Saturday, 30 November 2019
अपराधी का महिमामंडन अपराध की मनोवृत्ति को बढ़ाता है / विजय शंकर सिंह
Friday, 29 November 2019
कानून - क्या सीबीआई जज लोया की मृत्यु संदिग्ध है ? - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह
Thursday, 28 November 2019
पटेल ने तो गोडसे समर्थकों को 1948 में ही पागलों का झुंड और कायर कहा था / विजय शंकर सिंह
संसद में 27 नवंबर को भोपाल से भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर द्वारा गोडसे के महिमामंडन पर देश मे व्यापक निदात्मक प्रतिक्रिया हुयी और कल ही सरकार ने इन सारी प्रतिक्रियाओं से असहज होते हुये, आज 28 नवम्बर को बीजेपी सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर को रक्षा मंत्रालय की समिति से हटा दिया गया है। सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर द्वारा नाथूराम गोडसे को 'देशभक्त' बताने के संदर्भ में बीजेपी के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा कि संसद में कल उनका बयान निंदनीय है.बीजेपी कभी भी इस तरह के बयान या विचारधारा का समर्थन नहीं करती है। उन्होंने कहा कि हमने तय किया है कि प्रज्ञा सिंह ठाकुर को रक्षा की सलाहकार समिति से हटा दिया जाएगा और इस सत्र में उन्हें संसदीय पार्टी की बैठकों में भाग लेने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
इस संबंध में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह जी ने जो कहा है वह महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा,
" नाथूराम गोडसे को देशभक्त कहे जाने की बात तो दूर हम उन्हें देशभक्त मानने की सोच को ही कंडेम ( निंदा ) करते हैं। महात्मा गांधी हम लोगों के आदर्श हैं । वे पहले भी हमारे मार्गदर्शक थे और भविष्य में भी मार्गदर्शक रहेंगे।"
जब 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में महात्मा गांधी की मृत्यु हुयी थी, तो उस समय पूरा देश ही नहीं पुरी दुनिया स्तब्ध हो गयी थी। जैसे ही गांधी के हत्या की खबर लॉर्ड माउंटबेटन को मिली, उन्होंने तुरन्त हत्यारे का धर्म पूछा। जब उन्हें बताया गया कि हत्यारा नाथूराम गोडसे है और एक हिन्दू तो माउंटबेटन ने ऊपर देखा और कहा, हे ईश्वर तुमने देश को बचा लिया। भारत उस समय अपने इतिहास के साम्प्रदायिक उन्माद के सबसे बुरे दौर में चल रहा था। माउंटबेटन को लगा कि अगर कही हत्यारा मुस्लिम होता तो देश मे भयंकर खूनखराबा हो जाता। वैसे भी उस समय देश विभाजन के बाद के दंगे भारत और पाकिस्तान दोनों ही नवस्वतंत्र देशों में चल ही रहे थे। देश कानून व्यवस्था के साथ साथ लाखो शरणार्थियों के निरापद पुनर्वास की समस्या से जूझ रहा था।
सरदार पटेल उस समय देश के गृहमंत्री थे। गृहमंत्री होने के नाते वे खुद को गांधी जी के प्रति, इस सुरक्षा चूक के लिये जब कि इस घटना के पहले भी गांधी हत्या के कुछ विफल प्रयास हो चुके थे, दोषी मान रहे थे। पर उस समय तक वीआईपी सुरक्षा का उतना तामझाम होता नहीं था और गांधी तो ऐसे सुरक्षा इंतजाम चाहते भी नहीं थे। हत्या के बाद 2 फरवरी को गांधी जी की स्मृति में, दिल्ली में एक शोकसभा हुयी। उसमे नेहरू, पटेल, सहित कांग्रेस के सभी बड़े नेता उपस्थित थे। नेहरू के भाषण के बाद पटेल ने जो कहा वह हत्यारे और हत्यारे के गिरोह की मानसिकता को उजागर कर देता है।
गाँधी जी को मारने की पांच विफल कोशिशों के बाद , छठा हमला सफल हुआ। उन्हें मारने की पहली कोशिश 1934 में हुई थी। तो कौन था जिसे गांधीजी से इतने गिले शिक़वे थे ? किसकी संकीर्ण, खूनी विचारधारा में गांधीजी जैसे महानुभाव की कोई जगह नहीं थी। और वो कौन है जो अब इतिहास को बदल कर अपने किये को हमेशा के लिए मिटाना चाहते है ?
गांधी की हत्या के बाद आयोजित उस शोकसभा में सरदार पटेल के दिए गए भाषण को प्रज्ञा ठाकुर द्वारा संसद में हत्यारे नाथूराम गोडसे के महिमामंडन के बाद याद करना महत्वपूर्ण है। सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू के बाद उस शोकसभा में, जब अपनी बात कहने खड़े हुए तो उनकी आंखों में आंसू थे। उनकी आवाज़ लरज रही थी। वह बोलने की हालत में नहीं थे। लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें ढाढस बढ़ाया और उन्हें कुछ कहने के लिये कहा। वे उस समय, नेहरू के बाद, देश के दूसरे सबसे बड़े नेता थे। उनका बोलना ज़रूरी भी था और उनकी मजबूरी भी।
उन्होंने कहा था,
" जब दिल दर्द से भरा होता है, तब जबान खुलती नहीं है और कुछ कहने का दिल नहीं होता है. इस मौके पर जो कुछ कहने को था, जवाहरलाल ने कह दिया, मैं क्या कहूं ? "
आगे सरदार पटेल ने कहा,
" हां, हम यह कह सकते हैं कि यह काम एक पागल आदमी ने किया. लेकिन मैं यह काम किसी अकेले पागल आदमी का नहीं मानता. इसके पीछे कितने पागल हैं? और उनको पागल कहा जाए कि शैतान कहा जाए, यह कहना भी मुश्किल है. जब तक आप लोग अपने दिल साफ कर हिम्मत से इसका मुकाबला नहीं करेंगे, तब तक काम नहीं चलेगा. अगर हमारे घर में ऐसे छोटे बच्चे हों, घर में ऐसे नौजवान हों, जो उस रास्ते पर जाना पसंद करते हों तो उनको कहना चाहिए कि यह बुरा रास्ता है और तुम हमारे साथ नहीं रह सकते.।"
(भारत की एकता का निर्माण, पृष्ठ 158)
उन्होंने कहा था,
" जब मैंने सार्वजनिक जीवन शुरू किया, तब से मैं उनके साथ रहा हूं. अगर वे हिंदुस्तान न आए होते तो मैं कहां जाता और क्या करता, उसका जब मैं ख़्याल करता हूं तो एक हैरानी सी होती है. तीन दिन से मैं सोच रहा हूं कि गांधी जी ने मेरे जीवन में कितना परिवर्तन किया? इसी तरह से लाखों आदमियों के जीवन में उन्होंने किस तरह से बदला? सारे भारतवर्ष के जीवन में उन्होंने कितना बदला. यदि वह हिंदुस्तान में न आए होते तो राष्ट्र कहां जाता? हिंदुस्तान कहां होता? सदियों हम गिरे हुए थे. वह हमें उठाकर कहां तक ले आए? उन्होंने हमें आजाद बनाया। "
(भारत की एकता का निर्माण, पृष्ठ 157)
सरदार पटेल ने गोडसे और उसके समर्थकों को सबसे बड़ा कायर करार दिया था. पटेल ने कहा था,
" उसने एक बूढ़े बदन पर गोली नहीं चलाई, यह गोली तो हिंदुस्तान के मर्म स्थान पर चलाई गई है. और इससे हिंदुस्तान को जो भारी जख्म लगा है, उसके भरने में बहुत समय लगेगा. बहुत बुरा काम किया. लेकिन इतनी शरम की बात होते हुए भी हमारे बदकिस्मत मुल्क में कई लोग ऐसे हैं तो उसमें भी कोई बहादुरी समझते हैं.। "
महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर 4 फरवरी 1948 को प्रतिबंध लगा दिया गया था। इस प्रतिबंध के छह महीने बाद सरदार पटेल ने संघ के संस्थापक गोलवलकर को एक पत्र लिखा था। यह पत्र पढ़ कर, यह जाना जा सकता है कि, पटेल की संघ और देश की एकता के बारे में क्या विचार थे। पत्र इस प्रकार है।
■
नई दिल्ली, 11 सितंबर, 1948
औरंगजेब रोड
भाई श्री गोलवलकर,
आपका खत मिला जो आपने 11 अगस्त को भेजा था. जवाहरलाल ने भी मुझे उसी दिन आपका खत भेजा था. आप राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर विचार भली-भांति जानते हैं. मैने अपने विचार जयपुर और लखनऊ की सभाओं में भी व्यक्त किए हैं. लोगों ने भी मेरे विचारों का स्वागत किया है. मुझे उम्मीद थी कि आपके लोग भी उनका स्वागत करेंगे, लेकिन ऐसा लगता है मानो उन्हें कोई फर्क ही न पड़ा हो और वो अपने कार्यों में भी किसी तरह का परिवर्तन नहीं कर रहें. इस बात में कोई शक नहीं है कि संघ ने हिंदू समाज की बहुत सेवा की है. जिन क्षेत्रों में मदद की आवश्यक्ता थी उन जगहों पर आपके लोग पहुंचे और श्रेष्ठ काम किया है. मुझे लगता है इस सच को स्वीकारने में किसी को भी आपत्ति नहीं होगी. लेकिन सारी समस्या तब शुरू होती है जब ये ही लोग मुसलमानों से प्रतिशोध लेने के लिए कदम उठाते हैं. उन पर हमले करते हैं. हिंदुओं की मदद करना एक बात है लेकिन गरीब, असहाय लोगों, महिलाओं और बच्चों पर हमले करना बिल्कुल असहनीय है.
