Thursday, 31 January 2019

असग़र वजाहत की कहानी - गांधी का पुतला / विजय शंकर सिंह

गांधी का पुतला
(दस कहानियां)
अ.व.
1.
गांधी के पुतले को यह समझ कर गोली मारी गई थी कि पुतले को मारी जा रही है। लेकिन  गोली गांधी  को लगी।
पुतले के पीछे से गांधी निकल आए। गोली मारने वालों ने कहा यह तो हमारे लिए बहुत खुशी की बात है कि गोली असली गांधी को लगी है । पर चिंता की बात यह है कि अगले साल जब हम पुतले को गोली मारेंगे तो उसके पीछे से गांधी कैसे निकलेगा ।
गांधी ने कहा तुम चिंता मत करो हर साल तुम पुतले को गोली मारना और हर साल  उसके पीछे से गांधी निकलेगा।

2.
गांधीजी के पुतले को जब गोली मारी गई और खून बहने लगा तो अचानक सभा में कर्नल डायर(Colonel Rsginald Edward Harry Dyer 1864- 1927) आ गया उसके चेहरे से खुशी फूटी पडती थी। उसने अंग्रेजी में गोली मारने वालों से कहा, वेल डन ....जो काम हमारा पूरा साम्राज्य नहीं कर सका वह काम तुम लोगों ने कर दिया है। हम तुम्हारे बड़े आभारी हैं। अगर कभी कोई काम हो तो बताना।
डायरके पीछे-पीछे ऊधम सिंह भी आ गए थे पर उन्हें कोई देख नहीं पाया।

3.
गांधी के पुतले पर गोली चलाने वालों ने सोचा कि उन्हें अधिक प्रामाणिक होना चाहिए। इतिहास बताता है की गोली लगने के बाद गांधी ने 'हे राम' कहा था, इसलिए गोली चलाने वाले ने अपनों में से किसी आदमी से कहा कि गांधी के पुतले पर गोली लगते ही वह  हे राम बोले। हे राम बोलने वाला तैयार हो गया।
गोली चली, गांधी के लगी, खून बहा लेकिन हे राम कहने वाला, हे राम न बोल सका । वह केवल हे-हे करता रह गया।

4.
गांधी के पुतले पर गोली चली। पुतला गिर गया और देखा गया के पुतले के पीछे तो तमाम लोगों की लाशें पड़ी हैं।
पहचानने की कोशिश की गई तो पता चला कि वे  चम्पारन के किसानों की लाशें हैं।

5.
गांधी के पुतले को जब गोली मारी गयी तब एक देववाणी हुई। आकाश से आवाज आई- अरे मूर्खों पुतले को क्या मार रहे हो। मारना ही है तो गांधी की आत्मा को मारो।
मारने वालों ने कहा- आत्मा क्या होती है हमें नहीं मालूम।
देववाणी ने कहा- आत्मा तो सबके अंदर होती है। तुम लोग भी आत्मा को खोज कर देखो ।
उन्होंने कहा-  हमें नहीं मिलती। हम सौ साल से खोज रहे हैं।

6.
गांधी को गोली मारने वालों ने सोचा कि पुतले को कब तक गोली मारेंगे क्यों न उन लोगों को गोली मारी जाए जिन्होंने फिल्मों और नाटक में गांधी की भूमिकाएं की हैं । बस यह विचार आना था कि वे आनन-फानन में उन सब अभिनेताओं को पकड़ लाए जिन्होंने गांधी की भूमिका की थी।
उनसे कहा गया, तुम्हें गोली मार दी जाएगी क्योंकि तुम गांधी बने थे।
उन्होंने कहा ठीक है लेकिन हमें गोली मारने वाले गोडसे होंगें न... क्या उन्हें फांसी पर लटकाया जाएगा?

7.
पहले तो मीडिया की  यह हिम्मत ही नहीं पड़ रही थी  कि वह इस विवाद में शामिल हो। जब एक पत्रकार ने  चैनल के मालिक से  इस बारे में बात की  तो मालिक पर  उसकी प्रतिक्रिया  यह हुई  कि उसकी कुर्सी फट गई । मतलब कुर्सी में छेद हो गया।  मालिक ने कहा  इस छेद के अंदर झांक कर देखो।  तुम्हें इसमें अपना भविष्य दिखाई देगा।  पत्रकार ने  छेद में झांका  और वास्तव में उसका भविष्य दिखाई दिया दिया।
चैनल के मालिक ने कहा,  अब तुम अगर  इस मामले में कुछ करना ही चाहते हो  तो स्वर्ग में जाकर  गांधी जी को इंटरव्यू करो। पत्रकार गांधी जी के पास स्वर्ग में जा पहुंचा ।गांधी जी बैठे चरखा कात रहे थे ।उनसे पत्रकार ने पूछा, महात्मा जी आप के पुतले को गोली मारी गई है। आपको कैसा लग रहा है?
गांधी जी ने कहा, मुझे बड़ा अच्छा लग रहा है।
पत्रकार ने पूछा, अच्छा क्यों लग रहा है?
गांधी जी ने कहा, इसलिए कि पहले उन्होंने एक निहत्थे को गोली मारी थी। और अब उन्होंने एक पुतले को गोली मारी है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया है कि वे उसे गोली कभी नहीं मारेंगे जिसके हाथ में कोई हथियार होगा।

8.
गांधी जी से स्वर्ग में बताया गया कि आपको गोली मारने वाले आपको अपना शत्रु मानते  हैं। गांधी जी ने कहा, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं।
पत्रकार ने पूछा, आपको कैसा लग रहा है महात्मा जी?
गांधी जी बोले, मुझे अच्छा लग रहा है।
पत्रकार ने पूछा, क्यों ?
गांधी ने कहा, इसलिए कि अंग्रेज भी मुझे शत्रु मानते थे... मेरे शत्रुओं को एक मित्र मिल गया है।

9.
गांधी के पुतले  को गोली मारने वालों से पूछा गया कि आप गांधी को गोली क्यों मार रहे हैं? वे तो बहुत पहले मार दिए गए थे।
गांधी के पुतले को मारने वालों ने कहा, सब को यही भ्रम है।
- फिर
- गांधी को गोली तो ज़रूर मारी गयी थी पर वह मरा नही था।
- ये आप क्या कह रहे हैं?
- हम सच कह रहे हैं।
- तो फिर?
- हम लगातार मार रहे हैं।पर वह मरता ही नहीं।अगले साल फिर मारेंगे।

10
गांधी का पुतला बनाने वाले ने बहुत मेहनत से पुतला बनाया। जब पूरा पुतला तैयार हो गया तो उसने पुतले को चश्मा पहना दिया।
पुतले को गोली मारने वाले उत्तेजित हो गए। उन्होंने कहा यह चश्मा उतारो। गांधी को चश्मा नहीं पहनाना है ।
पुतला बनाने वाले ने कहा, वे तो चश्मा पहनते थे ।
उन्होंने कहा, पहनते थे और यही तो सबसे बड़ी बुराई थी।
- चश्मे से क्या बुराई' उससे तो साफ दिखाई देता है ।
- हां हम नहीं चाहते कि पुतले को कुछ साफ दिखाई दे।चश्मा हमें दे दो। इस चश्मे से बड़े काम लेना हैं।
- क्या काम लेना है?
- इसके दोनों शीशों को घिसना बाकी रह गया है।
................
( असग़र वजाहत )
***
( विजय शंकर सिंह )

कविता - अभिव्यक्ति / विजय शंकर सिंह

अब्र गहन, चकित नयन
स्मिति मदिर, मधुर अधर
खिल उठे पुष्प सभी,
बिखर गए पराग कण।

महक उठा वातायन,
बेखुद हुआ मस्त पवन,
स्तब्ध है, सघन गगन,
जाग उठे स्वप्न सजन !

दूर कहीं, कूक ध्वनि,
आम्र कुञ्ज से आयी,
सागर कहीं अंतर में,
घुमड़ पडा आज प्रिये ।

कुछ शब्द कहीं उद्गमित,
कुछ भाव कहीं घनीभूत,
कुछ नाद कहीं मुखरित ,
हहर हहर बरस गये।

सोचा कह डालूँ ,आज
अधरों पर जो अटका है,
पर तुम, खुद ही, बेखुद हो,
कब तक चुपचाप रहूं ।

अब कह दूं, जो कहना है,
घुमड़ रहा है , भीतर जो,
अब्र, जो पलकों में छुपा,
अब उसे बस कहना है.
अब उसे बस बहना है !!

