Thursday, 27 February 2020
दिल्ली हिंसा पर पुलिस की निर्णय अकर्मण्यता / विजय शंकर सिंह
Tuesday, 25 February 2020
क्या गृहमंत्री को अपने पद से नहीं हट जाना चाहिए ? / विजय शंकर सिंह
अमित शाह को देश के गृहमंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। लेकिन एनडीए में इस्तीफे होते नहीं हैं तो प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह उनका विभाग बदल दें। वे बहुत योग्य और चाणक्य - सम हैं तो उन्हें वित्त मंत्रालय दे दें। वित्त एक ऐसा विभाग है जिसे इस समय सरकार का सर्वाधिक ध्यानाकर्षण अपेक्षित है। हो सकता है वे वहां कुछ अच्छा कर जांय। जब से वे गृहमंत्री के पद पर आसीन हैं, कश्मीर से कन्याकुमारी तक कहीं न कहीं बवाल बना हुआ है। दिल्ली पुलिस तो सीधे उन्हीं के अधीन है। अब तो कश्मीर भी केंद्र शासित होने के कारण उनके आधीन है। नार्थ ईस्ट में एनसीआर पर उबाल है ही। चुनाव प्रचार के दौरान उनके भाषण भी असन्तुलित और उन्माद फैलाने वाले हुये हैं। हालांकि उन्होंने खुद यह स्वीकार किया है कि घृणास्पद बयानों से उनकी पार्टी को नुक़सान पहुंचा है। गृह मंत्रालय एक सुलझे और पुलिस के दिनप्रतिदिन के कार्यो में अधिक दखल न देने वाले स्वभाव के व्यक्ति के पास रहना चाहिए।
एक भ्रम लोगों में है कि पुलिस सरकार के आधीन होती है। लेकिन यह सत्य नहीं है। पुलिस सरकार के आधीन होते हुये भी सरकार के आधीन नहीं है। वह उन नियम कायदे और कानूनों के अधीन होती है, जिसे लागू करने के लिये पुलिस की व्यवस्था की गयी है। यह मुग़ालता राजनीतिक दलों के छुटभैये नेताओं में अधिक होता है और वे इसी मुगालते के शिकार हो, थाने को अपना चारागाह समझ बैठते हैं। जब कोई नियम कायदे का पाबन्द अधिकारी मिल जाता है तो उन्हें अपनी औकात का पता भी चल जाता है। अनावश्यक दखल और बेवजह की ज़िद से सबसे अधिक नुकसान सरकार का ही होता है। आज गृह मंत्रालय का जो रवैया है उससे नहीं लगता कि यह द्वेष आग और बवाल जल्दी थमेगा। अगर यह लम्बे समय तक चला तो इसका सबसे पहला आघात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की क्षवि पर होगा, फिर देश की आर्थिक स्थिति पर, जो पहले से ही डांवाडोल है। क्या यह मूर्खतापूर्ण निर्णय नहीं है कि देश की अर्थिक स्थिति को सुधारने की सोचने के बजाय सरकार ऐसे कदम उठा रही है जिससे देश मे साम्प्रदायिक उन्माद फैले और देशभर में अफरातफरी मच जाय।
अमित शाह गुजरात के भी गृहमंत्री रह चुके हैं। उसी समय जब नरेंद्र मोदी वहां के मुख्यमंत्री थे। गुजरात मॉडल की बात जब 2014 के चुनाव में की जा रही थी तो वह बात गुजरात के आर्थिक विकास के मॉडल की थी या गुजरात के कानून व्यवस्था के मॉडल की थी, तब यह पता नही था। लोगों ने आर्थिक मॉडल समझा था। पर जिन लोगों को इन जुगुल जोड़ी की असलियत पता थी, वे इस मॉडल का सच समझ चुके थे। वे 2002 के गुजरात दंगे में पुलिस, प्रशासन और सरकार की शातिर खामोशी पढ़ चुके थे। यह वही गुजरात मॉडल है जहां एक वरिष्ठ मंत्री हरेन पंड्या की हत्या हो जाती है और मुल्ज़िम का आज तक पता नहीं चलता है। एक लड़की की जासूसी के आरोप सरकार में बैठे ऊपर तक लगते हैं। सोहराबुद्दीन हत्या के मामले में अमित शाह को अदालत तड़ीपार कर देती है। फैसले के कुछ ही दिन पहले जज की संदिग्ध परिस्थिति में मृत्यु हो जाती है। फिर नए जज द्वारा फैसला दिया जाता है, तो अमित शाह बरी हो जाते हैं। हत्या के हर मामले में उच्च न्यायालय में अपील करने वाला अभियोजन और सीबीआई अचानक यह निर्णय लेती है कि अपील की कोई ज़रूरत नहीं। केवल इसलिए कि बरी हुआ अभियुक्त अब महत्वपूर्ण राजनैतिक पद पर है। यह विवरण एक क्राइम थिलर जैसा लग रहा है न । यह बिलकुल एक क्राइम थिलर की तरह है और यही शायद गुजरात मॉडल है।
