइटस के समय ही यूरोप इतिहास का सबसे भयंकर विस्फोट हुआ। 

79 ई. में नेपल्स की माउंट विसुवियस ज्वालामुखी फट पड़ी, और शहर के शहर भस्म हो गए। हज़ारों लोग पाषाण रूप में बदल गए। कुछ की तो खोपड़ियाँ शीशे में बदल गयी। सदियों बाद जब यह राख हटाई गयी, तो उनके नीचे पूरा शहर और सैकड़ों कंकाल जहाँ-तहाँ बिखरे मिले। उसके बाद से यह ज्वालामुखी शांत  है, लेकिन दुनिया के सबसे ख़तरनाक ज्वालामुखियों में माना जाता है। अगर यह आज फट पड़ा तो कम से कम तीन लाख लोग मारे जाएँगे। 

टाइटस के बाद आए उनके भाई डोमिटियन ने लगभग सत्रह वर्ष तक राज किया। उन्हें शक था कि वह मारे जाएँगे। इस कारण अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी पर विश्वास नहीं करते। हमेशा अपने तकिए के नीचे तलवार रख कर सोते। माना जाता है कि एक दिन उनकी पत्नी ने ही वह तलवार गायब कर दी, और डोमिटियन मारे गए। उसके बाद एक नर्वा नामक साठ वर्ष के सिनेटर शासक बने, जो दो वर्ष बाद यूँ ही मर गए।

ऐसा लग रहा था कि रोम अपनी अंतिम साँसें ले रहा है। हर दूसरे प्रांत में विद्रोह हो रहे थे। ख़ास कर सुदूर प्रांत जैसे ब्रिटेन संभालना कठिन हो रहा था। रोम का दीया बुझने ही वाला था, कि एक बार फड़फड़ाया।

98 ई. में ट्राजन नामक एक योद्धा को गद्दी पर बिठाया गया। उन्होंने पद संभालते ही अपने सेनापति को तलवार देते हुए कहा, 

“अगर मैं अच्छा काम करूँ, तो यह तलवार मेरी रक्षा में प्रयोग करना। अगर मैं बुरा काम करूँ, तो इसी तलवार से मेरा गला काट देना”

इस शपथ के साथ ट्राजन ने रोम को पुन: अपना गौरव लौटाया। वह स्वयं युद्घभूमि पर जाते, और जूलियस सीज़र की तरह जीत दर्ज़ कर लौटते। उन्होंने डैन्यूब पर एक पुल बनाया, और डाचिया राज्य पर विजय पाकर उसे रोम में मिलाया। उस प्रांत का नाम पड़ा- रोमानिया। यह नाम अब तक कायम है।

ट्राजन ही पहले रोमन राजा बने, जो अपनी सेना लेकर फारस तक पहुँच गए। आर्मीनिया से लेकर ईरान तक को रोम में मिलाया। वह आगे बढ़ते जा रहे थे, कि तभी खबर मिली यहूदियों ने पुन: विद्रोह कर दिया है। वह वापस लौट ही रहे थे कि सीरिया के निकट लकवाग्रस्त हुए और मर गए। 

इतिहासकार मानते हैं कि फ़ारस की खाड़ी से पूर्व को निहारते ट्राजन की इच्छा संभवत: भारत पहुँचने की थी। अगर पहुँचते तो उनकी टक्कर कुषाण राजा कनिष्क के पिता विमा से होती। लेकिन, किसी रोमन राजा की यह इच्छा कभी पूरी न हो सकी।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रोम का इतिहास - तीन (2) 
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#vss 

Sunday, 29 May 2022

डायर्मेड मक्कलक / ईसाइयत का इतिहास - अ हिस्ट्री ऑफ़ क्रिश्चियनिटी (6)

अलेक्सेंड्रिआ भूमध्य क्षेत्र में यूनानी संस्कृति की बिगुल बजाती, सिकंदर की जीती जागती स्मृति थी. वहाँ बसे हुए यहूदी पूरी तरह यूनानोन्मुखी थे और वे चाहते थे कि यूनानी विद्वान उनके प्राचीन ग्रंथों को समझे और सराहें. पुराने लेखन में यूनानी विद्वानों की स्वाभाविक रुचि थी. जेहोवा, सर्वशक्तिमान ईश्वर, की यहूदी परिकल्पना से वे बहुत प्रभावित हुए थे किन्तु उन्हें यह विचित्र लगा था कि जो सर्वशक्तिमान है उसे ईडन की फूलवाड़ी में टहलने की जरूरत पड़ गयी थी या फिर वह लॉट और जोनाह जैसे नश्वर मनुष्यों से बातें करता चलता था.

यूनानियों के ऐसे प्रश्नों से कुछ यहूदी भी उलझन में पड़ गए और तब उन्हें यह विचार आया कि तनख मे संकलित प्राचीन प्रसंग मात्र कहानियाँ नहीं बल्कि गूढ़ अर्थ छुपाए रूपक हैं. यूनानी अपने विचार रूपकों के माध्यम से रखते आये थे. उनका अनुसरण करते हुए अलेक्सेंड्रिआ के यहूदी भी अपनी प्राचीन कथाओं, उपदेशों में रूपक देखने लगे. अलेक्सेंड्रिआ के एक तत्कालीन विद्वान (और इतिहासकार) फिलो ने इसे बहुत बढ़ावा दिया. जब बाद में ईसा की कहानियाँ प्रचलित हुईं और अलेक्सेंड्रिआ में यहूदियों के साथ साथ ईसाई समाज भी सुदृढ़ हुआ तब फिलो की इस तजवीज का ईसाइयों ने भी भरपूर उपयोग किया.

यहूदी धर्म ने यूनानी विचारधारा से दो और धारणाएं लीं. पहली शून्यता या अनस्तित्व का. इसके अनुसार, अब वे मानने लगे कि ईश्वर ने सृष्टि को विश्रृंखलता (केओस) से नहीं रचा - शून्य से रचा. इस धारणा का आगे चलकर ईसाई चिंतन में बहुत उपयोग हुआ. दूसरी धारणा मरणोत्तर जीवन से सम्बंधित थी. बेबीलोन निर्वासन के पहले तक यहूदी चिंतक मनुष्य के जीवन पर विचार करते थे, मरने के बाद क्या होता है इस पर वे कुछ ख़ास नहीं कहते या सोचते थे.

एन्टिओकस के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह के बाद इस सोच में बदलाव आया, विशेषकर उनके लिए जिन्होंने बहुत शौर्य के साथ लड़ते हुए युद्धभूमि पर अपनी जान दे दी थी. यह धारणा पुष्ट हुई कि ऐसे बलिदान को ईश्वर निश्चित ही पुरस्कृत करेंगे और पुरस्कार-स्वरुप मृत्योपरांत इन शूर वीरों को अपनी पुरानी देह वापस मिल जाएगी. इसके पहले मरणोत्तर जीवन पर यहूदियों के विचार उनकी प्रमुख चिंतन धाराओं में जगह नहीं पा सके थे. तनख में ऐसे विचारों के उल्लेख नहीं थे. विद्रोह के बाद, यहूदी दूसरे धर्मों, दूसरी दार्शनिक परम्पराओं से इन पर कुछ ग्रहण करने के लिए तैयार हो गए थे. 

यूनानियों में मरणोत्तर जीवन बहुत कुछ लिखा, कहा गया था. यहूदियों ने भी इस पर अपने यूनानोन्मुखी काल में लिखा - ई.पू. पहली सदी में. यह वह समय था जब तनख (ईसाइयों का ओल्ड टेस्टामेंट) पूरा होचुका था और न्यू टेस्टामेंट अभी शुरू नहीं हुआ था. इस काल के लेखन को भविष्य के ईसाई अध्येताओं ने 'इंटर टेस्टामेंटल राइटिंग' कहा. इसमें हमें 'विज़्डम ऑफ़ सोलोमन' जैसी रचनाएँ मिलतीं हैं. 

दानियाल की किताब (बुक ऑफ़ डेनियल), जो दूसरी सदी ई.पू. की है, भी ऐसी ही रहती लेकिन तनख में उसे जगह मिल गयी थी. इसमें यहूदियों के इतिहास में पहली बार यह कल्पना की गयी है कि मृत्यु के बाद आत्मा का पुनर्जन्म होता है और उसे उसकी देह वापस मिल जाती है - किन्तु यह सबों के साथ नहीं होता.

जैसा सोचा जा सकता है, तत्कालीन यहूदी चिंतकों में इन बातों को लेकर गहरे विवाद हुए थे. लेकिन इन विचारों के बीज पड़ चुके थे और जब आगे चलकर ईसाई चिंतक अपना धार्मिक साहित्य रचने लगे तो उन्हें यह सब बहुत स्वाभाविक लगा था.

यहूदियों के इन नए बौद्धिक रुझान के समय तक भूमध्य क्षेत्र में होते राजनैतिक परिवर्तनों के यहूदियों और आने वाले ईसाई धर्म पर बहुत गहरे प्रभाव पड़े. रोम की सैनिक शक्ति बढ़ने लगी थी. रोम और जूडेआ (जुडाह) के बीच सेल्युकिड साम्राज्य था. रोम से मित्रता सेल्युकिडों के विरुद्ध उनके हाथ मजबूत करेगी ऐसा सोच दूसरी सदी ई.पू. में जूडेआ के हास्मोनियन शासकों ने पहली बार रोम से सम्बन्ध स्थापित किये. करीब सौ वर्षों तक रोम और जेरूसलम के बीच अच्छे सम्बन्ध रहे. ई.पू. 63 में रोम ने यूनानमुखी साम्राज्यों को जीतने का अभियान शुरू किया - जल्द लेवांट के सेल्युकिड और मिश्र के टॉलेमिक साम्राज्य रोम के अधीन हो गए. 

पैलेस्टीन और मिश्र में रोम का शासन आने पर भारी संख्या में यहूदी रोम जा बसे. आज जहाँ सेंट पीटर का बसीलिका स्थित है वहाँ कभी यहूदियों की बस्ती होती थी. रोम का पहला ईसाई समाज शायद इन्हीं यहूदियों से बना था. इस बीच 37 ई.पू. में रोमनों ने हास्मोनियन प्रशासकों को हटा कर उनके एक सम्बन्धी के हाथों जूडेआ सौंप दिया. 

तीन दशकों से अधिक समय तक जूडेआ पर शासन करने वाले इस राजा के पूर्वज एडोम के रहने वाले थे. यही कठपुतली राजा हेरोड 'महान' कहलाया. जूडेआ के बाहर पैलेस्टीन में रोमनों ने हेरोड के परिवार के कुछ लोगों को स्थानीय प्रशासक बनाया साथ ही पैलेस्टीन क्षेत्र के लिए एक रोमन प्रशासक भी नियुक्त किया, पौंशस पाइलेट.

उस काल में जूडेआ के यहूदियों के चार मुख्य वर्ग थे: सैड्यूसी, फ़ैरसी, एसेन और ज़ीलट. ये खुलकर एक दूसरे से लड़ते तो नहीं थे किन्तु इनमे से प्रत्येक अपने आचार-व्यवहार को यहूदी धर्म और यहूदी परम्पराओं की सच्ची अभिव्यक्ति बताता था. पहला वर्ग सैड्यूसी संभ्रांत लोगों का वर्ग था.  मंदिर के अधिकारी इस वर्ग से आते थे. सैड्यूसियों ने सदा, यहूदी या गैर यहूदी शासकों के साथ अच्छे सम्बन्ध रखे. रोमनों के साथ भी उनके सम्बन्ध बहुत अच्छे बने रहे. एक स्तर तक वे अपरिवर्तनवादी थे और उन दिनों प्रचलित मरणोत्तर जीवन पर हो रहे चिंतन से वे अलग रहते थे. कहा जाता है, ईसा ने कभी इस बात पर सैड्यूसियों को छेड़ा भी था. 

