Tuesday, 28 April 2020

संकल्पपत्र 2014 - तुम्हे याद हो कि न याद हो./ विजय शंकर सिंह

इस लॉक डाउन में घरों में बैठे बैठे अगर बोर हो रहे हों तो मैं आप को स्वर्णयुग के स्वप्न का दस्तावेज जिसे भाजपा के मित्र संकल्पपत्र कहते हैं और शेष लोग, चुनावी घोषणापत्र, को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। देखिये, पढिये और गुनिये कि उन संकल्पों में कितने पूरे हुए और अब कितने शेष हैं। जो पूरे हो गए हों उनके लिये सरकार का आभार व्यक्त कीजिये और जो अब तक छुए न जा सके हों, उसके लिए सरकार को याद दिलाइये। अब मुख्य मुख्य संकल्प पढ़ लें।

1. मूल्‍य वृद्धि रोकने का प्रयास : 
● कालाबाज़ारी और जमाखोरी के मामलों के लिए विशेष अदालतें बनाई जाऐंगी, जिसके माध्‍यम से मूल्‍य वृद्धि को कम करने का प्रयास किया जाएगा। 
● राष्‍ट्रीय स्‍तर का कृषि बाज़ार निर्मित किया जाएगा। मूल्‍यवृद्धि को रोकने के लिए विशेष फंड्स के माध्‍यम से लोकसहायतार्थ कार्य किए जाऐंगे।

2. केंद्र और राज्‍य सरकारों के मध्‍य संबंधों का विकास : 
सरकार की योजनाओं को अधिक प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए केंद्र और राज्‍य सरकारों में उचित समन्‍व्‍यय स्‍थापित करने का प्रयास।

3. शासकीय तंत्र का विकेंद्रीकरण : 
शासकीय क्षेत्रों में पीपीपीपी यानि पीपुल पब्‍लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल के आधार पर सार्वजनिक क्षेत्रों में आम जनता का क्षेत्राधिकार निश्‍चित करना।

4. ई-गर्वनेंस : 
● देश के दूरस्‍थ क्षेत्रों तक ब्रॉडबैंड कनेक्‍शन की पहुँच और आईटी क्षेत्र में रोजगार के अवसर पैदा करना। 
● ''ई-ग्राम, विश्‍व ग्राम'' योजना के माध्‍यम से समस्‍त शासकीय कार्यालयों को इंटरनेट से जोड़ना।

5. न्‍याय-व्‍यवस्‍था का सशक्‍तीकरण : 
● न्‍याय-व्‍यवस्‍था के सभी स्‍तरों में फास्‍ट ट्रेक कोर्ट स्‍थापित करना।
● न्‍यायालयों में नए न्‍यायाधीशों की बहाली कर न्‍याय-व्‍यवस्‍था की गति को तीव्र करना। 
● वैकल्‍पिक न्‍याय व्‍यवस्‍था जैसे समझौता केंद्र, लोक अदालत आदि को सुव्‍यवस्‍थि‍त करना।

6. अमीर-गरीब के मध्‍य अंतर को कम करना : 
● देश में 100 सर्वाधिक गरीब जिलों की पहचान कर वहाँ के लोगों के एकीकृत विकास के लिए कार्य करना। 
● निर्धन क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों की पहचान कर स्‍थानीय लोगों को रोजगार के अवसर मुहैया कराना।

7. शिक्षा के स्‍तर का विकास : 
●''सर्व शिक्षा अभियान'' को सशक्‍त करना।
● ई-लाइब्रेरियों की स्‍थापना करना। 
● युवाओं के लिए 'अर्न व्‍हाइल लर्न' पर आधारित कार्यक्रमों को जमीनी स्‍तर पर कार्यन्‍वियत करना।

8. कौशल विकास : 
देश के लोगों के कौशल की पहचान कर उन्‍हें कौशल के विकास का कार्य करना और ''नेशनल मल्‍टी स्‍किल मिशन'' के तहत रोजगार के अवसरों को बढ़ाना।

9. कर नीति : 
● हितकर और उपयुक्‍त कर नीति स्‍थापित करना। 
● करों के संचित शासकीय धनराशि का उपयोग सूचना तकनीकी हेतु सर्वाधिक करना।

10. जल संसाधनों का संवर्धन : 
● आगामी समय में जल के संसाधनों का अधिकाधिक संवर्धन और सरंक्षण। 
● ''प्रधानमंत्री ग्राम सिंचाई योजना'' के माध्‍यम से सभी खेतों को पानी पहुँचाने की व्‍यवस्‍था करना। 
● पीने के जल को हर घर तक पहुँचाने की व्‍यवस्‍था करना।

11. बेहतर स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं उपलब्‍ध कराना : 
● प्रत्‍येक नागरिक के लिए उचित स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं मुहैया कराना। 
● हर सूबे में 'एम्‍स' स्‍थापित करना। 
● आयुर्वेदिक चिकित्‍सा का विकास करना।

12. सांस्‍कृतिक विरासत : 
बीजेपी राम मंदिर निर्माण और राम सेतु के सरंक्षण के साथ गंगा की सफाई, ऐतिहासिक इमारतों व प्राचीन भाषाओं के संरक्षण के लिए भी कार्य करेगी।

13. कालाधन और भ्रष्टाचार : 
● भाजपा की सरकार आने पर भ्रष्टाचार की गुंजाइश न्यूनतम करके ऐसी स्थिति पैदा की जाएगी कि कालाधन पैदा ही न होने पाए। 
● आने वाली भाजपा सरकार विदेशी बैंकों और समुद्र पार के खातों में जमा कालेधन का पता लगाने और उसे वापस लाने के लिए हरसंभव प्रयास करेगी। 
● कालेधन को वापस भारत लाने के कार्य को प्राथमिकता के आधार पर किया जाएगा।

जब यह वादे टेन कमांडमेंट्स या दस समादेशो की तरह 2014 के स्वप्निल माहौल में, उम्मीद की न जाने कितनी सतरें जगा रहे थे और टीवी की स्क्रीन 'अच्छे दिन आने वाले हैं' के मनमोहक और कर्णप्रिय विज्ञापनों से गुलज़ार हो रही थी तो, लग रहा था कि, कोई सरकार नहीं बनने जा रही है, बल्कि एक अवतार का आगमन हो रहा है, जो अब  सबकुछ बदल कर रख देगा। तब देश का माहौल ही कुछ अजब गजब हो चला था। 

तब के संकल्पपत्र 2014 को, फिर से पढिये। वक़्त के उसी दौर में खुद को ले जाकर आत्ममंथन कीजिए कि इतने सुनहरे और खूबसूरत वादों पर सवार होकर आने वाली सरकार ने, आज देश को किस स्थिति में पहुंचा दिया है। 100 स्मार्ट सिटी, 2 करोड़ लोगों को प्रतिवर्ष रोजगार, उद्योगों का संजाल, और भी न जाने क्या क्या यह सब कहाँ खो गए। अब तो इनकी चर्चा भी कोई नहीं करता है । वे भी नहीं जो इन वादों को मास्टरस्ट्रोक और गेम चेंजर मान रहे थे। इन वादों को तो, सरकार अपने कार्यकाल के पहले ही साल भूल गयी और इन वादों को  फिर कोई याद न दिलाये, तो कह दिया गया कि चुनावों के दौरान ऐसी वैसी बातें कह दी जातीं ही हैं। यह सब जुमले होते हैं। मतलब छोड़िये इन्हें। इन पर खाक डालिये ! 

यह बयान भी गैर जिम्मेदारी भरा है कि, छोड़ो यार, चुनाव में तो यह सब, नेता लोग अलाय बलाय बोल ही देते हैं। बिल्कुल उन्माद के अतिरेक में किये गए वादों की तरह। ज़रा सोचिएगा, कितने बड़े और स्थापित टीवी चैनल हैं, जिन्होंने संकल्पपत्र के इन वादों पर अपना कार्यक्रम कभी चलाया है या जो, अब भी कोई डिबेट चलाने का साहस कर सकते हैं और सरकार के प्रवक्ता से यह जवाबतलबी कर सकते हैं कि आखिर इन वादों के बारे में सरकार ने अब तक किया क्या है ? क्या एक बार भी इन वादों पर कोई कार्यक्रम किसी किसी टीवी शो में हुआ है ? 

यह हौलनाक कोरोना तो अब आया है। पर यह वादे तो, 2014 के हैं। सरकार के एक पूरे कार्यकाल ( 2014 - 19 ) में इन वादों पर कुछ हुआ भी हो तो खोजिए और बताइये । कुछ तो सरकार भी बता ही सकती है कि उसने इस संकल्पपत्र मे किये गए संकल्पों के संबंध में क्या क्या किया है। पर सरकार ने आज तक इनपर कुछ बताया हो, यह मुझे याद नहीं आ रहा है। न तो अपने किये वादी के संबंध में सरकार ने बताया और न ही टीवी चैनलों ने सरकार से ही कुछ पूछा, बल्कि वे, यह सब पूछने के बजाय रावण की गुफा, स्वर्ग की सीढ़ी और पाकिस्तान की खबरों में ही अधिक डूबे रहे।  यहीं यह बात निकल कर आती है कि, ये टीवी चैनल खाते हमारा हैं और बातें पाकिस्तान की करते हैं ! 

खाने से मेरा तात्पर्य, हमारे ही करों के पैसे से विज्ञापन और हमारी ही टीआरपी के दम पर कॉरपोरेट से प्रचार पाना है।  पर हमारी मूल समस्याओं और हमारे जीवन से जुड़े मुद्दों पर देश का गोदी मीडिया खामोश हो जाता है। हमारे ही पैसे से पाकिस्तान का बाजार भाव ये टीवी चैनल बताते हैं और पाकिस्तान की आईएसआई, जिसका एक बहुत पुराना एजेंडा है, भारत मे साम्प्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा दिया जाय, को पूरा करने का जाने या अनजाने यह सब एक माध्यम बन जाते हैं। याद कीजिए देश की किस ज्वलंत समस्या पर गोदी मीडिया ने सवाल उठाया है और बहस की है। आप शायद ही गिन पाएंगे। और जो कुछ आप गिन भी पाएंगे वे वही होंगे जिनसे साम्प्रदायिकता का एजेंडा सधता हो या सामाजिक विद्वेष फैलता हो। बल्कि जनता अपने अधिकारों और समस्याओं के लिए अगर खड़ी भी हुयी तो उस जागरूकता को हतोत्साहित करने का ही काम इस इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने किया है।  

लेकिन तमाम अंधकार के बीच प्रकाश की एक रेख तो होती ही है। ऐसे ही एक आलोक रेख की तरह सोशल मीडिया सामने आया । जब परंपरागत मिडिया रेंगने लगा तो हर आदमी पत्रकार बन गया और दूर दराज से आती हुई खबरें सबकी हथेली में पड़े मोबाइल पर आने लगी। आज स्थिति यह है कि परंपरागत मीडिया अपनी प्रासंगिकता खो रहा है। अखबार ज़रूर अपनी आदत बनाये हुए हैं, पर नेट पर वे भी सुलभ हैं तो कागज़ों के अखबार भी दुबले होने लगे हैं। यह एक नया वर्ल्ड आर्डर है। 

पर 2014 के बाद एक और नयी प्रवित्ति विकसित हुयी है कि, सरकार के खिलाफ बोलना, सरकार से सवाल पूछना, सरकार को याद दिलाना, सरकार के कृत्यों के सम्बंध में प्रमाण मांगना यह सब हेय, पाप और देशद्रोह समझा जाने लगा है। इस संस्कृति ने एक ऐसे समाज का विकास किया जो स्वभावतः चाटुकार और मानसिक रूप से दास बनने लगा। सत्ता को तो ऐसा ही समाज रास आता है। सत्ता को नचिकेता, कभी पसंद नहीं आता है।  सत्ता को प्रखर, विवेक, संदेह करने और प्रमाण मांगने वाला समाज भी रास नहीं आता है। उसे भेड़ में परिवर्तित आज्ञापालक समाज ही रास आता है। 

और ऐसा तब होता है जब जनता यह भूल बैठती है कि आखिर उसने किसी को चुना क्यों है ? किस उम्मीद पर चुना है ? किन वादों पर सत्ता सौंपी है ? उन उम्मीदों का क्या हुआ ? उन वादों का क्या हुआ ? और अगर कुछ हुआ नहीं तो फिर हुआ क्यों नही ? इसके लिये जिम्मेदार कौन है ? और जो जिम्मेदार है उसे क्यों नहीं दण्डित किया गया ? यह सारे सवाल लोकतंत्र को जीवित रखते हैं और सत्ता को असहज। प्रश्न का अंकुश ही सत्ता के मदांध गजराज को नियंत्रित रख सकता है। 

विवेकवान, जाग्रत, अपने अधिकारों के लिये सजग और सतर्क रहने वाली जनता से अधिकार सम्पन्न  सत्ता भी असहज रहती है। वह डरती रहती है। हम सरकार को कुछ उद्देश्यों के लिये उनके द्वारा किये गए वायदों को पूरा करने के लिये चुनते हैं न कि राज करने के लिये अवतार की अवधारणा करते हैं। सरकार हमारे लिये और हमारे दम पर है न कि हम सरकार की मर्ज़ी पर निर्भर है। संकल्पपत्र 2014 पढिये और इस लॉक डाउन के एकांत में सोचिए कि हमने सरकार से उसके वादों और नीतियों के बारे में क्यों सवाल उठाना छोड़ दिया। और हमारी इस चुप्पी का परिणाम अंततः भोगना किसे है। 

( विजय शंकर सिंह )

Monday, 27 April 2020

अर्नब गोस्वामी से पूछताछ. / विजय शंकर सिंह

अर्नब गोस्वामी से मुंबई के एनएम जोशी रोड पुलिस स्टेशन में पूछताछ चल रही है। खबर है यह पूछताछ 7, 8 घन्टे से चल रही है। 

किसी भी मुल्जिम की पूछताछ कितने समय मे पूरी हो, किन किन विन्दुओं पर हो, कब हो, कौन कौन से दस्तावेज मांगे जाय, यह केवल उस मुकदमे का विवेचक आईओ ही तय करता है, इसमे किसी भी अदालत का कोई दखल नहीं है, और न कोई अदालत दखल देती है, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी। अदालत ने खुद ही मुल्ज़िम को तफतीश में सहयोग देने के लिये कहा है। अर्नब का सहयोग यही है कि पुलिस जब भी उन्हें बुलाये वह विवेचक के समक्ष हाज़िर हो जांय, और जो सवाल पूछे जांय उनका उत्तर दें। न दे सकें तो वह भी बता दें। 

मुक़दमे की विवेचना के दौरान, किसी भी मुल्जिम से पूछताछ एक विवेचक भी कर सकता है और कई पुलिस अफसरों की एक टीम भी कर सकती है, यह मुक़दमे की जटिलता और मुल्ज़िम की गंभीरता पर निर्भर करता है। अलग अलग अफसर भी पूछताछ कर सकते है और सामूहिक रूप से भी पूरी टीम मुल्ज़िम से पूछताछ कर सकती है। घटनास्थल का निरीक्षण भी मुल्ज़िम के साथ किया जा सकता है। जैसे अर्नब पर हुए हमले का घटनास्थल है। 

अर्नब गोस्वामी पर आईपीसी की धाराओं 153, 505, 469, 471, 499, 500, 120 बी तथा और आपदा प्रबंधन की धारा 51, 52 और 66 ए आईटी एक्ट के अंतर्गत मुकदमा दर्ज है। हर अपराध के बारे में अलग अलग पूछताछ होगी और यह हो भी रहा होगा। अर्नब ने भी अपने ऊपर हमले का मुकदमा दर्ज कराया है। 

पूछताछ की कोई समय सीमा तय नही होती है औऱ न ही कोई तय सवाल होता है। सवालों से ही सवाल निकलते हैं। यह सिलसिला लंबे समय तक जब तक विवेचक चाहे चल सकता है। बस उसे रोज रोज का विवरण दर्ज करना पड़ेगा जिसे केस डायरी कहते हैं, और एक ही सवाल लगातार नहीं पूछे जा सकते हैं। पूछताछ के इस काम मे कोई भी कोर्ट दखल नहीं दे सकती क्योंकि अर्नब न तो  गिरफ्तार हैं और न ही किसी रिमांड पर। यहां तक की सुप्रीम कोर्ट भी नहीं।

साम्प्रदायिकता फैलाने वाले आरोपों के बारे में अर्नब के कार्यक्रम में प्रसारित वीडियो के आधार पर पूछताछ होगी। पुलिस ऐसे मामलों में सख्ती से नहीं पेश आती है और न उसे आना चाहिए। यहां अर्नब से कुछ उगलवाना नहीं है बल्कि जो कार्यक्रम वह चला चुके हैं औऱ जो बात वह कह चुके हैं उसी की पुष्टि औऱ उसी के आधार पर उनकी नीयत या दुराशय पुलिस को प्रमाणित करना है। पानी, चाय नाश्ता आदि पुलिस कराती भी रहेगी औऱ सवाल भी पूछते रहेंगे। ऐसा मुलजिम पर मानसिक दबाव के लिये किया जाता है। 

साम्प्रदायिक उन्माद जानबूझकर फैलाने का आरोप सिद्ध करना आसान नहीं होता है। अर्नब के कार्यक्रम को गंभीरता से देखना होगा और फिर यह विवेचक की मनःस्थिति पर निर्भर करता है कि वह प्रोग्राम के विषय चयन, प्रासंगिकता, उनके द्वारा कही गयी बातें, और अगर तथ्यों में कोई गलती है उसे कैसे वह अपने लक्ष्य की ओर मोड़ता है। दरअसल अब तक तो कभी ऐसा हुआ नहीं कि ऐसे मामले में किसी एंकर या पत्रकार से इस तरह के मुकदमे के दौरान पूछताछ हुयी हो। ऐसे मामलों को तो, अमूमन सरकार भी नजरअंदाज कर देती थी। पर अब यह अब पहला उदाहरण है, तो देखना हैं कि किस अंजाम तक यह तफतीश पहुंचती है। 

अर्नब गोस्वामी यह कह सकते हैं कि उनका इरादा साम्प्रदायिकता फैलाने का नहीं था। वह यह कहेँगे भी। वे पुलिस को उत्तेजित करने का भी प्रयास करेगे कि कह सके कि उन्हे जानबूझकर प्रताड़ित किया जा रहा है। लेकिन, होशियार पुलिस अफसर बेहद ठंडे दिमाग से सवाल दर सवाल पूछता जाएगा। एक दो दिन के बाद फिर बुला लेगा। 

यह मुकदमा जैसा कि मीडिया से पता चल रहा है वह साम्प्रदायिकता फैलाने, कोरोना आपदा के समय अनावश्यक विवाद फैलाने से जुड़ा है न कि सोनिया गांधी के असल नाम के उल्लेख के कारण यह धाराएं लगी हैं। नाम का उल्लेख कोई अपराध की श्रेणी में आता भी नहीं है। अगर सोनिया गांधी को लगता है कि उनकी मानहानि हुयी है तो इस पर वही कार्यवाही कर सकती हैं। 

ऐसा नहीं है कि देश मे साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने वाली रिपोर्टिंग करने वाले अर्नब अकेले ही टीवी पत्रकार हैं बल्कि अन्य महानुभाव भी हैं, जो 2014 से ही ऐसा एजेंडा एक गिरोह के रूप में चला रहे हैं। पर यह शायद पहला मौका है जब कि लोगो ने इस प्रवित्ति पर अंकुश लगाने के लिये पुलिस में शिकायतें कीं और अभियोग दर्ज कराए। नहीं तो लोग नजरअंदाज कर जाया करते थे। 

अर्नब ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उन्हें ही यह सब अकेले झेलना पड़ेगा। हालांकि वह रोज अपने चैनल में किसी न किसी को बुलाकर बेहद अपमानजनक भाषा मे आक्रामक होते थे और अपना भौकाल बनाये रखते थे। पर आश्चर्य है किसी ने न तो कभी आपत्ति दर्ज कराई और न ही उनके प्रोग्राम का बहिष्कार किया। 

( विजय शंकर सिंह )

पालघर भीड़ हिंसा, मॉब लिंचिंग के आंकड़े, सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश और उनका अनुपालन / विजय शंकर सिंह

पालघर पर टीवी चैनलों के चीखते हुये एंकरों के शोर के बीच यह संजीदा सवाल गुम है कि आखिर 2018 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गए भीड़ हिंसा या मॉब लिंचिंग के गाइडलाइंस के बावजूद आज तक केवल मणिपुर और राजस्थान के अतिरिक्त अन्य किसी राज्य ने इस पाशविक प्रवित्ति को रोकने के लिये कोई विशेष कानून या दिशानिर्देश क्यों नहीं जारी किये ?