© विजय शंकर सिंह

राफेल सौदे से जुड़े मामलों की जांच क्यों नहीं होती है ? / विजय शंकर सिंह

राफेलसौदा को लेकर एक नया विवाद खड़ा हो गया है। यह विवाद है कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर के आपसी मुलाकात का। राहुल गांधी अभी कुछ दिनों के लिए गोवा में थे और वे मनोहर पर्रिकर जो बीमार हैं उन्हें देखने गए थे। मनोहर पर्रिकर लंबे समय से बीमार हैं और इसी बीमारी की हालत में ही वे अपने पद का निर्वाह भी कर रहे हैं। उक्त मुलाकात के बाद राहुल गांधी ने कहा कि उन्हें मनोहर पर्रिकर ने बताया कि , उनका राफेल मामले में कुछ भी लेना देना नहीं है। यह बात जब प्रेस में और सोशल मीडिया में आयी तो, राफेल पर फिर आरोप प्रत्यारोप लगने शुरू हो गए। सरकार, विशेष कर प्रधानमंत्री इससे ज़रूर असहज हुये होंगे। तुरन्त मनोहर पर्रिकर साहब का खंडन एक पत्र के रूप में आ गया कि उनकी राहुल गांधी से हुयी मुलाकात बस पांच मिनट की थी और उस मुलाक़ात में राफेल की कोई चर्चा नहीं हुयी थी।

मनोहर पर्रिकर का पत्र भावुक कर देने वाला है। उनकी गम्भीर बीमारी और राफेल जैसे संवेदनशील मामले पर उद्धृत करना और जब यह बात ही नहीं उठी हो तो, उन्हें क्या किसी को भी असहज कर सकती है। वैसे भी अगर बात दो व्यक्तियों के बीच हो तो, उनमें से किसी भी एक व्यक्ति का बिना दूसरे की सहमति के उस बातचीत का रहस्य खोलना शिष्टाचार के विरुद्ध माना जा सकता है । पर जब बात खुल गयी और वह निजी नहीं देश, सरकार और जनता से जुड़ी है तो उस पर बात होगी ही।

राहुल गांधी ने अगर बिना चर्चा के ही मनोहर पर्रिकर को उद्धृत करते हुये यह कहा तो यह निश्चय ही निजी मुलाकातों की परम्परा और नीति के विरुद्ध है। पर दूसरे ही दिन, राहुल गांधी का भी एक पत्र आ गया जिसमें उन्होंने यह लिखा कि वे समझते हैं कि मनोहर पर्रिकर पर दबाव बहुत है ऐसे मामले में। अब जब दो ही लोग मिलने वाले हों, और दोनों में से एक कोई इस मुलाकात के एजेंडे को सार्वजनिक कर देता है और दूसरा यह आपत्ति उठाता है कि पहले ने वह कहा जिसकी चर्चा ही नहीं हुयी थी तो किसका कहना सच है, यह कैसे जाना जाय ? यह मान कर एक तयशुदा धारणा बनाना उचित नहीं है कि राहुल झुठ बोल रहे हैं या पर्रिकर झूठ नहीं बोल रहे हैं। मुलाक़ात तो हुयी है यह सच है पर क्या बात हुयी, दुविधा इस पर है।

राफेल मामले में दोनों ही रक्षामंत्री, पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और वर्तमान रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण पर कोई आरोप और आक्षेप नहीं है। भले ही मन्त्री रहे और होने के कारण हस्तिनापुर से जुड़ाववश वे सरकार का बचाव करें। वे बचाव करेंगे भी। पर सबसे अधिक सन्देह अगर किसी पर है तो वह प्रधानमंत्री नरेंद मोदी पर है। अगर घटनाक्रम को संक्षेप में देखें तो प्रधानमंत्री के ही इर्दगिर्द सारी कहानी घूमती है। सच और झूठ क्या है जब तक सभी सन्देहों की जांच और उनपर उठते सवालों का शमन नहीं हो जाता है तब तक यह संदेह बना रहेगा।
25 मार्च 2015 तक जब डसाल्ट कम्पनी के सीईओ बैंगलोर में एचएएल में एक समारोह में यह कहते हैं कि एचएएल के साथ उनका सौदा पूरा हो गया है और अब बस हस्ताक्षर होने शेष हैं। यह अनुबंध 126 राफेल लड़ाकू विमानों का था। अचानक 10 अप्रैल 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद मोदी का पेरिस दौरा होता है और उसी दौरे में 126 विमानों का सौदा रद्द हो जाता है और 36 तैयार लड़ाकू विमानों के सौदे पर सहमति होती है। 126 के पुराने अनुबंध में 18 बने बनाये और शेष एचएएल में तकनीक हस्तांतरित करके जहाज बनाने की बात थी। कीमत लगभग 600 करोड़ थी प्रति विमान की। अब यह सौदा 36 बने बनाये विमान, प्रति विमान 1600 करोड़ रुपये के, बिना किसी तकनीकी हस्तांतरण के, और ओफ़्सेट कंपनियों में अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस को ऑफसेट बनाने की बात तय हुई। ज़ाहिर है, विमानों की संख्या कम होने, कीमत अचानक 1600 करोड़ हो जाने, सॉवरेन गारंटी का क्लॉज़ खत्म कर दिए जाने और एचएएल के बजाय अनिल अंबानी की केवल पन्द्रह डिन पहले गठित अनुभवहीन कम्पनी को ठेका दिए जाने पर सवाल तो उठेंगे ही। वही सवाल अब भी बार बार उठ रहे हैं।
गोवा में मुलाक़ात के बाद मनोहर पर्रिकर ने राफेल मामले में कोई चर्चा न होने की बात कही है। यह अगर मान भी लिया जाय सच है तो यह नाम आया कैसे ? संसद में राफेल पर बहस के दौरान राहुल गांधी ने एक ऑडियो टेप का उल्लेख किया था जिसमें एक गोवा सरकार के एक मंत्रीे यह कह रहे हैं कि उन्हें मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने बताया है कि उन्हें गोवा के मुख्यमंत्री के पद से नहीं हटाया जा सकता है,क्योंकि उनके पास राफेल सौदे की फाइल है जो उनके शयन कक्ष में सुरक्षित है। यह ऑडियो टेप अधिकृत है या नहीं यह तो राहुल गांधी ने नहीं बताया हालांकि इसी अधिकृत होने या न होने के संशय पर लोकसभा स्पीकर ने इस टेप को सदन में प्रस्तुत नहीं करने दिया। हैरानी की बात है कि आज तक उस टेप की फोरेंसिक जांच नहीं हुयी और न ही मंत्री का खंडन ही आया। पर्रीकर साहब को खुद सामने आकर इस प्रकार के टेप की जांच की मांग करनी चाहिये थी जो उन्होंने नहीं की। क्योंकि उनके नाम पर यह झूठ फैल रहा है, अगर यह झूठ है तो।

गोवा के सीएम मनोहर पर्रिकर की चिट्ठी के बाद अब राहुल गांधी ने भी उन्हें चिट्ठी लिखी है. पर्रिकर के नाम लिखी चिट्ठी में कांग्रेस अध्यक्ष ने सफाई दी है। राहुल गांधी ने लिखा कि
उन्होंने कुछ भी अपने मन से नहीं कहा. पर्रिकर साहब के साथ मुलाकात के दौरान हुई बातों का जिक्र भी नहीं किया, बल्कि सिर्फ वही कहा जो पब्लिक डोमेन में है। राहुल गांधी ने कहा,
"पर्रिकर जी, मैं समझता हूं. आप पर भारी दबाव है.'
इसी पत्र में वे लिखते हैं,
" कल के मुलाकात के बाद आपने मेरे नाम जो चिट्ठी लिखी है, उसके बारे में जानकर मैं आहत हूं. हैरानी की बात ये है कि आपकी चिट्ठी मुझ तक पहुंचने से पहले मीडिया में कैसे लीक हो गई ?
आपसे मेरी मुलाकात पूरी तरह से व्यक्तिगत और सहानुभूतिपूर्ण थी. मैं आपको याद दिलाना चाहूंगा कि जब आप अमेरिका में इलाज करा रहे थे, उस समय भी मैंने आपकी सेहत के बारे में पूछा था. एक लोकतांत्रिक प्रतिनिधि होने और लोगों द्वारा उनकी सेवा के लिए चुने जाने के चलते मैं राफेल डील में हुए भ्रष्टाचार के कारण पीएम पर हमले करने का अधिकार रखता हूं । "
पत्र का यह अंश भी पढ़ें,
हालांकि, ये फैक्ट है कि अप्रैल 2015 में जब आप गोवा में एक मछली बाजार का उद्घाटन कर रहे थे, ठीक उसी समय पीएम मोदी फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति हॉलैंड के साथ फ्रांस में राफेल सौदा कर रहे थे. इस डील के बाद आपने कहा था कि इसके बारे में आपको कोई जानकारी नहीं है. यह भी फैक्ट है कि आप ही के मंत्री का कैबिनेट मीटिंग के दौरान का एक ऑडियो रिकॉर्डिंग आया है. इस ऑडियो में आप दावा कर रहे हैं कि आपके बेडरूम में राफेल से जुड़ी फाइल है । "

उपरोक्त पत्र और मुलाकात में जो सबसे महत्वपूर्ण विंदु है वह है ऑडियो टेप। उस पर न तो मनोहर पर्रिकर कुछ बोल रहे हैं, न गोवा के मंत्री, और न ही सरकार कोई जांच करा रही है। अगर वह टेप झूठा और डॉक्टर्ड है तो राहुल गांधी से पूछा जाना चाहिये कि उन्होंने यह गलत बयानी क्यों की ? और अगर सच है तो फिर यह जिम्मेदारी मनोहर पर्रिकर और गोवा के मंत्री की है कि वे सच को सामने लाएं। मैं एक ऐसी सेवा में रहा हूँ जहाँ हर बात, व्यक्ति, सूचना, परिस्थिति, बयान और दस्तावेज पर स्वाभाविक रूप से सन्देह उठाया जाता रहा है। जब तक कि उसकी पुष्टि किसी और श्रोत से न हो जाय तब तक विश्वास का कोई कारण नहीं है।

अक्सर यह कहा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट ने राफेल मामले में क्लीन चिट दे दी है। सच तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की कोई जांच ही नहीं कराई और न जांच की। सुप्रीम कोर्ट का इस मामले में जो फैसला था, सरकार द्वारा सीलबंद लिफाफे में बिना किसी अधिकारी के हस्ताक्षर के प्रस्तुत किये गए दस्तावेजों पर आधारित है। जबकि सरकार ने झूठा हलफनामा दिया है। सरकार ने हलफनामा देकर कहा कि सीएजी महालेखाकार ने कीमतों की ऑडिट कर ली है और रिपोर्ट नियमानुसार लोकलेखा समिति पीएसी को भेज दी है। पर जब सीएजी और पीएसी के अध्यक्ष ने इस तथ्य का खंडन किया तो सरकार ने इसे टाइपो त्रुटि बतायी और संशोधित हलफनामा दिया। मिथ्या तथ्यों पर आधारित निर्णय चाहे वह कितनी भी बड़ी अदालत का हो, अविश्वसनीय होगा ही। अगर वह टाइप की गलती थी तो हलफनामा दायर करने वाले, उसे जांचने वाले, उस पर हस्ताक्षर करने वाले और उसे टाइप करने वाले अधिकारी और कर्मचारी के खिलाफ कोई कार्यवाही क्यों नही  की गयी ? बिना हस्ताक्षर के हलफनामे का क्या औचित्य है ?