अमित शाह की क्षवि एक जोड़तोड़ और तमाम नैतिक अनैतिक रास्तो से येनकेन प्रकारेण सत्ता पाने की रही है। इसमे कोई शक नहीं कि सत्ता पाने, हथियाने और चुनाव जीतने की कला उनमे है, पर सत्ता पाने से अधिक शासन करने की कला आनी चाहिए। दिल्ली पुलिस चूंकि सीधे गृहमंत्री के अधीन है तो यह एक मॉडल पुलिस होनी चाहिए पर अब यह एक ऐसी पुलिस बनती जा रही है जिसकी साख संकट में है। दिल्ली अलीगढ़ या मुरादाबाद जैसा साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील शहर नहीं है जहां इस प्रकार की घटनाओं को लोग एक रूटीन समझ कर ले लें। यह राजधानी है। और राजधानी की पुलिस के सामने एक भाजपा नेता, यह कहते हुए कि हम ट्रम्प के जाने तक इंतेज़ार करेंगे फिर देखेंगे, आराम से यह कह कर वे चले भी जांय औऱ उसके दूसरे ही दिन दंगे हो जांय तो क्या यह पुलिस की मिलीभगत नहीं मानी जानी चाहिए ? जिस अधिकारी के सामने यह धमकी दी जा रही है उसने कोई कार्यवाही क्यों नहीं की ? उसे तुरन्त कपिल मिश्र को लताड़ना चाहिए था औऱ इस भड़काऊ बयान पर मुकदमा दर्ज कर लेना चाहिए था, लेकिन वे चुप्पी साध गए। उन्होंने भी यही सोचा होगा कि जब गोली मारो, घर मे घुस कर रेप, शाहीनबाग तक करेंट और हिंदुस्तान पाकिस्तान के मैच के बयानों पर कुछ नहीं हुआ तो हमीं अंडमान जाने का खतरा क्यों उठाये।
दो दिन की हिंसा, एक डीसीपी के बुरी तरह घायल, एक हेड कॉन्स्टेबल के मारे जाने और कुल 20 लोगों की हत्या, आगजनी और निजी तथा सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान के बाद कल रात से खबर आयी है कि कर्फ्यू लगाया गया है, और देखते ही गोली मारने का आदेश दिया गया। साम्प्रदायिक दंगों में सबसे पहले दंगा भड़कते ही कर्फ्यू लगाया जाता है। शहर तब एक उन्मादित रोगी की तरह हो जाता है। उसे पागलपन का दौरा पड़ा रहता है। कर्फ्यू से न केवल अराजक तत्वो पर नियंत्रण करने में आसानी होती है बल्कि अधिकतर सामान्य नागरिकों में आत्मविश्वास भी आ जाता है। ऐसे समय मे बल का प्रयोग सुरक्षा बलों द्वारा अधिक किया जाता है पर त्वरित नियंत्रण के लिये यह ज़रूरी भी होता है। दिल्ली में यह नही हुआ। अमूमन जब साम्प्रदायिक दंगे भड़क जाते हैं तो उस समय सरकार और प्रशासन की सबसे पहली चिंता स्थिति सामान्य करने की होती है। तब राजनीतिक दखलंदाजी भी कम हो जाती है और डीएम एसपी किसी दबाव में आते भी नहीं है। यह मैं यूपी के संदर्भ में कह रहा हूँ। पर दिल्ली में ऐसा बिलकुल नहीं हुआ।
जब दिल्ली पुलिस और वकीलों के विवाद और झगड़े में जब पुलिसकर्मियों ने दिल्ली पुलिस मुख्यालय के घेरा तो दिल्ली के कमिश्नर अपने ही जवानों और उनके परिवार के लोगो से मिलने तत्काल नहीं गए, डीसीपी मोनिका से बदसलूकी के आरोप में एक भी मुक़दमा न तो दर्ज हुआ और न कार्यवाही की गयी, जेएनयू, जामिया यूनिवर्सिटी में जो लापरवाही हुयी यह तो सबको पता ही है, दिल्ली की स्पेशल ब्रांच की खुफिया रिपोर्ट ने दिल्ली में हिंसा होने की अग्रिम सूचना दी, उसे भी नजरअंदाज कर दिया गया, तीन दिन से हिंसा चल रही है और जो वीडियो आ रहे हैं, उनसे स्थिति अब भी भयानक लग रही है, दुनियाभर के अखबार दिल्ली हिंसा से रंगे पड़े हैं पर न नींद गृह मंत्रालय की खुल रही है और न ही, दिल्ली के पुलिस प्रमुख की। क्या ऐसी स्थिति में गृहमंत्री को अपने पद से हट नहीं जाना चाहिए और अगर नैतिक मापदंड शून्य हो तो क्या पुलिस कमिश्नर को हटा नहीं देना चाहिए ?