भीड़ एक विवेकहीन और उन्मादित समूह होती है। यह वह स्थिति होती है जब विवेकवान से विवेकवान भी, भीड़ में अपना विवेक खो बैठते है। महाराष्ट्र के पालघर में एक हृदयविदारक घटना में दो साधुओं को एक भीड़ ने पीट पीट कर मार डाला। भीड़ से न्याय हो या बदले में भीड़ खुद ही अपना न्याय कर बैठे यह एक घातक और निंदनीय परंपरा है जो उत्तरप्रदेश, झारखंड, बिहार, राजस्थान और हरियाणा सहित कुछ प्रदेशों में 2014 के बाद खूब हुयी है। इसका समर्थन भी कुछ लोगों ने किया। यूपी के बुलन्दशहर में तो एक पुलिस इंस्पेक्टर की ही भीड़ ने पीट पीट कर हत्या कर दी। और उस घटना के मुख्य अभियुक्त को धीरे धीरे बचा भी लिया गया। क्योंकि वह सत्तारूढ़ दल के करीब था। झारखंड में मॉब लिंचिंग के अभियुक्तों को जेल से जमानत पर रिहा होने पर एक केंद्रीय मंत्री द्वारा माला पहना कर स्वागत किया गया। तब वे सब मित्र चुप रहे जो आज अचानक मुखर हो गये हैं। हम इस भीड़ हिंसा के तब भी खिलाफ थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे। 
भीड़ हिंसा से जुड़े, 2014 से 2018 तक एनसीआरबी के आंकड़ो और 2018 में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गए निर्देश को देखें। सरकार ने लगातार इन घटनाओं की नज़रअंदाज़ किया और जानबूझकर ऐसे अपराधियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करने से ऐतराज किया।

जब गौरक्षा और बीफ के नाम पर उन्मादित भीड़ द्वारा भीड़ हिंसा या मॉब लिंचिंग शुरू हुई थी तो न तो सरकार सतर्क हुयी और न ही सत्तारूढ़ दल ने इसकी कोई आलोचना की। तब वह हिंसा सत्तारूढ़ दल के एजेंडे के अनुरूप थी। देश में 2014 से 2018 तक के 4 वर्षों  में मॉब लिंचिंग की 134 घटनाएं हुयी हैं। 2019 के आंकड़े नहीं मिल पाए हैं।

भीड़ की कोई शक्ल नहीं होती है। उनका कोई दीन-धर्म नहीं होता और इसी बात का फायदा हमेशा मॉब लिंचिंग करने वाली भीड़ उठाती है। पर प्रश्न यह   है कि इस भीड़ को इकट्ठा कौन करता है ? उन्हें उकसाता-भड़काता कौन है ? जवाब हम सब जानते हैं। पर फिर भी सब खामोश हैं। डर इस बात का है कि अगर कानून हर हाथ का खिलौना हो जाएगा तो फिर पुलिस, अदालत और इंसाफ सिर्फ शब्द बन कर रह जाएंगे और इनका कोई अर्थ नहीं रह जायेगा।

अब कुछ आंकड़े देखिए,
● साल 2014 में ऐसे 3 मामले आए और उनमें 11 लोग ज़ख्मी हुए।

● 2015 में अचानक यह संख्या बढ़कर 12 हो गयी। इन 12 मामलों में 10 लोगों की पीट-पीट कर मार डाला गया जबकि 48 लोग ज़ख्मी हुए।

● 2016 में गोरक्षा के नाम पर गुंडागर्डी की वारदातें दोगुनी हो गई हैं। 24 ऐसे मामलों में 8 लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ीं। जबकि 58 लोगों को पीट-पीट कर बदहाल कर दिया गया।

● 2017 में तो गोरक्षा के नाम पर गुंडई करने वाले बेकाबू ही हो गए। 37 ऐसे मामले हुए जिनमें 11 लोगों की मौत हुई. जबकि 152 लोग ज़ख्मी हुए।

● 2018 में ऐसे 9 मामले सामने आ चुके हैं. जिनमें 5 लोग मारे गए और 16 लोग ज़ख्मी हुए।

● कुल मिलाकर गोरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग के कुल 85 गुंडागर्दी के मामले सामने आ चुके हैं जिनमें 34 लोग मरे गए. और 289 लोगों को अधमरा कर दिया गया।

साल 2014 से लेकर साल 2018 तक केवल गोरक्षा के नाम पर हुए 87 मामलों में 50 फीसदी शिकार मुसलमान हुए. जबकि 20 प्रतिशत मामलों में शिकार हुए लोगों की धर्म जाति मालूम नहीं चल पाई. वहीं 11 फीसदी दलितों को ऐसी हिंसा का सामना करना पड़ा. गोरक्षकों ने  अन्य हिंदुओं को भी नहीं छोड़ा.। 9 फीसदी मामलों में उन्हें भी शिकार बनाया गया,. जबकि आदिवासी और सिखों को भी 1 फीसदी मामलों में शिकार होना पड़ा.।

अब कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं का विवरण देखे।
● 20 मई 2015, राजस्थान
मीट शॉप चलाने वाले 60 साल के एक बुज़ुर्ग को भीड़ ने लोहे की रॉड और डंडों से मार डाला.

● 2 अगस्त 2015, उत्तर प्रदेश
कुछ गो रक्षकों ने भैंसों को ले जा रहे 3 लोगों को पीट पीटकर मार डाला.

● 28 सितंबर 2015 दादरी, यूपी
52 साल के मोहम्मद अख्लाक को बीफ खाने के शक़ में भीड़ ने ईंट और डंडों से मार डाला.

● 14 अक्टूबर 2015, हिमाचल प्रदेश
22 साल के युवक की गो रक्षकों ने गाय ले जाने के शक में पीट पीटकर हत्या कर दी.

● 18 मार्च 2016, लातेहर, झारखंड
मवेशियों को बेचने बाज़ार ले जा रहे मज़लूम अंसारी और इम्तियाज़ खान को भीड़ ने पेड़ से लटकाकर मार डाला.

● 5 अप्रैल 2017, अलवर, राजस्थान
200 लोगों की गोरक्षक फौज ने दूध का व्यापार करने वाले पहलू खान को मार डाला.

● 20 अप्रैल 2017, असम
गाय चुराने के इल्ज़ाम में गो रक्षकों ने दो युवकों को पीट पीटकर मार डाला.

● 1 मई 2017, असम
गाय चुराने के इल्ज़ाम में फिर से गो रक्षकों ने दो युवकों को पीट पीटकर मार डाला.

● 12 से 18 मई 2017, झारखंड
4 अलग अलग मामलों में कुल 9 लोगों को मॉब लिंचिंग में मार डाला गया.

● 29 जून 2017, झारखंड
बीफ ले जाने के शक़ में भीड़ ने अलीमुद्दीन उर्फ असग़र अंसारी को पीट पीटकर मार डाला.

● 10 नवंबर 2017, अलवर, राजस्थान
गो रक्षकों ने उमर खान को गोली मार दी जिसमें उसकी मौत हो गई.

● 20 जुलाई 2018, अलवर, राजस्थान
गाय की तस्करी करने के शक में भीड़ ने रकबर खान को पीट पीटकर मार डाला.

जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने मॉब लिंचिंग मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। अदालत के अनुसार,  कोई भी अपने आप में कानून नहीं हो सकता है।  देश में भीड़तंत्र की इजाजत नहीं दी जा सकती है।  कोर्ट ने मॉब लिंचिंग पर सरकार को नसीहत देते हुए निम्न गाइडलाइंस जारी किया है।
1. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि भीड़तंत्र की इजाजत नहीं दी जा सकती है.

2. कानून का शासन कायम रहे यह सुनिश्चित करना सरकार का कर्तव्य है.

3. कोई भी नागरिक कानून अपने हाथों में नहीं ले सकता है.

4. संसद इस मामले में कानून बनाए और सरकारों को संविधान के अनुसार काम करना चाहिए.

5. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भीड़तंत्र के पीड़ितों को सरकार मुआवजा दे.

शीर्ष अदालत ने कहा कि 4 हफ्तों में केंद्र और राज्य सरकार अदालत के आदेश को लागू करें। यही नहीं, मामले में फैसले से पहले टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये सिर्फ कानून व्यवस्था का सवाल नहीं है, बल्कि गोरक्षा के नाम पर भीड़ की हिंसा क्राइम है। अदालत इस बात को स्वीकार नहीं कर सकती कि कोई भी कानून को अपने हाथ में ले।

उल्लेखनीय है कि इससे पहले भी, लिंचिंग मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख अपनाते हुए कहा था कि जहां तक कानून व्यवस्था का सवाल है, तो प्रत्येक राज्य की जिम्मेदारी है कि वो ऐसे उपाय करे कि हिंसा हो ही नहीं। तत्कालीन  चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच ने यह सुनवाई की और साफ शब्दो मे कहा था कि कोई भी व्यक्ति,  कानून को किसी भी तरह से अपने हाथ में नहीं ले सकता है। कानून व्यवस्था को बहाल रखना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है और प्रत्येक राज्य सरकार को ये जिम्मेदारी निभानी होगी. गोरक्षा के नाम पर भीड़ हिंसा गंभीर अपराध है।  

लेकिन अफसोस कि 2018 में दिए गए उपरोक्त निर्देशो या गाइडलाइंस के अनुरूप केवल मणिपुर और राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार को छोड़ कर किसी भी राज्य सरकार ने मॉब लिंचिंग रोकने के लिये कोई विशेष कानून नहीं बनाया। आज पालघर भीड़ हिंसा पर डिबेट करते हुए भी कोई भी चैनल किसी भी राज्य सरकार या भारत सरकार से यह सवाल नहीं कर रहा है कि उन्होंने 2018 के सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद कोई विशेष कानून क्यों नहीं बनाया।

मॉब लिंचिंग के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हर नागरिक के जीवन की रक्षा करना सरकार का कर्तव्य है।  संविधान के अनुच्छेद 21 में हर नागरिक को जीवन का अधिकार मिला हुआ है, और कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना किसी के जीवन को छीना नहीं जा सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर किसी ने अपराध किया है तो उसको विधिनुकूल ही दंड दिया जाएगा। भीड़ द्वारा कानून को हाथ में लेने और उग्र होकर किसी भी मामले के आरोपी या बिना किसी मामले के उनकी हत्या कर देना 2014 के बाद एक नयी परिपाटी बन गयी है। अब ताजा मामला महाराष्ट्र के पालघर जिले का जहां भीड़ ने दो साधुओं की पीट पीट कर हत्या कर दी है। महाराष्ट्र पुलिस ने त्वरित कार्यवाही की और 110 लोगों को गिरफ्तार भी किया है और घटना के षडयंत्र की भी जांच चल रही है।

अगर कोई व्यक्ति किसी मामले में आरोपी है, तो उसको केवल न्यायालय ही न्यायिक प्रक्रिया का पालन करते हुए दोषी घोषित कर उचित दंड दे सकता है। अदालत के सिवाय किसी अन्य व्यक्ति या संस्था या समूह को किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति को दोषी ठहराने और सजा देने का अधिकार नहीं है। अगर कोई व्यक्ति, समूह या संगठन ऐसा करता है, तो वह अपराध है, जिसके लिए उसको सजा भुगतनी होगी।

कृष्णामूर्ति बनाम शिवकुमार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भीड़तंत्र को लेकर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा था कि एक सभ्य समाज में सिर्फ कानून का शासन चलता है और कानून ही सर्वोच्च होता है। भीड़ या कोई ग्रुप कानून हाथ में लेकर किसी अपराध के आरोपी को सजा नहीं दे सकती है।

मॉब लिंचिंग के मामले में पुलिस सबसे पहले भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की धारा 153 A के तहत मामला दर्ज करती है। इसमें 3 साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा आईपीसी की धारा 34, 147, 148 और 149 के तहत कार्रवाई भी की जा सकती है। यह घटना की परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

भीड़ द्वारा किसी की पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है, तो आईपीसी कि धारा 302 के तहत मुकदमा दर्ज किया जाएगा और साथ में धारा 34 या 149 लगाई जाएगी। इसके बाद जितने व्यक्ति  मॉब लिंचिंग में शामिल रहे होंगे उन सबको हत्या का दोषी ठहराया जाएगा और उन्हें उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार फांसी या आजीवन कारावास से दंडित किया जाएगा। इसके अलावा सभी पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है।

यदि भीड़ में सम्मिलित कोई व्यक्ति किसी अपराध को अंजाम देता है, तो उस अपराध के लिए भीड़ में शामिल सभी लोग दोषी होंगे। साथ ही सभी को उस अपराध के लिए अलग-अलग सजा भोगनी होगी।

साल 2018 में तहसीन पूनावाला केस की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने मॉब लिंचिंग रोकने के लिए गाइडलाइन जारी की थी। उक्त गाइडलाइंस पर केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों ने अपने अपने निर्देश जारी किये।

1. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि
● सभी राज्य सरकारें अपने यहां भीड़ हिंसा और मॉब लिंचिंग की घटनाओं को रोकने के लिए प्रत्येक जिले में एक नोडल अधिकारी की नियुक्ति करें, जो पुलिस अधीक्षक (एसपी) रैंक या उससे ऊपर के रैंक का अधिकारी होना चाहिए.
● इस नोडल अधिकारी के साथ डीएसपी रैंक के एक अधिकारी को भी तैनात किया जाना चाहिए.
● ये अधिकारी जिले में माॅब लिंचिंग रोकने के लिए स्पेशल टास्क फोर्स का गठन करेंगे, जो ऐसे अपराधों में शामिल लोगों, भड़काऊ बयान देने वाले और सोशल मीडिया के जरिए फेक न्यूज को फैलाने की जानकारी जुट आएगी और कार्रवाई करेगी.

2. पिछले पांच साल में जिन इलाकों में मॉब लिंचिंग की घटनाएं हुईं, उनकी पहचान की जाए और इसकी रिपोर्ट आदेश जारी होने के तीन सप्ताह के अंदर तैयार किया जाए.

3. सभी राज्यों के गृह सचिव उन इलाकों के पुलिस स्टेशन के प्रभारियों को और नोडल अधिकारियों को अतिरिक्त सतर्कता बरतने के निर्देश जारी करें, जहां पर हाल ही में मॉब लिंचिंग की घटनाएं देखने को मिली हैं.

4. नोडल अधिकारी स्थानीय खुफिया ईकाई और एसएचओ के साथ नियमित रूप से बैठक करें, ताकि ऐसी वारदातों को रोकने के लिए कदम उठाया जा सके. साथ जिस समुदाय या जाति को मॉब लिंचिंग का शिकार बनाए जाने की आशंका हो, उसके खिलाफ बिगड़े माहौल को ठीक करने की कोशिश की जाए.

5. राज्यों के डीजीपी और गृह विभाग के सचिव जिलों के नोडल अधिकारियों और पुलिस इंटेलीजेंस के प्रमुखों के साथ नियमित रूप से बैठक करें. अगर किन्हीं दो जिलों के बीच तालमेल को लेकर हो रही दिक्कतों को रोकने के लिए कदम उठाया जा सके.

6. पुलिस अधिकारी दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 129 में दी गई शक्तियों का इस्तेमाल कर भीड़ को तितर-बितर करने का प्रयास करें.

7. केंद्रीय गृह विभाग भी मॉब लिंचिंग की घटनाओं को रोकने के लिए राज्य सरकारों के बीच तालमेल बैठाने के लिए पहल करे.

8. केंद्र सरकार और राज्य सरकारें रेडियो, टेलीविजन और मीडिया या फिर वेबसाइट के जरिए लोगों को यह बताने की कोशिश करें कि अगर किसी ने कानून तोड़ने और मॉब लिंचिंग में शामिल होने की कोशिश की, तो उसके खिलाफ कानून के तहत सख्त कार्रवाई की जाएगी.

9. केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि वो सोशल मीडिया से अफवाह फैलाने वाले पोस्ट और वीडियो समेत सभी आपत्तिजनक सामग्री को हटाने के लिए कदम उठाएं, जिससे ऐसी घटनाओं को रोका जा सके.

10. पुलिस को मॉब लिंचिंग के लिए भड़काने या उकसाने के लिए मैसेज या वीडियो को फैलाने वालों के खिलाफ आईपीसी की धारा 153 ए समेत अन्य संबंधित कानूनों के तहत एफआईआर दर्ज करें और कार्रवाई करें.

11. इस संबंध में केंद्र सरकार सभी राज्य सरकारों को निर्देश जारी करे.

मॉब लिंचिंग होने पर फौरन हो कार्रवाई

12. अगर तमाम कोशिशों के बावजूद मॉब लिंचिंग की घटनाएं होती हैं, तो संबंधित इलाके के पुलिस स्टेशन बिना किसी हीलाहवाली के फौरन एफआईआर दर्ज करें.

13. मॉब लिंचिंग की घटना की एफआईआर दर्ज करने के बाद संबंधित थाना प्रभारी इसकी जानकारी फौरन नोडल अधिकारी को दे. इसके बाद नोडल अधिकारी की ड्यूटी होगी कि वो मामले की जांच करे और पीड़ित परिवार के खिलाफ आगे की किसी भी हिंसा को रोकने के लिए कदम उठाए.

14. नोडल अधिकारी को सुनिश्चित करना होगा कि मॉब लिंचिंग की घटनाओं की प्रभावी जांच हो और समय पर मामले की चार्जशीट दाखिल की जा सके.

पीड़ितों को मुआवजा देने की स्कीम बनाए सरकार

15. राज्य सरकार ऐसी योजना तैयार करें, जिससे मॉब लिंचिंग के शिकार लोगों को सीआरपीसी की धारा 357A के तहत मुआवजा देने की व्यवस्था की जाए.

6 महीने में पूरी हो मामले की सुनवाई

16. ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए हर जिले में फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाई जाएं, जहां पर ऐसे मामलों की सुनवाई रोजाना हो सके और ट्रायल 6 महीने के अंदर पूरा हो सके.

मॉब लिंचिंग के आरोपी को जमानत देने से पहले पीड़ितों की सुनें बात

17. मॉब लिंचिंग के आरोपियों को जमानत देने, पैरोल देने या फिर रिहा करने के मामले में विचार करने से पहले कोर्ट पीड़ित परिवार की भी बात सुने. इसके लिए उनको नोटिस जारी करके बुलाया जाना चाहिए.

18. मॉब लिंचिंग के शिकार परिवार को मुफ्त कानूनी मदद दी जानी चाहिए. इसके लिए उनको लीगल सर्विस अथॉरिटी एक्ट 1987 के तहत फ्री में एडवोकेट उपलब्ध कराना चाहिेए.

