Sunday, 30 December 2018

तीन तलाक कानून क्या महिलाओं का हित सुरक्षित रख पायेगा / विजय शंकर सिंह

समाज के विकास के क्रम में यह विवाह एक संस्था के रूप में कब उद्भूत हुयी होगी, यह तो कहना कठिन है पर सभ्यता और संस्कृति के इतिहास का जब अध्ययन किया जाता है तो यह संस्था आदिम युग मे जब मनुष्य ने आग और पहिये का अविष्कार किया होगा उसके बाद से ही यह संस्था अस्तित्व में आ गयी होगी। बाद में जैसे जैसे समाज और सभ्यताएं विकसित होती गयी वैसे वैसे नए नए रीति रिवाज बनने लगे। यह संस्था सभी समाज और धर्मो में अपने अपने तरह से विकसित हुई और वह विकास क्रम आज भी जारी है। इस्लाम मे विवाह को निकाह कहा जाता है ।

इस्लाम में निकाह एक पुरूष और एक स्त्री की अपनी आज़ाद मर्ज़ी से एक दूसरें के साथ पति और पत्नी के रूप में रहने का फ़ैसला हैं। सनातन धर्म में जहां विवाह एक संस्कार है, वहीं इस्लाम मे यह एक संविदा है। विवाह में पति पत्नी के भावुक और सात जन्म तक के काल्पनिक बंधन के विपरीत, इस्लाम मे निकाह को अधिक व्यवहारिक धरातल पर रख कर देखा गया है। यह संविदा है, इसलिए  इसमें कुछ शर्ते भी हैं, पहली यह कि पुरूष वैवाहिक जीवन की ज़िम्मेदारियों को उठाने की शपथ ले, एक निश्चित रकम जो आपसी बातचीत से तय हो, मेहर के रूप में औरत को दे और इस नये सम्बन्ध की समाज में घोषणा हो जाये। विवाह के बिना किसी मर्द और औरत का साथ रहना और यौन सम्बन्ध स्थापित करना न केवल गलत है बल्कि वह एक गुनाहे अज़ीम है।

चूंकि निकाह एक संविदा है। औरत और मर्द आपसी सहमति से इस लिखित संविदा जिसे निकाहनामा कहते हैं से बंधे रहते  है अतः इस्लाम में उक्त निकाह यानी संविदा विच्छेद का भी प्राविधान है जिसे तलाक़ कहा गया हैं। इस्लामी कानूनी के मर्मज्ञ इस बात पर एकमत है कि इस्लाम मे तलाक़ का प्राविधान तो है पर उसे जटिल बनाया गया है ताकि तलाक़ का फैसला करते समय उसे आसानी से अमल में न लाया जा सके। यह असामान्य परिस्थितियों के लिये असामान्य प्राविधान है और इसका प्रयोग अपवाद स्वरूप ही किया जाना चाहिये न कि यह एक विधान है। इसीलिए क़ुरआन में तलाक़ की प्रक्रिया लम्बी और थोड़ी जटिल बनायी गयी है। तलाक, तलाक़, तलाक एक बार मे नहीं बल्कि कुछ अंतराल के बाद कहने की प्रक्रिया है ताकि इन अंतरालों में हो सकता है पति का मन बदल जाए, गिले शिकवे दूर हों जाय और परिवार बिखरने से बच जाय। क्योंकि यह मान लिया गया है कि तलाक़ का कारण कुछ भी हो इससे, परिवार और रिश्ते बिखरते ही हैं। कुरान में कहा गया है कि जहाँ तक संभव हो, तलाक़ न दिया जाए और यदि तलाक़ देना ज़रूरी और अनिवार्य हो जाए तो कम से कम यह प्रक्रिया अपनायी जाय। क़ुरआन में तलाक़ प्रक्रिया की समय अवधि भी स्पष्ट रूप से बताई गई है। एक ही क्षण में तलाक़ का सवाल ही नहीं उठता। खत लिखकर, टेलीफ़ोन पर या आधुनिकाल में ईमेल, एस एम एस अथवा वॉट्सऍप के माध्यम से एक-तरफा और ज़ुबानी या अनौपचारिक रूप से लिखित तलाक़ की इजाज़त इस्लाम कतई नहीं देता। एक बैठक में या एक ही वक्त में तलाक़ दे देना गैर-इस्लामी है।

