Wednesday, 30 December 2020

शब्दवेध (53) ठोस भी द्रव

पर्वतों,  नदियों,  स्थान-नामों और यहां तक कि अपनी जातीय पहचान के लिए प्रचलित शब्द किसी क्षेत्र में किसी नई भाषा के वर्चस्व से बदल नहीं जाते हैं।  वे  पहले से होते हैं, महत्व के केंद्र यदि पहले से रहे हों तो उनके नाम बदल भी दिए जायँ, पर नगण्य स्थान नामों आदि में परिवर्तन संभव नहीं होता।  वर्चस्वी संस्कृति  के प्रभाव के बाद  इनके लिए जो नए केंद्र और संस्थान बनते हैं उनको जो  नाम दिए जाते हैं,  वे अवश्य इस भाषा के अनुरूप होते हैं।  ऐसी स्थिति में पहाड़ आदि पर विचार करते समय यह भय बना रहता है कि कहीं, इन पर विचार करते हुए,  किसी तरह का अन्याय न हो जाए।  

यहाँ एक भेद अवश्य करना होगा। यह है व्यक्तिवाचक और जातिवाचक  के बीच। जहाँ व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ  प्राचीन  बोलियों की बनी रह जाती हैं,  वहीं  जातिवाचक संज्ञाएँ नई वर्चस्वी भाषा के अनुरूप होती  हैं।

किसी भाषा के आदिम  क्षेत्र को पहचानने की दृष्टि से,  इस पहलू पर विचार किया जाना चाहिए कि उसके व्यक्तिवाचक स्थान नाम, नदियों के नाम,  पर्वतों के नाम, बोलचाल की भाषापरोपरा  के हैं  या नहीं। यदि इनमें विरोध है तो व्यावहारिक भाषा और उसे बोलने वाले  प्रभावशाली  लोग अन्यत्र से आए हुए हैं,  यदि अविरोध है तो  यह  इस बात का  निर्णायक साक्ष्य है कि  भाषा का जन्म उसी क्षेत्र में हुआ है और यह उस भू-भाग में फैली है जिसके  व्यक्तिवाचक स्थाननाम, नदी नाम, जाति नाम  वर्तमान भाषा से अनमेल पड़ते हैं। 

भारोपीय भाषा की उत्पत्ति को लेकर इतने लंबे समय तक विचार होता रहा परंतु इस अचूक मानदंड को कभी काम में नहीं लाया गया, जबकि अमेरिका  से परिचय के बाद  यह सभी विद्वानों को आईने की तरह साफ दिखाई देता रहा हो।   हम इस विषय पर यहां इससे अधिक चर्चा जरूरी नहीं समझते।  यह भूमिका  अंग्रेजी में पहाड़  और  चट्टान के कतिपय  पर्यायों पर विचार करने के लिए जरूरी थी। 

रिज (ridge)
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रज- 1. पानी, 2. धूल, 3. चमकीला/  आभासित >  ऋज्र (गतिशील, प्रवाही) > 1. ऋजु - सीधा, 2. रज्जु, 3. रंज/रंग,  रेच/रेक (अतिरेक)> रेकु- रिक्त, रेक्ण- धन आदि पर ध्यान दें।  अंग्रेजी में  रज के निकट का कोई शब्द  हमें दिखाई नहीं देता।  इस मूल से निकले रजत के  प्रतिशब्द  अर्जेंटम  को अवश्य भारत से बाहर तलाशा जा सकता है।  रज के इसी आभा वाले  पक्ष से राजा शब्द निकला है।  अंग्रेजी में सीधे राजा शब्द नहीं है,  परंतु रानी के लिए  रेजिना (regina- queen, < L. regina)  मिलता है। ला. में राजा के लिए रेक्स (rex), राजसी के लिए  रीगल (regal- kingly),  रेजस (regius- royal), राजसत्ता के लिए  रिजीम (regime < L. regimen), राज के लिए   रिजन (region, L. regio- to rule), राज्यकाल के लिए रेन  (reign<ला. regnum<रिगेर regere- to rule  ) राजसत्ता के लिए  रेजीमेंट(regiment< L. regimentum < regere-to rule), 

सातत्य के लिए रज्जु के विकल्प  रेन (rein - briddle )- फा. रास (वै. रश्मि, हिे. रस्सी) देखने में आता है। पानी वाला भाव  रिंज (rinse-to wash lightly by pouring, shaking and dipping) में,  और  गति वाला, राइज ( rise- to extend upwards, to surmount); रेज. (raise- to make higher or greater), राइड (ride-to be borne by an animal, vehicle), और उठान  रिज (ridge- the earth thrown up  by the plough between the furrows,  a long narrow top or crest, a hill range).

रॉक (rock)
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रक/लक- पानी > रक्त/लक्त (आ-लक्तक) > अं. लैक्ट -(lact- ) - दूध->  लैक्टोमीटर ( lactometer) - दुग्धमापी; लैक्टियल (lacteal)-  दूधिया;  रुक (रोचन, लोचन) >. लुक (look  तु. हि. लू, लुकाठा, भो. लुक्का, लुक्क- उल्कापात का प्रकाश,  फा. रू, रुख); लेक (lake-a large or considerable body of water within land) - तालाब;  लाइक (like- 1.identical, 2. to approve, enjoy) - सदृश, चाहना; लेकु ( OE. lacu- stream> ME. lac.> lanne;  *a small stream or water channel);   लैक्टियल (E. lacteal - of milk, L. lac, lactis- milk) दूध का बना;   लैकस्ट्राइन ( lacustrine- pertaining to lakes-) झील विषयक,  लिक (lick) चाटना;  लीक (leak) चूना;  लिक्विड (liquid)- द्रव;  लैक (lac -) लाख >लाक्षा*; लक(luck, look)   रॉक (rock-  a large outstanding natural mass of stone), रेक ( raik - course, journey, range, pasture)  रुक (ruck- 1. wrinkle, fold or crease)- रुक्षता,  2. heap, stack, a multitude) - जमाव, जमाकड़ा, और  राक ऐंड रोल - नृत्य विशेष। इस तरह हम पाते हैं कि रक, लक,  रिक, लिक, लीक, रुक, लुक, रेक, लेक, लैक (रेचन), और नृत्य का रॉक या दोलन सभी जल और जलीय आशय रखते हैं फिर रॉक पत्थर की विशाल चट्टान बन भी जाये तो उस नियम को नहीं उलट सकती जिसके अनुसार मूक को वाचाल जल अपने किसी नाद से बनाता है।  

माउंट/ माउंटेन (mount/ mountain) 
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माउंट  शब्द  सुनकर  आपको   अमाउंट की याद आनी चाहिए।  याद तो  माड़,  मंडप,  मड़ई, मंत.  और अंत की भी आनी चाहिए, परंतु  आपको लगेगा  यहां कुछ  ज्यादती हो रही है।   उत्साह  में  बहक जाने  या  चौंकाने के लिए दूर की कौड़ी खींच कर लाने का आरोप  लगाना अनुचित प्रतीत न होगा,  परंतु सचाई  जितनी आश्चर्यजनक होती है  उतनी  कभी कभी कवि कल्पना भी नहीं होती। चैंबर्स डिक्शनरी में दर्ज  निम्न शब्दावली  पर ध्यान दें:
अमाउंट ( amount - to go up, to come in total) 1. ऊपर जाना, 2. राशि। इसकी व्युत्पत्ति  प्राचीन फ्रेंच और उससे पीछे  लातिन  से दी गई है (O.Fr. amonter -to ascend < L. ad, to mons, montis- a mountain) ,  अर्थात,   अकाउंट  भी उसी  मूल से निकला है,  जिससे   माउंट और माउंटेन।   माउंट को  प्राचीन अंग्रेजी में  मंत लिखा और बोला जाता था ( mount -O.E. munt)  जो  श्रीमंत,   बलवंत  आदि में  प्रयुक्त  मंत और वंत से अभिन्न दिखाई देता है।  आगे की व्युत्पत्तियां   पूर्ववत हैं (O.Fr. mond < L. mons, montis- mountain)। माउंट के कुछ और भी अर्थ जो इन्हीं में समाहित हैं, ऊपर चढ़ना, सवार होना, पार पाना, यहां तक कि जिल्दसाजी में ऊपर से कोई आवरण मढ़ना या चिपकाया जाना आदि हैं। ऐसे में क्या मूल  अर्थ-योजना में भो. माड़, माड़ो, मड़ई, मेड़ - खेत के चतुर्दिक ऊँचा बाँध, मेठ - किसी कार्य दल का सरदार,  सं. >मंडन, मंडप, मंदिर (देखें L. mundus - the world, E. mundane- earthly worldly और तुलना करें बक के व्युत्पत्तिकोश से जिसका हवाला हम पहले दे आए हैं) और मन्त को उचित स्थान मिलेगा या नहीं।   ला. में दो रूप मिलते हैं, एक मन्स और दूसरा मोन्तिस (L. mons, montis) जो सं. मन (श्रीमन/ श्रीमान) और मन्त से अभिन्न हैं।

माउंट से मिलता-जुलता  शब्द माउंड है, जिसकी व्याख्या  पश्चिमी  भाषाविदों को असमंजस में  ड़ाल देती है (mound - boundary-fence, a bank of earth or stone,(orig. obscure) पर हमें चकित नहीं करती, क्योंकि हमारी बोलियों में  मेढ़, मेठ, मढ़ना  जैसे शब्द हमारी सहायता के लिए उपलब्ध है।  इस शब्द का दूसरा अर्थ है  ऊपर जाना,  जाना (to go up, to climb) जिसकी उत्पत्ति   फ्रेंच और लातिन  के सहारे की गई है  (<Fr. monter- to go up, < L mons, montis- mountain).वही ढाक के तीन पात।

परंतु क्या आप को अभी तक मुंड (शिरास्थि) और मुंडा (जन) का अर्थ मालूम था। अधिक से अधिक मूड़ने का अभ्यास हो सकता है पर मुंडन से सिर के बालों के हट जाने के बाद ही मुंड सर्वोपरि बन पाता है इसकी तरफ तो ध्यान गया ही न होगा। भगवान आप का भला करे क्योंकि यह बताने को फिर भी रह जाता है कि यह मन्, मंत, मंड, मुंड मूलतः उस बोली के शब्द हैं जो मुंडारी कही जाती है और जिसकी संस्कृत के निर्माण में उन बोलियों से कम भूमिका नहीं है जो द्रविड़ समुदाय में समाहित हैं।
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*लाक्षा के इतिहास पर ध्यान दें :  रस/लस > रसा/लसा/लासा > लाख> लाक्षा। रस का प्रकाश : रस > लस (इ. लश्चर  लूसे)  > लख >सं. लक्ष/ लक्षण,, लक्ष्य अदि।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


शब्दवेध (52) ठोस भी द्रवसंज्ञक

मुहावरा तो यह है कि पत्थर नहीं पसीजता,  पत्थर नहीं पिघलता, पत्थर का कलेजा नहीं  फटता,  परंतु  प्रकृति का विधान कुछ ऐसा है कि पानी पत्थर (उपल) हो जाता है  और  द्रवित भी होता है,  पसीजता भी है  और बाहर की चोट के बिना  ताप और शीत के प्रभाव से दरकता भी है।   जहां तक संज्ञा का प्रश्न है, मनुष्य के हस्तक्षेप से उससे ध्वनियाँ भी पैदा होती है, परंतु  यह हैरान करने वाली बात है  कि पत्थर और पहाड़ का नामकरण  इन ध्वनियों पर नहीं जल की  ध्वनियों पर आधारित है।  
 
कड़
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पहली नजर में ऐसा लगता है कि  यदि दूसरे नाम जल पर आधारित हों भी हो तो कड़ की ध्वनि तो  पत्थर  के  पत्थर से टकराने  की ही पैदा हो सकती है।   यह संज्ञा   मनुष्य ने इसे पाषाण युग में  अपने  औजार बनाते समय   उत्पन्न ध्वनि  की  नकल करते हुए  दी होगी।   पहले  हम स्वयं भी यही सोचते थे परंतु कतिपय तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हमें अपनी पुरानी धारणा बदलनी पड़ी।  पहला  यह कि  तमिल में ‘कल’ का अर्थ पत्थर है।  लातिन में  calx / calcis - lime stone को कहते हैं।,  इस रोशनी में  विचार करने पर हम पाते हैं  चूना पत्थर के लिए हिंदी में भी  कल्ली  का प्रयोग होता है।   दूसरा पक्ष यह है कि ‘कल’ का उच्चारण  बोलियों में कल, कळ, कड़ रूपों में होता है।  इसलिए  आरंभ जहां से भी हुआ हो,   किसी एक रूप से सभी का अलग-अलग बोलियों में  प्रयोग संभव था ।  कल के अनेक आशयों में  सबसे प्रधान  जल है, पत्थर ठीक उसके बाद आता है। इन दोनों का  संकल्पनाओं के नामकरण और अर्थ विकास में  सहयोगी भूमिका है। कड़ की आवर्तिता से कंकड़ बना  है, परंतु कंकड़ के  कंक - को हड्डी के लिए प्रयोग में लाया गया,  जिससे  यह कंकाल -  अस्थि-पंजर -के लिए प्रयोग में आया और   पंजर ने  मानव शरीर को  एक  पिंजड़े के रूप में  कल्पित करने में  प्रेरक की भूमिका निभाई, जिसमें आत्मा और परमात्मा   पक्षी के रूप में कैद हैं और इनमें से एक पिजड़े का आराम,  बिना कुछ किए खाने-पीने की लालच को त्याग नहीं पाता और दूसरा अपनी मुक्ति चाहता है, परंतु जब तक यह पंजर  टूटता नहीं है वह मुक्त नहीं हो सकता। 

भारतीय मनीषा में यह अवधारणा  इतने गहरे उतरी  हुई है और इसे इतने रूपों में दुहराया गया है  कि  जिसे समझने में  सुपठित लोगों को जितनी कठिनाई होती है उससे बहुत कम आयास से  अनपढ़  लोग इनका मर्म समझ लेते हैं।  इसका दूसरा बिंब - एक डाल दो पंछी बैठे एक गुरु एक चेला वाला है।  जो इन पंक्तियों में डाल  है वह ऋग्वेद में एक वृक्ष के रूप में कल्पित किया गया है -
(द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादु अत्ति, अनश्नन अन्यो अभि चाकशीति) । 

यदि आप जानना चाहें कि वृक्ष  क्यों?  तो इसका उत्तर है कि वक्ष, वृक्ष और अंग्रेजी के  box में अर्थसाम्य है।  वृक्ष का एक पुराना नाम  वन था, जो आगे चल कर जंगल का पर्याय बन गया,   और फिर  वन में विचरने वाले  दो प्राणियों की कल्पना पक्षी के रूप में नहीं की जा सकती थी,  इसलिए पक्षी  का स्थान दो हिरनों ने ले लिया   - हिरना समुझि समुझि बन चरना। 

पाषाण
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पाषाण का नाम लेने पर पाखंड  अर्थात पाषंड का ध्यान आता है।   इसका प्राचीन अर्थ करुणा,  दया हुआ करता था।  जैनमत और बौद्ध धर्म को पराजित करने के लिए ब्राह्मणों ने  भर्त्सना को अपना हथियार बनाया तो उनकी  मूल्य-परंपरा से जुड़े हुए आस्थापरक शब्दों को भी गाली में बदल दिया।  उसके विस्तार में न जाएंगे,  परंतु यह बताना जरूरी है कि दया भाव के लिए प्रयुक्त इस शब्द को  वह अर्थ दे दिया जिससे हम सभी परिचित हैं पाषाण शब्द का जल से क्या संबंध है इसे समझने में यह इतिहास  सहायक है।  अब यदि हम पस/पश > (पसावन), पसिजल , पसेव/पसीना>प्रस्वेद,  पसरल> प्रसार, पास (किण्वित पेय), पशु, पूषा, पूष, पौष,  पासी,पसंद जैसे शब्दों पर ध्यान दें तो ऊपर की धारणा को समझने में मदद मिल सकती है।  जल से जुड़ी अवधारणाओं को - प्रकाश  >*पश  > पिंश - सजना,  पेशस्-रूप,  स्पश- spy,  ओपश - आभामंडल,  गति - पेस (pace), पास (pass), पैसेज (passage), पुश (push), पैसन (passion) और मवाद के लिए पस( पस/पश मूल से निकले हैं।  इनमें से  एक-एक की राम कहानी   बयान करना  हमारे लिए भी अपनी सीमाओं को देखते हुए संभव नहीं  लगाता। और कुछ का आविष्कार किया।

भगवान सिंह 
( Bhagwan Singh )


शब्दवेध (51) ठोस भी जल है

बात पहेली की नहीं है,  कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जो एक तापमान पर  द्रव  में  न बदल जाए। प्राचीन  मनीषियों ने इसे इस रूप में समझा या नहीं परंतु  यह विचार  भारतीय चिंतन में केंद्रीय रहा है कि आदि में केवल जल था परंतु वह जल होकर भी जल नहीं था।  वह स-सार जल था, अप्रकेत सलिल जिसमें सब कुछ समाहित था। वह ब्रह्म (महत ताप) भी जिसमें सृष्टि की कामना पैदा हुई,   होते हुए भी न होने की  तुच्छता में  समाहित  विराट! (तम आसीत् तमसा गूळ्हं अग्रे अप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् । तुच्छ्येन अभ्व अपिहितं यदासीत् तपसः तत् महिना अजायत् एकम्) था। प्रकाश भी उसी से पैदा होना था। 

परंतु हम जिस जल की बात कर रहे हैं वह उससे भिन्न,  जिसमें  अप्रकेत रूप में  समग्र ध्वनियाँ,   समग्र भाषा  निहित थी, जो  मूक को भी  वाचाल कर रही थी।  परंतु इसकी एक सीमा थी और है।   यह सीमा  उस भाषा की सीमा है  जिसका जन्म  आर्द्र भूभाग में हुआ। इसे हम भारोपीय की संज्ञा देते हैं। यह संस्कृत नहीं थी, वैदिक नहीं थी, एक अर्थतांत्रिक भाषा थी जिसमें  प्रमुखता  उस भाषा की थी जिसने संस्कृत का रूप लिया, परंतु  साथ ही साथ,   इसकी गतिविधियों में अनेक दूसरे समुदायों और  उनकी बोली बानी भी योगदान था,  अतः इसके लिए सबसे उपयुक्त नाम भारोपीय ही लगता है, यह हम पहले  कह आए हैं। हमने पीछे द्रवों के नाम पर विचार किया।   उनके लिए सामान्य जल के ही पर्यायों मे से  किसी का  निर्धारण किया गया और लंबे समय तक सामान्य और विशेष दोनों अर्थ में प्रयोग में रहने के बाद उनका  उन रूपों में स्थिरीकरण हुआ। 
 