दूसरा वर्ग फ़ैरसियों का था, जो यहूदी परम्पराओं का कुछ सख्ती के साथ पालन करने में विश्वास करते थे. रूढ़िवादी फ़ैरसी गैर यहूदियों से बिलकुल भिन्न दीखते थे.  ईसा और पॉल (सॉल) दोनों की पृष्ठभूमि किसी और वर्ग की अपेक्षा फ़ैरसियों के निकट थी. लेकिन ईसा शायद उतने यूनानोन्मुखी नहीं थे जितने पॉल अपने लेखन में दीखते हैं.

एसेन एकांतिकता में फ़ैरसियों से भी बहुत आगे बढे हुए थे. उनके अपने समुदाय होते थे, बाक़ी यहूदी बस्तियों से कुछ दूर, जहाँ वे अपने साहित्य रचते हुए यहूदियों के ऊपर दूसरों द्वारा किये गए अत्याचारों की स्मृति जीवित रखने में लगे रहते थे. कुछ लोगों के विचार से शुरुआती ईसाई इसी एसेन वर्ग से आये थे. लेकिन इसकी संभावना कम लगती है. एसेन धार्मिक सिद्धांतों को लेकर यहूदी मुख्यधारा से अलग हुए थे, ईसाईयत के अलग होने का कारण था पहली सदी ई. में उसका यहूदी समुदाय की मुख्यधारा न बन सकना.

ज़ीलट भी रूढ़िवादी थे, वे एसेन पृथकतावाद के एक आक्रामक रूप को अभिव्यक्त करते थे. उनके विचार से पैलेस्टीन पर रोम के शासन का बस एक जवाब था - सशस्त्र विद्रोह, जैसा जुडास मैकबिअस के नेतृत्व में कभी यहूदियों ने सेल्युकिड सम्राट एन्टिओकस चतुर्थ के विरुद्ध किया था. ज़ीलट बार बार विद्रोह का बिगुल फूँकते रहे और उन्हीं के चलते दूसरी सदी ई. जूडेआ का यहूदी जीवन तबाह हो गया जिससे यहूदी समाज में जन्मी एक धार्मिक धारा ईसाईयत के रूप में स्थापित हो सकी.

जब ईसाईयत, जो कभी एक यहूदी पंथ था, एक अलग धर्म बन गया तब ईसाई चिंतकों ने यहूदी धर्मग्रंथों को अपना कर नए पंथ को हजारो वर्ष पुराना इतिहास दे दिया. यह इतिहास तब विशेष उपयोगी सिद्ध हुआ जब ईसाई धर्म के राजघरानों से सम्बन्ध बनने लगे. नए बने ईसाई धर्म में राजाओं पर कुछ नहीं था, वहीँ  तनख की एक कताब बस राजाओं पर थी.
(क्रमशः) 

~ सचिदानंद सिंह Sachidanand Singh जी का लेख. 

ईसाइयत का इतिहास (5) 
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अब सावरकर पर बहस जरूरी है / विजय शंकर सिंह

आरएसएस / बीजेपी के आईटी सेल ने 2014 के बाद गांधी जी के बारे में मनगढ़ंत प्रोपेगेंडा अभियान चलाया। बीसवीं सदी के महानतम नायको में से एक महात्मा गांधी के खिलाफ़ तरह तरह की बातें फैलाई गई। व्हाट्सएप और अन्य सोशल मीडिया के माध्यम से लोगो को भ्रमित किया गया। लोग भ्रमित भी हुए, लेकिन लोगों ने गांधी पर पढ़ना शुरू किया। उनकी हत्या का भी औचित्य इस संगठित प्रोपेगेंडा गिरोह ने फैलाया। गोया, उनका हत्यारा एक पुनीत कार्य कर गया था और गांधी की हत्या जरूरी थी। संभवतः यह दुनिया का अकेला संगठन होगा जो अपने स्वाधीनता संग्राम के एक स्थापित महानायक की हत्या का औचित्य ढूंढता है, उसे सही ठहराता है, हत्यारे का गांधी हत्या के दिन सम्मान करता है, मूर्ति और मंदिर बनाता है। आखिरकार, जब इतना दुष्प्रचार फैला तो, गांधी जी पर लेख, उन पर लिखी किताबें, ढूंढ ढूंढ कर पढी जाने लगीं। लोगों ने गांधी पर पुनर्पाठ तो किया ही, पुनर्लेखन भी शुरू हुआ। परिणामस्वरूप नई नई किताबें भी सामने आई। उनका अध्ययन शुरू हुआ और लोग, धीरे धीरे ही सही, खुद ही, सच से रूबरू होने लगे।

फिर उन्होंने जवाहारलाल नेहरू का सिजरा ढूंढा, उन्हे किसी गयासुद्दीन गाजी का वंशज बताया गया। नेहरु परिवार को अंग्रेजों का खैरख्वाह, बताया गया। नेहरू के अय्याशी के किस्से गढ़े गए और उनकी शाहखर्ची की बातें फैलाई गई। लोगों की दिलचस्पी नेहरू में जगी और तब लोगों ने नेहरू की लिखी और उनपर लिखी किताबें पढ़नी शुरू की और लोग, नेहरू की खूबियों  और खामियों से अवगत होने लगे। धीरे धीरे, संघी मित्रों और आईटी सेल का गयासुद्दीन गाजी वाला बुखार उतर गया। 

नेहरू और पटेल के सामान्य राजनैतिक और वैचारिक मतभेद को एक समय खूब हवा दी गई। यह तक कहा गया कि पटेल की अंत्येष्टि और अंतिम यात्रा में नेहरू शामिल नहीं हुए थे, पर जब नेहरू पटेल के आपसी पत्राचार सार्वजनिक हुए और लोगों ने उन्हें पढ़ा तो, पटेल ने जो बातें आरएसएस और सावरकर के लिए गांधी हत्या के बाद कही थीं, उससे यह झुठबोलवा गिरोह खुद ही शांत हो गया। इस गिरोह का उद्देश्य पटेल का महिमामंडन बिलकुल नहीं था, बल्कि वे हर वह मौका ढूंढते हैं कि नेहरू को नीचा और अप्रासंगिक दिखा सकें। पर यह दुष्प्रचार भी ज्यादा नहीं चला, ध्वस्त हो गया। 

सुभाष बाबू से जुड़ी क्लासीफाइड फाइल्स को लेकर एक समय खूब शोर मचाया गया। नेताजी के एक प्रपौत्र को भी भाजपा सामने लाई। वे फाइलें सार्वजनिक हुईं पर सुभाष और नेहरू के वैचारिक मतभेदों के बाद भी दोनो महान नेताओं में कोई निजी विवाद नहीं था। नेहरू जब आजाद हिंद फौज की तरफ से बचाव पक्ष के रूप में, कांग्रेस द्वारा गठित वकीलों के पैनल के प्रमुख, भूलाभाई देसाई के साथ अदालत में खड़े होते हैं तो देश का वातावरण ही बदल जाता है। आईएनए के जाबांज बिना सजा पाए ही छूट जाते हैं, और वे गांधी जी से, इस अवसर पर उनसे मिलते हैं और सलामी देते हैं। नेताजी की बेटी अब भी जिंदा हैं और वे अपने पिता और नेहरू दोनो को ही महान बताती हैं। मीडिया चैनल आजतक की अंजना ओम कश्यप का नेताजी की बेटी अनिता के साथ हुई बातचीत यूट्यूब पर उपलब्ध है, उसे देखा जा सकता है। अब जरा यह भी खोज लीजिए, और संघी मित्रों से यह भी पूछिए कि सावरकर, गोलवलकर, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस समय कहां थे? सावरकर तो बैरिस्टर भी थे, क्या उनका कोई बयान आईएनए के जाबांज लड़ाकों के पक्ष में उस समय आया था, या दिखा ? 

झुठबोलवा गिरोह का अब निशाना है मध्यकालीन इतिहास और विशेषकर मुगल काल और उसमे भी औरंगजेब का शासनकाल। इतिहास का पुनर्पाठ हो रहा है और अब लोगों ने मध्यकालीन इतिहास से जुड़ी किताबें, लेख पढ़ना शुरू कर दिया। सर यदुनाथ सरकार पुनः प्रासंगिक हो गए। ताजमहल के बहाने मुगल स्थापत्य पर चर्चा होने लगी। इस गिरोह के पास केवल पीएन ओक के अतिरिक्त, कोई भी ऐसा संदर्भ नहीं है जिसे वे बहस में ले आएं, और ओक की सारी ऐतिहासिक धारणाएं अप्रमाणित हो चुकी हैं। तब उन्होंने दीया कुमारी जी जो, बीजेपी की सांसद और जयपुर राज घराने की हैं को आगे किया पर सोशल मीडिया पर आमेर और अन्य राजपूत राजघरानों के मुगलों से वैवाहिक संबंध जब चर्चा में आए तो वे भी असहज हुए बिना नहीं रह सकीं। अब उनके भी बयान नहीं दिखते हैं। 

अब नायक की तलाश में बदहवास आईटी सेल और झुठबोलवा गिरोह सावरकर को धो पोंछ कर सामने लाया। सावरकर को वीर कहा जाता है, पर वीर उन्हें कहा किसने, यह वे आप को नहीं बताएंगे। सावरकर के जीवन के दो पहलू हैं एक अंडमान के पहले, दूसरा अंडमान के बाद। अंडमान के पहले वे प्रखर स्वाधीनता संग्राम सेनानी रहते हैं, इंडिया हाउस लंदन में श्याम जी कृष्ण वर्मा के साथ आजादी की अलख जगाते हैं, 1907 में 1857 के विप्लव की स्वर्ण जयंती इंडिया हाउस, लंदन में मनाते हैं और 1857 पर सबसे पहली पुस्तक लिखते है और उसे देश का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहते हैं। वह किताब अंग्रेज सरकार जब्त कर लेती है और उस समय सावरकर निश्चित रूप से एक सेनानी के रूप में उभरते हैं। 1909 में उनकी गांधी से लंदन में मुलाकात होती है। गांधी जी दक्षिण अफ्रीका सत्याग्रह के संबंध में लोगों को वहां के हालात बताने के लिए ब्रिटेन के दौरे पर थे। वह मुलाकात दो विपरीत सोच के लोगों की थी। गांधी, अपने मूल दर्शन अहिंसा के साथ थे तो, सावरकर, सशस्त्र संघर्ष की अभिलाषा रखते थे। यह दोनो की पहली मुलाकात थी। इस मुलाक़ात के बाद, दोनो में कोई बहुत संपर्क नहीं रहा। गांधी उस यात्रा में अंग्रेजी हुकूमत के रवैए से निराश हुए और उसी यात्रा की वापसी में उन्होंने हिंद स्वराज नामक एक पुस्तिका लिखी है। वह पुस्तिका प्रश्नोत्तर में है और वह उनके स्वाधीनता आंदोलन के भावी विचारों की एक रूपरेखा है। 

लेकिन अंडमान के बाद जो सावरकर उभरते हैं वे अंडमान पूर्व सावरकर से बिलकुल अलग होते हैं। वे लंबे लंबे माफीनामे लिखते हैं, अग्रेजी राज के वफादार रहने की कसमें खाते हैं, अंग्रेजो की पेंशन कुबूल करते हैं, नस्ली राष्ट्रवाद की अवधारणा गढ़ते हैं, न तो भगत सिंह की फांसी पर वे जुबान खोलते हैं और न ही सुभाष के अनोखे एडवेंचरस आईएनए अभियान पर कुछ बोलते हैं, हिंदू राष्ट्रवाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद की गलबहियां करते हुए, जिन्ना के हमराह और हम खयाल बनते हैं। उनकी नाराजगी यदि गांधी से थी तो वे अपने स्तर से भी तो आजादी का आंदोलन चला सकते थे ? उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया? यह सवाल एक जिज्ञासा है जो सावरकर में अंडमान बाद के बदलाव को देखते हुए स्वाभाविक रूप से हर जिज्ञासु मस्तिष्क में, उठता है। 