19. अगर कोई अधिकारी अपनी ड्यूटी निभाने में विफल रहता है या फिर मामले में समय पर चार्जशीट फाइल नहीं करता है, तो उसके खिलाफ डिपार्टमेंटल एक्शन लिया जाना चाहिए.

उत्तरप्रदेश राज्य विधि आयोग ने सलाह दी है कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए एक विशेष कानून बनाया जाये। आयोग ने एक प्रस्तावित विधेयक का मसौदा भी तैयार किया है। राज्य विधि आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति (अवकाश प्राप्त) एएन मित्तल ने मॉब लिंचिंग पर अपनी रिपोर्ट सरकार को दी है। आयोग ने स्वत:संज्ञान लेते हुये भीड़ तंत्र की हिंसा को रोकने के लिये राज्य सरकार को विशेष कानून बनाने की सिफारिश की है.। ' सरकार को सौंपी गई 128 पन्नों वाली इस रिपोर्ट में राज्य में भीड़ तंत्र द्वारा की जाने वाले हिंसा की घटनाओं का हवाला देते हुये कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय के 2018 के निर्णय को ध्यान में रखते हुये विशेष कानून बनाया जाये.।

आयोग का मानना है कि भीड़ तंत्र की हिंसा को रोकने के लिये वर्तमान कानून प्रभावी नहीं है, इसलिये अलग से सख्त कानून बनाया जाये।आयोग ने सुझाव दिया है कि
● इस कानून का नाम उत्तर प्रदेश कॉबेटिंग ऑफ मॉब लिचिंग एक्ट रखा जाये तथा अपनी डयूटी में लापरवाही बरतने पर पुलिस अधिकारियों और जिलाधिकारियों की जिम्मेदारी तय की जाये और दोषी पाये जाने पर सजा का प्राविधान भी किया जाये।

● मॉब लिंचिंग के जिम्मेदार लोगों को सात साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा का भी सुझाव दिया गया है ।

● हिंसा के शिकार व्यक्ति के परिवार और गंभीर रूप से घायलों को भी पर्याप्त मुआवजा मिलें. इसके अलावा संपत्ति को नुकसान के लिए भी मुआवजा मिले.

● ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिये पीड़ित व्यक्ति और उसके परिवार के पुर्नवास और संपूर्ण सुरक्षा का भी इंतजाम किया जाये.

● उत्तर प्रदेश में उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2012 से 2019 तक ऐसी 50 घटनायें हुई जिसमें 50 लोग हिंसा का शिकार बने, इनमें से 11 लोगों की हत्या हुई जबकि 25 लोगों पर गंभीर हमले हुये हैं. इसमें गाय से जुड़े हिंसा के मामले भी शामिल हैं.

उल्लेखनीय हैै कि इस विषय पर अभी तक मणिपुर राज्य ने अलग से विशेष कानून बनाया है। यूपी विधि आयोग की रिपोर्ट में, मॉब लिंचिंग के अनेक मामलों का हवाला दिया गया है. जिसमें 2015 में दादरी में अखलाक की हत्या, बुलंदशहर में तीन दिसंबर 2018 को खेत में जानवरों के शव पाये जाने के बाद पुलिस और हिन्दू संगठनों के बीच हुई हिंसा के बाद इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या जैसे मामले शामिल हैं। न्यायमूर्ति मित्तल ने रिपोर्ट में कहा है कि 'भीड़ तंत्र की उन्मादी हिंसा के मामले फर्रूखाबाद, उन्नाव, कानपुर, हापुड़ और मुजफ्फरनगर में भी सामने आये हैं. उन्मादी हिंसा के मामलों में पुलिस भी निशाने पर रहती है और मित्र पुलिस को भी जनता अपना शत्रु मानने लगती है.

मणिपुर के बाद राजस्थान उन्मादी भीड़ की हिंसा (मॉब लिंचिंग) को लेकर कानून बनाने वाला देश का दूसरा राज्य है। राजस्थान में नए कानून के अनुसार,
● उन्मादी हिंसा की घटना में पीड़ित की मौत पर दोषियों को आजीवन कारावास और पांच लाख रुपये तक के जुर्माने की सजा भुगतनी होगी।
● पीड़ित के गंभीर रूप से घायल होने पर 10 साल तक की सजा और 50 हजार से 3 लाख रुपये तक का जुर्माना दोषियों को भुगतना होगा।

उन्मादी हिंसा में किसी भी रूप से सहायता करने वाले को भी वही सजा मिलेगी जो, हिंसा करने वाले को मिलेगी। राज्य में बढ़ती उन्मादी हिंसा की घटनाओं को रोकने के लिए राज्य सरकार ने 'राजस्थान लिंचिंग संरक्षण विधेयक-2019' कानून बनाया हैै। विडंबना है कि भाजपा ने इस विधेयक का विरोध किया
था।

इस कानून में
● उन्मादी हिंसा को गैर जमानती, संज्ञेय अपराध बनाया गया है।
● उन्मादी हिंसा की घटना के वीडियो, फोटो किसी भी रूप में प्रकाशित या प्रसारित करने पर भी एक से तीन साल तक की सजा और 50 हजार रुपये का जुर्माना देय होगा।
● विधेयक में प्रावधान किया गया है कि दो व्यक्ति भी अगर किसी को मिलकर पीटते हैं तो उसे उन्मादी हिंसा माना जाएगा।
● उन्मादी हिंसा के दायरे में विधेयक में धर्म, जाति, भाषा, राजनीतिक विचारधारा, समुदाय और जन्म स्थान के नाम पर भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा को उन्मादी हिंसा माना गया है।
● इसमें दो या दो से ज्यादा व्यक्ति को उन्मादी हिंसा की परिभाषा में शामिल किया गया है।
● इंस्पेक्टर रैंक का अफसर ही इससे जुड़े मामलों की जांच करेगा।
● इस तरह के मामलों की प्रदेश स्तर पर पुलिस महानरीक्षिक रैंक व जिलों में उप अधीक्षक रैंक के अधिकारी निगरानी करेंगे।
● इस तरह के मामलों की सुनवाई के लिए हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति की जाएगी।

विधेयक में प्रावधान किया है कि
● पीड़ित को राजस्थान विक्टिम कंपनसेशन स्कीम के तहत सहायता दी जाएगी और दोषियों से जो जुर्माना वसूला जाएगा, उसे पीड़ित को दिया जाएगा।

यह कानून सुप्रीम कोर्ट के 2018 में दिए गए  निर्णय की अनुपालन में उन्मादी हिंसा रोकने के लिये बनाया गया है। सरकार ने राजस्थान विधानसभा में बताया कि, देश में 2014 से उन्मादी हिंसा के 200 से अधिक मामले सामने आए हैं, इनमें से 86 प्रतिशत राजस्थान के हैं। देश में शांत प्रदेश माना जाने वाला राजस्थान उन्मादी हिंसा स्टेट के रूप में पहचाने जाने लगा है।

पालघर की भीड़ हिंसा पर महाराष्ट्र पुलिस और सरकार, विशेष कर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की भूमिका एक संवेदनशील प्रशासक की रही है। पुलिस ने जितनी जल्दी अभियुक्तों के विरुद्ध कार्यवाही की वह प्रशंसनीय है। दो दिन के अंदर ही 110 अभियुक्तों की गिरफ्तारी दूर दराज और दुर्गम इलाक़ो में पुलिस के लिये आसान नहीं होती है।  फिर भी यह काम हुआ। हालांकि पुलिस की उपस्थिति में हुयी यह घटना प्रशासन पर एक धब्बा भी है। इस घटना में भी कुछ पुलिसकर्मियों के विरुद्ध, लापरवाही बरतने के संदर्भ में कार्यवाही हुयी है। सरकार और महाराष्ट्र क्राइम ब्रांच को इस घटना के पृष्टभूमि में अगर कोई षडयंत्र है तो उसका भी पता लगाया जाना चाहिए। 

इस घटना के संदर्भ में, मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की सबसे अच्छी बात मुझे यह लगी कि उन्होंने ट्विटर और वीडियो संदेशों द्वारा जनता से निरन्तर संवाद बनाये रखा और ऐसा कोई अवसर नहीं दिया जिससे इस घटना के बारे में कोई भ्रम फैले। संवादहीनता अक्सर भ्रम और अफवाहबाज़ी को जन्म देती है। कभी कभी संवादहीनता सायास भी होती है। कभी कभी यह अफवाहबाज़ी करने के लिये एक संकेत के रूप में भी होती है।  शिवसेना भी उसी हिंदुत्व की बात करती है जिसकी भाजपा करती है और दोनों ही दलों में कोई मौलिक अंतर नहीं है। पर एक मुख्यमंत्री और प्रशासक के रूप में उद्धव ठाकरे ने एक परिपक्व राजनेता का परिचय दिया है, जो सराहनीय है।

भीड़ हिंसा या मात्स्यन्याय एक पाशविक मनोवृत्ति है और विधि द्वारा शासित राज्य व्यवस्था में इसका कोई स्थान नही है। भीड़ चाहे किसी निर्दोष को पीट पीट कर मार दे या अदालत द्वारा किसी सिद्धदोष अपराधी को, यह कृत्य दोनों ही दशा में निन्दनीय है और विधिविरुद्ध है। यह कानून की नज़र में हत्या है। ऐसी घटना का समर्थन चाहे कैसी भी भीड़ हो या कोई भी पीड़ित हो, का समर्थन नहीं किया जा सकता है और न ही समर्थन किया जाना चाहिए। महाराष्ट्र के गृहमंत्री के अनुसार, इस घटना में 110 लोग गिरफ्तार किए गए हैं। सरकार को चाहिए कि, वह इस घटना में शामिल सभी के विरुद्ध कठोरतम वैधानिक कार्यवाही करे। भीड़ को हतोत्साहित करना और ऐसे उन्मादित कृत्य, भीड़ द्वारा आगे करने से रोकना बेहद ज़रूरी है। नहीं तो हम एक पाशविक समाज बन कर रह जाएंगे।

( विजय शंकर सिंह )

Sunday, 26 April 2020

क्या हम नए वर्ल्ड आर्डर के लिये तैयार हैं ? / विजय शंकर सिंह

आज सरकारी कर्मचारियों के महंगाई भत्तों तथा अन्य भत्तो पर जो कटौती केंद सरकार द्वारा की गयीं है उसका कारण कोरोना जन्य आर्थिक संकट बताया जा रहा है। यह सच है कि, इस आर्थिक संकट का तात्कालिक कारण कोविड 19 अवश्य है, पर इस संकट की पृष्ठभूमि में 2016 से ही लिए जा रहे कुछ ऐसे आर्थिक निर्णय हैं, जिनसे न केवल देश की आर्थिक स्थिति लगातार  गिरती चली गयी और अब जब यह कोरोना आपदा आयी तो हम इस संकट में इतनी बुरी तरह से फंस गए, कि अब कोई चारा ही नहीं शेष है। 

उत्तर प्रदेश सरकार ने भी, कई तरह के खर्चो में कटौती कर्मचारियों के वेतन से करने का निश्चय किया है और इस आशय का एक नोटिफिकेशन भी जारी किया है। अब इस कटौती से, किस कर्मचारी को कितना कम मिलेगा यह तो जब वेतन का हर कर्मचारी या विभाग आकलन करे तभी जाना जा सकेगा। लॉक डाउन में इस पर कुछ लोग जोड़ घटाना कर भी रहे होंगे। निश्चित ही, इस तरह के निर्णय और नोटिफिकेशन अन्य राज्य सरकारों ने भी जारी किया होगा। क्योंकि लम्बे समय से राज्यो को जीएसटी में केंद्र से उनका हिस्सा जो करों में मिलता है वह नही मिल पाया है। भत्तो की ऐसी कटौतियों से,  निजी क्षेत्रों के अंसगठित वर्ग के कर्मचारियों की वेतन कटौती और उनकी छंटनी का खतरा बढ़ जाएगा। इससे बेरोजगारी जो पहले से ही चिंताजनक स्थिति में है और अधिक विकराल रूप धारण कर लेगी। ऐसी स्थिति में सरकार कुछ नही कर पायेगी क्योंकि वह तो खुद ही खर्चा बचाने के नाम पर अपने स्टाफ के वेतन से कटौती का रास्ता अख्तियार कर चुकी है। 

आखिर कोरोना आपदा से निपटने के लिये सरकार की योजनाएं क्या हैं ? यह कोरोना के विरुद्ध एक युद्ध है। यह इस सदी का सबसे महत्वपूर्ण वाक्य बन सकता है। और यह युद्ध है भी। हर युद्ध मे जनता और सरकार की सक्रिय भूमिका होती है। इस युद्ध मे भी है। सरकार की जनता यानी हमसे क्या अपेक्षाएं हैं ?.

सरकार की अपेक्षाएं हमसे यह हैं कि, 
● हम घरों में ही रहे। 
● सोशल डिस्टेंसिंग या फिजिकल डिस्टेंसिंग का पालन करें। 
● व्यक्तिगत साफ सफाई का ध्यान रखें
● कोविड 19 के लक्षण मिलते ही मेडिकल स्टाफ को सूचित करें और उनकी सलाह माने। 
● कोरोना संदिग्ध व्यक्तियों के बारे में सरकार द्वारा दिये गए हेल्पलाइन नम्बर पर संबंधित अधिकारियों को सूचना दें।
● पुलिस, मेडिकल स्टाफ तथा अन्य आवश्यक सेवाओ में लगे सरकारी कर्मचारियों का सहयोग करें और उनके साथ अभद्रता न करें। 

जनता यह सब कर भी रही है। पर सब लोग स्वभावतः विधिपालक होते भी नहीं है तो कुछ कानून का उल्लंघन करने वाले सरकार के इन निर्देशों का पालन नहीं कर रहे हैं बल्कि उल्लंघन कर समस्या भी उत्पन्न कर रहे हैं। ऐसे लोगो से निपटने के लिए सरकार के पास पर्याप्त अधिकार और शक्तियां भी हैं और अगर शक्तिहीनता की स्थिति सरकार समझती है तो वह नए कानून बना कर और शक्तियां ले भी सकती हैं, जैसा सरकार ने अभी डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ को कुछ असामाजिक तत्वो के हमले और हिंसा से निपटने के लिये कानूनी संरक्षण भी दिया है। 

अब कुछ और समस्याओं पर दृष्टिपात करते हैं, 
● सरकार ने कहा है कि उद्योगपति लॉक डाउन के अवधि का वेतन न काटें और न ही नौकरी से किसी को निकालें ? 

● यह भी कहा है कि निजी स्कूल तीन महीने की एकमुश्त फीस के लिये अभिवावकों पर कोई दबाव न डालें। 

लेकिन वेतन काटने और नौकरियों से निकालने की भी खबरें आ रही हैं और स्कूलों से भी फीस के तकादे अभिभावकों को मिल रहे है। सरकार के पास ऐसी समस्याओं से निपटने के लिये क्या कोई योजना या पर्याप्त इच्छाशक्ति भी है या यह सब एक पब्लिसिटी स्टंट है केवल ? 

30 जनवरी को पहला केस मिलने के बाद से अब तक लगभग ढाई महीने बीत चुके है, और आज तक टेस्ट किट, पिपीई की व्यवस्था तक नहीं हो सकी तो यह मान के चलिए कि सरकार के नाक के नीचे न केवल नौकरियां ही लोगों की जाएंगी बल्कि उन्हें स्कूलों से भी कोई राहत नहीं मिलने वाली है। सरकार को यह बताना चाहिए कि वह लोगो की नौकरियां सुरक्षित रहें, औऱ उसने जो वादे किये हैं, उनकी पूर्ति के लिये क्या क्या कदम उठा रही है। उद्योगों और निजी स्कूलों की अपनी समस्याएं हैं। वे उचित होंगी भी। पर सरकार ने भी तो कोई वादा सोच समझ कर और किसी योजना के आलोक में ही किया होगा या यूं ही यह सब जुमले ही हैं ? 

2014 के बाद, जब यह सरकार आयी थी तो बेशुमार उम्मीदें भी लेकर आयी थी। हम सब पर गुजरात मॉडल का नशा तारी था। लगा कि गुजरात की तकदीर बदल देने वाले प्रधानमंत्री देश को भी गुजरात की राह पर सरपट दौड़ा देंगे। पर कोरोना आपदा ने तो गुजरात मॉडल की वास्तविकता को ही उजागर कर दिया। दूर के ढोल सुहावने ज़रूर लगते हैं, पर वे होते हैं, ढोल ही। शोर करते हुए अंदर से खोखले। सरकार ने 2014 के बाद, मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया आदि मोहक नामों वाली कितनी ही योजनाएं, भव्यता के साथ प्रारंभ कीं, पर आज तक न तो सरकार यह बता पाई कि इन महान और कर्णप्रिय नामधारी योजनाओं के अंतर्गत देश मे कौन सी औद्योगिक प्रगति हुई, किन क्षेत्रों में हम आत्मनिर्भर हुये और न ही सरकार समर्थक मित्रों को यह साहस हुआ कि वे अपनी ही सरकार से यह असहज सवाल कर सकें। 

हम जैसे लोग जिन्हें सरकारी की नीति, नीयत और नियति पर प्रारंभ से ही अविश्वास रहा है, यह सवाल, यह जानते हुए भी कि सरकार द्वारा इसका उत्तर मुश्किलें से ही मिलेगा, ज़रूर उठाते रहे हैं। और सरकार ने भी, कभी उन सवालों का उत्तर नहीं दिया है। सरकार की तरफ से सत्तारूढ़ दल का आईटी सेल और सायबर लफंगे ज़रूर इन सवालों के पूछने को हतोत्साहित करते रहे और उनका यह कार्य आज भी बदस्तूर जारी है। इसके अतिरिक्त  सरकार से ऐसा सवाल पूछने वाले लोग, देश विरोधी, धर्म द्रोही तक माने जाने लगे। पर आज जब देश के समस्त केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों के महंगाई भत्ते और अन्य भत्तों को निर्ममता पूर्वक काट लेने की घोषणा कर दी गयी है तो सरकारी कर्मचारियों में एक असंतोष भी दिख रहा है। सेना के एक अवकाशप्राप्त मेजर ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की है। कटौती का यह सिलसिला, केवल केंद्र सरकार के कर्मचारियों तक ही नहीं रहेगा, बल्कि यह राज्य सरकारों तक भी पहुंचेगा और फिर निजी कंपनियां तथा कॉरपोरेट भी इसी राह पर चल पड़ेंगे। 

इसके परिणामस्वरूप समस्त नौकरीपेशा लोगों में असंतोष तो होगा ही साथ ही इसका विपरीत असर बाजार के मांग और पूर्ति के संतुलन पर भी पड़ेगा, जो नोटबन्दी के निर्णय के बाद से ही असंतुलित बना हुआ है और जो आर्थिक मंदी का एक बड़ा कारण भी है। सरकार अपने अनुपयोगी खर्चो में कटौती कर के, अनुपयोगी प्रोजेक्ट्स को कुछ समय के लिये स्थगित कर के इस कमी को पूरा करने की योजना पर विचार कर सकती है। सरकार, वित्तीय कुप्रबंधन की शुरू से ही शिकार रही है। सरकार के एजेंडे में जन नहीं बल्कि उद्योगपति और वे भी कुछ चुने हुए औद्योगिक घराने ही रहते हैं। उनका मोह अब सरकार छोड़ भी नहीं सकती है। 2016 की नोटबन्दी के बाद से जो आर्थिक सूचकांक, चाहे वह आयात निर्यात से सम्बंधित हों, या मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के, या डॉलर रुपये के विनिमय दर के, या जीडीपी के प्रतिशत के, या सरकार को मिलने वाले राजस्व के, हर क्षेत्र में लगातार गिरावट दर्ज होती गयी और यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है। कोरोना आपदा न भी आती तो भी हमारी आर्थिक स्थिति दयनीय ही रहती और अब तो कोढ़ में खाज की तरह की स्थिति हो गई है। 

