Sunday, 28 February 2021

चेखब की कहानी - वार्ड नंबर सिक्स की समीक्षा

चांद और कारागार
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यह मात्र एक संयोग हो सकता है कि रूस से सटे नार्वे में हेनरिक इब्सन अपना प्रसिद्ध नाटक ‘ऐन एनेमी ऑफ द पिपुल’ लिखते हैं, और उसके ठीक दस साल बाद ऐंतन चेखव की श्रेष्ठ कहानी ‘वार्ड नंबर सिक्स’ आती है- दोनों रचनाओं में व्यक्ति और समाज के सत्य के बीच पारस्परिक टकराहट तो अपरिहार्य-सा  मौजूद है, किंतु जहाँ उनके नायकों/ प्रतिनायकों की प्रतिक्रिया एक दूसरे के विपरीत होती है, पाठक पर उनका प्रभाव एक-सा- यथास्थिति के खिलाफ- होता है।
कहानी के पात्रों और परिवेश का सूक्ष्म से सूक्ष्म विवरण देने वाले चेखव ने ‘वार्ड नंबर सिक्स’ में चांद और कारागार का विम्ब कहानी के अंतिम भाग में उस समय प्रयोग किया है, जब रैगिन को मानसिक आरोग्यशाला में जबरन धकेल दिया जाता है; जब उसे इसका बोध होता है कि वह वहाँ से बाहर नही निकल सकता और बाकी जीवन अन्य पाँच रोगी-कैदियों के साथ उसी नरक में गुजारना पड़ेगा‌। रैगिन आरोग्यशाला की खिड़की की झँझरी से सटकर बाहर देखता है- दिन डूब चुका है, अंधेरा घिरने लगा है; आरोग्यशाला की कील लगी चारदीवारी से बाहर सामने दो सौ गज से भी कम की दूरी पर पत्थरों की दीवारों से घिरे सफेद रंग के कारागार का ऊँचा भवन (ह्वाइट हाउस!) खड़ा है और पेड़ों के बीच से क्षितिज पर किरमिजी चांद धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा है; और उससे भी आगे हड्डियों से चारकोल बनाने वाली फैक्ट्री से आग की लपटें उठ रही हैं- वह पूरा भयावह दृश्य देख उसका दिल भी डूब जाता है, जिसका एहसास उसे पहले कभी नहीं हुआ था; चांदनी में कमरे के फर्श पर गिरती झंझरी की छाया भी उसे एक जाल-सी प्रतीत होती है; और वह दुश्चक्र से निकलने को खिड़की के ग्रिल को उखाड़ फेकने का निष्फल प्रयास करता है।
(The moon and the prison, and the nails on the fence, and the far-away flames at the bone-charring factory were all terrible. ….Andrey Yefimitch assured himself that there was nothing special about the moon or the prison,… and that everything in time will decay and turn to earth, but he was suddenly overcome with desire; he clutched at the grating with both hands and shook it with all his might. The strong grating did not yield.)
चांद के विंब से मुझे ‘वार्ड नंबर सिक्स’ से सत्ताइस-अठाइस साल बाद लिखे गए फ्रांसीसी कथाकार समरसेट मॉम के उपन्यास ‘द मून ऐंड सिक्स पेंस’ की याद आती है. मॉम का उपन्यास एक चित्रकार के जीवन पर है, जो चित्रकला (चांद) के अटूट अनुराग में इतना लीन हो जाता है कि उसके पैर के पास पड़ा सिक्स पेंस (यथार्थ) दिखाई नहीं देता; परिणामस्वरूप उसे अभाव और कुष्ट-रोग की वजह से मरना पड़ता है; ‘वार्ड नंबर सिक्स’ का आंद्रे रैगिन किताबों के संसार में जीने का आदी होकर इतना अव्यावहारिक और निष्क्रिय बन जाता है कि यथार्थ की कठोर धरती पर गिरते ही टूटकर बिखर जाता है; जबकि इन दोनों से विपरीत ‘ऐन एनेमी ऑफ द पिपुल’ का डॉक्टर टॉमस स्टॉकमैन समूचे शहर की बेवकूफियों और बदमाशियों के सामने चट्टान की तरह अडिग रहता है।
रैगिन और टॉमस स्टॉकमैन दोनों डॉक्टर हैं; लेकिन जहाँ स्टॉकमैन लोगों की सेहत के लिए पूरे शहर और यहाँ तक कि अपने भाई और ससुर का भी विरोध करता है; और इस विरोध में उसकी पत्नी की नौकरी छूट जाती है, उसे तमाम जलालत झेलनी पड़ती है; वहीं आंद्रे रैगिन अस्पताल की दुर्दशा को पूर्ण रूप से जानने के बाद भी उसकी बेहतरी का कोई प्रयास तो नहीं ही करता; ऊपर से शिकायत करने वाले ग्रोमोव को सीख देता है कि दुख और पीड़ा से आदमी का चरित्र निखरता है और जब एक दिन सबको मर जाना है, तो फिर क्या बीमारी और अभाव के बीच यह वार्ड नंबर सिक्स और क्या आराम की जिंदगी! रैगिन के पास न तो कोई रचनात्मक आदर्श है, न ही परदुख-कातरता. दुनिया की तमाम कुरुपताओं के प्रति अगर उसके मन में कोई मनोभाव है तो वह है- उदासीनता.

ऐसा नहीं कि वह हमेशा से आलसी रहा है. उस अस्पताल में आने के बाद बहुत दिनों तक उसने रोगियों का इलाज इतनी दक्षता के साथ किया था कि लोग उसे बच्चों और स्त्रियों की बीमारियों के कुशल डॉक्टर एवं सर्जन के रूप में जानने लगे थे। लेकिन अचानक से दुखों के प्रति दार्शनिक उदासीनता और उपेक्षा के भाव ने उसे आलसी और अकर्मण्य बना डाला. एक कुशल डॉक्टर की संतान के रूप में बचपन से खाया-अघाया आंद्रे रैगिन वोदका की चुस्की के साथ पढ़ने और बौद्धिकों के साथ हवाई गप्पें लड़ाने में ही जीवन बिताने लगता है. शहर में एकमात्र अस्पताल के प्रभारी डॉक्टर होने के बाद भी रैगिन धीरे-धीरे अपनी चिकित्सा की जिम्मेवारी को भार समझने लगता है. अस्पताल की जर्जर अवस्था, और भ्रष्ट व्यवस्था के बीच बीस साल से मुफ्त के घर में पीने-खाने-पढ़ने में समय गुजारते हुए, संयोगवश अस्पताल-परिसर के एक कोने में स्थित मानसिक आरोग्यशाला में जब एक दिन पहली बार जाता है, तो वहाँ एक पढ़े-लिखे ‘बीमार’ इवान ग्रोमोव से मिलता है। वहाँ उसकी झिड़की और व्यंग्य-वाण सुनने के बावजूद, उसकी विद्वता से प्रभावित हो थोड़ा-बहुत किए जा रहे चिकित्सा-कार्य को भी भूल, केवल उससे मिलने और बातें करने में पूरा दिन गुजारना शुरू कर देता है. ऐसा नहीं है कि उसे पता नहीं कि वह गलत है. वह स्वयं अपने आप से कहता है कि वह अपनी ड्यूटी के प्रति बईमान है और मुफ्त की सुविधाएँ और वेतन ले रहा है.; फिर भी उसकी उदासीनता और विवशता आश्चर्यजनक और दूसरों के लिए असहनीय है. वह खुद तो आराम से सुविधाओं का उपभोग कर रहा है, लेकिन दूसरों को आत्मसंयम और तितिक्षा (Stoicism) का पाठ पढ़ाते हुए, डायोज़नीज़ जैसों का उदाहरण देकर और अस्पताल के प्रति अपनी उदासीनता को औचित्य प्रदान करते हुए कहता है कि 
‘If the aim of medicine is by drugs to alleviate(राहत देना) suffering, the question forces itself on one: why alleviate it? In the first place, they say that suffering leads man to perfection; and in the second, if mankind really learns to alleviate its sufferings with pills and drops, it will completely abandon religion and philosophy, in which it has hitherto found not merely protection from all sorts of trouble, but even happiness.’
पिता द्वारा जबरन डॉक्टरी के पेशे में लाए गए (पर वास्तव में पादरी बनने की इच्छा रखने वाले) रैगिन के व्यक्तित्व,  मनोभावों और कुतर्कों को इवान ग्रोमोव अपने इस कथन से आधारहीन और दोषपूर्ण सिद्ध कर देता है- 
“A doctrine which advocates indifference to wealth and to the comforts of life, and a contempt for suffering and death, is quite unintelligible to the vast majority of men, since that majority has never known wealth or the comforts of life; and to despise suffering would mean to it despising life itself, since the whole existence of man is made up of the sensations of hunger, cold, injury, and a Hamlet-like dread of death. The whole of life lies in these sensations; one may be oppressed by it, one may hate it, but one cannot despise it. Yes, so, I repeat, the doctrine of the Stoics can never have a future; from the beginning of time up to to-day you see continually increasing the struggle, the sensibility to pain, the capacity of responding to stimulus."
इस प्रकार आंद्रे रैगिन न केवल रूस के तत्कालीन, बल्कि हमारे देश के वर्तमान बौद्धिकों के एक बड़े वर्ग का भी प्रतिनिधित्व करता है. 

उपर्युक्त वार्तालाप के बीच से ऐसा आभास हो सकता है कि रैगिन कहानी का प्रतिनायक है और इवान ग्रोमोव, मरीज होते हुए भी नायक. तथापि,यह सही होने के बावजूद कि इवान को बचपन से दुख और परेशानियों से जूझना पड़ा है, और उसके मानसिक रोग की पुष्टि किसी डॉक्टर ने नहीं की है बल्कि लोगों की शिकायत पर पुलिस ने उसे इस मानसिक आरोग्यशाला में ला पटका है,  वास्तविकता तो यह है कि वह भी अपनी पिछली जिंदगी में कोई आदर्श व्यक्ति नहीं रहा है. वस्तुत:, पूरी कहानी में केवल ‘प्रेमविहीन’ प्रतिनायकों का जमावड़ा दिखाई देता है- ज़ारशाही, समाज का बौद्धिक वर्ग, स्थानीय स्वशासी निकाय (Zemestvo), अस्पताल के कर्मचारी, रैगिन का सहायक डॉक्टर, रैगिन से पहले का प्रभारी डॉक्टर,जिला अस्पताल से आने वाला एक अन्य डॉक्टर होबोतोव जो रैगिन का पद हथिया लेना चाहता है, दरवान, रसोइया तक सभी के सभी ठग और चोर हैं और उनके बीच पिसता हुआ मजदूर और किसान वर्ग है. 

गुलामी से मिलती-जुलती सर्फ-व्यवस्था के 1861 में समाप्त होने के बावजूद गरीबी और जहालत की संड़ांध चारों ओर बास मार रही है. यह यूँ ही नहीं है कि चेखव ने वार्ड नंबर सिक्स में पाँच मानसिक रोगियों में से तीन को कारीगर, कामगार/किसान दिखाया है और एक को यहूदी (जिसका कारखाना बीस साल पहले जला डाला गया था- जिसके लिए सांप्रदायिकता को जिम्मेदार माना जा सकता है). रेल स्टेशन से 160 किलोमीटर दूर के इस शहर और अस्पताल की जो हालत है, उसकी तुलना में आज के बिहार या यूपी के किसी भी गलीज सरकारी अस्पताल की स्थिति किसी निजी अस्पताल सरीखी लग सकती है।

चेखव ने जिस ठंडेपन और तटस्थता के साथ अस्पताल के माध्यम से समाज और व्यवस्था का जैसा चित्रण किया है, उसे पढ़-जान कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति में विद्रोही बन सकने की संभावना पैदा हो सकती थी। कहा जाता है कि लेनिन ने जब यह कहानी पढ़ी तो उन्होंने ऐसा महसूस किया जैसे वार्ड नंबर सिक्स में वे खुद बंद कर दिए गए हों. यही नहीं, उन्होंने किसी जगह यह भी लिखा था कि उनके क्रांतिकारी बनने में इस कहानी की भी एक (उत्प्रेरक) भूमिका रही है. इस कहानी से यह मिथक भी टूट जाता है कि केवल नकारात्मक पक्ष के उल्लेख से कहानी में सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न नहीं किया जा सकता. और यह कहानी उन लोगों के लिए भी एक मिसाल है, जो व्यक्ति या समाज की नकारात्मकता का चित्रण करने वालों को हिकारत की नजर से देखते हुए यह सीख देते हैं कि ‘Don’t run after negativity’| 

फकीरी और यथार्थवाद
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आंद्रे रैगिन का सहायक डॉक्टर सर्गेयिच एक सुबह रैगिन से कहता है, ‘हम गरीब इसलिए हैं, क्योंकि हम मन से दयालु ईश्वर की प्रर्थना नहीं करते’। डॉक्टर बनने से पहले रैगिन भी अति धार्मिक व्यक्ति रहा है। वह पादरी का कैरियर अपनाना चाहता था, लेकिन डॉक्टर पिता ने उसे जबरन चिकित्सा के क्षेत्र में जोत दिया। जाहिर है, उसका पैशन दबकर रह गया, जो समय पाकर फ़लसफ़े की किताबों के माध्यम से बार-बार प्रकट होता है। एक बार वह ईसा मसीह की उदारता का हवाला देता है, तो दूसरी बार बेहद अमानवीय ढंग से कहता है कि ‘यदि दवाओं का काम दुख-दर्द से राहत देना है तो प्रश्न उठता है कि आखिर राहत पहुँचाई ही क्यों जाय? पीड़ा तो आदमी को संपूर्णता प्रदान करती है, और दूसरी बात कि यदि मनुष्य इन दवाओं द्वारा अपनी पीड़ा को दूर करना सीख गया, तो वह पूर्ण रूप से धर्म और फलसफ़े को त्याग देगा, जिनमें वह अपनी परेशानियों से सुरक्षा और शांति पाता रहा है’। रैगिन के साथ हुईं बहसों में इवान ग्रोमोव उसके नजरिए को खारिज करते हुए कहता है कि ‘आपका फ़लसफ़ा मात्र सुविधा का फ़लसफ़ा है। चूँकि आप कुछ नहीं कर सकते, आप आलसी हैं, इसलिए आपका यह फक़ीरवाद (Fakirism) दृष्टि की उदारता नहीं, केवल आलस और जड़ता है। आप पीड़ा से उदासीन हैं, लेकिन मैं दावे के साथ कहता हूँ कि यदि आपकी उंगलियाँ दरवाजे में दब जायँ तो पूरी शक्ति के साथ चीख उठेंगे।’

आंद्रे रैगिन और सर्गेयिच- दोनों की धर्म संबंधी बातें सुनकर ऐसा लगता है मानो कोई डॉक्टर नहीं, धार्मिक गुरु प्रवचन दे रहा हो। और इवान द्वारा प्रयुक्त शब्द ‘फ़क़ीरवाद’ को सुन हमारे ज़ेहन में अपने देश का सर्वोच्च राष्ट्रवादी फकीर का चेहरा नाचने लगता है, जो विश्वव्यापी महामारी को भगाने के लिए नागरिकों से थाली और ताली बजवाता है, मोमबत्तियाँ जलवाता है और उसकी अनुगामी मीडिया उनकी वैज्ञानिकता पर दिन-रात बहसों का आयोजन करती है; और गोया इतनी मूर्खताएँ नाकाफ़ी हों, कोई बड़ा-सा अस्पताल बनाने की जगह न्यायालयों और अन्य योगियों-फ़क़ीरों की सांठ-गाठ से महामारी-काल में ही अरबों रुपयों से राम मंदिर बनाने का मुहूर्त भी ताड़ाताड़ी निकाल डाला जाता है।

शुरू में हेनरिक इब्सन के नाटक ‘ऐन एनेमी ऑफ द पिपुल’ का जिक्र किया गया था। उसका भारतीयकरण  कर के सत्यजित रॉय ने एक फिल्म बनाई थी- ‘गणशत्रु’, जो 1990 में रिलीज़ हुई थी। यह वही समय था, जब बीजेपी द्वारा राम मंदिर के लिए भारत के कोने-कोने से ईंट अयोध्या ले जाए जाने का अभियान चलाया जा रहा था। इब्सन के नाटक में स्पा व थर्मल स्नान से रोग-मुक्ति का टूरिस्ट स्पॉट स्थापित किया गया है, जहाँ के जल की डॉक्टर स्टॉकमैन द्वारा की गई जाँच से उसके रोगाणुयुक्त होने का पता चलता है तो व्यवसाय का हित खतरे में पड़ जाता है। ‘गणशत्रु’ में त्रिपुरेश्वर मंदिर के चरणामृत के जल में हानिकारक बैक्टीरिया पाए जाते हैं और डॉक्टर अशोक गुप्ता जलशोधन होने तक मंदिर को बंद करने का सुझाव देते हैं, लेकिन उनके वैज्ञानिक सोच के खिलाफ़, तुलसी-पत्ते से विषाणुओं के नष्ट होने का झाँसा देकर अपने बर्चस्व के लिए धर्म का वास्ता देते हुए, उसका भाई शहर का मेयर निशीथ गुप्ता अंधविश्वासी जनता और मीडिया को अपने पक्ष में करके डॉक्टर को ही जनशत्रु घोषित करवा देता है; लेकिन नाटक की तरह फिल्म में भी तमाम विरोध, घर में तोड़-फोड़ और धमकियों के बाद भी उसके पक्ष में, मुट्ठी भर ही सही, खड़े होने वालों की ताकत से उत्साहित होकर डॉक्टर हार नहीं मानता और जनता के हित के लिए प्रदूषित पानी की रिपोर्ट कलकत्ता भेजने का निर्णय लेता है।

‘वार्ड नंबर सिक्स’ में चेखव ने इवान ग्रोमोव के लिए कहानी का एक बड़ा भाग सहानुभूतिपूर्वक समर्पित किया है। उस तर्क से कहानी का अगर कोई नायक हो सकता है तो वह इवान ग्रोमोव ही है। वह संयोग, समाज और सरकार, तीनों का मारा हुआ करुणा से युक्त खुद का एक कारुणिक और त्रासद पात्र है। उसके पिता एक सरकारी कर्मचारी थे और अच्छी-खासी संपन्नता घर में मौजूद थी। उस समय इवान पीटर्सबर्ग के विश्वविद्यालय का छात्र था, जब परिवार पर अचानक से विपदा का प्रकोप होना आरंभ हुआ। पहले उसका छोटा भाई बीमारी से मरा, और हफ़्ते भर के अंदर उसके पिता किसी सच्चे-झूठे गबन के केस में जेल गए; कुछ ही दिनों के अंदर जेल ही में टॉयफायड से मर गए और पैतृक घर और संपत्ति की कुड़की-नीलामी हो गई। इवान कुछ समय तो पीटर्सबर्ग में ट्यूशन और अन्य अंशकालिक कार्य के माध्यम से अर्थोपार्जन करते हुए पढ़ाई के साथ परिवार में बची एकमात्र माँ के पास घर-खर्च के पैसे भेजता रहा, लेकिन अंतत: दिन-रात के श्रम को बर्दाश्त न कर सकने के कारण उसे वापस भाड़े के घर में रह रही माँ के पास लौटना पड़ा। यहाँ उसे एक स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिली, लेकिन सहकर्मियों के साथ नहीं बन सकी और नौकरी छूट गई या खुद से छोड़नी पड़ी। इस बीच माँ भी मर गई। छह माह तक बिना किसी आय के किसी तरह ब्रेड-पानी पर काम चलाने के बाद उसे कोर्ट-अशर (संनिधाता/प्रवेशक) की नौकरी मिली, जो वह ईमानदारीपूर्वक तब तक करता रहा जब तक उसे उत्पीड़न संबंधी उन्माद (Persecution Mania) के दौरे आने की बीमारी की घोषणा के बाद उसे मुअत्तल नहीं कर दिया गया।