यदि सावरकर की चर्चा और उनका अनावश्यक दुष्प्रचार पर आधारित महिमामंडन न किया जाता तो यह सारे सवाल बिलकुल नहीं उठते। सावरकर वैसे भी गांधी जी की हत्या के बाद लोगों के चित्त से उतर गए थे। बेहद एकांत में उनके अंतिम दिन गुजरे और उन्होंने जैन मत से संथारा करके अपने प्राण त्यागे। कहीं यह उनका पश्चाताप तो नहीं था? पर इधर फिर उनपर तरह तरह की बातें की जा रही हैं। स्वाधीनता आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र के रूप में उन्हे प्रस्तुत किया जा रहा है। अब जब बात निकली है तो वह दूर तलक जायेगी भी। अब उनके बारे में भी लोगों ने पढ़ना शुरू कर दिया है। अब यह भी ढूंढा जाएगा कि, उन्हे वीर कहा किसने था, और कब कहा था ? वे अंग्रेजो को दिए वादे निभाते रहे, जिसमे उन्होंने किसी भी राजनीतिक गतिविधियों में भाग न लेने का वादा किया था, तो फिर वे नस्ली राष्ट्रवाद जैसा विभाजनकारी एजेंडा लेकर क्यों सामने आए, जो ब्रिटिश और मुस्लिम लीग को सीधे सीधे लाभ पहुंचाता था ? उनका वैर गांधी से था, पर वे भगत सिंह की फांसी पर चुप्पी क्यों साधे रहे? जिन्ना और ब्रिटिश के प्रति उनके अनिशय लगाव के कारण उनके सिपहसलार डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी एक समय दूर हो गए थे। आखिर यह सब हुआ क्यों। मिथ्या और फरेबी महिमामंडन का एक अच्छा  परिणाम यह हुआ है कि, लोग अब सावरकर पर नए सिरे से पढ़ने लगे हैं और इन सवालों के जवाब ढूंढने लगे हैं। दरअसल आरएसएस/बीजेपी के आईटी सेल की समस्या यह भी है कि, वह अपने विरोधियों को अनपढ़ और कुपढ़ समझता है और बिलकुल, ऐसा ही गोयबेल भी अपने समय में समझता था। 

(विजय शंकर सिंह)

प्रवीण झा / रोम का इतिहास - तीन (2)

        चित्र: इसिस-होरस और मैरी-जीसस

इस्लाम से अगर तुलना की जाए, तो ईसाइयत ने अपने विस्तार में कहीं ज्यादा वक्त लिया। पहले तो यही स्पष्ट नहीं था कि ईसाई हैं कौन। उनका धर्मग्रंथ बाइबल (न्यू टेस्टामेंट) लिखा ही नहीं गया था। यह पूरा ताना-बाना रचने में कई सदियाँ लग गयी, जिसकी शुरुआत में रोम की आग और एक सनकी शासक नीरो का बहुत महत्व है। जलती हुई राजधानी, लायर बजाता और गीत गाता नीरो, सूली पर लटकाए जाते ईसाई। यीशु की मृत्यु के सिर्फ़ तीन दशक बाद ऐसी घटना के कई आयाम थे।

पहली बात कि यह ‘रोम बनाम ईसाई’ नैरेटिव था, जो ‘यहूदी बनाम ईसाई’ से कहीं अधिक वजनदार था। यहूदी एक मामूली समुदाय थे, जिनकी कोई सत्ता नहीं थी। एकेश्वरवाद के कारण उनसे ईसाइयों को अलग देखना भी कठिन था। अधिक से अधिक वे यहूदियों के एक पंथ कहलाते। पहले से फारिसी और सदुसी नामक दो पंथ थे, ये तीसरे हो जाते। 

जबकि रोम से टक्कर, विश्व की एक महाशक्ति और बहुदेववाद से टक्कर थी। इन दोनों के गिरते ही ईसाईयत शीर्ष पर आ जाती। और यही हुआ भी। यहूदियों से जन्मा यह पंथ दुनिया का सबसे बहुसंख्यक और सत्तासीन धर्म बन गया, यहूदी मात्र 0.2 प्रतिशत रह गए।

अब पुन: इतिहास और मिथक के ताने-बाने में लौटता हूँ। नजरेथ के यीशु को संभवत: 30 ईसवी में सजा दी गयी। उस समय संत पॉल एक फारिसी यहूदी थे, और वह स्वयं यीशु के पंथियों को सजा देने वालों में अग्रणी थे। यह बात बाइबल में वर्णित है कि जब वह जेरूसलम से दमिश्क जा रहे थे, तभी उन्हें एक दिव्य रोशनी दिखाई दी और आवाज सुनाई दी,

“सॉल (पॉल)! तुमने मुझे क्यों सजा दी?”

“आप कौन हैं, देव?”

“मैं यीशु हूँ, जिसे तुम सजा दे रहे हो। अब लौट जाओ और मेरे आदेशों की प्रतीक्षा करो।”

इस तरह संत पॉल यीशु के अनुयायी बन गए। वही संत पॉल रोम गए, और वहाँ उन्होंने अपने इस नए पंथ के विषय में बताना शुरू किया। इतिहासकारों के अनुसार वे अधिक से अधिक तीन अनुयायी बना सके। उनमें एक गुलाम (slave) समुदाय से थे। जब रोम में आग लगी, तो सैकड़ों ईसाइयों को सूली पर लटकाया गया, जैसी बातें हजम करनी कठिन है।

असल में क्या संभावना हो सकती है, और इतिहासकारों ने क्या लिखा है?

यह बात लगभग एकमत से कही जा सकती है, कि नीरो के प्रयासों के बावजूद उन पर इस आग लगाने का दाग़ लग गया। जनता यही मानने लगी कि सब राजा का किया धरा है। हालाँकि उनका राजमहल भी भस्म हो गया था, लेकिन जिस गति से वह नया आधुनिक रोम बसा कर उसका नाम ‘नीरोपोलिस’ रख रहे थे; यह आभास हुआ कि सब उनकी ही योजना थी। 

नीरो ने अपना दाग़ साफ़ करने के लिए कोई दोषी ढूँढना शुरू किया। संभव है कि इसी फेर में उन्होंने फारिसी यहूदियों पर इल्जाम लगाया। फारिसी यहूदी रोमन संस्कृति को नापसंद करते थे, एकेश्वरवादी थे, और रोम के बाज़ार में उनकी कई दुकानें थी। आग वहीं से शुरू हुई थी।

यहूदियों की इस भीड़ में यीशु और संत पॉल के नए पंथ के लोग भी फँस गए हों, यह संभव है। लेकिन, इन सबको मिला कर भी बहुत अधिक जनसंख्या नहीं थी।

एक वर्णन जो टैसिटस और सूटोनियस जैसे इतिहासकार करते हैं कि नीरो ने कहा, “इसके पीछे इसिस (Isis) का हाथ है”

इसिस मिस्र की देवी थी, जिनके कई पूजक रोम में थे। उनके और उनके पुत्र होरोस की कथाएँ रोम में प्रचलित थी। अधिकांश गुलाम उन्हीं के पूजक थे। उनके देवता अनुबिस का सर एक कुत्ते (या भेड़िए) का था, इसी कारण उन्हें जान-बूझ कर सार्वजनिक रूप से शरीर पर माँस बाँध कर कुत्तों से कटवाया गया।

नीरो द्वारा सबसे अधिक यातना इसी समुदाय को दी गयी, यह अधिकांश स्रोतों में वर्णित है। एक और तथ्य यह भी है कि यहूदियों की बड़ी संख्या क्लॉडियस के समय ही रिश्वत देकर रोमन नागरिक बन चुकी थी। उनका ओहदा ऊँचा था, और उन्हें इस तरह की सजा देना ग़ैरक़ानूनी भी था।

सूली पर लटकाने जैसी सजा सिर्फ़ ग़ैर-रोमन नागरिकों के लिए लंबे समय से चली आ रही थी। आपने स्पार्टाकस युद्ध में भी यह बात पढ़ी होगी कि सूली पर गुलामों को लटकाया गया। यह कोई ऐसी प्रथा नहीं थी, जो सिर्फ़ ईसाइयों से ही शुरू हुई।

आखिरी बात, जो सबसे अधिक विवादित है, कि इसिस मूर्ति-पूजकों को दी गयी यातना ही बाइबल में वर्णित की गयी। इतिहास में इसिस की जगह क्रिश्चियन ने ले ली। यहाँ तक कि ‘मैरी की गोद में यीशु’ को अक्सर ‘इसिस की गोद में होरस’ से जोड़ा जाता है। 

जो भी हो, रोम के सबसे युवा राजा नीरो, सबसे बदनाम राजा बने। रोम में आग के कुछ ही वर्षों बाद फ़िलिस्तीन में यहूदियों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह एक तरफ़ यहूदियों से सदियों के लिए जेरूसलम छिनन गया, और दूसरी तरफ़ नीरो से उनकी सत्ता। 

68 ई. में अपने वाद्य-यंत्रों के मध्य आत्महत्या करते 31 वर्ष उम्र के नीरो के अंतिम शब्द थे- “आज एक कलाकार इस दुनिया से रुख़सत हुआ”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
Praveen Jha 

रोम का इतिहास - तीन (1) 
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#vss 

Saturday, 28 May 2022

डायर्मेड मक्कलक / ईसाइयत का इतिहास - अ हिस्ट्री ऑफ़ क्रिश्चियनिटी (5)

समय के साथ बेबीलोन में एक नयी शक्ति का उदय हुआ. ये अपने को पुराकाल में पनपी बेबीलोन सभ्यता का उत्तराधिकारी मान कुछ अधिक ही गर्वीले और आक्रामक थे. ई.पू. 612 में बेबीलोन की सेना ने असीरियन राजधानी निनिवअ (दजला तट पर वर्तमान मोसुल के निकट) को नष्ट कर दिया. उसके कुछ वर्ष बाद उन्होंने जुडाह पर आक्रमण किया, जेरूसलम और सुलेमान के बनाए मंदिर को तहस नहस कर वे अनेक यहूदियों को बंदी बना कर अपने साथ बेबीलोन लेते गए, और इनके वापस जेरूसलम लौटने पर बंदिश लगा दी. 

संयोग से इसके बस पचास साल बाद फ़ारस के सम्राट दारा प्रथम (डेरियस प्रथम) ने बेबीलोन जीत कर यहूदियों को मुक्त कर दिया. यह कहना मुश्किल है कि यहूदी समुदाय कितना बचा रहता यदि फ़ारसी साम्राज्य उन्हें बस आधी सदी बाद मुक्त नहीं करा देता. मुक्त होने के बाद बहुत यहूदी जेरूसलम लौट गए मगर बहुत बेबीलोन में ही बस गए. जेरूसलम लौटे यहूदियों ने प्रवासी यहूदियों के सहयोग से अपने भग्न मंदिर के पुनर्निर्माण में हाथ लगाया. इसमें सबसे अधिक आर्थिक सहयोग उनके मुक्तिदाता, फ़ारस के अग्निपूजक दारा प्रथम, से मिला था. 

निर्वासन के बाद यहूदी समुदाय में सामाजिक और वैचारिक स्तर पर परिवर्तन आये. बेबीलोन से लौटे यहूदियों ने उन यहूदियों को पंथद्रोही माना था जो बेबीलोन न जाकर जेरूसलम में ही किसी तरह रह सके थे और मंदिर पुनर्निर्माण में उनसे मिलते किसी सहयोग को स्वीकार नहीं किया.  मंदिर बन जाने के बाद भी उन स्थानीय यहूदियों को वे अपमानित करते रहे और उन लोगों ने जेरूसलम से दूर, समारिया नगर के निकट, जबल जिरज़िम (माउंट जिरज़िम) पर अपना अलग मंदिर बनाया. 

उनका मंदिर समारिया के निकट था इसलिए वे समैरिटन कहलाए. जेरूसलम के यहूदी उन्हें हेय दृष्टि से देखते थे. सेंट जॉन के सुसमाचार (गॉस्पेल) में ईसा मसीह के एक समैरिटन स्त्री से अनायास मिलने की बात आयी है, जिसके बाद समैरिटन ईसा से बहुत प्रभावित हुए थे. (सेंट +लुका के सुसमाचार में एक पैरेब्ल में ईसा ने उन्हें जेरूसलम के यहूदियों से अच्छा दिखाया है.)