ठीक यही ठोस  पदार्थों के साथ हुआ। जिन पर हम विचार करने जा रहे हैं, परंतु हम चाहेंगे कि इस चर्चा में  अंग्रेजी के माध्यम से सुलभ यूरोपीय प्रतिरूपों पर इस बात की चिंता किए बिना शामिल करें कि उनकी क्या व्युत्पत्ति उनके कोशों में दी गई है। उनकी उपेक्षा करने का हमारा कोई इरादा नहीं है, कारण यह है कि उनमें जहाँ यह दावा किया जाता है कि शब्द विशेष की उत्पत्ति (origin) अमुक है वहाँ भी केवल सजात (cognate) शब्दों का हवाला दिया जाता है, जिससे मूल का पता नहीं चलता। दूसरे, भाषाविज्ञान की जिस समझ पर उनको असाधारण श्रम से जुटाया गया है, वह उनकी समझ से भी गलत है।

मूल उस संभावित बोली या उन बोलियों में तलाशा जाना चाहिए जिसका विकास कतिपय इतर बोलियों के परिवेश में और अनेक के सहयोग से किसी विशेष कारण से हुआ और जहां संभव हो, विकास के उन निर्णायक मोड़ों का आभास मिलना चाहिए, जिनसे उस मानक, समृद्ध, परिनिष्ठित चरण  पर पहुँचने के बाद किसी सुसंगत तंत्र के माध्यम से उस विशाल भूभाग में इसका प्रसार हुआ। इसका इस भाषाविज्ञान में आभास तक नहीं मिलता, इसलिए उसमें जो गलत है वह तो गलत है ही, जिसे सही माना और इस रूप में प्रचारित किया जाता है, वह भी गलत है, यद्यपि त्याज्य वह भी नहीं।  वह मूल्यवान आँकड़ों का सत्ता और प्रचार के बल पर श्रम और सलीके से सजाया गया ऐसा मलबा है जो संरचना का भ्रम पैदा करता है। उसका उपयोग  तो किया ही जा सकता है।    
 
पत्थर  के सभी पर्याय  जल  की ध्वनियों से निकले हैं  यह हम  कुछ संदर्भों में देख आए हैं, यद्यपि विस्तार भय से वहाँ न तो हम सभी भारतीय भाषाओं में सुलभ प्रतिरूपों को ले सके न अंग्रेजी में सुलभ रूपों को। यदि समस्या भारोपीय की है तो इसमें यूरोपीय पक्ष को शामिल करना जरूरी है।

हम समस्या पर  तनिक उलट कर विचार करें।   क्या चर/कर/शर  का विकास यूरोपीय भाषाओं में परिलक्षित होता है।   दूसरी बात,  क्या पेबल  pebble के साथ वैसी विकास रेखा - जल> प्रवाह/गति> पत्थर के खंड>    गोलाकृति,  दिखाई देती है जो  इसके प्रचलित भारतीय प्रतिरूपों में देखने में आती है। 

हम पेबल से ही आरंभ करे - प/पी/पे/पो - जल,  *pup,> प्रप(प्रपा, प्रपात) pulp- फल या लता के भीतर का  गूदा;  बृबु* (अधि बृबुः पणीनां वर्षिष्ठे मूर्धन्  अस्थात् , उरुः कक्षो न गांग्यः, 6.45.31>  bub> bubble, पीवर - (युंजाथां पीवरीरिषः, पीवरी वावयित्री स्थूलो वा, सा.- solid)   peb -pebble; पव (त. पो- जाना) गति > bob- to move quickly up and down; भस/ भास - दलदल bog- marsh, बग्गी (वह/बघ) >bogie/ bogey- a low heavy truck [origin unknown) 

 वट/बट-pebble,  bat,> batter, battle, beat > bead- a little ball strung with others in a rosary; beadle - a mace bearer) <वर/वृ> वर्त (वृत, वृत्त, वृत्ति, वर्त्म, वर्तमान)- verse <vertere- to turn), versed - lit. turned, reversed, version- a turning, translation; *vert, vertigo - , convert-/ subvert-/ divert/ re-vert, वर्चू (virtue)  वर्तू (virtu- love of fine arts < virtue-Skt. vira) वारि- जल/रेतस्, वीर- भाई, वीरुध/बिरवा, बलिष्ठ >  वीर्य - वीरता, पुरुषार्थी (virile),   वृत-पेशस >वोल्ट-फेस ( volt-face  - turning round), (जल)आवर्त - भँवर vortex- a whirling motion of a fluid forming cavity in the center.  

चर्कर/चक्कर > शर्कर यौगिक शब्द है जिसके घटकों (चर/शर और कर) का अर्थ जल है इसलिए  अंग्रेजी के माध्यम से car>  carry, carriage,  carrier, current, currency, courier, chariot, character, shirk, shrink, circle इत्यादि).  कर/कळ/कड़ > करका- ओला, कड़ा (कन- जल+कड़ >कंकड़), कड़ाके की सर्दी का अर्थ हुआ - जमा देने वाली ठंड। L. calx, E. clash,कलेश, क्लिष्ट,  E..creep,  creek, crawl,  crag, crash, crust, crest, crack, krank, crude, cruel,  creed)   । श्र> श्रव, स्र स्रव,  स्रुवा, shrink, slink slip, slink- दबो पाँव जाना, to go sneakingly, slow, sloth, slop- spilled, liquid, slope,  slide.

स्टोन . सत/स्त -जल, >स्तन;  > स्थ < थ/ थन, थान,  E. stir, stick, stare, steer, steep, step, stair, still, stay, stone.
प्रश्न यह किया जा सकता है कि इस तरीके में   पहले के व्युत्पादनों से  क्या अंतर है,  इसका उत्तर  यह है कि पहले शब्द प्रतिशत तलाश करते हुए  सजात शब्दों से पीछे नहीं जाया जा सकता था, इसमें उस बोली तक, शब्दों के आदिम तर्क और बिंब तक पहुँचने के प्रयत्न में रहते है इसलिए हम शब्द से नहीं शब्द और अर्थ के परिवेश को सामने रखते हैं अकेले शब्दों को उनके परिवेश से अलग करके नहीं समझा जा सकता,  जिस तरह एकल मनुष्य को उसके सामाजिक परिप्रेक्ष्य को समझे बिना नहीं समझा जा सकता क्योंकि एक भाषा से दूसरी में पहुँचने पर शब्दों के रूप, उच्चारण और अर्थ में भिन्नता आ जाती है।
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*बृबु और बृबुतक्ष का प्रयोग व्यक्ति नाम में हुआ है। साम्य स्वर-व्यंजन विन्यास में है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

शब्दवेध (50) द्रवों के नाम

पय 
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पय जल के लिए प्रयुक्त प, पी, पू आदि में से पी का बदला रूप है। संधि में तो इ,उ के य, व में बदलने के नियम से हम परिचित हैं, परन्तु स्वतंत्र रूप में भी ऐसे परिवर्तन होते रहते हैं, इसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। इसमें संदेह नहीं कि ‘पय’ का अर्थ पानी था, जिसका क्रमशः दूध के लिए प्रयोग होने लगा। पशुपालन वैसे भी मनुष्य के जीवन में कृषि के बाद आरंभ हुआ (रेनफ्रू)।  ऋग्वेद में लगभग सौ बार पय शब्द आया है, पर दो तीन संदर्भों को छोड़ कर, जहाँ आशय जल से है -  1. द्यौर्न भूमिः पयसा पुपूतनि; 2. गावेव शुभ्रे मातरा रिहाणे विपाट्छुतुद्री पयसा जवेते -  सभी हवाले दूध के हैं । आज पय का प्रयोग केवल दूध के लिए होता है।

क्षीर 
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क्षीर जिस क्षरण की कड़ी से जुड़ा है उसका अर्थ प्रवाह होता है - 1.अध क्षरन्ति सिन्धवो न सृष्टाः, 2.   मधु क्षरन्ति सिन्धवः, नदियाँ मंद गति से प्रवाहित होती हैं।  प्रवाह जल और वायु का ही हो सकता था,(क्षरन्नापः न ‘जल की तरह प्रवाहित )  इसलिए यह कहने की आवश्यकता नहीं कि नीर की ही तरह क्षीर भी जल के लिए ही प्रयोग में आता था, परन्तु क्षीर का प्रयोग ऋग्वेद में केवल दो बार हुआ है और दोनों बार दूध के लिए ही हुआ है। एक पहेली में ऐसी गाय का हवाला  है जिसके सिर से दूध दुहा जाता है -शीर्ष्णः क्षीरं दुह्रते गावो अस्य और दूसरी बार सरस्वती के माध्यम से होने वाले लाभ को दूध, घी, मधु और जल के दोहन - तस्मै सरस्वती दुहे क्षीर सर्पिर्मधूदकम् - के रूप में चित्रित किया गया है। क्षीर और खीर में तो नहीं, खीरा में अवश्य जल की छाया बची रह गई है। 

पुरीष 
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पुरीष का अर्थ जल था। ऋग्वेद में जल के आशय में ही इसका प्रयोग बार-बार देखने में आता है - ‘यया वणिग् वंकुः आपा पुरीषम्’ 5.45.6 में ‘पुरीषं पुरं उदकम्’ सा.; अन्यत्र ऋ.10.27.23 में भी यही अर्थ है।  सरयू  के विषय में  प्रार्थना की गई है कि वह रास्ते में बाधक न बने और सुजला के लिए पुरीषिणी विशेषण का प्रयोग हुआ है - मा वः परि ष्ठात् सरयुः पुरीषिणी, 5.53.9,  मरुतों को समुद्र से जल को लेकर वर्षा कराने का श्रेय देते हुए उनको ‘पुराषिन्’ कहा गया है- उदीरयथा मरुतः समुद्रतो यूयं वृष्टिं वर्षयथा पुरीषिणः। कुल सात बार आए इन हवालों में एक बार भी जल से इतर कोई अर्थ नहीं किया गया है।  

पुरीष का अर्थ करते हुए सायण पुर का अर्थ जल बताते हुए भी इस बात पर ध्यान नहीं देते कि पुरीष ‘पुर’ और ‘इष’, जिनका पृथक् अर्थ जल है, के योग से बना शब्द है, क्योंकि यह पहलू भारतीय वैयाकरणों की चिंता-धारा में स्थान पा ही न सकता था। वे एक धातु से एकाधिकशब्दों की व्युत्पत्ति तो संभव मानते थे, पर न तो यह मान सकते थे कि एक ही आशय के दो शब्द मिल कर एक शब्द बन सकते हैं, न यह कि एक शब्द के निर्माण में दो धातुओं का योगदान हो सकता है।

जो भी हो सं. साहित्य से जल का पक्ष ही गायब है। आप्टे के संस्कृत अंग्रेजी कोश में इसका अर्थ निम्न प्रकार है: 1. feces, excrement, ordure, 2. rubbish, dirt. यह परिवर्तन कब घटित हुआ इसका पता नहीं चलता पर आज यह शब्द प्रयोगबाह्य हो गया है । शिक्षित जनों में जो इससे परिचित हैं वे केवल गन्दगी, विष्टा, और दुर्गन्ध वाले पक्ष से ही परिचित ,हैं और यह जान कर वे विचलित हो जाएँगे कि इसका शाब्दिक अर्थ जल है और  इसका प्रयोग पहले जल के लिए ही होता था।

गरल
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गरल का अर्थ  भो. की एक क्रिया से ही स्पष्ट हो सकता है। यह है ‘गारल’। ध्वनि में इससे निकट पड़ने वाला एक अकर्मक क्रिया रूप है ‘ओगरल’ जमीन से पानी का स्वतः ऊपर निकलना। कुएँ और पोखरे की खुदाई में पानी ऊपर आने लगता है उसे ओगरल (ओगरना - सं. उद्गिरण) कहते है. गारने में किसी सरस लता  को हल्के कुचल कर ऐंठ कर रस गारना या लता बाहर निकालना पड़ता है। कोल्हू, और उससे पहले ओखली के आविष्कार से पहले गन्ने का रस इसी तरह निकाला जाता था। उसे सिल (दृषद) पर रख कर पत्थर (उपल) से हल्के कूटा और फिर दोनों हाथों से, मुट्टी में लेकर, दसों उँगलियों से ऐंठ कर (एतं मृजन्ति मर्ज्यं पवमाना दश ) रस निकाला जाता था।

खुदाई में पानी का पतली धाराएँ फूटती हैं, उन्हें सोती कहते है। यह है किसी द्रव के बाहर निकलने - सवन - की क्रिया। सोती का सं.करण स्रोत के रूप में हुआ पर सोम  या गन्ने के रस के संदर्भ में सवन बाद में भी जारी रहा।  सवन की पुरानी रीत बदल गई,  गन्ने की गेड़ियाँ बना ओखली में कूट कर रस गारा जाने लगा, फिर ओखली का वह रूप आया जिसे कहा ओखली ही जाता रहा, पर इसने पत्थर के पुराने कोल्हू का रूप लिया, सोमपूजन के लिए जिसके  प्रतीकांकन को लिंगपूजा मान लिया गया जिसके विस्तार में कभी सोम रस पर लिखने का समय मिला तो ही जाना संभव होगा। यह एक उलझी हुई समस्या है। यहाँ इतना ही कि रस निकालने के लिए सवन (विश्वा इत् ता ते सवनेषु प्रवाच्या ) और सोतन (यत्र ग्रावा पृथुबुध्न ऊर्ध्वो भवति सोतवे ) ही चलता रहा और बाद में वाष्पन की युक्ति से रस चुआने के लिए आसवन का प्रयोग होता है, सव प्र-सव के लिए ही प्रचलित है। प्रसव क्रिया है और आसव संज्ञा। क्रिया बनाने के लिए इसमें -न जोड़ना होता है, पर सव>सुव मे उस प्रत्यय के बाद भी संज्ञा रूप सुवन ही बनता है। सवित रस को सुत कहते थे, प्रसूत को सुत।

इस शब्दक्रीड़ा में इसलिए उतरना पड़ा कि गारल, गिरल, गरल, बिगरल की क्रीड़ा को समझना आसान हो जाए  जिनमें गरल को छोड़ कर शेष सभी का ‘-ल’ को ‘-ना’ में और अंतिम मामले में ‘-र-’ का भी ‘-ड़-’ में बदल कर हिंदी में प्रयोग होता है।  

सामान्य जल के लिए गरल का प्रयोग सोम का तरह लाक्षणिक रूप में भले होता रहा हो, पर यह किसी वनस्पति से निकले रस के लिए ही प्रयोग में आ सकता था। यद्यपि मेरी जानकारी के वैदिक साहित्य में गारने और गिरने की क्रिया और गरल का पेय के रूप में प्रयोग नहीं मिलता।  केवल एक बार डुबाने (निगलने) के अर्थ में ‘गरन्’ (न मा गरन् नद्यो मातृतमा) का प्रयोग देखने में आता है, जो इससे असंबद्ध है। 

हम गरल के रस आशय से अपरिचित हैं। साहित्य में इसका केवल हलाहल या जानलेवा जहर के आशय में ही प्रयोग होता है और भो. में तो गरल और विष दोनों का प्रयोग नहीं होता, होता है ‘माहुर’ का। विष का बस्साइल, बिस्साइन - बदबू करना और बदबूदार के अर्थ में प्रयोग होता भी है, पर गरल के साथ वह भी नहीं। नदी नामों में गर्रा, गरगरा> घाघरा / घग्घर में जल का पुराना अर्थ बचा है और संभवतः गौर. गौरी, गोरा, के जनन में भी इसकी भूमिका हो।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

किसानों की मांगों में अभी असल पेंच बाकी है / विजय शंकर सिंह

आज 30 दिसंबर को, सरकार और किसानों के प्रतिनिमंडल के बीच वार्ता तो हुयी पर किसानों की मुख्य मांग मे अभी असल पेंच बाकी है। किसान आंदोलन की शुरुआत की जड़ तो वे तीन किसान कानून हैं जिनपर अभी तक न तो कोई सहमति बनी है और न ही उन्हें वापस लेने के कोई संकेत, सरकार की तरफ से दिये गये है। 
वे कानून हैं, 
● सरकारी मंडी के समानांतर निजी मंडी को अनुमति देना। 
● कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में पूंजीपतियों के पक्ष में बनाये गए प्राविधान, 
● जमाखोरी को वैध बनाने का कानून।  

यही तीनो कानून हैं जो किसानों की अपेक्षा पूंजीपतियों या कॉरपोरेट को पूरा लाभ पहुंचाते हैं औऱ इन्ही तीन कानूनों से किसानों को धेले भर भी लाभ नहीं होने वाला है। इन्ही तीन कानूनों को तो सरकार ने कॉरपोरेट के दबाव या यूं कहें अम्बानी अडानी के दवाव के कारण कोरोना आपदा के समय जून में जब लॉक डाउन जैसी परिस्थितिया चल रही थीं तो एक अध्यादेश लाकर कानून बनाया था। 

बाद में तीन महीने बाद ही विवादित तरह से राज्यसभा द्वारा सभी संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रख कर इन्ही अध्यादेशों को नियमित कानून बना दिया गया। किसानों की खेती किसानी पर सबसे बड़ा खतरा तो इन्ही तीन कृषि कानूनों से हैं। 

यह तीन कानून इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि कॉरपोरेट का कृषि में दखल, इन्ही तीन कानूनों के वापस लेने से सीधे प्रभावित होगा और उन्हें नुकसान भी बहुत उठाना पड़ेगा। यह तीनों कानून कॉरपोरेट के कहने पर ही तो लाये गये है फिर इन्हें बिना कॉरपोरेट की सहमति के सरकार कैसे इतनी आसानी से वापस ले लेगी ? कॉरपोरेट ने चुनाव के दौरान जो इलेक्टोरल बांड खरीद कर चुनाव की फंडिंग की है और पीएम केयर्स फ़ंड में मनचाहा और मुंहमांगा धन दिया है तो, क्या वह इतनी आसानी से सरकार को इन तीन कृषि कानूनो को वापस लेने देगा ? 