कल अमेरिकी राष्ट्रपति डोलैण्ड ट्रम्प दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे और उसी समय दिल्ली हिंसा के बारे में न्यूयॉर्क टाइम्स वाशिंगटन पोस्ट जैसे अखबार, दिल्ली के दंगों से भरे पड़े थे। दिल्ली मे भड़की हिंसा की एक अमेरिकी सांसद ने तीखी आलोचना की है।पिछले कुछ दिनों में कम से कम 18 लोगों की मौत का दावा करने वाली दिल्ली हिंसा पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए, अमेरिकी कांग्रेस अध्यक्ष प्रमिला जयपाल ने कहा कि "भारत में धार्मिक असहिष्णुता का घातक उछाल भयानक है। "
" लोकतंत्र में विभाजन और भेदभाव को बर्दाश्त नहीं करना चाहिए और न ही धार्मिक स्वतंत्रता को कमजोर करने वाले कानूनों को बढ़ावा देना चाहिए,"
उन्होंने एक ट्वीट में कहा, "दुनिया देख रही है"।प्रमिला जयपाल ने पिछले साल जम्मू-कश्मीर में संचार पर प्रतिबंधों को समाप्त करने और सभी निवासियों के लिए धार्मिक स्वतंत्रता को संरक्षित करने के लिए भारत से आग्रह करने वाला एक प्रस्ताव अमेरिकन कांग्रेस में पेश किया था। अमेरिकी कांग्रेस के एक अन्य सदस्य, एलन लोवेन्टल ने भी दिल्ली हिंसा को सरकार के "नैतिक नेतृत्व की दुखद विफलता" करार दिया। उन्होंने कहा, 'हमें भारत में मानवाधिकारों के लिए खतरों के सामने बोलना चाहिए।'
क्या इस विश्व व्यापी बदनामी से बचा नही जा सकता था ? दिल्ली पुलिस की सुस्ती, अकर्मण्यता और इस घोर प्रोफेशनल लापरवाही के लिये कोई न्यायिक जांच नहीं बैठायी जानी चाहिए ? शाहीनबाग का धरना खत्म कराने के लिये सुप्रीम कोर्ट को पहल करनी पड़े, और चार थाने में साम्प्रदायिक हिंसा पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को डीसीपी के दफ्तर में आकर मीटिंग करनी पड़े, यह तो स्थानीय पुलिस की विफलता ही है। जब जब पुलिस, किसी भी दल के राजनैतिक एजेंडा को लागू करने का माध्यम बनती है तो न केवल पुलिस के पेशेवराना स्वरूप पर आघात पहुंचता है बल्कि कानून व्यवस्था पर भी विपरीत असर पड़ता है। पुलिस को कानून को कानूनी तरीक़े से ही लागू करने की अनुमति दी जानी चाहिए। पर अफसोस ऐसा दिल्ली में नहीं हो सका। क्या इस विफलता की जिम्मेदारी गृह मंत्रालय को नहीं लेना चाहिए ?