बेबीलोन के सैनिकों द्वारा अपने मंदिर के ध्वस्त होने को लेकर कुछ यहूदी जेहोवा के सर्वशक्तिमान होने पर सवालिया निशान उठाने लगे थे. यहूदी दर्शन ने इसके जवाब में ‘हस्सतन’ (शैतान) की परिकल्पना कर जेहोवा पर इसकी जिम्मेदारी नहीं गिरने देने का एक सरल उपाय खोजा. यह शैतान का काम था, जो यहूदियों को जेहोवा के बताए पवित्र मार्ग पर चलने में व्यवधान डालता रहता था. बाइबिल में इसके पहले शैतान की चर्चा नहीं आयी है. जेनेसिस के साँप को कतिपय भाष्यकार शैतान बताते हैं किन्तु बाइबिल में ऐसा नहीं लिखा है.

भले लोगों को कष्ट क्यों सहने पड़ते हैं और दुष्टों की चांदी कटती क्यों दीखती है ये सार्वभौमिक प्रश्न निर्वासन के बाद यहूदी चिंतन के केंद्र में आगये. बाइबिल की दो किताबें इस पर विचार करती दिखतीं हैं. जॉब की किताब में शैतान अपने पूरे रूप में पहली बार बाइबिल में प्रकट हुआ है. धर्म परायण जॉब को शैतान की शैतानियों के चलते कष्ट उठाने पड़े थे जिन्हे बाद में ईश्वर ने दूर किये थे. दूसरी किताब, हीब्रू बाइबिल का कोहेलेथ (अर्थ शिक्षक या उपदेशक), यूनानी अनुवाद एक्क्लेसिआस्टेस, में मनुष्य के प्रयासों की व्यर्थता, निरर्थकता बतायी गयी है. 

यहूदी इस प्रकार हाथ पर हाथ धर कर बैठने वाले नहीं थे. बाइबिल की अगली किताब 'प्रोवर्ब्स' जॉब और कोहेलेथ का खंडन करते हुए मिहनतकश और नैतिक जीवन जीने को कहती है. सदियों से यहूदी और ईसाई जन-जीवन के आधार में प्रोवर्ब्स के प्रभाव को देखा जा सकता है.

यहूदी विश्वास था कि उनके ईश्वर के साथ यहूदियों के सम्बन्ध एकांतिक थे – अर्थात जिनके जन्म इस्राएल के वंश में नहीं हुए हैं वे जेहोवा के निकट नहीं पहुँच सकते. फ़ारसी शासन काल में इसमें कुछ बदलाव आया. लेकिन अपने धर्म के प्रचार के प्रति उनका दृष्टिकोण ईसाई या बाद में आये इस्लाम धर्मावलम्बियों के समान उत्साहपूर्ण कभी नहीं रहा.

बेबीलोन से लौटने के बाद यहूदियों को समय समय पर अपने पड़ोस की शक्तिशाली संस्कृतियों से जूझना पड़ा था. सिकंदर की विजय यात्रा के बाद यह और भी अधिक कठिन हो गया. पहले मिश्र के नवस्थापित टॉलेमिक फ़ेरो, उसके बाद सीरिया के सेल्युकिड शासकों ने अपने मंदिर पर केंद्रित यहूदी जीवन को यूनानी रीति-रिवाजों के अनुरूप लाने के प्रयास किये. थक कर, ई.पू. 167 में यहूदियों ने जुडास मैकियाबेस के नेतृत्व में सेल्युकिड राजा एंटिओकस चतुर्थ के विरुद्ध विद्रोह कर दिया.

विद्रोह के युद्ध में यहूदियों को बहुत कष्ट भोगने पड़े किन्तु इसके बाद उन्होंने अपने शासन के लिए स्वदेशी शासकों के एक वंश को स्थापित कर लिया - ये हैस्मोनियंस, जो एक पुराने यहूदी राजवंश से आते थे, आगामी वर्षों में जेरूसलम मंदिर के आनुवांशिक मुख्य पुजारी बने. अब तक यहूदी समुदाय काफी फ़ैल चुका था. जेरूसलम और बेबीलोन के अलावा पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के अनेक पत्तनों पर यहूदी बस्तियां आ गयीं थीं. ये सब अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक प्रेरणा के स्रोत जेरूसलम मंदिर में खोजते थे. इसी काल में उन्होंने स्थानीय स्तरों पर अपने लिए धार्मिक-सांस्कृतिक केंद्र खोलने शुरु किये - अपने साइनागॉग.

साइनागॉग में धार्मिक किताबें भी पढ़ी जातीं थीं. पूरे भूमध्य क्षेत्र में यहूदी एक ही किताबें पढ़ें इसके लिए आवश्यक था कि उनके धार्मिक साहित्य का सम्पादन / पुनर्लेखन कर उनके प्रामाणिक संस्करण उपलब्ध कराए जाएं. प्रामाणिक ग्रंथों का वह संग्रह 'तनख' कहलाया, उस के तीन अंगों के नामों के आद्याक्षरों को जोड़ कर. ये अंग थे तोरा (निर्देश या नियम), नेवि'इम (पैगम्बर) और कटुविम (लेखन). यही हिब्रू बाइबिल के नाम से भी जाना गया और ईसाइयों का ओल्ड टेस्टामेंट मोटे तौर पर इसी तनख का एक रूप है.

कोई सत्तर ऐसी किताबें भी थीं जिन्हे तनख में नहीं रखा गया था. यूनानी भाषी यहूदियों ने (जैसे अलेक्सैन्ड्रिया रहने वाले) इन सत्तर से भी कुछ किताबें तनख के साथ रख दीं. हीब्रू बइबिल से ओल्ड टेस्टमेंट का यूनानी रूप जब आया तो ये किताबें भी "ईश्वर के शब्द" में गिनी गयीं. चौथी सदी ईस्वी में कुछ भाष्यकारों ने इनकी पहचान की और उन्हें प्राचीन से अलग माना. सोलहवीं सदी में जर्मनी के मार्टिन लूथर ने प्रोटेस्टैंट बाइबिल के मुख्य अंग से उन्हें हटा कर परिशिष्ट में रख दिया. कुछ अन्य प्रोटोस्टेंट समुदायों ने उन्हें बिलकुल हटा दिया.

ईसा के समय तक अलेक्सेंड्रिआ में कोई दस लाख यहूदी होंगे. पैलेस्टीन के बाहर इतने यहूदी कहीं नहीं थे. ये यूनानी भाषी हो गए थे और अपने धर्मग्रंथों को समझ पाने के लिए इन लोगों ने तनख के यूनानी अनुवाद कराए थे. कहते हैं बहत्तर विद्वानों ने मिलकर तनख का बहत्तर दिनों में अनुवाद किया था. इसमें वे किताबें भी जोड़ी गयीं थीं जो तनख में नहीं थीं और जिन्हे प्रोटोस्टेंट लोगों ने बाद में हटा दिया था. इस तरह तैयार किये गए इस यूनानी ग्रन्थ को रोमन कैथोलिक ने आगे चलकर नाम दिया सेप्टुअजिंट जिसका अर्थ है सत्तर. आगे चलकर इस अनुवाद के प्रति यहूदियों का उत्साह कम हो गया, किन्तु ईसाइयों ने इसे सांगोपांग स्वीकार किया.
(क्रमशः) 

ईसाइयत का इतिहास (4) 
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प्रवीण झा / रोम का इतिहास - तीन (1)

‘रोम जलता रहा, नीरो बंसी बजाते रहे’

यह एक ऐसा फ़ेक-न्यूज़ है, जिसने दुनिया की रंगत बदल दी। इस एक मिथ्या से न सिर्फ़ संपूर्ण यूरोप और अमेरिका का ईसाईकरण बल्कि ईसाइयों का विभाजन (कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट) भी जुड़ा है।

दरअसल बंसी या वायलिन/फिडल जैसी चीजें उस वक्त थी ही नहीं। न उस काल-खंड के किसी रोमन इतिहासकार ने ऐसा लिखा। 18 जुलाई, 64 ई. को रोम में भयानक आग अवश्य लगी, जो हफ़्ता भर या अधिक चलती रही। यह 18 जुलाई वही तारीख़ है, जब चार सौ वर्ष पूर्व (ई. पू. 387) रोम को गॉल ने नेस्तनाबूद किया था। रोमन इतिहास में यह एक शोक का दिवस है, जब दो बार रोम ध्वस्त हुआ।

नीरो उस समय क्या कर रहे थे? इस उत्तर के साथ इतिहास को बदलते देखिए। 

उस भयानक आग के समय नौ वर्ष आयु के रहे रोमन इतिहासकार टैसिटस के अनुसार - 

‘नीरो रोम से दूर अपने जन्मस्थान एंटियम (अब एंजियो) में थे। वह लायर (हार्प या संतूर जैसा यंत्र) बजा रहे थे। जब उन्हें जानकारी मिली, वह तुरंत रोम की रक्षा के लिए भागे और आग बुझाने के प्रयास करवाए।’

आग के पाँच वर्ष बाद पैदा हुए सूटोनियस के अनुसार- 

‘नीरो को रोम की पुरानी बस्तियाँ पसंद नहीं थी। उन्होंने स्वयं पूरे रोम में आग लगवायी। उनके आदमी मशाल लेकर घूम रहे थे, और जान-बूझ कर आग लगा रहे थे।’ 

इस घटना के डेढ़ सौ वर्ष बाद डियो के अनुसार-

‘नीरो ने अपने कुछ शराबी और शरारती गुर्गों को भेज कर आग लगवायी। नीरो स्वयं यह तमाशा ऊपर पैलेटाइन पहाड़ के राजमहल से खड़े होकर देख रहे थे, और लायर बजाते हुए गीत गा रहे थे, जिसे उन्होंने नाम दिया- ट्रॉय पर कब्जा’

तीनों इतिहासों को मिला कर देखा जाए, तो टुकड़ों-टुकड़ों में सच मिल सकता है। जब नीरो लायर बजा रहे थे, उस समय उन्हें आग लगने की खबर मिली। वह रोम पहुँचे, और आग पर बेहतर निगरानी के लिए एक पहाड़ की ऊँचाई से देखने लगे। अपनी राजधानी को जलते देख, संभव है कि उन्होंने उस पहाड़ी पर ट्रॉय पर कब्जे से जुड़ा करुणामय यूनानी गीत गाया हो।

प्रश्न यह है कि इतिहास बदला क्यों गया। इसका उत्तर भी टैसिटस का लिखा पढ़ कर मिल सकता है। वह लिखते हैं-

“नीरो ने इस आग की ज़िम्मेदारी एक घृणास्पद समुदाय क्रिश्चियन पर तय कर दी। यह किसी क्राइस्टस नामक व्यक्ति से जन्मा समुदाय था, जिसे टाइबेरियस के राज में पोन्टियस पिलाते ने सजा दी थी…उनके समुदाय के लोगों को भयानक यातनाएँ दी गयी। नीरो ने उन्हें पागल कुत्तों के सामने फिंकवा दिया। सूली पर टाँग दिया। जिंदा जला दिया…हालाँकि इन यातनाओं ने रोमवासियों में इस समुदाय के प्रति घृणा के बजाय संवेदना का संचार किया।”

माना जाता है कि इन्हीं यातनाओं में यीशु के दो देवदूतों पॉल और पीटर को भी मार दिया गया। आधुनिक इतिहासकारों का बहुमत मानता है कि यह पूरी कहानी बाद में बदली गयी है। जब स्वयं संत पॉल या पीटर ने अपने लेखों में ‘क्रिश्चियन’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है, तो यह शब्द आया कहाँ से?