वह बचपन से कमजोर और जल्दी बीमार पड़ जाने वाला आदमी था। एक सच्चा, ईमानदार और हमेशा समाज की चिंता करने वाला होने के बाद भी उसके शक्की और चिड़चिड़े मिज़ाज के कारण उसका कोई दोस्त नहीं था। उसे यह देख-देख कर हमेशा क्षोभ होता था कि अच्छे और ईमानदार आदमी बड़ी कठिनाई से दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाते हैं, जबकि बेईमान और दुष्ट लोग फिजूलखर्ची और आरामदेह जिंदगी जीते हुए संपन्नता में खेलते रहते हैं। उसे नगर में एक अच्छे स्कूल, प्रगतिशील अखबार, थियेटर, जनसंवाद तथा बौद्धिक-लोगों द्वारा समन्वय की जरूरत महसूस होती थी, ताकि समाज अपनी असफलताओं और बुराइयों से संत्रस्त होकर उनसे निजात पाने पर गंभीरता से विचार कर सके।

परिवार एवं खुद की त्रासदी और कोर्ट में जजों और वकीलों से नजदीकी की वजह से उसे कानून का सूक्ष्म ज्ञान हो गया है। वह जान गया है कि ‘दूसरे लोगों की पीड़ाओं से व्यावसायिक संबंध रखने वाले जज, पुलिस, डॉक्टर, जैसे अधिकारी लगातार एक ही काम करते-करते एक समय के बाद इतने संवेदनाहीन हो जाते हैं कि चाहकर भी अपने ग्राहक/उपभोक्ता के साथ औपचारिक प्रवृत्ति के अलावा कोई इतर संबंध नहीं बना सकते; और इस संदर्भ में वे उन लोगों से अलग नहीं होते जो बिना किसी दया-ममता के जीव-जंतुओं को मारने का का काम करते हैं। मनुष्यों के प्रति अपनायी गई ऐसी 

औपचारिक,भावशून्य प्रवृत्ति वाले जजों को किसी निर्दोष आदमी को उसके संपत्ति सहित सभी अधिकारों से वंचित कर के उसे कड़ी कैद की सजा देने में केवल मात्र कुछ वक्त की जरूरत होती है। इसके लिए जजों को कुछ औपचारिकताओं को पूरा करने का समय चाहिए होता है, जिसके लिए उन्हें वेतन मिलता है; और उसके बाद सब कुछ खत्म हो जाता है। और तब आप रेलवे स्टेशन से एक सौ पचास मील दूर इस छोटे-से गंदे, घिनौने शहर में न्याय और सुरक्षा की तलाश में अपना जीवन नष्ट करने को आज़ाद हैं। दरअसल, जिस समाज में हर प्रकार की हिंसा को विवेकपूर्ण एवं संगत जरूरत के रूप में स्वीकार किया जाता हो, और जहाँ रिहाई के फैसले जैसे किसी भी दया-कार्य के विरोध में असंतुष्ट एवं प्रतिशोधात्मक भावना का भयंकर विस्फोट प्रकट किया जाता हो, उसमें न्याय के बारे में सोचना तक क्या असंगत नहीं?’

इवान के बारे में चेखव लिखते हैं कि ‘वह औरतों और प्रेम के बारे में हमेशा भावप्रवणता एवं उत्साह के साथ बात करता था, किंतु वह प्रेम में कभी नहीं पड़ा था( He always spoke with passion and enthusiasm of women and of love, but he had never been in love.)। क्या पता कोई स्त्री ने उसे कभी चाहा ही न हो! वरना कोई प्रेम से वंचित कैसे रह सकता है!

यहाँ ध्यान देने की बात है कि इवान ही नहीं, कहानी के सभी पात्र प्रेम से बिल्कुल वंचित  दिखाई देते हैं। कहानी में बताने लायक स्त्री-पात्र भी केवल एक ही है- रैगिन की रसोइया। और वह भी मशीन की भाँति काम करती है; काम के अलावा न तो वह रैगिन से बात करती है और न रैगिन उससे। लगता है नगर के तमाम पुरुषों के साथ स्त्रियों के पास भी दिल नाम की कोई चीज नहीं। ऐसे उदास और उदासीन नगर में रहना भी क्या और नहीं रहना भी क्या! यह लगभग वही भाषा है, जो रैगिन वार्ड नंबर सिक्स के बारे में इवान से फ़लसफ़ाई ढंग से कहता है कि ‘क्या उसकी गर्म स्टडी और क्या यह वार्ड नंबर सिक्स! सोचने पर दोनों में कोई अंतर नहीं।’

प्रेमविहीन उस नर्क में चाहे रैगिन का हमप्याला पोस्टमास्टर मिहाइल अवरियानिच हो अथवा होबोतोव, दरवान भूतपूर्व सैनिक निकिता हो अथवा रैगिन का सहायक डॉक्टर सर्गेयिच, सब के सब कुंठित और लुटेरे हैं और रैगिन को पैसे वाला समझकर उसे लूटना या उसकी जगह पर खुद बैठना चाहते हैं। जब उसे शहर से बाहर जाकर घूमने का निर्देश दिया जाता है, तो उसका एकमात्र दोस्त मिहाइल अवरियानिच उसे पागल समझकर उसकी तिमारदारी के बहाने उसके साथ जाता है और व्यर्थ की बकवाद करते हुए उसके पीछे चौबीस घंटे पड़ा रहता है। मिहाइल अवरियानिच जुए में पाँच सौ रूबल हार जाता है और वह रकम जुएखाने में चुकाने के लिए रैगिन से उधार माँगता है; और रैगिन की जहालत देखिए कि उसे अपने चिड़चिड़े व्यवहार का जिम्मेवार मानने के बावजूद, वह उसे अपने पास बची थोड़ी रकम में से वह रकम बिना किसी हील-हुज्जत के दे भी देता है। मिहाइल की एहसान फ़रामोशी देखिए कि वह रकम न चुकानी पड़े, इस वजह से मौका मिलते ही होबोतोव के साथ उसके द्वारा भी रैगिन के क्रोध को असामान्य मान उसे पागल करार दे दिया जाता है। उसके बाद रैगिन को वार्ड नंबर सिक्स में पहुँचाना आसान हो जाता है। इस प्रकार रैगिन के फलसफ़े का ऐसा करुण अंत होता है, जिसकी उसने कभी कल्पना तक न की होगी।

लगभग पचीस साल पहले मैंने यह कहानी पढ़ी थी। तब मुझे यह उतनी त्रासद नहीं लगी, लेकिन इस बार जब से इसे पढ़ा है, पिछली कई रातों की नींद उड़ गई है। अचानक तीन बजे रात को उठने के बाद उस वार्ड और उसके बाहर प्रेम से वंचित उस भयावह शहर की कल्पना करके दुबारा नींद नहीं आती; शायद यह सोचकर भी कि आज भी समाज की हालत कुछ खास बेहतर नहीं है। चेखव ने अपनी किसी भी कहानी में ऐसे भयावह समाज का चित्रण शायद नहीं किया होगा- जिसमें एक पूरे शहर और प्रकृति का ज़र्रा-ज़र्रा तक इतना उदास और नीरस दिखाई दे कि वहाँ से जितनी जल्दी हो सके भाग जाने का मन करने लगे। लेनिन की तरह कहानी के प्रभाव में हर व्यक्ति का क्रांतिकारी बनना असंभव है; हाँ, इससे पीछा जरूर छुड़ाया जा सकता है। इस कहानी पर और भी बहुत कुछ बात की जा सकती थी, लेकिन इससे जितनी जल्दी हो सके निकल जाने की जल्दी में अपने आलेख का यहीं अंत करता हूँ।

( नारायण सिंह )

Saturday, 27 February 2021

मधुविद्या क्या है ?

उत्तर इतना सीधा है कि आप विश्वास करने को तैयार न हों। 
जैसे शहद की मक्खी मीठे, कड़वे, कसैले, विषैले सभी प्रकार के फूलों का रस ग्रहण करती है, कभी कभी गन्दगी पर भी बैठी दिख जाती है, पर जो कुछ ग्रहण करती है उसको मधु में बदल देती है, उनका अपना गुण-दोष मिट जाता है। ठीक इसी तरह सूर्य अपनी किरणों से तपा कर वायु के माध्यम से सड़ी-गली चीजों से लेकर स्वच्छ और पवित्र सभी तरह की आर्द्र वस्तुओं और धरती पर उपलब्ध जल के सभी  स्रोतों से  आर्द्रता खींचकर अपने पास एकत्र कर लेता है और फिर इसी को पर्जन्य के द्वारा बरसाता है। यही सूर्य का इंद्रत्व है।
(रसान् रश्मिभिरादाय, वायुनाऽयं गतः सह। वर्षत्येष च यल्लोके तेनेन्द्र इति स स्मृतः।। बृहद्देवता, 1.68)
 
यही वह मधु है जो क्षरित हो कर नीचे धरती पर आता है, नदियों में प्रवाहित होता है।
(मधु क्षरन्ति सिंधवः) 
इसी आर्द्रता के साथ बहने वाली वायु के स्पर्श मात्र  से हम पुलकित हो जाते हैं, एक मस्ती की सी अनुभूति होती 
(मधु वाता ऋतायते ), 
जिसके लिए पुरवैया हवा को याद किया जाता है। यही अमृत के रूप में धरती में रिसता है तो निष्प्राण धरती से असंख्य तृण-वीरुध उग आते हैं। यह इसी विशेषता के कारण रेतस् भी है। जैसे दूध पिला कर मां शिशु का पालन करती है, उसी तरह यही जल/ पय वनस्पतियों का पालन करता है ।
(शिशुर्न जातोऽव चक्रदत् वने ...दिवो रेतसा सचते पयोवृधा) ।  
यही भेषज बन कर  मुरझाए अर्थात् मरणासन्न  ओषधियों और पादपों पुनर्जीवित कर देता है - सोम ने कहा कि जल के भीतर ही समस्त भेषज हैं, और इसी में सर्वमंगलकारी अग्नि भी है,
[अप्सु मे सोमो अब्रवीत् अन्तर्विश्वानि भेषजाः । अग्निः च विश्व शंभुवम् , 10.9.6 ]।  
यही मधु ओषधियों में भरा रहता है और कवि कामना करता है कि, 
( माध्वीर्नः सन्तु ओषधीः)।

सूर्य  इस रस का सोख कर कहाँ एकत्र करता है? 
इसके विषय में न तो कोई एक धारणा थी, न किसी एक के विषय में स्पष्ट जानकारी थी। गँवारों से लेकर  संभ्रांत जनों तक, नई सोच से लेकर पुराने विश्वासों तक,  सभी की कुछ  झलक वैदिक रचनाओं में मिल जाएगी। इसे  संक्षेप में दुहराएँ तो  एक बहुत पुराना विचार  यह था  कि आसमान से वृष्टि के देवता  (जीमूत) प्रस्राव करते हैं  और उसी से वर्षा होती है।  इसी का कुछ बदला हुआ रूप  वर्षा को रेतःसेक के रूप में चित्रित करना है। 
[घृतवती भुवनानां अभिश्रिया उर्वी पृथ्वी मधुदुघे सुपेशसा । द्यावापृथिवी वरुणस्य धर्मणा विष्कभिते अजरे भूरिरेतसा ।। 6.70.1] 
यह रेतस्  ही सोम है। इसमें  सोम कभी अश्व (assinus) रेत  के रूप में कल्पित किया जाता है ।
(अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेतः, 1.164.35; स पुनानो मदिन्ततमः सोमश्चमूषु सीदति । पशौ न रेत आदधत् ---, 9.99.6 ), 
कभी वृषभ के रूप में,
[रुवति भीमो वृषभस्ः तविष्यया शृंगे शिशानो हरिणी विचक्षणः । आ योनिं सोमः सुकृतं नि सीदति गव्ययी त्वक् भवति निर्णिक् अव्ययी ।। 9.70.7]।  
सोम (चन्द्रमा)  को   वृषभ के रूप में दिखाया गया है।
[  त्वं नृचक्षा असि सोम विश्वतः पवमान वृषभ ता वि धावसि, 9.86.38]।  

इसी से लिंगपूजा आरंभ होती है।  सोमनाथ या शिव के रूप में जिसकी पूजा की जाती है वह सोम का रस निकालने का खरल और ग्रावा (लोढ़ा) है जिसके मथने से निकला रस आगे निकली नाली से द्रोण कलश या डोंगे में धार के साथ गिरता है।  इन्द्र तो वृषभ हैं ही,
[ तमिन्द्रं वाजयामसि महे   वृत्राय हन्तवे स वृषा वृषभो भुवत्, 8.93.7], 
अग्नि भी वृषभ हैं, अपने प्रचंड रूप में बिगड़ैल साँड़ जैसा होने के कारण हैं और दूसरे, वाष्पन में ऊष्मा की भूमिका के कारण जिससे वडवानल की अवधारणा का संबंध है ।
[आ सुते सिञ्चत श्रियं रोदस्योरभिश्रियम् । रसा दधीत वृषभम् ।। 8.72.13] 
और सबसे ऊपर  आधुनिक ज्ञान था कि  वर्षा समुद्र के वाष्पन से  वायुमंडल में  संघनित सर्पणशील वाष्प  या बादलों के रूप में  प्रवाहित होता है।  प्रकृति के इस विधान से ही वायु की दिशा अनुकूल होने पर मेघ वायुमंडल में घिरते, परस्पर जुड़ कर संघनित (घन) हो जाते हैं, और बरसात होती है? परन्तु कुछ बादल ऐसे भी होते हैं जो जल को चुराकर भाग जाते हैं।  

चुरा कर भाग जाने वाले बादलों की कल्पना  उनके जीवनानुभव की देन थी।   कुछ लोगों के पास बहुत सारा धन एकत्र हो जाता है  परन्तु उनमें सभी का चरित्र एक जैसा नहीं होता।  । उनमें कुछ ही उदारमना होते हैं और खुल कर दान करतेहैं, इस दान की तुलना बादलों के खुल कर बरसने से की गई  - पूरे सारस्वत क्षेत्र में राजा तो अकेला चित्र है जिसने मेघ की तरह हजारोंं लोगों को अकूत (अयुत= दस हजार) दान दिया, दूसरे तो राजुक है,  
[चित्र इद्राजा राजका इदन्यके यके सरस्वतीमनु । पर्जन्य इव ततनद्धिवृष्ट्या सहस्रमयुता ददत् ।। 8.21.18]  

कंजूस किसी को कुछ देना ही नहीं चाहते।  धन के मुक्त दान प्रवाह में अवरोध पैदा करने वाले, सारा धन अपने पास रखने वाले इन कृपणों जैसे ही वे बादल हैं जो आते हैं, आकाश में छा जाते हैं और फिर भी गरज-तड़क कर जल भंडार को ले कर सरक जाते हैं। उनके इस गरजने-तड़कने को ऐसे अहंकारी (मन्यमान) लुटेरे  के दंभ प्रदर्शन के रूप में रखा गया कि इनकी तुलना असुरों से, तस्करों से की गई और इनकी प्रकृति के अनुसार इन्हें, वृत्र, शंबर, नमुचि, कुयव, शुष्ण, चुमुरि, धुनी, आदि नामों से अभिहित किया गया।  

इन्हींं में एक को  अराव्ण (रावण) - गरजने वाला पर बरसने या देने को तैयार नहीं। रामायण में जल को चुराने  वाले की जगह जल के भीतर छिपे और कृषि की मूर्तिमती सीता को ही चुरा लेने वाले के रूप में चित्रित किया गया और उसके कुनबे और परिजनों की रचना की गई । अराव्ण  का अर्थ अदाता है,  
[ घनेव विष्वक् वि जहि अराव्णस्,  1.36.16]  
पर इसके साथ द्रोह का भाव भी जुड़ गया है। 
[सायण और ग्रिफिथ ने एक अन्य  स्थल पर इसके जो अर्थ सुझाए हैं वे इस प्रकार हैं अराव्णे (7.31.5) अदात्रे, hateful calumny, रा का अर्थ दान है इसलिए अरावा का अर्थ  भी वही होना चाहिए, पर उन्होंने अर्थ किया है, अरावा (7.56.15) शत्रुभूता, who hateth us] संभवतः  रावण का सीधी संबंध आरू से जोड़ कर गर्जना करने वाला और न बरसने वाला बादल था। रावण के पुत्र मेघनाद और भाई कुंभकर्ण के नाम में आए कुंभ और उसके छह महीने सोए रहने पर ध्यान दें तो इसका भी बादलों से संबंध दिखाई देगा । नामकरण में भले ऋग्वेद के विकर्ण जन की छाया हो जिनको दाशराज्ञ सूक्त में इन्द्र ने निर्मूल किया था।  

अब इस पृष्ठभूमि में सोम, जिसका पर्याय मधु है, उसका अर्थ समझने चलें तो विश्व की सभी वनस्पतियों में प्रवाहित रस जल ही है, औषधीय पौधों में भी, विषैले पौधों में भी मधु या सोम ही है।  जो इक्षु  में एक गुण, स्वाद और प्रभाव में और विष में भिन्न गुण, स्वाद और प्रभाव में और भेषज में भिन्न गुण, स्वाद और प्रभाव में प्रकट होता है वह जल तत्व ही है, उसे जल कहो, पय कहो,  मधु कहो, तुषार कहो, हिम कहो, वाष्प कहो या अदृश्य गैस (उद्जन या  हाइड्रोजन) सभी उस एक तत्व की विविध रूपों में उपस्थिति के प्रमाण हैे, क्योंकि जल के अभाव में न तो विषैला पादप जीवित रह सकता था, न उसकी  विषाक्तता रह सकती थी। 
 
मैं यह नहीं कहता कि भारतीय तत्वचिंतन किसी भी मजहब की तुलना में श्रेष्ठतर है,  मैं यह कहता हूँ, श्रेष्ठता और कनिष्ठता का निर्णय करने से पहले यह तो समझें कि जिनके बीच तुलना की जा रही है वे हैं क्या। जब तक यह अधिकार नहीं प्राप्त हो जाता तब तक संयम तो बरता जा सकता है। इसके अभाव में फैसले करने के अधिकार ने भारत में एक ऐसी बहुवादी जमात को जन्म दिया जो, मुक्तिबोध के शब्दों मे रावण के घर पानी ही नहीं भरता रहा है, अपितु इसे अपनी सर्वोपरि उपलब्धि मानता रहा है।

ऋग्वेद में सरल से सरल बात को गूढ़ बना कर कहने की, अमूर्त को मूर्त बनाने की प्रवृत्ति है पर कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे अनर्गल या ऊल-जलूल कहा जा सके।  कवियों को जिस वर्ग का संरक्षण प्राप्त था, उसकी अपनी व्यावसायिक भाषा में छिपाव, दुराव और कूटोक्तियों का प्रयोग होता था, इसलिए कूटरचना उनके संरक्षकों की रुचि और प्रकृति के भी अनुरूप थी।  परन्तु यदि कुहरिलता कविता की  श्रेष्ठता की एक माँग हो सकती है तो विलियम एम्पसन को यह भले बीसवीं सदी में सूझा हो (Seven Types of Ambiguity, William Empson,  1930 अपनी लोकप्रियता के कारण 1947 और 1953 में संशोधित),  भारतीय कवि वैदिक काल से, संभवतः उससे पहले से, इसका प्रयोग भी करते आए है् और काव्यशास्त्रियों ने अलंकारशास्त्र में इनके वर्गीकरण और नामकरण भी किए (विलोम, अपह्नुति, श्लेष, यमक, रूपक - सांग, अभेद, भेदाभेद,  स्तुति   आदि)  और परिभाषित भी किया। अब इस ऋचा पर ध्यान दें, 
वृषा मतीनां पवते विचक्षणः सोमो अह्नः प्रतरीतोषसो दिवः ।
क्राणा सिन्धूनां कलशानवीवशदिन्द्रस्य हार्द्याविशन् मनीषिभिः ।। 9.86.19
“ज्ञान की वर्षा करने वाला(वृषा मतीनां)[1], विचक्षण सोम प्रवाहित हो रहा है[2], यह दिन और उषा और द्युलोक सभी का वर्धन करता है (सभी सोम का पान करके अमर बने रहते है।) इसने ही जलधाराओं का निर्माण किया है[3] और इस आकांक्षा के साथ कि इ्न्द्र इसका पान करेंगे मनीषियों के द्वारा (मनस्विता  के साथ) कलश में प्रवेश करना चाहता है। 