यह तीनों कानून जो कृषि सुधार के नाम पर लाये गये हैं। पर इन तीनों कानून से कॉरपोरेट का ही खेती किसानी में विस्तार होगा, न कि किसानों का कोई भला या उनकी कृषि में कोई सुधार होने की बात दिख रही है। किसान संगठन इस पेचीदगी और अपने साथ हो रहे इस खेल को शुरू में ही समझ गए, इसीलिए वे अब भी अपने स्टैंड पर मजबूती से जमे हैं कि, सरकार इन कानूनों को पहले वापस ले, तब आगे वे कोई और बात करें। 

ऐसा नही है कि वार्ता में तीनों कृषि कानूनो के रद्दीकरण की बात नहीं उठी थी। बात उठी और सरकार ने यह कहा कि किसान संगठन ही यह सुझाये कि क्या बिना निरस्तीकरण के कोई और विकल्प है। इस पर किसानों ने यह बात स्पष्ट कर दिया कि वे तीनों कानूनो के निरस्त करने की मांग पर अब भी कायम हैं और यह उनकी प्रमुख मांग है। 

एमएसपी के मसले पर सरकार लिखित रूप से आश्वासन देने के लिये तैयार है। पर जहां तक कानूनी रूप देने का प्रश्न है,   सरकार ने कहा कि इसमे बजट और वित्तीय विंदु शामिल है तो बिना उसे वर्क आउट किये इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है। 

पराली प्रदूषण के मामले में सरकार द्वारा किसानों को मुकदमे से मुक्त करने संबंधी सरकार के निर्णय से कॉरपोरेट को कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा है और न ही फिलहाल कॉरपोरेट को कोई लाभ होने वाला है। इस एक्ट में पराली जलाने वाले आरोपियों पर एक करोड़ रुपये तक का जुर्माना और जेल की सज़ा का प्राविधान है, जिसे सरकार ने खत्म करने की मांग मान ली है। यह एक्ट कॉरपोरेट के लिये दिक्कत तलब न तो पहले था और न अब है, क्योंकि न तो वे पराली जलाएंगे और न इस अपराध का उन्हें भय है। रहा सवाल प्रदूषण नियंत्रण कानून का तो, कॉरपोरेट के उद्योग तो, पराली प्रदूषण की तुलना में कहीं बहुत अधिक प्रदूषण फैलाते रहते हैं और उनके खिलाफ प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड खानापूर्ति टाइप कार्यवाही करता भी रहता है। पराली प्रदूषण एक्ट से किसानों को ही नुकसान था और अब उन्हें ही इससे मुक्त होने पर राहत मिली है। इस एक्ट से कॉरपोरेट को न तो कोई समस्या थी और न इसके हट जाने से उन्हें कोई राहत मिली है। 

प्रस्तावित बिजली कानून 2020 नही लाया जाएगा, यह वादा भी सरकार ने किया है। इस कानून का विरोध तो बिजली सेक्टर के इंजीनियर साहबान और कई जागरूक बिजली उपभोक्ता संगठन पहले से ही कर रहे हैं। यह मसला अलग है। अब यह बिल सरकार ने फिलहाल बस्ता ए खामोशी में डाल दिया है। अच्छी बात है। सरकार का यह निर्णय किसान हित मे है। हालांकि इस बिल को कॉरपोरेट लाना चाहते हैं। यहां भी उनका यही उद्देश्य है कि बिजली पूरी तरह से निजी क्षेत्र में आ जाय।

अब देखना यह है कि उन कृषि कानूनो पर सरकार का क्या दृष्टिकोण और पैंतरा रहता है जो सीधे सीधे कॉरपोरेट को लाभ पहुचाने और कृषि में उनका वर्चस्व स्थापित करने के लिये 'आपदा में अवसर' के रूप में लाये गये है । सरकार क्या अपने चहेते कॉरपोरेट को नाराज करने की स्थिति में है ? या वह कोई ऐसा फैसला करने जा रही है जिनसे पूंजीपतियों को सीधे नुकसान उठाना पड़ सकता है। इन तीनो कृषि कानून की वापसी का असर कॉरपोरेट के हितों के विपरीत ही पड़ेगा। यह बात तो कृषिमंत्री पहले ही दिन से कह चुके हैं कि कॉरपोरेट का भरोसा सरकार से हट जाएगा। 

अब अगली बातचीत, 4 जनवरी 2021 को होगी। आंदोलन अभी जारी रहेगा और इसे अभी जारी रहना भी चाहिए। आज तो अभी असल मुद्दों पर सरकार ने कुछ कहा भी नही है। पर सरकार ने यह ज़रूर कहा है कि आंदोलन शांतिपूर्ण है और आंदोलनकारियों को उन विभाजनकारी शब्दो से नहीं नवाजा है, जिनसे बीजेपी आईटी सेल आंदोलन की शुरूआत से ही आक्षेपित करता रहा है। सरकार जनता के पक्ष में खड़ी रहती है या पूंजीपतियों के, यह अब 4 जनवरी को ही पता चलेगा। 

( विजय शंकर सिंह )

सिनेमा - अमर गायक और अभिनेता केएल सहगल / वीर विनोद छाबड़ा

ये पचास के दशक का अंत था, जब मैंने होश संभाला था। घर में रेडियो नहीं था। स्कूल जाने के रास्ते में एक होटल था। वहां रेडियो था। सुबह-सुबह का वक़्त होता था। रेडियो पर पुरानी हिंदी फिल्मों के गाने चल रहे होते थे। गायकों में एक आवाज़़ बिलकुल अलग होती थी, जो अक्सर सुनायी देती थी। इस आवाज़ में बलां का दर्द होता होता था। जैसे कोई गहरी चोट खाया हुआ बंदा हो। मेरे पैर इस आवाज़ पर जाने क्यों तनिक ठिठक जाते। दरअसल, उस वक़्त उस आवाज़ पर एक आदमी दीवानावार होकर हाय-हाय करता हुआ दिखता। वो कभी अपने बाल नोचता तो कभी कपड़े़ तार-तार करने पर उतारू हो जाता। कभी-कभी तो दीवार पर सिर भी पटकता। होटल का मालिक इस दौरान उसे बामुश्किल कंट्रोल करने कोशिश में जुटा रहता। वो दर्द भरी आवाज़ से ये गाने निकलते होते थे- ग़म दिए मुस्तिकिल, कितना नाजु़क है दिल, ये ना जाना, हाय हाय ये ज़ालिम ज़माना... हम जी के क्या करंेेगे जब दिल ही टूट गया...चाह बरबाद करेगी हमें मालूम ना था... बाबुल मोरा नइहल छूटा जाए.. दुख के दिन अब बीतत नाहीं....। कुछ अरसे बाद, मैं बड़ा हुआ तो जाना कि वो कलेजा फाड़ कर दर्द भरी आवाज़ रेडियो सिलोन से आ रही होती थी और इस आवाज़ के मालिक का नाम कुंदन लाल सहगल था, जिन्हें परलोकवासी हुए मुद्दत हो चुकी थी। तभी मुझे इन गानों का अर्थ पता चला और जाना कि इस आवाज़ को सुन कर उस शख्स का कलेजा फट कर बाहर क्यों आ जाता था? तभी ये भी जाना कि इंसान का जिस्म ज़रूर एक न एक दिन माटी होता है, मगर दिल की गहराईयों से ईमानदारी से उठी बाज़ आवाज़ें अमर रहती हैं।

कुंदन लाल सहगल का जन्म 11 अप्रेल, 1904 को जम्मू के एक निम्म मध्यम वर्गीय साधारण परिवार में हुआ था। उनके पिता अमर चंद जम्मू-कश्मीर के राजा प्रताप सिंह के दरबार में तहसीलदार थे। सहगल बामुश्किल छह जमातें ही पास कर सके थे। पढ़ाई की बजाए उनका दिल भजन व शब्द-कीर्तन में ज्यादा टिकता था। मां कैसर बाई भी अति धार्मिक थीं। बेटे का शौक देखकर वो उन्हें सूफ़ी पीर सुलेमान यूसुफ़ के पास ले गयीं। उन्होंने सहगल की आवाज़ के दर्द को पहचाना और बताया कि ये दर्द गले से नहीं आत्मा से उठ रहा है। मश्विरा भी दिया कि परवरदीगार को हाज़ि़र-नाज़ि़र कर खूब गाओ। दिल से दर्द और भी ज्यादा बाहर आएगा। 

सहगल ने पहली दफ़े़ 12 साल की उम्र में महाराजा प्रताप सिंह के दरबार में मीरा का भजन गाया था। बड़ी वाह-वाही मिली थी। मगर इस ख़बर को सुन कर पिता को बहुत तकलीफ़ हुई थी। उन्हें इस बेटे से बहुत उम्मीदें थीं, जो अब मटियामेट हो गयी थीं। पर सहगल पर कोई असर नहीं पड़ा। वो पीरों-फकीरों की संगत करते रहे और मंदिरों में बदस्तूर भजन व शब्द-कीर्तन में हिस्सा लेते रहे। चूंकि ज्यादा पढ़ नहीं पाए थे, लिहाज़ा अच्छी नौकरी नहीं मिल पायी। सिफ़ारिश पर पंजाब रेलवे में टाईम कीपर की नौकरी मिली। बाद में रेमिंगटन टाईप-राईटर कंपनी में सेल्समैनी की। इससे फायदा ये हुआ कि उन्हें मुल्क के दूसरे हिस्सों में जाने का मौका मिला। सहगल के बचपन के दोस्त थे मेहरचंद। अमीर व्यापारी थे। खुद भी गाने के जनूनी थे। मगर सहगल से अच्छा गला नहीं था। इसका उन्हें बखूबी इल्म था। सहगल को न सिर्फ उन्होंने सहारा दिया बल्कि उनकी क़ामयाबी में भी बड़ी भूमिका अदा की। यही वजह रही कि सहगल बराबर गाते रहे। उन्हें धन की कमी कभी नहीं होने दी। 

सहगल ने गायन और संगीत की औपचारिक शिक्षा कभी हासिल नहीं की। उनके पास जो कुछ भी था, क़ुदरत की देन थी। उनकी आत्मा से निकलती दर्द भरी आवाज़ एक स्टाईल बन गयी, एक अलग पहचान। उन दिनों के गायन में ये अलग ही ऊपर उठती आवाज थी। जो सुनने वाले को तड़पा कर रख देती थी। इस वजह से उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। वो दौर भी कुछ सूफ़ियाना था। कई साल बाद जब सहगल का जादू पूरे शबाब पर था और माना जा रहा था कि सहगल की कॅापी करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। तब इसे चुनौती मानते हुए संगीतकार ओंकार प्रसाद नैयर ने सी.एच.आत्मा से गवाया- प्रीतम आन मिलो...। सबने माना कि आत्मा के गले में सहगल जैसा दर्द है। परंतु ख़ुद नैयर ने मानने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि आत्मा महज़ कापी हैं असल जैसे नहीं। फिर बरसों बाद सन 1945 में मुकेश ने अनिल बिस्वास के संगीत निर्देशन में पहली बार ‘पहली नज़र’ में गाया- दिल जलता है तो जलने दो....। लगा कि सहगल का विकल्प मिल गया है। मगर सहगल के जाने से खाली हुए बड़े शून्य को मुकेश नहीं भर पाए। उन्होंने बाद में सहगल से अलग अपनी दुनिया बसायी। लेकिन सहगल की शैडो से बाहर नहीं आ पाये। सहगल जैसा थोड़ा-थोड़ा दर्द उनके स्वर में झलकता रहा। 

बहरहाल, सहगल के मित्र मेहरचंद व्यापार के सिलसिले में कलकत्ता गये तो सहगल को भी साथ ले गयेे। वहां एक पार्टी में सहगल का भजन गायन सुन कर हिंदुस्तान रेकार्ड कंपनी का प्रतिनिधि उनकी आवाज़ का दीवाना हो गया। इस तरह सहगल का पहला एलबम तैयार हुआ, जिसमें भजन ही भजन थे। संगीतकार थे- हरीशचंद्र बाली। इस एलबम का ये भजन बहुत मशहूर हुआ था- झूला ना झुलाओ...। इस बीच कलकत्ता फिल्म इंडस्ट्री में सहगल की भेंट पहाड़ी सान्याल, पंकज मल्लिक, के.सी. डे सरीखे पारखियों से हो चुकी थी। उन्होंने सहगल की आवाज़ को पारिमार्जित करने में काफी सहयोग दिया। फिर बी.एन. सिरकार ने न्यू थियेटर कंपनी में उन्हें रु0 200/- प्रतिमाह की नौकरी पर रख लिया। 1932 में सहगल की एक के बाद एक तीन फिल्में -मोहब्बत के दुश्मन, ज़िंदा लाश और सुबह का तारा- रिलीज़ हुई। इनमें वो गायक के साथ-साथ एक्टर भी थे। ये फिल्में बाक्स आफ़िस पर नाकाम रहीं। पर ये तय हो गया कि सहगल नाम के सिंगिंग स्टार का उदय हो गया है, जिसकी दर्दीली आवाज़ और अभिनय में किसी को भी तड़पाने की बेमिसाल खूबी है। और इसके साथ ही शुरू हुआ सहगल युग, जो 1946 तक बड़े जोर-शोर से चला। सहगल उस ज़माने के सुपर स्टार थे वो। हर खासो-आम के दिलों में बसते थे। आगे चल कर ऐसी दीवानगी दिलीप कुमार, राजकपूर, देवानंद, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और हालिया सलमान खान, अक्षय कुमार व शाहरुख खान के लिए देखी गयी। लगभग अकेले दम पर सहगल ने 14 साल तक दर्शकों के दिलों पर मुक़म्मल राज किया। इस 6 फिट व 2 इंच ऊंचे कद के खूबसूरत पंजाबी नौजवान गायक सहगल की आवाज़ का दर्द एक्टर सहगल के चेहरे पर भी बखूबी नुमांया होता था। इसलिए वो अपने बेहतरीन एक्टर होने का भी लोहा मनवाने लगे। फिल्मों में उनके पहले संगीत निर्देशक आर.सी. बोराल थे। 

शुरूआती फिल्मों की नाकामी के बावजूद सहगल को फिल्मों के आॅफ़र आते रहे। सन 1933 में ‘पूरन भगत’ ने पूरे हिंदुस्तान में तहलका मचा दिया। इसमें सहगल के चार गाने थे। फिर एक और ज़बरदस्त हिट आयी ‘चंडीदास’। ‘प्रेम नगर में बसाऊंगी घर मैं...’ जन-जन की जुबान पर चढ़ा। 1935 में पी.सी. बरूआ की ‘देवदास’ ने तो सहगल को दिलों का सम्राट बना डाला। इसके ये गाने बड़े मशहूर हुए- बलम आये बसो मेरे मोरे मन में... दुख के अब दिन बीतत नाहीं...। कलकत्ता में सहगल ने कई और फिल्में भी कीं, जिनमें प्रमुख थीं- यहूदी की लड़की (नुक़्ताचीं है गम-ए-दिल, उनको सुनाए ना बने...), रूपलेखा, कारवां-ए- हयात, जिंदगी, परिचय आदि। न्यू थियेटर के लिए भी सहगल ने यादगार फिल्में कीं। जैसे, प्रेसीडेंट (ईक बंगला बने न्यारा...दुख की नदिया जीवन नैया...), मेरी बहन (दो नैना मतवाले... ऐ कातिल-ए-तकदीर इतना बता दे....), स्ट्रीट सिंगर (बाबुल मोरा नईहर छूटल जाए...) आदि। हालांकि उन दिनों प्लेबैक पूरी तरह से अपनाया जा चुका था। मगर ‘स्ट्रीट सिंगर’ (1938) में सहगल ने ज़िद करके ‘बाबुल मोरा नईयर छूटल जाए...’ लाईव गाते हुए फिल्माया गया। इस फिल्म में उन दिनों की सिंगिग क्वीन कानन देवी नायिका थीं। उन्होंने सहगल के साथ गाने से इंकार कर दिया। ऐसा इसलिए कि उन्हें डर था कि सहगल की करिश्माई आवाज़ तले उनकी जादुई आवाज़ दो टके की रह जाएगी। इसी तरह बरसों बाद बंबई में सुरैया भी ‘परवाना’ (1947) में इसलिए डर गयी थी कि सहगल की अदभुत आवाज़ के सामने उनकी आवाज़ की कोई कद्र नहीं होगी। दोनों के इस फिल्म में चार-चार सोलो गाने रेकार्ड हुए थे। ‘परवाना’ सहगल की आखिरी फिल्म थी जो उनके इस दुनिया से बिदायी के बाद रिलीज़़ हुई थी। सुरैया इससे पहले सहगल के साथ ‘तदबीर’ भी कर चुकी थी। 

तीसरे दशक के अंत में हिंदी सिनेमा का सेंटर कलकत्ता की बजाए पूरी तरह बंबई बन गया था। अतः सहगल 1940 में कलकत्ता छोड़कर बंबई आ गए। यहां भी सहगल का जलवा कायम रहा। कभी वह भक्त सूरदास होते तो कभी तानसेन। कुरूक्षेत्र, उमर खय्याम, तदबीर, शाहजहां, परवाना आदि सभी हिट थीं। उन्होंने ग़म, खुशी, क्रोध, भय, वात्सलय, प्यार, आश्चर्य आदि सभी रसों के कई बेमिसाल गाने दिए। ख्याल, बंदिश, गीत, ग़जल, भजन, दादारा होरी को उन्होंने भैरवी, बिरंग, बागेश्वरी, काफ़ी, देव गंधार आदि अलग-अलग रागों में पूरे परफेक्शन के साथ गाया। उस ज़माने में शास्त्रीय संगीत का उफान पर शबाब पर था। पूरा महौल ही शास्त्रीय संगीतमय था। हम जी कर क्या करेंगे जब दिल ही टूट गया... ऐ दिले बेकरार झूम ... चाह बरबाद करेगी, हमें मालूम ना था ... ग़म दिए मुस्तिकिल ये ना जाना... आदि सुपर हिट गाने नौशाद अली साहब ने के संगीत निर्दशन में बने। तब तक सहगल जीते-जी किवदंती बन चुके थे। सहगल के मुरीद नौशाद का कहना था कि आवाज़ की दुनिया का ये बेताज शहंशाह जब भी गाता था तो सामने हारमोनियम का होना ज़रूरी था। जबकि रेकार्डिंग के वक़्त प्लेबैक सिंगर के सामने माईक के अलावा कुछ भी रखना मना था। परंतु सहगल की भी अपनी मजबूरी थी। लिहाजा एक नकली की बोर्ड वाला हारमोनियम उनके सामने रख दिया जाता था। सहगल ने हिंदी, उर्दू के साथ-साथ पश्तो, पंजाबी, तमिल और बंगाली फिल्मों में भी गाया थे। उन्हें बंगाला भाषा का बहुत अच्छा ज्ञान था। बंगाली फिल्म ‘दीदी’ के लिए गुरूदेव रविंद्र नाथ टैगोर लिखित गीतों की रेकार्डिंग से पहले गुरूदेव ने सहगल की आवाज़ का टेस्ट लिया था। दरअसल गुरूदेव अपने गीतों के मामले में किसी किस्म का समझौता नहीं करते थे। उनकी मंज़ूरी मिलने के बाद ही सहगल को रेकार्ड करने की इजाज़त मिली। 