इसके अलावा देश की सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस पर आपलोग जिस तरह के हमले करते हैं उसमें आपके लोग सारी मर्यादाएं, सम्मान को ताक पर रख देते हैं. देश में एक अस्थिरता का माहौल पैदा करने की कोशिश की जा रही है. संघ के लोगों के भाषण में सांप्रदायिकता का जहर भरा होता है. हिंदुओं की रक्षा करने के लिए नफरत फैलाने की भला क्या आवश्यक्ता है? इसी नफरत की लहर के कारण देश ने अपना पिता खो दिया. महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई. सरकार या देश की जनता में संघ के लिए सहानुभूति तक नहीं बची है. इन परिस्थितियों में सरकार के लिए संघ के खिलाफ निर्णय लेना अपरिहार्य हो गया था.
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर प्रतिबंध को छह महीने से ज्यादा हो चुके हैं. हमें ये उम्मीद थी कि इस दौरान संघ के लोग सही दिशा में आ जाएंगे. लेकिन जिस तरह की खबरें हमारे पास आ रही हैं उससे तो यही लगता है जैसे संघ अपनी नफरत की राजनीति से पीछे हटना ही नहीं चाहता. मैं एक बार पुन: आपसे आग्रह करूंगा कि आप मेरे जयपुर और लखनऊ में कही गई बात पर ध्यान दें. मुझे पूरी उम्मीद है कि देश को आगे बढ़ाने में आपका संगठन योगदान दे सकता है बशर्ते वह सही रास्ते पर चले .आप भी ये अवश्य समझते होंगे कि देश एक मुश्किल दौर से गुजर रहा है. इस समय देश भर के लोगों का चाहे वो किसी भी पद, जाति, स्थान या संगठन में हो उसका कर्तव्य बनता है कि वह देशहित में काम करे. इस कठिन समय में पुराने झगड़ों या दलगत राजनीति के लिए कोई स्थान नहीं है. मैं इस बात पर आश्वस्त हूं कि संघ के लोग देशहित में काम कांग्रेस के साथ मिलकर ही कर पाएंगे न कि हमसे लड़कर. मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि आपको रिहा कर दिया गया है. मुझे उम्मीद है कि आप सही फैसला लेंगे. आप पर लगे प्रतिबंधों की वजह से मैं संयुक्त प्रांत सरकार के जरिए आपसे संवाद कर रहा हूं. पत्र मिलते ही उत्तर देने की कोशिश करूंगा।
आपका
वल्लभ भाई पटेल
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आज पटेल की एक एक बात सच साबित हो रही है। गांधी की आलोचना पर कोई आपत्ति नहीं है। गांधी जी की विफलताओं पर भी चर्चा होती है और होनी भी चाहिये। पर उनकी या किसी की भी हत्या को औचित्यपूर्ण केवल बीमार मानसिकता का व्यक्ति ही ठहरा सकता है। गांधी का जैसा व्यापक जनप्रभाव देश मे था वैसा दुनियाभर में कम ही नेताओ का अपनी जनता पर होता है। आज दुनियाभर में भारत के वे प्रतीक बन चुके हैं। गांधी की विचारधारा, स्वाधीनता संग्राम और समाजोत्थान के लिये किये गए उनके कार्यो से कोई सहमत हो, या न हो, उनकी निंदा करे, आलोचना करे, पर आज की स्थिति में गांधी इन सबसे परे जा चुके हैं। कायर और बीमार लोगों का गिरोह ही किसी हत्यारे का महिमामंडन कर सकता है। पटेल ने सच ही कहा था।
© विजय शंकर सिंह
Wednesday, 27 November 2019
हरियाणा के आईएएस अफसर अशोक खेमका का तबादला / विजय शंकर सिंह
हरियाणा सरकार और कुछ करे या न करे पर एक काम बड़ी लगन से करती है और वह काम है हरियाणा के आईएएस और सचिव अशोक खेमका का तबादला। हर पांच छह महीने बाद उन्हें बदल देती है। उनकी नौकरी मे यह उनका 53 वां तबादला है। अब वे इस म्यूजियम सचिव के पद पर कितने दिन रहते हैं यह तो सरकार को भी पता नहीं है। मुझे लगता है अशोक खेमका का तबादला गिनीज बुक में कहीं कभी न कभी दर्ज न हो जाय।
सरकार ने अशोक खेमका को इस बार अभिलेख, पुरातत्व एवं संग्रहालय विभागों का प्रधान सचिव बनाया है. इससे पहले इसी साल मार्च में खेमका का ट्रांसफर करते हुए उन्हें विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग का प्रधान सचिव नियुक्त किया गया था। करीब 27 साल के करियर में 53 वीं बार तबादले पर अशोक खेमका का दर्द देखें। उन्होंने ट्वीट कर कहा,
''फिर तबादला. लौट कर फिर वहीं. कल संविधान दिवस मनाया गया. आज सर्वोच्च न्यायालय के आदेश एवं नियमों को एक बार और तोड़ा गया. कुछ प्रसन्न होंगे. अंतिम ठिकाने जो लगा, ईमानदारी का ईनाम जलालत.''
अशोक खेमका 1991 बैच के हरियाणा कैडर के आईएएस अधिकारी हैं। वह गुरुग्राम में सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा की जमीन सौदे से जुड़ी जांच के कारण सुर्खियों में रहे हैं। कहा जाता है कि अशोक खेमका जिस भी विभाग में जाते हैं, वहीं घपले-घोटाले उजागर करते हैं, जिसके चलते अक्सर उन्हें ट्रांसफर का दंश झेलना पड़ता है। वह भूपिंदर सिंह हुड्डा के शासनकाल में भी कई घोटालों का खुलासा कर चुके हैं।
अशोक खेमका पश्चिम बंगाल के कोलकाता में पैदा हुए. फिर आईआईटी खड़गपुर से 1988 में बीटेक किए और बाद में कंप्यूटर साइंस में पीएचडी किए। उन्होंने एमबीए भी कर रखी है। नवंबर 2014 में तत्कालीन हुड्डा सरकार ने रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ के लैंड डील से जुड़े खुलासे के बाद खेमका का तबादला परिवहन विभाग में कर दिया था, जिसको लेकर काफी हो-हल्ला मचा था और सरकार के इस फैसले पर सवाल उठे थे।
तबादला दंड नहीं है। निलंबन दंड नहीं है। यह बातें हमने भी सुनी हैं। निलंबन तो नहीं पर तबादला ज़रूर झेला है पर इतना नहीं जितना अशोक जी झेल रहे हैं। तबादला अगर अनावश्यक और रीढ़ की हड्डी टटोल कर बार बार किया जाय तो वह एक प्रकार का उत्पीड़न है और यह दंश पूरा परिवार भुगतता है। सरकार कुछ पद ऐसे ही अफसरों को अपनी असहजता से बचने के लिये बनाकर रखे रहती है, जिसका पता जनता को तब लगता है जब उस पर कोई अशोक खेमका जैसा अफसर नियुक्त होता है।
अशोक खेमका जैसे अफसर नौकरशाही में कम हैं। वे एक नियम कानून के पाबंद और सजग अफसर हैं, पर सरकार को ऐसे अफसर अमूमन रास नहीं आते हैं। यही अशोक खेमका मीडिया और भाजपा के प्रिय थे जब इन्होंने रॉबर्ट वाड्रा के भूमि से सम्बंधित अनियमितता और घोटालों के दस्तावेज पकड़े थे। भाजपा ने उनका राजनीतिक लाभ तो लिया पर वाड्रा का क्या हुआ, और उन घोटालों की जांच का क्या परिणाम रहा, यह आजतक पता नहीं है।
सरकार को सत्यनिष्ठा और नियम कानून पर चलने वाला अफसर रास नहीं आता है, उसे सत्तारूढ़ राजनीतिक जमात के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा रखने वाला अफसर पसंद है। वह देर सबेर सरकार को असहज ही करता है। क्योंकि उससे सरकार का राजनीतिक समीकरण बिगड़ जाता है। राजनीतिक आकाओं को धन कमवाने वाला, राजनीतिक जोड़ तोड़ करा कर हित साधन करने वाले अफसर अधिक पसंद आते हैं। अशोक खेमका जैसे नहीं।
© विजय शंकर सिंह
प्रज्ञा ठाकुर ने अपने गिरोह का सच ही तो कहा है ! / विजय शंकर सिंह