इसी मामले में पूर्व फ्रेंच राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का यह बयान कि अनिल अंबानी का नाम भारत सरकार ने सुझाया था। इस बात पर भी सरकार की तरफ से कोई खंडन नहीं आया और न ही औलांद साहब से ही यह प्रतिवाद किया गया कि वे अपनी बात का खंडन करें। लेकिन इसकी भी कोई जांच नहीं की गयी। कोई भी व्यक्ति चाहे कितना भी महत्वपूर्ण हो, वह सन्देह से परे और कानून के ऊपर नहीं होता है। यहां भी केवल यह मान कर कि प्रधानमंत्री सन्देह के परे हैं और वे जो कुछ भी कह सुन और कर रहे हैं पर सवाल उठाना गलत है तो यह न केवल एक गलत परम्परा की शुरुआत होगी बल्कि इससे निरंकुश और अधिनायकवादी सत्ता की जड़ें और मज़बूत होंगी। यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह सभी सवालों की जांच कराए और सच को सामने लाये। यह सरकार का संवैधानिक दायित्व और कर्तव्य है यह कोई याचना नहीं है।

© विजय शंकर सिंह

Wednesday, 30 January 2019

गांधी टोपी का इतिहास - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह


गांधी कैप या गांधी टोपी का सम्बंध भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास से जुड़ा हुआ है। यह एक सामान्य से किश्ती या नाव के आकार की टोपी है जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान सुराजी, ( यह शब्द उन सभी सत्याग्रहियों के लिये प्रयुक्त होता था जो गांधी जी के आदर्शों पर अंग्रेज़ो के विरुद्ध लामबद्ध थे, अक्सर प्रयुक्त होता है, ) लोग अपने सिर पर धारण करते थे। यह खादी से बने कपड़े की बनायी जाती है। यह महात्मा गांधी द्वारा एक यूनिफॉर्म कैप की तरह प्रचलित की गयी है। लेकिन गांधी जी ने यह टोपी बहुत कम पहनी है। गूगल पर जब गांधी गैलरी या गांधी एलबम में उनकी टोपी पहनी हुयी मुद्रा में फ़ोटो मैंने खोजा तो कुछ फोटो मिले ज़रूर पर वह बहुत ही शुरुआती दौर के और यदाकदा अवसरों के थे।

भारत के इतिहास में 1918 से 1921 के बीच चलने वाले असहयोग आंदोलन की बहुत बड़ी भूमिका है। 1914 में जब गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो वे भारत के लिये अनजान नहीं थे। दक्षिण अफ्रीका से लौट कर बम्बई बंदरगाह पर गांधी जी उतरते हुए जो फ़ोटो उपलब्ध है उसमें वे एक पगड़ी बांधे दिखते हैं। वापस आकर उन्होंने उस समय के कांग्रेस के बड़े नेता और बम्बई के वकील गोपाल कृष्ण गोखले से मिले। गोखले ने उन्हें पूरा भारत एक साल तक घूमने और भारत को देखने की सलाह दी। गांधी का भारत दर्शन कार्यक्रम शुरू हुआ। इसी के बाद जब उन्होंने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो यह टोपी अस्तित्व में आ गयी। यह टोपी सुराजी टोपी कहलाने लगी और अंग्रेज़ो ने एक समय तो इसके पहनने पर प्रतिबंध लगाने की भी बात सोची थी। पर गांधी स्वयं यह टोपी बहुत कम लगाते थे। उनके बहुत ही कम चित्र इस टोपी में उपलब्ध हैं।

भारत मे यह टोपी कैसे और किस प्रकार चर्चित और चलन में आयी इसका भी एक रोचक इतिहास है। 1919 में महात्मा गांधी उत्तर प्रदेश के रामपुर शहर में गये थे। तब  रामपुर रियासत के नवाब सैयद हामिद अली खान बहादुर ( 1889 से 1930 ) थे। गांधी जी की उनसे मुलाकात रामपुर की कोठी खास में निर्धारित थी। जब वे नवाब रामपुर से मिलने के लिये निकलने को हुये तो नवाब के जो अधिकारी गांधी जी को मुलाकात की सूचना देने के लिये आये थे, ने उनसे दरबार की एक परंपरा के बारे में गांधी जी को बताया। उक्त परंपरा के अनुसार, नवाब के अतिथि को नवाब के पास उनके दरबार मे जाने के लिये सिर ढंकना ज़रूरी होता है। गांधी जी के पास कोई अन्य पगड़ी या टोपी ही नही थी, जिससे वे अपना सिर ढँक सके। तब रामपुर के बाजार में गांधी जी के पसंद और जो उनके सिर में फिट हो जाय, वैसी टोपी की तलाश हुयी। लेकिन जब यह बात पता चली तो खिलाफत आंदोलन के मशहूर अली ब्रदर्स मुहम्मद अली और शौकत अली की मां आबादी बेगम से खुद एक सादी सी टोपी सिलवाई और तब वह टोपी पहन कर गांधी जी नवाब से मिलने कोठी खास में गये। यह टोपी चूंकि गांधी जी के लिये ही खास तौर पर तैयार की गयी थी, अतः इस टोपी का नाम गांधी टोपी पड़ गया। यह बात हिंदुस्तान टाइम्स को रामपुर रियासत के इतिहासकार नफीस सिद्दीकी ने बतायी है। किश्ती के आकार की यह टोपी कभी आज़ादी के लड़ाकों यानी सुराजियों की प्रिय टोपी बन जाएगी यह आबादी बेगम ने कभी सोचा भी नहीं होगा।

1919 से 1921 के बीच गांधी जी की कुछ तस्वीरें टोपी पहने हुये मिलती हैं। पर 1921 के बाद गांधी जी ने यह टोपी पहनना कम या बिल्कुल ही बंद कर दिया। लेकिन यह टोपी आज भी नेता बनने की एक निशानी बनी हुयी है। आज़ादी के संघर्ष के दौरान सभी नेताओं ने यह टोपी धारण की है। यह टोपी ब्रिटिश हुक़ूमत के विरुद्ध आंदोलन का एक प्रतीक बन चुकी थी। अंग्रेज़ो ने इसे प्रतिबंधित करने पर भी एक बार गम्भीरता से विचार किया था। लेकिन बाद में उन्होंने यह विचार त्याग दिया था। स्वाधीनता संघर्ष के दौरान हांथ से काते गये सूत से बनी यह टोपी देश के आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की भी प्रतीक थी। ब्रिटेन सोलर हैट या अन्य हैट के समक्ष यह टोपी स्वदेशी जवाब था। कांग्रेस सेवादल की तो यह यूनिफॉर्म ही बन गयी थी।

गांधी टोपी के आकार और स्वरूप को लेकर एक और रोचक विवरण मिलता है। यह तो पता नहीं चला कि रामपुर में बनी टोपी का डिजाइन महात्मा गांधी द्वारा दिया गया था या अली ब्रदर्स की माता जी के दर्जी के दिमाग की उपज थी पर दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के निकट सहयोगी रहे हेनरी पोलॉक ने यह रहस्योद्घाटन किया कि यह इसी प्रकार की टोपी गांधी पहले दक्षिण अफ्रीका में पहन चुके थे। दक्षिण अफ्रीका के कैदियों को जो जेल में रखे जाते थे तो उन्हें गांधी टोपी जैसी टोपी ही पहननी पड़ती थी। वहां सभी कैदियों को नीग्रो कहा जाता था। निग्गर या नीग्रो एक रंगभेदी और अपमानजनक शब्द है, जो अफ्रीका की काले रंग के निवासियों को गोरे यूरोपियन हिकारत से सम्बोधित करते थे। भारतीय भी हालांकि अफ्रीकी नस्ल की तुलना में साफ थे पर जेल में उनके साथ भी वही अपमानजनक बर्ताव होता था जो अंग्रेज़ गोरे अफ्रीकी लोगों के साथ करते थे। पोलॉक के अनुसार गांधी टोपी का रूप और आकार वहीं से आया है।

आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई, ने गांधी टोपी नियमित रूप से पहनी है। पुराने सभी नेता जो कांग्रेस के थे यह टोपी पहनते थे। रफी अहमद किदवई के बारे में कहा जाता है कि वे टोपी के बाहर निकलते नहीं थे। जगजीवन राम, वायबी चह्वाण, चन्द्रभानु गुप्त, चौधरी चरण सिंह, डीपी मिश्र, आदि स्वाधीनता संग्राम के सेनानी रह चुके कद्दावर और प्रभावी नेताओं की वेशभूषा के तो अंग में ही गांधी टोपी थी। लेकिन धीरे धीरे जैसे बहुत सी चीजें बदलती है यह टोपी फैशन भी आउटडेटेड हो गया।

पर अचानक 2012 में जब अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन शुरू हुआ तो अन्ना के तर्ज पर यह टोपी फिर लोकप्रिय हो गयी और अन्ना आंदोलन से जुड़े लोग इसे पहनने लगे। अन्ना खुद को गांधीवादी कहते हैं और वे यह टोपी नियमित पहनते भी हैं तो, उनके आंदोलन के लोकप्रिय होते ही यह टोपी भी पुनः चलन में आ गयी। बाद में इस टोपी के दोनों ओर मैं हूँ अन्ना लिखा जाने लगा। जब अन्ना आंदोलन से निकले नेता अरविंद केजरीवाल ने राजनीति की मुख्य धारा में आने के लिये आम आदमी पार्टी की स्थापना की तो, टोपी तो यही रही बस उसके दोनों तरफ मैं हूँ आम आदमी लिखा जाने लगा। इसी की देखादेखी समाजवादी पार्टी ने इसी आकार और रूप की लाल टोपी पहनना शुरू कर दिया।