द्युलोक से भूलोक की यात्रा नारद जैसे ऋषि ही नहीं करते रहे हैं अपनी रचनाओं में वेदिक कवि भी करते रहे है। वैयाकरणों के द्वारा, भाषा पर अधिकार के बल पर, सच कहें तो उनका भाषा पर अधिकार भी इतना अधूरा है कि वे वेद की भाषा ही नहीं व्यावहारिक भाषा के मर्म को भी नहीं समझ सकते, न समझ सके, जिसमें पाणिनि और पतंजलि जैसे प्रातः स्मरणीय वैयाकरण भी आते हैं, जब कि भारतीय लोक चेतना में  निरंतर प्रवाहित होता रहा है।  इसे समझने के लिए मैं  स्वतंत्रता आंदोलन के समय अंग्रेजी शोषण के विरुद्ध रची गई एक रचना की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा: 
एक अचरज हम अइसा देखा,  
बानर  दूहै गाय 
दूध  दूह  कर पियत जात हैं
घिउआ भेजै चलान, 
हे मन अइसा देखा
नैया बिचे नदिया डूबल जाय…

इसीलिए मैं  मानता हूं  कि वैदिक  ऋचाओं का अर्थ जानने के लिए  संघ संस्कृत के ज्ञान के साथ बोलियों का ज्ञान जरूरी है पंडितों के शास्त्रीय ज्ञान के साथ लोक विश्वास,  लोक साहित्य,  लोग चिंताधारा का ज्ञान जरूरी है अभी तक का वैदिक अध्ययन एकांगी रहा है।  उसमें  भाषाविदों के लिए जितनी जगह थी काव्य शास्त्रियों और   कवियों के लिए नहीं थी।  ऋग्वेद की दुरूहता के लिए  यह पक्ष भी उत्तरदायी है।  मैं ऋचाओं को उद्धृत करके अपनी व्याख्या में इसलिए आगे बढ़ जाता हूं यदि अनुवाद करने पर आया तो  विषय विस्तार ना हो जाएगा और जो विचार प्रस्तुत करना चाहता हूं,  कर ही नहीं पाऊंगा। पर मूल के किसी अनुवाद  से जो इंटरनेट पर उपलब्ध हैं, उनका खंडन नहीं होता। जिज्ञासु मेरे कथन पर भरोसा करके आगे के तारतम्य .या अंतःसगति पर ध्यान दे सकते हैं या स्वयं इसकी जाँच करके प्रश्व कर सकते हैं कि दोनों में विरोध क्यों और कहा  है।

[1]सायण ने इसका अर्थ किया है स्तोताओं की कामनाओं की पुष्टि करने वाला, जो मुझे दूरारूढ़ और पुरोहिती लगता है क्योंकि आगे आने वाले विचक्षण से मेल नहीं खाता, जब कि चाँदनी में हमारी भावनाएँ, कल्पनाएँ, विचार स्वतः भीतर से फूटते से लगते हैं।
[2] ’ चांदनी में नहाया, ज्योत्स्ना स्नात, -में धुला, --सराबोर,-- डूबा आम प्रयोग हैं जो सम और उष्म जलवायु में चाँदनी में अनुभव किए जाने वाले आह्लाद को प्रकट करते है। केदारनाथ सिंह की पंक्तियाँ याद आती हैं, ‘चाँदनी में बह गए हैं घर, मुहल्ले, गाँव… ।’
[3] इसका श्रेय इन्द्र को भी दिया जाता है (अतर्पयो विसृत उब्ज ऊर्मीन् त्वं वृताँ अरिणा इन्द्र सिन्धून ।। 4.19.5. 

पूरे ऋग्वेद में  वृत्रासुर  के  वध  का  अनेक रूपों में चित्रण है परंतु वह बध है क्या?
हनाव वृत्रं रिणचाव सिन्धून् इन्द्रस्य यन्तु प्रसवे विसृष्टाः ।। 8.100.12
इंद्र ने  जल के  प्रवाह  या वर्षण  में बाधा पहुंचाने वाले  का निर्मूलन  और जल के प्रवाह  या वृष्टि को संभव बनाने की रूपकथा है।  
‘ इंद्र ने वृत्र को  मार कर नीचे गिरा दिया (अव हन) और जल धाराओं को प्रवाहित किया।  यह जल के प्रवाह में  बाधा देने वाले शत्रु पर विजय है। परंतु  जल के प्रवाह में बाधक एक अन्य असुर  शंबर है। पर्वतों की चोटियों पर विराजमान है।
(यः शम्बरं पर्वतेषु क्षियन्तं चत्वारिंश्यां शरद्यन्वविन्दन् । ओजायमानं यो अहिं जघान दानुं शयानं स जनास इन्द्रः ।। 2.12.11) 
बर्फ को पिघलाने में सूर्य-रश्मियों, अग्नितत्व या ऊष्मा की भूमिका पर और शंबर (शं-जल+वर-वारण करने वाले) के आयसी पुर के भेदन को समझा जा सकता है?  किसी ने बादलों के घनीभूत पुरों (घन) को यह मानते हुए भी कि ये असुर  बादलों के ही मानवीकरण हैं, समझने समझाने का प्रयत्न क्यों नहीं किया इस पर विस्मित रह जाता हूँ? 
(त्वा युजा तव तत् सोम सख्य इन्द्रो अपो मनवे सस्रुतस्कः । अहन्नहिमरिणात् सप्त सिन्धूनपावृणोदपिहितेव खानि ।। 4.28.1) 

वृत्र जो बादलों के रूप में गतिशील (अहि) है, या अजगर के रूप में पर्वत पर जमा है, उसे तोड़ कर मिटा कर जल धाराओं को प्रवाहित करना और समाज को अवरोधक शक्तियों से और उनके अन्याय से मुक्त कराना है।  यहां आकर  इंद्र और वृत्र,  राम और रावण  का युद्ध  न्याय और अन्याय,  असत्य और सत्य, के  संघर्ष  और अन्याय पर विजय का रूप ले लेता।
  
अब हम इस आयाम  को ले सकते हैं कि इंद्र यदि  एक विशिष्ट भूमिका में सूर्य के प्रतिरूप है,  तो वह जिस सोम का  छक कर पान करते हैं (हृत्सु पीतासः) वह सोम क्या है जिसे छक कर पीने के बाद ही वह मदमत्त हो जाते हैं तो इसका, मेरी समझ से उत्तर यह वायु में आर्द्रता की वृद्धि है, वाष्प का शोषण है जिसके बाद लोग मस्त हो जाते हैं. यही इसकी मत्सरता है। यदि बरसात के मौसम में वह मस्ती, वह आह्लाद अनुभव ही न हुआ हो तो आप भारत को जानते ही नहीं। पर यहाँ यह सवाल खड़ा होता है कि जिस इन्द्र से सोमपान के आह्लाद, आवेश और उत्साह पर सोम की मादकता की बढ़ चढ़ कर बातें की जाती रहीं उसमें  तो मादकता  होती ही नहीं थी।

वर्षा कराने में सोम की भुमिका यह है कि सूर्य अपनी सृष्टि का मूल अप्रकेत जल है, जिसमें सब कुछ अव्यक्त अवस्था में विद्यमान था, ऐसा कुछ भी नहीं है जो किसी न किसी ताप पर द्रव में न बदल जाय, यह धातुओं को गलाने के क्रम में जाना था। जल से वायु का पैदा होने की उद्भावना पानी से उठती भाप के आधार पर की गई लगती है। इस तरह एक ही तत्व (इन्द्र-जल) है जो विश्वप्रमंच में विविध रूपों में व्यक्त है ।
(आतिष्ठन्तं परि विश्वे अभूषञ्छ्र्रियो वसानश्चरति स्वरोचिः  । महत् तद् वृष्णो असुरस्य नामाऽऽ विश्वरूपो अमृतानि तस्थौ  ।। 3.38.4 रूपंरूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय ।
इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते …. 6.47.18;  ) । 

एक ही अग्नि समस्त जनों का असंख्य ओषधियों का रूप लेकर पालन करता है 
(त्वमग्ने पुरुरूपो विशेविशे वयो दधासि प्रत्नथा पुरुष्टुत । पुरूणि अन्ना सहसा वि राजसि त्विषिः सा ते तित्विषाणस्य नाधृषे ।। 5.8.5)  

मां जैसे अपने बच्चों का पालन करती, देखभाल  है उसी तरह विविध रूपों में व्याप्त हो कर अग्नि पालन करते हैं,
(मातेव यद् भरसे पप्रथानो जनंजनं धायसे चक्षसे च । वयोवयो जरसे यद्दधानः परि त्मना विषुरूपो जिगासि ।। 5.15.4)  

एक ही तत्व समस्त सृष्टि में व्याप्त है विद्वान लोग उसका विविध रूपों में वर्णन करते हैं, सभी देवता एक हैं, एक ही परम सत्ता विविध नामों रूपों से जानी जाती है।
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ।। 1.164.46।  

जब आप इस एकत्व का साक्षात्कार करते हैं तो सभी प्रकार के भेद मिट जाते है, सामाजिक ऊँच-नीच समाप्त हो जाता है - सियाराम मय सब जग जानी,  करहुँ प्रनाम जोरि जुग पानी।  यह बोध भारतीय चिंताधारा में इतने गहरे समाया  हुआ है वर्णवादियों को भी अपने बचाव के लिए इसका सहारा लेना पड़ा है।  इसे ही हथियार बना कर जातिवाद के विरुद्ध बार बार अभियान चलाए जाते रहे हैं।  
विश्वामित्र विद्या विनय संपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5.18

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                           

सोमपान और मधुविद्या

सोमरस विषय में हम इतने भावुक हो कर सोचते रहे हैं कि उसका नित्य सेवन करते हुए भी, उसकी पहचान नहीं कर सके।  अति परिचित असाधारण कैसे हो सकता है।  कुछ ऐसी ही मुग्धता  मधुविद्या को लेकर रही है।  इसका रहस्य  केवल दध्यंग अथर्वा को मालूम था।  उनसे इसका ज्ञान इंद्र को मिला था।  ज्ञान प्राप्त करने के बाद इंद्र ने दध्यंग को चेतावनी  दी,  
“यदि तुमने इस  विद्या का ज्ञान  किसी और को दिया  तो तुम्हारा सिर काट दूँगा।” 

अश्विनी कुमार जो देवों के भी चिकित्सक हैं, उन्हें तो उस विद्या को जानना ही था।  वे दध्यंग के पास पहुँचे। आग्रह किया,   
" मधुविद्या का रहस्य समझाएं।  ज्ञान तो बाँटने के लिए होता ही है।
पर ऋषि होकर भी बेचारे डरे हुए थे, बताया, 
‘’यदि मैंने ऐसा किया तो इंद्र मेरा सिर काट देंगे।’’ 

सभी जानते हैं कि  अंग प्रत्यारोपण (ऑर्गन ट्रांसप्लांट)  के जनक  अश्विनीकुमार हैं।   उन्होंने कहा,
’’ डरने की कोई बात नहीं। मैं आपका सिर काट कर आप की गर्दन पर घोड़े का सिर लगा देता हूँ। आप उस मुँह से मुझे उपदेश दीजिए और उसके बाद  मैं उस सिर को काट कर आपका अपना सिर लगा दूंगा।” 
अब आपत्ति का कोई प्रश्न हो ही नहीं सकता था।  दध्यंग अथर्वा ने,  घोड़े के मुंह से अश्विनी कुमारों को मधुविद्या का रहस्य समझाया ।
(दध्यङ् ह यत् मधु आथर्वणो वाम्, अश्वस्य शीर्ष्णा प्र यत् ईं उवाच, ऋ. 1.116.12)।  
मधुविद्या का ज्ञान, परम ज्ञान है।  इससे ऊपर कोई ज्ञान नहीं।   जिस मुख से उन्होंने अश्विनी कुमारों को उपदेश दिया था उसकी महिमा इतनी बढ़ी कि अनेक महापुरुषों ने उन्हीं के नाम पर अपना नाम रखा - अश्वल, आश्वलायन, घोटकमुख, अश्वघोष, आदि। 

पता लगाना होगा कि क्या मधुविद्या का सोम से क्या नाता है?  
यह दध्यंग अथर्वा कौन थे?  
उन्हें मधुविद्या का  ज्ञान कहाँ से मिला था? 
इन्द्र को उनका पता कैसे चला? 
क्या दध्यंग का कोई संबंध दधीचि से था ?  
अश्विनी कुमार कौन हैं ? 
अन्य देवों के होते हुए वायु और इन्द्र के बाद, अग्नि से भी पहले सोम के अधिकारी ये कैसे हो गए।  इनके कारनामों का रहस्य क्या है? 
मधु विद्या  का भारतीय दर्शन पर क्या प्रभाव पड़ा, और यदि पड़ा तो दार्शनिकों ने अपनी व्याख्या में  इसको उचित स्थान  क्यों नहीं दिया?  

मधुविद्या का रहस्य जानने के बाद अश्विनीकुमारों ने जैसा वादा किया था, दध्यंग की गर्दन से घोड़े का  सिर  काट कर अलग किया और उनका सिर लगा दिया। वह कटा हुआ सिर पर्वत पर गिर कर छितरा गया और सोम बन गया, जो, जैसा हम देख आए हैं, मूज/शर प्रजाति का है। इसके लिए वे स्थल ही उपयुक्त हो सकते थे जहाँ मूज या शर नैसर्गिक रूप में उगता है और  इसलिए पर्वतीय क्षेत्र में मुजवान और शर्यणावती के कगार पर उगता है और इन्द्र इसी के पान की कामना करते हैं ।
(इच्छन् अश्वस्य यत् शिरः पर्वतेषु अपश्रितम्, तद् विदत् शर्यणावति ।। 1.84.14)।[1]
[1] शर्यणावति के अतिरिक्त कुछ और नदियों (सुसोमा, आर्जीका) के कगार पर पैदा होने वाला सोम  पर्वतीय सोम से भी अधिक रसीला माना गया है ।
(अयं ते शर्यणावति सुषोमायां अधिप्रियः, आर्जीकीये मदिन्तमः, 8.64.11)। 
जब इनमें से किसी एक का उल्लेख आता है तो शर्यणावति का ही नाम आता है ।
(मन्दस्वा सु स्वर्णर उतेन्द्र शर्यणावति , मत्स्वा विवस्वतो मती, 8.6.39)। 
इनसे सोम की उपजातियों (जिनकी संख्या धान की किस्मों की तरह बहुत अधिक है, का आभास मिलता है]।  

यहाँ एक भूलभुलैया का सामना करना होता है। सोम की उत्पत्ति से जुड़ी दो कहानियाँ हो जाती हैं। 
पहली में गायत्री (वाणी), धरती (कद्रु),  से मात खाने के बाद, द्युलोक से सोम को भू लोक पर लाने को बाध्य होती है।  
दूसरी में  पार्थिव सोम की उत्पत्ति दध्यंग अथर्वा के कटे हुए सिर के पर्वत पर गिरने से होती है।  
ये दोनों कथाएँ खेती आरंभ होने के  बहुत बाद में गढ़ी गईं कथाएँ हैं, जब कि सोम आदिम अवस्था (कल्प-वृक्ष/तरु/ लता) से ही, मनुष्य के पोषण का प्रमुख स्रोत रहा है।  किसी का देवत्व यदि उस चरण पर सोम से जुड़ता है तो वह हैं रुद्रशिव जिनको सोमनाथ की मुद्रा में सिंधु-सरस्वती सभ्यता की प्रसिद्ध मुद्रा पर भी उकेरा गया लगता है। सोम का उष्णीष, पर्याहण (पहनावा), सोम की आसन्दी, सोम के सींग 
(तनूनपात्पवमानः शृंगे शिशानो अर्षति ।
अन्तरिक्षेण रारजत् ।। 9.5.2;  एष शृंगणि दोधुवच्छिशीते यूथ्यो वृषा । नृम्णा दधान ओजसा ।। 9.15.4) 
का रुद्र के माथे पर आरोपण (चन्द्रभाल) एक मात्र औचित्य प्रतीत होता है। 

विश्वप्रपंच को समझने के लिए कहानियाँ तो आदि काल से गढ़ी जाती रही हैं पर उन्हें शास्त्रीय रूप कृषिजन्य समृद्धि की देन है।  यदि हम इनकी प्रकृति और अन्तर्वस्तु पर ध्यान दें तो इनके पूर्वापर संबंध या विकास के चरणों को भी काफी दूर तक निर्धारित कर सकते हैं। यहाँ हम इनकी गहरी छानबीन में नहीं जा सकते, पर यह निवेदन कर सकते हैं कि खेती के स्थाई होने से पहले सूर्य का इन्द्र के रूप में नया देवत्व नहीं आ सकता था, खनिज और व्यापारिक अभियानों से पहले इन्द्र का अपराजित जेता (क्षत्रिय और नेता) का रूप प्रकट नहीं हो सकता था और देशान्तर में अपने प्राकार रक्षित अड्डे कायम करने से पहले विलासी और ईर्ष्यालु इन्द्र की कल्पना नहीं की जा सकती थी।  इसी तरह अराल पहिए और रथ से पहले अश्विनीकुमार की जोड़ी कल्पनातीत थी और इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि इन्द्र से पहले और मरुद्गणों के बाद और संभवतः उनसे भी उनसे भी पहले वर्षा के देवता सोम या चन्द्रमा रहे हों।  ऋग्वेद में सोम(चंद्रमा) को अनेक बार उन्हीं नामों और गुणों से युक्त दिखाया गया है जिनके लिए इन्द्र प्रसिद्ध हैं:
उभा देवा नृचक्षसा होतारा दैव्या हुवे । पवमान इन्द्रो वृषा ।। 9.5.7
इन्दुरिन्द्रो वृषा हरिः पवमानः प्रजापतिः ।। 9.5.9
वृषा सोम द्युमाँ असि वृषा देव वृषव्रतः । वृषा धर्माणि दधिषे ।। 9.64.1

सोम पान के तीन रूप हैं ।
एक  जिसका पान  मनुष्यों द्वारा किया जाता है; 
दूसरा जिसका पान  इंद्र और मरुत् के द्वारा किया जाता है;   
तीसरा जिसका आयोजन  असाधारण साहस  और संपन्नता वाले लोग अधिक संपन्न होने के लिए (व्यापार, विणिज्य और खनन) करते हैं।
और आप चाहे तो इसका एक 
चौथा रूप भी मान सकते हैं जिसका  याजिकीय  विधान की आड़ में देवताओं के नाम पर पुरोहित करते थे और जिसके कारण यह दावा करते थे देवताओं का परम अन्न सोम है ।
(एतत् वै देवानां परमन्नं यत् सोमः, तै. 1.3.3.2; एतत् वै देवानां परमन्नाद्यं यत् सोमः, कौषी. 13.7)  
और धरती पर देवों के प्रतिरूप ब्राह्मण हैं इसलिए सोम के अधिकारी ब्राह्मण हैं  
(ब्राह्मणानां स भक्षः, ऐत. 7.29)  यहाँ तक कि  सोम को ही ब्राह्मण बना दिया जाता है ।
(सोमो वै ब्राह्मणः, तांड्य. 16.23.5)। 

सोम के धरती पर आने की दोनों कथाओं का सार यह कि चंद्रमा  से ही धरती पर सोम आया था इसलिए दध्यंग चन्द्रमा ही है।  उसी का सिर अमावस्या को कट जाता है और दूज को दुबारा जुड़ जाता है। चंद्रमा को ही दूध या दही से भरा कल्पित किया जाता रहा है।  दधीच भी दध्यंग से भिन्न नहीं लगते।
(युवं दधीचो मन आ विवासथोऽथा शिरः प्रति वामश्व्यं वदत् ।। 1.119.9)। 
कृष्ण चतुर्दशी की धनुषाकार चन्द्ररेखा ही  दधीचि की वह अस्थि है जिससे इन्द्र ने वृत्रों का वध किया था। 
(इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कुतः । जघान नवतीर्नव ।। 1.84.13)। 

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

ग़ालिब की पारसाई

( मिर्जा ग़ालिब शताब्दी पर प्रख्यात लेखक और व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी का एक व्यंग्य ) 
ग़ालिब की पारसाई : 

तमाम दूबों ,चौबो , तिवारियो , वर्माओ , श्रीवस्तवो , मिश्रो को चुनौती है -बता दे कोई , अगर ग़ालिब के पूरे दीवान में कही किसी का जिक्र हो। कबीरदास ने अलबत्ता हमारे पडोसी पाण्डेयजी का नाम लिखा है -"साधो पांडे निपट कुचालि। " इससे पांडे जी कबीर से बहुत नाराज है। मगर ग़ालिब ने लगातार दो शेरो में परसाईजी को याद किया है। मुलाहजा हो -
पए - नज्रे करम तोहफा है शर्मे न रसाई का
ब- खूं -गल्तीदा - ए सद - रंग दावा पारसाई का
न हो हुस्ने तमाशा दोस्त रुस्वा बेवफाई का
बमुहरे सद नजर साबित है दावा पारसाई का

मेरा दावा इन शेरो से साबित होता जाता है। कहता हूँ सच कि झूठ की आदत नहीं मुझे।

ग़ालिब ने मेरे लिए इतना किया है कि खुदा और प्रेमिका के बाद परसाई को याद किया है। मेरा भी उनके प्रति कुछ फर्ज हो जाता है। मैं पूरी कोशिश कर रहा हूँ की उनकी याद में जलसा कामयाब हो। इस साल टोटल १७२१५ समारोह ग़ालिब की याद में होंगे। इतने समारोहों के उद्गाटन के लिए इतने साधारण विद्वान नहीं मिलेंगे। पर देश में पंचायती विद्वानो की कमी नहीं है। कल ही एक पंचायती विद्वान का भाषण सुन रहा था। वे कह रहे थे -ग़ालिब ? अहा ! ग़ालिब महान कवि थे ! अहा ! ग़ालिब महान शायर थे। अहा ! मिर्जा ग़ालिब के क्या कहना है , अहा !'