प्रज्ञा ठाकुर ने अपने मन का ही सच नहीं बल्कि अपने गिरोह और गिरोह के सरदार सहित सभी लोगों के मन की बात देश की सर्वोच्च पंचायत में कह दी। प्रज्ञा ठाकुर ही नहीं पूरा संघ और उसके समर्थक गोंड़से को देशभक्त ही मानते हैं। उनके देशभक्ति की क्या परिभाषा है यह तो वही बता पाएंगे। एक हत्यारे को वह भी एक ऐसे महान व्यक्ति जो दुनियाभर मे हमारे प्रतीक के रूप में मान्य हो, के हत्यारे को केवल संघी मानसिकता में पले बढ़े लोग ही देशभक्त कह सकते हैं। क्यों कहते हैं, यह उन्हें स्पष्ट करना चाहिये। जब सरकार और संसद में फर्जी डिग्री वाले, फर्जी हलफनामा देने वाले, हत्या की साज़िश रचने वाले, बम ब्लास्ट के आतंकी मुल्ज़िम पाए जाएंगे तो गोंडसे को ही ऐसे तत्व देशभक्त कहेंगे, गांधी को नहीं।
दरअसल, यह गिरोह शुरू से ही बार बार ऐसे शिगूफे छोड़ कर यह टेस्ट करता रहता है कि गांधी के प्रति जनता में कितनी जनभावना अभी शेष है। जब उसे लगता है कि अभी भी गांधी का प्रभाव जस का तस है तो वह तुरन्त पीछे कदम हटा लेता है। माफी मांग लेता है। या हमारा यह आशय नहीं बल्कि यह था, आदि आदि, किंतु परंतु से अपनी बात रखने की जुगत में लग जाता है।
यह बयान भी उसी रणनीति का हिस्सा है।इस तरह की बयानबाजी का एक उद्देश्य यह भी है कि हम सबका ध्यान इन ठगों और हत्यारो की इन्ही सब बातों पर लगा रहे और वे गिरोही पूंजीपतियों को लाभ और जनता को नुकसान पहुंचाते रहें। गांधी अकेले ऐसे शख्स थे जिन्होंने संघ, हिन्दू महासभा और सावरकर का गेम प्लान असफल कर दिया था । और गांधी की इस उपलब्धि के पीछे उनको प्राप्त अपार जनसमर्थन था। धर्म के क्षेत्र में बुद्ध ने, साहित्य के क्षेत्र में तुलसी ने और राजनीति के क्षेत्र में गांधी ने भारतीय जनमानस को जितना गहराई से प्रभावित किया है वह दुर्लभ है। गांधी की इस अपार लोकप्रियता का कोई तोड़ संघ के पास न तब था और न अब है। आरएसएस की गांधी से चिढ़ जगजाहिर है। पर ये करें क्या ? देश के बाहर तो वह यह कह नहीं कह सकते हैं कि वे गोडसे के देश से आते हैं। इन पर केवल तरस खाइए, और इनसे कहिये बसे रहिये।
प्रज्ञा ठाकुर एक आतंकी घटना की मुल्ज़िम है । मुंबई, 26 / 11 के अमर शहीद हेमंत करकरे उनकी नज़र में देशद्रोही हैं और एक अपराधी। उन्हें प्रधानमंत्री जी ने दिल से माफ तो नहीं किया पर दिल मे बसा ज़रूर लिया। क्या यह संभव है कि प्रधानमंत्री जी जो सदन के नेता हैं की मर्ज़ी के बगैर प्रज्ञा ठाकुर रक्षा मंत्रालय की स्थायी समिति की सदस्य मनोनीत हो जांय ? मनोनीत होते समय भले ही न उन्हें पता चल पाया हो क्योंकि यह नियुक्ति लोकसभा के अध्यक्ष करते हैं, पर मनोनयन के बाद तो प्रधानमंत्री जी उन्हें उस स्टैंडिंग कमेटी से हटाने के लिये तो कह ही सकते थे। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हुआ ? गांधी के 150 वी जयंती पर प्रज्ञा ने एक बात सच कही कि वह गोडसे को देशभक्त मानती है और वही नही वह पूरा गिरोह गोंडसे को देशभक्त ही मानता है और उसके जघन्यतम अपराध का बचाव करता रहता है।
प्रज्ञा ठाकुर की क्या निंदा की जाय ! टिकट भले ही उन्हें भाजपा ने दिया हो, उनके मस्तिष्क में ज़हर भले ही देश का सबसे बड़ा गिरोही और अपंजीकृत संगठन आरएसएस ने भरा हो पर उन्हें संसद में तो भेजा भोपाल की जनता ने ही न ! लोकतंत्र की यह भी एक खूबी है कि हम देश के सबसे महानतम प्रतीक के हत्यारे का महिमामंडन करने वाली और बम ब्लास्ट के आतंकी घटना के मुल्ज़िम को चुन कर संसद में भेज देते हैं और वह उस पवित्र सदन में जो कहता है वह नेशनल ऑनर एक्ट के अंतर्गत अपराध हो तो भी, उसके खिलाफ कोई वैधानिक कार्यवाही इसलिए नहीं हो सकती है कि सदन में कही गयी किसी बात पर कोई कानूनी कार्यवाही, संसदीय नियमों के अनुसार, हो ही नहीं सकती है। उस कथन को बस सदन की कार्यवाही से निकाला जा सकता है, जो बाद में लोकसभा अध्यक्ष के आदेश से, सदन की कार्यवाही से निकाल भी दिया गया। लोकतंत्र का एक पक्ष यह भी है।
जब संसद का अधिवेशन चल रहा हो तो, सरकार को ऐसे शिगूफे लगभग, हर रोज़ चाहिये, विशेषकर तब, जब एक एक कर के सारी नवरत्न सरकारी कंपनियां सरकार द्वारा बेची जा रही हो, अनुमानित कर संग्रह का आधा ही राजकोष में आया हो, वित्त मंत्री को यह तो पता है कि विकास थम गया है पर यह कहने और स्वीकार करने का उन्हें साहस न हो, कि देश आर्थिक मंदी के चपेट में है, कश्मीर में मरीज का ऑपरेशन कर के पेट तो खोल दिया गया है पर अब आगे क्या करना है, यह पता न हो तो, ऐसे ही शिगूफे सरकार की जान बचा सकते हैं और तात्कालिक राहत दे सकते हैं।
प्रज्ञा ठाकुर या आरएसएस की विचारधारा में पले बढ़े, किसी भी व्यक्ति के मुंह से अगर यह सुनने की आप की प्रत्याशा है कि गोंडसे हत्यारा और आतंकी था तो आप यह भूल कर रहे हैं। विनम्र से विनम्र और विधिपालक मानसिकता का संघी भी गोडसे की चर्चा होने पर, सुभाषितों से सम्पुटित अपनी वाणी में, गोडसे के पक्ष में ही खड़ा नज़र आएगा, और गोडसे की किताब 'गांधी वध क्यों' के कुछ उद्धरण ज़रूर सुना जाएगा। यह उनकी प्रिय पुस्तक है। आपने नितिन गडकरी को नहीं सुना ? वे गांधी हत्या नहीं गांधी वध कहते हैं। बचपन से जो उन्होंने सुना है वही तो कहेंगे वे। हत्या और वध समानार्थी हैं पर शब्द का प्रयोग करने वाले की मानसिकता को वे उधेड़ कर अनावृत कर देते हैं। जान तो दोनों में ही जाती है, पर वध हत्या का औचित्य कुछ हद तक सिद्ध करता प्रतीत होता है, और अपराध को एक सम्मानजनक कवर दे देता है, इसलिए वे अपनी सर्किल में यही कहते हैं। ठगों और अपराधियों की भाषा बोली थोड़ी अलग होती है जो मुझे भी कुछ कुछ समझ में आती है।
भाजपा के लोग चाहे जो दिखावा करें, लेकिन प्रज्ञा ठाकुर भारत के लिए शर्मिंदगी का सबब हैं। वे संसद और इसकी सलाहकार समिति के लिए शर्मिंदगी की वजह हैं। और निश्चित तौर पर वे अपने राजनीतिक आकाओं के लिए भी शर्मिंदगी का कारण हैं। लेकिन शायद उन्हें इस शब्द का मतलब नहीं पता। गोडसे का लॉकेट यह पूरा गिरोह गले मे धारण कर ले या जितना मन करे, उस आतंकी हत्यारे का महिमामंडन कर ले, पर गांधी विश्व पटल और देश के जनमानस में जहां प्रतिष्ठित हैं वहीं रहेंगे। यह यथार्थ, इनको भी पता है और हम सबको भी। इसे थोड़ा दरकिनार कीजिये और जो ज्वलंत मुद्दे इस समय देश और समाज के समक्ष है, विशेषकर आर्थिकी, एलेक्टोरेल बांड , राजनीतिक चंदे, कश्मीर में बिगड़ते हालात, दुनियाभर में बिगड़ती अंतरराष्ट्रीय क्षवि, देश के अंदर घटता इनका जनाधार, छात्र, किसान, मजदूरो के असंतोष के, उनपर डटे रहिये, यह सब शिगूफा है। एक गेम है। ठग विद्या है।
© विजय शंकर सिंह
संविधान दिवस - आरएसएस और भारतीय संविधान / विजय शंकर सिंह