© विजय शंकर सिंह
ट्रम्प का भारत दौरा भारत अमेरिकी सम्बन्धो का इतिहास / विजय शंकर सिंह
दिल्ली हिंसा क्या दिल्ली पुलिस की प्रोफेशनल अक्षमता नही है ? / विजय शंकर सिंह
हेड कॉन्स्टेबल रतनलााल के इस भरे पूरे परिवार को देखिये। यह रतनलाल का परिवार है जो दंगाइयों की गोली से मारे जाने के पहले के चित्र में दिख रहा है। अब रतनलाल नहीं रहे। इनकी अर्थी जब उठेगी तब एक लास्ट पोस्ट बजेगी, शोक परेड होगी, शस्त्र झुकेंगे और साथियों की गर्दने भी, अधिकारी कंधे देंगे, दिल्ली सरकार एक करोड़ का मुआवजा देगी, और नौकरी के कई लाभ इनके परिवार को मिलेंगे। पर बस कॉन्स्टेबल रतनलाल नहीं रहेगा। उसका परिवार और उसके कुछ करीबी दोस्त, दुनियाभर की तमाम सच्ची, और औपचारिक शोकांजलियों, मोटी रकमों के मुआवजों और तमाम आश्वासनों के बाद भी रतनलाल को जीवनभर भी भुला नहीं पाएंगे।
पर पुलिस और सेना की नौकरी में यह खतरे तो होते ही हैं। यह एक प्रोफेशनल हेज़ार्ड है। पर अफसोस, पिछले लंबे समय से दिल्ली में जो कुछ भी हो रहा है वह दिल्ली पुलिस की पेशेवराना क्षवि पर बदनुमा दाग है। दंगो से राजनीतिक जमात का कुछ नहीं बिगड़ता है। वे तो साम्प्रदायिक एजेंडे पर चलते ही रहते हैं। वे ऐसे एजेंडों के वे पक्ष में रहें या विपक्ष में दोनों ही स्थितियों का लाभ उठाना उन्हें बखूबी आता है। पर दंगा चाहे, 1984 का हो, या 2002 के गुजरात दंगे हों, या 1980 का अलीगढ़ हो या 1987 का मलियाना या 1992 के देशव्यापी दंगे हों सबकी जांच पड़ताल में एक चीज बड़ी शिद्दत से उभर कर आती है कि उन दंगो में पुलिस की क्या भूमिका रही है। जैसे सभी दंगो की जांच होती है, इन दंगों की भी होगी। न्यायिक जांच हो या कोई गैर सरकारी संगठन, इन दंगों की तह में जाने की कोशिश करे, पर सच तो उभर कर आएगा ही। आज के संचार समृद्ध युग मे हर खबर हमारी मुट्ठी में है । पर थोड़ी मेहनत कीजिए और सच जान लीजिए।
पर एक बात साफ है कि दिल्ली में माहौल बिगाड़ने का एक योजनाबद्ध प्रयास किया गया और यह काफी समय से किया जा रहा है। अफसोस,इसकी भी कमान गृहमंत्री ने संभाली है। उनपर इस प्रयास को विफल करने की भी जिम्मेदारी है। पर इस जिम्मेदारी का निर्वाह वे नहीं कर पाए। चुनाव के दौरान उनके भाषण पर न केवल चुनाव आयोग को रोक लगानी चाहिए थी बल्कि उनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज कराना चाहिए था। पर जब सैकड़ो करोड़ के घोटाले में लिप्त अफसर जब चुनाव की कमान संभालेंगे तो, उनसे यह उम्मीद करना ईश्वर को साक्षात देखना ही हुआ। फिर अनुराग ठाकुर का बयान। गद्दारो को गोली मारने का आह्वान । यह एक मंत्री और सरकार की क्लीवता का प्रमाण है कि वह गद्दारों के विरुद्ध तो कानूनन कुछ कर नहीं पा रहे है, और जनता को भड़का कर गोली मारने की बात उनके द्वारा कही जा रही है। आईएसआई के पे रोल पर पाकिस्तान के लिये जासूसी करने वाले भाजपा आईटी सेल के गद्दारों के खिलाफ कोई उल्लेखनीय कार्यवाही सरकार ने नही की । डीएसपी देवेंदर सिंह जो दो आतंकियों के साथ खुले आम पकड़ा गया, उसके बारे में सबने सांस खींच ली हैं। अब न मीडिया खबर बताता है और न सरकार कुछ कह रही है। पुलवामा हमले में प्रयुक्त आरडीएक्स कहाँ से आया,यह आज तक नहीं पता नहीं लगा। उल्टे इन सबके बारे में सवाल उठाना देशद्रोह का नया इंग्रेडिएंट है।