मैं पंचायती विद्वान की तकलीफ देख बहुत दुखी हुआ। तय किया कि इस तकलीफ को दूर करूँगा। मैं सारे पंचायती विद्वानो के लिए एक नमूने का भाषण लिख रहा हूँ जिससे उनकी तकलीफ दूर हो जायेगी , ग़ालिब के समारोह सफल होंगे और ग़ालिब के प्रति मेरा फर्ज भी निभ जाएगा - हक़ तो ये है कि हक़ अदा न हुआ।

जो वेद नहीं पढ़े वे भी वैदिक धर्म को मानते है। जो शास्त्र नहीं पढ़े , शास्त्रो में विश्वास रखते है। जो ग़ालिब को समझते , वही ग़ालिब को समझा सकते है। ग़ालिब ने खुद कहा है।

जो ग़ालिब को नहीं समझे
वही उसे सही समझे

अगर ग़ालिब इस उम्दा शेर को अपने गले डालने से इंकार करे तो यह मीर को दे दिया जाए। अगर मीर भी इसका जोखिम न उठाना चाहे तो इसे मेरा ही मान लिया जाए।

इस बुनियाद पर अब भाषण खड़ा होता है।

भाइयो और बहनो

बड़ी ख़ुशी की बात है कि सौ साल पहले ग़ालिब की मृत्यु हो गयी थी। अगर वे सौ साल पहले नहीं मरते , तो आज हमें यहाँ समारोह करने का सुनहरा अवसर न मिलता। हम ग़ालिब के आभारी है कि उन्होंने हमें ये चांस दिया।

आप पूछेंगे कि ग़ालिब कौन है ? यह प्रश्न ग़ालिब के समय में भी लोग पूछते थे। ग़ालिब प्रचार से दूर रहते थे। कोई नहीं जानता था कि ग़ालिब कौन है।

ग़ालिब खुद भी नहीं जानते थे कि वे ग़ालिब है। एक दिन एक आदमी ग़ालिब के घर आया था और उसने नौकर से पूछा - क्यों जी यह तो बताओ। ग़ालिब कौन है ? नौकर पड़ोसियों के पास जाकर बोला -

पूछते है वे कि ग़ालिब कौन है
कोई बतलाये कि हम बतलायें क्या ?

पड़ोसियों को भी नहीं मालूम था। नौकर ने उस आदमी से कहा - यहां कोई ग़ालिब फालिब नहीं रहता। उधर लकड़ी के ताल पर पूछो। ऐसे थे ग़ालिब। और आज के इन कवियों को देखो जो खुद अपना ढोल पीटते फिरते है।

मैं आज आपको एक रहस्य की बात बताता हूँ। ग़ालिब शायर थे। शायर ही नहीं , कवि भी थे। मुसलमान जिसे शायर कहते है , हिन्दू उसे कवि कहते है। बात एक ही है - राम कहो चाहे रहीम। मैं तो हिन्दू मुस्लिम भाई भाई का सिद्धांत मानता हूँ। हमारे महात्मा गांधी कहा करते थे -

एक साथ मिलकर गाओ
प्यारा भारत देश हमारा
झंडा ऊँचा रहे हमारा।

भाइयो , ग़ालिब विश्व के महान कवि थे। वे विश्व के ही नहीं , भारत के भी महान कवि थे। सिर्फ भारत के ही क्यों उर्दू के भी महान कवि थे। मैं तो उन्हें हिंदी का कवि भी मानता हूँ। हिंदी उर्दू में कोई भेद नहीं है। हिन्दू लोग जिसे हिंदी कहते है , मुसलमान उसे उर्दू कहते है। सच पूछा जाए तो ग़ालिब महान भारतीय परम्परा के कवि थे , क्यूंकि वे जुआ खेलते थे। हमारे यहाँ जुआ खेलने वाले को धर्मराज कहते है। ग़ालिब कलयुग के धर्मराज थे।

अब मैं गालिब की शायरी पर प्रकाश डालूँगा । गालिब ग़ज़ल लिखते थे । वे गजल ही नहीं, शेर भी लिखते थे । शेर लिखना बड़ा खतरनाक काम है । ग़ालिब खानदानी सिपाही थे, इसलिए शेर से डरते नहीं थे और उसे लिख देते थे । दुनिया में सिकन्दर सरीखे बहादुर हो गये पर शेर एक भी ना लिख सके । यह तो गालिब का ही दम था । और आज के ये कवि कुत्ते से डर जातें हैं । ये कायर क्या शेर लिखेंगे ।

भाइयो , गालिब ने बहुत दुख भोगे । एक कोई गुण्डा तो खंजर लेकर उनके पीछे ही पडा रहता था। उसका नाम 'सितमगर' था । सितमगर नाम का यह गुंडा ग़ालिब को ज़िन्दगी -भर तंग करता रहा । दिल्ली की पुलिस उनसे मिली हुई थी, और उस पर कोई कार्यवाही नहीं करती थी । धिक्कार है चौहान साहब की पुलिस को।

ग़ालिब को पुलिस तंग करती थी । एक दिन वे थककर सड़क पर बैठ गये पुलिस वाला आया और उन्हें उठाने लगा । गालिब ने बडी लाचारी से कहा - 'बैठे है रहगुज़र पे हम कोई हमें उठाये क्यों ?' पुलिसवाले ने उन्हें घसीटकर किनारे कर दिया। गालिब रोने लगे । किसी राहगीर ने पूछा -"अरे भाई, रो क्यों रहे हो ?

ग़ालिब ने जवाब दिया -"रोयेंगे हम हजार बार कोई हमें सताए क्यों ?" यानी अगर पुलिसवाला हमें सताएगा , तो हम क्यों नही रोयेंगे !

दिल्ली में दूसरे शायर ग़ालिब को द्वेष कारण तंग करत थे । वे ग़ालिब की बदनामी के लिए कविताएँ लिखत थे और उन्हें फैलाते थे। एक शायर कहता था कि दिल्ली में गालिब की आबरू ही नहीं है । वह लिखता हैं -

बना है शह का मुसाहिब फिरे है इतराया
वरना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है।

जरा सुनिए , ये बदमाश कैसी कैसी बाते उस महान कवि के बारे में करते थे

काबा किस मुँह से जाओगे गालिब
शर्म तुमको मगर नहीं आती ।

ये दिल जले कवि सम्मेलनों में ग़ालिब को अपने लोगो से हूट करवाते थे। परेशान हो कर ग़ालिब कलकत्ता के कवि सम्मेलन में चले गए। वहां भी स्थानीय प्रतिभाओ ने उन्हें हूट किया। कलकत्ता में भी वे उखड गए

ये ऐसे नीच लोग थे कि जब ग़ालिब मर गए प्रशंसक रोने लगे , तो इन्हे बुरा लगा। ग़ालिब के लिए इतने लोग रोये! कलेजे पर सांप लोट गया। कहने लगे -

गालिबे-खस्ता के बगैर कौन से काम बन्द हैं
रोइए जार जार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों

आखिर गालिब ने भी इन दुष्टो से निपटने का निश्चय कर लिया । उन्होंने कहा-

कोई दिन गर जिन्दगानी और है
हमने जी में अपने ठानी और है

यानी हमने ठान ली है कि जितनी जिन्दगी बची है, उसमें इन दुष्टो से गिन-गिनकर बदला लेना है

भाइयो, गालिब के कष्टो का अन्त नहीं था । उन्हें दिल की बीमारी भी थी। उनके हार्ट में हमेशा दर्द होता रहता था और वे इतने परेशान थे कि जो मिलता उसी से पूछते-आखिर इस दर्द की दवा क्या है ?' दिल्ली में उन दिनों कोई अच्छा हार्ट-स्पेशलिस्ट नहीं था । उन्होंने कलकत्ता में जॉच करायी, दवा भी ली, पर कोई फायदा नहीं हुआ । आखिर निराश होकर उन्होंने कह दिया,-'मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाय क्यों?"

धिक्कार है हेल्थ मिनिस्टर को ! इतने बड़े कवि के इलाज का इन्तजाम नहीं कर सके । संसद में इस बात पर किसी को प्रश्न उठाना चाहिए। दिल की ही नहीं, गालिब को पेट की बीमारी भी थी । उनके पेट में दर्द होता रहता था । दिल्ली के एक हकीम से उन्होंने दवा ली थी । एक दिन हकीम पांणी चौक में मिल गये । पूछा -ग़ालिब साहिब, पेट का दर्द कैसा है? गालिब ने जवाब दिया-

दर्द मिन्नतकशे-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

यानी तबीयत में कोई फर्क नहीं है । दर्द जैसा-का-तैसा है । उर्दू साहित्य के एक विद्वान ने खोज की हे कि गालिब के पेट के दर्द का कारण शराब थी । हाय डाक्टर बनर्जी साहब उस वक्त दिल्ली में होते, तो गालिब को अच्छा कर देते। कवि का दुर्भाग्य देखिए कि डाक्टर बनर्जी उनके मरने के बाद पैदा हुए । इसी को विधि की विडम्बना कहते हें ।

अब मैं आप को बताता हूँ कि मैं गालिब को बड़ा कवि क्यों मानता हूँ। दुनिया के किसी कवि ने मरने के बाद कविता नहीं लिखी । गालिब एकमात्र कवि है जिन्होंने मरने के बाद भी कविता लिखी । गेटे, शेक्सपियर, कालिदास , रवीन्द्रनाथ किसी ने भी मरने के बाद एक लाइन नहीं लिखी । पर ग़ालिब मरने के बाद भी लिखते रहे । उन्होंने मरने के बाद अपनी लाश के बारे में यह लिखा -
यह लाश बेकफ़न असद-ख़स्ता जां की है
हक़ मगफरत करे अजब आजाद मर्द था

इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी बता दिया कि वे परदेश में मरे थे, बल्कि मारे गए थे। इस शेर को देखिये -

मुझको दयार ऐ-गैर में मारा वतन से दूर
रख ली मेरे खुदा ने मेरी बेकसी की शर्म

शासन क्या सो रहा है । वह पता क्यों नहीं लगाता कि परदेश में ले जाकर किसने गालिब को मारा ।

भाइयो, अब मैं अत्यन्त भरे हृदय से गालिब का एक संस्मरण सुनाता हूँ । शाम उतर रही थी । दिल्ली में हलकी सर्दी पडने लगी थी । मैं चौक में घूम रहा था । मैंने देखा, फर्गुशन साहब की दूकान से गालिब शराब खरीद रहे हैं । मैं उनके पास गया मैंने कहा - 'गालिब साहब, तुझे हम वली समझते जो न बादाख़्वार होता ।' गालिब थोडा झेप गये । बोले-' इधर कैसे ?" मैंने कहा-', घंटे वाले हलवाई के बगल की दूकान पर भांग पीने जा रहा हूँ । चलिए, आपको भी पिलाऊँ ।' गालिब मेरे साथ हो लिये । मैंने उन्हें बढिया केसरिया भंग पिलवायी । बाद में उन्होंने कहा भांग तो शराब से भी ज्यादा मजा देती है ।' मैंने कहा-यही तो भारतीय संस्कृति का मजा है यह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी । इसके बाद मैं जबलपुर आकर रहने लगा। सोचता हूँ, यदि मैं दिल्ली में ही रहता तो गालिब की शराब पीने की आदत छुड़ा देता । मगर होता है वही, जो मंजूरे-खुदा होता है ।

भाइयो, ऐसे थे गालिब जिनकी शताब्दी आज हम मना रहे हैं ।

( हरिशंकर परसाई )

बजट - 2021 - शिक्षा बजट में कटौती - अनपढ़ और जाहिल समाज मौजूदा सत्ता की पहली पसंद / विजय शंकर सिंह

बजट 2021 - 22, सरकारी सम्पदा को बेचने यानी सरकार के शब्दों में विनिवेशीकरण या निजीकरण का एक दस्तावेज है, और इसे साइबर की तकनीकी भाषा मे कहें तो, यह एक टूलकिट की तरह है। सरकार, किसलिए अवतरित हुयी है यह शायद सरकार को ही पता हो, पर सच तो यह है कि सरकार के कथनानुसार, सरकार बिजनेस करने की चीज नहीं है। सरकार के प्रिएम्बल का खुलासा खुद सरकार के प्रधानमंत्री जी ने ही किया और एक बात साफ कर दी कि, सरकार का काम बिजनेस करना नहीं है। उधर सरकार ने अपने मन की बात उजागर की, इधर दुंदुभिवादन शुरू हो गया, और पगड़ी क्षत्र चंवर की बात हरचरना गुनगुनाने लगा। सरकार बिजनेस के लिये नहीं बनी है, इस बात निश्चित हो जाने के बाद, यह सवाल सरकार के दुंदिभिवादक नहीं पूछ सके कि, फिर सरकार किस काम के लिये धरती पर अवतरित हुयी है, क्योंकि सरकार को न तो  ज़बानदराजी पसंद है और न ही जवाबदेही, साथ ही असहज करने वाली पूछताछ।

एक अजीब किस्म की गैरजिम्मेदारी, खुदगर्ज़ी और अहमकाना भरा दौर है यह, जहां पेट्रोल डीजल की कीमतों के बढ़ने पर सरकार यह तर्क देती है कि, तेल की कीमतें, अंतरराष्ट्रीय बाजार तय करता है, गैस की कीमत बढ़ने पर, मंत्री यह कहते हैं कि, सर्दी जब उतर जाएगी तो, गैस की कीमत गिर जाएगी, यानी मौसम के सर्द गर्म होने का असर गैस की कीमतों पर पड़ता है। प्याज की बढ़ती कीमतों के बारे सरकार, संसद में कहती है कि वह ( वित्तमंत्री ) प्याज नहीं खाती हैं। ऐसे ही अनेक हास्यास्पद जवाब आप को जीवन से जुड़े मुद्दों पर सवाल उठाने पर मिलेंगे, पर इन सब जवाबो के पहले देशद्रोही का तकियाकलाम तो सुनना ही पड़ेगा। आज बजट 2021 - 22 के संदर्भ में शिक्षा की क्या स्थिति है, इस विषय पर एक समीक्षा करते हैं।

इस बार के बजट 2021 - 22 में सरकार ने शिक्षा के मद मे भी कटौती की है। शिक्षा और स्वास्थ्य, भोजन तथा आवास के बाद सबसे महत्वपूर्ण मौलिक आवश्यकता है। लेकिन शिक्षा को लेकर वर्तमान सरकार का रवैया, इस बजट के आलोक में, निराशाजनक रहा है। कोरोना आपदा के बाद अब जन जीवन सामान्य हो रहा है, लेकिन इस आपदा में सबसे अधिक जिन सेक्टरों में उक्त महामारी का असर पड़ा है, उनमे शिक्षा का क्षेत्र भी शामिल है। साल भर से, स्कूल कॉलेज बंद हैं, और इसका कुप्रभाव न केवल पढ़ाई पर पड़ा है, बल्कि स्कूलों और कॉलेजों में काम करने वाले स्टाफ़ और अध्यापकों के जीवनयापन पर भी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से पड़ रहा है। इस वैश्विक आपदा के कारण जब जनजीवन थम गया तो स्कूलों और कॉलेजों में भी पढ़ाई वर्चुअल यानी ऑनलाइन होने लगी। भारत मे वर्चुअल या ऑनलाइन पढ़ाई के  कारण छात्रों और अध्यापको के समक्ष बहुत सी दिक्कतें आयीं। यह समस्या, कम्प्यूटर, अच्छे स्मार्टफोन, टैब या मोबाइल सहित अन्य उपकरणों को लेकर तो थी ही, साथ ही इंटरनेट कनेक्टिविटी और उसकी सुलभता को लेकर भी थी। शहरों में तो, कुछ बेहतर सुविधाएं उपलब्ध थीं, पर गर्मीण क्षेत्रों में ऐसी समस्या का होना आम बात है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्तरीय नेट कनेक्टिविटी, और अच्छे स्मार्टफोन तथा कम्प्यूटर के अभाव के काऱण, वर्चुअल कक्षाओं का लाभ, ग्रामीण क्षेत्र के छात्र उतनी सक्षमता से नहीं उठा पाए जितनी दक्षता से शहरी क्षेत्रो के छात्रों ने लाभ उठाया था। अब जाकर स्कूल और कॉलेज कुछ खुले हैं, पर अभी भी कोरोना पूर्व की समान्य स्थिति बहाल नहीं हो पायी है। यहां तक कि, शहरी क्षेत्रों में भी, निम्न सामाजिक और आर्थिक वर्ग के छात्रों के समक्ष भी इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों का अभाव रहा है। ऐसी स्थिति में सरकार का यह दायित्व था कि वह, इस साल के बजट में वह शिक्षा को प्राथमिकता देती, ताकि पिछले साल के आपदाजन्य गतिरोध से थोड़ी मुक्ति तो मिलती।