तलाक़ की प्रक्रिया, शरीयत , जिसे शरीया क़ानून और इस्लामी क़ानून भी कहा जाता है में दी गयी है। इस्लाम में इसे धार्मिक क़ानून का दर्जा प्राप्त है। इस क़ानून का आधार  पहला, इस्लाम का सर्वोच्च धर्मग्रन्थ क़ुरआन है और दूसरा इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद द्वारा दी गई मिसालें हैं , जिन्हें सुन्नाह यानी परम्परायें कहा जाता है। इस्लामी क़ानून की व्याख्याएं,  इन दो स्रोतों को ध्यान में रखकर की जातीं हैं। इस क़ानून बनाने की प्रक्रिया को 'फ़िक़्ह' कहा जाता है। शरीयत में बहुत से विषयों पर अपने अपने मत है, जैसे कि स्वास्थ्य, खानपान, पूजा विधि, व्रत विधि, विवाह, जुर्म, राजनीति, अर्थव्यवस्था इत्यादि। मुसलमान यह तो मानते हैं कि शरीयत अल्लाह का क़ानून है लेकिन उनमें इस बात को लेकर मतभेद है कि यह क़ानून कैसे परिभाषित और लागू होना चाहिए। सुन्नी समुदाय में चार भिन्न भिन्न फ़िक़्ह के नज़रिए हैं और शिया समुदाय में दो। अलग अलग देशों, समुदायों और संस्कृतियों में भी शरीयत को अलग-अलग ढंगों से समझा जाता है। शरीयत के अनुसार न्याय करने वाले पारम्परिक न्यायाधीशों को 'क़ाज़ी' कहा जाता है। कुछ स्थानों पर 'इमाम' भी न्यायाधीशों का काम करते हैं। इस्लाम के अनुयायियों के लिए शरीयत इस्लामी समाज में रहने के तौर-तरीक़ों, नियमों और कायदों के रूप में क़ानून की भूमिका निभाता है। पूरा इस्लामी समाज इसी शरीयत क़ानून के हिसाब से चलता है। मोहम्मडन लॉ या इस्लामी कानून भी अलग अलग तरीक़ों से व्याख्यायित है। लेकिन निकाह एक संविदा है और तलाक उक्त संविदा भंग का एक उपाय यह लगभग सभी फिरकों में है।

तलाक़ को लेकर इधर एक विवाद उठ खड़ा हुआ है कि एक ही बार मे तीन तलाक़ जिसे तलाक़ ए बिद्दत (ट्रिपल तलाक़) कहते हैं, के अंतर्गत  जब कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को एक बार में तीन तलाक़ बोल, या फ़ोन, मेल, मैसेज या पत्र के ज़रिए तीन तलाक़ कह, लिख कर दे देता है तो इसके तुरंत बाद तलाक़ हो जाता है, तो क्या इस तलाक़ को इस्लामी कानूनी के अनुसार जायज़ माना जाय ? ट्रिपल तालक़, जिसे तलाक़-ए-बिद्दत, तत्काल तलाक़ और तालक़-ए-मुघलाजाह (अविचल तलाक़) के रूप में भी जाना जाता है, इस्लामी तलाक़ का एक रूप है जिसे भारत में मुसलमानों द्वारा इस्तेमाल किया गया है, विशेषकर हनफ़ी पन्थ के अनुयायी न्यायशास्र के सुन्नी इस्लामी स्कूल इसे मानते हैं। लेकिन इस्लामी कानूनों के जानकार इस प्रकार के तलाक को जायज़ नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि इस प्रकार का तलाक कुरआन की भावना और शरियत की मंशा के विपरीत है। लेकिन दुर्भाग्य से सबसे अधिक तलाक़ इसी प्रथा से हो रहे है। इस प्रथा के औचित्य और अनौचित्य पर देश और मुस्लिम समाज मे भी बहुत बहसें हुयीं और यह मामला अंततः सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट में इस महत्वपूर्ण मामले की सुनवायी, मुख्य न्यायाधीश ( सीजेआई ) की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने की। सुनवायी के बाद पीठ ने अपने 365 पेज के फ़ैसले में 3:2 के बहुमत के फैसले से  ‘तलाक़-ए-बिद्दत’’ तीन तलाक़ को निरस्त कर दिया। अदालत का फैसला शरियत का कहीं उलंघन नहीं करता है। क्योंकि शरियत में भी ट्रिपल तलाक़ को मान्यता नहीं दी गयी है।