सहगल शराब का बहुत सेवन करते थे। बिना पीये गा नहीं सकते थे। पीने के बाद वो गाने के बहुत भीतर तक घुस जाते थे। इसके लिए उन्होंने एक कोड रखा - पैग काली पांच। ये शराब ही सहगल का काल बनी। उनको लीवर सिरोसिस हो गया। इसी वजह से उनका फिल्मी कैरीयर भी ज़ख्मी हुआ और ज़िंदगी छोटी हो गयी। नौशाद का कहना था कि सहगल ने अपनी आखिरी दो फिल्मों - शाहजहां और परवाना के गाने शराब पिये बिना रेकार्ड कराए थे। जब उनकी बीमारी लाईलाज हो गयी तो वो 1946 में ज़िद करके बंबई से अपने घर जालंधर आ गए और एक नामी फ़कीर से ईलाज कराने लगे। मगर नियति को ‘होनी’ का टलना मंजूर नहीं था। 18 जनवरी, 1947 को आज़ादी से कुछ महीने पहले सहगल ने आखिरी सांस ली। उन वक़्त सहगल की उम्र महज़ 42 साल थी। सहगल के एक अनन्य भक्त से सुना था कि जब आख़िरी सफ़र के लिए उनका जनाज़ा उठा था तो दूर कहीं से आवाज़ आ रही थी- अब जी कर क्या करेंगे, जब दिल ही टूट गया...। अब इसमें सच कितना है, मालूम नहीं। उस दौर का कोई बंदा नहीं मिला, जिसने सहगल को भले देखा ना हो पर महसूस किया हो।

कुंदन लाल सहगल ने कुल 36 फिल्मों में अभिनय किया। जिसमें अपने पर फिल्माए सारे गाने उन्होंने खुद गाए। कुल मिलाकर 185 गाने रेकार्ड हुए, जिसमें 142 फिल्मों से थे। सहगल ने दो बंगाली फिल्मों -दीदी और साथी भी न्यू थियेटर्स के लिए की थी। तीन रील की एक शार्ट कामेडी फिल्म 'दुलारी बीबी' भी की। सहगल की याद में न्यू थियेटर के बी.एन. सिरकार ने 1955 में एक डाक्यूमेंटरी ‘अमर सहगल’ बनायी थी। भारत सरकार ने भी सहगल की गायन, संगीत व अभिनय के प्रति पूुर्ण समर्पण की भावना का ऐहतराम करते हुए 1995 में पांच रुपए कीमत का एक डाक टिकट जारी किया था। सन 1967 में स्वरों की मलिका लता मंगेशकर ने अपने गायन की सिल्वर जुबली के जश्न की शुरूआत सहगल की ‘जिंदगी’ के इस अमर गीत ‘‘सो राज कुमारी, सो जा...‘‘ से करके साबित किया था कि वो उनकी ज़बरदस्त भक्त तो थीं ही और साथ ही सहगल को गीत-संगीत की दुनिया में बहुत ऊंचा मुकाम हासिल है। उस वक्त पूरा समां सहगलमय होकर सहगल के सुनहरे युग में गुम हो गया था। लता की दिली ख्वाहिश थी कि उन्हें सहगल के साथ गाने का मौका मिले। मगर लता को फिल्मों में ब्रेक सहगल की मृत्यु के एक साल बाद मिला। 

तीस और चालीस के दशक का सुपर सिंगिंग स्टार कुंदन लाल सहगल, जिन्हें कुदरत की एक नायाब रचना भी कहा जाता था, को इस दुनिया सें विदा कहे 73 साल हो चुके हैं। ये लंबा अरसा किसी को भी भुलाने के लिए काफ़ी है। अपवाद छोड़ दें तो उनके युग के लोग भी अब नहीं बचे है। मगर इसके बावजूद सहगल ज़िंदा हैं तो अपनी अमर आवाज़ के लिए और इसलिए भी कि उनके चाहने वालों की वजह से उनकी विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही है और आगे भी सदियों तक होती रहेगी। जिस्म नश्वर है, मगर अमर आवाजें कभी खामोश नहीं होती। संगीत व गायन में ज़रा सी भी रुचि रखने वालों का ज्ञान सहगल को जाने बिना अधूरा है। ये सच है कि एक बार जो सहगल को दिल से सुन लेता है तो उसे सहगल की लत पड़ जाती है। वो सिर्फ़ और सिर्फ़ सहगल के बारे में ही सोचता रहता है। इच्छा होती है सदियों तक सोचता रहे। मुझे भी सहगल पर लिखने की लत है और चाहत है कि बस लिखता ही रहूं। 
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२५ मई २०१८

वीर विनोद छाबड़ा 
( Vir Vinod Chhabra )

Tuesday, 29 December 2020

क्या सरकार हठधर्मिता छोड़,खुले मन से किसानों की बात सुनेगी ? / विजय शंकर सिंह

आज दोपहर 2 बजे से किसानों और सरकार के बीच पिछले तीन हफ्ते से रुकी हुई बातचीत शुरू होने जा रही है। पिछली बातचीत में अब तक सरकार कुछ संशोधन के लिये तो तैयार है पर किसानों का कहना है कि, यह पूरा कृषिकानून ही गलत इरादे से कुछ चहेते कॉरपोरेट को लाभ पहुंचाने के लिये बनाया गया है और इससे किसानों का कोई लाभ नहीं होगा, बल्कि उन्हें इन कानूनों से नुकसान ही होगा। नुकसान किसानों का कितना होगा यह तो किसान अंदाज़ा लगा रहे हैं पर किसान आंदोलन के खिलाफ खड़े कुछ लोग यह नही सोच पा रहे हैं कि इससे सबसे अधिक नुकसान में वे रहेंगे जो खाद्यान्न खरीद कर खाते हैं। उन्हें खाने पीने की चीजें महंगी और बराबर महंगी ही मिलती रहेंगी। इसका असर अन्य उपभोग की वस्तुओं पर भी पड़ेगा। क्योंकि हमारी पूरी आर्थिकी कृषि पर आधारित है। आज भी एक बेहतर मानसून, बजट ड्राफ्ट करने वालों हलवे की लज्जत बढ़ा देता है । 

कृषि उपज की बढ़ी कीमतों के बारे में एक कटु सत्य यह भी है कि उन चीजों की बढ़ी हुयी कीमत न तो किसानों के घर जाएगी और न ही उसे उपजाने वालें मेहनतकश लोगों के पास, बल्कि वह जाएगी कॉरपोरेट और उन कंपनियों की बैलेंस शीट पर जिनके यानी केवल जिनके लिये यह कृषिकानून बनाये गए हैं। 

आज की बातचीत के लिये किसानों से सरकार ने एजेंडे मांगे थे। किसान संगठन ने जो एजेंडे दिए हैं वे इस प्रकार हैं। 
● तीनो कृषि कानूनों के वापस लेने की मोडेलिटी क्या हो, इस पर चर्चा।
● एमएसपी, न्यूनतम समर्थन मूल्य जो वैधानिक आधार प्रदान करने के लिये कानून बनाना।
● प्रस्तावित बिजली अधिनियम 2020 जो देश की विजली व्यवस्था जो पूरी तरह से निजी क्षेत्र में ला देगा को वापस लिया जाय। 

आज तक की खबर है कि सिंघू, चिल्ला, टिकारी, शाहजहांपुर, आदि सीमा पर लाखों की संख्या में किसान 26 नवम्बर 2020 से डटे है। वे शांतिपूर्ण धरने पर बैठे हैं। दिल्ली उन्होंने नहीं घेरी है बल्कि उन्हें दिल्ली के अंदर प्रवेश नहीं करने दिया जा रहा है। बैरिकेड्स लगा कर उन्हें रोका गया है। अन्य जगहों पर भी उन्हें दिल्ली जाने से हतोत्साहित किया जा रहा है। पर उनका धैर्य, साहस, विपरीत मौसम और मुखालिफ निज़ाम के संवेदनहीन रवैय्ये के बावजूद भी प्रशंसनीय है। 

आज तक लगभग 40 से 45 किसान शीत लहर के काऱण धरनास्थल पर अपनी जान गंवा चुके हैं। पर ठस और निर्मम सरकार ने उनको याद भी नही किया। मोर और तेंदुए के बीच अपने हक़ के लिये धरने पर बैठे इंसान भुला दिए गए। एक शब्द भी न तो प्रधानमंत्री ने कहा औऱ न ही टीवी चैनलो ने। इतनी निष्ठुरता और निर्ममता लोकतंत्र में जब दिखने लगे तो समझ लीजिए कि लोकतंत्र का चरित्र और तासीर बदल रही है। 

शांतिपूर्ण तरीके से धरना और अपनी बात कहने के लिये राजधानी जाना कोई अपराध नहीं है और न ही इस प्रकार का आंदोलन, देश और दुनिया मे पहली बार हो रहा है। पर यह ज़रूर देश मे पहली बार हो रहा है कि, सरकार के हर कदम का आंख मूंद कर समर्थन करने वाले सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा के सनर्थक, देश के जनांदोलन को विभाजनकारी शब्दावली से नवाजते हैं, मज़ाक़ उड़ाते हैं और जनहित के मुद्दों के विपरीत सोचते हैं।  

'रोटी नहीं है तो केक क्यों नहीं खाते हैं' कि मानसिकता से संक्रमित लोग आज भी हैं। पर 'रोटी नहीं है तो केक क्यों नहीं खाते' वाली सोच के लोग नष्ट होते हैं और वक़्त बदलता है तो वे फिर कहीं दिखाई नहीं देते हैं। वे दफन हो जाते हैं इतिहास के पन्नो में और जब याद भी किये जाते हैं तो अपने बुरे स्टैंड के लिये जो उन्होंने उस वक़्त जनता के विरोध में लिए थे। जनता के लिये, जनता द्वारा,   चुनी सरकार जब जनहित का काम छोड़ कर चंद चहेते पूंजीपतियों के नक्शेकदम पर चलती हुयी दिखती है तो, तो जनतांत्रिक आंदोलनों का आगाज़ होता ही है। आज यही हो रहा है। 

आज दिन में 2 बजे शुरू होने वाले सरकार और किसान संगठनों की प्रस्तावित वार्ता किन निष्कर्षों पर पहुंचती है, यह तो जब वार्ता का विवरण सामने आए तो ज्ञात होगा। पर इस वार्ता के प्रारंभ में यदि सरकार और किसानों के नुमाइंदे, धरनास्थल पर दिवंगत हुए किसानों की समृति में दो मिनट का औपचारिक मौन रख कर बातचीत शुरू करते हैं तो यह एक स्वागतयोग्य कदम होगा। 

सरकार को अब इस आंदोलन की मांगे मान कर, तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने पर सहमत होना चाहिए। 'हम एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे' जैसे सरकार के शब्द और भाव दुश्मन से युद्ध करते हुए कहे जाते हैं न कि अपने ही देश की जनता से, उसकी समस्याओं को अनसुना कर के केवल एक मिथ्याभिमान के उन्माद में ग्रस्त होकर कहा जाता है। 

सरकार को एक कमेटी का गठन करना चाहिए। जो सारी समस्याओं के बारे में विचार कर यदि कृषि सुधार के लिये कानून बनाना जरूरी हो तो, वह एक ड्राफ्ट तैयार करे। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी कमेटी के गठन का सुझाव दिया भी है। हो सकता है जब सर्दियों की छुट्टी के बाद, सुप्रीम कोर्ट इस मुकदमे को सुने तो वह ऐसी एक कमेटी का गठन भी कर दे। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से यह भी पूछा है कि, क्या इन कानूनों को होल्ड पर रखा जा सकता है ? इस पर सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि वे इसे सरकार से पूछ कर ही बता पाएंगे। अब सरकार से उन्होंने पूछ लिया है या नहीं यह तो अदालत जब बैठे और सुनवाई करे और सरकार की बात सामने आए तो पता लगे।

हम सब उम्मीद करें कि आज जब सरकार किसानों के सामने बातचीत के लिये उपस्थित होगी तो वह दिल्ली के पास हो रहे इस जन आंदोलन के साथ साथ देश भर में हो रहे जगह जगह किसान आंदोलनों की गम्भीरता को भी समझेगी और किसानों से सरकार की बातचीत सार्थक दिशा और ट्रैक पर  जाएगी और किसानों का यह शांतिपूर्ण धरना कोई अप्रिय मोड़ नहीं लेने पायेगा। शांतिपूर्ण धरना बना रहे, यह धरना के नेताओ की जिम्मेदारी तो होती ही है पर वह शांति और धैर्य सरकार की असंवेदनशीलता, तिकड़म, शांति व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर दमनात्मक कदमों पर भी कम निर्भर नहीं करता है। अक्सर शांतिपूर्ण और जायज मांगो के लिये होने वाले आंदोलन, सरकार की मिस हैंडलिंग से हिंसक और अपने पथ से विचलित भी हो जाते हैं, जिसका परिणाम, सरकार और समाज दोनो के लिये घातक होता है औऱ लंबे समय तक भुगतना पड़ता है। उम्मीद है ऐसी स्थिति नहीं आएगी औऱ सरकार अपनी हठधर्मिता छोड़ कर किसानों की बात सुनेगी और समस्या का जनता और किसान हित मे समाधान निकलेगी । 

( विजय शंकर सिंह )

Monday, 28 December 2020

शब्दवेध (49) द्रवों के नाम

अमृत 
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अमृत का मूल अर्थ पानी है। सच कहें तो अमृत त. तन्नी (तण्+नीर)= पानी-पानी = ठंढा पानी, पानी,  की तरह अम् +ऋत - पानी + पानी के योग से शीतल जल, तृप्तिदायक जल के लिए प्रयोग में आता रहा, और फिर प्यास से विकल व्यक्ति के प्राणरक्षक पेय के रूप में और इस तरह मृत्यु से रक्षा करने वाले, अमरता प्रदान करने वाले एक काल्पनिक पेय के रूप में लोकप्रिय हुआ- पानी मे ही अमृत है, पानी में ही भेषज है (अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजम्)। अं. का एंब्रोशिया (ambrosia) अमृत से ही व्युत्पन्न है, ऐसा अं. कोश मेे मिलता है, परंतु यह अम्बरीष - अंबर +इष = दिव्य जल, का प्रतिरूप प्रतीत होता है जो हमारे साहित्य में भी एक पौराणिक नाम के रूप मे ही बचा है।  ऋग्वेद के रचना काल तक मृत्यु-निवारक पेय बनने की यह यात्रा लगभग पूरी हो चुकी थी। इक्के दुक्के प्रयोग ही ऐसे हैं जिन्हें सामान्य जल के लिए ग्रहण किया जा सके (वृष्टिं वां राधो अमृतत्वं ईमहे) ।  

अम से ही आम/आम्र (रसाल),अम्ब[1], अंबु, (अम्मा?) की उत्पत्ति हुई है।   नदी नामों मे अकेली आमी का नाम याद आता है। अमृत की तरह ही अम और ऋत भी ऋग्वेद के समय तक नए आशयों में प्रयोग में आने लगे थे, परंतु आर्त - प्यास से विकल, दीन, याचक; आर्तव -ऋतुकाल, मासिक स्राव, रेतस्,  री/ऋ- गति सूचक, रीति - मार्ग, परंपरा आदि में रित/ऋत का पुराना भाव बना रह गया। ऐसा लगता है कि पहले बरसात के लिए ही रितु/ऋतु का प्रयोग होता था, फिर वृष- दिव्य जल,  रेतस् के लिए प्रयोग में आने लगा, तो ऋतु के स्थान पर वर्षा ऋतु पड़ा और ऋतु का तीन मौसमों और फिर छह और अधिमास को लेकर सात  षड्-ऋतुओं और सप्त ऋतुओं के लिए प्रयोग होने लगा। 

वर्षा के लिए किया जाने वाला यज्ञ भी सही समय पर वर्षा न होने पर इस मौसम में ही कराया जाता था जो ऋत्विज (ऋतु+इज=यज्ञ) में बाद में भी बचा रहा।  अंबर का अर्थ आकाश नहीं, बादल है  - जल बरसाने वाला - है और इसलिए वस्त्र के लिए  और अं. Umbra छाया, umbrage छाया, umbrella छतरी में  इसका प्रयोग सर्वथा समीचीन है। ऋग्वेद में अम - बल  (आशु अश्वा अमवद् वहन्त), प्रवाह ( अमश्चरति रोरुवत्  - प्रवाह गर्जना करता हुआ चलता है),  अमा - घर > (भो. अमाइल, समाइल), आम- कच्चा आदि आशयों में प्रयोग में आया है।  भो. का अम्मत - खट्टा अमृत की देन है या कच्चे आम की खटास से निकला है, यह विचारणीय है , पर आम स्वयं अम से निकला है, इस विषय में कोई संदेह नहीं। ऋ. में अमति के प्रसंगानुसार कई अर्थ हैं - 1. रूप, 2. प्रकाश, 3. अभाव, 4. बुद्धहीनता, 5. तृप्ति. पानी के अभाव में, किसी धातु के सहारे इन आशयों तक नहीं पहुँचा जा सकता। 