प्रधानमंत्री जी कह रहे हैं कि कोरोना के बाद एक नया वर्ल्ड आर्डर बनेगा। यह कोई नयी बात नहीं है। हर बड़ी घटना चाहे वह क्रांति हो या त्रासदी, उसके गर्भ में एक नए वर्ल्ड आर्डर का बीज अंकुरित हो ही जाता है। फ्रेंच क्रांति, औद्योगिक क्रांति, प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्वयुध्द के बाद नए वर्ल्ड आर्डर बने हैं। दुनिया का स्वरूप बदला है। नए आर्थिक मॉडल का जन्म हुआ है। सामाजिक संरचनाओं में परिवर्तन हुआ है। राजनीतिक विचारधाराओं के स्वरूप नए हुए हैं। यही नहीं साहित्य, ललित कलाओं और जीवन शैली भी अप्रभावित नहीं रही है। कोरोना के बाद भी एक वैश्विक परिवर्तन अवश्यम्भावी है। यह काल चक्र है जो समय समय पर अपनी गति और घूर्णन बदलता रहता है। पर उसका स्वरूप क्या होगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता है। मनुष्य तो अभी अपने जीवन रक्षा के लिये जूझ रहा है। सब फिलहाल अस्पष्ट है। लेकिन,  इस नए वर्ल्ड आर्डर में 130 करोड़ की विशाल जनशक्ति, विविध प्राकृतिक और बहुलतावाद से भरे संसाधनों के साथ भारत की क्या स्थिति होगी,  क्या इस आसन्न भूमिका पर कभी सरकार ने सोचा है ? हो सकता है सरकार ने सोचा भी हो और कुछ कर भी रही हो। पर जनता को यह जानने का अधिकार है कि वह बदलते वर्ल्ड आर्डर में सरकार की क्या योजनाएं हैं औऱ जनता से उसकी क्या अपेक्षायें हैं।  

कोरोना ने चीन की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों पर आघात पहुंचाया है। चीन ही नहीं पूरा यूरोप तबाही के दौर से गुज़र रहा है। बेहतर से बेहतर स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर वाले देश इस आपदा से जूझने में हांफ जा रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति के कुछ अजीबोगरीब बयान उनकी बौखलाहट को ही बता रहे हैं। वहां का पूंजीवादी समाज अपने वित्तीय घाटे से चिंतित है और वह इस लॉक डाउन को शिथिल करना चाहता है, पर वहाँ के डॉक्टरों और चिकित्सा वैज्ञानिकों की राय उनसे विपरीत है। वहां इस साल चुनाव भी है। इसकी भी चिंता अमेरिकी राष्ट्रपति को है। अमेरिका और जापान जैसे महत्वपूर्ण आर्थिक ताकतों का यह मानना है कि यह आपदा प्रकृति जन्य नहीं बल्कि मानव जन्य है। हालांकि इस आरोप के संबंध में कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिले हैं अब तक, पर यह आशंका निर्मूल है यह भी अभी तक प्रमाणित नहीं हुआ है। हालांकि लैंसेट और नेचर जैसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक शोध पत्रिकाओं ने इस वायरस को प्रकृति जन्य ही बताया है। पर यह मुद्दा विश्व मे एक बड़े आर्थिक वैमनस्य और प्रतिद्वन्द्विता को ही जन्म देगा। इसके संकेत मिलने शुरू हो गए हैं।  जापान ने चीन से अपने कुछ महत्वपूर्ण उद्योगों को समेटने के निर्णय कर लिए हैं और यह प्रक्रिया शुरू भी हो चुकी है। 

चीन से अन्य देशों के औद्योगिक इकाइयों के पलायन के समय यह उम्मीद बंधी थी कि वहां से निकल कर वे उद्योग भारत मे आएंगे औऱ भारत की औद्योगिक दशा सुधरेगी। अर्थ विशेषज्ञों का यह भी आकलन है कि अपने आकार और मानव संसाधन के बल पर भारत चीन को चुनौती दे सकता है और वह चीन के विपरीत औद्योगिक हब का एक नया विकल्प बन सकता है। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। हालांकि अभी संभावनाएं समाप्त नहीं हुयी हैं, लेकिन जो प्रारंभिक रुझान, चीन से उद्योगों के पलायन के मिले हैं वे आशाजनक नहीं हैं। भाजपा के ही समर्थक शेषाद्रि चारी के एक ट्वीट से यह ज्ञात होता है कि चीन से पलायित होने वाली कम्पनियों ने भारत के प्रति उदासीनता दिखाई है। शेषाद्रि अंग्रेज़ी टीवी चैनलों पर बीजेपी के पक्षकार  और वे संघ का एक बौद्धिक चेहरा भी हैं । अपने ट्वीट में वे कहते हैं, 
“नोमुरा ग्रुप के एक अध्ययन से पता चला कि पिछले कुछ महीनों में चीन से क़रीब 56 विदेशी फ़ैक्टरियों ने ठिकाना बदला ।26 वियतनाम चली गईं , 11 ताईवान गईं और 8 ने थाईलैण्ड का रुख़ किया । भारत के हिस्से में सिर्फ तीन आईं । इनका “मेक इन इंडिया”और प्रधानमंत्री कार्यालय से सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ ?नौकरशाही,राजनीति,काहिलियत या उत्साहविहीनता ?”

क्या अब भी यह सवाल सरकार से नहीं पूछा जाएगा कि भारत के हिस्से में केवल तीन ही कंपनियां क्यों आई ? क्या हम नए वर्ल्ड आर्डर के लिये केवल जुमलों में ही तैयार हैं और वास्तविकता में हमें अंदाज़ा ही नहीं कि हम सोच क्या रहे हैं और हमें करना क्या है ? यह न केवल एक वैचारिक दारिद्र्य है बल्कि हद दर्जे की नीति विहिनिता। क्या सरकार को यह नहीं बताना चाहिए कि मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया और स्टैंड अप इंडिया में कितने उद्योग लगे और देश की आर्थिकी में उनका क्या योगदान रहा ? हम आज सामान्य सी पीपीई उपकरण और टेस्ट किट तक तो बना ही नहीं पा रहे हैं और उसके लिये भी चीन पर आश्रित हैं जो हमे त्रुटिपूर्ण टेस्ट किट दे दे रहा है, फिर हम बड़े उद्योगों और उत्पाद की क्या बात करें। 

सरकार न केवल नीति और नीयत के ही संकट से ग्रस्त है बल्कि प्रशासनिक रूप से इसका प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। 2016 की 8 नवम्बर को रात 8 बजे नोटबन्दी की घोषणा के क्रियान्वयन का प्रश्न हो या जीएसटी को लागू करने का सवाल या अब लॉक डाउन प्रतिबन्धों के पालन कराने की प्रशासनिक दक्षता, इन तीनों निर्णयों में सरकार की प्रशासनिक अक्षमता स्पष्तः दिखी है। नोटबन्दी के संबंध में दो महीने में जितने, एक दूसरे को ओवरलैप करते हुए आदेश वित्त मंत्रालय और रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा जारी किये गए, उनकी संख्या और निर्गति ही यह बताने के लिये पर्याप्त है कि सरकार को खुद ही पता नहीं था कि वह नोटबन्दी करने क्यों जा रही है और इससे देश को लाभ क्या होगा। यही हाल जीएसटी के क्रियान्वयन का रहा। न तो यह एक देश एक कर रहा और न ही इसने कर ढांचे को सरलीकृत किया  बल्कि इसकी प्रक्रियागत जटिलताओं ने छोटे और मध्यम वर्ग के व्यापारियों को इतना उलझा कर रख दिया कि उनके व्यवसाय पर बेहद बुरा प्रभाव पड़ा। जीएसटी की प्रक्रियागत जटिलताओं को लेकर एक मज़ाक़ चल पड़ा कि इसकी जटिलता को सभवतः वित्त मंत्रालय भी नहीं हल कर पाएगा। 
कोरोना के बाद नया वर्ल्ड ऑर्डर क्या होगा, यह अभी अस्पष्ट है पर 2014 के बाद भारत मे सरकार के समक्ष जी जहाँपनाह मोड में जाने और सरकार से एक भी सवाल न पूछने की जो नयी संस्कृति जन्मी है वह संकीर्ण यूरोपीय राष्ट्रवाद की उपज है जो शनैःशनैः फासिज़्म के दरवाजे पर ले जाकर खड़ी कर देती है। चाहे मामला नोटबन्दी का हो, या सरकार द्वारा किये गए वादों का हो, या राजनीतिक दलों को मिलने वाले आर्थिक चन्दो का हो, या इलेक्टोरल बांड से जुड़ा हो, या सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद भी बड़े कर्ज़खोर पूंजीपतियों की सूची का हो, या जज बीएल लोया की संदिग्ध मृत्यु का हो, या आनन फानन में राफेलसौदा के ऑफसेट  ठेके में हिंदुस्तान एयरोनॉटिकल कम्पनी के बजाय अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस को दायित्व सौंपने का हो, या अन्य किसी भी सरकारी नीति का हो, या सरकार की लोकलुभावन घोषणाओं का हो या 100 स्मार्ट सिटी या बुलेट ट्रेन का हो, हर मुद्दे पर सरकार से सवाल न पूछने और सरकार की जवाबदेही तय न करने का ही यह घातक परिणाम है कि आज सरकार अपने कर्मचारियों के महंगाई भत्तो सहित अन्य भत्तो में कटौती करने जा रही है, तो वह निश्चिंत है कि विरोध के स्वर  नहीं उठेंगे और अगर उठेंगे भी तो असहज नहीं करेंगे। 

सरकार समर्थक भी दुखी हैं। खिन्न हैं। पर सरकार के खिलाफ खड़े होकर सरकार को कठघरे में खड़े करने और आंख में आंख डाल कर सवाल करने के अपने अधिकार को उन्होंने पहले ही तिलांजलि दे दी है। फासिज़्म ऐसी ही चुप्पी चाहता है। वह जनता के सवाल पूछने को हतोत्साहित करता है, उसकी खिल्ली उड़ाता है, सवाल करने वालों को देशद्रोही कहता है, खुद को देश का पर्याय समझ लेता है और जब उसे लगता है कि अधिकतर सवाल पूछने वाले अब साष्टांग हो गए हैं तो वह फिर दमन और अंत मे आत्मघात पर उतर आता है। सरकार को चाहिए कि वह,  यह कटौती आदेश पर पुनर्विचार करे और सेंट्रल विस्टा सहित अन्य अनुपयोगी प्रोजेक्ट्स को जून 2021 तक स्थगित करे और उसके धन से इस संकट का सामना करे। 

( विजय शंकर सिंह )

Thursday, 23 April 2020

क्या अर्नब गोस्वामी एक अंग्रेजीदां ट्रॉल में नहीं बदल गए हैं ? / विजय शंकर सिंह

अर्नब की चीखती और शोर मचाने वाली पत्रकारिता की आड़ में सरकार द्वारा जो कुछ भी किया जा रहा है उसे देखिए, पढिये और समझिए । अर्नब ने जो कुछ भी कहा या किया है, उस पर लोगों ने मुक़दमे दर्ज कराये हैं और अब यह काम पुलिस का है, कि वह अपनी कानूनी कार्यवाही करे। पत्रकारिता के मानदंडों और उसके गिरने उठने पर बहस होती रहती है। नैतिकता पर बहस और नसीहतें हमारी विशेषता हैं। यह हम वैदिक काल से करते आये हैं और आज तक यह जारी है। पर इस पूरे शोर शराबे में खून में व्यापार की तासीर वाली सरकार कर क्या रही है, यह समझना बहुत ज़रूरी है। अर्नब न कभी महत्वपूर्ण रहे हैं और न आज हैं। उन्हें एक अंग्रेजीदां ट्रोल ही समझिये और इससे अधिक कुछ नहीं।

असल सवाल है, सरकार, जो बिल गेट्स से सर्वे करा कर अपनी पीठ थपथपा रही है कि वह दुनियाभर में सबसे अच्छा काम इस कोरोना आपदा काल मे कर रही है को एक्सपोज करना और उस सच को उजागर करना जिसे तोपने ढंकने के लिये अर्नब जैसे सॉफिस्टिकेटेड ट्रोल गढ़े गए हैं । सरकार हमेशा असल सवालों और मूल मुद्दों से बचना चाहती है क्योंकि वह उन पर कुछ कर ही नहीं रही है क्योंकि वह एक प्रतिभाहीन सरकार है औऱ भ्रमित तो अपने जन्म से ही है।

आज के ज्वलन्त मुद्दे है, कोरोना आपदा प्रबंधन, बिगड़ती आर्थिकी और इन सब  भंवर में से सरकार कैसे देश को संकट से मुक्त कराती है। कोरोना आपदा वायरसजन्य है तो आर्थिकी का यह संकट, सरकार की गलत और गिरोहबंद पूंजीवादी  नीतियों का परिणाम है। अर्नब के शोर को इसीलिए उछाला गया है कि आज जब चारों तरफ टेस्ट किट से लेकर पीपीई तक की कमी और उनकी गुणवत्ता पर सवाल उठ रहे हैं, तो लोगों का ध्यान भटके और पूरा गांव कुत्तों को खदेड़ने में लग जाय । जब खराब आर्थिकी और वित्तीय कुप्रबंधन पर सवाल उठ रहे हैं, तो केवल इसी लिहो लिहो का विकल्प बचता है जिससे सरकार कुछ समय के लिये अपने विरुद्ध  उठ रहे सवालों को टाल सकती है ।

एक बात याद रखिये मक्खी मारने के लिये हथौड़ा नहीं उठाया जाता है। ट्रोल तो चाहेंगे कि जनता इसी में उलझी रहे और सरकार इलेक्टोरल बांड के एहसान उतारती रहे। सरकार की प्राथमिकता में केवल और केवल उनके चहेते पूंजीपति हैं, और कुछ भी नहीं, कोई भी नहीं। अर्नब एंड कम्पनी को बुद्ध की साधना में आये मार की तरह लीजिए। मेरी समझ मे यह इसी प्रकार की चीज के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। बस कानून ने उनके कृत्य पर मुकदमा दर्ज किया है तो अब कानून उस पर अपनी कार्यवाही करें।

अब आप इस कैमोफ्लाज की आड़ में सरकार द्वारा या सत्तारूढ़ दल द्वारा लिये जा रहे कुछ निर्णयों को देखें जो मैं लक्ष्मीप्रताप सिंह के एक लेख से उद्धृत कर रहा हूँ।

●  तीन दिन पहले रिज़र्व बैंक, आरबीआई ने सरकार की कम समय के लिये उधार लेने की नीति, शार्ट टर्म बौरोइंग लिमिट, यानी सरकार की आरबीआई से उधार लेने की सीमा 1.2 से अचानक 65% बड़ा कर 2 लाख करोड़ कर दी है। हाल ही में सरकार ने जो 1.75 लाख करोड़ आरबीआई से लिया था वह कहाँ गया, उस पर सवाल पूछने पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बताया था कि यह उन्हें भी पता नहीं है। वह धन कॉरपोरेट को उनकी सेहत सुधारने के नाम पर सरकार ने दे दिया। ध्यान दीजिये यह कोई सामान्य बैंक नहीं है, बल्कि देश का केंद्रीय बैंक आरबीआई है, जिसे सरकार कंगाल कर रही है।

● भाजपा के राजयसभा सांसद राकेश सिन्हा ने मध्य मार्च में संविधान से "समाजवाद" सोशलिज्म शब्द को हटाने का प्रस्ताव दिया है। 23 को संसद निरस्त होने की वजह से इस निजी बिल पर चर्चा नहीं हो सकी। दरअसल इस के दो कारण हैँ, पहला तो आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र के सपने के बीच संविधान के सेक्युलर,  और समाजवाद शब्द आड़े आते हैँ। पहले समाजवाद हटेगा फिर बारी आएगी सेक्युलर की और जब देश धर्म-निरपेक्ष नहीं है तो स्वतः आधिकारिक रूप से "हिन्दू राष्ट्र" घोषित करने मे आसानी रहेगी। 2015 के गणतंत्र दिवस के सरकारी विज्ञापन में समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द गायब थे जिस पर बवाल भी हुआ था।

दूसरा कारण है, समाजवाद शब्द वर्ष 1976 में 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से इंदिरा गाँधी सरकार द्वारा संविधान की प्रस्तावना में संशोधन किया गया और इसमें तीन नए शब्द (समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता) जोड़े गए। मोदी जी को इंदिरा जी के कद से बड़ा बनने के लिए उनके निर्णयों को उलटना है। समाजवाद दरअसल पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच की व्यवस्था है जिसमे दोनों की अच्छाइयां होती हैँ। धनाढ्य वर्ग से धन लेकर गरीबों को के लिए योजनाओं द्वारा दिया जाता है।

● तीसरी बड़ी खबर है कि फिलहाल कोरोना जाँच किट, डाक्टरों द्वारा पहने जाने वाली प्रोटेक्टिव गियर, वेंटिलेटर इत्यादि पर 12% का जीएसटी, आयात शुल्क व अन्य सेस लग रहे थे। स्वास्थ्य के लिए आने वाले उपकरणों पर भी "स्वास्थ्य सेस" लिया जा रहा था। राहुल गाँधी व शशि थरूर ने मांग की कि कोरोना के उपचार में प्रयोग होने वाली सभी किट्स,  उपकरणों पर लगने वाले टेक्स को हटा दिया जाये ताकि टेस्ट व उपचार सस्ता हो जाये। सरकार के इशारे पे कपड़ा मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली संस्था द ऐपरेल एक्सपोर्ट काउंसिल ऑफ इंडिया, ने टेक्स हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से मना कर दिया। इनका मत था कि मेन्युफेक्चरिंग और किट्स कि कीमतों पे कोई असर नहीं पड़ेगा। एक बच्चा भी समझ सकता है कि यदि टेक्स हटेगा तो कीमत कम होंगी। पता नहीं इनके इस विचार के लिए एक्सप्लानेशन क्योँ नहीं मांगी गयी।

यह व्यापारी वर्ग है, कोरोना के उपकरण राज्य सरकारें खरीदेंगी लेकिन सोर्सिंग केंद्र सरकार कार रही है, जीएसटी लगेगा तो लागत में जोड़ के वसूल लिया जायेगा जनता के पैसे से। इस लिए व्यापारियों की सेहत पर कोई नुकसान नहीं होगा और अधिक पैसा तो जनता की जेब से जायेगा, और बजट की वजह से दोष राज्य सरकारों पर आएगा।

जब ज्यादा लोग मरते हैँ तो गिद्ध और लकड़भग्गे खुश होते हैँ, क्योंकि उनके लिए खाने का वही अवसर है। और हमारा सिस्टम तो गिद्धों का ही है,  कोरोना के बहाने अपने मकसद पूरे करने मे लगे हैँ।

असल सवाल और मुद्दे यही और इनसे मिलते जुलते हैं जो लक्ष्मीप्रताप सिंह ने उठाये हैं और ऐसे ही सवाल न उठे, और कोई उठाने की कोशिश करे तो भटकाव के लिये ही, अर्नब गोस्वामी जैसे ट्रोल उतार दिए जाते हैं। अर्नब गोस्वामी के खिलाफ बहुत कुछ होगा तो हो सकता है वे माफी मांग लेंगे जो इस गिरोह की यूएसपी औऱ पुरानी आदत है। पर इसी हंगामे में वे सारे सवाल जो आज उठने चाहिए, फिलवक्त के लिये टल जाएंगे।