गांधी पहले यूरोपीय वेशभूषा धारण करते थे, पर जब वे भारत आये और भारत दर्शन कार्यक्रम शुरू किया तो उन्हें भारत की विविधता के साथ साथ भारत की विपन्नता के भी दर्शन हुए। गांधी एक व्यवहारिक आदर्शवादी थे। आदर्शवादी होना बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है उन आदर्शों को खुद पर लागू कर के उन आदर्शों का पालन करना । गांधी इन्ही विशिष्टिताओं के कारण संसार के नेताओं में सबसे अलग दिखते हैं। 15 अप्रैल 1917 को गांधी जी चंपारण के मोतिहारी स्टेशन पर जब उतरते हैं तो वे कठियावाड़ी वेशभूषा, एक शर्ट, नीचे एक धोती, एक घड़ी, एक सफेद गमछा, चमड़े का जूता और एक टोपी पहने थे। चंपारण के एक किसान राजकुमार शुक्ल उनके साथ थे। वहां के किसानों पर अंग्रेज़ नील की खेती के लिए बहुत दबाव डालते थे। नील से अंग्रेजों को व्यावसायिक लाभ मिलता था।  इस कारण वे चावल या दूसरे अनाज की खेती नहीं कर पाते थे।  जब गांधी जी ने सुना कि नील फैक्ट्रियों के मालिक निम्न जाति के औरतों और मर्दों को जूते नहीं पहनने देते हैं तो उन्होंने तुरंत जूते पहनने बंद कर दिए।

जब गांधी, चंपारण के किसानों के बीच लोकप्रिय होने लगे तो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें चंपारण छोड़ने का आदेश दे दिया। गांधी जी ने 16 और 18 अप्रैल 1917 के बीच चार पत्र, जिसमें दो उन्होंने सरकार को लिखे जिसमें, इस  आदेश को न मानने का अपना इरादा जाहिर किया था। शेष दो पत्र अंग्रेज़ ज़मीदारों द्वारा निलहे किसानों के शोषण और अत्याचार से सम्बंधित था। 8 नवंबर 1917 को गांधीजी ने सत्याग्रह का दूसरा चरण शुरू किया था। अपने साथ वेे काम कर रहे कार्यकर्ताओं को लेकर चंपारण पहुंचें. इनमें से छह महिलाएं थीं. अवंतिका बाई, उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी, मनीबाई पारीख, आनंदीबाई, श्रीयुत दिवाकर (वीमेंस यूनिवर्सिटी ऑफ़ पूना की रजिस्ट्रार) का नाम इन महिलाओं में शामिल था। इसके साथ-साथ खेती और बुनाई का काम भी उन्हें सिखाया गया. लोगों को कुंओ और नालियों को साफ-सुथरा रखने के लिए प्रशिक्षित किया गया. गांधी जी ने कस्तूरबा को कहा कि वो खेती करने वाली औरतों को हर रोज़़ नहाने और साफ-सुथरा रहने की बात समझाए।
कस्तूरबा जब औरतों के बीच गईं तो उन औरतों में से एक ने कहा,
"बा, आप मेरे घर की हालत देखिए. आपको कोई सूटकेस या अलमारी दिखता है जो कपड़ों से भरा हुआ हो? मेरे पास केवल एक यही एक साड़ी है जो मैंने पहन रखी है. आप ही बताओ बा, मैं कैसे इसे साफ करूं और इसे साफ करने के बाद मैं क्या पहनूंगी? आप महात्मा जी से कहो कि मुझे दूसरी साड़ी दिलवा दे ताकि मैं हर रोज इसे धो सकूं."
यह सुनकर गांधी जी ने अपना चोगा बा को दे दिया था उस औरत को देने के लिए और इसके बाद से ही उन्होंने चोगा ओढ़ना बंद कर दिया था।

1918 में जब वो अहमदाबाद में सूती मिल मज़दूरों की लड़ाई में शरीक हुए तो उन्होंने देखा कि उनकी पगड़ी में जितने कपड़े लगते है, उसमें 'कम से कम चार लोगों का तन ढका जा सकता है.'। उन्होंने उस वक्त पगड़ी पहनना छोड़ दिया था।

31 अगस्त 1920 को खेड़ा में किसानों के सत्याग्रह के दौरान गांधी जी ने खादी को लेकर प्रतिज्ञा ली ताकि किसानों को कपास की खेती के लिए मजबूर ना किया जा सके. मैनचेस्टर के मिलों में कपास पहुंचाने के लिए किसानों को इसकी खेती के लिए मजबूर किया जाता था.उन्होंने प्रण लेते हुए कहा था,"आज के बाद से मैं ज़िंदगी भर हाथ से बनाए हुए खादी के कपड़ों का इस्तेमाल करूंगा।"

1921 में गांधी जी मद्रास से मदुरई जा रहे थे। ट्रेन में हर यात्री विदेशी कपड़ों में मौजूद था । गांधी जी ने उनसे खादी पहनने का आग्रह किया। कुछ ने सिर हिलाते हुए कहा कि,
" हम इतने गरीब है कि खादी नहीं खरीद पाएंगे."
गांधीजी कहते हैं,
"मैंने इस तर्क के पीछे की सच्चाई को महसूस किया. मेरे पास बनियान, टोपी और नीचे तक धोती थी. ये पहनावा अधूरी सच्चाई बयां करती थी जहां लाखों लोग निर्वस्त्र रहने के लिए मजबूर थे। चार इंच की लंगोट के लिए जद्दोजहद करने वाले लोगों की नंगी पिंडलियां कठोर सच्चाई बयां कर रही थी। मैं उन्हें क्या जवाब दे सकता था जब तक कि मैं ख़ुद उनकी पंक्ति में आकर नहीं खड़ा हो सकता हूं तो. मदुरई में हुई सभा के बाद अगली सुबह से कपड़े छोड़कर मैंने ख़ुद को उनके साथ खड़ा किया."
गांधी जी ने भारत को जितनी गहनता के साथ समझा और जाना था, शायद ही उतनी गहराई से किसी ने यहां के जनमानस की थाह ली थी। साहित्य के क्षेत्र में तुलसी ने, धर्म के क्षेत्र में गौतम बुद्ध ने और राजनीति के क्षेत्र में गांधी ने भारतीय जनमानस को आपाद मस्तक प्रभावित किया है। 

© विजय शंकर सिंह

Tuesday, 29 January 2019

राजनीतिक दलों को दिया जाने वाला धन - प्रोटेक्शन मनी है या चंदा ? / विजय शंकर सिंह

राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदो का खुलासा अगर राजनीतिक दल यह बताते हुये नहीं करते हैं कि किस कंपनी या किस आदमी ने कितने पैसे कब कब दिये तो इन्हें चंदा मत कहिये, इन्हें प्रोटेक्शन मनी या रंगदारी टैक्स कहिये। यह टैक्स मूलतः माफिया गिरोहों के सरगना वसूलते हैं, और इसके एवज में धनपतियों को अपना कारोबार बिना किसी झंझट के चलने का आश्वासन देते हैं।

अगर राजनीतिक दलों को दलों की विचारधारा या समर्थन के उद्देश्य से लोग धन देते हैं तो उसका खुलासा करने में क्या दिक्कत है ? यह गोपनीयता क्यों है ? सभी को अपनी अपनी मर्ज़ी से राजनीतिक चंदा देने का अधिकार है और यह अधिकार संवैधानिक है। क्योंकि सभी राजनीतिक दल, निर्वाचन आयोग के अंतर्गत पंजीकृत हैं और यह संसदीय लोकतंत्र की एक स्थापित प्रक्रिया है। फिर ये राजनीतिक दल माफिया गिरोहों के समान आचरण क्यों कर रहे हैं ?

देश मे भ्रष्टाचार का एक बड़ा कारण राजनीतिक दलों की फंडिंग है। सभी कॉरपोरेट घराने और पूंजीपति सत्तारूढ़ दल को अधिक चंदा देते हैं। यह एक मानवीय स्वभाव है। जिन्हें जहां से लाभ होगा वही तो चंदा देंगे। कल कांग्रेस सत्ता में थी तो उसे चंदा मिलता था, आज भाजपा सत्ता में है तो उसे चंदा मिल रहा है। लेकिन दे कौन कितना रहा है यह न उन्होंने बताया कभी और न इन्होंने बताया। हालांकि कि पता सभी को है। जिस कॉरपोरेट घराने को सरकार की कृपा प्राप्त है, ज़ाहिर है वही सरकारी दल को चंदा दे रहा होगा। 

जब से आपराधिक प्रवित्ति के लोग दलों के सिरमौर बनने लगे हैं, तब से यह राजनीतिक फंडिंग एक प्रोटेक्शन मनी या सुविधा शुल्क या रंगदारी टैक्स के रूप में हो गई है। इसीलिए कोई भी राजनीतिक दल पोलिटिकल फंडिंग की ऑडिट, और इसे आरटीआई के दायरे में लाने को राजी नहीं होता है। जिस दिन ने ये चुनावी सुधार लागू हो जाएंगे उसी दिन ने आधे लोगों का समाज सेवा का बुखार उतर जाएगा और भ्रष्टाचार में कमी आ जायेगी।

© विजय शंकर सिंह

अयोध्या - अविवादित ज़मीन के अधिग्रहण का प्रयास / विजय शंकर सिंह

जिस जमीन पर टाइटिल सूट का विवाद है, वह तो अदालत के विचाराधीन है ही। पर जिस पर टाइटिल सूट का कोई विवाद नहीं है उस जमीन को अधिग्रहित करने के लिये सुप्रीम कोर्ट से पूछना क्यों जरूरी है ? पूछना इसलिए जरूरी है कि उसपर किसी भी प्रकार के स्थायी निर्माण पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगायी गयी है। वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत टंडन जी का यह कमेंट पढें,
" इस 67 एकड़ अधिग्रहित ज़मीन पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला मार्च 2003 का है जिसमे अदालत ने इस गैर विवादित ज़मीन पर कुछ भी निर्माण करने पर तब तक के लिए रोक लगा दी थी जब तक टाइटिल सूट पर फैसला नहीं हो जाता है. सरकार ने उस फैसले को संशोधित करने की अर्ज़ी लगाई है. ये ध्यान रहे ये सिर्फ अर्ज़ी है पिटीशन नहीं है."

सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगाने का एक उद्देश्य यह भी है कि जब कभी विवादित भूखंड का फैसला हो तो वहां चाहे मस्ज़िद बने या मंदिर, जो भी बने उसके आवागमन हेतु मार्ग की व्यवस्था इसी 67 एकड़ भूखंड द्वारा की जा सके। इस भूखंड पर खाली प्लॉट्स, मानस भवन, सीता रसोई जैसे कई छोटी बड़ी धर्मशालाएं और मंदिर तथा दरगाहें और कब्रिस्तान भी बने हैं। मंदिर और धर्मशालाएं, वहां स्थित पीएसी और सीआरपीएफ के लिये अस्थायी कैंप बना दिये गए हैं, और खाली ज़मीनें सुरक्षा के विभिन्न घेरों में आ गयी हैं। अब यहां सिवाय पुलिस के कोई अन्य गतिविधियां नहीं चल रही है। अगर यह ज़मीन जिसकी है उसे वापस कर दीं जाती है तो पहले वे ज़मीनें जिसे वापस की जाएंगी उससे राम जन्मभूमि न्यास या जो भी ट्रस्ट मंदिर बनाएगा वापस लेगा और तब इसपर आगे का काम बढ़ेगा। जो खाली प्लॉट्स पड़े हैं, वे चाहे हिँदू के हों या मुस्लिम के वे न्यास को मिल भी जाएंगे और उसमें कोई विशेष कठिनाई नहीं आएगी। पर दरगाहें, और क़ब्रिस्तान समस्या बन जाएंगे,  और फिर नए विवाद खड़े हो सकते हैं। जो भवन जैसे मानस मंदिर, सीता रसोई आदि हैं उन्हें तो तोड़ा जा सकता है और ज़मीन खाली कराई जा सकती है। लेकिन, सरकार के इस प्रार्थनापत्र का अदालत में विरोध भी विरोधी पक्ष करेगा। अब इस पर क्या तर्क और कानूनी विंदु उठते हैं, यह तो अदालत में जब मामला आये तो पता चले।

जिस जमीन पर विवाद है,  वह है, 2.77 एकड़ का भूखंड जिसका एक हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को, दूसरा राम लला बिराजमान को ( यह वाद बाद में दायर हुआ था जिसे जस्टिस लोढ़ा ने रामलला को पक्ष बनाकर दायर किया था ) और तीसरा हिस्सा वक़्फ़ बोर्ड को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दिया था, जिसकी अपील इस समय सुप्रीम कोर्ट में चल रही है। इसके अतिरिक्त और किसी ज़मीन पर बंदिश नहीं है। सरकार उसे अधिग्रहित कर सकती है। पर सरकार जिस जमीन पर विवाद नहीं है उसके अधिग्रहण के बारे में सुप्रीम कोर्ट से क्यो पूछ रही है ? और जो आज पूछा जा रहा है, वह एक एसएलपी के द्वारा क्यों नहीं पूछा जा रहा है ?

सरकार मंदिर मसले के हल के लिए न तो गम्भीर है और न ही इच्छुक। वह इस मामले को बस राजनीतिक लाभ और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के उद्देश्य से जिंदा बनाये रखना चाहती है ताकि इस मसले के आड़ में वह अपनी राजनैतिक प्रासंगिकता तमाम, न पूरे किये गए वायदों पर उठते सवालों के बीच बनाये रख सके। नरसिम्हा राव की सरकार ने उक्त भूमि के अधिग्रहण और एक अध्यादेश लाने का इरादा 1992 में किया था, पर उसे सबसे अधिक विरोध भाजपा का ही झेलना पड़ा था । विश्वास कीजिये, न तो यह सरकार मन्दिर बनाने का कोई प्रयास करेगी और न ही किसी अन्य को करने देगी। इस मसले का हल भाजपा के अंत की घोषणा होगी।

पहले कहा गया कि केंद्र में जब भाजपा सरकार में आएगी तो यह मसला हल हो जाएगा यानी मंदिर बन जायेगा। केंद्र में सरकार 1998 से 2004 तक रही, कोई भी प्रयास सरकार द्वारा मामला हल करने के लिये नहीं हुआ। 
फिर कहा गया कि, एनडीए में तमाम दल थे, जब अपने दम पर भाजपा सत्ता में आएगी तो राम मन्दिर बनेगा। 2014 में 282 सीट अपने दम पर भाजपा लायी और सरकार बनी। 2014 से अब जब चलाचली की बेला आ गयी तब भी क्या प्रयास किया गया ? कुछ नहीं हुआ।
फिर कहा गया कि जब केंद्र और राज्य में दोनों जगह भाजपा की सरकार आएगी तो मंदिर बनेगा। 2016 में राज्य में अकेले भाजपा की सरकार आ गयी और मुख्यमंत्री भी मंदिर आंदोलन से जुड़े महंत योगी आदित्यनाथ बन गए। पर 2016 से अब तक कुछ भी सार्थक नहीं हुआ। क्यो।
राम से भाजपा के लोग जो जो मांगते गये राम इन्हें वह सब देते गये। पर अहंकार और दर्प इतना कि राम भक्त हनुमान को दलित, आदिवासी, जाट मुसलमान न जाने क्या क्या बना दिया। राम तो टेंट में हैं ही। जब सरकार बनी तो अंबानी भाइयों की संपत्ति बढ़ी, अनिल अंबानी को बिना ज़मीन के,  ठेका मिला, चहेते पूंजीपतियों के काम के लिये सरकार, दुनियाभर में नगरी नगरी द्वारे द्वारे फिरती रही। मंदिर मुद्दे पर वही ढाक के तीन पात।  राम 1992 से टेंट में बैठने के लिये इसलिए अभिशप्त हैं कि इन्ही अधार्मिक या छद्म रामभक्तों ने उनका, जैसा भी था,  मंदिर गिरा दिया और फिर उनके दर्शन के लिये सरकार का कोई जिम्मेदार व्यक्ति नहीं गया। और न ही अदालत से जल्दी सुनवायी का कोई प्रयास ही किया गया। आपसी सहमति बनाने की बात तो इनके एजेंडे में ही नहीं है, बल्कि एजेंडा ही यह है कि आपसी तनाव बना रहे । झगड़ा हो, दंगे हों और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो। आज तक दस्तावेजों का जो फारसी, उर्दू, हिंदी में हैं और विपुल मात्रा में हैं का अंग्रेजी अनुवाद नहीं हो सका। 
जबकि यह मामला हल हो इसके लिये पहले चंद्रशेखर जब प्रधानमंत्री थे तो अयोध्या प्रकोष्ठ बना था। अब है या नही यह नही पता । यह प्रकोष्ठ ही इसलिए बना था कि यह न केवल अदालत में पैरवी करे बल्कि आपसी सहमति का भी मार्ग ढूंढे।

दरअसल, अब अपनी नाकामी और मंदिर मुद्दे पर उदासीनता का ठीकरा संघ औऱ भाजपा के लोग सुप्रीम कोर्ट पर फोड़ना चाहते हैं। अगर आप इधर हाल में मीडिया में आये, अमित शाह, नरेंद्र मोदी, आरएसएस के भैय्यू जी जोशी, और अब इंद्रेश कुमार के बयानों पर गौर करें तो आप मुझसे सहमत होंगे कि अब इस गिरोह का निशाना सुप्रीम कोर्ट है । अमित शाह ने कहा, कि अदालत को वह फैसले देने चाहिये जो लागू किये जा सके। नरेंद्र मोदी ने कहा कि जनभावनाओं के अनुरूप अदालतों को अपने निर्णय देने चाहिये। भैय्यू जी जोशी ने कहा, कि सुप्रीम कोर्ट मंदिर मामले पर जनभावना समझे। अब इंद्रेश कुमार का बयान आया है कि लोग अदालत और जजों पर राम मंदिर मुक़दमे में फैसले के लिये दबाव डालें। योगी आदित्यनाथ का यह बयान भी आप की नज़र से गुजरा होगा, जिसमे उन्होनें कहा है कि अदालत फैसले न कर सके तो वे चौबीस घन्टे में यह मसला हल कर सकते हैं। मैं इस बात को कि इन बयानों से अदालत की मानहानि होती है या नहीं, अदालत के ऊपर ही छोड़ता हूँ, पर इन सब बयानों से एक बात बिल्कुल साफ है कि, संघ और भाजपा को यह एहसास होने लगा है कि उनकी मिथ्या राम भक्ति की पोल खुलने लगी है। जैसे जैसे ये बयान आये वैसे वैसे ही भाजपा आईटी सेल और उनके कट्टर समर्थकों और सच्चे हिन्दू का स्वयंभू मेडल धारण किये लोग, अदालती कार्यवाही पर, तारीख पर तारीख और अन्य तल्ख व्यंग्यात्मक टिप्पणियां सोशल मीडिया पर साझा करने लगे जिससे लोगों में यह धारणा बने कि सरकार तो चाहती है कि मंदिर आज ही बने पर अदालत इसे लटकाये हुये है। अदालत के विरुद्ध धरना प्रदर्शन आदि तो हो नहीं सकता तो यही एक उपयुक्त बहाना है जो आज उछाला जा सकता है। 

अगर कानूनन सुप्रीम कोर्ट की अनुमति ज़रूरी है तो यह अनुरोध की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट से 2014 के बाद ही की जा सकती थी। पर अब जब एक महीने के बाद चुनाव की अधिसूचना जारी होनी है और आचार संहिता के लागू होते ही तमाम प्रतिबंध लग जाने हैं तो इस समय इस तमाशे का क्या औचित्य है ? यह हड़बड़ाहट, केवल एक भोजपुरी कहावत से समझी जा सकती है, कि दुआरे आइल बरात..... !
मेरे वकील मित्र इस प्रकरण से जुड़े  कानूनी नुक़्ते को स्पष्ट कर हम सबका ज्ञानवर्धन कर सकते हैं।

© विजय शंकर सिंह

Monday, 28 January 2019

Ghalib - Kya kahun taareeqee e zindaan e gham / क्या करूँ तारीकी ए ज़िंदान ए ग़म - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

गालिब - 107.
क्या कहूँ तारीकी ए ज़िन्दान ए गम अंधेर है,
पुम्बा नूर ए सुबह से कम, जिसके रोज़न मैं नहीं !!