भारत में भले ही इसे खत्म करने पर बहस चल रही हो पर पड़ोसी मुल्क, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और श्रीलंका समेत 22 देश इसे पहले ही खत्म कर चुके हैं।
मिस्र ने सबसे पहले 1929 में ही तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा दिया था। यहां कानून के अनुसार तीन बार तलाक कहने पर भी उसे एक ही माना जाएगा। 
इंडोनेशिया में तलाक के लिए कोर्ट की अनुमति जरूरी है।  यहां महिलाओं को भी तलाक देने का अधिकार है। 
ईरान में 1986 में बने 12 धाराओं वाले तलाक कानून के अनुसार ही तलाक संभव है। 1992 में इस कानून में कुछ संशोधन किए गए इसके बाद कोर्ट की अनुमति से ही तलाक लिया जा सकता है।
कट्‍टरपंथी समझे जाने वाले ईरान में भी महिलाओं को भी तलाक देने का अधिकार है। 
तुर्की ने 1926 में स्विस नागरिक संहिता अपनाकर तीन तलाक की परंपरा को त्याग दिया। इस संहिता के लागू होते ही शादी और तलाक से जुड़ा इस्लामी कानून अपने आप हाशिये पर चला गया। हालांकि 1990 के दशक में इसमें जरूर कुछ संशोधन हुए, लेकिन जबरदस्ती की धार्मिक छाप से यह तब भी बचे रहे। 
साइप्रस में भी तुर्की के कानून को मान्य किया गया है। अत: यहां भी तीन तलाक को मान्यता नहीं है। 
पाकिस्तान में भी तीन बार तलाक बोलकर पत्नी से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। सुन्नी बहुल इस देश में भी तलाक चाहने वाले व्यक्ति को पहले अपनी पत्नी के खिलाफ यूनियन बोर्ड के चेयरमैन को नोटिस देना होता है। इस मामले में पत्नी को भी जवाब देने का मौका दिया जाता है। पाकिस्तान में 1955 में महिलाओं के आंदोलन के बाद यह व्यवस्था शुरू की गई।
बांग्लादेश ने भी तलाक पर पाकिस्तान में बना नया कानून अपने यहां लागू कर तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा दिया। 
अफगानिस्तान में तलाक के लिए कानूनन रजिस्ट्रेशन जरूरी है। यहां 1977 में नागरिक कानून लागू किया गया था। इसके बाद से तीन तलाक की प्रथा समाप्त हो गई। श्रीलंका में तीन तलाक वाले नियम को मान्यता नहीं है। हालांकि श्रीलंका मुस्लिम देश नहीं है, लेकिन यहां तलाक देने से पहले काजी को सूचना देनी होती है। 30 दिन में काजी पति-पत्नी में समझौते की कोशिश करता है। इसके बाद ही काजी और दो चश्मदीदों के सामने तलाक हो सकता है।
मलेशिया में कोर्ट के बाहर तलाक मान्य नहीं है। पुरुषों की तरह महिलाएं भी यहां तलाक के लिए आवेदन दे सकती हैं। 
लीबिया में महिला और पुरुष दोनों को ही तलाक लेने की अनुमति है, लेकिन यहां भी कोर्ट की अनुमति से ही तलाक लिया जा सकता है। 
सूडान में भी तीन तलाक को मान्यता नहीं है। 1935 से ही यहां तीन तलाक पर प्रतिबंध है। 
अल्जीरिया में भी अदालत में ही तलाक दिया जा सकता है। यहां जोड़े को फिर से मिलने के लिए 90 दिन का समय रखा गया है। 
सीरिया में करीब 74 प्रतिशत आबादी सुन्नी मुसलमानों की है। यहां 1953 से तीन तलाक पर प्रतिबंध है। संविधान में यह प्रावधान है कि कोर्ट से तलाक लिया जा सकता है। महिला भी तलाक ले सकती है। यहां तलाक के बाद महिला को गुजारा भत्ता देना होता है।
मोरक्को में 1957-58 से ही मोरक्कन कोड ऑफ पर्सनल स्टेटस लागू है। इसी के तहत तलाक लिया जा सकता है। तलाक का पंजीयन कराना जरूरी है। 
ट्‌यूनीशिया में 1956 में बने कानून के मुताबिक वहां अदालत के बाहर तलाक को मान्यता नहीं है। यहां पहले तलाक की वजहों की पड़ताल होती है और यदि दंपति के बीच सुलह की कोई गुंजाइश न दिखे तभी तलाक को मान्यता मिलती है। 
इसके अलावा संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन, कतर, बहरीन और कुवैत में भी तीन तलाक पर प्रतिबंध है।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद से देश में लोकसभा ने मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक, 2017 को पारित कर दिया है । पारित विधेयक के अहम बिंदु इस प्रकार हैं:
* धारा 3. मुस्लिम पति द्वारा शाब्दिक तौर पर, चाहे मौखिक या लिखित या इलेक्ट्रॉनिक रूप में या किसी भी दूसरे तरीके से, अपनी पत्नी को तलाक दिया जाना अवैधानिक/अमान्य और गैर कानूनी होगा.
* धारा  4. कोई मुस्लिम पति, जो अपनी पत्नी को अनुच्छेद 3 में वर्णित तरीके से तलाक देता है, उसे तीन साल तक की कैद की सजा दी जाएगी साथ ही उस पर जुर्माना भी लगाया जाएगा।