पीयूष
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पीयूष का सीधा अर्थ जल है और इस दृष्टि से यह पीतु का सजात और समानार्थी है।  प, पा, पी सभी का अर्थ पानी है, पीन/पीवर - पानी से फूला हुआ, मोटा; पीत - पिए हुआ आदि को देखते हुए लगता है पीयूष में भी पी-जल, उश - जल, कामना (उशना;  उशती - जायेव पत्य उशती सुवासा), का योग है।  इसका पहला अर्थोत्कर्ष हुआ तो इसका अर्थ दूध हुआ और दूसरे के साथ यह अमृत का पर्याय बन गया।

रस
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रस - पानी (रसो वै सः), जिसके साथ माधुर्य का भाव जुड़ गया तो अर्थ हो गया स्वादु > मीठा ( रसना- रसास्वादन करने वाली इन्द्रिय); रसाल - आम।  आगे चल कर यह रस - रसायन,  (chemical; chemistry), भावगम्य आस्वाद, आनंद (साहित्य का रस या वाणी द्वारा प्राप्य मग्नता या तन्मयता, जिसे समाधि के आनंद के रूप में पहचाना गया    (इमां त इन्द्र सुष्टुतिं विप्र इयर्ति धीतिभिः; तयोरिद् घृतवत् पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः ।
गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे )  और आज यह पानी से लेकर अन्य सभी आशयों में संदर्भ के अनुसार प्रयोग में आता है। 

मधु
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रस की तरह अनेक दूसरे शब्द हैं जो पहले जल के  द्योतक थे, बाद में मधुरता आदि के लिए व्यवहार में आने लगे। मधु का प्रयोग कब से शहद के लिए होता आ रहा है,  यह हमें पता नहीं। ऋग्वेद के समय तक इसका एक सीधा  अर्थ किया जा सकता था -  तृप्तिकर, प्रीतिकर।   इसका प्रयोग ( 1) पानी (दुहान ऊधः दिव्यं मधु प्रियं),  (2). महुआ (मधूक)  मधुबन, (महुआनी), (3) शहद (माक्षिक मधु),  (4) सोमरस और उसके विपाक (सृजामि सोम्यं मधु), (5) अनुद्वेगकर (मधु वाता ऋतायत - वायु मंद गति से प्रवाहित हो’;  मधु नक्तमुतोषसो मधुमत् पार्थिवं रजः । मधु द्यौरस्तु नः पिता। रात और दिन, धरा धाम और पालक द्युलोक अनुकूल रहें ) (6) सुस्वाद (माध्वीः नः सन्तु ओषधीः  अन्नादि सुस्वाद हों ); (7) दूध (इन्द्रो मधु संभृतमुस्रियायां- इंद्र ने गायों को मधुपूरित किया)। मधु मत् (*मथ, मद, मध, मन, मह संवर्ग) से निकला है - जिनमें प्रत्येक का अर्थ जल है।  माहुर उसी तरह मधुर का प्रतिलोम है जैसे अम्मत अमृत का।

मूत 
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मूत का प्रयोग (मूत्र) के लिए होता है। कुछ लोग मानेंगे कि मूत मूत्र का अपभ्रंश है। सच यह है कि अपने शुद्ध रूप में यह मूत था जो जीमूत - जीवनदायी जल में बचा रह गया है। संस्कृतीकरण के क्रम में इसका रूपगत और अर्थगत ह्रास हुआ। सच यह है कि पा, पी, पू, पे की तरह  म (मकर), मा(मास), मी(मीन), मू (मूत)  का अर्थ पानी था।  मू-त्र(तर) संभव है जलपरक शब्दों का युग्म हो।

विष
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विष (इष/ विष) का पुराना अर्थ जल था। इसका मूल वही है जो विष्णु, विषुव - फैलने वाला, फैला हुआ - में देखने में आता है। अंतर केवल यह है कि विष्णु में यह आग का प्रसार है और इसलिए आग, यज्ञ, सूर्य के लिए इसका प्रयोग मिलता है, विष के मामले में यह प्रसार जल के फैलाव या बहाव का है। ऋग्वेद के समय तक इसका प्रयोग मुख्यतः हलाहल (यहाँ भी जल परक हल की आवर्तिता है)  के लिए होने लगा था। केवल एक दो बार जल के लिए देखने में आता है। हम नहीं जानते कि इसे विकृत (सड़े या सड़ाँध वाले) इष या जल के औचित्य से बदबूदार और प्राणघाती द्रव्य से संबद्ध किया गया या नहीं। यह अवश्य जानते हैं कि विष्ठा के लिए भी इसी से संज्ञा निकली। इसके बाद भी पूरबी में तटीय स्थानों के कतिपय नाम - बिसवनिया, बिस्टौली,  बिसुनपुर के समानान्तर मिलते हैं। बिष्ट उपाधि के साथ विष्णु वाले तेजस्विता का हाथ दिखाई देता है।      
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[1] अंबा, अंबे (द्वि.व.), अंबालिका (*बहु.व.), तीनों अर्थ उसी तरह नदी है जैसे सनक, सनातन, सनन्दन तीनों का अर्थ काल। भीष्मपितामह के गंगा से उत्पत्ति की ऐतिहासिकता की तरह उनके अपहरण की कथा भी काल्पनिक लगती है।

भगवान सिंह 
( Bhagwan Singh )

शब्दवेध (48) सभी द्रव पानी हैं

जब रंग, प्रकाश और आग पानी हो सकते है तो सभी द्रव पानी हों, यहाँ तक कि सभी आर्द्र पदार्थ पानी हों, इसमें हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए।   परेशानी यह सोच कर होती है कि  भाषा का काम है फर्क करना-  विष और अमृत दोनों को पानी तो नहीं कहा जा सकता।  

यह सही है  कि  विशेष शब्दों को  इनके लिए रूढ़ कर दिया गया, परंतु उसके बाद इनका प्रयोग पानी के लिए तो नहीं होना चाहिए था।  ऐसा है,  पर क्यों है,  इसे समझना, भाषा की कुछ बुनियादी समस्याओं को समझने जैसा है। यह  वाक् (language), व्यावहारिक भाषा या जबान (vernacular), तकनीकी भाषा (jargon), वाणी (ideolect) के जटिल संबंधों की समस्या है। यह, सच कहें तो, भाषा की समस्या न हो कर पारस्परिक संपर्क में आने वाले समुदायों की समस्या है जो एक  ही भाषा नहीं बोलते फिर भी आर्थिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक कारणों से न्यूनाधिक जुड़े रहते हैं और जहाँ एक ही भाषा बोलते दिखाई देते हैं वहाँ भी सामाजिक हैसियत, आर्थिक औकात, पेशे, रुचि यहाँ  तक कि वय और लैंगिकता के आधार पर अलग अलग भाषाएं बोलते हैं 

इस लिए बहुत सारे परिवर्तन उनके अपने दायरे में होते हैं जिनसे शेष समाज अछूता रह जाता है। इनमें कुछ, जिनमें जान होती है, धीरे धीरे छन कर, सभी स्तरों तक पहुँचते और स्वीकार कर लिए जाते है परंतु यह यात्रा  अधूरी रह जाती है।  इसका उल्लेख मात्र यह स्पष्ट करने के लिए किया कि साहित्यिक भाषा, यहाँ तक कि संस्कृत जैसी नियंत्रित और निखोट मान ली जाने वाली भाषा तक में रूपावली से ले कर लिंग आदि  के अनियमित प्रयोग क्यों होते रहे, इसे भी इस तर्क से ही समझा जा सकता है। हम इस जटिल विषय की पड़ताल में नहीं जाएँगे। हमारा उद्देश्य केवल इतने से सिद्ध हो जाता है कि अनियमितताओं का भी अपना तर्क होता है।

पानी के कितने पर्याय हो सकते हैं  इसकी गणना असंभव है।  भाषा कहती है, ‘मैं मनुष्यों आवेगो और विचारों से   भर देती है, मेरा प्रवेश धरती और आकाश सभी में  है - अहं जनाय समदं कृणोमि अहं द्यावापृथिवी आ विवेश और  ‘मेरी उत्पत्ति जल से है’ - मम योनिः अप्सु अन्तः समुद्रे। समस्त नाम,  जल के नाम।    परंतु द्रव पदार्थों की गणना संभव है  और समस्या यहां भेद  और अभेद की है।  विशिष्ट कार्यों और वस्तुओं में रूढ  हो जाने के बाद भी उन शब्दों के जल वाचक बने रहने में है।

नून  का प्रयोग लवण  के लिए होने के बाद जल के लिए या किसी ऐसे भाव और विचार जिससे जल की याद आए, इसका प्रयोग नहीं होना चाहिए. परंतु होता है जैसे नमक के लिए राम रस का प्रयोग होता है। देवरिया जिले में एक स्थान का नाम नूनखार है- अर्थात् वह स्थान जहाँ का पानी खारा है।  दूसरे भी कई शब्द है जिनमें नून  का भाव पानी  में बचा रह गया है ।                                                                        

घी  <> घृत - 
ऋग्वेद में सामान्यतः घी के लिए घृत का प्रयोग  देखने में आता है.  परंतु साथ ही  जल के लिए इसका प्रयोग होता है। इस दुहरे प्रयोग का ध्यान रखते हुए  धातुकारों ने  ‘घृ’  का अर्थ किया  (क्षरण) वह जो छलकता है,  बहता है। पश्चिमी अनुवादक नियमित रूप से ‘घी’ ही करते हैं जिसे (अव स्मयन्त विद्युतः पृथिव्यां यदी घृतं मरुतः प्रुष्णुवन्ति ।। 1.168.8 के अनुवाद में देखा जा सकता है। कृषि के अनुरूप  वर्षा का  बहुत मार्मिक चित्रण किया गया है,  जब मरुद्गण धरती को  सिंचित कर रहे हैं, बिजलियां धरती की ओर नीचे देखती हुई हँस रही हैं।  ग्रिफिथ महोदय का अनुवाद है: the lightnings laugh upon the earth beneath them, what time the Maruts scatter forth their fatness, शब्द अनुवाद में कोई चूक नहीं,  कोई यह नहीं कह सकता कि उसे वैदिक भाषा नहीं आती, संदर्भ की चिंता नहीं,   इससे यदि अनुवाद में अटपटी लगती है तो यही उनका उद्देश्य था, परंतु साथ  ही यह भी स्वीकार करना होगा सायण के अनुवाद की कमियों को पहचानते हुए अनेक स्थलों पर उन्होंने अधिक सही अनुवाद किया है।

तेल
तेल के विषय में एक बहुत गलत धारणा पाई जाती है कि यह पहले  तिल से निकाला गया इसलिए इसे तेल की संज्ञा मिली ।  ज्ञानमंडल के कोश में इसका अर्थ दिया गया है बीज, वनस्पतियों आदि से निकलने या विशेष उपाय द्वारा निकाला जाने वाला तरल पदार्थ इसलिए उसमें  तैल  का अर्थ   आ गया है  तिल को पेर कर निकाला हुआ तेल। यह अर्थ गलत है क्योंकि तिल का अर्थ ही था, जल।  ल-कार प्रियता के कारण  तिर का तिल हो गया, और नम भूमि के लिए तिल्विल (तिलु नम + इल - धरती - तिल्विल) = सिंचित भूमि।  भद्रे क्षेत्रे निमिता तिल्विले वा … 5-62-7 में  स्थूणायूपयष्टिरवस्थित  -जिससे खूँटी-खूँट् निकाले जा चुके हैं ऐसे सुथरे नम खेत में। 
 
हम भी बचपन में  बरसात के बाद पानी में डूबे हुए भाग से पानी हटने के बाद जमीन के नीचे से जगह-जगह पानी ऊपर निकलता था  उसे  तेलगगरा कहते थे।  नदी के या पानी के पास  की  कतिपय बस्तियों के नाम  तिल से आरंभ होते हैं जैसे तिलसर।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


Ghalib - Karte kis munh se ho gurabat kii shikayat / करते किस मुंह से हो गुरबत की शिकायत / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 117.
करते किस मुंह से हो, गुरबत की शिकायत ग़ालिब, 
तुम को बे-महरीये याराने वतन याद नहीं !! 

Karte kis munh se ho, gurbat kii shikayat Ghalib
Tum ko be-mahriiye yaraane watan yaad nahin !!
- Ghalib 

तुम किस मुंह से विदेशियों की शिकायत करते हो, क्या तुम्हें अपने देशवासियों की निष्ठुरता याद नहीं है। 

ग़ालिब परदेस में है। तब परदेश का अर्थ भारत के बाहर नहीं बल्कि अपने शहर, के बाहर जाने, को भी परदेस ही कहते थे। जब कोई उनसे कहता है कि परदेस में लोगों ने उनके साथ निष्ठुरता की तो वे अपने ही देस, शहर, गांव के लोगों की उपेक्षा और निष्ठुरता की याद दिलाते हैं। वे कहते हैं कि इन्ही निष्ठुरता और उपेक्षा के कारण ही उन्हें तो देश छोड़ना पड़ा। यदि देशवासियों या अपने वतन के ही लोगों ने अपनापन जताते हुए कोई उचित कामकाज और आश्रय प्रदान कर दिया होता, तब दर - दर की खाक छानने की क्या ज़रूरत ही क्या थी। अपनो की बेदर्दी और उपेक्षा ने ही तो, घर, शहर छोड़ने को बाध्य किया है। परदेस में तो वहां के लोगों ने अपनी उदारता दिखाकर, अपने यहां शरण और अवसर दिया, यह बात तो किसी को भूलनी नहीं चाहिए । कम-से-कम इस बात के लिए तो हम सबको उनका ( परदेस वालों का ) ऋणी होना चाहिए। यदि परदेस में किसी ने कोई अशोभनीय और अनुचित बर्ताव कर भी दिया, तो उनकी अन्य कृपा और सहायता को देखते हुए उनसे किसी प्रकार की गंभीर शिकायत तो नहीं ही होनी चाहिए। ऐसी किसी शिकायत से पहले अपने देशवासियों की निष्ठुरता और उपेक्षा को ध्यान में रखना चाहिए, जिन्होंने देस छोड़ने और परदेस की शरण लेने को विवश कर दिया है। 

( विजय शंकर सिंह )

Sunday, 27 December 2020

शब्दवेध (47) रंगों के लिए है शब्द ?

रंगों के लिये शब्द है तो, पर नहीं भी है, क्योंकि रंगों के इतने भेद हैं कि सभी के लिए सही संज्ञा का प्रयोग किया जाए तो एक अलग कोश बन जाए, इसलिए अपनी मुश्किल को आसान बनाने के लिए मनुष्य विविध रंगीन वस्तुओ और फूलों के नाम जोड़ कर बहुत प्राचीन काल से रंगो के लिए संज्ञाएँ गढ़ता आया है - रुपहला, सुनहला, तामई, लोहित, मटमैला, धूमिल, केसरी,  गेरुआ,  हल्दिया (हरित/हारिद्र),  गुलाबी, धानी (+ रंग) और ऐसे सभी नामों के विषय में यह कहा जा सकता है कि ये जल की ध्वनि पर आधारित नही हैं।   

परंतु जिनके रंग को संज्ञा बनाया गया है उनसे स्वयं भी  कोई ध्वनि पैदा नहीं होती।  हमारे सुझाए गए नियम के अनुसार वे अपनी संज्ञा  के लिए जल की  किसी ध्वनि पर आधारित होने को बाध्य है।  गुलाब (गुल + आब) का नाम तो ऐसा कि हम इसे पानी का फूल कह सकते हैं।  धान, धन, (धान्य, धन्य),  तन (तने - धनाय, सा.)  का पानी से क्या संबंध है इसे इसी बात से समझा जा सकता है जल को धनों का धन ( धनंधनम्), और वृष्टिदाता इन्द्र को महाधन कहा गया है। आप-जल >अप्न धन। 

अनाजों में धान धन का पर्याय इसलिए हो गया कि देवों ने धान की खेती से कृषि आरंभ की थी। पलाश - पत्तों वाला, के आदि में आया पल>प्ल, अं. पूल (pool) जलवाची है। उसे यह संज्ञा संभवतः उसकी पत्तियों की उपयोगिता समझ में आने के बाद मिली। पर रंग के लिए पलाश का प्रयोग नहीं होता। उसके फूल का अलग नाम टेसू है, पर अभी इससे मिलता-जुलता जलवाची नाम नहीं सूझ रहा। धातुओं में सभी का नाम जलपरक है। 

सभी धातुओं में चमक होती है, सभी एक निश्चित तापमान पर पिघल कर पानी हो सकती हैं, कारण कुछ भी हो पर अर्थ, द्रव, सु-अर्ण, रज-त, लहू-लोह, तम - पानी, >तामा/ताँबा/ताम्र, कन्-पानी+चन-पानी=कंचन, काच, कांस्य, रंगों के लिए जो पुराने नाम :  नीर-जल >नील> नीड(नेस्ट) छाया;   पीतु-जल> पीत>पीतल, पीला,  अर/अरु-जल >अरुण, अरुष; सर/हर/सरि/हरि- जल, नदी > हरा,  हरित (पीला, हरा, भूरा); बभ्रु वर्ण के विकास के कई चरण हैं - पूः >पूर/पुर/प्रू (आपप्रुषी)> पूर्ण के समानान्तर महाप्राण प्रेमी बोलियाें में फुर> फुल्ल, full/ fill, फ्रू >fruit, भर/भुर/भूरि,भ्र, भृशं,आदि।  इसी क्रम में भ्रूभ्रू> बभ्रु का और इसके अधिक पुराने रूप से भूरा का नामकरण हुआ लगता है। काला, कृष्ण पर हम पहले चर्चा कर आए हैं।   
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प्रकाश के लिए शब्द
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पाणिनि  के धातु पाठ की  कुछ  धातुएँ हमारे  लिए बहुत उपयोगी हैं, ‘चंचु गत्यर्थाः, 190. ३००, चक तृप्तौ, 783. ३०१, चक तृप्तौ प्रतिघाते च, 93. ३०२, चकाशृ दीप्तौ, 1074.   इसका बोलियों के अनुरूप पाठ करें ताे इसमें चंचल के लिए चंचु, छक कर खाने पीने के लिए चक, छकने,  छकाने और छक्का छुड़ाने के लिए एक अलग चक की और  देखने (चक्षु/ चक्षण), चकराने, चकित होने के लिए एक अन्य चक धातु की कल्पना की गई है जो  वर्णविपर्यय के कच>कश>काच/काश का रूप ले सकती थी। 