आरएसएस देश की मुख्य धारा से अपने जन्म के समय से ही अलग रहा है। 1925 में अपनी स्थापना के बाद से ही, संघ का चाल चरित्र चेहरा, भारत के अंदर विद्यमान लोकप्रिय और प्रमुख धारा से अलग ही अपनी बात कहता रहा है। संघ अपनी विचारधारा को राष्ट्रवादी विचारधारा कह कर प्रचारित करता है और उसी का राजनीतिक संस्करण भारतीय जनता पार्टी भी खुद को राष्ट्रवादी ही कहती है पर इस जिज्ञासा का समाधान कोई भी संघी मित्र नहीं करता है कि जब आज़ादी का एक राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था तो संघ का राष्ट्रवाद कहाँ था ? संघ जिस राष्ट्रवाद की बात करता है उनके उस राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या है ? हमारा स्वाधीनता संग्राम जिस राष्ट्रवाद पर आधारित था, वह तिलक, गोखले, गांधी, टैगोर, अरविंदो, नेहरू, पटेल, आज़ाद आदि की सोच और भारतीय अस्मिता जो बहुलता में एकता की बात सदा से करती आयी है से विकसित हुआ राष्ट्रवाद था। जबकि संघ जिस राष्ट्रवाद की बात करता है वह यूरोपीय एकल समाज के राष्ट्रवाद से प्रभावित है जिसे हम जर्मन राष्ट्रवाद कह सकते हैं। यह राष्ट्रवाद एक संकीर्ण विचारधारा का राष्ट्रवाद है जो किसी जाति, या धर्म के श्रेष्ठतावाद पर आधारित है और हमारी दीर्घ परंपरा में बसे हुये वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत से अलग और विपरीत है।
वर्ष 1925 में अपनी स्थापना से लेकर, वर्ष 1947, भारत के आज़ाद होने तक, संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार, और एमएस गोलवलकर संघी विचारधारा के मुख्य प्रणेता रहे हैं। डॉ हेडगेवार तो संघ के संस्थापक ही थे और गोलवलकर जिन्हें गुरु जी के नाम से संघ जगत में जाना जाता है, वह संघ की विचारधारा के प्रमुख प्रस्तोता रहे हैं। एमएस गोलवलकर ने संघ की विचारधारा पर अपनी पुस्तक द बंच ऑफ थॉट जिसका हिंदी अनुवाद विचार नवनीत है, में भारतीय संविधान के बारे में अपने जिन विचारों को व्यक्त किया है से संघ का भारत के संविधान के संबंध में क्या दृष्टिकोण रहा है, स्पष्ट होता है, को पढ़ना और देखना रोचक होगा। मैं इस लेख में संविधान के बारे में गोलवलकर के के कुछ महत्वपूर्ण उद्धरण जो उनके भाषणों और उनकी पुस्तक बंच ऑफ थॉट से लिये गये हैं प्रस्तुत करूँगा, जिससे भारतीय संविधान के बारे में उनके विचारों का पता चलता है।
अगर भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास की बात करें तो, संघ या हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग भारत के स्वाधीनता संग्राम की मूल धारणा, अंग्रेजों भारत छोड़ो के विपरीत थे । न सिर्फ इस महान आंदोलन के, बल्कि भारत की आज़ादी के लिये चलाये जा रहे किसी भी आंदोलन या क्रांतिकारी गतिविधियों में उनकी रुचि नहीं थी। भारत आज़ाद हो, यह उनका उद्देश्य कभी रहा ही नहीं है। मुस्लिम लीग भी मुसलमानों के लिये एक आज़ाद और अलग संप्रभु देश ज़रूर चाहते थी और उसी के लालच में वे अंग्रेजों से अंत तक चिपके भी रहे। जब कांग्रेस का भारत छोड़ो आंदोलन और नेताजी सुभाष बाबू का आज़ाद हिंद फौज का अभियान चल रहा था तब हिन्दू महासभा, संघ और मुस्लिम लीग अंग्रेजों की सरपरस्ती में साझी सरकार चला रहे थे।
वर्ष 1940 तक आते आते जिस पवित्र राष्ट्रवाद के आधार पर एक आज़ाद भारत के लिये एक स्वाधीनता संग्राम चल रहा था वह धर्म पर आधारित देश के लिये अलग अलग खानों में बंट गया और दुर्भाग्य से देश के साझे दुश्मन ब्रिटिश न हो कर, हिन्दू और मुस्लिम हो गए। 1937 में हिन्दू एक राष्ट्र है और 1940 में मुस्लिम एक राष्ट्र है, की अवधारणा ने जन्म ले लिया और भारत एक राष्ट्र है की अवधारणा पीछे हो गयी। धर्म पर आधारित द्विराष्ट्रवाद का जन्म हुआ और भारत दो भागों में बंट गया। जिन्ना और मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान तो पा लिया, पर हिन्दू महासभा और सावरकर जो हिन्दू राष्ट्र के स्वयंभू प्रणेता थे को उनका इच्छित नहीं मिल सका । क्योंकि शेष भारत तो उन्ही मूल्यों के साथ मजबूती से खड़ा रहा जो मूल्य हज़ारों साल से भारत की अस्मिता और भारत की पहचान बने हुए हैं। वह मूल्य थे सर्वधर्म समभाव के और बहुलतावाद के। संघ की मानसिकता ही बहुलतावाद के विपरीत रही है।
1947 में मिली आज़ादी के प्रति आरएसएस का दृष्टिकोण अलग था। उन्होंने इसे आज़ादी के रूप में नहीं देखा। वे यह तो चाहते थे कि देश धर्म के आधार पर न बंटे, अखंड बना रहे, और अगर बंटे भी तो भारत एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में आज़ाद हो जैसा कि पाकिस्तान एक इस्लामी मुल्क के रूप में अलग हो गया था। आज भी संघ की विचारधारा से प्रशिक्षित मित्र यह मासूम सवाल करते हैं कि जब मुस्लिमों के लिये धर्म के आधार पर एक अलग देश, पाकिस्तान बना है तो भारत केवल हिंदुओ के लिये ही क्यों नहीं बनाया गया। संकीर्णता के साथ अगर यह तर्क सुनियेगा तो लगेगा यह एक वाजिब सवाल है। पर जब भारतीय, इतिहास, वांग्मय, दर्शन, परंपरा और सांस्कृतिक प्रवाह में पैठियेगा तो यही तर्क एक खोखला और आधारहीन लगने लगेगा। यह सवाल उठाने वाले मित्र यह भूल जाते हैं कि भारत की आज़ादी के संघर्ष में सम्मिलित सभी दल, चाहे वह कांग्रेस हो, या समाजवादी, या कम्युनिस्ट या क्रांतिकारी आदोलन के जाबांज युवक, ये सभी धर्म आधारित राष्ट्र के लिये नहीं बल्कि ब्रिटिश ग़ुलामी के विरुद्ध लड़ रहे थे। भगत सिंह और उनके साथियों का तो उद्देश्य ही अलग था। वे उपनिवेशवाद के खिलाफ थे और एक समाजवादी शोषण विहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। इन तमाम संघर्षों के बीच, आरएसएस, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग जब 1940 के बाद स्वाधीनता के लिये निर्णायक संघर्ष शुरू हुआ तो आज़ादी के आंदोलन से न केवल बाहर और खिलाफ थे, बल्कि अंग्रेजों के साथ थे और कुछ तो उनके मुखबिर भी थे। ऐसा भी नहीं कि वे केवल महात्मा गांधी औऱ नेहरू के ही खिलाफ थे, बल्कि वे सुभाष बाबू के भी खिलाफ थे, पटेल के भी और भगत सिंह की विचारधारा के खिलाफ तो थे ही।
1947 में आज़ादी के बाद संविधान बना। 1935 के अधिनियम के अनुसार गठित असेंबली ही संविधान सभा मे बदल गयी। पहले सच्चिदानंद सिन्हा, इस संविधान सभा के अध्यक्ष बने । बाद में इस पद पर डॉ राजेंद्र प्रसाद आसीन हुये। संविधान ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष डॉ बीआर अंबेडकर बने और इस प्रकार दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे विशाल संविधान जो लगभग 400 अनुच्छेदों का है, बना। संविधान सभा मे ऐसा भी नही था कि, सभी सदस्य कांग्रेस के ही थे, बल्कि विभिन्न विचारधारा से आये हुए लोग थे। डॉ आंबेडकर तो स्वाधीनता संग्राम से भी जुड़े नहीं थे, बल्कि वे तो ब्रिटिश राज के ही एक अंग थे। पर जब उन्हें यह दायित्व देने की बात आयी तो, उनकी प्रतिभा और मेधा को देखा गया न कि उनकी पृष्ठभूमि को। सभी सदस्य तमाम मतभेदों के बावजूद इस बात पर एकमत थे कि देश का संविधान, पंथ निरपेक्ष और उदार संसदीय लोकतंत्र के प्रति समर्पित होगा। हालांकि, संविधान के 42 वें संशोधन में, दो शब्द, समाजवादी और पंथ निरपेक्ष ( सेकुलर ) बाद में जोड़े गए हैं, जो मूल प्रस्तावना में नहीं हैं, लेकिन इसके बावजूद मूल संविधान की आत्मा पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत पर ही आधारित है।