संभव है कि आग न नीरो ने लगायी, न किसी क्रिश्चियन समुदाय ने। सौ-दो सौ साल बाद यह तय किया गया हो कि आग लगवानी किस से और कैसे है। इसी से रोम का भविष्य तय होने वाला था। 

जिन संत पीटर को कथित रूप से शहंशाह नीरो ने रोम में आग लगाने के आरोप में सूली पर लटका दिया था, आज उनकी ही शिष्य परंपरा के कैथोलिक पोप रोम पर राज करते हैं। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

रोम का इतिहास - दो (18) 
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Friday, 27 May 2022

डायर्मेड मक्कलक / ईसाइयत का इतिहास - अ हिस्ट्री ऑफ़ क्रिश्चियनिटी (4)

सिनाई पर्वत पर जहाँ ईश्वर ने मूसा को अपना नाम बताते हुए कहा था "मैं वही हूँ जो मैं हूँ", वहीँ से उनके नाम को जेहोवा कहने की भी परम्परा है. ईश्वर ने कहा था कि मैंने अब्राहम को अपना नाम (जेहोवा) नहीं बताया था. इस तरह अब्राहम के ईश्वर (महाबली) और मूसा के ईश्वर जेहोवा एक हो गए.  करीब हजार वर्षों तक यहूदी अपने ईश्वर को जेहोवा कहते रहे.  

जिस काल से उनके ईश्वर जेहोवा कहलाने लगे लगभग उसी काल में सॉल ने इस्राएल राज्य स्थापित किया था. सॉल को विस्थापित कर तरुण दाऊद (डेविड) इस्राएल का राजा बना. दाऊद का शासन काल बहुत महत्वपूर्ण रहा. उससे भी अधिक महत्वपूर्ण रहा दाऊद का व्यक्तित्व. बाइबिल की किताब 'साम्स' (प्रार्थना गीत) में संकलित सारे डेढ़ सौ गीत दाऊद के लिखे माने जाते हैं, यद्यपि उनमे से कुछ बहुत स्पष्ट तौर पर उस काल के बाद के लिखे दीखते हैं.

दाऊद इतना ही महत्वपूर्ण था कि प्रथम शताब्दी ईस्वी में ईसाइयों को लगा कि ईसा मसीह का दाऊद के साथ पारिवारिक सम्बन्ध होना ही चाहिए, और ईसा को दाऊद का पुत्र (सन ऑफ़ डेविड) कहा जाने लगा.

दाऊद ने अपने राज्य की राजधानी जेरूसलम में स्थापित की. यहीं उसने यहूदियों के सबसे बड़े धार्मिक प्रतीक 'आर्क ऑफ़ द कवेनेंट' को रखा. (बाइबिल के अनुसार यह आर्क, लकड़ी का एक चौकोर स्वर्ण मंडित बक्सा था, जिसे बनाने के निर्देश ईश्वर ने मूसा को तब दिए थे जब मिश्र से निकल कर यहूदी सिनाई पर्वत की तलहटी में शिविर गिराए हुए थे. बाइबिल कहता है, इसके अंदर वे दो शिलापट्ट थे जिनपर ईश्वर ने अपने निर्देश मूसा को दिए थे, साथ में मूसा के भाई आरों की छड़ी, और वह पात्र था जिस में मन्ना मिलता था जो दशकों तक मरुभूमि में भटकते यहूदियों का ईश्वर प्रदत्त आहार था.)

दाऊद के बाद उसका पुत्र सुलेमान (सोलोमन) राजा बना, जिसने यहूदियों के ईश्वर जेहोवा के सम्मान में जेरूसलम में एक विशाल मदिर बनवाया. इसी मंदिर के अंदर आर्क ऑफ़ द कवनेंट को रखा गया था जहाँ से सदियों बाद वह लुप्त होगया. सुलेमान के शासन काल में इस्राएल की आर्थिक और सामरिक सामर्थ्य इतनी बढ़ गयी थी कि यहूदी एक क्षेत्रीय शक्ति माने जाने लगे थे.

दाऊद और 'दाऊद के पुत्र' ईसा के बीच करीब हजार वर्षों का फासला था. इन सहस्त्र वर्षों को ईसाइयत के इतिहास की पहली सहस्त्राब्दि कहना बहुत गलत नहीं होगा. इसी काल में यहूदियों के ईश्वर जेहोवा के गुणों की पुष्टि हुई थी - जेहोवा एकमात्र ईश्वर बन कर उभरे, इतने परिपूर्ण कि उन्हें किसी साथी या संगिनी की आवश्यकता नहीं थी. इसी काल में जेरूसलम एक पवित्र क्षेत्र के रूप में जाना जाने लगा.

सुलेमान की मृत्यु के बाद उनका साम्राज्य रेत के किले के समान ढह गया. उसकी जगह यहूदियों के दो राज्य आए - दक्षिण में जुडाह या जूडीआ (या यहूदा) और उत्तर में इस्राएल. दोनों में इस्राएल बड़ा था. उस की स्थिति भी सामरिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण थी. 

केनन के पहाड़ों से होकर निकलने वाले रास्ते पर इस्राएल का आधिपत्य था. लेकिन जेरूसलम, और सुलेमान का बनवाया मंदिर, और इस तरह ईश्वर के आदेश पर बने आर्क ऑफ़ द कवनेंट अब जुडाह के पास थे. दोनों यहूदी राज्यों के बीच स्वाभाविक प्रतिस्पर्द्धा थी. इस्राएल का बाहरी दुनिया से अधिक संपर्क था. वहीँ जुडाह अंतर्मुखी होगया. व्यापार मार्ग पर स्थित होने के चलते इस्राएल की आर्थिक स्थिति समय के साथ जुडाह के मुकाबले अधिक सुदृढ़ होती गयी.

सॉल यहूदियों का राज्य बना पाए, दाऊद और सुलेमान उसे नयी दिशा दे पाए इसमें उनके अध्यव्यवसाय के साथ साथ परिस्थितियों के भी हाथ थे. केनन के दक्षिण के मिश्र और उत्तर के असीरियन साम्राज्य अपनी समस्याओं से उलझे रहने के चलते इस नए बने राज्य इस्राएल पर ध्यान नहीं दे पाए थे. यह स्थिति हमेशा नहीं रह सकती थी. सुलेमान की मृत्यु के कुछ दशकों बाद असीरियन साम्राज्य ने केनन पर अपनी गृद्ध दृष्टि डाली. बाइबिल और असीरियन अभिलेख, दोनों से पता चलता है कि ई.पू. 722 में उत्तर में स्थित इस्राएल को तहस नहस कर के वे जुडाह की तरफ बढ़ने वाले थे किन्तु तब तक उनके किसी और क्षेत्र में विद्रोह हो जाने के चलते वे उसे दबाने वापस चले गए.

जुडाह वासियों ने, जैसा स्वाभाविक था, इसमें अपने ईश्वर का हाथ देखा. इस काल के वृत्तांत बाइबिल की किताब 'प्रॉफेट्स' में मिलते हैं. अंग्रेजी शब्द प्रॉफेट का अर्थ आज कल हम 'प्रॉफेसी' यानी भविष्यवाणी से सम्बद्ध करते हैं. प्राचीन यूनानी में प्रॉफेट भविष्यवक्ता नहीं होते थे. वे ईश्वर / देवताओं के दिए संकेतों को समझने और समझाने वाले होते थे. ऐसे प्रॉफेट प्रायः सभी समुदायों में मिलते थे. प्रमाण हैं कि उसी काल में बेबीलोन में भी प्रॉफेट हुए थे. लेकिन आज लोग ऐसा समझते हैं कि प्रोफेट बस यहूदियों में और उसके अनुसार ईसाइयत के इतिहास में हुए.

ये प्रॉफेट मुख्यतः इस्राएल (और जुडाह) को बाहरी खतरों से आगाह करते थे लेकिन वे अंदरूनी खतरों के प्रति भी सजग थे. ये खतरे मुख्यतः जेहोवा की अवमानना लेकर थे. केनन में दूसरे देवों को मानने वाले भी थे. विशेषकर 'बाल' के भक्त. बाल के कृपा-क्षेत्र में उर्वरता प्रमुख थी. एक फ़ीनिशियन राजकुमारी जेज़ेबल, जिसका विवाह इस्राएल के राजा अहब से हुआ था, अपने साथ बाल का पंथ लेकर इस्राएल आयी थी. जेज़ेबल और यहूदियों के एक प्रॉफेट एलिजाह के बीच पुरजोर मतभेद / संघर्ष चला. दोनों ने एक दूसरे के समर्थकों की हत्या करवाई. बाल और जेहोवा के बीच होते इस संघर्ष में सैकड़ो मारे गए थे.

प्राचीन काल की राजनीति देखते हुए बाहरी शक्तियों से पराजित और फिर अपनी भूमी से निर्वासित के बाद यहूदियों का अस्तित्व मिट जाना चाहिए था. यह उनके पड़ोस के सभी समुदायों के साथ हुआ. रानी जेज़ेबल फ़ीनिशियन थी. फ़ीनिशियन नाविक थे, व्यापारी थे, उन्होंने यूनानियों से पहले अपनी भाषा के लिए अक्षर बना लिए थे. आज वे कहीं नहीं दीखते. न फिलिस्तीनी दीखते हैं, न केननाइट. यहूदियों के  समुदाय के आज भी बने रहने के पीछे जेहोवा में उनका विश्वास रहा और इस विश्वास को जगाने में, जगाए रखने के पीछे उनके प्रॉफेट रहे.

यहूदियों का उत्तरी राज्य इस्राएल पहले ही असीरियन साम्राज्य द्वारा जीता जा चुका था. दक्षिणी राज्य जुडाह को भी ई.पू. 586 में बेबीलोन के सैनिकों ने रौंद दिया. लेकिन उसके करीब साठ साल पहले जुडाह में एक विद्रोह हुआ था जिसमे तत्कालीन राजा आमोन की हत्या कर उसके अनुज जोसिआ को कठपुतली बनाकर गद्दी पर बिठाया गया था. वयस्क होने पर जोसिआ ने एक सुधार आंदोलन चलाया, जो प्राचीन काल की चलन के अनुरूप, एक नयी नियमावली की खोज के रूप में रखा गया. इस नयी नियमावली को मूसा द्वारा लिखा हुआ बताते हुए प्रमुख पुजारी के हाथों जेरूसलम के मदिर में इसके पाए जाने की बात बतायी गयी. हिब्रू बाइबिल के यूनानी अनुवादकों ने इसका नाम रखा 'ड्यूटरोनॉमी', शब्दार्थ है दूसरी नियमावली. 

ये नियम जेहोवा के असाधारण, सर्वोच्च स्थान को बनाए रखने पर केंद्रित थे और जैसा हम देखेंगे पराजय और विस्थापन के बाद अपने ईश्वर के प्रति वचनबद्धता के चलते ही यहूदी समुदाय आज तक बचा रह सका है.
(क्रमशः) 

ईसाइयत का इतिहास (3) 
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प्रवीण झा / रोम का इतिहास - दो (18)

कलिगुला की छवि एक पागल और सनकी राजा की है। अनुमान लगते हैं कि किसी बीमारी के बाद वह अजीबोग़रीब हरकतें करने लगे। बीमारी के दौरान ही एक सिनेटर अफ्रैनियस ने चापलूसी करते हुए कहा, “सीज़र! आपके जीवन के लिए मैं जान देने को भी तैयार हूँ”

कलिगुला ने कहा, “ठीक है। इनकी जान यहीं ले ली जाए।”

अफ्रैनियस को मार दिया गया। उन्होंने अपने सौतेले भाई गेमेलस (टाइबेरियस के पोते) और शाही सेनापति मैक्रो को भी मरवा दिया। जो भी विरोध करता, उसे तो खैर मरवा ही देते। उनकी सनक के कई आयाम थे। 

कलिगुला स्वयं गंजे थे, तो जिनके भी अच्छे बाल देखते, उनका आधा सर गंजा करवा देते। अपनी बहन की मृत्यु पर उन्होंने रोम में हँसने पर पाबंदी लगा दी थी, और जो भी हँसते हुए पाया जाता, उसे मृत्युदंड दे दिया जाता। वह स्वघोषित भगवान बन गए। अपना एक कलिगुला पंथ बना लिया, और अपने मंदिर बनवा लिए। हद तो यह कि पहले से उपस्थित देवी-देवताओं की मूर्तियों के सर काट कर अपने सर की मूर्ति लगा दी।