उनकी समस्या लिखित या मानक भाषा में उपलब्ध समान मूल और अर्थ वाले घटकों का निर्धारण था। ध्वनियों की स्वायत्तता की ओर उनका ध्यान गया ही न था।  हमारे लिए अंतिम सूत्र का महत्व यह है कि काश का अर्थ वही है जो प्र- उपसर्ग के बिना समझ में न आता, पर पहले व्यवहार में था, यह ला.   cos-metic और cos-mos, सजावट और जगमगाहट से प्रकट है ।   मूल कस/ करस > कर्स जलवाची पद के पीछे वही तर्क था जो सरकर, सरकना, शर्करा, अं.शर्क (shirk) के पीछे ।  इससे बोलियों का कसना, कसौटी, कसक फा. कश -*जल> कश्ती, कशमकश, कशिश, कोशिश, कशीदा आदि व्युत्पन्न हैं। करस >कर्ष> कष (निकष), कृशानु>कृष >कृष्ण का रूप लेता है।  कश/ काश जलर्थक से प्रकाश का रूप लेता है, पर यह हैरान करने वाली बात है कि उपसर्ग के बिना अनेक शब्दों का प्रयोग ही नहीं होता (भा, वदन्ती, तीक आदि भी इन्हीं में आते हैं)। 
  
भा 
वर्गीय ध्वनियों  में अंतर प्राय: अर्थभेदक नहीं है।इसका कारण यह है  कि आरंभ में एक ही शब्द को अलग-अलग बोलियों के लोग  पारस्परिक संपर्क में आने के बाद प्रायः अपनी सीमा में सुनते और बोलते थे, यह हम पहले भी कह आए हैं। लंबे समय के बाद जब दूसरों की ध्वनियों को अधिक सटीक रूप में बोलने का अभ्यास उन्हें हो गया और उनकी ध्वनि माला विस्तृत हो गई तो उसके बाद जो शब्द  गढ़े गए  उनमें अर्थ भेदकता दिखाई देती ।  इसलिए सघोष महाप्राण ध्वनियों वाले शब्दों का  अघोष अल्पप्राण  प्रतिरूप मिलता है तो वह अलग शब्द नहीं है,  एक अलग बोली बोलने वालों के द्वारा उच्चरित वही शब्द है।

जो बात भा, भी, भू से स्पष्ट नहीं होती  वह पा, पी पू से  समझ में आ सकती है। पा - पानी, पाला - तुहिन, त. पाल्, ते. पालु - दूध, हिं. पालन, पालि, पालना; त. पार्- देख, भो. कान पारना [1], पावस-बरसात, भो, पलानी - छानी/छप्पर, झोंपड़ी। अब हम भा- *पानी, > भाप, भो. भास- दलदल, भासना- दलदल में धँसना, भाँति- प्रतिबिंब, प्रतिरूप, भा- प्रकाश, भानु- सूर्य, भान प्रतीति, (आ-/प्र-/स- भा), भाषा आदि पर दृष्टिपात कर सकते हैं।

ज्योति
जोति/ जोत[2], ज्योति में विशेष अंतर नहीं है। जोत और जोति अधिक नियमित और अधिक पुराने हैं। जैस जूर्णि - लपट, जार, जरा, जराना - जिनकाे सं. ज्वाला ज्वलन  बना लेती है।  भो. पूर्वरूप ही जल, ज्वाला और ज्योति> की विकासरेखा को अधिक स्पष्ट करती है। भो. जूरल - उपलब्ध होना,(जो जुटना, जुड़ना, जोड़ना में कुछ धुँधला रह जाता। भो. जुड़ाइल - ठंढा होना, जूड़ी, जाड़ा इस शब्द समूह के जल से संबंध को प्रकट करता वहीं इसको जलाने, सुखाने, निर्जीव करने के लिए झूर, *झु/झू-आग, (झोंसल, झुँझलाइल, झुराइल) कौरवी प्रभाव में महाप्राणन खो कर जू, जरा, जार, जूर्णि बना। द्युति के प्रभाव में जोति ने ज्योति का रूप लिया।

द्युति
द्युति का कहानी भिन्न है। यह ती - जल से व्युत्पन्न है। ती, तर, तिर, तृ के जलवाची होने पर कोई संदेह नही। यह ते. तिय्यन - मीठा, भो. तेवना - भोजन को सुस्वाद बनाने के लिए कोई खाद्य या पेय में भी लक्ष्य किया जा सकता है। त. में तिकऴ़ - चमक, द्युति, तिट्टम् - सटीकता, समतलता; तिट्टि - खिड़की; ती - आग, ताप, बुराई । यह  ती, दी, धी, तेव (तेवर), देव और संस्कृतीकरण से द्यु, द्यौस, (>धौंस), (प्र)तीक, तिथि, टीक, टिकोरा, सटीक, टीका, ठीक, ठेका आदि की एक विशाल शब्दावली का जनन करता है और इसकी कुछ शब्दावली पूरे भारोपीय क्षेत्र में फैलती है, इस झमेले में न पड़ेंगे। य़हाँ तक कि यह भी तय करना नहीं चाहेंगे कि मूल तमिल का 'ती' है या भो. का 'धी', धिकवल - गर्म करना, पर यह याद दिला सकते हैे कि धिक्कार का मतलब ‘आग लगे’, ‘भाड़ में जा’ है।        

दूसरे सभी पर्यायों का भी यही हाल है।_
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[1] इसमें त. कान< कन/कण् और पार-देखना  का भो. में समावेश के बाद एक नया रूप, जिसका प्रयोग तो होता है पर बिंब नहीं उभर पाता।
[2] हम अपनी व्याख्या में उन मामलों में जिनमें यह निश्चित है कि कुरुक्षेत्र में आने वाले उन वस्तुओं/ संकल्पनाओं से अनभिज्ञ नहीं रहे होंगे भोजपुरी के पूर्व रूपों को  अधिक भरोसे का मानते हैं। जोति, जोन्ही, जोहल, जूरल, झुराइल, झूर, चान, अँजोर, अँजोरिया, अन्हरिया, उज्जर, उजियार उजास। जैसे ऋग्वेद के हवाले जहाँ सुलभ हुए वहाँ नाम लेकर इसलिए देते हैं कि वह प्राचीनतम कृति है और उसमें हमें लिखित शब्दों के प्राचीनतम ही नहीं अपितु कभी कभी संक्रमणकालीन रूप भी मिल जाते हैं, उसी तरह भो. का विशेष उल्लेख इसलिए महत्व रखता है कि भारोपीय का आद्य रूप उसी में संरक्षित है। भाषा के इतिहास की तलाश करने वाला इसकी उपेक्षा नहीं कर सकता।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


शब्दवेध (46) अंधेरे के लिए शब्द नही


अंधकार
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अकेला यह शब्द है जिस पर कुछ भरोसा किया जा सकता था,   परंतु  यह भी अँधेरे के लिए रूढ़ है। इसका अर्थ अँधेरा नहीं होता। अंध/ अंधस का अर्थ है  रस,  सोमरस। ऋग्वेद में अंध शब्द का इस  आशय  में 24 बार प्रयोग हुआ है:
इन्द्रो यद्वृत्रमवधीत् नदीवृतं उब्जन् अर्णांसि जर्हृषाणो अन्धसा ।। 1.52.2 (इन्द्र ने अंधस् की मस्ती में आकर जलप्रवाह को अवरुद्ध करने वाले वृत्र का  वध  करके जल धाराओं को मुक्त किया 

सीदता बर्हि: उरु वो सदस्कृतं मादयध्वं मरुतो मध्वो अन्धसः ।। 1.85.6 ( मरुद्गण, आपके आसन के लिए चटाई बिछा दी गई है आप उस पर विराजमान हों और सोमरस के पान से मस्त हों।)

पिबतं मध्वो अन्धसः पूर्वपेयं हि वां हितम् ।  इन्द्र त्वा वृषभं वयं सुते सोमे हवामहे  ।  1.135.4 
(सोमपान पर तुम्हारा प्रथम अधिकार है, वृष्टिकारी इन्द्र तुझे हम अपने आसवित सोम के पान के लिए बुला रहे हैं) , आदि।

परंतु ऐसा नहीं है कि  उस समय अंधे को अंधा नहीं कहा जाता रहा हो।  आपसी सहयोग से अंधे और लंगड़े के  पहाड़ पार करने की कहानी,  जिसे आपने बचपन में कई बार सुना और बच्चों को यदा-कदा सुनाया होगा, वह ऋग्वेद के समय में  भी सुनी सुनाई जाती थी, यह दूसरी बात है कि  इसे आपसी सूझ का परिणाम  न मान  कर देव कृपा से प्रेरित बताया जाता था: 
याभिः शचीभिः वृषणा परावृजं प्रान्धं श्रोणं चक्षस एतवे कृथः । 1.112.8  जिस दूरदर्शिता से दूर देश में गए असहाय अंधे और लंगड़े को यात्रा में समर्थ बनाया था।'  

दो बार और दोहराया गया है।
नीचा सन्तमुदनयः परावृजं प्रान्धं श्रोणं श्रवयन् त्सास्युक्थ्यः ।। 2.13.12 
प्रान्धं श्रोणं च तारिषद्विवक्षसे ।।10.25.11
 
अश्विनी कुमार अपनी चिकित्सा से अंधे की आँखों की रोशनी लौटा देते है, क्षीणकाय को हृष्टपुष्ट कर  देते हैं,टूटी हड्डी जोड़ सकते हैं (अन्धस्य चिन्नासत्या कृशस्य चिद्युवामिदाहुर्भिषजा रुतस्य चित्,  ऋ. 10.39.3)। वैदिक जन  मनाते हैं कि उनके शत्रुओं को  कुछ दिखाई न दे और उनकी अपनी रातें भी  जगमग रहें (अन्धेनामित्रास्तमसा सचन्तां सुज्योतिषः अक्तवः तान् अभि ष्युः, 10.89.15) अंधेरी से प्रकाश की ओर ले चलने की चिंता करने वाले अंधेरे  का अर्थ न जानते हों,  यह संभव है ही नहीं।  अंतर केवल यह कि उन्हें भूला नहीं है कि अंध का अर्थ  पानी हुआ करता था,  रस/सोमरस हो सकता है,  और अंधकार तो है ही।  

अंध  उसी  समूह में आता है जिसमें अत/ अद, इत/इद, उत/उद, अंत/अंद, इंत/ इंद, उंद, अंध, इंध, ऊध आदि। इन सबका एक अर्थ जल है, पर इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें अनेक से व्याकरणिक पद बने हैं। अत/ अतर -पानी, अतरौली, अतरौली, अतरौलिया - तटीय स्थान नाम (यद्यप् अलीगढ़ में स्थित अतरौली गंगा की वर्तमान धारा से काफी दूर है) अत/ आत- उसके आगे/बाद; अतः - इसलिए, अत/अद् -पीना/खाना,  अत्रि- खानेवाले, अद्य-खाद्य, अत्र (त्र< तर- 1.जल, 2. स्थान, 3. तुलनात्मक प्रत्यय (सं., फा. -तर, अं. अर), 4. स्थानवाचक - यहाँ,  और 5.   अन्द> अन्ध> अन्न), आदि- आरंभ, इत्यादि - इति-अंत+आदि= समस्त > आदि=इत्यादि), अंत - निकट, भीतर (अंतर/ अन्तः>अंदर)[1]।  

हम इसकी विस्तृत समीक्षा में नहीं जाएंगे क्योंकि यह  संस्कृत के विकास में जिस संक्रमण का सूचक है,  उस पर जितनी गंभीर चर्चा जरूरी है वह फेसबुक के मंच के संभव नहीं है जहां लोग मैत्री के आधार पर सहमति या मौन असहमति जताते हैं, कितनों ने धैर्यपूर्वक कई बार पढ़ कर साझा और ग्रहण किया यह पता नहीं चल पाता।

हम अंधकार के पर्याय बात करते हुए जिस तथ्य को रेखांकित करना चाहते हैं,  वह यह कि जल की किसी ध्वनि के  वाचिक अनुवाद से ही अंधकार को संज्ञा मिली। यहां  यह अवश्य स्मरण कराना चाहते हैं कि तमिल में  अंद का प्रयोग  स्थानवाची  विशेषण के लिए होता है जिसका बोलचाल में  'अ'-कार ही रह जाता है - अन्दम् ( अ-) - वह. इसे  अंतम, अंधम् कुछ भी पढ़ा जा सकता है।  इसलिए संस्कृत के अंधे के लिए  एक अलग शब्द ‘अन्धन् -चलता है।

रात/रात्रि
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रात के साथ रत, रत्न- चमकीले पत्थर, रातना - लाल होना,  रतनार - ललौंहा, रत्ती - गुंजा, (लाल रंग का एक छोटा सा फल जिसे इसी नाम के बाट के भार की समानता के कारण संज्ञा दी गई)  के साथ रख कर समझें। यह समझने में कठिनाई न होगी कि इस नामकरण का आधार अँधेरा नहीं अपितु रात के आसमान की जगमगाहट है। ऋग्वेद में रात की जगमगाहट का एक बहुत मनोरम चित्रण है- 

पितरों ने जैसे किसी काली घोड़ी को मोतियों से सजा दिया  हो 
(अभि श्यावं न कृशनेभिरश्वं नक्षत्रेभिः पितरो द्यामपिंशन् । ) 

रात के नामकरण के पीछे यही जगमगाहट है। परंतु हमारी समस्या तो रात को जलपरक सिद्ध करने की है।यह री- टपकना, बहना, उफनना  (रीयते) से संबंध रखता है जिसमें गति और प्रवाह भी आते हैं, रीति, रति, रा (राति- दान), रात समाहित हैं। 
अन्तरिक्षे पथिभि- ईयमानो न नि विशते कतमच्चनाहः । अपां सखा प्रथमजाः ऋतावा क्व स्विज्जातो कुत आबभूव, 10.168.3 
(वायुदेव अंतरिक्ष के मार्ग से प्रवाहित होते है, कभी एक दिन के लिए भी कहीं ठहरते नहीं हैं, जल के मित्र हैं, अपने व्रत से अडिग हैं, सर्व-प्रथम उत्पन्न हुए, वे कहां से पैदा हुए, किधर से आए?)[2]।

रजनी
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रजनी के विषय में किसी संदेह की आवश्यकता नहीं कि यह रज-जल, रज्जु (तुलना करें, रस>रश्मि>रसरी>रस्सी से), राज, रजत से और फिर रात की जगमगाहट की याद दिलाता है।  जब इस शब्द का अर्थ समझ में आ जाएगा, तब अं, ला, रायल और इनके लातिन पूर्वरूपों का भी अर्आथ समझ  में आ जाएगा।

नक्त 
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नक- जल (नक्र- जलचर), नक्श - नख-शिख, रूप, नक्शा, नक्षत्र, E. night, Ger. nacht, L. nox, G. nyx को एक साथ रखकर देखें, किसी व्याख्या की आवश्यकता न पड़ेगी। यहाँ तक कि यह समझ में आ जाने के बाद कि र और ल ही में अभेद नहीं है, न और ल में भी अभेद है, भाषा की कई पहेलियाँ सुलझ जाएँगी। तभी आप नाइट की जगमगाहट और लाइट, डिलाइट ब्लाइट और साइट के और  सं. नक्ष, लक्ष, लख, बिलख, लाक्षा (लाख) की आपसी कडी को समझ सकेंगे।

मसि
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मसि का अर्थ है स्याही - कालिमा युक्त।  इसका दूसरा नाम है रोशनाई, प्रकाशित करने वाली। हिंदी में जिसके लिए लिपि का प्रयोग होता है, उसके लिए एक और शब्द का प्रयोग होता था, ‘दिपि’’ - प्रदर्शित करने वाला। इसी तर्क से ऋग्वेद में लिखित वाणी को सूर्या या सू्र्य की दुहिता कहा गया, परंतु उसमें उलझने का यह सही स्थान नहीं है। ङाँ  यह याद दिलाने का सही समय तो है ही कि जब हम दाढी-मूँछ आने के लिए मसें भींगने का मुहावरा प्रयोग में लाते हैं, तो मस के साथ मास/माह<> मस/मह= चंद्रमा की याद रहती है या नहीं। मह, मघ, मेह, मेघ और जल के संबंधों को समझने के लिए  जाहिर है, कुछ अध्ययन जरूरी हो सकता है।  मह का अर्थ जल है और जब आप किसी को महान कहते हैं तो उसे जलवान अर्थात् द्रव्यवान भी कहते हैं, इसका आप को पता न रहा  हो तो अब हो जाना चाहिए।

डार्क (dark)/ ब्लैक (black)/ ग्लूम (gloom)
यदि हम अंधकार के अंग्रेजी पर्यायों पर विचार करें तो वहां पर  भी वही  तर्क लागू होता दिखाई देगा। सं. द्र>द्रु>द्रप्स > ड्रा (draw), ड्राप(drop),  ड्रिंक (drink), ड्राइव (drive), के बीच के संबंधों को समझने का प्रयत्न करें, ब्लीक (bleak) >< ब्लीच (bleech) , ब्लैक (black)<ब्लैंक (blank), फ्लो (flow)/ब्लो (blow, - ब्लॉट blot, को और ग्लूम (gloom) को ग्लो (glow), ब्लूम (bloom) को ब्लो (blow)/फ्लो (flow), सैड (sad) को सैट- (satisfaction) से मिलाकर  समझें तो पता चलेगा यह तर्क भारतीय बोलियों से आरंभ हो कर यूरोप तक काम करता रहा।  
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[1] यह भाषा के में एक बहुत निर्णायक मोड़ को दर्शाता है। पहले यहाँ के लिए ई का,  समीप और निम्न के ईं/इत/इंत/इत्र का बीच और ऊपर के लिए ऊ/ऊँ/ऊत्र और दूरस्थ के लिए अ/आ/आँत/अत्र का प्रयोग होता था। इसकी हल्का आभास ऋग्वेद से और द्रविड़ मानी जाने वाली बोली कुऱुख में मिलता है। सं. भी इससे पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई। ऋ. में ईं/ईम् - भो. ई, हिं इ(-स/-धर), कु. इतरम्- यहाँ में, सं. इतःततः> इतस्ततः के इतः में  में इसे लक्ष्य किया जा सकता है।  होना इसे भी इतःअतः चाहिए था, जैसा कु. के अतरम् में अं के अदर में मिलता है।  परंतु  इस संक्रमण के कारण  ‘ई’ का स्थान ‘अ’ ने ले लिया। अ का स्थान कुछ समय के लिए ई ने ग्रहण किया( फा. इंतहा, इन्तकाल) फिर ‘त’ ने (सं. तत, ततः, अं. दैट that, there) में देखा जा सकता है। इत्र-अत्र अब अत्र-तत्र हो गया। अंत का भो. अन्ते, हि. सं. अन्त में ‘अ’ की दूरता बनी रही। वैदिक अन्त- निकट, अन्तेवासी आदि में निकटता का सूचक बन गया। 
[2] इस ऋचा को नासदीय सूक्त के संदर्भ में ही समझा जा सकता है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

शौर्यगाथा - सर्वश्रेष्ठ स्नाइपर - फिनलैंड का सिमो हयहा.