अर्नब गोस्वामी के खिलाफ जो मुकदमे दर्ज हैं उनकी पैरवी होनी चाहिये और कानून को अपना रास्ता तय करना चाहिये। अर्नब गोस्वामी अकेले नहीं है बल्कि अंजना ओम कश्यप, रुबिका लियाकत, दीपक चौरसिया सुधीर चौधरी जैसे कई नामी पत्रकार चेहरे इस बदलते परिवेश में ट्रॉल की तरह रूपांतरित हो गए हैं। ऐसे कई ट्रॉल सरकार के पास हैं वह वक़्त ज़रूरत उन्हें निकालती रहती है और आगे भी निकालती रहेगी। अभी सरकार के चार साल शेष है। उन्हें भी पता है कि वे पिछले 6 सालों में कुछ नहीं कर पाए और अब अगले चार साल में भी कुछ नहीं कर पाएंगे तो बस ऐसे ही ट्रॉल उनके सहारे हैं, जो वक़्ती राहत दे सकते हैं।

अर्नब गोस्वामी द्वारा रिपब्लिक टीवी पर सोनिया गांधी पर कुछ टिप्पणी की जाने के बाद देर रात यह खबर आयी कि उनपर दो व्यक्तियों ने हमला किया है। हमले की सूचना रिपब्लिक टीवी ने अपने ट्विटर हैंडल पर दी। यह ट्वीट 23 अप्रैल 2020 की रात एक बज कर छह मिनट का है। अर्नब खुद लाइव होते हैं और अपने ऊपर हुए हमले की सूचना देते हैं। अब इस हमले पर भी कुछ सवाल उठ रहे हैं जिन्हें देखिए।

घटनाक्रम देखिये.
● अर्नब गोस्वामी ने एक वीडियो संदेश जारी किया कि उनकी पत्नी और उन पर 22/ 23 अप्रैल 2020 को हमला किया गया।

● अब यह देखते हैं कि वह वीडियो जो अर्नब ने जारी किया है उसे कब बनाया गया था।

● एक वेदसाइट है जो ऐसे तथ्यों की पड़ताल करती है। उसका नाम और लिंक www.metadata2go.com है।

● जांच का परिणाम यह निकलता  है कि वह वीडियो जो हमले की बात कर रहा है, वह वास्तव में 22 अप्रैल को रात 8.17 बजे बनाया गया था। पर यह टाइम अलग टाइम जोन का है जो जीएमटी टाइम बताता है। भारतीय समय से यह बिंदु वीडियो को गलत साबित नहीं करता है। सत्य क्या है केवल इसी तकनीक के सहारे नहीं कहा जा सकता है। तकनीक एक दिशा देती है पर अन्य जरूरी साक्ष्य उसे साबित करने के लिये आवश्यक होते हैं। 

● यह कैसे संभव है कि हमला रात में हो, उसका विडियो हमले के पहले ही तैयार हो जाय ? जांच में इस विंदु को भी ध्यान में रखा जाय और जांच गंभीरता से की जाय।

● यह निश्चित रूप से एक साजिश है जिसमे अर्नब का इस्तेमाल हो रहा है और इसका एक ही उद्देश्य है मूल समस्याओं से ध्यान भटकाना।
कहा जा रहा है कि अर्नब पर दो लोगो ने हमला किया जिसे सिक्योरिटी वालों ने पकड़ा और दोनों हमलावरों ने सिक्योरिटी वालों के सामने  यह कबूल किया कि उन्हें हमला करने के लिये भेजा गया है और वे यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ता है। फिर अर्नब के साथ नियुक्त सुरक्षा कर्मियों ने उन हमलावरों को छोड़ दिया। होना तो यह चाहिए था कि पुलिस को उन्हें सौंप दिया जाता।

एक औऱ महत्वपूर्ण विंदु सामने आ रहा है कि, रिपब्लिक टीवी 23 अप्रैल की रात 1.06 बजे हमले की सूचना ट्विटर पर देता है और बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा 1.05 बजे और अशोक पंडित 00.55 पर हमले की निंदा कर देते हैं। कैसे ?

या तो रिपब्लिक टीवी ने ट्वीट करने के पहले ही संबित पात्रा और अशोक पंडित को हमले की बात बताई हो या उन दोनों को ही हमले के बारे में जानकारी हो। अब सच क्या है जब सबसे अलग अलग पूछताछ होगी तो पता चल जाएगा। असल बात यह है कि हमले के बारे में अर्नब ने थाने पर कोई मुकदमा लिखाया या नहीं और अगर लिखाया तो उसमें घटना का क्या समय दर्ज कराया गया है ?

यह भी कहा जा रहा है कि अर्नब गोस्वामी को वाय Y श्रेणी की सुरक्षा मिली है। इस श्रेणी में कुल 11 सुरक्षा कर्मी नियुक्त होते हैं और हर समय वह व्यक्ति सुरक्षा घेरे में ही रहता है जिसे सुरक्षा दी गयी है। अर्नब के साथ भी ऐसा ही था।  उंस समय सुरक्षा में जो गनर उनकी गाड़ी में बैठा था उससे भी इस बारे में गहराई से पूछताछ करनी चाहिये। क्योंकि उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वह सुरक्षा बनाये रखे। घटना की जांच तुरन्त होनी चाहिए और हमलावर की गिरफ्तारी भी होनी चाहिए।

संतो की हत्या पर प्रधानमंत्री जी और गृहमंत्री का भी कोई ट्वीट आंखों से नहीं गुजरा। उद्धव ठाकरे ने, अपने एक बयान में कहा है कि उन्होंने घटना के बारे में गृहमंत्री को उसी दिन, जिस दिन यह सब सोशल मीडिया पर आ रहा था, बता दिया था। चूंकि हमला और हत्या संतों की थी तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जी ने भी इस घटना के बारे में उद्धव ठाकरे से जानना चाहा। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के अनुसार उन्होंने योगी आदित्यनाथ जी को जो घटना हुयी थी, उससे अवगत करा दिया था। अर्नब को शिकायत सोनिया गांधी से यह है कि उन्होंने संतो की हत्या पर कुछ क्यों नहीं कहा। पर वे यह भूल गए कि कांग्रेस महाराष्ट्र में सरकार में है और यह सरकार का दायित्व है कि वह मुल्ज़िम को गिरफ्तार करे। सरकार अपना दायित्व पूरा कर भी रही है। अगर नहीं पूरा कर रही है तो सोनिया गांधी के साथ साथ यही सवाल, इसी अंदाज़ में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से कर लेते।

घटना के बाद एक वीडियो चलता है कि उसमें शोएब का नाम कोई ले रहा है। उस पर भी यह सवाल उठता है कि क्या उस गांव में जहां यह घटना हुयी थी कोई शोएब नाम का व्यक्ति है भी । इस तथ्य की जानकारी तो उस गांव में जाकर कोई भी खोजी पत्रकार कर सकता है औऱ यह पता करना इतना कठिन काम भी नहीं है। पर जैसा कि महाराष्ट्र के गृहमंत्री ने जो सूची जारी की है उसमें एक भी मुस्लिम नहीं है और पुलिस ने जानबूझकर कर किसी मुस्लिम या शोएब को छोड़ दिया है तो उसका नाम उजागर कर खबरें दी जा सकती हैं। पर आज तक यह नहीं हुआ। न तो टीवी चैनलों ने यह बात बताई और न ही मराठी और अन्य अखबारों ने।

अर्नब गोस्वामी के पालघर लिंचिंग के संदर्भ में सोनिया गांधी को लेकर जो कुछ भी कहा गया, उसकी बेहद गम्भीर प्रतिक्रिया हुयी और ट्विटर पर अर्नब गोस्वामी के खिलाफ #arrestarnabgoswami  ट्रेंड करने लगा। रात तक पता लगा उन पर रायपुर सहित अन्य जगहों पर भी साम्प्रदायिकता फैलाने के संदर्भ में आईपीसी की धाराओं में कई मुक़दमे दर्ज हो गए है। ट्विटर पर अरेस्ट अर्नब गोस्वामी ट्रेंड होते ही भाजपा आईटी सेल के लोग सक्रिय हो गए। यह तो एक वैचारिक द्वंद्व है और पक्ष विपक्ष में ऐसे द्वंद और हैशटैग ट्रेंड चलते रहते हैं। यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है।

पर जो संदेश ट्विटर पर फैलाया गया, उसे पढ़े । एक ही संदेश एक ही कमांड से आया, और सन्देश था, strong support for ture indian. Ture का क्या अर्थ क्या है यह मुझे नहीं पता। हो सकता है वे true लिखना चाहते हों पर स्पेलिंग की गलती हो गयी हो। स्लिप ऑफ की बोर्ड हो यह, और वे true  यानी सच्चा कहना चाहते हैं पर सही टाइप न हो पाया हो।

खैर स्पेलिंग की गलतियां हो जाती है। पर जिस प्रकार से यह कट पेस्ट किया गया है वह मानसिक दासता और विवेक के लेशमात्र भी उपयोग न करने का एक दुःखद उदाहरण है। बात स्पेलिंग या वर्तनी या हिज्जे के मज़ाक़ उड़ाने की नहीं है उतनी जितनी यह सोच कर चिंतित होने की है कि देश की सभ्यता, संस्कृति, विद्या, पौरुष, आदि की बात बात में बात करने वाले लोगों का आईटीसेल एक कम्प्यूटर प्रोग्राम्ड मस्तिष्क में बदल गया है, जिसका रिमोट किसी एक के पास है जो वह कोई भी सन्देश गढ़ता है और फिर उसे जैसे ही भेजता है वह पुरानी फिल्मों में छपते हुए अखबारों की तरह निकलने लगता है।हम एक ऐसे समाज मे बदल रहे हैं जो अपने विवेक का प्रयोग ही भूलता जा रहा है। सवाल करना, संदेह जताना, अपने अधिकारों के लिये आंख में आंखें डालकर बात करना गुण नहीं दुर्गुण समझे जाने लगे है।

लोकतंत्र भेड़तन्त्र नहीं है। भारतीय वांग्मय, सभ्यता संस्कृति और परंपरा में प्रश्नाकुलता एक स्थायी भाव है। गुरु शिष्य परंपरा से लेकर समाज मे खुलकर वाद विवाद, सवाल जवाब होते थे। असहज से असहज सवाल उठते थे। उनका उत्तर नहीं दिया जा सकता था तो, उत्तर ढूंढे जाते थे। शोध होते थे। अनुसंधान की बात की जाती थी। सनातन धर्म सेमेटिक धर्मो से मूल रूप से अलग ही इस दृष्टि में है कि यहां तो ईश्वर के अस्तित्व पर भी सवाल उठा है और उसके भी उत्तर दिए गए हैं। आज उसी देश मे उसी परम्परा में  चुने हुए अपने प्रतिनिधि से सवाल उठाना ही कुछ लोगो की नज़र में गलत हो गया है। क्या यह बौद्धिक प्रतिगामिता और दारिद्र्य नहीं है।

चीखना, चिल्लाना, अतिथि को भले ही वह विपरीत विचारधारा का हो उसे अपने सामने बुला कर अपमानित करना, उन्माद के लक्षण तो हो सकते हैं पर वह पत्रकारिता तो नहीं ही है । गम्भीर पत्रकारिता और टीआरपी के उद्देश्य से की गयी कानफोड़ू पत्रकारिता का फर्क ही समाप्त हो गया है। अर्नब आज से नहीं चीख रहे हैं वे बल्कि वे तो टाइम्स नाउ के समय से ही चीख रहे है। मुझे तो कभी कभी हैरानी होती है कि अतिथि पैनलिस्ट उनके शो में जाते ही क्यों हैं और वे यह शोर शराबा, बदतमीजी भरी ज़ुबान बर्दाश्त कैसे कर लेते हैं ?

अर्नब का एक वीडियो है जिसमे वे योगी आदित्यनाथ को कह रहे हैं कि वे धर्म के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। क्या यह बात संत समाज के सम्मान में कही गयी है ? पर एक दूसरे वीडियो में अर्नब, योगी जी की प्रशंसा करते नहीं अघाते हैं। दूसरे वीडियो के समय योगी जी मुख्यमंत्री बन चुके थे। यह सम्मान का विलक्षण मापदंड है जो संतत्व से नहीं राजदंड परिभाषित होता है।

अर्नब ने सोनिया गांधी से सवाल पूछा, इसमे कोई आपत्तिजनक नहीं है पर उन्होंने कभी भी न तो प्रधानमंत्री से सवाल पूछा और न ही गृहमंत्री से। मैं दावे के साथ कहता हूं कि पत्रकारिता का यह अर्नब मॉडल वे कभी भी उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के खिलाफ नहीं आजमाएंगे क्योंकि वे यह अच्छी तरह से जानते हैं कि चीखना चिल्लाना कहाँ है और दुम दबाकर सरक जाना कहां से है !

अगर अर्नब की सुरक्षा कम है तो उसे सरकार बढ़ा दे। क्योंकि आगे भी इन्हीं अर्नब और अर्नब की इन्ही अंदाजे बयानी से सरकार को अपने मुद्दे भटकाने हैं। अगर यह सरकार के एजेंडे से अलग हट गए तो ऐसा नायाब नमूना तो सरकार को पत्रकारिता जगत में जल्दी मिलने से रहा।

( विजय शंकर सिंह )

Monday, 20 April 2020

कोरोना आपदा के बाद भारतीय उद्योगों की स्थिति / विजय शंकर सिंह

देश मे पहला कोरोना का मामला 30 जनवरी को सामने आया जो केरल से था। केरल से प्रवासी आबादी बहुत अधिक संख्या में विदेशों में रहती है और यह रोग वहीं से आया है। लेकिन 30 जनवरी के पहले मामले के बाद भी केंद सरकार ने लम्बे समय तक इस मामले पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया । इसी बीच 24 और 25 फरवरी को नमस्ते ट्रम्प कार्यक्रम जो अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत आगमन के संबंध में आयोजित था, सम्पन्न हुआ। 13 मार्च तक सरकार ने इसे स्वास्थ्य इमरजेंसी नहीं माना।  तब तक न तो एयरपोर्ट पर सुदृढ़ चेकिंग की गयी और न ही अस्पतालों को समृद्ध किया गया और न ही डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ के लिये पर्याप्त संख्या में पीपीई किट और अन्य सुरक्षा उपकरणों की व्यवस्था की गयी। अंत मे एक ही निरोधात्मक मार्ग बचता है घरों में कैद होकर सोशल डिस्टेंसिंग बरतने का तो सरकार ने पहले 21 दिन का लॉक डाउन 25 मार्च से और फिर 3 मई तक का लॉक डाउन 14 अप्रैल से लागू करने की घोषणा की। हम सब उसी लॉक डाउन में हैं। 

संक्रमण रोकने के इस एकमात्र निरोधक उपाय, क्योंकि अभी तक कोविड 19 से बचने के लिये वैक्सीन का अविष्कार नहीं हो पाया है तो यही एक उपाय शेष भी बचता है, तो इसके अन्य क्षेत्रों में दुष्प्रभाव पड़ने शुरू हो गए हैं। सबसे घातक प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ा है जो 2016 के नोटबन्दी के बाद से निरन्तर अधोगामी हो रही है । बिना किसी पूर्व तैयारी और उचित रणनीति के इस लॉक डाउन ने बड़े से लेकर छोटे उद्योगों तक, संगठित से लेकर रोज कमाने खाने वाले असंगठित क्षेत्र तक के लोगों को घरों में बैठने को विवश कर दिया है। आनन-फानन में घोषित लॉकडाउन में ज़रूरी सेवाओं के अलावा अन्य सभी तरह की सेवाएं बंद कर दी गई हैं। जिसका परिणाम यह हुआ कि,  सारा व्यापार और कारोबार थम गया है, अधिकतर दुकानें प्रायः बंद हैं, आमलोगों की आवाजाही पर रोक है। अगर सीधे शब्दों में कहें तो, पहले से ही विभिन्न प्रकार की क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुश्किलें झेल रही भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह कोरोना आपदा न केवल जीवन के लिये एक महामारी लेकर आयी है, बल्कि यह देश की अर्थव्यवस्था के लिये भी आज़ादी के बाद से, अब तक की सबसे बड़ी चुनौती भी है।

सबसे पहले बात बेरोजगारी की होनी चाहिए। बेरोजगारी से न केवल आर्थिक विकास की गति कम होती है बल्कि जनता में भी असंतोष फैलता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, नोटबंदी के बाद देश में 50 लाख लोगों को अपनी नौकरियां गवांनी पड़ी है। साथ ही देश में बेरोजगारी की दर वर्ष 2018 में बढ़कर सबसे ज्यादा 6 प्रतिशत हो गई है। यह 2000 से लेकर 2010 के दशक के दर से दोगुनी है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि पिछले एक दशक के दौरान देश में बेरोजगारी की दर में लगातार वृद्धि हुयी है। 2016 के बाद यह अपने अधिकतम स्तर को छू गयी है। उसके बाद तो सरकार ने आंकड़ो को ही सार्वजनिक करने से मना कर दिया है। एक अनुमान के अनुसार, देशभर में 1.28 करोड़ छोटे उद्योग हैं और मौजूदा समय में 35 करोड़ लोगों को रोजगार देते है । कोरोना की मार सबसे ज्यादा इन उद्योगों पर पड़ने वाली है। समान की आपूर्ति में आ रही कठिनाइयों और सरकारी और निजी कंपनियों की तरफ से बकाया राशि न मिलने केे कारण, छोटी कंपनियों का अस्तित्व खतरे में आ गया है। इंडिया एसएमई फोरम की डायरेक्टर जनरल सुषमा मोरथानिया ने कहा कि छोटी कंपनियों की मुश्किलें इतनी बढ़ती जा रही हैं कि " आने वाले दिनों में उन्हे, कर्मचारियों को वेतन देने का भी संकट खड़ा हो जाएगा। लॉकडाउन खुलने के बाद अगर इस मुश्किल वक़्त में सरकार ने मदद नहीं की तो उन कम्पनियों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। जिससे न सिर्फ बेरोजगारी बढ़ेगी बल्कि बाज़ार में मुद्रा का प्रवाह भी कम हो जायेगा जिससे मंदी और गहराएगी। " ऐसे में, कारोबारियों की तरफ से सरकार को सुझाव दिया गया है कि छोटे कारोबारियों से जुड़े सभी उत्पादों और सेवाओं पर जीएसटी आधा कर दिया जाए और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के लिए 25 करोड़ टर्नओवर और सेवा क्षेत्र के लिए 10 करोड़ तक टर्नओवर वाले कारोबारियों को यह छूट कम से कम 2 साल तक दी जाए।

जानकारों की राय में, लॉकडाउन का सबसे ज़्यादा असर असंगठित क्षेत्र पर पड़ेगा। इस क्षेत्र से ही हमारी अर्थव्यवस्था का 50 प्रतिशत  हिस्सा जीडीपी में जुड़ता है। यह क्षेत्र लॉकडाउन के दौरान पूरी तरह से बंद है। जब यह क्षेत्र कच्चा माल नहीं ख़रीद सकता, तैयार माल बाज़ार में नहीं बेच सकता तो उनकी आय प्रायः बंद ही हो जाएगी। नोटबन्दी के बाद से ही  देश में छोटे-छोटे कारखाने और लघु उद्योगों की बहुत बड़ी संख्या नकदी की समस्या से पहले से ही त्रस्त हैं। जब उन सबकी कमाई नहीं होगी तो ये लोग खर्च कहां से करेंगे। प्रायः महसूस किया जाता है कि ऐसे लोग बैंक के पास भी नहीं जा पाते हैं। इसलिए ऊंची ब्याज़ दर पर बाजार से ही क़र्ज़ ले लेते हैं और फिर उस क़र्ज़जाल में ऐसे फंस जाते हैं कि जिससे निकलना उनके भी लिए असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाता है।