संघ लंबे समय संविधान के स्वरूप का विरोध करता रहा है। संविधान ही नहीं राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय प्रतीक का भी विरोध करता रहा है। एनएस गोलवलकर का यह उद्धरण पढें, जो उन्होंने वर्ष 1949 में आरएसएस प्रमुख के रूप में, अपने एक भाषण में कहा था। वे कहते हैं,
“संविधान बनाते समय अपने ‘स्वत्व’ को, अपने हिंदूपन को विस्मृत कर दिया गया। उस कारण एक सूत्रता की वृत्तीर्ण रहने से देश में विच्छेद उत्पन्न करने वाला संविधान बनाया गया। हम में एकता का निर्माण करने वाली भावना कौन सी है, इसकी जानकारी नहीं होने से ही यह संविधान एक तत्व का पोषक नहीं बन सका। एक देश, एक राष्ट्र तथा एक ही राज्य की एकात्मक शासन रचना स्वीकार करनी होगी। एक ही संसद हो, एक ही मंत्रिमण्डल हो, जो देश की शासन सुविधा के अनुकूल विभागों में व्यवस्था कर सके।”
(गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-2, पृष्ठ 144)
यहां गोलवलकर संविधान को कोसते हैं। वे संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है। वे एक एकीकृत भारत चाहते हैं। पर वे यह ऐतिहासिक तथ्य भूल जाते हैं कि भारत मे एक ही सम्राट या राज्य कभी रहा ही नही है। एक ही धर्म सनातन धर्म रहते हुए भी इस धर्म की असंख्य शाखा प्रशाखा हैं और, और इस बहुजातीय, बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक भारत मे एक ही समाज की बात करना, देश की परंपरा और दीर्घ विरासत को नकार देना है। उनको वह संविधान पसंद है जो ‘मनुस्मृति’ में है। उन्हें इस बात से आपत्ति है कि भारत में अलग-अलग राज्य क्यों हैं ? गोलवलकर ने 1940 में चेन्नई में आरएसएस के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए जो कहा था, अब उसे पढें,
“एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने कोने में प्रज्वलित कर रहा है।”
(गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-1, पृष्ठ 11)
गोलवलकर के सिद्धांत जनवाद विरोधी और हिटलरी तानाशाही को मानने वाले थे। राष्ट्रवाद का यह यूरोपीय संस्करण था जो मुसोलिनी और हिटलर की श्रेष्ठतावाद से प्रभावित ही नहीं कहीं कहीं उसकी अनुकृति भी लगता है। यह राष्ट्रवाद भारतीय स्वाधीनता संग्राम के राष्ट्रवाद से बिलकुल उलट है। यही कारण है कि केवल संघ, और हिन्दू महासभा के कुछ लोगो को छोड़कर राष्ट्रवाद की इस नेशन स्टेट वाली अवधारणा को किसी ने भी न तो स्वीकार किया और न ही इस बारे मे सावरकर के साथ खड़े दिखे।
भारत के संविधान में संघीय राज्य की कल्पना की गयी है । भारत एक संघ है। एक राज्य नहीं बल्कि राज्यों का एक समूह है। सभी राज्य अपने आंतरिक राज व्यवस्था और प्रशासन के लिये स्वशासित हैं और अपनी अपनी विधायिकाओं द्वारा जनता के प्रति उत्तरदायी हैं। कुछ अधिकार राज्यों के दायरे में हैं और कुछ अधिकार केंद्र सरकार के दायरे में है। इस संकल्पना के पीछे बहु संस्कृति, भाषा और मान्यताओं के सम्मान और अधिकार की धारणा का सिद्धांत है मगर आरएसएस को विविधता की यह अवधारणा ही नापसंद है।
एमएस गोलवलकर की पुस्तक ‘विचार नवनीत’ में एक शासक अनुवर्त्तिता को लागू करने के लिए कहा गया है। अब इसे पढें,
“इस लक्ष्य की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी कदम यह होगा कि हम अपने देश के विधान से संघीय ढाँचे (फेडरल) की सम्पूर्ण चर्चा को सदैव के लिए समाप्त कर दें, एक राज्य के अर्थात भारत के अंतर्गत अनेक स्वायत्त अथवा अर्ध स्वायत्त राज्यों के अस्तित्व को मिटा दें तथा एक देश, एक राज्य, एक विधान मण्डल, एक कार्य पालिका घोषित करें। उसमें खंडात्मक, क्षेत्रीय, सांप्रदायिक, भाषाई अथवा अन्य प्रकार के गर्व के चिह्न को भी नहीं होना चाहिए। इन भावनाओं को हमारे एकत्व के सामंजस्य को विध्वंस करने का अवकाश नहीं मिलना चाहिए।”
(एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ -227)
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, “आज की संघात्मक (फेडरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण तथा पोषण करने वाली, एक राष्ट्र भाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटाकर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्मक शासन प्रस्थापित हो।”
(गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-3, पृष्ठ 128)
भाषा, क्षेत्र और संस्कृति की अनेकताओं को समाप्त कर संघ हर क्षेत्र में जिस “शुद्धता” की बात करता है वह एक ऐसी “शुद्धता” है जिसमें देश की बहु संस्कृति को फासीवादी, ब्राह्मणवादी, वर्चस्वकारी तानाशाही शुद्धता में बदलना है। इसके सिवा और क्या कारण हो सकता है कि वह तमाम सांस्कृतिक विविधता को मिटा देना चाहता है ? वह चाहता है कि जैसे संघ सोचता है वैसे ही लोग सोचें और बोलें। संघ लोगों के मस्तिष्क से उनके खुद के विवेक को हटाकर उन्हें मानसिक रूप से अपना गुलाम बनाना चाहता है।
किसी भी देश का ध्वज इतिहास और परंपराओं से निर्धारित होता है। भारत का ध्वज भी इसका अपवाद नहीं है। हमारे राष्ट्रीय ध्वज, तिरंगे का भी एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। कांग्रेस के बेजवाड़ा अधिवेशन ( जो अब विजयवाड़ा है ) में, आंध्र प्रदेश के एक युवक पिंगली वैंकैया ने एक झंडा बनाया और उसे गांधी जी को दिया। यह ध्वज दो रंगों का बना था। लाल और हरा रंग जो दो प्रमुख समुदायों अर्थात हिन्दू और मुस्लिम का प्रतिनिधित्वं करता है। गांधी जी ने सुझाव दिया कि भारत के शेष समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए इसमें एक सफेद पट्टी और राष्ट्र की प्रगति का संकेत देने के लिए एक चलता हुआ चरखा होना चाहिये। वर्ष 1931, तिरंगे के इतिहास में एक स्मरणीय वर्ष है। तिरंगे ध्वज को भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया और इसे राष्ट्र-ध्वज के रूप में मान्यता मिली। यह ध्वज जो वर्तमान स्वरूप का पूर्वज है, केसरिया, सफेद और मध्य में गांधी जी के चलते हुए चरखे के साथ था। यह भी स्पष्ट रूप से बताया गया था कि इसका कोई साम्प्रदायिक महत्त्व नहीं था। 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने वर्तमान ध्वज को भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया। स्वतंत्रता मिलने के बाद इसके रंग और उनका महत्व बना रहा। केवल ध्वज में चलते हुए चरखे के स्थान पर सम्राट अशोक के चौबीस तीलियों वाले धर्म चक्र को स्थान दिया गया। इस प्रकार तिरंगा, स्वतंत्र भारत का ध्वज बना।
ध्वज एक प्रतीक के रूप में जनता