दरअसल अब सरकार और उसके समर्थकों ने देशद्रोह की परिभाषा बदल दी है। देश सिमट कर सरकार और सरकार सिमट कर एक आदमी के रूप में आ गयी है। इसी गणितीय सूत्र के आधार पर एक व्यक्ति की निंदा और आलोचना, सरकार की निंदा और आलोचना और सरकार के प्रति द्रोह, देश के प्रति द्रोह हो गया है। इसीलिए किसी कानून का विरोध करना, शांतिपूर्ण जनसभाएं करना, कविताएं और लोगों को रचनात्मक क्रियाकलापों से जागरूक करना जिसमे सरकार की आलोचना होती हो वह देशद्रोह हो गया है। कानून पर सवाल उठाना देशद्रोह है। फ़र्ज़ी डिग्री और फर्जी हलफनामें दिए हुए हुक्मरानों की सत्यनिष्ठा पर चर्चा करना देशद्रोह है। रोज़ी रोटी शिक्षा और स्वास्थ्य की बात करना देशद्रोह है। सरकारी कंपनियों की अनाप शनाप बिक्री पर सवाल उठाना देशद्रोह है। सेडिशन, धारा 124 A आईपीसी की नयी व्याख्या है यह। अब नए परिभाषा का युग है यह।
कॉन्स्टेबल रतनलाल के मौत की जिम्मेदारी दिल्ली पुलिस के कमिश्नर को लेनी पड़ेगी। नैतिक नहीं प्रोफेशनल अक्षमता की जिम्मेदारी। जब से सीएए कानून बना है तभी से यानी 19 दिसंबर 2019 से ही दिल्ली में इस कानून प्रतिरोध शुरू हुआ है। असम और नॉर्थ ईस्ट से उठी प्रतिरोध की लहर तत्काल देशव्यापी हो गयी। कानून संवैधानिक है या असंवैधानिक, इस पर बहस बाद में होगी, पर केवल दिल्ली पुलिस के प्रोफेशनल दक्षता का मूल्यांकन करें तो उसकी भूमिका बेहद निराशाजनक रही है। शाहीनबाग में सड़क जाम है पर कोई हिंसा नहीं हुयी। दिल्ली चुनाव में शाहीनबाग को दिल्ली के विकास के मुकाबले खड़ा किया गया। गृहमंत्री से लेकर विधायक प्रत्याशी कपिल मिश्र तक के भड़काने वाले बयान आये। पर उस पर कोई कार्यवाही दिल्ली पुलिस नहीं करती है। वारिस पठान का बयान आया उसपर भी कोई कार्यवाही नहीं की गयी। शाहीनबाग में एक व्यक्ति गोपाल रामभक्त पुलिस दस्ते के सामने गोली चला रहा है, उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की गयी। कपिल मिश्र एक अल्टीमेटम दे रहे हैं कि ट्रम्प के जाने तक वह चुप हैं और उसके बाद वे क्या करेंगे यह पूछने की हिम्मत उनसे दिल्ली पुलिस की नहीं पड़ रही है। उनके खिलाफ कोई कार्यवाही अब तक नही होती है। उस बड़बोले अल्टीमेटम के चौबीस घँटे में ही दिल्ली में हिंसा भड़क उठती है। सात लोग हेड कॉन्स्टेबल रतनलाल सहित उस हिंसा में मारे जाते हैं। अब तक उनके विरुद्ध उस भड़काने वाले बयान पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी। जानबूझकर भड़काने वाले बयानों पर कोई कार्यवाही नहीं करना क्या यह दिल्ली पुलिस की अक्षमता नहीं है ?
चाहे तीसहजारी कोर्ट में वकीलों द्वारा डीसीपी मोनिका से की गयी बदसलूकी हो, या साकेत कोर्ट के बाहर बाइक सवार पुलिस कर्मी से कैमरे के सामने वकीलों द्वारा की गयी अभद्रता हो, या जेएनयू में नकाबपोश गुंडो द्वारा भड़काई गयी हिंसा पर दिल्ली पुलिस की शर्मनाक खामोशी हो, या जामिया यूनिवर्सिटी में लाइब्रेरी में घुसकर छात्रों पर किया गया अनावश्यक बल प्रयोग हो, या अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा और कपिल मिश्र के भड़काऊ भाषण के बाद पुलिस की शातिराना चुप्प हो, इस सब मे दिल्ली पुलिस की भूमिका बेहद निराशाजनक और निंदनीय रही है। लेकिन ऐसा क्यों है, यह आत्ममंथन और अन्तरावलोकन दिल्ली पुलिस के बड़े अफसरों को करना है न कि कनिष्ठ अफसरों को। यह अक्षमता जानबूझकर कर ओढ़ी गयी है। जब कानून व्यवस्था को राजनीतिक एजेंडे के अनुसार निर्देशित होने दिया जाएगा तो यही अधोगति होती है।