Kyaa kahuun taareeqee e zindaan e gam andher hai,
Pumbaa nuur e subah se kam, jiske rozan mein naheen !!
- Ghalib.

दुख के कारागार की कालिमा के बारे में क्या कहूँ, वहां तो सर्वत्र अंधकार का साम्राज्य है। यह अंधकार इतना विकट है कि इसके झरोखों से प्रकाश की एक भी किरण भी नहीं दिख पा रही है।

अवसाद, संत्रास, दुःख की पराकाष्ठा से भरी ग़ालिब की यह पंक्तियां उनके जीवन मे कभी कभी जो विपत्ति के अंधकार छा जाता था, उसे वह व्यक्त करती है। ग़ालिब का जीवन अर्थाभाव में बहुत बीता। कुछ तो उनका स्वभाव फक्कड़ाना और फिर स्वाभिमान का ऐसा भाव जो कहीं झुकने न दे, अक्सर आड़े आता रहा। ऊपर से, जुए और शराबखोरी की लत जीवन भर साथ रही। शराब की लत इतनी उन्हें थी कि एक बार वे जब दिल्ली दरबार से कुछ पैसा पाए तो मेरठ चले गए और वहां अंग्रेजों की छावनी से पूरे पैसों की शराब खरीद लाये। घर पर शराब की पेटियां उतरी तो उनकी पत्नी ने कहा कि इतनी शराब और उनसे दरबार से मिले धन की दरयाफ्त की तो, और जब ग़ालिब ने इनकार में सिर हिलाया तो पूछा, खाओगे कहाँ से ?  ग़ालिब ने कहा, खिलाने का वायदा अल्लाह का है, शराब उसे नापसंद है तो उसका इंतज़ाम मैंने कर लिया है। खाना वह खिलायेगा। फक्कड़ और फाकामस्ती में भी रंग लाने की उम्मीद उनमें ही थी। पर दिल ही तो है न संग ओ खैर, दर्द से भर न जाय क्यों ! जब चारों ओर तारिक़ राह है तो उन्हें रोशनी की एक किरण के लिये भी तरसना पड़ रहा है।
दुःख भरी नज़्में, गीत कविताएं बहुत दिल को छूती है। उनके सुनने का अपना अलग आनन्द और अनुभव होता है। वे रचनाएं,  फिल्में, गज़लें और क्षण कभी नहीं भूलते हैं। हृदय के तह में गम एक स्थायी भाव की तरह विद्यमान रहता है। उर्दू शायरी में गम यानी दुखवाद एक प्रमुख स्थान रखता है। यह हंसी मजाक के आवरण से मुक्त करके जीवन की वास्तविकता को सामने रख देता है। मनुष्य सबके गम को अपना हमसफ़र समझ लेता है। आज भी हिंदी साहित्य की एक काव्य पंक्ति मर्म को स्पर्श कर जाती है, सरोज स्मृति की यह पंक्ति,

दुःख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज जो नहीं कही !!

यह पंक्ति भी महाप्राण निराला के व्यकिगत जीवन के सबसे त्रासद पल की अभिव्यक्ति है।

ग़ालिब ने अपने इस शेर में दुनिया को अंधकार से भरा और वह अंधकार भी इतना निविड़ कि रोशनदान तो है पर रोशनी की रेख तक वहां नही  है। पर इतनी त्रासदी झेलने के बाद भी ग़ालिब को महान बनाने वाली शक्ति उनकी अदम्य जिजीविषा है। यही दुर्दम्यता ही अंधकार में भी उन्हें चैतन्य रखती है। और ऐसी कोई रात भी नहीं बनी है कि जिसकी सुबह न हो। फ़िराक़ के इस कालजयी शेर की तरह, जो अब उम्मीद की फूटती किरण की आभा पहचान लेते हैं।

कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा,
कुछ फ़ज़ा, कुछ हसरत ए परवाज़ की बातें करो !!

© विजय शंकर सिंह

नागरिकता संशोधन बिल 2016 - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

26 जनवरी को जब दिल्ली सहित पूरे देश मे गणतंत्र दिवस 2019 मनाया जा रहा था तो इसी अवसर पर देश के सुदूर पूर्व में स्थित एक छोटे से राज्य मिजोरम में वहां के राज्यपाल के राजशेखरन मात्र 6 सशस्त्र कन्टिनजेन्ट की टुकड़ी की सलामी एक लगभग जनशून्य स्टेडियम में ले रहे थे। पूरे मिजोरम में वहां की जनता ने गणतंत्र दिवस समारोहों का बहिष्कार कर दिया था। पूरे राज्य में सभी जिले और तहसील मुख्यालयों पर ऐसे ही बहिष्कार के बीच यह समारोह मनाया गया। जन का अभाव था, पर तंत्र का प्रभाव था। उत्साह नहीं लोगों में असंतोष था। कारण था, नागरिकता संशोधन बिल 2016 का प्रबल विरोध । गणतंत्र दिवस के समारोहों के बहिष्कार का निर्णय, एक गैर सरकारी संस्था जिसमे सिविल सोसायटी समूह और कुछ छात्र संगठन थे ने किया था। यह बहिष्कार इतना प्रभावपूर्ण था कि आइजोल में होने वाले समारोह में सिवाय मंत्रियों, और बड़े अधिकारियों के आमजनता बहुत ही कम थी । केवल मिजोरम ही नहीं बल्कि पूरे नॉर्थ ईस्ट में सरकार के नागरिकता संशोधन बिल के विरुद्ध लोग मुखर हो रहे हैं। यह अलग बात है कि यहां कोई हिंसक घटना नहीं हुयी और 26 जनवरी का समारोह शांति पूर्वक संपन्न हो गया। बहिष्कार की यह गूंज अब पूरे नॉर्थ ईस्ट में व्याप्त है। ताज़ी खबर यह है कि आसाम सहित सभी राज्य जिन्हें सेवेन सिस्टर्स के नाम से जाना जाता है, नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 के विरूद्ध लामबंद हो रहे हैं।