सरकार का तर्क है कि गलत तरह से तलाक के कारण पीड़ित मुस्लिम महिलाएँ इस कानून से राहत पाएंगी। सरकार ने इस कानून के माध्यम से स्वयं को मुस्लिम महिलाओं का हितचिंतक दिखने की कोशिश की है। हालांकि विधेयक जहां तक तलाक़ ए बिद्दत को रोकने की बात करता है वहां तक तो वह शरीयत के भावना के अनुरूप है और तीन बार तलाक़ कह देने से तलाक़ का होना भी नहीं होता है, पर तीन तलाक़ कहने वाले को तीन साल की कारावास की सज़ा का प्राविधान तर्कसंगत नहीं लगता है। मूल कानूनी प्रश्न यह भी उठता है कि तलाक़ हुआ ही नहीं तो सज़ा किस बात की ? यह तर्क दिया जाएगा कि तीन तलाक़ बोलने की यह सजा है । लेकिंन, पति पत्नी की वैवाहिक स्थिति तो वही रही। फिर जेल के बाद जब पति लौटेगा तो क्या परिवार की सामान्यता रह पाएगी ? फिर इन तीन सालों में पत्नी और अगर बच्चे हों तो उनका भरण पोषण कौन करेगा ? क्या सजायाफ्ता पति लौट कर पुनः निर्विकार भाव से एक शरीफ पतिं की तरह घर मे रह सकेगा ? अगर वह किसी नौकरी में है तो क्या तीन साल की सज़ा के बाद भी उसकी वह नौकरी बरक़रार रहेगी ? सामाजिक प्रतिष्ठा पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? आदि आदि अनेक सवाल इस सज़ायाबी वाले प्राविधान से और उठ खड़े हुये हैं। धर्म और न्यायशास्त्र के आधार पर प्रत्यक्ष रूप से दिखने वाले इस विधेयक में कई कमियां हैं, जिससे यह साबित होता है इसे ड्राफ्ट करते समय बहुत सी सम्भावनाओ पर विचार नहीं किया गया है और इसका उद्देश्य लैंगिक न्याय, जैसा कि दावा किया गया है, नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अरविंद जैन ने एक वाजिब सवाल उठाया है। उनके अनुसार, " भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 375 के अनुसार पत्नी से कानूनी बलात्कार का अधिकार, व्यभिचार (धारा 497) और समलैंगिकता (धारा 377) कोई अपराध नहीं..अब सब संवैधानिक  है...कोई अपराध नहीं। दहेज केस के किसी अपराधी की गिरफ्तारी तक नहीं, मगर तीन तलाक़ देने की कहने वालों को तीन साल के लिए, जेल। यह अपराध भी संज्ञेय और गैर-जमानती। पति जेल में और परिवार सड़क पर। पत्नी-परिवार के पालन-पोषण का क्या इंतज़ाम किया? इसका फैसला मजिस्ट्रेट करेगा ! " न्याय की यह कैसी अवधारणा ?

एक और कानूनी विसंगति इस विधेयक के साथ है। आईपीसी की धारा 494 के अनुसार  पति-पत्नी के रहते, दूसरा विवाह करने की सज़ा सात  साल है मगर यह अपराध असंज्ञेय और जमानत योग्य है लेकिन इस तीन तलाक़ बिल में की सज़ा तीन साल और अपराध संज्ञेय तथा गैर-जमानती ! क्यों ? दूसरा विवाह करना, तीन तलाक़ से कम गम्भीर अपराध है, तो बहुविवाह की सज़ा सात साल क्यो ?

लोकसभा में पारित तीन तलाक को अपराध बनाने वाले कानून को लेकर चली बहस एक साधारण सवाल के इर्द-गिर्द घूमती रही थी कि, जब शादी एक दीवानी करार है और सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही फौरी तीन तलाक़ को अवैध घोषित कर दिया है, तो किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी को कानून द्वारा अमान्य ठहरा दिए गए तरीके से तलाक देने की कोशिश करने के लिए सजा देने की जरूरत क्या है ? यह सजा किस अपराध की है यह तो कानून स्पष्ट ही नहीं करता है !

इसका एक दुष्परिणाम यह होगा कि लोग, अपनी पत्नी को बिना तीन बार तलाक बोलकर घर से निकाल देने और सज़ा से बच कर परित्याग करने का कायरतापूर्ण उपाय अपनाएंगे जिससे और समस्याएं उतपन्न होंगी। परित्याग चूंकि कोई कानूनी अपराध नहीं है अतः पति को किसी  कानूनी कार्रवाई का सामना नहीं करना पड़ेगा. और छोड़ी गई पत्नी बिना तलाक़ ही तलाकशुदा जीवन बिताने के लिये बाध्य होगी। जो और बुरा होगा। दूसरे शब्दों में एक बार जब यह कानून पारित हो जाता है, एक घटिया मुस्लिम पति, जो अपनी पत्नी को छोड़ देना चाहता है, आसानी से वही रास्ता अपनाएगा जो उसके जैसा कोई घटिया हिंदू, ईसाई, जैन या सिख पति अपनाता है- अपनी पत्नी को ससुराल से बाहर निकाल देने का रास्ता। वह उसे कोस सकता है, उसे गाली दे सकता है, उसे कह सकता है कि शादी टूट गई है और यह कि उसे उससे (पति से) किसी पैसे की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. लेकिन जब तक वह तलाक के लिए उर्दू के तीन गैर कानूनी शब्द अपने मुंह से नहीं निकालेगा, वह जेल जाने से बचा रहेगा। यह इस कानून की सबसे बड़ी खामी है।