अब बात कुछ बजट के आंकड़ों की। बजट 2021-22 में शिक्षा मंत्रालय को 93,224.31 करोड़ रूपए आवंटित किए गए है। वित्त वर्ष 2020-21 के मूल बजटीय आवंटन में मंत्रालय को 99,311.52 करोड़ रूपए आवंटित किये गये थे, जो बाद में संशोधित होकर 85,089 करोड़ रूपए हो गया था क्योंकि देश में कोविड-19 महामारी का संकट था और संक्रमण के प्रकोप के कारण कक्षाओं को बंद करना पड़ा था। वर्तमान बजट के अनुसार, स्कूली शिक्षा विभाग को 54,873 करोड़ रूपए प्राप्त हुए हैं जो पिछले बजट में 59,845 करोड़ रूपए थे । यह 4,971 करोड़ रूपए की कमी को दर्शाता है।

उच्च शिक्षा विभाग को इस बार 38,350 करोड़ रूपए का आवंटन किया गया है जो पिछले बजट में 39,466.52 करोड़ रूपए रहा था। बजट में स्कूली शिक्षा योजना समग्र शिक्षा अभियान के आवंटन में कमी दर्ज की गई है और इसके लिए 31,050 करोड़ रूपए का अवंटन किया गया है जो पिछले बजट में 38,750 करोड़ रूपए था। लड़कियों के लिए माध्यमिक शिक्षा की राष्ट्रीय प्रोत्साहन योजना के लिए आवंटन महज एक करोड़ रूपए किया गया है जो चालू वित्त वर्ष में 110 करोड़ रूपए था।

केंद्रीय विद्यालयों के लिए आवंटन बढ़कर 6,800 करोड़ रूपए तथा नवोदय विद्यालयों के लिए आवंटन 500 करोड़ रूपए बढ़ाकर 3,800 करोड़ रूपए किया गया है। मध्याह्न भोजन योजना का बजट 11,500 करोड़ रूपए किया गया है, जो पिछले साल की आवंटित धनराशि से कम है। केंद्र सरकार ने, भारतीय उच्च शिक्षा आयोग के गठन के प्रस्ताव के क्रियान्वयन की भी बात की है।  वित्त मंत्री ने संसद में बजट 2021-22 पेश करते हुए कहा था,
'' बजट 2019-20 में मैंने भारतीय उच्चतर शिक्षा आयोग गठित करने के बारे में उल्लेख किया था। हम उसे क्रियान्वित करने के लिए इस वर्ष विधान पेश करेंगे। यह एक शीर्ष निकाय होगा जिसमें मानक बनाने, प्रत्यायन एवं मान्यता, विनियमन एवं वित्त पोषण के लिए चार अलग-अलग घटक होंगे।"

इसके अतिरिक्त निम्न घोषणाएं भी की गयी। बजट भाषण के अनुसार,
● कई शहरों में विभिन्न अनुसंधान संस्थान, विश्वविद्यालय और कॉलेज हैं जो सरकार के समर्थन से चलते हैं। उदाहरण के लिए हैदराबाद, जहां तकरीबन 40 मुख्य संस्थान हैं। इसी तरह 9 अन्य शहरों में हम इसी तरह का एक समग्र ढांचा खड़ा करेंगे जिससे इन संस्थानों में बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हो सकें, साथ ही इनकी स्वायत्ता बरकरार रह सके।
● इस उद्देश्य के लिए एक विशिष्ट अनुदान की शुरुआत की जाएगी।
● देश के 15,000 से अधिक स्कूल, राष्ट्रीय शिक्षा नीति के सभी पक्षों को शामिल करेंगे जिससे देश में शिक्षा की गुणवता को मजबूत किया जा सके और वे अपने क्षेत्र के लिए बेहतर स्कूल के उदाहरण के रुप में उभर सकें।
● 100 नए सैनिक स्कूलों की स्थापना एनजीओ/निजी स्कूलों/राज्यों के साथ साझेदारी में की जाएगी। सैनिक स्कूलों को बजाय एनजीओ द्वारा स्थापित करने और चलाने के इसे एक अलग से बोर्ड बना कर सरकार को अपनी देखरेख में संचालित करना चाहिए।
● लद्दाख में उच्च शिक्षा के लिए लेह में एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय के गठन का प्रस्ताव है।
● जनजाति क्षेत्रों में 750 एकलव्य मॉडल आवसीय स्कूलों की स्थापना का लक्ष्य है।
● ऐसे स्कूलों की इकाई लागत को 20 करोड़ रूपए से बढ़ाकर 38 करोड़ रूपए करने का है, और पहाड़ी एवं दुर्गम क्षेत्रों के लिए इसे बढ़ाकर 48 करोड़ रूपए करने का प्रस्ताव है।
● जनजातीय विद्यार्थियों के लिए आधारभूत सुविधा के विकास में मदद और अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए पोस्टमैट्रिक छात्रवृत्ति योजना का पुनरूद्धार किया गया है। इस संबंध में केंद्र की सहायता में भी वृद्धि की गयी है।
● अनुसूचित जाति के 4 करोड़ विद्यार्थियों के लिए 2025-26 तक की छह वर्षो की अवधि के लिए 35,219 करोड़ रूपए का आवंटन किया गया है।

बजट में की गयी धन आवंटन की कमी का असर, शिक्षा के क्षेत्र में चल रही कुछ महत्वपूर्ण योजनाओं पर भी पड़ेगा। जैसे,
●  समग्र शिक्षा अभियान, जो सरकार की एक महत्वपूर्ण योजना है में, पिछले बजट में जहां 38,751 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था, वहां इस साल, यह आवंटन घटा कर, 31,050 करोड़ रुपये का, कर दिया गया है।
● राष्ट्रीय शिक्षा मिशन जिंसमे शिक्षकों की शिक्षा का विंदु भी सम्मिलित है, में वर्तमान बजट में आवंटन 31,300.16 करोड़ रुपये का कर दिया गया है, जबकि पिछले साल इसी मद में 38,840.50 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था। 
● बच्चों को दोपहर में भोजन देने की योजना के अंतर्गत, मिड डे मील में सरकार ने, पिछले बजट के आवंटन 12,900 करोड़ रुपये की तुलना में, 11,500 करोड़ रुपये का आवंटन इस साल किया गया है।
कोरोना ने न केवल सामाजिक और आर्थिक रूप से निम्न वर्ग की शिक्षा को प्रभावित किया है, बल्कि उन बच्चों के कुपोषण को भी प्रभावित किया है जिन्हें स्कूलों में दोपहर का भोजन मिलता था। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में वंचित और आर्थिक रूप से विपन्न वर्ग के बच्चों के लिये मिड डे मील एक बड़ी सुविधा के रूप में था, जिस पर कम बजट आवंटन का का असर पड़ सकता है।

आज कोरोना से काफी राहत मिल चुकी है। वैक्सीन भी आ गयी है और टीकाकरण भी चल रहा है। हालांकि कोरोना का दूसरा स्ट्रेन भी आ गया है पर बाजार, मॉल, उद्योग, कल कारखाने आदि खुल गए हैं। धार्मिक आयोजन हो रहे हैं, कुंभ का सबसे बड़ा मेला लगने वाला है, और बड़ी बडी भीड़ भरी चुनावी जन सभाएं हो रही हैं। लेकिन स्कूलों और कॉलेज में अब तक नियमित पढ़ाई शुरू नही हो पायी है। सरकार के पास ऐसी कोई योजना भी नहीं है कि वह स्कूलों और कॉलेज को प्राथमिकता के आधार पर खोलने और शैक्षिक गतिविधियों को जारी रखने पर आगे बढ़े। अब तक देश मे इस पर भ्रम का वातावरण है। कुछ राज्यों ने अपने अपने राज्य में स्कूल कॉलेज खोले भी थे, जैसे आन्ध्र प्रदेश ने सबसे पहले अपने राज्य में स्कूल कॉलेज खोले थे, पर जब संक्रमण के मामले आने और बढ़ने लगे तो उन्हें बंद करना पड़ा। अधिकतर राज्यो ने अपने स्कूल कॉलेज जनवरी तक बंद भी रखे हैं। कोरोना से बचने के लिये सैनिटाइजर, मास्क आदि निरोधक उपायों के बावजूद, स्कूल कॉलेजों में स्वस्थपूर्ण जीवन शैली और जन स्वच्छता के प्रति सामान्य जागरूकता के साथ साथ संसाधनों की भी कमी है। इस पर अभी न केवल ध्यान देना होगा, बल्कि छात्रों औऱ अध्यापकों को भी जागरूक करना पड़ेगा। इन सबके लिये कोरोनोत्तर काल मे धन की अलग से व्यवस्था की जानी चाहिए जो इस बार के बजट में नहीं की गयी है। अब साफ सफाई के प्रति जन जागरूकता और जन स्वच्छता एक औपचारिक संदेश या क्युरिकलम के रूप में ही नहीं देखा जा सकता है, बल्कि स्वस्थ और रोगरहित रहने के लिये, जीवन के एक अनिवार्य अंग के रूप में इसे स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि वैक्सीन की खोज और चल रहे टीकाकरण के बावजूद, कोरोना महामारी का ख़तरा अभी खत्म नहीं हुआ है, बल्कि वह अभी भी बरकरार है, बस उसका स्वरूप और स्वभाव ज़रूर बदला हुआ है।

कोरोना आपदा की महामारी के बीच, जब देश की जीडीपी माइनस 23.9 % तक आ गिरी हो, तो, ऐसी विषम परिस्थितियों में, वर्ष 2021 - 22 का बजट तैयार करना किसी भी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है। खास कर ऐसे समय मे जब, सरकार की सिवाय, बिना सोचे समझे, सब कुछ बेच देने की आत्मघाती निजीकरण की नीति के अतिरिक्त अन्य कोई आर्थिक सोच सूझती ही न हो। इसमे कोई दो राय नही कि, कोरोना काल मे देश की  आर्थिकी को बहुत नुकसान पहुंचा है। लेकिन यदि अर्थव्यवस्था की समीक्षा के दौरान विभिन्न आर्थिक सूचकांकों को देखें तो देश की आर्थिकी में गिरावट 8 नवम्बर 2016 की रात 8 बजे घोषित अब तक के सबसे विवादास्पद आर्थिक घोषणा नोटबन्दी के बाद से ही शुरू हो गयी थी। अर्थव्यवस्था तो मार्च 2020 में ही लड़खड़ाने लगी थी, तभी कोरोना आ गया और उससे आर्थिकी ध्वस्त हो गयी। अब कुछ उम्मीद बंधी है। लेकिन अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में इस गिरावट से उबरने की किसी स्पष्ट नीति का अभाव भी इस बजट 2021 - 22 में साफ साफ दिखता है।

इसमे कोई दो राय नहीं है कि एक महामारी की आपदा में सबसे अधिक जोर और सरकार का व्यय स्वास्थ्य सेक्टर पर होना चाहिए। बल्कि स्वास्थ्य के इंफ्रास्ट्रक्चर विकास पर नियमित ध्यान दिया जाना चाहिए। सरकार ने कोरोना काल मे तमाम अफरातफरी और बदहवासी भरे निर्णयों के बीच महामारी को नियंत्रण में रखने के उपाय भी किये। दुनियाभर में कोरोना आपदा के असर को देखते हुए भारत मे यह महामारी काफी हद तक नियंत्रित भी रही है। लेकिन, शिक्षा का भी महत्व स्वास्थ्य से कम नहीं है। बल्कि यह जीवन से जुड़े मुद्दों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है और समाज तथा जनजीवन के विकास में इसका सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। बजट 2021 - 22 में की गयी कटौती, शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है।

( विजय शंकर सिंह )

Tuesday, 23 February 2021

सेडिशन धारा 124A, राजद्रोह कानून और उसकी प्रासंगिकता

सेडिशन, धारा 124A के अनेक मुकदमो में सबसे ताज़ा और विवादास्पद मुकदमा दिशा रवि का है, जिन्हें किसान आंदोलन 2020 के समर्थन में, एक टूलकिट को संपादित और सोशल मीडिया पर साझा करने के लिये दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया था, और उसी मामले में दिल्ली की एक अदालत ने दिशा रवि को जमानत पर रिहा करते हुए, अभिव्यक्ति की आज़ादी के संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां की हैं, जिन्हें पढ़ा जाना चाहिए। अदालत की टिप्पणियां इस प्रकार हैं, 
● सरकार के आहत अहंकार की तुष्टि के लिए किसी नगरिक पर देशद्रोह के मुकदमे नहीं थोपे जा सकते।
● सरकार पर सजग तरीके से नजर रखने वाले नागरिकों को सिर्फ लिए जेल में नहीं डाला जा सकता क्योंकि वे सरकार की नीतियों से असहमति रखते हैं।
● सरकार की नीतियों को भेदभाव रहित बनाने के लिए मतभेद, असहमति या विरोध करना जायज तरीकों में शामिल है।
● संविधान के अनुच्छेद 19 में भी विरोध करने के अधिकार के बारे में पुरजोर तरीके से कहा गया है।
● हमारी 5 हजार साल पुरानी सभ्यता अलग-अलग विचारों की कभी भी विरोधी नहीं रही। ऋग्वेद में भी अलग-अलग विचारों का सम्मान करने के हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का जिक्र है।
● ऋग्वेद का एक श्लोक कहता है, 
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरितासउद्भिदः। 
यानी हमारे पास चारों ओर से ऐसे कल्याणकारी विचार आते रहें, जो किसी से न करें, उन्हें कहीं से रोका ना जा सके और जो अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों।

यह भी एक विडंबना है कि सेडिशन की धारा आतंकवादियों को अपनी कार में ले जाते हुए रंगे हांथ पकड़े जाने वाले जम्मूकश्मीर पुलिस के डीएसपी देबिन्दर सिंह और पाकिस्तान के लिये जासूसी करने के आरोप में पकड़े गए ध्रुव सक्सेना एंड कम्पनी पर नही लगायी गयी जब कि धारा दिशा रवि जैसी नागरिक और पर्यावरण के अधिकारों के लिये जाग्रत और संवेदनशील एक्टिविस्ट पर लगा दी गयी है। धारा 124 A आईपीसी, राजनीतिक उद्देश्य से औपनिवेशिक सत्ता को बनाये रखने के लिये भारतीय दंड संहिता में जोड़ी गयीं थी और आज़ादी के आंदोलन के दौरान, साम्राज्यवादी दमन के मुख्य हथियार के रूप में इसका प्रयोग किया जाता रहा है। दुर्भाग्य से स्वाधीन भारत मे अब भी सत्ता यदाकदा ऐसे मुकदमे दर्ज कर रही है। अपने जन्म के समय से ही यह धारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों के पक्षधर लोगो के निशाने पर रही है। लोकतंत्र में सरकार और देश बिल्कुल अलग अलग चीजें हैं। सरकार का विरोध एक लोकतांत्रिक कृत्य, अधिकार और दायित्व है, और सुप्रीम कोर्ट सहित अन्य न्यायालयो ने भी, इसकी विशद व्याख्या समय समय पर की है। दिशा रवि ने जो किया है वह एक जन आंदोलन का समर्थन है, और वह जनआन्दोलन यानी किसान आंदोलन 2020, देश के विरुद्ध नहीं बल्कि सरकार द्वारा पारित तीन कृषि कानूनो के विरुद्ध है। यह भी एक हास्यास्पद तथ्य है कि, किसान आंदोलन के नेताओं के खिलाफ तो सेडिशन की कोई कार्यवाही पुलिस ने की नहीं, और उक्त आंदोलन के समर्थक होने के आरोप में दिशा रवि के खिलाफ धारा 124 A आईपीसी के अंतर्गत मुकदमे दर्ज कर उसकी गिरफ्तारी भी कर दी गयी।

अब धारा 124A आईपीसी के उद्भव, विकास और इससे जुड़े विवाद पर नज़र डालते हैं। भारतीय न्याय प्रणाली ब्रिटिश न्याय प्रणाली से विकसित हुयी है। 1861 में बने तीन कानूनों, भारतीय दंड संहिता आईपीसी या इंडियन पेनल कोड,  दंड प्रक्रिया संहिता, सीआरपीसी क्रिमिनल प्रोसीजर कोड,  भारतीय साक्ष्य अधिनियम यानी इंडियन एविडेंस एक्ट से भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था की नींव पड़ी। इसी समय आपराधिक न्याय व्यवस्था के एक महत्वपूर्ण अंग के रूप इंडियन पुलिस एक्ट को संहिताबद्ध किया गया जिससे आधुनिक पुलिस व्यवस्था की शुरुआत हुयीं।

124A के वर्तमान स्वरूप के लिये महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बाल गंगाधर तिलक को श्रेय देना चाहिये। तिलक को अंग्रेज़ भारतीय असंतोष का जनक या फादर ऑफ इंडियन अनरेस्ट कहते थे। 1897 में उनपर चले एक मुक़दमे ने इस धारा को राजद्रोह बनाम देशद्रोह की बहस में जन्म दे दिया। यह धारा संज्ञेय और अजमानतीय बनायी गयी।

पहले यह धारा पढ़ लें।
" जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा, या दृश्यरूपण द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घॄणा या अवमान पैदा करेगा, या पैदा करने का, प्रयत्न करेगा या अप्रीति प्रदीप्त करेगा, या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करेगा, वह आजीवन कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा । "

1870 तक यानी आईपीसी के संहिताबद्ध होने के 9 साल बाद यह धारा आईपीसी में जोड़ी गयी। हालांकि यह विचार 1835 के ड्राफ्ट पेनल कोड जो लार्ड थॉमस मैकाले ने तैयार किया था, में आ चुका था। जब यह धारा जोड़ी गयी तो इसके जोड़ने का उद्देश्य ब्रिटिश राज के विरुद्ध किसी भी प्रकार के जन असंतोष को दबाना था जो 1857 के विप्लव को सफलतापूर्वक कुचल देने के बाद भी देश मे कहीं न कहीं उभर जाया करता था। 1870 में यह धारा आईपीसी में जोड़ी गयो।

धारा 124A आईपीसी के अंतर्गत पहला मुकदमा 1891 में दर्ज हुआ जो बंगाल से निकलने वाले एक अखबार बंगोबासी के संपादक के विरुद्ध था। बांग्ला अखबार बंगोबासी ने ' सहमति की उम्र ' के नाम से एक लेख लिख कर ब्रिटिश सरकार के एज ऑफ कंसेंट बिल 1891 की तीखी आलोचना की थी। 19 मार्च 1891 को पारित एज ऑफ कंसेंट कानून के अनुसार लड़कियों के साथ यौन संबंध बनाने की उम्र 10 से बढ़ाकर 12 साल कर दी गयी। इसमे भी विवाहित और अविवाहित का कोई भेद नहीं रखा गया था। 12 साल की कम उम्र की विवाहित महिला से यौन संबंध बनाना भी अपराध की श्रेणी में डाल दिया गया। अपने अनेक पुनर्जागरण के अभियान के बाद भी तत्कालीन बंगाल में बाल विवाह जोरो से प्रचलित था। बंगोबासी ने इस कानून के साथ ब्रिटिश राज की भी तीखी आलोचना की। इस आलोचना के कारण इस पर इस धारा के अंतर्गत मुकदमा कायम किया गया। लेकिन अदालत में जब यह मुकदमा पहुंचा तो इसपर जजों में एकराय नहीं बनी। संपादक ने भी माफी मांग ली और मुकदमा एक राय न होने से खारिज हो गया।

1897 में तिलक के लिखे गये लेखों ने अंग्रेजी हुकूमत की नींद उड़ा दी। तिलक ने अपने पत्र केसरी में मराठा साम्राज्य के संस्थापक शिवाजी के संदर्भ से कई लेख लिखे जिनमें ब्रिटिश हुकूमत की तीखी आलोचना थी।  पुणे के अंग्रेज़ शासकों को लगा कि तिलक के लेख को पढ़ कर ही चाफेकर बंधुओ ने रैंड और उसके सहयोगी आयस्टर की हत्या की है । यह घटना 22 जून 1897 में घटी थी। चाफेकर बंधुओं, वासुदेव और हरि चाफेकर के खिलाफ तो हत्या का मुकदमा चला और उन्हें फांसी की सज़ा हुयी। तिलक के खिलाफ उन्हें हत्या के लिये प्रेरित करने वाले केसरी पत्र में लिखे लेखों के कारण, 124A के अंतर्गत राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया।