के बलिदानों, संघर्षों और लक्ष्यों को प्रतिबिम्बित करता है। किसी मुल्क में ध्वज उस मुल्क की जनता का प्रतीक तभी बनता है जब उसके साथ जनता का संघर्ष और उसकी आकांक्षाएं शामिल हो। तिरंगे को साथ लिये लिये सीने पर गोलियां और सिर पर लाठी खाने के अनेक उदाहरण स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में बिखरे पड़े हैं। इस प्रकार संघर्षरत जनता अपने ध्वज को बदलती है और पुराने ध्वज जो शासक वर्गों के प्रतीक में बदल गए होते हैं उन्हें हटाती है। संघर्षरत जनता का अपना ध्वज चुनना एक बात है और प्रतीकों की राजनीति करना और इनके आधार पर लोगों को बाँटना दूसरी बात। यह सच है कि आज़ादी के दौरान तिरंगा स्वीकार किया गया । लेकिन ध्वज के मुद्दे पर, आरएसएस अलग ही राग अलापता है। दूसरों से बात-बात पर देश-प्रेम, संविधान प्रेम और तिरंगा प्रेम का प्रमाण मांगने वाले संघ ने खुद क्या कभी तिरंगे झण्डे को अपनाया ? जब आज़ादी की लड़ाई के दौरान 26 जनवरी 1930 को तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया तब आरएसएस प्रमुख डॉ. हेडगेवार ने एक आदेश पत्र जारी कर तमाम शाखाओं पर भगवा झंडा फहराने का निर्देश दिया।
आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी पत्र ऑर्गनाइज़र में 14 अगस्त 1947 वाले अंक में लिखा,
“वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगा थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा ना इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा और ना ही अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हो वह बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेह होगा।”
गोलवलकर ने अपने लेख में आगे कहा है,
“कौन कह सकता है कि यह एक शुद्ध तथा स्वस्थ राष्ट्रीय दृष्टिकोण है? यह तो केवल राजनीतिक, कामचलाऊ और तात्कालिक उपाय था। यह किसी राष्ट्रीय दृष्टिकोण अथवा राष्ट्रीय इतिहास तथा परंपरा पर आधारित किसी सत्य से प्रेरित नहीं था। वही ध्वज आज कुछ छोटे से परिवर्तनों के साथ राज्य ध्वज के रूप में अपना लिया गया है। हमारा राष्ट्र एक प्राचीन तथा महान राष्ट्र है जिसका गौरवशाली इतिहास है। तब क्या हमारा कोई अपना ध्वज नहीं था? क्या सहस्त्र वर्षों में हमारा कोई राष्ट्रीय चिन्ह नहीं था? निःसन्देह, वह था। तब हमारे दिमाग में यह शून्यतापूर्ण रिक्तता क्यों?”
(एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ- 237)
दरअसल आरएसएस महाराष्ट्रीय ब्राह्मण शासक पेशवाओं के भगवा झंडे को भारत का राष्ट्रध्वज बनाना चाहता है। गोलवलकर ने इस बारे में कहा,
“हमारी महान संस्कृति का परिपूर्ण परिचय देने वाला प्रतीक स्वरूप हमारा भगवा ध्वज है जो हमारे लिए परमेश्वर स्वरूप है। इसलिए इसी परम वंदनीय ध्वज को हमने अपने गुरुस्थान में रखना उचित समझा है। यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि अंत में इसी ध्वज के समक्ष सारा राष्ट्र नतमस्तक होगा।”
(गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’,भारतीय विचार साधना, नागपुर, खंड-1, पृष्ठ 98)
संघ संविधान से अपनी असहमतियां तार्किक आधार पर नहीं रखता है क्योंकि तर्क से तो संघ का छत्तीस का आँकड़ा है। अतार्किकता के बल पर ही उसने नफरत का धंधा खड़ा किया है। संघ के संविधान विरोध का आधार उसका झूठा प्राचीनता का बहाना है जिसके अनुसार प्राचीन काल में ‘स्वर्ण युग’ था जबकि ऐतिहासिक सत्यता इस बात को कहीं भी प्रमाणित नहीं करते हैं। जब से संविधान लागू हुआ तब से आरएसएस के प्रमुख नेताओं ने उसका विरोध ही किया है। एक तरफ संघ अतार्किक रूप से संविधान को अप्रश्नेय और पवित्र-पूज्य बनाने की मनोवृत्ति का प्रचार करता है। दूसरी तरफ उसके नेताओं के मन में एक तानाशाही पूर्ण व्यवस्था का सपना है जहां जनवाद, आधुनिक मूल्यों और समानता जैसे विचार हैं ही नहीं।
हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाया जाता है। हम संविधान को, उसने जो अधिकार हमे दिये हैं, उन्हें, एक अच्छे नागरिक के रूप में संविधान जो हम नागरिकों से अपेक्षा करता है उस उम्मीद को हर साल याद करते हैं। संविधान भले ही 26 नवंबर 1949 को स्वीकार किया गया हो, पड़ वह लागू 26 जनवरी 1950 से हुआ। संसार मे कुछ भी पूर्ण नही है और न ही कोई विकल्पहीन है। संविधान भी अपवाद नहीं है। वह भी अंतिम नहीं है। समय के अनुसार उसमे भी संशोधन हुये हैं और आगे भी होते रहेंगे। संविधान में सत्तर सालों में सौ से अधिक संशोधन किये गए हैं। पहले संविधान, संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार मानता था, अब यह अधिकार नहीं रहा। समय और सरकार की विचारधारा के साथ साथ संविधान बदलता रहता है। पर संविधान का मूल ढांचा यानी, संसदीय प्रणाली, लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता, मौलिक अधिकार, संघीय स्वरूप आदि में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है और यह अधिकार संसद जिसकी सर्वोच्चता निर्विवाद है, के पास भी नहीं है।
© विजय शंकर सिंह
कानून - रिटायर कर्मचारी के खिलाफ भ्रष्टाचार मामले में जांच हेतु सरकार की अनुमति सरूरी नहीं / विजय शंकर सिंह
Tuesday, 26 November 2019
गठबंधन की सरकारें और विचारधारा का सवाल / विजय शंकर सिंह
महाराष्ट्र में अब शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की सरकार बनेगी। यह एक अजूबे की तरह से भी देखा जा रहा है औऱ अचानक भारतीय संसदीय राजनीति में विचारधारा के अस्तित्व और प्रासंगिकता पर एक बहस छिड़ गयी है। लोग कह रहे हैं यह केर बेर के संग जैसी दोस्ती होगी। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस में तो कोई वैचारिक भिन्नता और अंतर्विरोध नही है, लेकिन शिवसेना से इन दोनों कांग्रेस पार्टियों का विरोध है।
एनसीपी का गठन, शरद पवार और नॉर्थ ईस्ट के कद्दावर नेता, पीए संगमा ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस से ही निकल कर किया था। हालांकि यह मुद्दा उछला तो बहुत पर इससे जनता में बहुत प्रतिक्रिया नहीं हुयी। फिर जब 2004 में कांग्रेस संसदीय दल की नेता चुने जाने के बावजूद सोनिया गांधी ने खुद प्रधानमंत्री की शपथ न लेकर डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के पद पर कांग्रेस के नेता के रूप में आगे कर दिया तो यह मुद्दा स्वतः हल्का हो गया। पहले एनसीपी का अस्तित्व नॉर्थ ईस्ट में भी था पर पीए संगमा के न रहने पर अब यह दल नॉर्थ ईस्ट में भी बहुत सक्रिय नहीं रहा बल्कि वहां इस दल का अधिकांश भाग कांग्रेस में ही समा गया। केवल महाराष्ट्र में यह दल मजबूती से अब भी है, और इसका कारण शरद पवार का निजी प्रभाव और उनका व्यापक जनाधार है। एनसीपी की राजनीतिक सोच मौलिक रूप से कांग्रेस की विचारधारा के समरूप ही है। अतः एनसीपी और कांग्रेस दोनों को एक साथ मिलने और सरकार बनाने में कोई समस्या नहीं आएगी। शरद पवार न केवल एनसीपी के सर्वेसर्वा और इस समय महाराष्ट्र के सबसे कद्दावर नेता के रूप में स्थापित हैं बल्कि वे कांग्रेस के भी एक मान्य नेता के तौर पर उभर कर आ गए हैं।