क्या कोई एक फौजी इतना तगड़ा योद्धा हो सकता है की वो अपने देश की आर्मी से हज़ारों गुना ताकतवर आर्मी को अकेले रोक सकता हो ?
इसका जवाब है हाँ !

एक हुआ है, फ़िनलैंड का फौजी सिमो हयहा ! हयहा दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा स्नाइपर हुआ है। उस से ज्यादा दुश्मन फौजी अकेले किसी ने नहीं मारे। उसके अलावा कोई फौजी ऐसा नहीं है जिसने पूरा साल अपने से हज़ारों गुना ताकतवर फौज को अकेले रोके रखा हो !

हयहा एक बर्फीले इलाके में 1905 में पैदा हुआ बच्चा था, जोकि टीनएज आते आते एक बेहतरीन शिकारी बन चुका था। उसके गाँव में ठण्ड इतनी ज्यादा पड़ती थी की उसमे आप और मैं सर्वाइव भी नहीं कर सकते हैं। एक छोटा सा घाव आपकी ज़िन्दगी ले सकता है वहाँ !

सिमो हयहा एक छोटी बोल्ट एक्शन राइफल से शिकार किया करता था, जो कि उस समय तक ऑउटडेटेड भी हो चुका था और 1928 में उसकी मैन्युफैक्चरिंग भी बंद हो गयी थी !

फ़िनलैंड एक छोटा सा देश है, इसलिए बाकियों की तरह सिमो हयहा को भी जरूरी मिलिट्री ट्रेनिंग लेनी पड़ी, जोकि उसके जैसे योद्धा को फिनेस्स देने में सहायक हुई। वह रेगुलरली आर्मी में भी स्कीइंग और शूटिंग के कम्पटीशन जीतता रहता था। उसके निशाने इतने तगड़े थे की वो एक मिनट में अलग अलग जगह खड़े 16 लोगों को जहां चाहता वहाँ गोली मार के ढेर कर सकता था ! वह एक तगड़ा रेसर भी था और उसने आर्मी में एथलेटिक्स में भी मैडल लिए हुए थे। 

फिर आया नवम्बर 30 1939, जब दुनिया की सबसे शक्तिशाली ताकत सोवियत यूनियन ने फ़िनलैंड पर हमला बोल दिया ! सिमो हयहा एक गाँव का लड़का था जिसे वर्ल्ड पॉलिटिक्स वगैरह के बारे में कुछ ख़ास नहीं पता था ना उसे इंटरेस्ट था। ना उसे स्टालिन के बारे में कुछ ख़ास नॉलेज थी, और ना ही सोवियत यूनियन की ताकत का कुछ ख़ास अंदाज़ा था। उसे बस एक आउटडेटेड बन्दूक चलानी आती थी जिसमे निशाना लगाने के लिए ऊपर लेंस भी नहीं हुआ करता था, लेकिन उससे वह बहुत बहुत ही ज्यादा अच्छे तरीके से चला सकता था।

उसने कोला रीजन में 34 वीं इन्फैंट्री रेजिमेंट ज्वाइन कर ली, जहां पर,  सोवियत हमला करने वाले थे ! सोवियत की आठवीं आर्मी पूरे इलाके को रौंदते हुए आ रही थी। उनके पास एक से बेहतर एक फौजी था, स्नाइपर थे, फ़िनलैंड की सेना से कई गुना बड़ी आर्मी थी। लेकिन उनके पास सिमो हयहा नहीं था। 

पूरे इलाके में बर्फ थी और जंगल था,
और उस साल बर्फ भी तगड़ी गिरी हुई थी, लगभग 2 मीटर गहरी, और टेम्परेचर माइनस 30 डिग्री पहुंचा हुआ था। सिमो हयहा ने मांगकर अपनी फेवरेट बन्दूक Finnish Mosin Nagant M28 ली। उसके अफसरों ने कहा की ये बन्दूक कचरा है, और 11 साल से इसकी प्रोडक्शन तक बंद है, यह छोटी भी है और भारी भी, आजकल तो मॉडर्न स्नाइपर राइफल्स का ज़माना है, बिना लेंस के दूर का शिकार तुम्हे दिखेगा ही नहीं निशाना लगाने के लिए। 
लेकिन सिमो हयहा अड़ा रहा की उसे तो यही बन्दूक चाहिए, और अंत में उसे वो बन्दूक दे दी गयी !

सिमो हयहा एक नेचुरल शिकारी था, उसको पता था की इतनी ठण्ड में हाथ काँप सकते हैं इसलिए बन्दूक का वजन स्नाइपर के हक़ में काम करेगा ! यह ऐसा ही था जैसे क्रिकेट में भारी बैट, जिसे चलाना आता है उसके लिए वरदान है, जिसे नहीं आता वो जल्द गेंद को निक करके चलता बनेगा !

सोवियत के पास टैंक थे, आदमी बहुत ज्यादा थे, आर्टिलरी थी, जबकि फ़िनलैंड  के पास कुछ नहीं था, या अभी तक उन्हें पता नहीं चला था की उनके पास क्या है !

सोवियत आर्मी आगे बढे जा रही थी,
सिमो हयहा ने अपने आपको भारी सफ़ेद स्नो सूट में बाँध लिया था, और स्नाइपर मास्क पहन लिया था,
और बर्फ में छुपकर लेट गया था एक जगह पर। उसने अपने अफसरों को बोल दिया था की वो अकेले काम करता है, इसलिए उसके इलाके में किसी और को अभी तैनात ना करे, क्यूंकि हो सकता है वो भी उसकी गोली का शिकार हो जाएगा। 

अफसरों को लगा की यह पागल है ससुरा,सोवियत इसको पहले ही दिन मार गिराएंगे, लेकिन उसकी बात मान ली गयी, क्यूंकि एक तो वो लोकल था, दूसरा उसके निशानों पर लोगों को विश्वास था वो मिलिट्री में कई मैडल जीत चुका था। 

सिमो हयहा के अनुसार एक स्नाइपर के लिए सबसे जरूरी  चीज़ है पेशेंस,
जोकि अच्छे निशाने से भी ज्यादा जरूरी है। एक स्नाइपर को यह मान के चलना चाहिए कि, दिन रात कोई गोली उसका इंतज़ार कर रही है, किसी पेड़ पर, किसी गड्ढ़े में, किसी पत्थर के पीछे,
इसलिए उसे अपनी इंस्टिंक्ट और पेशेंस पर हमेशा कायम रहना चाहिए। 

सिमो हयहा अपने साथ एक दिन का खाना रखता था, और 50 से 60 राउंड गोलियां, ,लक्यूंकि वो अपनी मोबिलिटी के साथ कोई कोम्प्रोमाईज़ नहीं करना चाहता था और ना ही दुश्मन के लिए कोई सुराग छोड़ना चाहता था, कि यहां सिमो हयहा आया था ! जब वह किशोरावस्था में शिकार किया करता था तो उसने अपने स्पॉट्स पहचान कर तय कर रखे थे, जहां पर वो बर्फ का किला बनाता था,  ताकि जानवर को अंदाजा ही ना हो सके कि, यहां कोई बैठा भी हुआ है। 

वह एक कपडे में बर्फ लपेट कर अपने मुंह में डाल लेता था, ताकि उसकी सांस किसी को दिखाई ना दे। बर्फीले इलाकों में सांस दूर से ही नजर आ जाती है। वह जहां बन्दूक रखता था, वहाँ बर्फ को अच्छे से सख्त कर  लेता था, ताकि एक तो बन्दूक न हिले, और दूसरा बर्फ भी ना हिल पाए, क्यूंकि हिलती हुई बर्फ दीखते ही दूसरी तरफ का जानवर सतर्क हो जाएगा। इस मामले में दूसरी तरफ के स्नाइपर सतर्क हो जाते उसकी सांस और बर्फ के हिलने से। 

सिमो हयहा 150 मीटर तक की दूरी तक 1 मिनट में 16 लोगों को ढेर कर सकता था, और हुआ भी वही। सोवियत आये और सिमो हयहा ने एक पूरी यूनिट मार गिराई ! सोवियत फौजी  इस से पहले की बन्दूक से निशाना भी कर पाते उनका मुंह आसमान देख रहा होता था। 
खबर सोवियत आर्मी तक भी पहुंची और फ़िनलैंड आर्मी तक भी। फ़िनलैंड आर्मी के अफसरों को यकीन नहीं हुआ की सिमो हयहा ने पूरी यूनिट उड़ा दी है सोवियत की। लेकिन सोवियत फ़ौज़ियों ने लाशें देख ली थी और उन्हें पता चल गया था की आगे यमराज उनका इंतज़ार कर रहा है। 

इस प्रकार ऐसी ही रणनीति से, सिमो हयहा ने कई सोवियत पोजीशन की पहचान की, और सभी ठिकानों को  लाशों से भर दिया। कई लाशें तो बर्फ में खड़ी ही रहीं। इतनी ठंड थी कि, कुछ तो, हाथ पाँव में घाव की वजह से ही मर गए। लेकिन ऐसे बहुत कम थे। ज्यादातर सिमो हयहा की गोली से ही मरे। सैकड़ों सोवियत फौजी बर्फ में मरे पड़े थे, क्रिसमस से पहले वाले दिन तो उसने एक ही बार में 25 सोवियत फौजी मार गिराए थे। 

सिमो हयहा ने बाद में बताया की स्नाइपर राइफल के लेंस रिफ्लेक्ट करते हैं और उसी से वे निशाने पर आते ही मारे गए। इसलिए उसकी आउटडेटेड राइफल के आगे, मॉडर्न स्नाइपर राइफल बेअसर थी। दूसरा मॉडर्न स्नाइपर राइफल में लेंस बन्दूक के ऊपर होता है जिस से इंसान का सर राइफल के ऊपर लाना पड़ता है, जबकि पुराने में लेंस था ही नहीं तो उसका सर बन्दूक के नीचे रहता था ! और क्यूंकि ज्यादातर लोगों की उस पुरानी राइफल से प्रैक्टिस नहीं थी, इसलिए उसके खिलाफ  उस समय कोई कम्पटीशन था ही नहीं। ना फिनलेंड की आर्मी में ना ही सोवियत आर्मी में ! वह उसका इलाका था और वह अपने इलाके का शेर था। 

सोवियतस को खबर मिली और ऊपर तक खबर पहुंची तो देश के सबसे बेहतरीन स्नाइपर भेजे गए उस पोजीशन पर। सिमो हयहा ने वो सारे ढेर कर दिए। 
अपनी फेवरेट बन्दूक के अलावा वो हैंड ग्रेनेड भी रखता था और एक सब मशीनगन भी उसके पास थी, जो पहले हिट के बाद उसे वह इस्तेमाल करता था।
इसके अलावा वह एक चाक़ू भी अपने पास शिकार के लिये रखता था। शेष फ़िनलैंड की फौज बहुत पीछे थी, जबकि सिमो हयहा सोवियत की फौजी पोसिशन्स पर अकेले ही मौत बरसाते घूम रहा था। 

सोवियत सेना ने धीरे धीरे उस इलाके में अपनी सेना कई गुना बढ़ा दी। सोवियत सेना की दुनिया मे तगड़ी बेइज़्ज़ती होती जा रही थी। किसी को समझ में नहीं आ रहा था की फ़िनलैंड जैसा मच्छर देश सोवियत आर्मी को कैसे रोक ले रहा है । 

जैसे ही सोवियत आर्मी को शक होता था की यहां पर सिमो हयहा  है वो उस डायरेक्शन में ही हैवी बॉम्बार्डमेंट कर दिया करते थे। लेकिन सिमो हयहा नहीं पकड़ा गया तो नहीं ही पकड़ा गया। वह सोवियत फौजियों को एक एक्सपर्ट शिकारी की तरह मारता रहा। 

सोवियत सेना ने अब अपने सबसे अच्छे कमांडो को सिमो हयहा का शिकार करने के लिए भेजा, जिसे बर्फ में लड़ने का बहुत अनुभव था। सिमो हयहा के अनुसार वह कमांडो सच में बहुत ही  टैलेंटेड था। उसने एक बार भी अपनी पोजीशन नहीं दी, लेकिन सिमो हयहा को पता था कि कोई आसपास है। इतना सन्नाटा किसी शिकारी के कारण ही हो सकता था। दोनों ही पूरा दिन एक दुसरे के इंतज़ार में पोजीशन लिए बर्फ में पड़े रहे।

उस स्नाइपर ने फ़िनलैंड के कई फौजी भी मार दिए थे। पहले वे अलग अलग जगह पोजीशन लेते लेते, लेकिन जैसे ही शाम हुई तो उस कमांडो ने एक गलती कर दी। उसने अपनी बन्दूक वापस मूव करने के लिए थोड़ी सी हिलाई और उसके लेंस से रिफ्लेक्शन आ गयी। बस वहीँ सिमो हयहा ने उसे ढेर कर दिया। सिमो हयहा ने बताया कि, उसने उस कमांडो के सम्मान में उसका चाकू उसके शरीर से ले लिया था। 

सोवियत फौज ने फिर बड़ी बड़ी आयरन शील्ड के साथ इलाके में आगे बढ़ने की स्ट्रेटेजी बनाई, लेकिन सिमो हयहा उन्हें छोटे छोटे गैप से मार देता था। अधिकतर, उस बटालियन के सैनिकों के घुटने में ही गोली मिली थी। 

इन सब कहानियों ने सिमो हयहा  को फिनलेंड और सोवियत दोनों जगह बहुत महशूर कर दिया था। फिनलेंड ने उन्हें ढेरों अवार्ड दिए। जबकि सोवियत सेना ने उसे "WhiteDeath" यानी सफ़ेद मौत का नाम दिया। सोवियत खेमे में उसे एक भूत माना जा रहा था जो हर जगह था और तरफ था। 

80 दिनों के बाद फिनलेंड ने सिमो हयहा को नेशनल हीरो डिक्लेअर कर दिया। 
और उसे कोला क्रॉस दिया जो हमारे परमवीर चक्र की तरह होता है। उसके लिए उस स्पेशल पुरानी गन की प्रोडक्शन शुरू कर दी गयी जिसका आउटडेटेड कह कर मज़ाक़ बनाया गया था। उसे एक कस्टम मेड गन जो विशेषकर उसी के लिये बनाई गयी थी, उपहार में दी गयी। 

यह युद्ध, फ़िनलैंड लगभग जीत चुका था , लेकिन तभी सोवियत के भाग्य से बर्फ कम होने लगी। एक दिन सोवियत आर्मी के हैवी फायर में एक गोली सिमो के  जबड़े पर लगी और वह बेहोश हो गया। लेकिन तब भी सिमो की पोजीशन तब भी सोवियत सेना को नहीं मिल सकी थी। फिनलैंड के सैनिकों ने चुपके से सिमो को हॉस्पिटल पहुंचाया लेकिन सिमो कॉमा में जा चुके थे। जब उन्हें वापस होश आया तो फ़िनलैंड और सोवियत में युद्ध विराम हो चुका था। 
सिमो हयहा ने अपने देश को गुलामी से बचा लिया था। 

सोवियत, फिनलैंड का केवल 25,000 वर्ग मील का  इलाका कब्ज़ा कर पाए थे। देश बच गया था लेकिन सिमो का घर अब सोवियत यूनियन का हिस्सा था। पूरे युद्ध मे लाखो सैनिकों को गंवाने के बाद सोवियत यूनियन को कुछ हज़ार वर्गमील ही ज़मीन मिली थी। यह सोवियत संघ की तब तक की सबसे बुरी हार मानी जाती है। और वह भी केवल एक जुझारू और बहादुर सिमो के हाथों। 
किसी ने कल्पना भी नहीं की थी  सकता कि फ़िनलैंड सोवियत सेना को रोक भी  सकता था। 

सिमो हयहा 2002 तक ज़िंदा रहे, और सोवियत संघ तथा रूस में भी एक बहादुर सैनिक की तरह सम्मान पाते रहे।  उन्हें आज तक का सर्वश्रेष्ठ स्नाइपर योद्धा माना जाता है, और शायद यह  सही भी है।

किशन रूमी
( Kishan Rumi )

Ghalib - Kyon bote ho tumbe / .क्यों बोते हो तुम्बे - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 116.
क्यों बोते हो तुम्बे,
गर बाग ग़द्दाये मय नहीं है !!

Kyun bote ho tumbe,
Gar baag gaddaye may nahin hai !!
- Ghalib

यदि उद्यान और बेल, शराब के भिखारी नही हैं तो, इन बागों और खेतों में तुम्बे क्यों बोए जाते !