भारत ही नहीं दुनिया की बड़ी आर्थिक ताक़तें भी इस चिंता में डूबी हैं कि कोरोना के बाद क्या स्थिति होगी। अर्थ विशेषज्ञों का मानना है कि यह मंदी 1930 की बड़ी और ऐतिहासिक अमेरिकन मंदी से भी अधिक भयावह होगी। तब तो वैश्वीकरण उतना नहीं हुआ था और विश्व एक गांव में नहीं बदल पाया था, इसलिए उस मंदी का वैश्विक प्रभाव बहुत अधिक नही पड़ा था । पर आज अमेरिका हो, चीन हो, जापान हो, अरब के तेल भंडार हों या विश्व का कोई भी सुदूर से सुदूर क्षेत्र हो, वहां की गतिविधियों से अलग थलग नहीं रहा जा सकता है। सभी देशों की आर्थिकी का असर लगभग सभी देशों पर थोड़ा बहुत पड़ता ही है। 

भारतीय उद्योग परिसंघ एक नोट ज़ारी किया है, जो चीन के संदर्भ में है। इस विमर्श में चीन के ही संदर्भ में विचार किया जा रहा है। इस नोट जो चित्र आने वाले समय का खींचा गया है वह बेहद निराशाजनक है। एक संक्षिप्त जानकारी दे रहा हूँ पढ़े। यह विवरण सेक्टर के अनुसार है। यह नोट और निष्कर्ष, बिजनेस स्टैंडर्ड, बीबीसी, फाइनेंशियल एक्सप्रेस सहित, विभिन्न पत्रिकाओं और वेबसाइटों पर उद्धृत निष्कर्षों पर आधारित है। 

● वाहन उद्योग. 
वाहन उद्योग पिछले तीन साल से मंदी से जूझ रहा है। यह महामारी इसे और प्रभावित करेगी। साथ ही इस उद्योग पर प्रभाव चीन के साथ उनके व्यापार की सीमा पर निर्भर करेगा। चीन में शटडाउन ने भारतीय ऑटो निर्माताओं और ऑटो उद्योग दोनों को प्रभावित करने वाले विभिन्न घटकों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया है। हालांकि, भारतीय उद्योग के लिए इन्वेंट्री का मौजूदा स्तर पर्याप्त है। यदि चीन में शटडाउन जारी रहता है, तो 2020 में भारतीय ऑटो मैन्यूफैक्चरिंग में 8-10 प्रतिशत का संकुचन होने की उम्मीद है। हालांकि, बिजली संचालित वाहनों के क्षेत्र के लिए, कोरोना आपदा  का प्रभाव अधिक हो सकता है। बैटरी आपूर्ति श्रृंखला में चीन प्रमुख है, क्योंकि इसमें लगभग तीन-चौथाई बैटरी उसकी मैन्यूफैक्चरिंग क्षमता से आता है। भारतीय बाजार में अगर मांग में कमी और आयी जिसकी सम्भावना दिख भी रही है तो पहले से ही मंदी से प्रभावित इस सेक्टर को और मंदी का सामना करना पड़ेगा। 

● फार्मा उद्योग. 
अगर डायबिटीज, एलर्जी, बुखार या दर्द निवारक दवाएं आपको मेडिकल स्टोर पर इन दिनों एकाएक महंगी मिलने लगी हों तो हैरत में मत पड़िएगा। यह भारत  से तीन हज़ार किमी दूर चीन के वुहान शहर और आसपास फैले नोवेल कोरोना वायरस का असर है। उस इलाके में हज़ारो लोग  मर चुके हैं और लाखों को संक्रमित करने वाला यह वायरस चिकित्सा जगत के लिए विकट चुनौती बन गया है। हालांकि भारत दुनिया में शीर्ष दवा निर्यातकों में से एक है, लेकिन घरेलू फार्मा उद्योग थोक दवाओं (एपीआई और मध्यवर्ती जो कि उनके चिकित्सीय मूल्य देते हैं) के आयात पर बहुत अधिक निर्भर करता है। भारत ने वित्त वर्ष 2019 - 20 में लगभग 24,900 करोड़ रुपये की थोक दवाओं का आयात किया था, जो कुल घरेलू खपत का लगभग 40 प्रतिशत है। चीन द्वारा भारत के एपीआई के आयात से इसकी खपत का लगभग 70 प्रतिशत औसत की दर से आयातकों को आपूर्ति बाधित होने का खतरा है। कई महत्वपूर्ण एंटीबायोटिक दवाओं और एंटीपीयरेटिक्स के लिए, चीन से आयात पर हमारी निर्भरता 100 प्रतिशत के करीब है।

दवा उत्पादन के गढ़ बद्दी (हिमाचल प्रदेश) में इस संकट की आहट साफ सुनाई दे रहीं है। मेडिक्योर फॉर्मा के निदेशक हितेंद्र सिंह बताते हैं, ''एंटी बायोटिक, एंटी एलर्जिक और डायबिटीज जैसी दवाओं को तैयार करने में प्रयोग होने वाला कच्चा माल पिछले महीने भर में ही दो से तीन गुना महंगा हो गया है । '' उनकी कंपनी देश की 600 से ज्यादा घरेलू कंपनियों के लिए दवाएं तैयार करती है. दर्द निवारक दवाइयों में इस्तेमाल होने वाले पैरासीटामॉल के बिना फॉर्मा उद्योग की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हितेंद्र सिंह के शब्दों में, ''अभी पिछले महीने तक इसका भाव 270 रु. किलो था और अब 600 रुपए के पार है। '' जाहिर है, कच्चे माल के दाम में अप्रत्याशित तेजी से दवाओं के दाम बढ़ेंगे, जिसकी महंगी कीमतों का प्रभाव  बीमारों पर ही पड़ेगा। कई दवाइयां जीवन रक्षक श्रेणी में आती हैं जिनके दाम सरकार तय करती है, उनपर भले ही असर न पड़े पर आम दवाएं तो उस असर से मुक्त नहीं रह पाएंगी। 

● केमिकल उद्योग 
भारत में स्थानीय डाइस्टफ इकाइयाँ चीन से कई कच्चे मालों के आयात पर निर्भर हैं, जिनमें रसायन और अन्य मध्यवर्ती वस्तुयें शामिल हैं। चीन से विलंबित शिपमेंट और कच्चे माल की कीमतों में बढ़ोतरी से विशेषकर गुजरात में रंजक और डाइस्टफ उद्योग प्रभावित हो रहे हैं। कच्चे माल की आपूर्ति में व्यवधान के कारण लगभग 20 प्रतिशत उत्पादन प्रभावित हुआ है। चीन वस्त्रों के लिए विशेष रसायनों का एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता है, विशेष रूप से इंडिगो डेनिम के लिए आवश्यक है। हालांकि, यह एक अवसर भी है क्योंकि अमेरिका और यूरोपीय संघ अपने बाजारों में विविधता लाने और चीन के जोखिम को कम करने की कोशिश करेंगे। यदि इसका फायदा उठाया जाए तो इस व्यवसाय में से कुछ को भारत में भेजा जा सकता है।

अनिश्चिताओं के बीच केमिकल्स के दाम बढऩे शुरू हो गए हैं, जिसका असर आने वाले सीजन में कीटनाशक और जैविक उत्पादों की कीमतों में देखने को मिलेगा. खेती के ही स्प्रे पंप का आयात करने वाली इंदौर की एक और कंपनी  प्रमुख बीसी. बैरागी को भी इस साल कारोबार ठंडा रहने का अंदेशा है. ''हर साल इन्हीं दिनों चीन जाकर नए उत्पाद देखकर मोलभाव करके पंप आयात किए जाते हैं। अब फैक्ट्रियां ही बंद पड़ी हैं। जब तक नए उत्पाद, नए भाव हाथ में नहीं आ जाते तब तक किसी भी व्यापारी को ठोस जानकारी देना मुश्किल है। गोदाम में पिछले साल का कुछ माल जरूर रखा है. इसके बाद इस साल पंप का काम कर पाएंगे, कहना मुश्किल है। "

● इलेक्ट्रॉनिक्स
चीन अंतिम उत्पाद के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग में उपयोग किए जाने वाले कच्चे माल के लिए एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता है। भारत का इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग इलेक्ट्रॉनिक्स घटक आपूर्ति-पर प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष और स्थानीय विनिर्माण पर भारी निर्भरता के कारण, आपूर्ति में व्यवधान, उत्पादन में कमी, उत्पाद की कीमतों पर प्रभाव से डर रहा है। कोरोनावायरस के प्रसार से भारत की प्रमुख आपूर्ति करने वाली शीर्ष इलेक्ट्रॉनिक कंपनियों और स्मार्ट फोन निर्माताओं की बिक्री को धक्का लग सकता है।

● सौर ऊर्जा
भारत में सौर ऊर्जा परियोजना डेवलपर्स चीन से प्राप्त सौर मॉड्यूल पर निर्भर हैं।  यह मॉड्यूल सौर परियोजना की कुल लागत का लगभग 60 प्रतिशत है। चीनी कंपनियों ने भारतीय सौर घटकों के बाजार पर अपना वर्चस्व कायम करते हुए लगभग 80 प्रतिशत सौर कोशिकाओं और मॉड्यूलों की आपूर्ति की, जिससे उनका प्रतिस्पर्धी मूल्य निर्धारण हुआ। चीनी विक्रेताओं ने प्रकोप के कारण भारतीय डेवलपर्स को अपने यहां घटकों के उत्पादन, गुणवत्ता जांच और परिवहन में हो रही देरी के बारे में सूचित कर दिया है। परिणामस्वरूप, भारतीय डेवलपर्स ने सौर पैनलों / कोशिकाओं और सीमित शेयरों में आवश्यक कच्चे माल की कमी का सामना करना शुरू कर दिया है।

● इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी
चीन में वार्षिक  छुट्टियों ने चीन से बाहर काम करने वाली घरेलू आईटी कंपनियों के राजस्व और विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। आईटी कंपनियां जनशक्ति पर बहुत अधिक निर्भर हैं और लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे आवश्यक मुद्दों से उत्पन्न प्रतिबंध के कारण काम करने में सक्षम नहीं हैं। परिणामस्वरूप वे समय पर मौजूदा परियोजनाओं को पूरा करने या वितरित करने में सक्षम नहीं हैं और नई परियोजनाओं को भी वेे कम कर  रहे हैं। इसके अलावा, चीन में भारतीय आईटी कंपनियों के लिए वैश्विक ग्राहकों ने मलेशिया, वियतनाम आदि जैसे वैकल्पिक स्थानों में अन्य सेवा प्रदाताओं की तलाश शुरू कर दी है।

● शिपिंग
भारत और चीन के बीच शिपमेंट में देरी की शिकायतें आई हैं। 2020 की पहली तिमाही में भारतीय शिपिंग कंपनियों की कुल आय के बारे में इस सेक्टर को अनेक गंभीर चिंताएं हैं। जनवरी 2020 के तीसरे सप्ताह से ड्राई बल्क कार्गो आंदोलन में तेज गिरावट आई है। क्योंकि चीन में शटडाउन का मतलब है कि जहाज चीनी बंदरगाहों में प्रवेश नहीं कर सकते।

● टूरिज्म और एविएशन
कोरोनावायरस के प्रसार से एविएशन सेक्टर भी प्रभावित हुआ है। प्रकोप ने घरेलू वाहक को भारत और चीन और हांगकांग से भारत में परिचालन करने वाली उड़ानों को रद्द करने और अस्थायी रूप से निलंबित करने के लिए मजबूर किया है। इंडिगो और एयर इंडिया जैसे कैरियरों ने चीन के लिए काम रोक दिया है। चीन और हांगकांग के लिए उड़ानों के अस्थायी निलंबन से इस सेक्टर के सकल राजस्व लक्ष्य पर बेहद प्रभाव पड़ेगा। 

● टेक्सटाइल इंडस्ट्री
चीन के कपड़ा कारखानों ने भारत से कपड़े, यार्न और अन्य कच्चे माल के निर्यात को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हुए कोरोनवायरस के प्रकोप के कारण परिचालन को रोक दिया है। विघटन से सूती धागे के निर्यात में 50 प्रतिशत की कमी आने की संभावना है, जिससे भारत में कताई मिलों पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। माल के प्रवाह बाधिता के इस दौर में इस मंदी के कारण राजस्व, कपड़ा इकाइयों को वार्षिक ब्याज और वित्तीय संस्थानों को पुनर्भुगतान करने में बाधा आ सकती है, जिससे उनका बकाया चुकता नहीं हो पाएगा। इससे कपास के किसानों की मांग पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, जो पहले से ही दबे हुए हैं और उन्हें डर है कि अगर चीन का यह संकट आगे भी जारी रहा तो उनक़ी  कीमतों में और गिरावट आ सकती है। उल्लेखनीय है कि भारत के पास पहले से ही वियतनाम, पाकिस्तान और इंडोनेशिया जैसे देशों के विपरीत, एक प्रतिस्पर्धा है, जो सूती धागे के निर्यात हेतु चीन के लिए शुल्क मुक्त क्षेत्र है। हम चीन के लिये शुल्क मुक्त नहीं हैं। दूसरी ओर, चीन में कोरोनावायरस मुद्दा उन सभी उद्योगों के लिए एक बड़ा अवसर प्रकट करता है जहां चीन एक प्रमुख निर्यातक है।

● इंजीनियरिंग गुड्स सेक्टर
लुधियाना मशीन टूल्स मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन के निदेशक दिलदार सिंह के शब्दों में इस सेक्टर के बारे में पढ़ें, ''इधर 3-4 वर्षों में चीन पर हमारी निर्भरता बढ़ी है। यहां कई ऐसे मैन्युफैक्चरर हैं जो चीन से तैयार माल मंगवाकर ट्रेडिंग करने लगे हैं। अब जब आयात ठप्प या कम होगा तो निश्चित तौर पर हमारे यहां उनकी मैन्युफैक्चरिंग बढ़ेगी। यहां बनाकर तकनीकी गुणवत्ता की बराबरी कर पाना मुश्किल है लेकिन सप्लाई लंबे समय तक ठप्प रही तो भारतीय उत्पादकों के लिए यह एक अवसर भी होगा,  क्योंकि हमारे पास विकल्प सीमित हो जाएंगे। '' भारत में तैयार उत्पाद की कीमत भी एक अहम मुद्दा होती है, कीमत ही वह वजह थी, जिसकी वजह से मैन्युफैक्चरर खुद न बनाकर चीन से तैयार माल मंगवाकर बेचने लगे। दिलदार सिंह कहते हैं, ''इस मौके को भुनाने के लिए सरकार को उद्योगों की मदद करनी होगी, जिसकी उम्मीद कम नजर आती है। ''

इसे संक्षेप में इस प्रकार समझें। दवाएं बनाने में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल यानी सॉल्ट के लिए भारत चीन पर निर्भर है. और चीन में आलम यह है कि वहां फैक्ट्रियां बंद पड़ी हैं, बंदरगाह ठप हैं और श्रमिक खौफ में हैं. उत्पादन और आपूर्ति की पूरी कड़ी ही उलझ गई है. ऐसे में न केवल फार्मा बल्कि चीन से सस्ते आयात पर टिके तमाम उद्योगों में अफरातफरी है. चीन से कुल आयात में 80 फीसद से ज्यादा हिस्सा इलेक्ट्रॉनिक्स, इंजीनियरिंग के सामान, केमिकल और इससे जुड़े उत्पादों का है. देश के बीसियों उद्योगों के लिए वही कच्चा या तैयार माल है । बच्चों के खिलौने, गिफ्ट आइटम, फर्नीचर, गैस चूल्हे, बेल्ट बक्कल, चैन (जिप) जैसी छोटी-छोटी चीजों के बाजार में भी चीन का ही दबदबा है. कोरोना वायरस से निपटने में जो भी वक्त लगे पर भारत में इसने उद्योगों को भी अपनी आपदा के गिरफ्त में ले लिया है।

कोरोना की महामारी के अंत में पूरी दुनिया पर इसका प्रभाव खरबों डॉलर का होने वाला है। वर्ष 2002-2003 का संदर्भ लें,  जब चीन में सार्स नाम की महामारी नौ महीने तक फैली थी तब इसने 8,000 से ज्यादा लोगों को चपेट में लेने के साथ, 774 लोगों की जानें भी ले ली थीं। उस समय व्यापार विशेषज्ञों के अनुसार, दुनियाभर को 4,000 करोड़ डॉलर का नुकसान हुआ था। 2003 में विश्व अर्थव्यवस्था में चीन की हिस्सेदारी केवल 4 प्रतिशत थी। विश्व अर्थव्यवस्था तब 2.9 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रही थी लेकिन चीन की आर्थिक विकास दर 10 प्रतिशत थी। 

अब कोरोना का यह कहर सार्स से कहीं अधिक घातक  है और विश्व अर्थव्यवस्था में चीन का प्रभाव भी बढ़ा है। वर्तमान समय में दुनिया की अर्थव्यवस्था में चीन की हिस्सेदारी 2003 के मुकाबले चार गुना ज्यादा यानी 16 प्रतिशत है। ऐसे में कोरोना के कहर से चीन की आर्थिक विकास दर एक से सवा प्रतिशत तक कम होने के अनुमान लगाए जा रहे हैं। इसके असर से विश्व अर्थव्यस्था की रफ्तार भी 0.5 प्रतिशत तक घटने की संभावना है।

चीन न केवल दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक बल्कि दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश भी है. 100 से ज्यादा देशों के लिए चीन की फैक्ट्रियां सबसे बड़ी आपूर्तिकर्ता हैं, दूसरी ओर चीन के 4 प्रांतों और 48 शहरों में थमी 50 करोड़ लोगों की जिंदगी के खपत पर भी असर डालेगी, जो दरअसल भारत जैसे कई देशों का बाजार भी है। इस समय भारत के कुल आयात में चीन की हिस्सेदारी 14 प्रतिशत है, जबकि भारत के निर्यात में चीन की हिस्सेदारी मात्र 5 प्रतिशत है। भारत का यह व्यापार घाटा 53.6 अरब डॉलर का है. और आयात आधारित उद्योगों में संकट तो अब दिखने ही लगा है।

इस लेख में चीन को प्रमुखता इस लिये दी गयी है कि चीन से हमारे व्यापार का अंश अन्य किसी भी देश के व्यापार से अधिक है अगर रक्षा सौदों को अलग कर दिया जाय तो। ऐसी स्थिति में यह आपदा केवल एक संकट ही लेकर नहीं बल्कि एक चुनौती के रूप में भी हमारे सम्मुख उपस्थित है। हमारे पास, श्रम है, कौशल है, क्षमता है पर किसी भी स्पष्ट नीति और उचित दिशानिर्देश का अभाव हमे सदैव आयातक अधिक निर्यातक कम बनाता रहा है। कुछ तो कर प्रणाली, कुछ बेमतलब की नौकरशाही का अंकुश, और ग्राह की तरह ग्रसे भ्रष्टाचार ने हमारे उद्योग जगत को कभी भी मुक्त भाव से प्रतियोगिता में उतरने नही दिया। ऐसे घरेलू संकटों से निपटने के लिये राजनीतिक इच्छाशक्ति, प्रशासनिक दक्षता और कुशल प्रतिभा की आवश्यकता अनिवार्यतः पड़ती है। अभी तो हम सब घातक वायरस से बचने के लिये घरों में कैद हैं। पर यही समय है जब सरकार आपदा बाद के प्रबंधन की रूपरेखा बना ले ताकि उसे समय मिलते ही लागू किया जा सके। यह समय एकजुटता का है। बिना एक हुये कभी भी किसी संकट का सामना नहीं किया जा सकता है। सरकार को भी राजनीतिक मतभेदों से हट कर उन सभी आर्थिक प्रतिभाओं को एक मंच पर लाकर इस बड़ी चुनौती का सामना करने के लिये तैयार होना पड़ेगा, अन्यथा अधोगामी होती हुयी इस आर्थिकी में सुधार की बात सोचना एक दिवास्वप्न ही होगा। 

( विजय शंकर सिंह )

Thursday, 16 April 2020

राजनीति में नेताओ का निरंतर जन संवाद आवश्यक है. / विजय शंकर सिंह

राहुल गांधी सहित सभी राष्ट्रीय दलों के नेताओं को इस प्रकार की नियमित प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी चाहिये। ज़ूम तो सरकार कह रही है कि आज से असुरक्षित हो गया। उसमे कोई असुरक्षित करने वाला वायरस आ गया है। अभी तो यही कोविड 19 ही बवाले जान था अब पता नहीं यह कौन सा वायरस आ गया। अब यह तो कम्प्यूटर और आईटी विशेषज्ञ ही यह ढूंढ सकते हैं और उसका समाधान सुझा सकते हैं। ज़ूम नहीं तो और क्या विकल्प है यह भी तकनीकी मित्र सुझाएँ। हालांकि उसी जूम एप्प के माध्यम से रक्षामंत्री जी ने 1 अप्रेल 2020 को, सभी सेना प्रमुखों और अन्य जनरलों से ज़ूम के द्वारा ही वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से मीटिंग की थी। और आज 16 अप्रैल को सरकार द्वारा ज़ूम असुरक्षित बताया जाने लगा। यहां फिर सरकार के अक्षमता पर सवाल उठता है कि जब सुरक्षा सिस्टम से जुड़ी खामियां इस एप्लिकेशन में थीं तो रक्षा मंत्रालय द्वारा रक्षामंत्री और सेना के जनरलों की वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग कैसे करने दी गयी ?.देश का सायबर तंत्र क्या इतना भी नहीं सोच पाता ? 