आज जब एक अतिविशिष्ट अतिथि दिल्ली में हैं, और सुबह के अखबार दंगो, हिंसा, भड़काऊ भाषण, और उन्माद की खबरों से भरे पड़े हों, सोशल मीडिया इन खबरों को विविध कोणों से इसे लाइव दिखा रहे हों तो दिल्ली शहर की कानून व्यवस्था के बारे में क्या क्षवि दुनियाभर में बन रही होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। जब यह हाल दिल्ली शहर का है तो किसी अन्य दूर दराज के इलाक़ो में पुलिसिंग का क्या स्तर होगा इसका भी अनुमान लगाना कठिन नहीं है। अब भाजपा के सांसद, मनोज तिवारी और गौतम गंभीर के बयान आये हैं कि कपिल मिश्र के खिलाफ कार्यवाही की जाय। उन्हें भी ज़मीनी हालात का अंदाज़ा लग रहा होगा। पर यह चुप्पी हैरान करती है। इस चुप्पी और दंगे का असर सीधे प्रधानमंत्री की क्षवि पर पड़ रहा है, जिन्होंने अपनी क्षवि बनाने के लिये पूरी दुनिया नाप रखी है, पर जब दुनियाभर में दिल्ली की खबरों को लोग उत्कंठा और प्राथमिकता से पढ़ रहे हैं तो देश की राजधानी के प्रति, हमारी शासन क्षमता के प्रति, हमारी प्राथमिकताओं के प्रति और हम भारतीयों के प्रति वे क्या धारणा बना रहे होंगे, इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
© विजय शंकर सिंह
Sunday, 23 February 2020
पत्थर बरसाती भीड़ द्वारा जय श्रीराम कहना, रामद्रोह है / विजय शंकर सिंह
नमस्ते ट्रम्प से क्या हमारे कूटनीतिक हित सधेंगे ? / विजय शंकर सिंह
वजाहत हबीबुल्लाह ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया हलफनामा / विजय शंकर सिंह
दो महीने से ज्यादा समय से देश की राजधानी दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में चल रहे धरना-प्रदर्शन के मामले में पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया है. उन्होंने धरनास्थल पर पैदा हुई अफरा-तफरी के हालात के लिए दिल्ली पुलिस को जिम्मेदार ठहराया है। पूर्व सीआईसी ने सरकार को भी कठघरे में खड़ा किया है। शाहीनबाग प्रोटेस्ट के मामले में 24 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है.
हलफनामे में कहा गया है कि सरकार की ओर से प्रदर्शनकारियों से बातचीत को लेकर कोई पहल नहीं की गई। वजाहत हबीबुल्लाह ने सड़क को बंद करने को लेकर हलफनामा दाखिल किया है। सुप्रीम कोर्ट ने बीते 17 फरवरी को वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े, साधना रामचंद्रन और पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला को वार्ताकार नियुक्त किया था और प्रदर्शनकारियों से बात कर विरोध प्रदर्शन के लिए वैकल्पिक रास्ता तलाशने को कहा था.
न्यूज एजेंसी एएनआई की खबर के मुताबिक वजाहत हबीबुल्ला ने अपने हलफनामे में कहा है कि नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ शाहीन बाग में चल रहा प्रदर्शन शांतिपूर्ण है. भारत के पहले मुख्य सूचना आयुक्त और सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त तीन वार्ताकारों में से एक हबीबुल्ला ने ये भी कहा है कि शाहीन बाद में पुलिस ने पांच तरफ से रास्ते को बंद कर रखा है।
वार्ताकारों ने 19 फरवरी से लेकर अब तक में शाहीन बाग में पदर्शनकारियों से चार बार बातचीत की है. बीते शनिवार को प्रदर्शनकारियों ने वार्ताकारों ने सामने अपनी नई मांग रखी और कहा कि अगर रोड 13 ए के एक तरफ की सड़क खोली जाती है तो सर्वोच्च न्यायालय उनके सुरक्षा की गारंटी दे।
वजाहत हबीबुल्लाह ने अपने हलफनामे में पुलिस पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि पुलिस ने कई गैरजरूरी जगहों को भी ब्लॉक कर दिया है। इससे अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया। प्रदर्शनकारियों का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि शाहीन बाग में लोकतांत्रिक तरीके से शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया जा रहा है। बता दें कि शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के खिलाफ महिलाएं दो महीने से भी ज्यादा समय से धरने पर बैठी हैं। प्रदर्शनकारियों के हाइवे पर बैठने से दिल्ली को नोएडा से जोड़ने वाले मार्ग पर आवागमन ठप पड़ा हुआ है. इस रूट को खुलवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है।
पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त ने शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को धरनास्थल से जबरने हटाने को लेकर भी आगाह किया है्. उन्होंने अपने हलफनामे में कहा कि प्रदर्शनकारियों को वहां से जबरन हटाने के प्रयास से उनकी सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो सकता है। वजाहत हबीबुल्लाह ने अपने हलफनामे में प्रदर्शनकारियों के लिए वैकल्पिक स्थान मुहैया कराने के मुद्दे पर कुछ नहीं कहा है. हालांकि, इसमें इस बात का उल्लेख जरूर किया गया है कि पुलिस की ओर से जांच-पड़ताल के बाद स्कूल वाहन और एंबुलेंस को इस रूट से जाने दिया जा रहा है।
#vss
Saturday, 22 February 2020
जन आंदोलनों में सड़क पर शांतिपूर्ण तरीके से बैठ जाना आतंकवाद नहीं है सर. / विजय शंकर सिंह
Friday, 21 February 2020
पहले भय की राजनीति और षडयंत्र से मुक्त होइये / विजय शंकर सिंह
Thursday, 20 February 2020
वारिस पठान का निंदनीय बयान अप्रत्याशित नहीं है / विजय शंकर सिंह
Wednesday, 19 February 2020
आखिर नागरिकता का आधार क्या है ? / विजय शंकर सिंह
Monday, 17 February 2020
लोककल्याणकारी राज्य और हमारा संविधान / विजय शंकर सिंह
ट्रेन में महादेव / विजय शंकर सिंह
Saturday, 15 February 2020
चंद्रशेखर जी के पूर्व कार्यालय में तोड़ फोड़ निंदनीय है / विजय शंकर सिंह
पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर जी आज महत्वपूर्ण हो या न हो पर उनकी हैसियत आज के फर्जी डिग्री और हलफनामा देने वाले आधुनिक अवतारों से कहीं बहुत अधिक थी। वे भले ही मात्र चार महीने ही देश के प्रधानमंत्री रहे हों, पर उनकी व्यक्तिगत हैसियत देश के अग्रिम पंक्ति के नेताओं में प्रमुख थी। 1977 में चन्द्रशेखर तत्कालीन सत्तारूढ़ दल जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे। और बाद में जब यह पार्टी बिखर गयी तो उन्होंने एक नयी पार्टी बनायी समाजवादी जनता पार्टी। वे इसके अध्यक्ष रहे औऱ अकेले ही अपने दल से बलिया से सांसद चुने जाते रहे। उन्हें लोग अध्यक्ष जी के ही नाम से संबोधित भी करते थे। अपने गांव इब्राहिम पट्टी जिला बलिया से वे अपने जीवन के अंतिम समय तक जुड़े रहे। बाद में उनके सुपुत्र नीरज, बलिया से लड़े बाद में सपा से राज्यसभा में भी पहुंचे पर अब वे भाजपा से राज्यसभा में एमपी हैं।
भारतीय समाजवादी आंदोलन में आचार्य नरेन्द्र देव् एक शिखर पुरुष थे। फैज़ाबाद के रहने वाले आचार्य जी 1937 मे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के रूप में कांग्रेस के अंदर समाजवादियों का एक मजबूत धड़ा बनाने में अग्रणी थे। उनके साथ डॉ राममनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन आदि समाजवादी नेता थे। कम्युनिस्ट नेता ईएमएस नंबूदरीपाद भी तब थे पर वे बाद में कम्युनिस्ट पार्टी में चले गए।
आज़ादी के बाद सबसे अधिक बिखराव अगर किसी राजनीतिक दल या आंदोलन में हुआ तो वह समाजवादी आंदोलन था। आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण एक तरफ थे और डॉ लोहिया दूसरी तरफ। केरल में पहली गैर कांग्रेस सरकार बनी थी। समाजवादी नेता थाणुपिल्लई वहां के मुख्यमंत्री बने। छात्रों का एक आंदोलन हुआ और उस आंदोलन पर पुलिस ने गोली चला दी। पुलिस जब आज तक औपनिवेशिक हैंग ओवर से मुक्त नही हो पायी है, तब तो आज़ादी मिले अधिक साल भी नहीं हुये थे। नशा तारी था।