तुम्बा एक गोल कद्दू होता है जिसके अंदर का गूदा निकाल कर उसे सुखा कर एक पात्र का रूप दिया जाता है। ग़ालिब का इशारा इसी पात्र की ओर है जो उनके लिये मय यानी मदिरा का चषक बन जाता है। यह तुम्बे भी मधुपात्र के रूप में मय के तलबगार हैं।

ग़ालिब का शेर, सुनने में थोड़ा मजाकिया भले ही लगे, पर यह भी उनके द्वारा कम शब्दों में अभिव्यक्त एक दर्शन है। ग़ालिब का जीवन दर्शन आनंदवाद पर आधारित है। हालांकि उनके जीवन मे बेहद दुःख भरे पल भी आये और उनका निजी जीवन कष्ट और अभाव से भरा रहा। कुछ तो अपनी बुरी आदतों के कारण तो कुछ अपने स्वाभिमान भरे स्वभाव के काऱण वे निरन्तर अर्थाभाव में भी रहे। पर इन सबके बावजूद ग़ालिब, अपने घर की टूटी और उखड़े पलस्तर की दीवारों के बीच उगे झाड़ झंखाड़ में भी वसंत यानी बहार की आमद ढूंढ लेते हैं।

ग़ालिब का आनंदवाद यानी आलमे मस्ती, दैहिक आनन्द के बजाय एक सूफियाना आत्मिक आनन्द के रुप मे उनकी शायरी और खतों में बिखरा पड़ा है। यह सूफीवाद का तसव्वफ है जो मन को बाह्य संसार से दूर हटा कर खुद में ही खुद की तलाश की ओर ले जाने की बात करता है। यही दर्शन, रहस्यवाद का है और सूफी परंपरा का भी है। यह दर्शन एकेश्वरवाद की पराकाष्ठा है और यही वेदांत का अद्वैतवाद है। फुटहि कुंभ, जल जलहिं समाना !

इस छोटे से शेर में वे उस तुम्बे को भी मदिरा जो यहां आनंद या ईश्वर के आशीष का प्रतीक है के रूप में देखते हैं और कहते हैं उक्त मस्ती या आनन्द के तलबगार या भिखारी या गदाई तो यह सारा उद्यान और बेलें हैं। सारी प्रकृति उस आनंद मदिरा, मय की खोज में है तभी तो प्रकृति ने यह तुम्बे जो एक प्रकृति प्रदत्त पात्र हैं, उपजाए हैं। इन्हें बोने वाले लोग भी प्रकृति के इस संदेश को समझते हैं तभी तो वे इसे बोते हैं।

( विजय शंकर सिंह )

Saturday, 26 December 2020

क्या 29 दिसंबर की सरकार - किसान वार्ता, फैक्ट्स और लॉजिक्स पर हो पाएगी ? / विजय शंकर सिंह

30 दिन के शांतिपूर्ण धरने और लगभग 35 किसानों की अकाल मृत्यु के बाद, सरकार ने किसानों से बातचीत शुरू करने के लिये किसानों को ही बातचीत का एजेंडा सुझाने के लिये एक पत्र लिखा इसके पहले सरकार के संयुक्त सचिव विवेक अग्रवाल द्वारा सरकार की तरफ से किसान संगठनों से नियमित पत्राचार किया जा रहा था। यह पत्र अब तक का अंतिम पत्राचार है । इस पत्र में सरकार ने बातचीत के मुद्दें किसानों से ही मांगे हैं कि वे किन विषयो पर सरकार से बात करना चाहते हैं। किसान संगठनो ने 26 दिसंबर को सायंकाल एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के यह बताया कि, सरकार के पत्र का उन्होंने उत्तर दे दिया है औऱ सरकार को अपना एजेंडा भी स्पष्ट कर दिया है ।किसान नेताओं ने सरकार के साथ बातचीत के लिए 29 दिसंबर को सुबह 11 बजे का वक्त तय किया है, और जगह के रूप में दिल्ली के विज्ञान भवन को चुना गया है। 

आंदोनकारी 40 किसान संगठनों के मुख्य संगठन संयुक्त किसान मोर्चा की एक बैठक में यह फैसला किया गया और किसान नेताओं की तरफ से प्रेस कॉन्फ्रेंस में इसकी घोषणा की गयी।सरकार ने किसानों से बातचीत की अपील करते हुए उन्हें अपनी पसंद की जगह और भी तय करने के लिये उक्त पत्र में कहा था।कृषि कानूनों के खिलाफ पिछले एक महीने से दिल्ली की अलग-अलग सीमा पर हजारों किसान आंदोलन कर रहे हैं और धरने पर बैठे हैं। किसान नेताओं की इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्वराज्य अभियान के योगेंद्र योदव ने बताया, कि, 'हम केंद्र सरकार के साथ 29 दिसंबर को सुबह 11 बजे एक और दौर की बातचीत का प्रस्ताव रखते हैं।' योगेंद्र यादव के ट्वीट कर के चार विन्दुओ का एक एजेंडा भी दिया है। एजेंडे के विंदु इस प्रकार हैं।
● तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने के लिए अपनाए जाने वाली क्रियाविधि 
● एमएसपी की कानूनी गारंटी की प्रक्रिया 
● पराली जुर्माना से किसानों को मुक्ति 
● बिजली कानून के मसौदे में बदलाव। 

यह पहली बातचीत नही है बल्कि यह रुकी हुयी बातचीत का अगला कदम है। छह दौर की बातचीत सरकार और किसानों के बीच हो चुकी है, जिंसमे सरकार की ओर से कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और रेल मंत्री पीयूष गोयल भाग ले चुके हैं। एक दौर की बातचीत में अमित शाह गृहमंत्री भी शामिल हो चुके हैं। सरकार कुछ संशोधनों के लिये राजी होने की बात कह रही है पर किसान संगठन हर हालत में इन कानूनों को रद्द करने और एक राष्ट्रीय किसान आयोग बना कर कृषि से जुड़ी समस्याओं पर विन्दुवार विचार चाहते हैं। अब आगे होता क्या है यह तो 29 दिसंबर को ही पता चल सकेगा। 

किसानों ने कृषि बिल को समझा है या नही, या कितना समझा है यह तो मैं नहीं बता पाऊंगा, पर एक बात तय है कि किसानों ने कृषि कानून बनाने वालों के इरादे और नीयत को ज़रूर समझ लिया है। कृषि कानून बनाने वालों का इरादा 2014 से ही एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था बनाने का है जिंसमे सब कुछ, सारी सम्पदा कुछ चुनिंदा लोगो के ही हांथो में केन्दित हो और पूरा समाज बस दो ही खेमे में बंट जाय। एक के पास सब कुछ हो और दूसरे के पास बस उतना ही बचे, जितना की सांस लेने की रिवायत निभाई जा सके। जनता जब सत्ता के इरादे को समझ लेती है तो लड़ाई दिलचस्प हो जाती है। 

बात बहुत सीधी है। 
किसान को उपज का उचित मूल्य मिलना चाहिए या नहीं। 
इस सवाल के उत्तर पर सब राजी होंगे, कि किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिलना चाहिए। 

अब उचित मूल्य क्या होगा ? 
उचित मूल्य को ही तय करने के लिये सरकार ने एपीएमसी कानून बनाया है और एक फॉर्मूले के अनुसार, फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार तय और घोषित करती है और फिर उसी मूल्य पर सरकार फसल खरीदती है। 

क्या सभी किसानों को सरकार द्वारा घोषित एमएसपी की कीमत मिल रही है ? 
नहीं। केवल 6% को मिल रही है। 
यह कहना है शांता कुमार कमेटी का। 

सभी किसानों को उनके फसल की उचित कीमत क्यों नहीं मिल रही है ? 
क्योंकि मंडी का विस्तार हर जगह नहीं है और किसान निजी व्यापारियों को अपनी उपज बेचने के लिये मजबूर हैं क्योंकि सरकार सब खरीद नहीं पा रही है। 

अब यह कहा जा रहा है कि, सरकार अपने सिस्टम की कमी के कारण किसानों की पूरी उपज खरीद नहीं पा रही है तो सरकार ने यह तय किया कि, किसी भी पैन कार्ड धारक को यह अधिकार दे दिया गया कि, वह किसानों की उपज, एक समानांतर मंडी बना कर खरीद सकता है। लेकिन निजी क्षेत्र की यह समानांतर मंडियां, टैक्स फ्री रहेंगी, जबकि सरकार अपनी मंडी पर टैक्स लेती रहेगी। 

जब निजी मंडियों को यह अधिकार सरकार दे रही है कि, वह अपनी मंडी बना कर फसल खरीद सकती है तो, यह बाध्यता उन निजी मंडी वालों पर क्यों नहीं डाल देती कि फसल की खरीद सरकार द्वारा तय किये गए एमएसपी से कम कीमत पर नहीं होगी ?
इससे कम से कम, किसान इस बात पर तो निश्चिंत हो जाएंगे कि उन्हें कम से कम फसल का न्यूनतम मूल्य तो मिल ही जाएगा, चाहे फसल सरकार खरीदे या निजी कॉरपोरेट। आखिर सरकार, खुद तो न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उपज खरीदती ही है। फिर मनमाना दाम तय करने की कृपा, अधिकार और विकल्प सरकार निजी क्षेत्र को क्यों उपलब्ध करा रही है ? इससे किसानों को क्या लाभ होगा ? क्या निजी क्षेत्र, किसानों के हित मे फसल की कीमतें तय करेंगे या अपने व्यापारिक लाभ के हित मे ? इसका सीधा उत्तर होगा कि पूंजीपति पहले अपना लाभ देखेगा। लोककल्याणकारी राज्य के लिये सरकार प्रतिबद्ध है न कि पूंजीपति। 

आखिर जब सरकार खुद ही एमएसपी पर खरीद कर रही है तो निजी क्षेत्र को भी एमएसपी पर खरीद करने से सरकार क्यों नहीं कानूनन बाध्य कर सकती है ? 
इस मुद्दे पर सरकार किसानों के पक्ष में क्यों नहीं खड़ी दिख रही है और क्यों सरकार पूरी निर्लज्जता के साथ चहेते पूंजीपतियों के पक्ष में दिख रही है ? 
क्या यह सवाल आप के दिमाग मे नहीं उठता है ? 

अब सवाल उठता है कि क्या तय किया गया न्यूनतम मूल्य पर्याप्त है या नहीं। इस पर किसान संगठन और कृषि अर्थविशेषज्ञों से सरकार बात कर सकती है। बातचीत स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट और उसके फॉर्मूले पर हो सकती है । पर फिलहाल किसानों को उतना मूल्य तो मिले ही, जितना सरकार ने खुद ही एमएसपी के रूप में तय किया है। 

मेरा मानना है कि 
● एमएसपी और सरकारी खरीद, व्यापक तौर पर हो रहे निजीकरण की ओर बढ़ता हुआ एक कदम है। 

● अधिक नहीं बस तीन चार साल में ही कृषि उत्पादों की खरीद सरकार कम करते करते बंद कर देगी। 

● एमएसपी ज़रूर धूम धड़ाके से हर साल घोषित होगी, पर वह किसानों को मिलेगी या नहीं, इसकी कोई गारंटी सरकार नहीं देने जा रही है। वह इस मामले में कोई भी दबाव या कानून बना कर कॉरपोरेट को बांधने नहीं जा रही है। 

● हालांकि यह बात सरकार बार बार कह रही है कि वह एमएसपी मिले यह सुनिश्चित करेगी। पर सरकार यह सुनिश्चित कैसे कर पायेगी, यह सरकार को भी पता नहीं है।

● किसी एमएसपी जैसे बाध्यकारी प्राविधान के अभाव में, सरकारी मंडी के समानांतर खड़ी कॉरपोरेट मंडी व्यवस्था,  फसलों की कीमत खुद ही बाजार के सिद्धांत से तय करेगा। बाजार में जिसका वर्चस्व होगा वह कीमत तय करेगा और कीमतों को नियंत्रित भी करेगा। किसान यहां न तो एकजुट हो पायेगा और न ही वह अपने पक्ष में कोई सौदेबाजी कर पायेगा। सरकार तो साथ छोड़ ही चुकी है। अब बस जो उसे कॉरपोरेट या निजी क्षेत्र दाम थमा देंगे, उसे लेकर वह घर लौट जाएगा और इसे अपनी नियति समझ कर स्वीकार कर लेगा। 

● एमएसपी पर फसल खरीदने की कोई कानूनन बाध्यता निजी क्षेत्र पर नही होगी। अतः निजी क्षेत्र पर कोई कानूनी दबाव भी नहीं रहेगा। रहा सवाल नैतिक दबाव का तो, दुनिया मे फ्री लंच नहीं होता जैसे मुहावरे कहने वाले कॉरपोरेट, इन सब नैतिक झंझटों से मुक्त रहते है, यह सब टोटके आम जन के लिये हैं। 

● जब कभी किसानों का दबाव पड़े या चुनाव का समय नज़दीक आये तो, हो सकता है तब, सरकार, निजी क्षेत्र से एमएसपी पर खरीद करने के लिये कोई अपील भी जारी कर दे। पर यह सब महज औपचारिकता ही होगी। निजी क्षेत्र का दबाव ग्रुप सदैव सरकार और संसद पर मज़बूत रहता है और इसका कारण इलेक्टोरल बांड और चुनावी चंदे हैं। 

● अब नये कृषि कानून में जमाखोरी को वैधानिक स्वरूप मिल गया है तो, जो जितना बड़ा पूंजीपति होगा, वह उतनी ही अधिक जमाखोरी करेगा और बाजार को अपनी उंगली पर नचायेगा। 

● खेती किसानी करने वाला किसान अपने घर परिवार के लिये तो ज़रूरी अनाज और खाद्यान्न रख लेंगे पर सबसे अधिक नुकसान उनका होगा जो बाजार से अनाज खरीद कर खाते हैं। क्योंकि अनाज की कीमतों पर कोई नियंत्रण सरकार का नहीं रहेगा क्योंकि वे अब आवश्यक वस्तु नहीं रह गयी हैं।

यह खतरा यहीं नहीं थमेगा बल्कि इसका असर देश की कृषि आर्थिकी और कृषि से जुड़ी ग्रामीण संस्कृति पर पड़ेगा। सरकार को फिलहाल तीनो कृषिकानून रद्द करके एक किसान आयोग जिसमे किसान संगठन और कृषि विशेषज्ञों की एक टीम हो, गठित कर के एक व्यापक कृषि सुधार कार्यक्रम के लिये आगे बढ़ना चाहिए। 

प्रधानमंत्री कहते हैं कि किसान कानूनो पर बात फैक्ट्स और लोजिक्स पर बात होनी चाहिये। बात सही है। पर नोटबन्दी से लेकर, आज तक जितने भी कानून बने वे अफरातफरी में ही पारित किए गए और उन्हें सेलेक्ट कमेटी को भी नही भेजा गया जहां कि कानूनो की फैक्ट्स और लोजिक्स पर ही बात होती है और मीनमेख देखा जाता है। जो कुछ कमियां होती हैं उन्हें दूर किया जाता है। 

यह तीनों कानून भी संसद से पारित कराने के पहले सेलेक्ट कमेटी को भेजे जाने चाहिए थे, पर उसे से हरिवंश जी ने सत्यनारायण बाबा की कथा की तरह पढ़ते हुए ध्वनिमत से पारित घोषित कर दिया। जैसे लगता था कि यही बयाना लेकर वह उस दिन सदन में आये थे। बात तो उस दिन ही फैक्ट्स और लोजिक्स पर होनी चाहिए थी। यह कहा जा सकता है कि सदन में हंगामा हो गया। तब दूसरे दिन सदन इसे बहस के लिये रख सकता था। लेकिन जब रविवार को सदन बैठे और यह संकल्प कर के उप सभापति बैठे कि 1 बजे तक यह काम निपटा ही देना है तो बहस की गुंजाइश तो स्वतः खत्म हो जाती है। इस जल्दीबाजी से तो यही लगता है कि आज ही कानून पारित कराने का किसी से वादा किया गया था, और उसे पूरा कर दिया गया। 

इस जन आंदोलन को लेकर सरकार समर्थक मित्रों और भाजपा का दृष्टिकोण बेहद अलोकतांत्रिक रहा। जन आंदोलन कोई भी हो, किसी भी मुद्दे पर हो, यदि वह शांतिपूर्ण तरह से हो रहा है तो उस आंदोलन का संज्ञान लेना चाहिए, उसकी तह में जाना चाहिए न कि आंदोलन में शामिल जनता को विभाजनकारी आरोपो से लांछित करना चाहिए। ऐसा नही है कि यह देश का पहला या आखिरी जन आंदोलन है, बल्कि दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में आंदोलन होते रहे हैं और भारत मे भी यह अनजाना दृश्य नही है । पर किसी भी जनांदोलन के विरुद्ध इस प्रकार का शत्रुतापूर्ण आलोचना का भाव लोकतंत्र की सारी मर्यादाओं और मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है। 
सरकार ने खुद भी इस आंदोलन को हतोत्साहित करने का प्रयास किया। पहले पुलिस के बल पर रोकने की कोशिश की फिर अपने आइटीसेल के बल पर दुष्प्रचार की फिर विपक्ष पर किसानों को भड़काने और बरगलाने का इल्जाम लगा कर, फिर विदेशी फंडिंग से प्रायोजित आंदोलन बता कर, फिर चहेती मीडिया के बल पर मिथ्या खबरों को प्रसारित कर के। पर आंदोलनकारियों के मनोबल, उत्साह, रणनीति, जनता के सहयोग, सोशल मीडिया द्वारा मिल रही सच्ची खबरों के कारण सरकार अपने मिशन में सफल नहीं हो पायी। हालांकि सरकार इसी बीच बातचीत का सिलसिला बनाये भी रही, पर सजग, सचेत और जागरूक किसान संगठन भी सरकार के झांसे में नहीं आये और वे यह बात समझ गए कि यह तीनों कृषि कानून, किसानमार कानून हैं। 

सरकार का कहना है कि यह कृषि कानून किसानों के हित मे हैं। किसान कह रहे हैं कि इससे वे बर्बाद हो जाएंगे। अब सरकार उन कानूनो को रद्द करे और फैक्ट्स और लोजिक्स पर किसानों को समझाये और यह सब पारदर्शी तरीके से हो न कि गुपचुप तऱीके से इसे लैटरल इंट्री वाले फर्जी आईएएस ड्राफ्ट कर के रख दें और सरकार यह ढिंढोरा पीट दे कि यह कृषि सुधार का एक क्रांतिकारी कदम है। 

यह खुशी की बात है कि प्रधानमंत्री जी को कम से कम यह एहसास तो हो गया कि कानूनो पर फैक्ट्स और लोजिक्स के अनुसार बहस होनी चाहिए। लेकिन यह बहस कानून पारित होने के पहले होनी चाहिए न कि कानून बन जाने के बाद, जब पूंजीपति बोरा, ट्रक, साइलो आदि का जुगाड़ कर लें और जब दिल्ली घिर जाय, 40 किसान ठंड से धरनास्थल पर दिवंगत हो जांय, तो सरकार कहे कि, आओ अब बात करें, फैक्ट्स और लोजिक्स पर !

( विजय शंकर सिंह )