आमने सामने की लाइव प्रेस कॉन्फ्रेंस किसी भी नेता के आत्मविश्वास को दिखाती है। उसके ज्ञान और उसके प्रत्यातुपन्नमति क्षमता, जो एक तार्किक प्रतिभा का प्रमाण होती है, को बताती है। जब सभी दलों के नेता, हम सबसे आभासी प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी, रूबरू आएंगे और पत्रकारों के सहज और असहज करने वाले सवालों का उत्तर देंगे तो, हमे यह भी आभास होगा कि, वे हमारी समस्याओं को लेकर कितने सजग और सतर्क हैं। उनकी तैयारी कितनी है और उन्हें हमारी समस्याओं की जानकारी कितनी है। जानकारी है भी या नहीं, या वे जानकारी रखने का इरादा भी रखते हैं या नहीं।

कभी कभी लगता है आने वाला समय बड़ी बड़ी जनसभाएं या मेगा रैली जिसे अखबार वाले और अन्य लोग कहते हैं,  कम होने लगेगी। खबर तो यह भी मिलती है कि, बड़ी बड़ी सरकारी रैलियों में अधिकतर लोग, 500, 500 रुपये देकर ले जाये जाते हैं। यह एक प्रकार का रैली टूरिज्म या पर्यटन भी आप कह सकते हैं। इन रैलियों में, जाने वाली भीड़ न तो वैचारिक प्रतिबध्दता से प्रेरित होती है और न ही उन्हें यह पता होता है कि, वहां जाकर उन्हें क्या करना है। इस प्रकार की रैलियां अक्सर नेताओ के शक्ति प्रदर्शन के अवसर के रूप में होती हैं।

दुनिया भर के नेता इस कोरोना आपदा में अपनी अपनी जनता को नियमित प्रेस कॉन्फ्रेंस द्वारा संबोधित कर रहे हैं। अमेरिका के राष्टपति डोनाल्ड ट्रम्प तो रोज ही माइक और स्टैंड के पीछे पत्रकारों को झेलते नज़र आते हैं। कभी वे दांत पीसते हैं, कभी किसी से उलझ जाते हैं पर मैदान वे कभी नहीं छोड़ते हैं।  प्रेस वार्ता वे नियमित करते हैं। आम खाने के तरीके और एनर्जी लेवल के अनुसंधान और जिज्ञासा काल में, हम शायद उतने आक्रामक प्रेस कॉन्फ्रेंस की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।

हमारे पीएम ने पिछले 6 साल में एक बार भी खुली और लाइव प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की। इसका क्या कारण है यह तो मैं नहीं बता पाऊंगा पर यह आश्चर्यजनक ज़रूर है। प्रधानमंत्री जी एक बहुत अच्छे वक्ता हैं और बेहतर कम्युनिकेटर भी। जो वे चाहते हैं अपने लोगों के मन मे प्रतिष्ठित कर देते है। उनके लोगों में उनके प्रति दीवानगी भी कम नहीं है। भले ही उनके लोग उस प्रभा मंडल से इतने अधिक चुंधिया जांय कि उन्हें सरकार की उपलब्धियां और अन्य बातें, उंस मायावी प्रभा के कारण दिख ही न सकें। यह एक सब एक प्रवचन और श्रोता के बीच जो केमिस्ट्री बन जाती है वैसा ही हो जाता है।

फिर भी यह सब, हर नेता की अपनी अपनी शैली है। अलग अलग हाकिम का, अलग अलग अंदाज़ ए हुकूमत है। हर व्यक्ति जुदा जुदा व्यक्तित्व का होता है और सबकी फ़ितरत, सूरत और सीरत सब अलग अलग ही होती है। हमारे पीएम साहब भी कोई अपवाद नहीं हैं। वे हमसे रूबरू होते हैं, अपने मन की बात कहते हैं, सुंदर और कर्णप्रिय प्रवचन देते हैं, नयनाभिराम बन कर भी आते हैं पर आज तक सरकार के एक प्रमुख के रूप में, हमारे लिये वे या उनकी सरकार, कर क्या रही हैं यह वे कभी नहीं बताते हैं ।  यही सब जानने के लिये जरूरी है कि प्रधानमंत्री कम से कम छह महीने मे अगर सामान्य स्थिति है तो, और नही कोई आफत विपत का काल है, जैसा कि आजकल है तो, नियमित प्रेस कॉन्फ्रेंस, समय और अंतराल वे स्वयं तय कर लें, कर लिया करें।

जब इंटरव्यू की बात चलती है तो मुझे करन थापर का वह इंटरव्यू कभी नहीं भूलता जिसमें गुजरात के दंगों के बारे में करन ने नरेंद्र मोदी जी से कुछ असहज सवाल पूछ लिये। कोई जवाब वे दे नहीं पाए। समय कम था उनके पास या वे गुजरात दंगों पर बोलना नहीं चाहते थे, जैसे तैसे पानी पिया और चलते बने। फिर वे प्रसून जोशी, अक्षय कुमार और दीपक चौरसिया द्वारा लिये गए इंटरव्यू में तो आये लेकिन असहज सवाल पूछने वाले पत्रकारों से बचते रहे। कुछ तो करन थापर के बोलने की शैली, दांतो से शब्द चबा चबा कर सवाल पूछ्ने की उनक़ी आदत भी है, जो कभी कभी इंटरव्यू कम इंट्रोगेशन अधिक लग सकती है, दूसरे गुजरात दंगों से मोदी जी की सामान्य क्षवि पर बहुत प्रभाव पड़ा था, तो वे कहते भी क्या ? वह विषय थोड़ा असहज करने वाला था भी। पर पत्रकार तो ऐसा ही होना चाहिए कि पेशानी पर पसीना ला दे । यह बात अलग है कि उनके कट्टर समर्थक प्रधानमंत्री जी को उनकी गुजरात दंगों वाली उसी क्षवि में देखना चाहते हैं, जिसके कारण वे उनके आराध्य बन गए हैं। अब जब मोदी जी, जैसे ही यदा कदा उंस क्षवि से निकलना भी चाहते हैं तो उनके समर्थक उन्हें उसी पंक में ठेल कर खड़ा कर देते हैं ।

हालांकि नरेन्द्र मोदी जी को यह पता है कि, दुनिया में उदार और सर्व धर्म समभाव की क्षवि ही संसार का मान्य  स्थायी भाव है। आज भी दुनिया के इतिहास में उन्ही शासकों का नाम सम्मान से लिया जाता है जिसने अपने कार्यकाल या शासनकाल में जनता के बीच, जनता की आस्था और जातिगत भेदभाव से ऊपर उठ कर काम किया या शासन किया है । हनारे प्राचीन राज शास्त्रों में भी राजा की प्रजावत्सलता के बहुत से किस्से विद्यमान हैं।

2014 के चुनाव के समय, सबका साथ सबका विकास प्रधानमंत्री जी का मुख्य नारा था। जनता ने साथ भी खूब दिया। पर अब जब विकास के बारे मे सवाल पूछे जा रहे हैं तो प्रधानमंत्री कुछ कहें उनके पहले उनके लोग ही ट्रॉल करने लगते है। 2014 के बाद यह एक नयी संस्कृति का विकास हुआ है। फिर प्रधानमंत्री इस नारे में एक नारा और जोड़ देते हैं, सबका विश्वास। लेकिन जब चुनाव आता है तो, सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास भूल कर वे, श्मशान और कब्रिस्तान के अपने पुराने और आजमाए नुस्खे पर लौट जाते हैं। क्योंकि कम से कम उन्हें पता है कि न तो उनके पास सबका विश्वास है और न ही सबका विश्वास लेने की कोई गंभीर कोशिश भी उनके तरफ से की गयी है। और शायद वे भी यह जानते हैं कि विकास भी बहुत कुछ ऐसा नहीं है जिसे गिनाया जा सके। 

कोविड 19 के बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बार बार दुनिया को इस आपदा से निपटने के लिये एकजुट रहने की बात की है। आज दुनियाभर के सारे हथियार जिनपर उनके संग्रह कर्ताओं को नाज़ था, जो दुनिया को अपनी बपौती समझ बैठे थे, आज अपने नागरिकों को तड़प तड़प कर मरते देख रहे हैं। वे भी कुछ कर नहीं पा रहे हैं। एक अनदेखे, अबूझे दुश्मन, जो नगी आखों से देखा भी नहीं जा सकता है, से डर कर हम खुद को घरों में कैद कर बैठे हैं। यह बंदी कब तक चलेगी यह सिवाय उस जालिम वायरस के अभी तक तो किसी को भी नहीं पता है। बंदी खुलेगी, तो बाहर क्या हालात होंगे, देश की आर्थिकी, विकास, राजनीति और सामाजिक तानेबाने पर इन सब का क्या असर पड़ेगा यह, दुनियाभर के इन विषयों के विशेषज्ञ, सोच रहे हैं। सरकार को भी इस विषय मे सोचना चाहिए। हो सकता है सोच भी रही हो। इतिहास का लेखन और अध्ययन भी शायद कोरोनापूर्व और कोरोनोत्तर काल खंड में बंट जाय। पर अभी सब कुछ लॉकडाउन है। यह इतिहास का एक टर्निंग प्वाइंट है। 

( विजय शंकर सिंह )

सरकार से जवाबतलबी लोकतंत्र का मूलाधार है / विजय शंकर सिंह

अमेरिका का संविधान अपने राष्ट्रपति को दुनियाभर में किसी भी देश के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री से कहीं अधिक अधिकार और शक्तियां देता है। चार साल के लिये और वह भी एक व्यक्ति केवल दो कार्यकाल यानी आठ साल के लिये ही राष्ट्रपति चुना जा सकता है। वहां विधायिका का चेक और बैलेंस कम ही होता है क्योंकि वहां के राष्ट्रपति को जनता सीधे चुनती है। वह यह दावा करता है कि वह जनता के प्रति उत्तरदायी है। 

फिर भी वहां के राष्ट्रपति की वहां की जनता द्वारा खूब आलोचना होती है, मिमिक्री होती है, लिहाडी ली जाती है और प्रेस आंख में आंख डालकर सवाल पूछता है, जिम्मेदारी थोपता है और न कि, वहां, आम खाने के तऱीके कोई गैर पेशेवर पत्रकार बना एक्टर पूछता है और न ही कोई राजकृपा प्राप्त कवि उनका एनर्जी लेवल मापता है। जिस वादे पर और जिस काम के लिये वह चुना गया है सवाल उसके बारे में पूछा जाता है। उसे असहज सवालों का सामना करना पड़ता है और वह अक्सर असहज होता है। वह देश, समाज और धर्म का प्रतीक नहीं बना दिया जाता है। वह जनता द्वारा, जनता के लिये और जनता का ही राष्ट्रपति माना जाता है। यह लोकप्रिय परिभाषा एकअमेरिकी राष्ट्रपति रह चुके सज्जन अब्राहम लिंकन द्वारा ही दी गयी है। 

राष्ट्रपति की आलोचना के सवाल पर अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने जो कहा है, उसे पढ़े,

" यह घोषणा करना कि, राष्ट्रपति की अलोचना बिल्कुल भी नहीं होनी चाहिए, या हम सही हों या गलत अपने राष्ट्रपति के साथ हैं, न केवल देशभक्ति के विरुद्ध है बल्कि नैतिक रूप से अमेरिकी जनता के प्रति द्रोह और घात है। "

“To announce that there must be no criticism of the President, or that we are to stand by the President, right or wrong, is not only unpatriotic and servile, but is morally treasonable to the American public.” 
( Theodore Roosevelt )

हम एक ऐसे जी जहाँपनाह के मोड में खुद को बदल चुके हैं जो अपनी ही चुनी हुयी सरकार से अपने ही हित मे एक भी सवाल पूछने से कतराता है। यह चुप्पी न केवल असंवैधानिक है बल्कि लोकतांत्रिक परंपराओ के विरुद्ध भी है।

( विजय शंकर सिंह )

कोरोना आपदा के बाद की आर्थिक चुनौतियां./ विजय शंकर सिंह

14 अप्रैल, देशव्यापी लॉक डाउन के इक्कीस दिनों की बंदी का अंतिम दिन होता अगर यह लॉक डाउन 30 अप्रैल तक नहीं बढ़ा दिया गया होता तो। लेकिन सरकार ने इस लॉक डाउन की अवधि को 30 अप्रैल तक और बढ़ा दिया है। हालांकि सरकार ने आज से चरणबद्ध तरीके से कुछ कार्यालय और प्रतिष्ठान खोलने की बात की है और कुछ दिशा निर्देश भी दिए हैं। 

दुनिया भर की राजनीति, अर्थिकी, सामाजिकी और मनोवैज्ञानिक पटल पर यह वायरस आपदा अपना महत्वपूर्ण प्रभाव डालने जा रही है। डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ इसके उपचार में, तो चिकित्सा वैज्ञानिक इसकी वैक्सीन खोजने में लगे हैं तो अर्थ विशेषज्ञ कोरोनोत्तर विश्व मे संभावित अर्थ व्यवस्था, समाज वैज्ञानिक इसका सामाजिक संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, और मनोवैज्ञानिक इस थोपे गए एकांत, से जुड़ी समस्याओं पर शोध कर रहे हैं। हाल के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा वायरस या महामारी हो जिसने विश्व को इतना अधिक प्रभावित किया है जितना कोरोना कर रहा है।

1918 में फैले प्लेग ने देश मे कहर तो ढाया था, पर संचार और परिवहन के अभाव में उसका प्रभाव उतना व्यापक नहीं हो सका जितना कि इस समय कोरोना का है। नवंबर दिसंबर के समय जब वुहान से वायरस से पीड़ित लोगों और उनके जबर्दस्ती घरों में बंद कर देने वाली खबरें आने लगी थीं तो लगा था यह केवल अभक्ष्य चीजे खाने वाले चीनियों की समस्या है और यह उस पीली भूमि तक ही सीमित रहेगी। पर यह तो पुराना रेशम मार्ग और अब बनने वाले ओबीओआर द्वारा इटली, स्पेन, जर्मनी और पूरे यूरोप को संक्रमित करता हुआ ब्रिटेन और अमेरिका तक पहुंच गया। फ़िर वहां से भारत आया। शुरू में इसे एक जैविक युद्ध और मनुष्य निर्मित त्रासदी कहा गया बाद में पता लगा कि यह एक प्रकृति प्रदत्त घातक वायरस है जो फ्लू के लक्षणों से मिलता जुलता है और श्वसन तत्र को संक्रमित कर के मार देता है। नया वायरस है तो इसका कोई वैक्सीन ही नहीं है। हालांकि विषाणु वैज्ञानिक इस पर शोध कर रहे हैं, पर अभी तक उन्हें कोई सफलता नहीं मिली है। 

जब रोग का उपचार स्पष्ट और अचूक नहीं होता है तब उसके निरोधात्मक उपायों पर ही जोर दिया जाता है। भारतीय आयुर्विज्ञान के निदान का आधार उपचारात्मक कम और निरोधात्मक अधिक है। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिये भी कई औषधियां हैं और लोग उसका उपयोग कर भी रहे हैं। कोई भी महामारी बराबर नहीं रहती है और बचेगी यह भी नहीं। आगे चल कर कोई न कोई वैक्सीन विकसित हो जाएगी या कोई विशिष्ट प्रकार की सामुदायिक रोग प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो जाएगी जिससे समाज इस रोग से कम ही प्रभावित होगा। लेकिन इसका असर विश्व आर्थिकी पर जो पड़ेगा उसे लेकर दुनियाभर में सरकारे कुछ न कुछ सोच रही हैं। 

अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्था आईएमएफ ने एक टास्क फोर्स का गठन किया है। इस टास्क फोर्स का उद्देश्य है कि बिगड़ती हुयी अर्थ व्यवस्था को कैसे पटरी पर लाया जाए। इस टास्क फोर्स में आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन भी हैं। रघुनाथ राजन पहले भी आईएमएफ के साथ रह चुके हैं औऱ वे एक काबिल अर्थ विशेषज्ञ है। यह अलग बात है कि, सरकार से मतभेद के चलते उनको आरबीआई में दुबारा कार्यकाल नहीं मिला। भारत को भी चाहिए कि आर्थिकी को संभालने के लिये भारत मे भी प्रतिभाशाली अर्थशास्त्रियों की एक कमेटी का गठन किया जाय जिसमें प्रोफेशनल हों और वे भारतीय चुनौतियों के अनुसार देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाये । 

संयुक्त राष्ट्र की कॉन्फ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवेलपमेंट ( अंकटाड ) ने ख़बर दी है कि कोरोना वायरस से प्रभावित दुनिया की 15 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत भी है। चीन में उत्पादन में आई कमी का असर भारत से व्यापार पर भी पड़ा है और इससे भारत की अर्थव्यवस्था को क़रीब 34.8 करोड़ डॉलर तक का नुक़सान उठाना पड़ सकता है। यूरोप के आर्थिक सहयोग और विकास संगठन यानी ओईसीडी ने भी 2020-21 में भारत की अर्थव्यवस्था के विकास की गति का पूर्वानुमान 1.1 प्रतिशत घटा दिया है। ओईसीडी ने पहले अनुमान लगाया था कि भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर 6.2 प्रतिशत रहेगी लेकिन अब उसने इसे कम करके 5.1 प्रतिशत कर दिया । यह अनुमान मार्च के तीसरे हफ्ते का है। अब तो यह और भी नीचे आ गया होगा। 