अगर धार्मिक अवरोध को हटा कर देखें तो परित्यक्त महिलाओं की संख्या आखिरी जनगणना (2011) के अनुसार, भारत भर में 23.7 लाख औरतें अपनी पहचान ‘अलग रह रहीं’ के तौर पर करती हैं। लेकिन यह हम नहीं बता सकते कि वे स्वेच्छा से अलग रह रही हैं या पति ने उन्हें छोड़ दिया है क्योंकि जनगणना विवरण में ऐसा कोई कालम नहीं है। हमारे पास यह जानने का और कोई साधन नहीं है कि ये औरतें अपने पतियों से अपनी मर्जी से अलग हुईं या उन्हें एकतरफा तरीके से छोड़ दिया गया था, या इससे भी खराब, क्या उन्हें अपने ससुराल से बाहर निकाल दिया गया था। इनमें भी एक बड़ा बहुमत 19 लाख  हिंदू औरतों का है. कुल ‘अलग रह रहीं’ मुस्लिम औरतों की संख्या जबकि 2.8 लाख है.। 1955 में हिन्दू महिलाओं के लिये भी एक कानून हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 बनाया गया था। इस कानून से पहले हिन्दुओं में भी बहुविवाह मान्य था और स्त्रियों को तलाक का अधिकार नहीं था । विवाह सात जन्मों का अटूट बंधन माना जाता था। उस समय तमाम हिंदूवादी नेताओं ने इस कानून का खूब विरोध किया था।

तीन तलाक़ बिल लोकसभा में तो एक बार फिर से पास हो गया मगर सवाल है कि बिना बहुमत के राज्यसभा में कैसे पास होगा ? पहले भी पास नहीं हुआ था तभी तो सरकार को 'अध्यादेश' जारी करना पड़ा था। अब फिर राज्यसभा में यह बिल लटक सकता है। सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अरविंद जैन ने अपने एक लेख में लिखा है,
'" शाहबानो' से लेकर 'सायराबानो' तक से, राजनीतिक विश्वासघात और न्याय का नाटक-नौटंकी ही होती रही है। लिंग समानता की आड़ में घृणित धार्मिक राजनीति। सत्ता और विपक्ष दोनों के हाथ दस्तानों (दोस्तानों) में! दोहरे चरित्रहीन चेहरे देश के सामने हैं। "
तीन तलाक़ विधेयक के बहाने संसद में 89% मर्द सांसद, 'स्त्री सशक्तिकरण' पर बहस (लफ़्फ़ाज़ी) करते रहे हैं। यह बिल महिला सशक्तिकरण पर लफ़्फ़ाज़ी अधिक और महिला हित चिंता कम लगती है। कहीं इस बिल को बहस के केंद्र में लाकर सत्ताधारी दल का मकसद यह तो नहीं है कि वह अपने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की बहस को आगे बढ़ाये और इसका लाभ 2019 के चुनाव में ले।

निचली सदन में तीन तलाक बिल पास होने के बाद अब सरकार का सामने सबसे बड़ी चुनौती इसे राज्यसभा में पास कराने की है। लोकसभा में पेश हुए इस विधेयक के पक्ष में 245 वोट पड़े जबकि विपक्ष में सिर्फ 11 वोट ही पड़े। कांग्रेस, एआईएडीएमके, सपा और डीएमके ने इसे सेलेक्ट कमेटी के पास भेजने की मांग करते हुए सदन से वॉक आउट किया। राज्सभा में वैसे तो बीजेपी का आंकड़ा पहले की तुलना में काफी बढ़ा है लेकिन इतना भी नहीं है कि वह विपक्ष के बिना सहयोग के विधेयक को पास करा ले। राज्यसभा में कुल सदस्यों की संख्या 244 है और उनमें से 4 सदस्य नामित हैं। फिलहाल, राज्यसभा में जो आंकड़े हैं उसके अनुसार एनडीए के पास 97 सदस्य हैं। जबकि राज्यसभा में फिलहाल विपक्ष का पलड़ा संख्याबल के मामले में सरकार पर भारी है। मौजूदा परिस्थिति में विपक्ष के पास 115 सांसद हैं। अगर कानून नन भी जाता है तो अनेक विसंगतियों को देखते हुये, इस कानून को अदालती विवाद में पड़ जाने की पूरी संभावना भी है।

समाज को नियंत्रित करने के लिये कानूनों की अवधारणा हुयी है। पर यह भी एक कटु सत्य है कि समाज की बुराइयों को केवल कानून बनाकर ही खत्म नहीं किया जा सकता है। दहेज प्रथा, अस्पृश्यता, आदि सामाजिक बुराइयों के खिलाफ कानून बने हैं पर वे बुराइयां कम तो हुयी हैं पर खत्म नहीं हुयी है। यह मुस्लिम समाज को सोचना है कि वे कैसे तीन तलाक़ की कुप्रथा जो उनकी किताबों के ही अनुसार मान्य नहीं है से कैसे बचा जाय।

© विजय शंकर सिंह

ऑगस्टा वेस्टलैंड के मामले में यूपीए, एनडीए सरकारों की कार्यवाही और कुछ जिज्ञासा / विजय शंकर सिंह

ऑगस्टा वेस्टलैंड कम्पनी जिस पर रक्षा सौदे में दलाली का आरोप है के संबंध में कुछ तथ्य।

यूपीए सरकार के कार्यकाल में.