डॉ लोहिया का कहना था कि आंदोलन करना एक लोकतांत्रिक अधिकार है और पुलिस को शांतिपूर्ण प्रदर्शकारियों पर किसी भी दशा में गोली नहीं चलानी चाहिए थी। उन्होंने कहा सरकार जाती है तो जाय पर उन कदमों पर नहीं चलना है जिनपर अंग्रेजी हुकूमत चलती थी। समाजवादी पार्टी में मतभेद हो गया और लोहिया अलग हो गये। सुधरो या टूटो के मंत्र में टूटो का मार्ग लोहिया ने चुना। यहीं से जेपी एक तरफ और लोहिया दूसरी तरफ हो गए।
जेपी बाद में मुख्य राजनीति से किनारा कर लेते हैं और वे सर्वोदय की राजनीति में आ गए। लोहिया के अनुसार, जेपी मठी गांधीवादी बन गए। लोहिया खुद को कुजात गांधीवादी कहते थे। अचार्य जी भी इतने सक्रिय नहीं रहे। मूलतः वे अकादमिक व्यक्ति थे। बाद में बीएचयू के कुलपति भी कुछ समय के लिये रहे। लोकतांत्रिक समाजवाद उनकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। उस समय चन्द्र शेखर जी नरेंद्र देव और जेपी के दल प्रजा सोशलिस्ट पार्टी पीएसपी में शामिल हो गए। वे आजीवन जेपी के विश्वस्त शिष्य बने रहे। आचार्य नरेन्द्र देव के बारे में आप को व्हाट्सएप विश्वविद्यालय में कुछ नहीं मिलेगा इसीलिए मैं यह सब आप को बता दे रहा हूँ। नरेंद्र देव की हैसियत और उनके अकादमिक ज्ञान का एक उदाहरण भी नीचे पढ़ लीजिए।
फैज़ाबाद में आमचुनाव था। नरेंद देव जी अपनी पार्टी पीएसपी से चुनाव में खड़े थे। उनका चुनाव चिह्न झोपड़ी था। उनके खिलाफ कांग्रेस से एक अल्पज्ञात सज्जन चुनाव लड़ रहे थे। कांग्रेस की तरफ से चुनाव प्रचार में जवाहरलाल नेहरू फैज़ाबाद पहुंचे थे। उन्होंने चुनावी सभा मे जाने के पहले पूछा कि कांग्रेस के खिलाफ कौन चुनाव लड़ रहा है। तो उत्तर मिला कि आचार्य नरेंद्र देव। उन्होंने, तुरन्त कहा कि, 'आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ कौन अहमक खड़ा हो गया।' वे सभा मे तो गए पर वोट डालने की अपील उन्होंने नरेंद्र देव के लिए की। उनका कहना था कि भले ही नरेंद्र देव विरोधी दल से हों पर वे सबसे बेहतर प्रत्याशी हैं। लेकिन वह कांग्रेस के एकक्षत्र राज का जमाना था, आचार्य जी चुनाव हार गए।
इन्ही आचार्य नरेन्द्र देव के नाम पर दिल्ली में चंद्रशेखर जी ने नरेंद्र निकेतन के नाम से एक भवन में अपनी पार्टी समाजवादी जनता दल का मुख्यालय बनाया था। नरेंद्र निकेतन को शुक्रवार की शाम को सरकार ने तोड़फोड़ कर जमींदोज कर दिया गया। शहरी विकास मंत्रालय की इस कार्रवाई से पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से जुड़े सारे दस्तावेज तहस नहस हो गए। इसी दफ्तर में पिछले माह 30 जनवरी को गांधी शांति यात्रा के बाद पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिंन्हा, शरद यादव और पृथ्वीराज चव्हाण ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। यशवंत सिन्हा, चन्द्रशेखर के ही कारण भारतीय प्रशासनिक सेवा की नौकरी छोड़ कर राजनीति में आये थे। दफ्तर ढहाने के विरोध में समाजवादी विचारधारा से जुड़े लोगों ने धरना प्रदर्शन शुरू कर दिया है। समाजवादी जनता पार्टी (चंद्रशेखर) के नेताओं का आरोप है कि इसी प्रेस कॉन्फ्रेंस से नाराज होकर 12 फरवरी को शहरी विकास मंत्रालय ने आफिस की जगह को रद्द किया और दो दिन बाद इस आफिस को गिरा दिया गया।
भाजपा के मित्रों को आज़ादी के आंदोलन, उसके नेताओं, आंदोलन की विचारधाराओं औऱ प्रतीको से स्वाभाविक चिढ़ है। इसका एक बड़ा कारण उस दौरान आज़ादी के आंदोलनों से अलग रहना भी है। यह एक प्रकार की हीनग्रंथिबोध है, जो आप गौर से देखेंगे तो तुरंत समझ लेंगे। यही कारण है कि लोकतांत्रिक धरना, प्रदर्शन, आंदोलन, विरोध, प्रतिरोध, असहमति जैसे शब्द और कार्य इन्हें असहज करते हैं। जब वे इन सबका राजनीतिक उत्तर नहीं ढूंढ पाते हैं तो सीधे धर्म और साम्प्रदायिकता पर कूद जाते हैं। यही आज भी हो रहा है।
© विजय शंकर सिंह