उनकी इन हरकतों से जनता नफ़रत करने लगी थी। जब उन्हें मालूम पड़ा तो ठहाके लगाते हुए कहा, “जब तक वे मुझसे डरते हैं, करने दो नफ़रत! जो मुझसे नहीं डरता हो, उसे मार दो।”

उनके पूर्व रहे राजा टाइबेरियस भले ही कमजोर थे, लेकिन उन्होंने रोम का खजाना अपनी कंजूसी से भर दिया था। कलिगुला ने अपनी इन अय्याशियों पर सरकारी खजाने खाली कर दिए। वह कहते कि अगर राजा भी कंजूस हो, तो राजा काहे का? (‘A man must either be frugal or a Caesar’ - सूटोनियस लिखित क्रोनिकल में)

उनके पिता जितने ही वीर और कुशल जनरल रहे, कलिगुला उनके विपरीत युद्धभूमि में भी चद्दर तान कर सोने वाले हुए। एक क़िस्सा है कि ब्रिटेन के गॉल (सेल्टिक) ने रोमन साम्राज्य से बग़ावत कर अपनी सत्ता पुन: स्थापित कर ली थी। कलिगुला वहाँ सेना लेकर गए। यूरोप के पश्चिमी तट पर समंदर किनारे उन्होंने अपने सैनिकों को कहा, “ब्रितानिया में क्या रखा है? असली खजाना तो यहाँ रेत में है। तुम लोग यहाँ बिछी सारी सीपियाँ चुन कर जमा करो। यह समुद्र का ख़ज़ाना है।”

वह इन सीपियों से भरे झोले लेकर रोम आए, और जनता के मध्य प्रदर्शित किया कि हम यह खजाना लूट कर आए हैं! जनता अब इस शहंशाह के पागलपन से पक चुकी थी।

41 ई. में एक दिन अपने महल की मुंडेर पर बैठे वह शाही खेल देख रहे थे। उन्होंने देखा कि सैनिकों के एक प्रतिनिधि कैसियस उनकी ओर आ रहे हैं, तो हँसते हुए कहा, “आओ कैसियस! तुम्हारी लड़कियों जैसी आवाज़ सुनना भी एक मनोरंजन है”

कैसियस ने करीब आकर कलिगुला को छुरा भोंक दिया। इसके साथ ही आस-पास खड़े अन्य कुलीनों ने भी छुरा भोंकना शुरू किया। जूलियस सीज़र की ही तरह, लेकिन अधिक नाटकीय अंदाज़ में यह घटना हो रही थी। सामने मैदान में खेल चल रहा था, और वहीं ऊपर मंच पर राजा को छुरे भोंके जा रहे थे। जनता के लिए तो यह खेल अधिक रोमांचक था, जब उनका यह सनकी राजा मारा जा रहा था। यह खेल अधिक वीभत्स होता गया, जब उनकी पत्नी और बच्चे को भी सार्वजनिक मृत्यु दी गयी।

तभी उन्होंने पर्दे के पीछे छुपे कलिगुला के चाचा क्लॉडियस को देखा। वह परिवार के बदसूरत और मंदबुद्धि माने जाने वाले व्यक्ति थे, तो उनको सार्वजनिक जीवन से दूर रखा जाता। उनकी नाक बहती रहती, बेढंग हँसी हँसते, शरीर खुजलाते रहते। लेकिन, वह इतने बेवकूफ़ भी नहीं थे। 

जब उन्हें पकड़ने गए तो उन्होंने कहा, “मुझे मत मारो। मैं पंद्रह हज़ार मुद्राएँ अभी के अभी दे सकता हूँ।”

घूस खाकर उन कुलीनों ने क्लॉडियस को मंच पर लाया, और जनता के समक्ष कहा, “हमारे नए सीज़र क्लॉडियस का स्वागत कीजिए!”

आश्चर्यजनक रूप से क्लॉडियस एक ठीक-ठाक काबिल शासक रहे, और उन्होंने ही 43 ई. में ब्रिटेन पर निर्णायक विजय दिला कर उसे पूरी तरह रोमन साम्राज्य का हिस्सा बनाया। वहाँ की भाषा लैटिन बनायी गयी, रोमन संस्कृति और शिक्षा लायी गयी। 

धीरे-धीरे वे असभ्य माने जाने वाले सेल्टिक मूल के लोग भविष्य के ‘सभ्य अंग्रेज़’ बनने लगे।
(क्रमशः) 

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रोम का इतिहास - दो (17) 
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Thursday, 26 May 2022

डायर्मेड मक्कलक / ईसाइयत का इतिहास -:अ हिस्ट्री ऑफ़ क्रिश्चियनिटी (3)


                चित्र - किंग सोलोमन

भूमध्य सागर के पूर्वी-दक्षिणी तट के अनेक नाम रहे हैं. सबसे पुराने सन्दर्भ उसे केनन (Canaan) बताते हैं. हालिया नाम हैं इस्राएल और पैलेस्टीन. पहला नाम यहूदियों को याद दिलाता है कि इस जमीन को उनके ईश्वर ने उन्हें देने का वादा किया था, यही उनकी प्रतिश्रुत भूमि है, प्रॉमिस्ड लैंड. यहीं पर उनका पुराना राज्य जूडेआ था जिससे उनकी नस्ल का अंग्रेजी नाम ज्यू बना. यूनानी शब्द जूडेआ का हीब्रू रूप यहूदा है, जिससे उनकी नस्ल का अरबी नाम यहूदी बना. 

ईसाइयों के लिए इसका नाम 'पवित्र भूमि' (हौली लैंड) है क्योंकि यहीं ईसा मसीह का जन्म और उनकी मृत्यु हुई थी. यहीं गलीली है जिसके निकट रहते येशुआ ने बचपन में यहूदियों के इस जमीन से लगाव की तमाम कहानियाँ सुनी होंगी. और इस्राएल में ही जेरूसलम है जिसके निकट ईसा को सूली पर लटकाया गया था. जेरूसलम में ही यहूदियों का प्राचीन मंदिर ज़ायन था और यह जगह इस्लाम के भी प्राचीन, पवित्रतम स्थलों में एक रही है.

जेरूसलम पर तीनो धर्म दावा करते हैं, स्वाभाविक था कि जेरूसलम को बार बार रक्तपात देखना पड़ा. समुद्र और पहाड़ी बीहड़ के बीच यह केनन / इस्राएल / पैलेस्टीन एक उजाड़ जगह है, उपजाऊ भूमि बहुत कम, वर्षा बहुत कम होती है, पश्चिम से आती गर्म शुष्क हवा मिटटी में नमी नहीं रहने देती. फिर भी इसके आधिपत्य के लिए युद्ध होते रहे - बस धार्मिक कारणों से नहीं. मिश्र और दजला-फरात की घाटियों में उगती, गिरती और फिर उगती सभ्यताओं के बीच स्थल मार्ग केनन होकर ही सम्भव था. रक्त पात की एक वजह केनन की सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थिति भी रही. 

उजाड़ होने के बाद भी केनन के कुछ क्षेत्र पुरा काल से आबाद रहे हैं. शेकम ऐसा ही एक नगर था. शेकम के शासकों के द्वारा, जो मिश्र के फ़ेरो के अधीन थे, फ़ेरो को लिखे पत्र उपलब्ध हैं और उनसे हजार वर्ष ई.पू. के केनन की कुछ जानकारियाँ मिलतीं हैं. ऐसे ही कुछ अन्य पुरातात्विक स्रोतों से मिली जानकारी और यहूदियों के इतिहास के एक मुख्य स्रोत बाइबिल से मिलती जानकारियों में भिन्नता हैं. 

बाइबिल में यहूदियों के कुछ कुलपिताओं (पूजनीय वृद्ध व्यक्तियों, पैट्रिआर्क्स) के उल्लेख आये हैं. सबसे प्राचीन अब्राम थे, जो उर (वर्तमान ईराक) से आये थे. बाइबिल के अनुसार ईश्वर ने उनका नाम  अब्राहम कर दिया और उन्हें केनन की जमीन देने का वादा किया, बार बार.

अब्राम का एक फसादी पौत्र था जेकब. किसी अजीब अजनबी ने एक रात अँधेरे में जेकब को कुश्ती में पराजित कर उसका नया नाम रखा इस्राएल, जिसका अर्थ होता है "जो ईश्वर से संघर्ष करता है". इस्राएल के लड़कों से यहूदी निकले. यहूदी विश्वास है कि जेकब को पराजित करने वाला वह अजनबी और कोई नहीं, ईश्वर ही थे. अपने ईश्वर के साथ यहूदियों के संबंध आंतरिक, सघन, और कुछ द्वंद्वात्मक भी रहे हैं. और कौन लोग अपने आप को उस व्यक्ति की संतान बताएंगे जो उससे लड़ा था जिसकी वे पूजा करते हों?

इसके आगे लेखक ने अपने संदेह व्यक्त किये हैं, यह स्वीकार करते हुए कि ये विवादास्पद हो सकते हैं. 

कुलपिताओं के विस्तृत उल्लेख बाइबिल के जेनेसिस में मिलते हैं. बाइबिल में दिए सन्दर्भों के अनुसार अब्राहम का काल ईसा से 1800 वर्ष पहले का होना चाहिए. उसके बाद यहूदियों के पैगम्बरों की चर्चा अन्यत्र आई है: इसाएया, जेरेमिया आदि. पैगम्बरों का कालखंड आठवीं और सातवीं सदी ई.पू. का है लेकिन उन्होंने कुलपिताओं की बात नहीं की, जो उनसे हजार वर्ष पहले हो गए थे. कुलपिताओं की बात फिर मिलती है, पूरे विस्तार में, छठी सदी ई. पू. में. लेखक विचार से  ये कुलपिता उसी काल के होंगे  न कि अठारहवीं सदी ई.पू. के.          

इसके समर्थन में वे फिलिस्तीनों की बात भी करते हैं. ये फिलिस्तीनी केनन के सागर तट पर बसे थे. यहूदियों ने इन्हे हटाने के बहुत प्रयास किये थे पर पूरी तरह नहीं हटा पाए थे. बाइबिल में कुलपिताओं के काल में फिलिस्तीनियों की बात आती है. लेकिन फिलिस्तीनी अठारहवीं सदी ई.पू. में वहां नहीं थे. फिलिस्तीनियों पर मिश्र में पर्याप्त अभिलेख हैं जो बताते हैं कि वे समुद्र से बारहवीं सदी ई.पू. के आस-पास केनन आये थे. यदि कुलपिताओं को केनन में फिलिस्तीनी मिले थे तो निश्चित ही वे वहाँ बारहवीं सदी ई.पू. के बाद ही आए होंगे, अठारहवीं सदी ई.पू. में नहीं.
    
मूसा (मोज़ेस) पर लेखक का कहना है कि मूसा कोई यहूदी नाम नहीं है, यह मिश्र का नाम है.  इस आधार पर वे कहते हैं कि मूसा के नेतृत्व में जो लोग केनन आए थे वे किसी एक नस्ली समूह के नहीं थे. आगे वे कहते हैं,  बाइबिल की जजेज़ में आये वृतांतों के पुरातात्विक समर्थन मिलते हैं. इसमें जिस समय के वर्णन हैं उस कालखंड में यहूदियों का कोई राजा नहीं होता था. बस मुंसिफ (जज) होते थे जो शान्ति या युद्ध, दोनों समय क्या करना है इस पर अपने निर्णय देते थे. उनके पद वंशानुगत नहीं थे. इस किताब में बार बार ईश्वर के निर्देशों की बात आयी है - कभी यहूदी उन्हें मानते थे कभी नहीं भी मानते थे. लेकिन ईश्वर बस एक था. 

ऐसा नहीं है कि ओल्ड टेस्टामेंट में एक ही ईश्वर का उल्लेख है. एक जगह विभिन्न कुलपिताओं के अलग अलग ईश्वरों के भी उल्लेख हैं, जेनेसिस (31.53) में अब्राहम के पुत्र ईसाक के ईश्वर 'भय' की चर्चा है, जेनेसिस (49.24) में ही जेकब के ईश्वर 'महाबली' का उल्लेख है और 15.1 में अब्राहम के ईश्वर 'रक्षक' का. जेनेसिस (31.53) में जेकब के एक तकरार को सुलझाने के लिए दोनों दलों के व्यक्तिगत ईश्वरों से निर्णय की अभ्यर्थना की गयी है - अब्राहम के ईश्वर  से और नाहोर के ईश्वर से! 