* फरवरी 2013 में,  ऑगस्टा वेस्टलैंड को दिया 12 हेलीकॉप्टरों की खरीद का सौदा यूपीए सरकार ने ख़ारिज  कर दिया।

* यूपीए सरकार ने इस मामले की जाँच  करवाई, मुकदमा दर्ज हुआ, मामले को सीबीआई के हवाले सौंप भी दिया गया।

* 10 फरवरी 2014 को यूपीए  सरकार ने ऑगस्टा वेस्टलैंड को काली सूची, ब्लैक लिस्ट में डालने की की करवाई शुरू की और उसे 'Blacklist' कर दिया ।

* यूपीए सरकार ने ऑगस्टा वेस्टलैंड के भारतीय बैंको में जमा ₹ 240 करोड़ की बैंक गारंटी ज़ब्त कर, इटली की अदालत में केस लड़ा और £ 228 मिलियन की अंतराष्ट्रीय गारंटी भी ज़ब्त कर ली।

* Agusta Westland से UPA सरकार ने ₹ 1,620 Crore की राशि की तुलना में  ₹ 2,954  की राशि , यानि ₹1,334 Crore अधिक वसूले।

एनडीए  सरकार के कार्यकाल में.

* 2014 में सरकार बनने के बाद, 22 जुलाई 2014, को एनडीए सरकार ने ऑगस्टा वेस्टलैंड को काली सूची से बाहर निकाला। 

* अगस्त 2014 में  Agusta Westland को AW119 हेलीकॉप्टर बनाने के लिए विदेशी निवेश की इजाज़त दी।

* एनडीए सरकार ने ऑगस्टा वेस्टलैंड को मेक इन इंडिया का हिस्सा बनने के लिये निमंत्रण  दिया और नौसेना के लिए 100 Naval Utility हेलीकॉप्टर की खरीद की इजाज़त दी।

जिज्ञासा और कुछ सवाल.

* अगस्ता वेस्टलैंड पर ब्लैक लिस्टिंग क्यों हटाई गई?

* अगस्ता वेस्टलैंड को मेक इन इंडिया में हिस्सेदार क्यों बनाया गया?

* एफआईपीबी ने 119 हेलीकॉप्टर बनाने की इजाजत क्यों दी गयी?

* 2017 में नौसेना के लिए 100 हेलीकाप्टर निविदाओं में आवेदन करने की इजाजत क्यों दी गई ?

* इंटरनेशनल कोर्ट में केस हारने के बाद, ऊपरी अदालत में अपील क्यों नहीं की ?

© विजय शंकर सिंह

Saturday, 29 December 2018

भीड़ हिंसा पर सरकार की चुप्पी एक अराजक राज्य की ओर ले जाएगी / विजय शंकर सिंह

अराजक बनती भीड़ हिंसा तो हैरान करती ही है पर उस भीड़ हिंसा की अराजकता पर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या सत्ता में बैठे महत्वपूर्ण लोगों का मौन और अधिक हैरान करता है। यह मौन प्रच्छन्न रूप से उकसाता है भीड़ को जो करना है कर गुज़रो। जैसे ही गौरक्षकों के नाम पर सामुहिक हिंसा का ज्वर फैलने लगा था वैसे ही अगर इसे एक अपराध और कानून व्यवस्था की समस्या समझ कर प्रोफेशनल ढंग से लिया गया होता तो आज वह ज्वर वायरल होकर सन्निपात नही हो गया था। 


गोरक्षकों की भीड़ हिंसा से 50 लोग और बच्चा चोरी की अफवाहों से 30 लोगों की हत्या के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में फैसला देते हुए प्रिवेन्टिव, सुधारात्मक और दण्डात्मक कदमों की बात कही है। किसी व्यक्ति, समूह या भीड़ द्वारा इरादतन या गैर-इरादतन हत्या भारतीय दंड संहिता, यानी IPC के तहत अपराध है, के विषय मे  नए दिशा निर्देश  जारी करते हुए कहा है कि मॉब लिंचिंग की घटना होने पर तुरंत FIR, जल्द जांच और चार्जशीट, छह महीने में मुकदमे का ट्रायल,  अपराधियों को अधिकतम सज़ा, गवाहों की सुरक्षा, लापरवाह पुलिसकर्मियों के विरुद्ध कार्रवाई, पीड़ितों को त्वरित मुआवज़े जैसे कदम राज्यों द्वारा उठाए जाएं। यह निर्देश नए है। इन सभी विषयों पर सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी अनेक फैसले दिए हैं, जिन्हें लागू नहीं करने से भीड़ हिंसक अपराधियों का हौसले बढ़े है।


मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं को रोकने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और यूपी में गैंगस्टर एक्ट के प्रयोग किये जा सकते हैं।.लेकिन जब राजनीतिक संरक्षण की वजह से कश्मीर घाटी में पत्थरबाजों और हरियाणा में जाट आंदोलन के उपद्रवियों और सत्तारूढ़ दल के लोगों के विरुद्ध दर्ज मामले वापस हो जाते हैं तो इसका सीधा असर पुकिस के मनोबल पर पड़ता है। . सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि, " भीड़ हिंसा या मॉब लिंचिंग को पृथक अपराध बनाने के लिए संसद द्वारा नया कानून बनाया जाना चाहिए। " लेकिन समस्या कानून की कमी नहीं बल्कि राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छा शक्ति की कमी है। आज भी आईपीसी IPC की धारा 302, 304, 307, 308, 323, 325, 34, 120-बी, 141 और 147-149  और  CRPC की धारा  129  और  153 ऐसे अपराधों के लिए पर्याप्त प्रावधान हैं। पर हमने कानून को कानूनी तरह से लागू करने की आदत भी अब कम हो रही है। 