इस धारा में असंतोष, डिसअफेक्शन के बजाय इसे डिसलॉयल्टी पढा गया और यह गैर वफादारी, राज यानी क्राउन का विरोध माना गया। इस प्रकार असंतोष राजद्रोह में तब्दील हो गया। इस मुक़दमे में जो बहस हुयी है उस पर लिखी एक पुस्तक द ट्रायल ऑफ तिलक, तिलक के कानूनी ज्ञान और उनकी तर्कशीलता को प्रमाणित करती है। पहली बार इस मुक़दमे में घृणा, शत्रुता, नापसंदगी, मानहानि आदि जैसे भाव जो जनता को किसी भी सरकार से असंतुष्ट करते हैं, राज्य या सरकार के विरुद्ध परिभाषित कर के राजद्रोहात्मक माने गये। तिलक को इस अपराध में सज़ा हो गयी। वे पहले व्यक्ति थे जिन्हें अपने लेखों के कारण राजद्रोह की सज़ा भुगतनी पड़ी।

सज़ा की अपील हुयी। एक साल बाद उनकी सहायता में जर्मन अर्थशास्त्री और न्यायविद मैक्स वेबर सामने आए। उनके मुक़दमे की अपील में नए तरह से बहस हुई और सेडिशन को नए सिद्धांत के अनुरूप व्याख्यायित किया गया। यह सिद्धांत स्ट्रेची का था जिनके अनुसार उपनिवेशवादी ताकतें अक्सर अपने अपने उपनिवेश में आज़ाद पसंद लोगो के विरुद्ध उन्हें प्रताड़ित करने के लिये राजद्रोह का बेजा इस्तेमाल करती रहती हैं जबकि यह एक प्रकार की अभिव्यक्ति है। अपील स्वीकार कर ली गयी और इस बार तो तिलक एक साल के बाद ही छूट गए। पर केसरी में ही लिखे एक अन्य लेख के कारण उनके खिलाफ 1908 में फिर 124A का मुकदमा दर्ज हुआ, जिसमे 1909 में उन्हें 6 साल की सज़ा मिली जो उन्होंने मांडले जेल में बिताया था। इसी मुक़दमे में तिलक ने अपना पक्ष रखते हुए यह कालजयी वाक्य कहा था, " स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा । " इस वाक्य को राजद्रोही माना गया।

1897 के बाद 1922 में यही मुकदमा महात्मा गांधी पर चला। गांधी जी ने अपने पत्र यंग इंडिया में ब्रिटिश शासन की नीतियों की तगड़ी आलोचना करते हुये कई लेख लिखे थे। कुछ लेख किसानों की समस्या पर जो उन्होंने चंपारण में निलहे ज़मीदारों के अत्याचार को देखा था पर लिखे थे। गांधी ने इस एक्ट को ही जनविरोधी और दमनकारी बता दिया था और यह भी कह दिया कि उन्होंने ब्रिटिश राज के विरुद्ध लेख लिखा है और यह राजद्रोह है तो वे राजद्रोही हैं। उन्होंने जो कहा उसे उन्ही के शब्दों में पढ़े,
“धारा 124A जिसके अंतर्गत मैं प्रसन्न हूँ कि मुझे आरोपित किया गया है, के बारे में यही कहूंगा कि यह धारा सभी प्राविधानों के अंतर्गत आईपीसी में एक राजकुमार की तरह है जो नागरिकों की स्वतंत्रता को कुचलने के लिये रखी गयी है। "
महात्मा गांधी को भी छह साल की सज़ा मिली थी।

भगत सिंह के ऊपर भी यही मुकदमा चला था। हालांकि उनके ऊपर सांडर्स हत्याकांड का भी मुकदमा चला था। जबकि भगत सिंह का नाम इस मुक़दमे की एफआईआर में भी नहीं था और राजद्रोह साबित भी नहीं हो पाया था। पर भगत सिंह अंग्रेजों के लिये बड़ा खतरा बन सकते थे और अंग्रेज़ उनकी वैचारिक स्पष्टता और मेधा को जान गए थे । उनका एक ही उद्देश्य था भगत सिंह को फांसी पर लटका देना जो उन्होंने 23 मार्च 1931 में कर दिया।

आज़ादी के बाद जब संविधान सभा की कार्यवाही चल रही थी, तो 29 अप्रैल 1947 को इस धारा पर लंबी बहस हुई। क्योंकि यह धारा कहीं न कहीं संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को अवक्रमित करती है। सरदार पटेल ने  केवल भाषण और नारों को सेडिशन मानने से इनकार कर दिया। कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सोमनाथ लाहिड़ी ने कहा कि ब्रिटेन में भी जहां से यह धारा आयातित की गयी है, सरकार के विरुद्ध कुछ भी तीखी बात या नीतियों की निंदा की जाय वह तब तक राजद्रोह नहीं माना जाता है जब तक कि कोई ऐसा उपक्रम न किया गया हो जो देश और राज्य के विरुद्ध युद्धात्मक हो। संविधान सभा मे लंबी बहस के बाद यह सहमति बनी कि केवल आलोचनात्मक और निंदात्मक भाषणों के ही आधार पर किसी के विरुद्ध यह आरोप नहीं लगाया जा सकता है। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध होगा। अतः इस धारा में संशोधन किये गए। 2 दिसंबर 1948 को सभी सदस्यों की तरफ से सेठ गोविंद दास ने इस संशोधन पर प्रसन्नता व्यक्त की।

संविधान सभा ने सेडिशन शब्द को ही यह मान लिया कि यह केवल बाल गंगाधर तिलक को दंडित करने के लिये गलत तरह से परिभाषित और व्याख्यायित किया गया था। जब कि असंतोष और राजद्रोह में अंतर है। संविधान सभा के सभी सदस्य स्वाधीनता संग्राम के सेनानी थे। एक सदस्य ने कहा कि
" जन असंतोष को मुखर कर के ब्रिटिश राज की आलोचना में तो हम सब शामिल थे। अगर आलोचना का यह मार्ग बाधित कर दिया जाएगा तो सरकारें निरंकुश हो जायेंगीं । अब हमारे पास अभिव्यक्ति की आज़ादी का मौलिक अधिकार है और एक फ्री प्रेस है। अब हमें इस धारा से मुक्ति पा लेनी चाहिये। "
26 नवम्बर 1949 को पूर्ण हुये संविधान ने सेडिशन शब्द से तो मुक्ति पा ली और एक स्वस्थ लोकतांत्रिक देश के हम भारत के लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में संविधान ने एक नायाब मौलिक अधिकार तो दे दिया पर आईपीसी में यह धारा बनी रही।

1950 में सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों ने सरकार को इस धारा में आवश्यक संशोधन करने पर विवश कर दिया। पहला मुकदमा आरएसएस के पत्र ऑर्गनाइजर से जुड़ा था, और दूसरा एक अन्य मुकदमा क्रॉस रोड मैगजीन का था। इन दोनों ही पत्रिकाओं में तत्कालीन सरकार की तीखी आलोचना और निंदा की गयी थी। सुप्रीम कोर्ट ने इन मामलों में सरकार का पक्ष लिया और स्वतंत्रता के शैशव को देखते हुए ऐसी आलोचना से परहेज बरतने के लिये सम्पादकों से कहा। पर कोई दण्डात्मक कार्यवाही नहीं हुयी। लेकिन अदालत ने इसे देशद्रोह नहीं माना बल्कि एक गैर जरूरी आलोचना माना। इस फैसले की आलोचना हुयी और इस धारा में एक संशोधन लाया गया।

सरकार की आलोचना और निंदा जो आज कुछ लोगो द्वारा देशद्रोह समझ ली गयी है, के संबंध में तब जवाहरलाल नेहरू ने इस धारा के बारे में संसद में संशोधन पेश करते समय क्या कहा था, यह पढ़ना दिलचस्प रहेगा। उन्होंने कहा था,
“ धारा 124A, भारतीय दंड संहिता, का ही उदाहरण लें, इस प्राविधान के बारे में जहां तक मैं समझता हूं, यह धारा न केवल आपत्तिजनक है बल्कि अप्रिय भी है। अतः व्यवहारिक और ऐतिहासिक कारणों से इस धारा की कोई आवश्यकता नहीं है। अगर आप सभी सहमत होंगे तो एक नया कानून बनेगा। जितनी जल्दी हो सके हम इस प्राविधान से मुक्ति पा लें। "
हालांकि नेहरू के इन शब्दों में कहे गए अपनी बात के बावजूद यह प्राविधान आईपीसी में बना रहा। लेकिन नेहरू के संसद में कहे गए शब्द और उनकी भावनाएं इस जुर्म के ट्रायल के समय अदालतों द्वारा स्वीकार किये गये और 1950 में ही धारा 124A के अंतर्गत दर्ज किये गए मुकदमों में कुछ उच्च न्यायालयों ने अभियुक्तों को बरी कर दिया।

आज़ादी के बाद 124A आईपीसी का सबसे चर्चित मुकदमा बिहार के केदारनाथ का था जो केदारनाथ बनाम बिहार राज्य 1962 के नाम से प्रसिद्ध है। केदारनाथ ने एक सार्वजनिक सभा मे तत्कालीन कांग्रेस सरकार की तीखी आलोचना करते हुये बरौनी में कहा था,
" आज सीआईडी के कुत्ते बरौनी में इधर उधर घूम रहे हैं। बहुत से सरकारी कुत्ते इस सभा मे भी मौजूद हैं। देश की जनता ने इस देश से अंग्रेज़ो को उखाड़ कर भगा दिया, और इन कांग्रेसी गुंडों को गद्दी सौंप दी। "
यहां सीआईडी, इंटेलीजेंस खुफिया शाखा की पुलिस के लिये कहा गया है। क्योंकि पहले खुफिया शाखा भी सीआईडी का ही एक अंग हुआ करती थी। अब वह एक स्वतंत्र विभाग है। उन्होंने कांग्रेस पार्टी और सरकार को भ्रष्टाचार, काला बाज़ारी, पूंजीवादी और ज़मींदारों की प्रतिनिधि बताते हुए एक क्रांति कर के देश से भगा देने का आह्वान किया था।

केदारनाथ के इस भाषण पर स्थानीय पुलिस थाने द्वारा खुफिया रिपोर्ट के आधार पर धारा 124A आईपीसी का एक मुकदमा दर्ज हुआ और उनके खिलाफ अदालत में आरोपपत्र दाखिल हुआ जिसमें ट्रायल के बाद उन्हें सजा मिली।

अपनी सज़ा के खिलाफ केदारनाथ ने पटना  हाईकोर्ट में अपील की पर उन्हें उक्त अपील में कोई राहत नहीं मिली बल्कि हाईकोर्ट से भी उनकी सज़ा बहाल रही । हाईकोर्ट ने सेडिशन पर कहा कि, यह धारा उन अप्रिय और भड़काऊ शब्दों के लिये दण्डित करने की शक्ति  देती है जिससे कानून और व्यवस्था की गंभीर समस्या उत्पन्न हो सकती है और हिंसा भड़क सकती है। सेडिशन के लिये हाईकोर्ट ने सज़ा तो बहाल रखी पर इस धारा के संबंध में जजों की राय इस प्रकार थी।
“ इस प्राविधान में यह अंकित है कि अगर कोई व्यक्ति किसी उत्तेजक भाषण या लेख में भड़काऊ शब्दों के साथ सरकार और उसके कार्यकलापों तथा उसके अधिकारियों की ऐसी आलोचना करता है तो वह दंड का भागी होगा। लेकिन हमारी राय के अनुसार ऐसे लिखे और बोले गये शब्द इस धारा के प्राविधान से बाहर हैं। "

हाईकोर्ट ने यह तो माना कि केदारनाथ द्वारा दिया गया भाषण आक्रामक और भड़काऊ है और सज़ा भी बहाल रखी पर इसे राजद्रोह मानने से इनकार कर दिया। यह एक अजीब फैसला था। राजद्रोह का जब दोष ही नहीं बनता तो सज़ा किस बात की। केदारनाथ ने इस फ़ैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

सुप्रीम कोर्ट में एक संविधान पीठ का गठन इस अपील की सुनवायी के लिये हुआ। संविधान पीठ ने पहली बार सेडिशन पर एक महत्वपूर्ण फैसला दिया, जिससे यह धारा परिभाषित हुयी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, आज़ादी मिलने तक 124A के बारे में दो विचार थे, जो इस धारा के संबंध में फेडरल कोर्ट और प्रिवी काउंसिल के फैसलों पर आधारित थे। 1949 में प्रिवी काउंसिल जो सभी कॉमनवेल्थ देशों की साझी सर्वोच्च अपीलीय अदालत थी को भारत सरकार ने एक कानून बनाकर समाप्त कर दिया था । आज़ादी के पहले फेडरल अदालतों की यह धारणा थी कि, " लोक व्यवस्था अथवा लोक व्यवस्था के भंग हो जाने की आशंका ही इस प्राविधान को दंड संहिता में जोड़े जाने का आधार है, इसलिए फेडरल अदालतों के फैसलों के अनुसार, अकेले उत्तेजक और भड़काऊ शब्दावली युक्त भाषणबाजी भी किसी भी हिंसक घटना को जन्म दे सकती है अतः सेडिशन का आरोप बनता है। "

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने फेडरल कोर्ट के इन फैसलों की जब संविधान के अनुच्छेद 19A के परिप्रेक्ष्य मे व्याख्या की तो, इस प्राविधान को 19A ( बोलने की आज़ादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ) के विपरीत तो पाया, लेकिन इसे संविधान विरुद्ध नहीं मानते हुये रद्द नहीं किया। हालांकि केदारनाथ को इस अपराध का दोषी नहीं पाया गया और उन्हें बरी कर दिया।

इस मुक़दमे में सुप्रीम कोर्ट ने सेडिशन कानून को बनाये रखने की बात कह कर उसे संविधान विरुद्ध नहीं माना है लेकिन अदालत ने यह भी साफ कर दिया जैसा सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध वकील फली एस नारीमन कहते हैं कि,
" केवल सरकार की आलोचना चाहे वह कितनी भी निर्मम और घृणा भरी हो के आधार पर किसी के विरुद्ध सेडिशन का आरोप नहीं लगाया जा सकता है। "

उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि धारा 121, 122 और 123 आईपीसी में राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा, युद्ध का षडयंत्र और राज्य प्रमुख के हत्या या उनपर हमले की बाते हैं तो ये धाराएं सही मायने में देशद्रोह हैं। इन प्राविधानों में कभी कोई विवाद नहीं उठा है।

जबकि धारा 124A जिसमे केवल " बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा, या दृश्यरूपण द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घॄणा या अवमान पैदा करने " की अभिव्यक्ति को देशद्रोह या राजद्रोह या सेडिशन कहा गया है, में जब से यह धारा बनी है तब से विवाद उठता रहा है और आज भी बना हुआ है। हर बार अदालतों में इसकी वैधानिकता को चुनौती दी गयी है। इस धारा की परिभाषा को देखते हुए इस बात की संभावना अधिक है कि इसका सत्ता या पुलिस अपने हित मे दुरूपयोग करे। इसके सबसे अधिक शिकार वे अखबार, पत्रिकाएं, टीवी चैनल और पत्रकार बनते हैं और आगे भी  बन सकते है  जो सरकार के सजग और सतर्क आलोचक हैं। विरोधी दल के वे नेता भी शिकार हो सकते हैं जो सत्तारूढ़ दल से वैचारिक आधार पर भिन्न मत रखते हैं और स्वभावतः सरकार के  कटु आलोचक है। ब्रिटिश काल मे भी इस प्राविधान की गाज 1891 में बंगोबासी, 1897 और 1908 में लोकमान्य तिलक ,1922 में महात्मा गांधी और 1929 में भगत सिंह और साथियों पर गिरी थी।

उपरोक्त महत्वपूर्ण मामलों के अतिरिक्त दो और मामले डॉ बिनायक सेन और कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी के खिलाफ थे जो लगे चर्चित रहे हैं। डॉ सेन के खिलाफ नक्सलियों के साथ साठ गांठ करने औऱ उनको मदद पहुंचाने के आरोप में और कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी जो इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन के दौरान कुछ कार्टून बनाने पर यह मुक़दमा दर्ज कराया गया था। लेकिन इन दोनों मामलों में सरकार की व्यापक आलोचना हुयी। अब तक के उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि इस कानून का उपयोग सरकार अपनी मर्ज़ी से करती है न कि किसी कानूनी इंग्रेडिएंट्स पर। ब्रिटिश राज, एक राजतंत्र था और हम परतंत्र थे तो हमारी हर आवाज़ औपनिवेशिक राज्य को अखरती थी। पर आज जिस तरह से अनावश्यक नारों और बयानबाजी के आधार पर यह कानून लागू किया जा रहा है यह कानून के दुरुपयोग के साथ साथ, सरकार की बदहवासी को भी बताता है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी लोकतंत्र की जान है। 1215 में इंग्लैंड के मैग्ना कार्टा, 1688 में इंग्लैंड की ग्लोरियस रिवोल्यूशन और 1789 में हुयी फ्रांस की क्रांति ने मनुष्य के जीवन मे अभिव्यक्ति और जीवन के उदार सिद्धांतों का बीजारोपण किया। यह धारा कहीं न कहीं उस उदार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के विपरीत ठहरती है। हर मुक़दमे में विरोधाभास उभर कर सामने आया है। तिलक, गांधी और भगत सिंह तथा साथियों को दी गयी सज़ायें कानूनी आधार पर नहीं बल्कि राजनैतिक और प्रशासनिक आधार पर दी गयीं थी क्योंकि हम गुलाम थे। ग़ुलाम भला आज़ादी के सपने कैसे देख सकता है ! पर अब एक सार्वभौम, स्वतंत्र और विधि द्वारा शासित एक कल्याणकारी राज्य है तो ऐसे राज्य से अपेक्षाये भी होंगी और कभी न कभी, कहीं न कहीं किसी न किसी विंदु पर सरकार की आलोचना भी  होगी। अतः केवल इस आधार पर कि किसी ने सरकार की निर्मम आलोचना, लेख लिख कर और भाषण देकर कर दिया है तो उसे देशद्रोही ठहरा दिया जाय यह एक अधिनायकवादी कदम होगा न कि लोकतांत्रिक।

124A आईपीसी धारा को पुलिस ने किसी समय की धारा 25 आर्म्स एक्ट ( देसी कट्टे की बरामदगी औऱ गिरफ्तारी ) के समान सबसे अधिक विवादित अपराध की धारा बना दिया है। इसका सबसे अधिक दुरुपयोग अंग्रेजों ने किया और अब भाजपा सरकार कर रही है। मैं अब भी इस मत पर दृढ़ हूँ कि गृहमंत्री के पद पर आपराधिक मानसिकता के व्यक्ति को नियुक्त किये जाने से बचा जाना चाहिए। कानून के ऐसे दुरुपयोग से केवल और केवल, पुलिस और विभिन्न जांच एजेंसियों की क्षवि न सिर्फ धूमिल होती है, बल्कि पुलिस जनता का रहा सहा भरोसा भी खो देती है। 
( विजय शंकर सिंह )