जेनेसिस में अनेक ईश्वरों के उल्लेख के बाद जजेज़ में इस्राएल के बस एक ईश्वर को देख लेखक के विचार हैं कि यहूदी एक धार्मिक समुदाय था - उनकी एक नस्ल नहीं थी. जिन लोगों का उस  ईश्वर में विश्वास था वे सब एक साथ मिल गए थे.

'जजेज़' में वर्णित समय की समाप्ति तक यहूदी इतने समृद्ध हो गए थे कि एक जज सॉल ने अपने आप को यहूदियों का राजा घोषित कर दिया. अनेक यहूदी सॉल का राजा बनना अनुचित मानते थे. सॉल का एक युवा दरबारी डेविड उसे विस्थापित कर यहूदियों का राजा बना. डेविड के और उसके बाद उसके पुत्र सोलोमन के शासन काल निस्संदेह यहूदियों के सबसे गरिमामय दिन थे.
(क्रमशः) 

ईसाइयत का इतिहास (2) 
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कानून - सेक्स वर्कर्स के संबंध में सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण फैसला / विजय शंकर सिंह

सेक्स वर्कर्स यानी यौन कर्मियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक सराहनीय फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यौनकर्मी भी मानव शालीनता और गरिमा के मौलिक अधिकारों के दायरे में आते हैं। उन्हे भी मानवीय शालीनता और गरिमा से जीने का उतना ही आधिकार है, जितना किसी भी अन्य नागरिक को। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी निर्देश दिया है कि पुलिस को यौनकर्मियों के साथ सम्मान का व्यवहार करना चाहिए और सेक्स वर्कर्स का जुबानी या शारीरिक रूप से दुरुपयोग और शोषण नहीं करना चाहिए।

मीडिया में सेक्स वर्कर्स के बारे में तरह तरह की रिपोर्टिंग का संज्ञान लेते हुए शीर्ष अदालत ने, निर्देश दिया है कि, मीडिया को इस संबंध में ख़बरें लिखते समय उनकी तस्वीरें मीडिया में, प्रकाशित नहीं करनी चाहिए या उनकी पहचान का खुलासा नहीं करना चाहिए और कहा कि, यदि मीडिया ग्राहकों के साथ सेक्स वर्कर्स की तस्वीरें प्रकाशित या प्रसारित करता है तो, भारतीय दंड संहिता की धारा 354 सी के तहत दृश्यता के अपराध को लागू किया जाना चाहिए। 

आईपीसी की धारा 354 सी के अनुसार, 
"कोई पुरुष, जो प्राइवेट कार्य में संलग्न स्त्री को उन परिस्थितियों में देखेगा या का चित्र खींचेगा, जहां उसे सामान्यता या तो अपराधी द्वारा या अपराधी की पहल पर किसी अन्य व्यक्ति द्वारा देखे न जाने की प्रत्याशा होगी, या ऐसे चित्र को प्रसारित, प्रथम दोषसिद्धि पर दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि एक वर्ष से न्यून न होगी, किन्तु जो तीन वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा एवं जुर्माने से भी दंडनीय होगा और द्वितीय या पश्चात्वर्ती दोषसिद्धि पर दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष से न्यून नहीं होगी, किन्तु जो सात वर्ष तक को हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।" 
भारतीय प्रेस परिषद को इस संबंध में उचित दिशा-निर्देश जारी करने का निर्देश दिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश, भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत प्राप्त शक्ति का प्रयोग करते हुए सेक्स वर्कर्स के अधिकारों पर कोर्ट द्वारा नियुक्त पैनल द्वारा की गई कुछ सिफारिशों को स्वीकार करते हुए जारी किए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है, 
 "... मानव शालीनता और गरिमा की बुनियादी सुरक्षा यौनकर्मियों और उनके बच्चों तक फैली हुई है, जो अपने काम से जुड़े सामाजिक कलंक का खामियाजा भुगतते हुए समाज के हाशिए पर चले जाते हैं, गरिमा के साथ जीने के अपने अधिकार से वंचित हो जाते हैं और  अपने बच्चों को समान अवसर प्रदान करने के अवसर नहीं दे पाते हैं।"
न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति बी.आर.  गवई और ए.एस.  बोपन्ना ने स्पष्ट किया कि 
" इस प्रकार पारित निर्देश तब तक लागू रहेंगे जब तक केंद्र सरकार एक कानून नही बना लेती।"
अभी तक इन निर्देशों के अनुसार सरकार ने कोई कानून नहीं बनाए हैं। जब तक कानून नहीं बन जाते, यही निर्देश कानून की तरह माने जायेंगे। 

सेक्स वर्कर्स की व्यथा का संज्ञान लेते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश दिनांक 19.07.2011 द्वारा यौनकर्मियों के जीवन सुधार और उनके गरिमा और शालीनता के अधिकार को दृष्टिगत रखते हुए, एक पैनल का गठन किया था। उक्त  पैनल ने, मुख्य रूप से निम्न तीन पहलुओं की पहचान की थी -

1.  तस्करी की रोकथाम;
2. यौन कार्य छोड़ने की इच्छा रखने वाली यौनकर्मियों का पुनर्वास;  और 
3. यौनकर्मियों के लिए अनुकूल परिस्थितियां जो सम्मान के साथ यौनकर्मियों के रूप में काम करना जारी रखना चाहती हैं।

विंदु तीन, को अंततः भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के प्रावधानों के अनुसार यौनकर्मियों के लिए सम्मान के साथ जीने के लिए अनुकूल परिस्थितियों के रूप में संशोधित किया गया था। पैनल ने सभी संबंधित हितधारकों से विचार विमर्श करने के बाद, अदालत में एक व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।  इसके बाद, 2016 में, जब यह मामला सूचीबद्ध किया गया था तो, केंद्र सरकार ने न्यायालय को सूचित किया था कि, पैनल द्वारा की गई सिफारिशें सरकार के विचाराधीन थीं और उसी को शामिल करते हुए एक ड्राफ्ट कानून प्रकाशित किया गया। 

इस तथ्य के मद्देनजर कि वह कानून अभी तक ड्राफ्ट के ही रूप में है, जबकि, वर्ष 2016 में ही सुप्रीम कोर्ट ने कानून बनाने के लिए सरकार को सिफारिशें भेज दी थीं, और सरकार के ही अनुसार, उन्होने कानून का ड्राफ्ट भी तैयार कर लिया है, पर ड्राफ्ट, कानून बनने के लिए विधेयक के रूप में संसद में नहीं रखा जा सका। इस विलंब का संज्ञान लेते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने, कानूनी दिशा-निर्देश जारी करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत प्राप्त शक्ति का प्रयोग करते हुए, यह दिशा निर्देश जारी किए, जो कानून बनाए जाने तक, कानून की ही तरह माने जायेंगे। आप को याद होगा, ऐसी ही गाइडलाइन विशाखा बनाम राजस्थान सरकार के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने जारी किया था, जो विशाखा गाइडलाइंस के रूप में जानी जाती है और कार्यस्थल पर महिलाओ के उत्पीड़न को रोकने के संबंध में है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है,
"इस न्यायालय के निर्णयों की एक श्रृंखला में, इस शक्ति (अनु 141) को मान्यता दी गई है और यदि आवश्यक हो, तब तक रिक्त स्थान को भरने के लिए, आवश्यक निर्देश जारी करके प्रयोग किया जाता है, जब तक कि विधायिका इस अंतराल को कवर करने के लिए उचित कदम नहीं उठा लेती है या कार्यपालिका अपनी भूमिका का निर्वहन करती है।"

खंडपीठ ने दोहराया कि, 
"जीवन का अधिकार, मानव गरिमा के साथ जीने का अधिकार और पर्याप्त पोषण, कपड़े और आश्रय जैसी जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं को शामिल करने के लिए देह या संकाय की सुरक्षा का अधिकार इन सेक्स वर्कर्स को भी उतना ही है जितना किसी भी अन्य नागरिक को। न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें काम करने का भी अधिकार है। जीवन के अधिकार के अधिकार को, गरिमा के साथ स्वीकार करते हुए, जिसमे निस्संदेह, यौनकर्म और उनके बच्चों तक शामिल हैं, सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने राज्य सरकार को पैनल द्वारा की गई कुछ सिफारिशों का, कड़ाई से अनुपालन करने का निर्देश दिया, जिन्हें केंद्र सरकार ने स्वीकार भी कर लिया। 

न्यायालय ने राज्यों और संघ शासित राज्यों को भी, पैनल द्वारा की गई निम्नलिखित सिफारिशों का कड़ाई से अनुपालन करने का निर्देश दिया है:

1. कोई भी यौनकर्मी जो यौन उत्पीड़न का शिकार है, उसे दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 357C के अनुसार "दिशानिर्देश और प्रोटोकॉल: मेडिको" के अनुसार तत्काल चिकित्सा सहायता सहित यौन हमले के पीड़ित को उपलब्ध सभी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए।  
- उत्तरजीवी/यौन हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए कानूनी देखभाल", स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (मार्च, 2014)।

2. राज्य सरकारों को सभी आईटीपीए सुरक्षा गृहों का सर्वेक्षण करने का निर्देश दिया जाए ताकि वयस्क महिलाओं के मामलों की समीक्षा की जा सके, जिन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध हिरासत में लिया गया है और उन्हें समयबद्ध तरीके से रिहा करने के लिए कार्रवाई की जा सकती है।

3. यह देखा गया है कि यौनकर्मियों के प्रति पुलिस का रवैया अक्सर क्रूर और हिंसक होता है। यह ऐसा है जैसे वे एक ऐसा वर्ग हैं जिनके अधिकारों को मान्यता नहीं है। पुलिस और अन्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों को यौनकर्मियों के अधिकारों के प्रति संवेदनशील बनाया जाना चाहिए, जो सभी नागरिकों के लिए संविधान में गारंटीकृत सभी बुनियादी मानवाधिकारों और अन्य अधिकारों का भी आनंद लेते हैं। पुलिस को सभी यौनकर्मियों के साथ गरिमापूर्ण व्यवहार करना चाहिए और उन्हें, सेक्स वर्कर्स के साथ, मौखिक और शारीरिक रूप से दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए और न ही, उनके साथ हिंसक व्यवहार करना चाहिए या उन्हें किसी भी यौन गतिविधि के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए।

4. भारतीय प्रेस परिषद से मीडिया के लिए उचित दिशा-निर्देश जारी करने का आग्रह किया जाना चाहिए ताकि गिरफ्तारी, छापे और बचाव कार्यों के दौरान यौनकर्मियों की पहचान प्रकट न करने के लिए अत्यधिक सावधानी बरती जाए, चाहे वह पीड़ित हो या आरोपी और किसी भी फोटो को प्रकाशित या प्रसारित बिलकुल नहीं किया जाय। इस तरह की पहचान का खुलासा करने वालों के खिलाफ धारा 354 सी आईपीसी में कानूनी कार्यवाही की जाय। इसके अलावा, धारा 354 सी, आईपीसी, जो दृश्यता को एक आपराधिक अपराध बनाती है, को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के खिलाफ सख्ती से लागू किया जाना चाहिए, ताकि बचाव अभियान की ब्रेकिंग खबरों की होड़ में, वे अनावश्यक रूप से ऐसे तस्वीरों और वीडियो फुटेज का लगातार प्रसारण न करने लगे। टीआरपी की आड़ में अपने ग्राहकों के साथ यौनकर्मियों की तस्वीरें प्रसारित करने पर रोक लगाई जाए। 

5. यौनकर्मी अपने स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए जो उपाय करते हैं (जैसे, कंडोम का उपयोग, आदि) को न तो अपराध माना जाना चाहिए और न ही उन्हें अपराध के सबूत के रूप में देखा जाना चाहिए।