राजनीतिक दलों के संरक्षण की वजह से पुलिस कार्रवाई में हिचकती है। जब  गोरक्षक या मॉब लिंचिंग के अपराधियों को नेताओं का संरक्षण मिलता है, तो फिर पुलिस कार्रवाई कैसे करे...? बुलंदशहर हिंसा में सुबोध हत्याकांड की घटना में पुलिस की भूमिका देख लें। ऐसे घृणित अपराधों को संरक्षण दे रहे नेताओं को चुनाव के अयोग्य घोषित करते हुए, उनके विरुद्ध सख्त आपराधिक कार्रवाई यदि की जाए, तो फिर छुटभैये नेताओं की मॉब लिंचिंग की दुकान खुद-ब-खुद बंद हो जाएगी।


तुषार गांधी की एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 6 सितंबर, 2017 को राज्यों को मॉब लिंचिंग रोकने का आदेश दिया था।हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन नहीं करने की वजह से, उनके खिलाफ अवमानना का नोटिस भी जारी किया गया । कुछ आपराधिक सोच के नेताओं के संरक्षण में मॉब लिंचिंग एक संगठित उद्योग बन गया है, जिसके राजनीतिक दलों को ही ठोस  कार्रवाई करने की पहल करनी होगी।

.
पहले, प्रतापगढ़ में डीएसपी जियाउल हक, फिर मथुरा में एसपी द्विवेदी, फिर बुलंदशहर में इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह और अब ग़ाज़ीपुर में कॉन्स्टेबल सुरेश वत्स की ड्यूटी पर भीड़ द्वारा की गयी हत्या, और पुलिस के हमलों का एक बड़ा कारण है राजनीतिक दलों द्वारा पुलिस मजामत पर शातिर चुप्पी.। पुलिस एक व्यक्ति नहीं है यह सत्ता की प्रतिनिधि है बल्कि सरकार का एक चेहरा है। यह हमला सरकार पर है। बुलंदशहर हिंसा में सत्तारूढ़ दल के विधायक का पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या के बारे में अनर्गल और झूठे बयान और सरकार द्वारा उक्त विधायक के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करना, न ही उसके बयानों से पल्ला झाड़ लेना और न ही उस विधायक को चुप रहने के लिये कहना, उन सभी राजनीतिक दलों के असामाजिक और उद्दंड लोगों का मन बढ़ाता है जो राजनीति में केवल अपने अपराध छुपाने की गरज से आये हुये हैं। सरकार और राजनीतिक दलों को को एक बात समझ लेनी चाहिये कि अपराधी की कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं होती है और कानून के प्रति अवज्ञा का भाव उनके अंदर का स्थायी भाव होता है। वे राजनीति में बस पनाह के लिये आते हैं, न कि उस राजनीतिक दल की विचारधारा से प्रभावित होकर उसे लागू करने के लिये। जैसे ही उक्त राजनीतिक दल का छप्पर उजड़ने लगता है वे दूसरे छप्पर की तलाश में चल देते हैं। 


घटना चाहे बुलंदशहर की हो या गाजीपुर की, कहीं की भी हो, भीड़ हिंसा में चाहे इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह मारा जाय या सिपाही, सुरेश वत्स , एक बात साफ है कि इन दोनों हमलों में हिंसक भीड़ को यह पता है कि भीड़ की हिंसा पर कोई कानूनी कार्यवाही मुश्किल से होती है और भीड़ में असल अपराधी का छुप जाना आसान तथा उसकी पहचान कर के सज़ा दिलाना कठिन होता है। अपराधी सरकार और पुलिस की नब्ज पहचानता है। वह सरकार का रुख भी देखता है कि सरकार का क्या रवैय्या है ऐसी अराजक भीड़ हिंसा पर। रवैय्या साफ और स्पष्ट है कि भीड़ हिंसा के महिमामंडन का यह खेल जो पिछले कई साल से चल रहा है, उसके बारे में सरकार ने केवल मुआवजा घोषित करने के अलावा, ऐसी कोई कार्यवाही नहीं की जिससे भीड़ हिंसकों या पीट पीट कर माIर देने वालों के खिलाफ सरकार का रुख सख्त है यह पता लगे। बल्कि अपने नेताओं की भीड़ हिंसा को जायज़ ठहराने वाली बयान बाज़ी पर भी न तो किसी ने आपत्ति जताई और न ही कोई कार्यवाही की। पुलिस में भी यही सन्देश गया कि यह सरकार और यह सत्तारूढ़ दल की सहानुभूति अंदर खाने कहीं न कहीं ऐसे उद्दंड भीड़ हिंसकों के साथ है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो यह क्रम और चलेगा। इससे पुलिस मनोबल और अनुशासन पर भी बुरा असर पड़ रहा है। सरकार से अधिक पुकिस के बड़े अफसरो की जिम्मेदारी है कि वे इस कठिन समय मे पुलिस बल को एक सबल और विश्वसनीय नेतृत्व प्रदान करें।