Tuesday, 16 February 2021

कम वेतन पाने वाला पत्रकार, अधिक खतरनाक होता है / विजय शंकर सिंह

पत्रकारों को कम वेतन नही देना चाहिए। कम वेतन पाने वाला पत्रकार अधिक खतरनाक हो सकता है। कभी यह रोचक निष्कर्ष निकाला था, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी ने। कार्ल मार्क्स पर उनकी यह एक रोचक टिप्पणी है। यह कथन जॉन एफ केनेडी के ओवरसीज प्रेस क्लब न्यूयॉर्क में आयोजित एक पुरस्कार समारोह में, 6 मई 1957 को, दिए गए भाषण का एक अंश है। यह भाषण, जब वे सीनेटर थे तब उन्होंने दिया था। कार्ल मार्क्स, कभी  न्यूयॉर्क ट्रिब्यून में एक पत्रकार की हैसियत से काम करते थे। वे उक्त अखबार के लिये लिखते थे, लेकिन उन्हें जो पारिश्रमिक मिलता था, वह उनके जीवन यापन के लिये पर्याप्त नहीं होता था। मार्क्स, उक्त अखबार में फॉरेन करसपोंडेंट थे । उन्होंने फिर अखबार की नौकरी छोड़ दी और फिर जिस काम मे वे जुटे उसने दुनिया बदल कर रख दी। उनकी सोच और विचारधारा ने, लेनिन, स्टालिन, माओ, कैस्त्रो, चे जैसे लोगों को जन्म दिया जिन्होने दुनिया मे द्वंद्ववात्मक भौतिकवाद के दर्शन और बाद में कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो से उद्भूत विचारधारा के आधार पर दुनिया मे बदलाव और क्रांति की पीठिका रखी।

पूरा किस्सा इस प्रकार है। 1851 में न्यूयॉर्क ट्रिब्यून के प्रकाशक और सम्पादक होर्स ग्रीली ने लंदन में काम कर रहे एक फ्रीलांस पत्रकार कार्ल मार्क्स को अपने अखबार में विदेश संवाददाता के रूप में नौकरी पर रखा। मार्क्स लंदन से ही, उक्त अखबार के लिए विदेशी मामलो पर अपने डिस्पैच भेजते थे। तब लंदन दुनिया के साम्राज्यवाद का नाभिस्थल था और मार्क्स की टिप्पणियों को बेहद रुचि और उद्विग्नता से पढ़ा भी जाता था। मार्क्स उस अखबार के लिये नियमित रूप से कॉलम लिखने लगे। पर जब कभी मार्क्स किसी अन्य अध्ययन में व्यस्त हो जाते तो, वह कॉलम उनके साथी फ्रेडरिक एंगेल्स लिख दिया करते थे। वैचारिक और दृष्टिकोणीय समानता के कारण, दोनो के लेखन और तार्किकता में कोई बहुत अंतर होता भी नहीं था।  इस अखबार में नौकरी के दौरान, कार्ल मार्क्स, की आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी और वे निरन्तर अर्थाभाव में रहने लगे। उन्होंने अपनी तनख्वाह बढ़ाने के लिये अखबार के मालिक, ग्रीली और प्रबंध संपादक, चार्ल्स डाना से, कम से कम 5 डॉलर की वृद्धि करने का अनुरोध किया। लेकिन अखबार ने भी यह कह कर कि, उसकी भी आर्थिक स्थिति, अमेरिकी गृह युद्ध के कारण अच्छी नहीं है, अखबार ने भी, भी कार्ल मार्क्स की तनख्वाह बढाने से मना कर दिया। इस पर मार्क्स और एंगेल्स ने अखबार पर उन्हें ठगने और अपने शोषण करने की क्षुद्र पूंजीवादी सोच से ग्रस्त होने का आरोप लगाया और जब मार्क्स की तनख्वाह नहीं बढ़ी तो, उन्होंने ट्रिब्यून की नौकरी छोड़ दी और फिर वे अपने अध्ययन और दर्शन को समृद्ध करने में एंगेल्स के साथ पूरी तरह से जुट गए। फिर जो हुआ, वह बौद्धिक क्षेत्र में एक ऐसा बदलाव था, जिसने दुनिया बदल दी।

इसी प्रकरण पर हल्के फुल्के अंदाज़ में, जॉन एफ कैनेडी टिप्पणी करते हुए कहते हैं,
" यदि एक बार इस पूँजीवादी न्यूयॉर्क ट्रिब्यून अखबार उन ( कार्ल मार्क्स ) से अधिक दयालुता से पेश आया होता, और कार्ल मार्क्स यदि उक्त अखबार में एक विदेश संवाददाता ही बने रहते तो, दुनिया का इतिहास ही कुछ अलग होता है। मैं सभी प्रकाशकों से यह आशा करता हूँ कि, वे इससे यह सबक सीखेंगे और भविष्य में यह ध्यान रखेंगे कि, अगली बार अपनी गरीबी से पीड़ित यदि कोई व्यक्ति, अपने वेतन में थोड़ी भी वृद्धि की मांग करता है तो उस पर विचार करेंगे। "

केनेडी ने भले ही यह बाद हल्के फुल्के अंदाज़ में कही हो, पर इसे एक बेहद तार्किक और गम्भीर कथन के रूप में देखा भी जा सकता है। अभाव में जीता हुआ व्यक्ति यदि उक्त अभाव के कारणों की तह में जाता है और जब अपने उचित अधिकारों के लिये तन कर, उक्त अभाव के समाधान के लिए, समाज मे खड़ा हो, मुखर होने लगता है तो, न केवल उसी की परिस्थितियां बदलती हैं बल्कि वह समाज को एक दिशा भी देने की हैसियत में आ जाता है। वह अकेले नहीं रह पाता है। क्योंकि वही अकेले अभाव में नहीं रहता है बल्कि समाज का अधिसंख्य भी तो उसी अभाव को झेलता रहता है। फिर शोषण और उत्पीड़न की उन परिस्थितियों के खिलाफ एक दिमाग बनता है, सवालात जन्म लेते हैं, उनके उत्तर ढूंढे जाते हैं, और कुछ लोग कसमसाते हैं और फिर खड़े होने लगते हैं। उन्ही में से नेतृत्व उभरता है और फिर जो बदलाव का सिलसिला शुरू होता है वह एक झंझावात में बदल जाता है, जिसे हम क्रांति या रिवोल्यूशन कहते हैं।

अभाव और विपन्नता जब ईश्वर का कोप या पूर्व जन्म के कर्मवाद से व्याख्यायित होने लगती है तो, वह नियतिवाद का आवरण ओढ़ लेती है। यह नियतिवाद सारी प्रगति, और बेहतर होने की कोशिशों को निगल जाता है। वह अक्सर संतोष और धैर्य की बात करने लगता है। सब कुछ पिछले धर्म का किया धरा है अतः अगले जन्म में कुछ न कुछ तो बेहतर हो, इसलिए बेहतर और नैतिक जीवन जीने का उपदेश तो देता है, एक ऐसे भविष्य के सपने तो दिखाता है, जो है भी या  नहीं है, के बारे में खुद भी संशयग्रस्त है, पर वर्तमान के अभाव, कष्ट और सामाजिक विषमता जन्य बुराइयों के समाधान के प्रति उदासीन भी बना रहता है। जब कोई आवाज़ उठती है, कहीं कुछ खदबदाता है तो उसमें अराजकता ढूंढने लगता है। अराजकता, जनता का जागना, अपने शोषण औऱ अन्याय के खिलाफ खड़े होना, नहीं होता है, बल्कि अराजकता, राज्य का विधिक औऱ लोककल्याणकारी शासन से अलग हट कर, खुद या कुछ की स्वार्थपूर्ति को प्राथमिकता में रख कर, राज करना भी है। राज्य द्वारा किया जा रहा ज्यादतीभरा और दमनकारी शासन, ही असल मे अराजकता है, न कि इस अराजक शासन व्यवस्था के विरुद्ध जनता का उठ खड़ा होना और राज्य को उसके दायित्व और कर्तव्यों के प्रति सचेत करना। अभाव और विपन्नता, न तो ईश्वर प्रदत्त होती है और न ही यह किसी नियति का परिणाम है। यह सामाजिक ढांचे, सामाजिक व्यवस्था, राज व्यवस्था और अन्य परिस्थितियों का परिणाम होती है। उनके कारणों की पड़ताल कर के निदान को खोजा जा सकता है। मार्क्स उन्ही कारणों की पड़ताल की, समस्या की पहचान की और फिर उनके निदान का एक सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसे उनके अनुयायियों ने अपने अध्ययन और कार्यो से और समृद्ध किया। इसी शृंखला में, केनेडी, लेनिन, स्टॅलिन, माओ, कास्त्रो और चे का नाम लेते हैं। केनेडी मर्ज को पहचान चुके हैं और उस मर्ज के तात्कालिक निदान के रूप में ही उन्होंने अपने पूंजीवादी मित्रो को परामर्श दिया कि, वे अभाव और विपन्नता को इतना न  बढ़ने दें कि अंसन्तोष फूट पड़े। उनके कथन में अफसोस है या सीख या इतिहास के एक करवट की व्याख्या, इस पर सबकी अलग अलग राय हो सकती है।

कैनेडी एक पूंजीवादी व्यवस्था वाले देश के सेनेटर थे और बाद में वह उस देश के राष्ट्रपति भी बने। उन्हे अमेरिका के बेहतर राष्ट्रपति के रूप में गिना जाता है। यह भी एक विडंबना है कि उनकी हत्या हुयी । निश्चित ही वे जिस दौर मे थे, उस दौर में, शीत युद्ध का काल था। और अमेरिका तथा सोवियत रूस की आपसी प्रतिद्वंद्विता में उनका समय शीत युद्ध के काल का एक अंग था और दुनिया दो खेमों में बंटी हुयी थी। आजकल की तरह एक ध्रुवीय दुनिया नहीं थी। वे शीत युद्ध का उल्लेख करते हैं और तब तक रूस के साथ साथ चीन, क्यूबा और कुछ लैटिन अमेरिकी देशों में पूंजीवाद विरोधी क्रांति या तो हो चुकी थी या होने वाली थी। एशिया और अफ्रीका के जो उपनिवेश, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आज़ाद हो रहे थे, वे सब शोषित और उत्पीड़ित समाज के थे। पूंजीवादी और साम्राज्यवादी शोषण से सद्य: मुक्त ये देश, स्वाभाविक रूप से समाजवादी विचारधारा के करीब थे। ऐसे ही समय मे, भारत भी आज़ाद हुआ था और भारत ने भी जो आर्थिक मॉडल चुना था वह मिश्रित अर्थ व्यवस्था का था जो समाजवाद की ओर झुका था। जब संविधान में समाजवादी शब्द नहीं जोड़ा गया था, तब भी हमारा संविधान लोककल्याणकारी और समाजवादी समाज के स्थापना के उद्देश्य पर ही आधारित था और अब भी है। संविधान के नीति निर्देशक तत्व और मौलिक अधिकार, इसे स्वतः स्पष्ट करते है।

केनेडी अपने भाषण में यही रेखांकित करते हैं कि, बढ़ता हुआ आर्थिक और सामाजिक शोषण, अभाव और विपन्नता में धकेलती हुयी राज्य व्यवस्था, क्रांति और बदलाव की भूमिका लिखने लगती है। बस उसे नेतृत्व, दिशा, वैचारिक सोच, परिस्थितियों और अवसर की प्रतीक्षा रहती है। केनेडी के भाषण का अंश अंग्रेजी में इस प्रकार है,

"Karl Marx left his job after NY Tribune refused a pay hike. He then devoted himself to the cause that gave birth to Lenin, Stalin, Mao, Castro, Che.If only this capitalistic New York newspaper treated him more kindly; if only Marx had remained a foreign correspondent, history might have been different, and I hope all publishers will bear this lesson in mind the next time they receive a poverty-stricken appeal for a small increase in the expense account from an obscure newspaper man."

( विजय शंकर सिंह )


Sunday, 14 February 2021

लद्दाख डिसइंगेजमेंट - 'पीछे लौटो' होगा या 'जैसे थे' ? / विजय शंकर सिंह

अप्रैल 2020 से चल रहा, भारत चीन का लद्दाख सीमा विवाद अब सुलझ गया है। डिसइंगेजमेंट की लंबी वार्ता के बाद, चीन और भारत अपनी अपनी सेनाएं पीछे हटाएंगे। यह सरकार का अधिकृत बयान है। पर सुलझाव वाले इस अधिकृत बयान ने इस गुत्थी को और उलझा कर रख दिया है। कुछ बेहद तीखे और असहज करने वाले सवाल, सरकार से पूछे जा रहे हैं। न सिर्फ विरोधी दल के नेताओं ने बल्कि, सत्तारूढ़ दल के कुछ नेताओं ने अनेक शंकाएं इस समाधान पर उठायी हैं। साथ ही रक्षा मामलो के विशेषज्ञ, ब्रह्म चेलानी और पूर्व कर्नल अजय शुक्ल ने भी समझौते पर सवाल उठाए हैं। सबकी एक प्रमुख शंका है कि, इस 'पीछे लौटो' कमांड के बजाय 'जैसे थे' कमांड क्यों नहीं बोला गया ? पीछे लौटने का अर्थ है कि फिलहाल ट्रूप जहां हैं, वहां से पीछे लौटें। यानी दोनो ही सेनाओं ने एक दूसरे की सीमा में घुसपैठ किया था, अब वे अपनी अपनी सीमा में घुसपैठ कर के पीछे लौटेगे। जबकि जैसे थे का अर्थ होता है कि अप्रैल 2020 के पहले की स्थिति को बहाल किया जाय। जिस सेना ने घुसपैठ की पहल की, और अपनी सीमा को तोड़ कर पड़ोसी देश की सीमा में घुसपैठ किया है वह, जैसे घुसपैठ के पहले जिस स्थिति में थी, उसी स्थिति में वापस चली जाय। यानी जैसे थे, वैसे हो जांय। जैसे थे एक फौजी वर्ड ऑफ कमांड है, जिसका अर्थ है, जैसे पहले की फॉर्मेशन में थे, वैसे हो जांय। 

जैसे थे, था क्या ? अब जरा इसे अतीत में जा कर देखते हैं। 1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया था तब गलवां घाटी और पैंगोंग झील के आगे 8 पहाड़ियों वाले घाटी का इलाका जिसे फिंगर्स कहते हैं, एक अनौपचारिक रूप से तय की हुयी सीमा रेखा बन गयी, जिसे एलएसी ( लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल ) कहा गया। वास्तविक सीमा के निर्धारण और भौगोलिक जटिलता के कारण कभी हम उनके तो कभी वे हमारे क्षेत्र में चले आते थे। सच तो यह है कि इस दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र में ज़मीन पर सीमा निर्धारण का कोई काम गम्भीरता से कभी हुआ ही नहीं। न तो ब्रिटिश काल मे और न ही उसके बाद। दुर्गमता, विपरीत मौसम के कष्ट, निर्जनता और उक्त भूमि की उपयोगिता के अभाव के कारण सीमा निर्धारण पर किसी सरकार ने ध्यान नही दिया। जब 1962 ई में चीन ने घुसकर हमला किया और तब वह जहां रुका वही सीमा अस्थायी रूप से बन गयी। अगर पूर्व सेनाध्यक्ष और अब केंद्रीय मंत्री जनरल बीके सिंह के हालिया बयान का संदर्भ लें तो, उससे यह पता चलता है कि इस तरह की घुसपैठ आम थी और एलएसी का उल्लंघन दोनो ही सेनाएं करती रहती थी। इसी के कारण 1993 ई में भारत चीन के बीच एक महत्वपूर्ण समझौता हुआ, जिंसमे कुछ शर्तें तय हुयी। 1993 में हुए एक भारत चीन समझौते के अंतर्गत यह तय किया गया, कि उभय पक्ष हथियार का प्रयोग नहीं करेंगे। लेकिन अचानक, 15 जून हमारे एक कर्नल संतोष बाबू सहित 20 सैनिक चीनी हमले में शहीद हो गए। 15 जून 2021 को बेहद गम्भीर और व्यथित कर देने वाली यह खबर, भारत चीन विवाद के इतिहास में 1962 ई के बाद की सबसे बड़ी घटना थी, जिसकी व्यापक प्रतिक्रिया देश भर में हुयी थी। 

15 जून की हृदयविदारक घटना और चीन के धोखे के बाद पूरा देश उद्वेलित था, और इसी की कड़ी में 19 जून को प्रधानमंत्री द्वारा सर्वदलीय बैठक बुलाई गयी, और उस सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री जी ने कहा, 
" न तो हमारी सीमा में कोई घुसा था, और न ही हमारी चौकी पर किसी ने कब्जा किया था। हमारे 20 जवान शहीद हो गए। जिन्होंने, भारत माता के प्रति ऐसा दुस्साहस किया है, उन्हें सबक सिखाया जाएगा। " 
प्रधानमंत्री के इस यह बयान से, भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गयी और तत्काल निम्न सवाल उठ खड़े हो गए। 
● जब कोई अंदर घुसा ही नहीं था और किसी चौकी पर कब्जा तक नहीं किया गया था,तो फिर विवाद किस बात का था ?
● जब विवाद नहीं था तो फिर 6 जून 2020 को जनरल स्तर की फ्लैग मीटिंग क्यों तय की गयी थी ? 
● जब कोई घुसा ही नहीं था तो हमारे अफसर और जवान क्या करने चीन के क्षेत्र में गए थे जहाँ 20 जवान और एक कर्नल संतोष बाबू शहीद हो गए ? 

हालांकि, प्रधानमंत्री के पहले, रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री ने चीनी घुसपैठ की बात स्वीकार की थी। इसी सम्बंध में 2 जून को रक्षामंत्री ने कहा था,
" महत्वपूर्ण संख्या ( साइज़ेबल नम्बर ) में चीनी सेनाओं में लदाख में घुसपैठ की है, और अपने इलाके में होने का दावा किया है। "
विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि, चीन की पीएलए हमारे इलाके में घुस कर बंकर बना रही है। 
13 जून को, थल सेनाध्यक्ष जनरल प्रमोद नरवणे ने कहा था,
" चीन से लगने वाली हमारी सीमा पर स्थिति नियंत्रण में है, दोनों पक्ष, चरणों में अलग हो रहे हैं। हमलोगों ने उत्तर में गलवान नदी क्षेत्र से शुरुआत की है ।" 
यह सवाल आजतक पूछा जा रहा है कि, लद्दाख में इतनी बड़ी शहादत के बाद हमने अब तक क्या पाया ? 