शिवसेना का समीकरण और राजनीतिक सोच, ज़रूर एनसीपी और कांग्रेस से अलग है। शिवसेना उस तरह की राजनीतिक पार्टी नहीं है जैसी की अन्य वैचारिक आधार पर गठित होने वाली राजनीतिक पार्टियां होती हैं। मूलतः यह एक दबाव ग्रुप है, जो बाद में एक राजनीतिक दल के रूप में विकसित हुआ और इसका कैडर जिसे शिवसैनिक कहा जाता है वह किसी खास विचारधारा के प्रति कम बल्कि अपने सुप्रीमो बाल ठाकरे और अब बाला साहब के न रहने पर उनके बेटे उद्धव ठाकरे के प्रति निजी तौर पर, समर्पित और वफादार है । बाला साहेब ठाकरे ने महाराष्ट्र के स्थानीय लोगों के अधिकारों के संघर्ष के लिए 19 जून 1966 को शिवसेना की नींव रखी थी। ठाकरे मूल रूप से एक पत्रकार और कार्टूनिस्ट थे और राजनीतिक विषयों पर तीखे कटाक्ष करते थे। वे स्वभाव से भी आक्रामक थे और यही आक्रामकता उनकी और उनके पार्टी की यूएसपी बन गयी। वैसे तो शिवसेना का अस्तित्व कई अन्य राज्यों में भी है, लेकिन महाराष्ट्र में, इसका राजनीतिक प्रभाव सबसे अधिक है।
शिवसेना के गठन के समय बाला साहेब ठाकरे ने नारा दिया था, 'अंशी टके समाजकरण, वीस टके राजकरण' (80 प्रतिशत समाज और 20 फीसदी राजनीति)। लेकिन भूमिपुत्र का मुद्दा लंबे समय तक नहीं चल सका। इसपर समर्थन कम होने के कारण शिवसेना ने हिन्दुत्व के मुद्दे को अपना लिया, जिसपर वह अब तक कायम है । एक दृष्टिकोण यह भी है कि बंबई में कम्युनिस्ट प्रभाव को कम करने के लिये कांग्रेस की शह पर बाल ठाकरे को आगे कर के शिवसेना की नींव रखी गयी थी। जो पहले मराठी मानुस के नाम पर तमिल समाज या दक्षिण भारतीयों के खिलाफ मुखर हुयी बाद में यही रवैया उसका उत्तर भारतीयों विशेषकर, उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रति हो गया। 1970 के शुरुआती दिनों में पार्टी को काफी लोकप्रियता मिली। इस दौरान दूसरे राज्यों विशेष रूप से दक्षिण भारतीय लोगों पर महाराष्ट्र में काफी हमले हुए। 1970 के बाद शिवसेना का भूमिपुत्र का दांव कमजोर होने लगा। इसपर पार्टी ने हिंदुत्व के मुद्दे पर आगे बढ़ना शुरू किया।
शिवसेना ने पहली बार 1971 में लोकसभा चुनाव में लड़ा था लेकिन पार्टी एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो सकी। 1989 के लोकसभा चुनाव में पहली बार शिवसेना का सांसद चुना गया। शिवसेना ने पहली बार महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 1990 में लड़ा जिसमें उसके 52 विधायकों ने जीत हासिल की। शिवसेना ने भाजपा के साथ 1989 में गठबंधन किया था जो 2014 तक चला। शिवसेना के दो नेता मनोहर जोशी और नारायण राणे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। मुंबई महानगर पालिका (बीएमसी) पर भी लंबे समय से शिवसेना का कब्जा है।
सरकार बनाने के लिये वैचारिक समानता की बात संसदीय लोकतंत्र में उसी दिन से महत्वपूर्ण नहीं रही जिस दिन से 1967 में डॉ राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में समाजवादी और जनसंघ ने एक दूसरे से वैचारिक ध्रुवों पर रहने के बावजूद गैर कांग्रेसवाद के मुद्दे पर एक साथ सरकार बनाई और चलाई थी। यह अलग बात है कि आपसी कशमकश और आये दिन के टकराव से वह सरकार चल नहीं पाई। जल्दी ही मध्यावधि चुनाव हुए। यह सरकारें संयुक्त विधायक दल संविद सरकार के नाम से जानी जाती हैं। इन सरकारों के बनने और गिरने की तीव्रता के कारण कांग्रेस ने स्थायी और टिकाऊ सरकार का नारा दिया जो, पहले 1971 और फिर 1980 में उसकी सत्ता में वापसी का मुख्य कारण बना। 1967 में सभी विरोधी दलों के समक्ष मुख्य मुद्दा था कांग्रेस को हराना। डॉ लोहिया और जनसंघ की विचारधारा में कहीं से कोई मेल ही नहीं था। गैरकांग्रेसवाद के सिद्धांत ने दोनों को एक साथ ला दिया।
1971 में भी इंदिरा गांधी की नयी नयी प्रगतिशील कांग्रेस, जो बैंको के राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स हटाने के प्रगतिशील निर्णयों के कारण लोकप्रिय हो चली थी, को हराने के लिये समाजवादी गुटों, जनसंघ, कांग्रेस का ही एक रूप संघटन कांग्रेस और राजाओं के दल स्वतंत्र पार्टी ने महागठबंधन या ग्रैंड एलायंस बना कर एक साथ चुनाव लड़ा पर यह महागठबंधन बुरी तरह पराजित हुआ। इंदिरा गांधी की वह धमाकेदार जीत थी। यह सरकार 1977 तक चली। और जब 1977 में इंदिरा गांधी हारी तो उसका कारण आपातकाल का तानाशाही फैसला था।
केवल कम्युनिस्ट पार्टियां ही ऐसी हैं जो विचारधारा से समझौता कर के किसी ऐसे गठबंधन में शामिल नहीं हुयी जो केवल सरकार बनाने के लिये ही किया गया हो । 1971 से 1977 तक सीपीआई ज़रूर कांग्रेस के साथ थी पर सीपीएम कांग्रेस के विरोध में थी। सीपीआई केंद्रीय सरकार में नहीं थी पर उसके दिग्गज नेता श्रीपाद अमृत डांगे और मोहित सेन इंदिरा गांधी के साथ थे और उनका तर्क था कि वे कांग्रेस के जनहितकारी नीतियों, प्रिवीपर्स का खात्मा और बैंको के राष्ट्रीयकरण के काऱण साथ हैं। पर जब इमरजेंसी लगी तो इंदिरा विरोध की आंच सीपीआई तक भी पहुंची और सीपीआई को इसका नुकसान उठाना पड़ा। स्थिति यह भी बाद में आयी कि भारत मे कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक रहे एसए डांगे को कम्युनिस्ट पार्टी ने ही विचारधारा के आधार पर समझौता करने के आरोप में पार्टी से निकाल दिया। सीपीएम अपनी जगह मजबूती से खड़ी रही। बंगाल और केरल में बनने वाला वाम मोर्चा और एलडीएफ, लेफ्ट एंड डेमोक्रेटिक फ्रंट लगभग समान विचारधारा वाले दलों का गठबंधन है जो सीपीएम के नेतृत्व में चुनाव लड़ता हैं और चुनाव जीतने पर मिल कर सरकार बनाते हैं, जो स्थायी होती है ।
1977 में जनता पार्टी का प्रयोग भी वैचारिक विभिन्नता के बावजूद एक साथ सरकार बनाने का था। पर यह भी कांग्रेस के आपातकाल जन्य अधिनायकवाद के विरुद्ध बनी हुयी एकजुटता थी जो जब अधिनायकवाद का खतरा कम हो गया तो अपने आप उसे जोड़े रखने वाली कड़ी कमज़ोर पड़ गयी और फिर वैचारिक प्रतिबद्धता के रूप में दोहरी सदस्यता का मामला समाजवादी खेमे से उठा और भाजपा का जन्म हुआ, क्योंकि भाजपा के लोग आरएसएस की सदस्यता छोड़ ही नहीं सकते थे क्योंकि वही तो उनका स्थायी भाव है।
फिर जब एनडीए और यूपीए के रूप में अलग अलग राजनीतिक दलों के गुट एकजुट हुये तो वैचारिक द्वंद्व से समझौता करना पड़ा। यह दोनों ही बहुदलीय गुट लंबे समय तक सरकार में रहे और यह सरकारें लंबे समय तक चली । 1996 से 2014 तक के दौर में एक ही राजनैतिक दल को लोकसभा में बहुमत नहीं मिल सका और विभिन्न दलों ने अपने को मिलाजुला कर दो एलायंस बनाये। यह गठबंधन भी वैचारिक रुप से एक नहीं था। यहां भी जार्ज फर्नांडिस, शरद यादव, नीतीश कुमार जो समाजवादी खेमे के थे और हैं, अब भी अपने से विपरीत विचारधारा के दल भाजपा के साथ सहजता से लंबे समय से सरकार में रहे हैं, और अब भी है ।