भारतीय नागरिकता और राष्ट्रीयता कानून के अनुसार: भारत का संविधान पूरे देश के लिए एकल नागरिकता को प्राविधित करता है। नागरिकता से संबंधित प्रावधानों को भारत के संविधान के भाग II में अनुच्छेद 5 से 11 में दिया गया है। पहले नागरिकता अधिनियम 1955 बना जिसमे 1992, 2003 और 2005 के वर्षों में थोड़े बहुत संशोधन हुए। अब एक महत्वपूर्ण संशोधन 2016 के बिल में प्रस्तावित है, जो आज के विमर्श का विषय है। इन सुधारों के बाद, भारतीय राष्ट्रीयता कानून जूस सोली (jus soli) (क्षेत्र के भीतर जन्म के अधिकार के द्वारा नागरिकता) के विपरीत काफी हद तक जूस सेंगिनीस (jus sanguinis) (रक्त के अधिकार के द्वारा नागरिकता) का अनुसरण करता है। यह पहली बार है धर्म नागरिकता का आधार बनने जा रहा है, अगर यह विधेयक कानून बन गया तो।
भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुसार निम्न में से किसी एक के आधार पर नागरिकता प्राप्त की जा सकती है:
(1) जन्म से प्रत्येक व्यक्ति जिसका जन्म संविधान लागू होने यानी कि 26 जनवरी, 1950 को या उसके पश्चात भारत में हुआ हो, अपवाद राजनयिकों के बच्चे, विदेशियों के बच्चे.।
(2) भारत के बाहर अन्य देश में 26 जनवरी, 1950 के बाद जन्म लेने वाला व्यक्ति भारत का नागरिक माना जाएगा, यदि उसके जन्म के समय उसके माता-पिता में से कोई भारत का नागरिक हो। माता की नागरिकता के आधार पर विदेश में जन्म लेने वाले व्यक्ति को नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान नागरिकता संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा किया गया है.
(3) भारत सरकार से देशीयकरण का प्रमाण-पत्र प्राप्त कर भारत की नागरिकता प्राप्त की जा सकती है.
(4) निम्‍नलिखित वर्गों में आने वाले लोग पंजीकरण के द्वारा भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं:
(i) वे व्यक्ति जो पंजीकरण प्रार्थना-पत्र देने की तिथि से छह महीने पहले से भारत में रह रहे हों.
(ii) वे भारतीय, जो अविभाज्य भारत से बाहर किसी देश में निवास कर रहे हों.
(iii) वे स्त्रियां, जो भारतीयों से विवाह कर चुकी हैं या भविष्य में विवाह करेंगी.
(iv) भारतीय नागरिकों के नाबालिक बच्चे.
(v) राष्ट्रमंडलीय देशों के नागरिक, जो भारत में रहते हों या भारत सरकार की नौकरी कर रहें हों. आवेदन पत्र देकर भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं.
(5) यदि किसी नए भू-भाग को भारत में शामिल किया जाता है, तो उस क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों को स्वतः भारत की नागरिकता प्राप्त हो जाती है.
भारतीय नागरिकता संशोधन अधिनियम, 1986 के अाधार पर भारतीय नागरिकता संशोधन अधिनियम, 1955 में निम्न संशोधन किए गए हैं:
(i) अब भारत में जन्मे केवल उस व्यक्ति को ही नागरिकता प्रदान की जाएगी, जिसके माता-पिता में से एक भारत का नागरिक हो.
(ii) जो व्यक्ति पंजीकरण के माध्यम से भारतीय नागरिकता प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें अब भारत में कम से कम पांच सालों तक निवास करना होगा. पहले यह अवधि छह महीने थी.
(iii) देशीयकरण द्वारा नागरिकता तभी प्रदान की जायेगी, जबकि संबंधित व्यक्ति कम से कम 10 सालों तक भारत में रह चुका हो. पहले यह अवधि 5 वर्ष थी. नागरिकता संशोधन अधिनियम, 1986 जम्मू-कश्मीर व असम सहित भारत के सभी राज्यों पर लागू होगा.
अब इसकी पृष्ठभूमि को देखिये। 1985 में जब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे तो, असम गण परिषद और भारत सरकार के बीच एक समझौता हुआ था, जिसे असम समझौता के नाम से जाना जाता है । उक्त समझौते के मुख्य विंदु थे,
* 1951 से 1961 के बीच असम आये सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार देने का निर्णय।
* 1971 के बाद असम में आये लोगों को वापस भेजने पर सहमति बनी।
* 1961 से 1971 के बीच आने वाले लोगों को नागरिकता और दूसरे अधिकार जरुर दिए गए लेकिन उन्हें वोट का अधिकार नहीं दिया गया।
असम समझौते के आधार पर मतदाता सूची में संशोधन किया गया। विधान सभा को भंग करके 1985 में चुनाव कराये गए जिसमें नवगठित असम गणपरिषद् को बहुमत मिला और आसू के अध्यक्ष प्रफुल्ल कुमार महंत को मुख्यमंत्री बनाया गया. असम समझौते के बाद राज्य में शांति बहाली तो हुई लेकिन यह असल मायने में अमल नहीं हो पाया। कई साल तक मामला बस्ता ए खामोशी  में रहने के बाद साल 2005 में एक बार फिर असम में आन्दोलन तेज हुआ। इस बीच बांग्लादेश के मूल लोगों को संदिग्ध वोटर होने के आरोप में प्रताड़ित किये जाने की खबरें आती रहीं जिनमें बंगाली हिंदू और मुसलमान दोनों ही शामिल हैं. आखिरकार 2013 में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा । सुप्रीम कोर्ट ने 1971 को डेडलाइन मानकर नागरिकता के लिये सरकार को नेशनल सिटीजन रजिस्टर बनाने का निर्देश दिया जो काम अभी चल रहा है।
अब प्रस्तावित नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 को लोकसभा में ‘नागरिकता अधिनियम’ 1955 में बदलाव के लिए लाया गया है। केंद्र सरकार ने इस विधेयक के जरिए अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैन, पारसियों और ईसाइयों को बिना वैध दस्तावेज के भारतीय नागरिकता देने का प्रस्ताव रखा है। इसके लिए उनके निवास काल को 11 वर्ष से घटाकर छह वर्ष कर दिया गया है। यानी अब ये शरणार्थी 6 साल बाद ही भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं। इस बिल के तहत सरकार अवैध प्रवासियों की परिभाषा बदलने के प्रयास में है। यह बिल लोकसभा में 15 जुलाई 2016 को पेश हुआ था जबकि 1955 नागरिकता अधिनियम के अनुसार, बिना किसी प्रमाणित पासपोर्ट, वैध दस्तावेज के बिना या फिर वीजा परमिट से ज्यादा दिन तक भारत में रहने वाले लोगों को अवैध प्रवासी माना जाएगा। इस विधेयक पर विवाद उठ खड़ा हुआ है, जिसका आधार संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होना है। विधेयक संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। यह धर्म के आधार पर भेदभाव करता है।  अनुच्छेद 14 सभी व्यक्तियों, नागरिकों और विदेशियों को समानता की गारंटी देता है।
असम में बीजेपी की गठबंधन पार्टी असम गण परिषद ने इस बिल को स्वदेशी समुदाय के लोगों के सांस्कृतिक और भाषाई पहचान के खिलाफ बताया है। कृषक मुक्ति संग्राम समिति एनजीओ और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन भी इस बिल के विरोध में मुखर रूप से सामने आ गए हैं। इसके अलावा विपक्षी दल कांग्रेस और ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रैटिक फ्रंट ने भी किसी शख्स को धर्म के आधार पर नागरिकता देने का विरोध किया है। यह भी विवाद है कि बिल को लागू किया जाता है तो इससे पहले से अपडेटेड नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) प्रभावहीन हो जाएगा। फिलहाल असम में एनआरसी को अपडेट करने की प्रक्रिया जारी है। एजीपी ने बिल के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान की शुरुआत की है। पार्टी के सदस्यों ने कहा कि वह राज्य के लोगों से बिल के खिलाफ 50 लाख हस्ताक्षर इकट्ठा करने करेंगे जिसे जेपीसी के पास भेजा जाएगा। कांग्रेस ने भी बिल को 1985 के असम समझौते की भावना के खिलाफ बताकर इसका विरोध किया है। इनका दावा है कि यह 1985 के ‘ऐतिहासिक असम करार’ के प्रावधानों का उल्लंघन है जिसके मुताबिक 1971 के बाद बांग्लादेश से आए सभी अवैध विदेशी नागरिकों को वहां से निर्वासित किया जाएगा भले ही उनका धर्म कुछ भी हो।
उल्लेखनीय है कि 7 मई को बिल को लेकर विभिन्न संगठन और व्यक्तियों की राय जानने के लिए जेपीसी की एक टीम राज्य के दौरे पर थी लेकिन यहां उसका जमकर विरोध हुआ। इस टीम की अध्यक्षता बीजेपी सांसद राजेंद्र अग्रवाल की ने किया था। इस समिति पर विधेयक में विभिन्न संगठनों और व्यक्तियों की राय शामिल करने के लिए जनता की तरफ से बेहद दबाव है। गौरतलब है कि असम पब्लिक वर्क नागरिकता संशोधन विधेयकनाम के एनजीओ सहित कई अन्य संगठनों ने साल 2013 में राज्य में अवैध शरणार्थियों मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। असम के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया था। साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में यह काम शुरू हुआ था, जिसके बाद गत 30 जुलाई में एनआरसी का फाइनल ड्राफ्ट जारी किया गया। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने, जिन 40 लाख लोगों के नाम लिस्ट में नहीं हैं, उन पर किसी तरह की सख्ती बरतने पर फिलहाल के लिए रोक लगाई है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, असम में वर्तमान में नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) को अपडेट किया जा रहा है। इसे उन बांग्लादेशी नागरिकों की पहचान करने के लिए अपडेट किया जा रहा है जो 24 मार्च 1971 के बाद भारत-बांग्लादेश बंटवारे के समय अवैध रूप से असम में घुस आए थे। 1985 असम समझौते में तारीख तय की गई थी जो प्रधानमंत्री राजीव गांधी और ऑल असम स्टूडेंट यूनियन के बीच समझौता हुआ था।
दरअसल, एनआरसी और नागरिकता संशोधन बिल एक-दूसरे के विरोधाभासी है। जहां एक ओर बिल में बीजेपी धर्म के आधार पर शरणार्थियों को नागरिकता देने पर विचार कर रही हैं वहीं एनआरसी में धर्म के आधार पर शरणार्थियों को लेकर भेदभाव नहीं है। इसके अनुसार, 24 मार्च 1971 के बाद अवैध रूप में देश में घुसे प्रवासियों को निर्वासित किया जाएगा। इस वजह से असम में नागरिकता और अवैध प्रवासियों का मुद्दा राजनीतिक रूप ले चुका है। नागरिकता की डेड लाइन 24 मार्च 1971 रखी गयी है जिसका कारण है भारत पाक युद्ध 1971 के बाद बांग्लादेश का निर्माण हो जाना है। उस तिथि के बाद जो भी व्यक्ति बांग्लादेश से भारत मे आकर बसा है वह अवैध नागरिक माना जायेगा, चाहे उसका धर्म कोई भी हो। पर नए संशोधन में मुस्लिमों को नागरिकता देने का निषेध प्रस्तावित है जबकि हिन्दू, बौद्ध पारसी, ईसाई आदि को नागरिकता प्रदान करने की बात की गयी है। भाजपा के नेतागण इसे प्रचारित भी कर रहे हैं।
भारत के संवैधानिक इतिहास में संभवतः यह सबसे अधिक विवादास्पद बिल होगा जो संविधान की मूल भावना और भारत की अवधारणा के विपरीत लाया जा रहा है। पहली बार देश मे नागरिकता का आधार धर्म बनने जा रहा है जो जिन्ना और सावरकर के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर आधारित है जिसे भारत ने बहुत पहले ही रद्द कर दिया है। यह संविधान के अनुच्छेद 15 , जो समानता का अधिकार सभी नागरिकों को देता है , का स्पष्ट उल्लंघन है।इस प्रकार यह भारत की महानतम विरासत सर्वधर्म समभाव और आज़ादी के आंदोलन के सबसे मौलिक विंदु धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत के सर्वथा विपरीत है। यह भी हैरानी की बात है कि ऐसा संविदा विरोधी बिल लोकसभा से कैसे पारित हो गया और अब राज्यसभा मे पेश किया जाने वाला है।
इस बिल की दो गम्भीर प्रतिक्रियाएं होंगी। सबसे पहले इसकी प्रतिक्रिया और प्रभाव और नार्थ ईस्ट के राज्यों में होगा, जहां लंबे समय तक पलायन और विस्थापन होता रहा है। दूसरा इसका असर पूरे भारत मे होगा, जहां पहली बार नागरिकता के पैमाने बदल दिए गए हैं। नागरिकता का आधार धर्म कभी भी किसी भी धर्मनिरपेक्ष राज्य में नहीं रहा है। यह अवधारणा ही थियोक्रेटिक यानी धर्म आधारित राज्य की है। जिसे अब 1937 के सावरकर के सिद्धांत कि हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए और पाकिस्तान मुसलमानों के लिये होगा, पर आधारित मान लिया जा रहा है। पिछले अनेक वर्षों से सोशल मीडिया पर धर्मनिरपेक्षता को एक अपशब्द के रूप में जो प्रचारित किया जा रहा है उसे अब एक ऐसे कानून द्वारा स्थापित करने की यह साज़िश है जो संविधान के मूल ढांचे के ही विपरीत है।
जहां तक नॉर्थ ईस्ट राज्यों का सवाल है वहां इसका असर अधिक और अलग तरह से पड़ेगा। जैसा कि ऊपर लिखा चुका है यह बिल 1985 के असम समझौते का खुला उल्लंघन है, जिसमे 24 मार्च 1971 को नागरिकता के लिये अंतिम तिथि तय की गयी है। यह बिल सरकार के उस आश्वासन को खंडित कर देता है जो भारत सरकार ने असम के नागरिकों से किया था। इससे असम और नॉर्थ ईस्ट के अन्य राज्यों को शेष भारत से मनोवैज्ञानिक रूप से दूर कर देगा। आज ही के अखबार में इसकी बेहत तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली है जब मिजोरम के बाद असम ने भारत संघ से अलग होने की बात की है। असम, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड में इस बिल की प्रतिक्रिया में जो स्वर उठ रहे हैं उनसे इसे बखूबी समझा जा सकता है। इससे नॉर्थ ईस्ट के राज्यों में जो बहुत पहले से अलगाववाद के वायरस से पीड़ित रह चुके हैं और अनेक प्रयासों के बाद हुए विभिन्न समझौतों से जहां शान्ति की बयार चली है वहां फिर से अशनि संकेत मिलने शुरू हो गए हैं। यह साम्प्रदायिकता को भी भड़कायेगा और फिर अनेक समस्याएं उत्पन्न हो जाएंगी।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर चल रही एनआरसी की कार्यवाही का यह बिल विरोधाभासी है। एनआरसी ने 24 मार्च 1971 की डेटलाइन तय कर रखी हैं। जिसमे कोई धार्मिक विभेद नहीं है। उक्त के संबंध में जो आंकड़े हैं, उसके अनुसार 40 लाख वे लोग हैं जो अवैध रूप से भारत मे रह रहे हैं, जिनमे से 25 लाख मुस्लिम है और शेष 15 लाख हिन्दू हैं, जिन्हें असम समझौते के अनुसार विदेशी माना जा सकता है। अगर यह बिल कानून बन जाता है तो धर्म के आधार पर सभी हिन्दू भारत के नागरिक तो बन जाएंगे पर उन्हीं के साथ के विदेशी घोषित मुस्लिम अवैध घोषित हो जाएंगे। यह सुप्रीम कोर्ट के एनआरसी के निर्देशों के सर्वथा विपरीत है। इसका असर पूरे भारत मे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के रूप में पड़ेगा जो देश की एकता के लिये एक आघात होगा। एनआरसी के दिशानिर्देश स्पष्ट हैं कि उक्त डेटलाइन के अनुसार कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी धर्म का हो, भारत के लिये अवैध प्रवासी माना जायेगा।
यह बिल अब राज्यसभा में जायेगा लेकिन इसका व्यापक विरोध शुरू हो गया है। नॉर्थ ईस्ट के राज्यों द्वारा विरोध तो हो ही रहा है, भाजपा की सहयोगी जनता दल यूनाइटेड ने भी इसके खिलाफ मतदान करने का निर्णय लिया है। जदयू ने ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के साथबैठक के उपरांत असमी ‘‘अस्मिता’ को समर्थन देने का फैसला किया है। इस बिल का विरोध इल्लिगल माइग्रेशन डिटेक्शन बाई ट्राइब्यूनल (आईएमडीटी) मामले में सुनवाईके दौरान सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से रेखांकित होता है, "बड़े पैमाने पर बांग्लादेश से आने वाले लोगों के खतरनाक असर, असम के लोगों और समूचे राष्ट्र पर, को ध्यान में रखा जाना चाहिए। ऐसा करते में किसी तरह की भ्रमित धर्मनिरपेक्षता को आड़े नहीं आने दिया जाना चाहिए।"
यह बिल मूलतः भाजपा की साम्प्रदायिक सोच को ही उजागर करता है। भारत कभी भी एक धर्म विशेष का देश  नहीं रहा है है और न ही कभी धर्म आधारित राज्य की यहां  परिकल्पना की गयी। यह बिल उस सामाजिक ताने बाने को कमज़ोर करता है जिसके टूटने से देश के बिखरने का खतरा है। सरकार को भी यह पता है कि धर्म के आधार पर बनाया गया कोई भी कानून संविधान के मूल ढांचे के सर्वथा विपरीत है और अदालत में यह कानून असंवैधानिक घोषित हो जाएगा। पर अदालत जब करेगी तब करेगी, पर यह बिल या कानून तब तक विवाद, बहस, आरोप, प्रत्यारोप का विंदु बना रहेगा और सत्तारूढ़ दल का चिरपरिचित राजनैतिक एजेंडा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को पूरा करता रहेगा। चुनावी वर्ष में संवैधानिक मान्यताओं के अधिक वोटखींचू ट्रिक्स अधिक काम आते हैं। यहां वही नियम लागू हो जाता है कि युद्ध और प्रेम में सभी कुछ जायज़ हैं। यह चुनाव भी तो पानीपत का तीसरा युद्ध घोषित ही हो चुका है ! यह बिल संविधान, देश की अस्मिता, एकता, अखंडता और भारत की आत्मा के सर्वथा विपरीत है।
© विजय शंकर सिंह