अभी छः फरवरी 2021 को ही विदेश मंत्री ने बताया कि, 
" पूर्वी लद्दाख में एलएसी पर दस महीनों से चले आ रहे सैन्य गतिरोध को दूर करने के लिए चीन से अब तक हुए सैन्य कमांडर स्तर की वार्ता के नौ दौरों का जमीन पर कोई असर नहीं हुआ है। हमें लगता है कि कुछ प्रगति हुई है, लेकिन उसे समाधान के तौर पर नहीं देखा जा सकता। " 
लेकिन रक्षामंत्री ने संसद में इसी विषय मे फरवरी में ही बताया कि 
" उक्त गतिरोध दूर करने के प्रयासों में ‘एक बड़ी सफलता’ मिल गई है। वह यह कि, भारत व चीन दोनों पैगोंग झील के दक्षिणी व उत्तरी किनारों पर स्थित क्षेत्रों से अपनी सेनाएं पीछे हटाने पर सहमत हो गये हैं।" 
लेकिन रक्षामंत्री के इस बयान पर अनेक सन्देह उठ खड़े हुए, विशेषकर तब, जब उन्होंने कहा कि, दोनो ही सेनाएं पीछे होंगी। यानी पीछे लौटेंगी। जैसे थे, नहीं। 

रक्षा मामलों के विशेषज्ञ, ब्रह्मा चेलानी ने कई ट्वीट कर के सरकार से इस समझौते पर कई सवाल पूछे और अपनी शंकाये जताई। सरकार द्वारा संसद में दिए गए बयान पर विशेषज्ञों का कहना है कि इस समझौते के तहत चीन को फिंगर-4 तक बफर जोन बनाने की बात की गयी है। यानी हम अपने ही इलाके में पीछे लौटे हैं न कि घुसपैठ पूर्व की स्थिति बहाल की गयी है। हमारी ही सीमा में बफर जोन बना कर हमें और पीछे धकेल दिया गया है।

अगर गंभीरता से घुसपैठ पूर्व की स्थिति, घुसपैठ के दौरान दोनों सेनाओं की सीमा पर ज़मीनी कैम्पिंग और अब लम्बे दौर की वार्ता के बाद डिसइंगेजमेंट की कथित 'सफलता' का मूल्यांकन करें तो एक बात तो तय है कि, अप्रैल, 2020 के पूर्व की स्थिति की बहाली यह नहीं है, जिसकी भारत की ओर से लगातार मांग की जाती रही है। अब जो स्थिति उभर कर सामने आ रही है, उसके अनुसार, 
● भारत के जवान फिगर-3 के अपने बेस में रहेंगे, 
● चीन फिंगर-8 के पूर्व में और परम्परागत स्थलों की, जिनमें फिंगर-8 भी शामिल है रहेगा और गश्त स्थगित रहेगी, जब तक कि इस विषय में सैन्य या राजनयिक वार्ता में समझौता नहीं हो जाता।
● डेप्सोंग और अन्य क्षेत्रों में चीनी अतिक्रमणों को लेकर क्या तय हुआ है, यह स्थिति अभी स्पष्ट नहीं है। जबकि चीनी सेना का असल मकसद डेप्सोंग पर कब्जा करना रहा है।
● चीनी सेना के बयान में अप्रैल, 2020 से पहले की स्थिति की बहाली का कोई जिक्र फिलहाल नहीं है। 

चीनी घुसपैठ को लेकर सरकार के अंदर से विरोधाभासी बयान न केवल 19 जून 2020 को आये थे, बल्कि वे बयान आज जब डिसइंगेजमेंट हो रहा है तब भी आ रहे हैं। या तो पीछे लौटो की शर्तें अभी तय नहीं हैं या तय हैं तो उन्हें लेकर सरकार में कहीं न कही संशय का भाव है। विदेशमंत्री के 6 फरवरी के बयान और रक्षामंत्री के समाधान के बयान में ध्वन्यात्मक अंतर है। एक बात और महत्वपूर्ण है कि चीन का अतिक्रमण सिर्फ लद्दाख तक सीमित नहीं है। उसने हमारे अरुणाचल प्रदेश में सुबनसिरी जिले के त्सारी चू नदी के किनारे एक गांव बसा लिया है,जिसमें चीनी नागरिक रह रहे हैं औऱ यह भारतीय सीमा के साढ़े चार किलोमीटर अंदर है। 2017 में डोकलाम में भारतीय सेना के हाथों मात मिलने के बाद ही चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तिब्बत में ‘बॉर्डर डिफेंस विलेज’ बनाने की शुरुआत कर दी थी। अरुणाचल प्रदेश में बसाया गया चीनी गांव भी इसी एजेंडे का हिस्सा बताया जाता है। सरकार जिस समझौते को समाधान बता रही है, उसे यह भी याद रखना होगा कि, भारत और चीन के बीच 3,488 किलोमीटर लंबी एलएसी को लेकर विवाद है और यह केवल लद्दाख या तक ही सीमित नहीं है। देश की सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मसलों को राजनीतिक लाभ-हानि के नजरिये से ही देखना और उसका समाधान ढूंढना उचित नहीं होगा। 

सत्यहिन्दी वेबसाइट और मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, रक्षामंत्री ने सदन में कहा कि, 
●  दोनों पक्ष अपनी-अपनी सेनाओं की गतिविधियों को स्थगित रखेंगे। 
● पिछले साल के गतिरोध से पहले वाली स्थिति बहाल हो जाएगी। 
● चीन के साथ कई दौर की वार्ता के बाद भारत ने कुछ नहीं खोया है।
● दोनों पक्ष सैनिकों को हटाने पर सहमत हैं। कई मुद्दों पर वार्ता बाक़ी है। 
● पैंगोग लेक से सेना हटने के 48 घंटों के भीतर सीनियर कमांडर्स की बैठक। 
● दोनों देश फ़ॉरवर्ड डिप्लायमेंट को हटाएँगे। 
● अप्रैल, 2020 के बाद से पैंगोंग त्सो के नॉर्थ और साउथ ब्लॉक में निर्माण को हटाया जाएगा। 

इस बयान पर विपक्ष विशेषकर कांग्रेस और कुछ रक्षा विशेषज्ञों ने, निम्न संदेहों को उठाया, 
●  चीन की सेना डेप्सोंग, गोगरा और हॉट स्प्रिंग से बाहर क्यों नहीं गई? 
● हमारी ज़मीन फ़िंगर 4 तक है और सेना फ़िंगर 3 पर आ जाएगी। फिर 3 से फिंगर 4 तक की भारत की ज़मीन क्या चीन के पास नहीं चली जाएगी ? 
● भारतीय सेना अब फिंगर 3 तक सीमित हो जाएगी। क्या यह सीधे-सीधे भारत के हितों पर कुठाराघात करने का काम नहीं है?
● डेप्सोंग में चीन अंदर तक आया है, गोगरा और हॉट स्प्रिंग की ज़मीन के बारे में क्या स्थिति है ?
● सरकार केवल पैंगोंग त्सो लेक इलाके से ही ‘डिसइंगेज़मेंट’ का समझौता क्यों कर रही है और वह भी एलएसी की रूपरेखा बदलकर ?
●‘कैलाश रेंजेस’ पर अपनी प्रभावी व सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मौजूदगी से वापसी का समझौता क्यों किया जा रहा है ? 
● चीन ने एलएसी के 18 किमी अंदर तक (वाई जंक्शन तक) घुसपैठ की हुई है और भारत की सेना को अपने ही पेट्रोलिंग प्वाइंट्स में पेट्रोलिंग करने से रोक रखा है। 
● गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स में चीनी घुसपैठ के बारे में चुप्पी क्यों है ?
● चीनी सेना चुमुर, दक्षिणी लद्दाख तक पेट्रोलिंग कर रही है। इसका क्या कारण और निदान है ?

इस डिसइंगेजमेंट पर इतने सवाल खड़े हुए कि, अब रक्षा मंत्रालय को, भ्रम दूर करने के लिये बयान जारी करना पड़ा। रक्षा मंत्रालय ने अपने बयान में निम्न बाते कहीं।
" पैंगोंग त्सो में वर्तमान में जारी डिसइंगेजमेंट के संबंध में कुछ ग़लत और भ्रामक टिप्पणियाँ मीडिया और सोशल मीडिया पर की जा रही हैं। संसद के दोनों सदनों को अपने बयानों में रक्षा मंत्री द्वारा पहले ही स्पष्ट रूप से स्थिति साफ़ कर दी गई है। हालाँकि, मीडिया और सोशल मीडिया में ग़लत तरीक़े से समझी जा रही जानकारी के कुछ मामलों को सीधे काउंटर करना ज़रूरी है। 
● यह दावा कि भारतीय क्षेत्र फिंगर 4 तक है, स्पष्ट रूप से ग़लत है। भारत के क्षेत्र को भारत के नक्शे द्वारा दर्शाया गया है और इसमें 1962 से चीन के अवैध कब्जे में वर्तमान में 43,000 वर्ग किमी से अधिक शामिल हैं। यहाँ तक ​​कि भारतीय धारणा के अनुसार, वास्तविक नियंत्रण रेखा फिंगर 8 पर है, फिंगर 4 पर नहीं। यही कारण है कि भारत ने चीन के साथ वर्तमान हालात में भी फिंगर 8 तक गश्त का अधिकार बनाए रखा है।
● पैंगोंग त्सो के उत्तरी तट पर दोनों पक्षों के स्थायी पोस्ट पहले से ही हैं। भारतीय पक्ष में, यह फिंगर 3 के पास धन सिंह थापा पोस्ट है और फिंगर 8 के पूर्व में चीनी है। वर्तमान समझौते में दोनों पक्षों द्वारा फॉरवार्ड की तैनाती को रोकने और इन स्थायी पोस्टों पर तैनाती जारी रखने का प्रावधान है।
● भारत ने इस समझौते के परिणामस्वरूप किसी भी क्षेत्र को नहीं खोया है। इसके विपरीत इसने यथास्थिति में किसी भी एकतरफ़ा बदलाव को रोका है।
● रक्षा मंत्री के बयान ने यह भी साफ़ किया है कि हॉट स्प्रिंग्स, गोगरा और देपसांग सहित कई मुद्दों का समाधान किया जाना बाक़ी है। पैंगोंग त्सो के डिसइंगेजमेंट के पूरा होने के 48 घंटे के भीतर बकाया मुद्दों को उठाया जाना है।
● पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में हमारे राष्ट्रीय हित और क्षेत्र की प्रभावी सुरक्षा हो गई है क्योंकि सरकार ने सशस्त्र बलों की क्षमताओं पर पूरा विश्वास किया है। जो लोग हमारे सैन्य कर्मियों के बलिदान से संभव हुई उपलब्धियों पर संदेह करते हैं वे वास्तव में उनका अपमान कर रहे हैं।

अभी जिस डिसइंगेजमेंट की बात की जा रही है, उसके बारे मे रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि, डेप्सोंग से चीन को पीछे हटने के लिये बाध्य न करना एक बडी भूल साबित हो सकती है। क्योंकि चीन हमारी सीमा में 18 किमी तक अंदर आ गया है और इस समझौते के बाद भी उसकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। पिछली गर्मियों में भी, जब भारत गलवा घाटी में कुछ पीछे हटने को राजी होने की बात सोच रहा था, तब भी सरकार के इस कदम से कुछ रक्षा विशेषज्ञ हैरान थे कि, हम अपनी ही ज़मीन में हैं तो पीछे क्यों हटें और हमारी अपनी ज़मीन में कोई बफर जोन क्यों बने ? बफर जोन वह अनिश्चित ज़ोन होता है जहां यह किसी एक पक्ष की नही होती है, और वह किसी भी देश की भूमि नहीं होती है। पहले फिंगर 4 तक हमारी कैम्पिंग साइट थी और गश्त हम फिंगर 8 तक करते थे। अब हम फिंगर 3 पर आ गए हैं। चीन की यह पुरानी विस्तारवादी नीति है कि वह पहले सीमा के अंदर अधिक घुसता है और फिर जब बातचीत होती है तो वह थोड़ा पीछे चला जाता है। ऐसा करने में वह कुछ न कुछ अपनी सीमा या तो बढ़ा लेता है या फिर उसे बफर जोन में बदलवा कर के विवादित बनाये रखता है। उसकी यह रणनीति माओ की तिब्बत और उसकी पांच अंगुलियों के सिद्धांत पर आधारित है। 

द टेलीग्राफ में छपी एक खबर में एक रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल के हवाले से यह कहा गया है कि, 
" भारत द्वारा पैंगोंग झील क्षेत्र से पीछे हटना और अपने ही नियंत्रण वाले इलाके के कुछ भाग को बफर जोन में बदल देने पर सहमति व्यक्त करना, इसका आगे चल कर एक घातक परिणाम हो सकता है। यह एक बड़ी भूल है कि, बिना अप्रैल 2020 की स्थिति में वापस लौटे इस प्रकार के बफर जोन पर राजी हो जाया जाय। क्या हम पैंगोंग झील के उस हिस्से को छोड़ दे रहे हैं जो हमारे अधिकार में था, और चीन के दावे को स्वीकार कर ले रहे हैं कि यह उसका है और हम आगे बढ़ आये थे ?" 

रिटायर्ड कर्नल अजय शुक्ल जिन्होंने अप्रैल 2020 में हुयी घुसपैठ और 20 सैनिकों की शहादत और फिर उसके बाद लगातार होने वाली कोर कमांडर स्तर की वार्ता पर लेख लिखते रहे हैं का यह ट्वीट पढ़े, 
भारतीय और चीनी सेनाएं, अब पैंगोंग झील से डिसइंगेज होना शुरू हो गयी हैं।  फिंगर 3 से फिंगर 8 तक 10 किमी लम्बे  टुकड़े में एक बफर जोन अब बन जायेगा। 1962 के भारत चीन युद्ध के समय से ही, भारतीय सेना इस इलाके में फिंगर 8 तक गश्त करती रही है, लेकिन अब वह फिंगर 8 तक गश्त नहीं कर सकेगी।" 
इस प्रकार, भारत का दावा फिंगर 8 उत्तरी किनारे के क्षेत्र तक था, लेकिन अब चीन बढ़ कर फिंगर 4 तक आ गया है। जबकि वह फिंगर 8 तक था। अभी जो डिसइंगेजमेंट का समझौता हुआ है उसके अनुसार, चीन फिंगर 8 के पूर्व में रहेगा और भारत फिंगर 3 पर स्थित अपने स्थायी आधार पर आ जायेगा। कोई भी देश बफर जोन में गश्त नहीं कर सकता जो अब फिंगर 3 से 8 तक हो गया है, जब तक कि यह सीमा विवाद, उभय देशों द्वारा सुलझा न लिया जाय। यह कहा जा सकता है कि यह अस्थायी व्यवस्था है। पर इस अस्थायी व्यवस्था में भी हमे अपनी ही भूमि और फिंगर 8 तक के गश्त की अधिकारिता छोड़नी पड़ रही है। 

सितंबर में सेना ने कैलाश रेंज की ऊंचाइयों पर कब्ज़ा किया था। यह ऊंचाइयां सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। डिसइंगेजमेंट में यह स्पष्ट नही है कि उनसे भी हम पीछे हटेंगे या वहां भारत का कब्ज़ा बरकरार रहेगा। समझौते में कैलाश रेंज को बनाये रखने का कोई स्पष्ट उल्लेख नही है, इसलिए रक्षा विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ने एक ट्वीट कर के कहा है कि
" हम कैलाश रेंज से क्यों हट रहे हैं ? समझौते में वहां से कब्जा न छोड़ने का उल्लेख होना चाहिए।"
द टेलीग्राफ ने सूत्रो के हवाले से यह भी खबर छापी है कि, नौ दौर की बातचीत में चीन इस बात पर अड़ा था कि, भारत कैलाश हिल की ऊंचाइयों पर से भी अपना कब्जा हटाये, इसीलिए दोनो देशों में समझौता होने में गतिरोध था। अभी यह पूरी तरह से निश्चित नहीं है कि, कैलाश हिल के मुद्दे पर सरकार ने क्या तय किया है। इसी प्रकार, यह भी अभी स्पष्ट नहीं है कि, डेप्सोंग मैदान, गोगरा और हॉट स्प्रिंग जहां चीन घुस कर बैठा है, उसे खाली करेगा या नहीं। अजय शुक्ल कहते है कि 
" सियाचिन के बारे में हम पाकिस्तान के समक्ष जितने दृढ़ होते हैं उतने चीन के संबंध में मज़बूत स्टैंड नही ले पा रहे हैं। जब पाकिस्तान कहता है कि सियाचिन का विसैन्यीकरण करना चाहिए तब भारत का स्टैंड रहता है कि नहीं, सियाचिन कश्मीर समस्या का ही एक हिस्सा है। " 
सियाचिन भी अपनी ऊंचाई और सामरिक दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण विंदु है, जिसे कब्जे में लेने के लिये कारगिल की बड़ी घुसपैठ पाकिस्तान द्वारा की गयी और फिर पाकिस्तान को वहां से खदेड़ दिया गया। ऐसा ही सामरिक महत्व, कैलाश रेंज की ऊंचाइयों का भी है।

भारत चीन के बीच इस समझौते को लेकर संशय के अनेक कारण है। सबसे पहला और प्रमुख कारण है चीन की नीयत कभी भी भारत के साथ उसके संबंधों को लेकर स्पष्ट और दुर्भावना रहित नहीं रही। चाहे चाउ एन लाई का भारत के साथ पंचशील समझौता हो, या 1959 ई में हॉट स्प्रिंग में घात लगा कर सीआरपीएफ जवानों की, हमारे इलाके में घुसकर उनकी हत्या करनी हो, या अरुणाचल में उसकी लगातार बढ़ती दिलचस्पी और दखल हो, या भारत द्वारा नरेंद्र मोदी सरकार के समय, चीन से बेहतर सम्बंध बनाने की कोशिशें रही हो, चीन ने भारतीय सदाशयता की बराबर उपेक्षा की है और हर कदम पर हमें धोखा दिया है। जब परस्पर भरोसे में इतना अधिक क्षरण हो गया हो, और परस्पर विश्वास बार बार टूटा हो तब हर समझौते पर सन्देह का उठना स्वाभाविक है। 
दूसरा कारण है, सरकार के मंत्रियों और प्रधानमंत्री के इस घुसपैठ को लेकर परस्पर विरोधी बयान। 19 जून 2020 को न तो कोई घुसा था और न कोई घुसा है का पीएम द्वारा कहा गया वाक्य न केवल चीन की घुसपैठ को ही नकार देता है बल्कि उसके बाद की होने वाली समस्त वार्ताओं और समझौतों पर संशय खड़ा कर देता है। हालांकि सरकार का, दृष्टिकोण, पीएम के उक्त बयान से अलग शुरू से ही रहा है। 
तीसरा, कारण है, मंत्री बीके सिंह का बयान, जिसमे वे कहते हैं कि दस बार चीन घुसता है तो पचास बार हम भी घुसते हैं। यह खुद को आक्रामक और निर्भीक दिखाने के लिये कहा गया बयान हो सकता है पर अंतरराष्ट्रीय राजनय में सीमा शुचिता के उल्लंघन के रूप में भी व्याख्यायित किया जा सकता है। 

उपरोक्त तमाम संशय के बीच अगर इस समझौते पर अविश्वास भरी टीका टिप्पणियां की जा रही है, तो इसका पर्याप्त आधार भी है। पर समझौते पर सवाल उठाने वालों से असहमत होते हुए पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक ने ट्वीट कर के खहा है कि, 
'यह समझौता उचित है और इससे दोनो देशों के बीच आगे भी सैन्य तनाव घटेंगे। जो इसकी आलोचना कर रहे हैं वे या तो ज़मीनी हक़ीक़त से वाकिफ नहीं हैं या इसे समझ नहीं पा रहे हैं।'
आलोचकों का मुख्य विंदु डेप्सोंग मैदान से चीन का पीछे न हटना और कैलाश ऊंचाइयों से भारत के पीछे हटने की संभावनाओं को लेकर है। लेकिन सरकार का कहना है कि पैंगोंग झील से दोनो पक्षो को हट जाने के 48 घन्टे के अंदर अन्य मुद्दों पर बात होगी। 

डेप्सोंग मैदान से चीन का पीछा लौटना ज़रूरी है, क्योंकि यदि यहाँ पर चीन की मौजूदगी बनी रहती है तो, वह हमारी सामरिक महत्व की हवाई पट्टी दौलत बेग ओल्डी के लिये बराबर खतरा बना रहेगा जो 16000 फिट की ऊंचाई पर है। यह हवाई पट्टी 1962 में चीनी हमले के समय बनायी गयी थी। यह सड़क हाल ही में बनाई गयी सामरिक महत्व की दर्बुक - श्योक - डीबीओ ( दौलत बेग ओल्डी ) सड़क जो एलएसी के समानांतर जाती है,को जोड़ती है। यह 14000 फिट से 16000 फिट की ऊंचाई पर स्थित है। आगे जाकर यह सड़क, लेह को डीबीओ से जहां काराकोरम दर्रा चीन के स्वायत्त प्रदेश जिनजियांग को अलग करता है, जोड़ती है। यह सड़क हमारी सप्लाई लाइन के लिये बहुत ज़रूरी है, जिसके महत्व से चीन भी अनजान नहीं है। इसीलिए रक्षा विशेषज्ञ डेप्सोंग मैदान से चीन के पीछे हटने को महत्वपूर्ण मान रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि इस समझौते से एलएसी की अप्रैल 20 की स्थिति क्या बहाल हो जाएगी यानी भारत और चीन 'जैसे थे' की स्थिति में आ जाएंगे या हम अपनी ज़मीन कुछ खो देंगे ? 

( विजय शंकर सिंह )