जम्मूकश्मीर में भाजपा और पीडीपी की साझा सरकार, वैचारिक रूप से ध्रुवीय दलों के एक साथ सरकार बनाने और तीन साल तक उसे चलाने का एक हालिया और उत्कृष्ट उदाहरण है। भाजपा और पीडीपी की विचारधारा का तो कोई मेल ही नहीं है। पर राजनीति में कभी भी, कही भी, कुछ भी हो सकता है। बिहार में नीतीश कुमार की जेडीयू और भाजपा की दोस्ती आज भी वैचारिक मतभेदों के बावजूद कायम है। उत्तर प्रदेश में भाजपा और बसपा की बिल्कुल अलग अलग और विपरीत विचारधारा के बावजूद ढाई ढाई साल की सरकार बनी और पहले ढाई साल तक मायावती यूपी की मुख्यमंत्री रहीं और फिर जब भाजपा का क्रम आया तो कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने। यह अलग बात है कि, मायावती ने कल्याण सिंह की सरकार को चलने नहीं दिया, गिरा दिया।
अपने अपने स्वार्थ, साझा, निकट और त्वरित उद्देश्य, राजनीतिक दलों को बदली हुयी परिस्थितियों में एक साथ होने और सरकार बनाने पर विवश करते रहे है। जब वैचारिक आधार वाले दल का कोई व्यक्ति अपना दल छोड़ कर विपरीत या भिन्न वैचारिक आधार के दल में जाता है तो न तो उसकी विचारधारा रातोरात बदलती है और न ही उसे स्वीकार करने वाला दल उसकी विचारधारा से, जिसे वह छोड़ कर आया है से रातोरात तालमेल बिठा पाता है। दल को संख्या चाहिये और आने वाला व्यक्ति भले ही विपरीत विचारधारा का हो वह सत्ता में लाने लायक संख्या तो बना ही रहा है। इसी आधार पर, वह व्यक्ति, विपरीत विचारधारा के बाद भी, उस दल में बना रहता है। मंत्री भी बनता है, और तमाम विसंगतियों के बाद भी वही उसी दल के चुनाव चिह्न पर चुनाव भी लड़ता है। यहां, कोई विचारधारा नहीं बल्कि, दोनों को एक दूसरे की राजनीतिक ज़रूरत, स्वार्थ आदि अन्य कारक तत्व नज़दीक लाते हैं और एक दूसरे से बांधे रखते हैं ।
© विजय शंकर सिंह
महाराष्ट्र में सरकार का संकट और राज्यपाल / विजय शंकर सिंह
Monday, 25 November 2019
भगवान सिंह का लेख - रामकथा की परंपरा ( 1 ) / विजय शंकर सिंह
महाराष्ट्र - लोकतंत्र और नैतिकता का एक त्रासद प्रहसन / विजय शंकर सिंह
महाराष्ट्र के सिंचाई घोटाले का पैसा टैक्स देने वालों का नहीं था क्या ? / विजय शंकर सिंह
आज की सवसे बड़ी खबर यह है कि, अजित पवार के उपमुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही उनके खिलाफ चल रही सिंचाई घोटाले की सारी जांचे बंद हो गयी हैं। अब वे पवित्र बन चुके हैं। भाजपा के दावे, भ्रष्टाचार के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस से भाजपा की असलियत, भ्रष्टाचार के खिलाफ निल जांच तक का यह सफर निंदनीय है। कथनी और करनी, नैतिकता और पाखंड, की स्प्लिट पर्सनालिटी से युक्त भाजपा का यह वास्तविक, चाल, चरित्र, चेहरा और चिंतन है।
2014 से लगातार देवेंद्र फडणवीस यह कह रहे थे कि हजारों करोड़ के सिंचाई घोटाले में अजित पवार लिप्त हैं और वे जेल भेजे जाएंगे। चक्की पीसिंग पीसिंग एंड पीसिंग, वाला उनका एक पुराना वीडियो अब भी सोशल मीडिया पर खूब देखा और साझा किया जा रहा है। 25 नवंबर को मुख्यमंत्री फडणवीस ने शायद सबसे पहले इसी फाइल पर दस्तखत किया जो अजित पवार के सिंचाई घोटाले से सम्बंधित है। इसे सरकार की पहली उपलब्धि माना जाना चाहिये।
इससे पहले महाराष्ट्र में हुए करीब 70 हजार करोड़ के कथित सिंचाई घोटाले में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने नवंंबर 2018 में पूर्व उप मुख्यमंत्री और एनसीपी नेता अजित पवार को जिम्मेदार ठहराया था।. महाराष्ट्र भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने बंबई उच्च न्यायालय को बताया था कि करोड़ों रुपये के कथित सिंचाई घोटाला मामले में उसकी जांच में राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री अजित पवार तथा अन्य सरकारी अधिकारियों की ओर से भारी चूक की बात सामने आई है।. यह घोटाला करीब 70,000 करोड़ रुपए का है, जो कांग्रेस- राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शासन के दौरान अनेक सिंचाई परियोजनाओं को मंजूरी देने और उन्हें शुरू करने में कथित भ्रष्टाचार तथा अनियमितताओं से जुड़ा हुआ है। अब एसीबी ने अपनी ही जांच और निष्कर्षों से पलटी मार ली है।
एसीबी के डीजी ने अब यह कहा है कि सिंचाई घोटाले के 9 केसों में अजित पवार की कोई भूमिका नहीं थी। जबकि कुछ महीनों पहले एसीबी ने अजित पवार की लिप्तता को हाईकोर्ट में स्वीकार किया था। अब वे कह रहे है कि, इस केस को बंद करने के लिए तीन महीने पहले ही अनुशंसा कर दी गयी थी। अगर ऐसा था तो उस पर निर्णय लेने का क्या यह उपयुक्त समय था जब सरकार का गठन, राज्यपाल की भूमिका और प्रधानमंत्री की राष्ट्रपति शासन खत्म करने की बिजनेस रूल्स 1961 के नियम 12 के अंतर्गत की गयी सिफारिश पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। एसीबी के डीजी ने कहा है कि सिंचाई घोटाले से जुड़े मामले में लगभग 3000 अनियमितताओं की जांच की जा रही है जिनमें से 9 मामलों में उनकी कोई भूमिका नहीं है।
लगता है, बड़ी जांच एजेंसियों में अब उतनी भी रीढ़ की हड्डी नहीं बची है जितनी की हमारे कुछ थानेदारों में अब भी है। आज के महाराष्ट्र सरकार के इस निर्णय से एसीबी की जांच और उसकी सत्यनिष्ठा खुद ही सवालों के घेरे में आ गयी है।
© विजय शंकर सिंह
Friday, 22 November 2019
एलेक्टोरेल बांड एक सुनियोजित घोटाला है / विजय शंकर सिंह
● इलेक्टोरल बॉन्ड 15 दिनों के लिए वैध रहते हैं केवल उस अवधि के दौरान ही अपनी पार्टी के अधिकृत बैंक ख़ाते में ट्रांसफर किया जा सकता है. इसके बाद पार्टी उस बॉन्ड को कैश करा सकती है.
● दान देने वालों की पहचान गुप्त रखी जाती है और उसे आयकर रिटर्न भरते वक़्त भी इस बारे में कोई जानकारी नहीं देनी होती.
● पिछले एक साल में इलेक्टोरल बॉन्डस के जरिए सबसे ज़्यादा चंदा बीजेपी को मिला है।
● एक आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार पार्टियों को मिले चंदे में 91% से भी ज़्यादा इलेक्टोरल बॉन्ड एक करोड़ रुपये के थे. इन बॉन्ड्स की क़ीमत 5,896 करोड़ रुपये थी.
● आरटीआई एक्टिविस्ट लोकेश बत्रा को मिली जानकारी के मुताबिक़, 1 मार्च 2018 से लेकर 24 जुलाई 2019 के बीच राजनीतिक पार्टियों को जो चंदा मिला उसमें, एक करोड़ और 10 लाख के इलेक्टोरल बॉन्ड्स का लगभग 99.7 हिस्सा था.
● इस दौरान दिए गए सभी इलेक्टोरल बॉन्ड्स की क़ीमत 6,128.72 करोड़ रुपये थी.
● इसके उलट एक हज़ार, 10 हज़ार और एक लाख के बॉन्ड्स से पार्टियों को सिर्फ़ 15.06 करोड़ के बराबर चंदा मिला.
● इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के जरिए मिले चंदे का 83% हिस्सा सिर्फ़ चार शहरों से आया. ये चार शहर हैं: मुंबई, कोलकाता, नई दिल्ली और हैदराबाद. इन चारों शहरों से मिलने वाले बॉन्ड की क़ीमत 5,085 करोड़ रुपये थी.