Saturday, 26 January 2019

चंदा कोचर के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने वाले सीबीआई अफसर का ट्रांसफर / विजय शंकर सिंह

पिछले चार साल से हो रही कार्पोरेटी लूट केवल और केवल सरकार, वह भी ढाई आदमी की विकलांग सरकार की जनविरोधी नीतियों का परिणाम है। सीबीआई ने जब,आईसीआईसीआई ICICI बैंक की सरगना चंदा कोचर, उनके पति दीपक कोचर और वीडियोकॉन के मालिक वीएम धूत पर सख्ती की और मुक़दमा कायम किया तो, अमेरिका में अस्पताल के आईसीयू में अधलेटे वित्तमंत्री अरुणजेटली ने एक ब्लॉग लिख कर सीबीआई की इस कार्यवाही को इन्वेस्टिगेटिव ऐडवेंचरिज़्म कहा। मतलब यह खतरनाक विवेचना का कदम है। अब एडवेंचर तो एडवेंचर ही है। बीमार वित्तमंत्री भी है, तो मंत्री ही। उसके ब्लॉग का  सख्ती की असर यह हुआ कि ICICI  मामले में, चंदा कोचर, दीपक कोचर के खिलाफ FIR पर साइन करने वाले CBI अफसर का ट्रांसफर हो गया।

एसपी सुधांशु धर मिश्रा दिल्ली में सीबीआई की बैंकिंग और सेक्यॉरिटी फ्रॉड सेल का हिस्सा थे और 22 जनवरी को उन्होंने चंदा कोचर के खिलाफ मामला दर्ज किया था। मिश्रा का ट्रांसफर रांची स्थित जांच एजेंसी की इकोनॉमिक ऑफेंस शाखा में कर दिया गया।

#ANI का यह ट्वीट देखे,
Sudhanshu Dhar Mishra, who was SP of Banking&Securities Fraud Cell of CBI, Delhi has been transferred to CBI’s Economic Offences Branch in Ranchi, Jharkhand. He had signed FIR against Chanda Kochhar, Deepak Kochhar, VN Dhoot&others on Jan 22 in connection with ICICI-Videocon case
( 8:54 AM · Jan 27, 2019 · Twitter )

एनडीटीवी की खबर के अनुसार, आईसीआईसी बैंक ऋण मामले में सीबीआई की बैंकिंग ऐंड सिक्योरिटीज फ्रॉड सेल के एसपी सुधांशु धर मिश्रा को रांची ट्रांसफर कर दिया गया है. सुधांशु धर मिश्रा का ट्रांसफर झारखंड की राजधानी स्थित CBI की आर्थिक अपराध शाखा में किया गया है. सुधांशु मिश्रा ने आईसीआईसी-वीडियोकॉन मामले में 22 जनवरी को चंदा कोचर, उनके पति दीपक कोचर, वीएन धूत और अन्य के खिलाफ एफआईआर पर दस्तखत किया था. बताया जा रहा है कि इसी के बाद 24 जनवरी को सीबीआई की टीम ने महाराष्ट्र के चार ठिकानों पर छापे मारे थे. 

बता दें कि आईसीआसीआई की पूर्व प्रमुख चंदा कोचर के कार्यकाल के दौरान बैंक द्वारा वीडियोकॉन समूह को 1,875 करोड़ रूपए के ऋणों को मंजूरी देने में कथित अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के सिलसिले में यह मामला दर्ज किया है. बता दें कि चंदा कोचर के पति के ठिकानों पर सीबीआई की छापेमारी पर केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने सीबीआई को निशाने पर लिया था और सलाह दी थी कि महाभारत के अर्जुन की तरह टारगेट पर नजर रखें.

सुधांशु मिश्रा की जगह कोलकाता में सीबीआई की आर्थिक अपराध शाखा के एसपी बिस्वजीत दास का ट्रांसफर दिल्ली कियागया है. वहीं, कोलकाता में सीबीआई की आर्थिक अपराध शाखा-IV के एसबी सुदीप राय को दास की जगह लाया गया है.

© विजय शंकर सिंह