6. केंद्र सरकार और राज्य सरकारें, राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण, राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण और जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण के माध्यम से, यौनकर्मियों को उनके अधिकारों के साथ-साथ यौन कार्य, अधिकारों और दायित्वों की वैधता के बारे में शिक्षित करने के लिए कार्यशालाएं आयोजित करनी चाहिए।  
पुलिस और कानून के तहत क्या अनुमति है और क्या निषिद्ध है, इसकी जानकारी सेक्स वर्कर्स को दी जानी चाहिए। 
यौनकर्मियों को यह भी बताया जा सकता है कि कैसे वे अपने अधिकारों को लागू करने के लिए न्यायिक प्रणाली तक पहुंच प्राप्त कर सकती हैं और तस्करों या पुलिस के हाथों अनावश्यक उत्पीड़न को रोक सकती हैं।

 बेंच ने यह भी आदेश दिया है कि, 
 "राज्य सरकारों / केंद्रशासित प्रदेशों को पैनल द्वारा की गई सिफारिशों के कार्यान्वयन के अलावा, पैरा 2,4,5,6,7,9 (ऊपर उल्लिखित सिफारिशें) में की गई सिफारिशों का कड़ाई से अनुपालन करने का निर्देश दिया जाता है।  अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम, 1956 के तहत सक्षम अधिकारियों को अधिनियम के प्रावधानों का पालन करने का निर्देश दिया गया है।

पैनल की कुछ अन्य सिफारिशें जिनके बारे में केंद्र सरकार ने आपत्ति व्यक्त की थी, वे इस प्रकार हैं -

1. यौनकर्मी कानून के समान संरक्षण के हकदार हैं।  आपराधिक कानून सभी मामलों में 'आयु' और 'सहमति' के आधार पर समान रूप से लागू होना चाहिए।  जब यह स्पष्ट हो जाए कि यौनकर्मी वयस्क है और सहमति से भाग ले रही है, तो पुलिस को हस्तक्षेप करने या कोई आपराधिक कार्रवाई करने से बचना चाहिए।  ऐसी चिंताएं रही हैं कि पुलिस यौनकर्मियों को दूसरों से अलग देखती है। जब कोई यौनकर्मी आपराधिक/यौन/किसी अन्य प्रकार के अपराध की शिकायत करता है, तो पुलिस को इसे गंभीरता से लेना चाहिए और कानून के अनुसार कार्य करना चाहिए।

2. जब भी किसी वेश्यालय पर छापा मारा जाता है, क्योंकि स्वैच्छिक यौन कार्य अवैध नहीं है और केवल वेश्यालय चलाना गैरकानूनी है, संबंधित यौनकर्मियों को गिरफ्तार या दंडित या परेशान या पीड़ित नहीं किया जाना चाहिए।

3. केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को सेक्स वर्कर्स और/या उनके प्रतिनिधियों को सभी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में शामिल करना चाहिए, जिसमें सेक्स वर्कर्स के लिए किसी भी नीति या कार्यक्रम की योजना बनाना, डिजाइन करना और लागू करना या सेक्स से संबंधित कानूनों में कोई बदलाव / सुधार करना शामिल है।  यह निर्णय लेने वाले अधिकारियों/पैनल में उन्हें शामिल करके और/या उन्हें प्रभावित करने वाले किसी भी निर्णय पर उनके विचार लेकर किया जा सकता है।

4. जैसा कि दिनांक 22.03.2012 की छठी अंतरिम रिपोर्ट में पहले ही सिफारिश की गई है, एक सेक्स वर्कर के किसी भी बच्चे को केवल इस आधार पर मां से अलग नहीं किया जाना चाहिए कि वह देह व्यापार में है।  इसके अलावा, यदि कोई नाबालिग वेश्यालय में या यौनकर्मियों के साथ रहता हुआ पाया जाता है, तो यह नहीं माना जाना चाहिए कि उसकी तस्करी की गई है। यदि यौनकर्मी का दावा है कि वह उसका बेटा/बेटी है, तो यह निर्धारित करने के लिए परीक्षण किया जा सकता है कि क्या वह दावा सही है और यदि ऐसा है, तो नाबालिग को जबरन अलग नहीं किया जाना चाहिए।

खंडपीठ ने केंद्र सरकार को छह सप्ताह की अवधि के भीतर पैनल द्वारा की गई अन्य सिफारिशों का जवाब देने का निर्देश दिया। अब इस मामले अगली सुनवाई, 27.07.2022 को तय की गई है।

(विजय शंकर सिंह)

प्रवीण झा / रोम का इतिहास - दो (17)

                   चित्र: टाइबेरियस

टाइबेरियस नियति से बने राजा थे, जिन्हें न जनता पसंद करती थी, न उनके पूर्ववर्ती राजा ऑक्टावियन ऑगस्तस ही। उनसे अधिक काबिल व्यक्ति थे उनके अपने दत्तक पुत्र और परिवार के दामाद जर्मैनिकस। उन्हें रोमन इतिहास में सिकंदर महान के समकक्ष माना जाता है, क्योंकि उन्होंने कम उम्र में कई जीतें दिलायी। जर्मैनिक कबीलों को हराया, और शाही सेना के सेनापति बने। जनता उनमें अगला सीज़र देख रही थी।

एक दिन अचानक जर्मैनिकस चल बसे। उनकी पत्नी अग्रिप्पिना (ऑक्टावियस सीज़र की पोती) ने टाइबेरियस पर षडयंत्र का आरोप लगाया। जनता में विद्रोह का आह्वान करने लगी, तो उन्हें गिरफ़्तार कर देशनिकाला दे दिया गया।

इसकी संभावना कम है कि टाइबेरियस ने ऐसा किया हो। वह तो स्वयं को सीज़र कहलाना नहीं पसंद करते। अपने नाम पर महीना नहीं रखवाया। उन्होंने कई इमारतें बनवायीं, लेकिन उन पर सिर्फ़ पूर्वजों का नाम खुदवाया, अपना नहीं।  उनके विषय में वर्णित एक मशहूर विकृति है कि वह स्त्रियों के साथ यौन-संबंध भी स्वयं नहीं स्थापित करते। उन्हें रोज अपने कमरे में बुला कर किसी अंगरक्षक या अन्य पुरुष से रति-क्रिया करवाते और स्वयं शराब पीते हुए निहारते।

बूढ़े और अक्षम दिख रहे टाइबेरियस के शाही सेनापति (Praetorian Guard) बने - सेजैनस। वह षडयंत्रकारी व्यक्ति थे, और जर्मैनिकस की मृत्यु में उनका हाथ हो सकता था। 

उन्होंने 26 ईसवी में टाइबेरियस को कहा, “आप कैप्री द्वीप पर जाकर आराम करें। अपने आदेश चिट्ठियों से देते रहें, मैं यहाँ प्रशासन संभाल लूँगा।”

टाइबेरियस वाकई रोम छोड़ कर उस द्वीप पर चले गए, और अपनी मृत्यु तक वहीं रहे। इसी काल में मुमकिन है कि यहूदियों में एक नयी शाखा का जन्म हो रहा हो। कोई व्यक्ति ऐसे हों, जो स्वयं को ईश्वर के प्रतिनिधि कह रहे हों। यह बात मूसा ने कही थी कि एक मसीहा आएँगे, लेकिन वह प्रतीक्षा तो आज तक यहूदी कर रहे हैं।

यीशु का नाम बाइबल के ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ में नहीं है। वह किताबें यहूदियों के धर्मग्रंथ ‘तनख़’ पर आधारित है, जिसमें सृष्टि से बात शुरू होकर पवित्र भूमि (जेरूसलम) की ओर मनुष्य के पलायन की बात है। उसमें एक संकेत है कि कोई मनुज परमेश्वर का पुत्र बन कर आएगा।

‘न्यू टेस्टामेंट’ में यीशु की जीवनी है, जो संभवत: 70 ईसवी के बाद लिखी गयी। उससे पूर्व इतिहासकार टैसिटस 64 ईसवी में रोम में लगी आग का वर्णन करते हैं, जहाँ पहली बार एक ‘क्राइस्टस’ नाम की चर्चा है। 

उन्होंने लिखा है,

“क्रिश्चियन की उत्पत्ति क्राइस्टस से है, जिसे टाइबेरियस के काल में पोन्टियस पिलाते ने कड़ी सजा दी थी। उससे एक अंधविश्वास का जन्म सबसे पहले यूदाया प्रांत में हुआ। चूँकि रोम में दुनिया की शर्मनाक और बुरी चीजें जल्दी जगह बना लेती हैं, यह भी आ गया….एक अपराधी को भी अगर बुरी यातना दी जाए, तो उसके प्रति संवेदना जन्म ले ही लेती है।”

इतिहासकारों के अनुसार रोमन साम्राज्य में यह नीति रही थी कि यहूदियों या किसी अन्य पंथ के निजी मामलों में दखल कम दी जाए। सेजैनस ने 26 ई. में पोन्टियस पिलाते नामक व्यक्ति को यूदाया का राज्यपाल (गवर्नर) नियुक्त किया।

उसी दौरान यहूदियों के धर्म न्यायालय ‘सेन्हाद्रिन’ ने इस नए उभरते पंथ के लोगों को सजाएँ देनी शुरू की। टैसिटस के अनुसार इन सजाओं में जंगली जानवरों द्वारा भक्षण कराना, सूली पर लटकाना, आग लगाना आदि थे। हालाँकि ईश-निंदा (blasphepy) की लिखित सजा पत्थरों से मार-मार कर मृत्यु देना थी। नज़रेथ क्षेत्र के यीशु नामक व्यक्ति को इनमें से एक सजा मिलने की संभावना है।

यह घटना जिन लोगों ने देखी-सुनी होगी, उन्होंने इसका अलग-अलग वर्णन लिखना शुरू किया होगा, जिसने संपादित परिष्कृत होकर ‘न्यू टेस्टामेंट’ का रूप लिया। एक पंथ धीरे-धीरे एक धर्म में तब्दील होता गया, जिसकी विस्तृत चर्चा आगे होगी।

उस समय राजा टाइबेरियस को यह शंका हुई कि सेजैनस अधिक शक्तिशाली होते जा रहे हैं, और मनमर्ज़ी चला रहे हैं। उन्होंने एक दिन अपने द्वीप पर सिनेट और सेजैनस को बुलाया। वहाँ सेजैनस पर आरोपों की फ़ेहरिस्त सुनायी गयी, और वहीं गला घोंट कर मार दिया गया। सेजैनस को मृत्युदंड देकर टाइबेरियस ने अपना नया उत्तराधिकारी चुन लिया।

यह उत्तराधिकारी थे उनके प्रतिद्वंद्वी माने जाते रहे जर्मैनिकस के पुत्र ‘कलिगुला’ (Caligula)। कलिगुला का अर्थ है- छोटे जूते, क्योंकि वह बचपन से ही अपने पिता के साथ फौजी जूते पहन कर घूमते थे। एक दिन जब टाइबेरियस मरणासन्न अवस्था में थे, तो कलिगुला नए शाही सेनापति मैक्रो के साथ उनसे मिलने गए। 

उन्होंने कहा, “आपकी अब उम्र हो गयी है। अपने प्राण त्याग कर मुझे रोम सौंप दें।”

यह कह कर उन्होंने एक तकिए से उनकी साँस घोंट कर मृत्यु दे दी। रोम वासी उल्लास में चिल्लाए- ‘टाइबेरियस गया टाइबर (नदी) में’

जूलियस और ऑगस्तस जैसे ताकतवर सीज़र के बाद आए यह ढीले-ढाले, अनचाहे टाइबेरियस इतिहास में गुमनाम ही रह जाते। उनका नाम किसी शिलालेख, किसी इमारत पर नहीं मिलता। लेकिन, वह इकलौते सीज़र बने, जिनका नाम लाखों लोग आज भी पढ़ते हैं। 

भले बदनाम सही, मगर बाइबल के लूका अध्याय, खंड 3 की पहली पंक्ति टाइबेरियस से शुरू होती है। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

रोम का इतिहास - दो (16) 
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