आज की  ताज़ा स्थिति यह है कि, आवश्यक सेवाओ, के अतिरिक्त सभी काम बंद हैं। सारे कारोबार थम गये है, दुकानें बंद हैं, और सभी  प्रकार की आवाजाही बंद है। हमारी अर्थव्यवस्था के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें गिरावट की दर कोरोना प्रकोप के ही समय से नहीं बल्कि 2016 में हुयी नोटबन्दी के समय से ही आने लगी थी। 2016 के इस अनावश्यक निर्णय के बाद भी सरकार ने कोई ऐसा प्रयास नहीं जिससे यह गिरावट थमे या स्थिति सुधरे।पिछले चार साल से अधोगामी होता हुआ जीडीपी का आंकड़ा तो यही बता रहा है। इस प्रकार, पहले से मुश्किलें झेल रही भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कोरोना वायरस का हमला एक बड़ी मुसीबत लेकर आया है।

पिछले साल के ही आर्थिकी सूचकांक को देखें तो ऑटोमोबाइल सेक्टर, रियल स्टेट, लघु उद्योग समेत तमाम असंगठित क्षेत्र में सुस्ती छाई हुई थी। बैंक एनपीए की समस्या से अब तक निपट रहे हैं। हालांकि, सरकार निवेश के ज़रिए, नियमों में राहत और आर्थिक मदद देकर अर्थव्यवस्था को रफ़्तार देने की कोशिश कर रही थी पर बहुत अधिक सफलता सरकार को नहीं मिली है।  इस बीच कोरोना वायरस के कारण पैदा हुए हालात ने जैसे अर्थव्यवस्था का चक्का जाम कर दिया है। न तो कहीं उत्पादन है और न मांग, लोग घरों में हैं और कल कारखानों तथा दुकानों पर ताले लगे हुए हैं। यह स्थिति अभी 30 अप्रैल तक तो रहेगी ही। 

बिजनेस स्टैंडर्ड के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने एक अप्रैल से शुरू हो रहे वित्तीय वर्ष (2020-21) के लिए भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के वृद्धि दर अनुमान को घटाकर 5.2 प्रतिशत कर दिया गया है। ज़ाहिर है इस रेटिंग को घटाने के पीछे कोरोना एक मात्र कारण नहीं होगा बल्कि फरवरी से पहले आर्थिकी के जो कारण होंगे वे भी होंगे। कोरोना के प्रभाव की समीक्षा अभी 30 जून के आर्थिक परिणामो के बाद ही होगी। लेकिन इस लगातार चल रही बंदी से वे इस अनुमान की तुलना में कम ही होंगे। इससे पहले 6.5 प्रतिशत जीडीपी वृद्धि दर का अनुमान लगाया था था. यह रेटिंग्स मार्च के आखिरी सप्ताह में जारी की गई है, तब तक लॉक डाउन हो चुका था। साथ ही इससे अगले साल 2021-22 के लिए रेटिंग एजेंसी ने 6.9 प्रतिशत जीडीपी वृद्धि दर का अनुमान लगाया है. इससे पहले ये अनुमान 7 प्रतिशत था। स्टैंडर्ड एंड पुअर्स के आंकड़ो पर यकीन करें तो  एशिया-प्रशांत क्षेत्र को कोविड-19 से क़रीब 620 अरब डॉलर का नुकसान हो सकता है। 

सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा कोरोना वायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए की है. इससे लोग अपने घरों में रहेंगे, फिजिकल डिस्टेंसिंग बनी रहेगी जिससे वायरस कम से कम फैलेगा। इस लॉकडाउन या देशव्यापी बंदी का असर देश के वित्तीय क्षेत्र पर क्या पड़ेगा इस पर आर्थिक मामलों की वरिष्ठ पत्रकार पूजा मेहरा का आकलन है कि,  
"लॉकडाउन का सबसे ज़्यादा असर अनौपचारिक क्षेत्र पर पड़ेगा और हमारी अर्थव्यवस्था का 50 प्रतिशत जीडीपी अनौपचारिक क्षेत्र से ही आती है। यह क्षेत्र लॉकडाउन के दौरान काम नहीं कर सकता है। न तो ऐसे में कच्चा माल ख़रीदा जा सकता है और न ही, बनाया हुआ माल बाज़ार में बेचा जा सकता है, तो उनकी कमाई ही बंद ही हो जाएगी, जिसका असर मालिको से लेकर अकुशल श्रमिको तक के आर्थिक स्वास्थ्य पर पड़ेगा।"

आगे वे एक लेख में कहती है, 
"हमारे देश में छोटे-छोटे कारखाने और लघु उद्योगों की बहुत बड़ी संख्या है. उन्हें नगदी की समस्या हो जाएगी क्योंकि उनकी कमाई नहीं होगी. ये लोग बैंक के पास भी नहीं जा पाते हैं इसिलए ऊंचे ब्याज़ पर क़र्ज़ ले लेते हैं और फिर क़र्ज़जाल में फंस जाते हैं। "
ज्ञातव्य है कि 2016 के नोटबन्दी के बाद से देश मे नकदी की समस्या बढ़ गयी थी और उस समय जो आर्थिक अधोगति शुरू हुयी उसका सबसे अधिक  प्रभाव रियल स्टेट, कंस्ट्रक्शन सेक्टर पर पड़ा जो अनौपचारिक क्षेत्र का सबसे बड़ा नियोक्ता है। इसके अतिरिक्त अनौपचारिक क्षेत्रों में फेरी वाले, विक्रेता, कलाकार, लघु उद्योग और सीमापार व्यापार शामिल हैं। यह सेक्टर सच मे भारतीय अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा है। इसके अतिरिक्त लॉकडाउन के कारण संगठित कंपनियों को नुक़सान पहुंच सकता है। उनकी भी हालत खराब हो सकती है। 

लॉक डाउन जन्य बंदी और कोरोना आपदा पर एक शोधपरक लेख लिखने वाले विवेक कौल का कहना है कि, 
"लॉकडाउन से लोग घर पर बैठेंगे, इससे कंपनियों में काम नहीं होगा और काम न होने से व्यापार कैसे होगा और अर्थव्यवस्था आगे कैसे बढ़ेगी ? लोग जब घर पर बैठते हैं, टैक्सी बिज़नेस, होटल सेक्टर, रेस्टोरेंट्स, फ़िल्म, मल्टीप्लेक्स सभी प्रभावित होते हैं। जिस सर्विस के लिए लोगों को बाहर जाने की ज़रूरत पड़ती है उस पर बहुत गहरा असर पड़ेगा। जो घर के इस्तेमाल की चीज़ें हैं जैसे आटा, चावल, गेहूं, सब्ज़ी, दूध-दही वह तो लोग ख़रीदेंगे ही लेकिन लग्ज़री की चीज़ें हैं जैसे टीवी, कार, एसी, इन सब चीज़ों की खपत काफ़ी कम हो जाएगी। इसका एक कारण तो यह भी है कि लोग घर से बाहर ही नहीं जाएंगे इसलिए ये सब नहीं खरीदेंगे। दूसरा यह होगा कि लोगों के मन में नौकरी जाने का बहुत ज़्यादा डर बैठ गया है उसकी वजह से भी लोग पैसा ख़र्च करना कम कर देंगे। सच कहें तो, लॉकडाउन और कोरोना वायरस के इस पूरे दौर में सबसे ज़्यादा असर एविएशन, पर्यटन, होटल सेक्टर पर पड़ने वाला है। "

वास्तविकता यह है कि जो बीमार है सेल्फ़ आइसोलेशन में हैं और जिनका अपना कारोबार या दुकान है वो बीमारी के कारण उसे चला नहीं पाएंगे। जो ख़र्चा बीमारी के ऊपर होगा वह बचत से ही निकाला जाएगा। अगर यह वायरस नियंत्रण में नहीं आया तो यह असर और बढ़ सकता है। विवेक कौल एविएशन सेक्टर के बारे में बताते हैं, 
"एविएशन सेक्टर का सीधा-सा हिसाब होता है कि जब विमान उड़ेगा तभी कमाई होगी लेकिन फ़िलहाल अंतरराष्ट्रीय यात्राओं पर रोक लगा दी गई है. घरेलू उड़ानें भी सीमित हो गई हैं. लेकिन, कंपनियों को कर्मचारियों का वेतन देना ही है। भले ही वेतन 50 प्रतिशत कम क्यों न कर दो। हवाई जहाज़ का किराया देना है, उसका रखरखाव भी करना है और क़र्ज़ भी चुकाने हैं.। वहीं, पर्यटन जितना ज़्यादा होता है हॉस्पिटैलिटी का काम भी उतनी ही तेज़ी से बढ़ता है. लेकिन, अब आगे लोग विदेश जाने में भी डरेंगे. अपने ही देश में खुलकर घूमने की आदत बनने में ही समय लग सकता है. ऐसे में पर्यटन और हॉस्पिटैलिटी के क्षेत्र को बहुत बड़ा धक्का पहुंचेगा। "

अब थोड़ी बात बैंकिंग सेक्टर की। 2016 के नोटबन्दी को आर्थिकी में एक घुमाव विंदु के रूप में देखा जाना चाहिए। सरकार ही बेहतर बता सकती है कि उसके इस मास्टरस्ट्रोक से देश की अर्थव्यवस्था को क्या लाभ पहुंचा और उसे हमे क्या मिला पर एक बात ध्रुव सत्य है कि इस निर्णय से बैंकों की हालत इतनी खराब हो गयी कि पीएमसी और यस बैंक जैसे निजी बैंक डूब गए, एलआईसी में सरकार अपनी हिस्सेदारी बेचने लगी और कई बैंक मिलाकर एक किये गए तथा इनकी राशि जो एनपीए हुयी वह तो हुयी ही। बैंकिंग सेक्टर पर इसका क्या असर पड़ेगा, इस पर अर्थ विशेषज्ञों के राय की बात करें तो उनके आकलन के अनुसार, 
" जो अच्छा बैंक है उसे ज़्यादा समस्या नहीं होनी चाहिए। बैंक का कोराबार यह होता है कि वे, पैसा जमा करते हैं और लोन देते हैं। लेकिन, अभी बहुत ही कम लोग होंगे जो बैंक से लोन ले रहे होंगे। इससे कमज़ोर बैंकों का बिज़नेस ठप्प पड़ सकता है। कई लोगों का क़र्ज़ लौटान भी मुश्किल हो सकता है जिससे बैंकों का एनपीए भी बढ़ जाए। "
यह आकलन फाइनेंशियल एक्सप्रेस का है। 

उधर इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइज़ेशन ने कहा था कि 
" कोरोना वायरस सिर्फ़ एक वैश्विक स्वास्थ्य संकट नहीं रहा, बल्कि ये एक बड़ा लेबर मार्केट और आर्थिक संकट भी बन गया है जो लोगों को बड़े पैमाने पर प्रभावित करेगा। कोरोना वायरस की वजह से दुनियाभर में ढाई करोड़ नौकरियां ख़तरे में हैं। "
श्रम पर काम करने वाले एक अर्थशास्त्री के हवाले से यह कहा गया है कि, 
"जो सेक्टर इस बुरे दौर से सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगे वहीं पर नौकरियों को भी सबसे ज़्यादा ख़तरा होगा। एविएशन सेक्टर में 50 प्रतिशत वेतन कम करने की ख़बर तो पहले ही आ चुकी है। रेस्टोरेंट्स बंद हैं, लोग घूमने नहीं निकल रहे, नया सामान नहीं ख़रीद रहे लेकिन, कंपनियों को किराया, वेतन और अन्य ख़र्चों का भुगतान तो करना ही है। यह नुक़सान झेल रहीं कंपनियां ज़्यादा समय तक भार सहन नहीं कर पाएंगी और इसका सीधा असर नौकरियों पर पड़ेगा। हालांकि, सरकार ने कंपनियों से लोगों को नौकरी से ना निकालने की अपील है लेकिन इसका बहुत ज़्यादा असर नहीं होगा। "

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि, 
" दुनिया ने 2008 की मंदी का दौर भी देखा था जब कंपनियां बंद हुईं और एकसाथ कई लोगों को बेरोज़गार होना पड़ा। ये उससे भी ख़राब दौर हो सकता है। उस समय एयर कंडिशनर जैसी विलासिता की कई चीज़ों पर टैक्स कम हुए थे। तब सामान की कीमत कम होने पर लोग उसे ख़रीद रहे थे लेकिन लॉकडाउन के बाद अगर सरकार टैक्स ज़ीरो भी कर दे तो भी कोई ख़रीदने वाला नहीं है। यह स्थितियां सरकार के लिए भी बहुत चुनौतीपूर्ण हैं।  2008 के दौर में कुछ कंपनियों को आर्थिक मदद देकर संभाला गया था। लेकिन, आज अगर सरकार ऋण दे तो उसे सभी को देना पड़ेगा। क्योंकि हर सेक्टर में उत्पादन और ख़रीदारी प्रभावित हुई है। "
कारण लोगो के पास धन नहीं है औऱ सामने एक अनिश्चितता का वातावरण है। मध्यम वर्ग ने अपने लिये फ्लैट, प्लाट और गाड़ियां जो लोन पर ले रखी हैं, उनकी अदायगी की समस्या जब सिर पर हो तो लोग खर्च कहां से करेंगे। इस मितव्ययिता का असर बाजार और अंततः घूमफिर कर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। 

इस आपदा का असर, पूरी दुनिया पर पड़ रहा है। चीन और अमेरिका जैसे बड़े देश और मज़बूत अर्थव्यवस्थाएं इसके सामने लाचार हैं। इससे भारत में विदेशी निवेश के ज़रिए अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करने की कोशिशों को भी धक्का पहुंचेगा, जो हमारा एक पसंदीदा शगल  है। विदेशी कंपनियों के पास भी पैसा नहीं होगा तो वो निवेश में रूचि नहीं दिखाएंगी। वैसे भी बजट के बाद जो गिरावट शेयर बाजार मे आयी है, उसी से यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि विदेशी निवेशकों की रुचि अब हमारी आर्थिकी में कम हो गयी है। 

लेकिन आगे की योजना जिसे अंग्रेजी में रेनी डे प्लानिंग कहते हैं उसे तो करनी ही पड़ेगी। भारत की अर्थ व्यवस्था के साथ सबसे खूबसूरत बात यह है कि हमारी आर्थिकी का आधार कृषि है लेकिन पाश्चात्य औद्योगिकीकरण के अतार्किक नशे में हमने कृषि सेक्टर को अक्सर नज़रअंदाज़ किया है। पर्याप्त मात्रा में कृषिभूमि, तरह तरह के मौसम, बहुफसलो से प्रसादित यह सेक्टर सबसे बड़ा असंगठित क्षेत्र है और सबसे उपेक्षित भी। आज हम कितना भी औद्योगिकीकरण कर ले लेकिन जब एक भी मानसून गड़बड़ाने लगता है तो सरकार के अर्थ प्रबंधकों की पेशानी पर बल पड़ने लगता है।

दुनियाभर में अर्थ व्यवस्था के मूलतः दो मॉडल है। एक पूंजीवादी मॉडल जो मूलरूप से निजी पूंजी और लाभ पर आधारित है दूसरा समाजवादी मॉडल जो लोककल्याण सार्वजनिक भागीदारी पर आधारित है। हमने 1947 के बाद दोनों को मिला कर एक मिश्रित अर्थव्यवस्था का नया मॉडल चुना जो 1991 तक आते आते मुक्त बाजार और वैश्वीकरण के दौर में पूंजीवादी मॉडल में बदल गया। इससे यह लाभ तो हुआ कि ढेरों नौकरियों का सृजन हुआ औऱ आर्थिक विकास भी हुआ। पर 2012 तक इस मॉडल की खामी भी सामने आने लगी जब अमीर और गरीब के बीच का आर्थिक अंतर बहुत बढ़ गया। देश की  पूरी संपदा सिमट कर कुछ घरानों में आ गयी और लोकतंत्र एक गिरोहबंद पूंजीवाद से डिक्टेटेड लोकतंत्र में बदल गया। अब जब कोरोना आपदा में यह तंत्र प्रभावित होने लगा तो देश के बहुसंख्यक आबादी की तो बात ही छोड़ दीजिए, सबसे पहले यह कॉरपोरेट ही अपना दुखड़ा लेकर बैठ गया। कॉरपोरेट आज की तिथि में सबसे बड़ा और असरदार दबाव ग्रुप है और लोककल्याणकारी कदमो का सबसे बड़ा विरोधी भी है। इसी आपदा में राहत पैकेज को देखें तो, 'क्रिएटिव अकाउंटिंग और और विंडो ड्रेसिंग को छोड़ दें तो पैकेज 1.7 लाख करोड़ रुपए के बजाय 1 लाख करोड़ रुपए के करीब है। यह पैकेज देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 0.5 प्रतिशत है। पिछले साल आर्थिक मंदी की आहट पर केंद्र द्वारा दी गई कॉरपोरेट टैक्स छूट से भी यह कम राशि है।'

विकासशील आर्थिकी पर काम करने वाले अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज इस आपदा और लॉक डाउन के संबंध में कहते हैं, 
" पूरी संभावना है कि लॉकडाउन और आर्थिक मंदी से खाद्य प्रणाली बाधित होगी। इस समय हमारे सामने अजीब से हालात हैं। कमी और अधिकता (सरप्लस) दोनों स्थितियां हैं क्योंकि आपूर्ति श्रृंखला टूट रही है। खाद्य महंगाई नियंत्रित है क्योंकि अधिकांश लोग जरूरत से अधिक खरीदारी में असमर्थ हैं। लॉकडाउन में छूट मिलने के साथ इस स्थिति में बदलाव आ सकता है। इसके बाद जो लोग सक्षम हैं, वे खरीदारी के लिए निकल सकते हैं।"
मतलब आपूर्ति श्रृंखला से वे लोग अधिक प्रभावित होंगे जिनके पास काम नहीं है। अगर आने वाले कुछ महीनों तक लॉकडाउन जारी रहता है तो इस तरह की घटनाओं में बढ़ोतरी देखने को मिलेंगी।

सबसे पहले तो भारत को स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा को उच्च प्राथमिकता देने की जरूरत है। पूंजीवाद के प्रबल समर्थक भी यह स्वीकार करते हैं कि बाजार की प्रतिस्पर्धा स्वास्थ्य सेवाओं, विशेष रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य को दुरुस्त करने का गलत तरीका है। अधिकांश समृद्ध देश इस तथ्य को मानने लगे हैं और उन्होंने स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। यही बात सामाजिक सुरक्षा पर भी लागू होती है। एक सबक यह हो सकता है कि हम एकजुटता के मूल्य को समझें जिसे जाति व्यवस्था और अन्य सामाजिक विभाजनों द्वारा लगातार क्षीण किया जा रहा है। जब स्वास्थ्य सुविधाओं की बात की जाती है तो उसका आशय स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर, यानी अस्पताल, मेडिकल कॉलेज और ब्लॉक स्तर तक सामान्य अस्पताल है न कि बीमा और आयुष्मान जैसी योजनाओं का सृजन जो अंततः कॉरपोरेट को ही लाभ पहुंचाती हैं। अब देखना है कि सरकार इस आर्थिक समस्या का सामना कैसे करती है। लेकिन मेरा दृढ़ मत है कि गिरोहबंद पूंजीवादी मॉडल के अनुसार इन समस्याओं का समाधान संभव नहीं होगा। 

( विजय शंकर सिंह )