© विजय शंकर सिंह

सार्वजनिक स्थलों पर उपासना और सुप्रीम कोर्ट का आदेश / विजय शंकर सिंह

जब सरकारे ऐसे आदेश देती हैं जिनको कानूनी रूप से पालन करना मुश्किल हो जाता है तो पुलिस को उन मूर्खतापूर्ण गैर कानूनी रास्तों का अनुसरण करना पड़ता है जो प्रथम दृष्टया ही हास्यास्पद और दुर्भावनपपूर्ण लगती हैं। नोयडा सेक्टर 58 में जिस पार्क में सरकार नमाज़ रोकना चाहती है, को कल पुलिस ने पानी से भरवा दिया। यही गनीमत मानिये कि उसे जगह जगह खोद नहीं दिया गया। भारी पुलिस बल का बंदोबस्त ऊपर से किया गया। कुछ गिरफ्तार हुए तो कुछ ने नमाज़ पढ़ने पढ़ाने से मना कर दिया। दिन टल गया। सब कुछ शांति से निपट गया।  पुलिस को तो सतर्क रहना होगा और रहेगी भी। अखबार और टीवी वाले उस खबरों की सनसनाहट की आशा लिये निराश लौटे। ग़ालिब के शब्दों में मीडिया के इस दुख को, कि जब वह सनसनी ढूंढने निकला हो और कोई खबर न मिले तो इसे इससे बेहतर तरीके से व्यक्त नहीं किया जा सकता है,
थी खबर गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्जे,
देखने हम भी गये, पै तमाशा न हुआ !!
अब अगले शुक्रवार को क्या होता है वह तो अगले शनिवार को ही पता लगेगा।

यह नहीं पता कि सरकार को यह इलहाम कहाँ से हुआ कि राष्ट्र निर्माण के लिये नोयडा सेक्टर 58 के पार्क में हो रही नमाज़ को रोकना ज़रूरी है। फिर भी सरकार का आदेश हुआ तो, आनन फानन में सचिवालय सक्रिय हो गया है। सचिव और सचिवालय की सबसे बड़ी खूबी और क्षमता यही है कि वह हर आदेश का तर्कपूर्ण कागज़ तुरन्त तैयार कर लेता है । ब्रिटिश राज ने दो सौ साल के शासन में देश को खूब लूटा। पर हर लूट उन्होंने कानून बना कर की । कानून शब्द कभी कभी निरुत्तर कर देता है। जब कागज़ों के पुलिंदे खंगाले जाने लगे तो, पता चला 2009 का एक सुप्रीम कोर्ट का आदेश है जिसके अनुसार किसी भी सार्वजनिक स्थल पर धार्मिक गतिविधियां नहीं होनी चाहिये। यह आदेश भी सुप्रीम कोर्ट के उसी निर्देश के अंतर्गत जारी किया गया है।

अब जरा सुप्रीम कोर्ट के उक्त निर्णय के बारे में जानकारी कर लें। सुप्रीम कोर्ट दिनांक 29 सितंबर 2009 को अहमदाबाद हाईकोर्ट के एक निर्णय की अपील पर एक फैसला सुनाती है कि सार्वजनिक जगहों पर अतिक्रमण कर के बने हुए मंदिर मस्जिद और दरगाहों को सरकार हटा लें ताकि लोगों को अतिक्रमण से मुक्ति मिले। इस प्रकरण की पृष्ठभूमि यह है कि टाइम्स ऑफ इंडिया के अहमदाबाद संस्करण में 2 मई 2006 के अखबार में एक समाचार छपता है कि अहमदाबाद शहर में कुल 1200 मंदिर, 260 इस्लामी इबादतगयाहें सार्वजनिक स्थलों पर अतिक्रमण कर के बनायी गयी हैं। जिससे लोगों को आवागमन में दिक्कतें हो रही हैं। इन देवस्थानों के कारण यातायात अवरुद्ध रहता है, और दुर्घटनाओं की संभावना बनी रहती है। पुलिस पर भी यातायात नियंत्रित करने में समस्याओं का सामना करना पड़ता है। अखबार में छपी इस खबर का हाईकोर्ट अहमदाबाद ने स्वतः संज्ञान लिया और इस मामले में कानूनी कार्यवाही शुरू की। अदालत ने 14 लोगों को नोटिस जारी की और एक अंतरिम आदेश जारी किया कि, सभी पक्षकार अपने अपने उपासना स्थल जो अतिक्रमण कर के बनाये गए हैं, हटा लें और अतिक्रमण हटा कर वस्तुस्थिति से हाईकोर्ट अहमदाबाद को अवगत करावें।

हाईकोर्ट के इस आदेश पर रोक लगाने के लिये सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गयी। सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार के एडीशनल सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम ने यह तर्क रखा कि हाईकोर्ट ने पहले नोटिस दे कर पक्षकारों को अदालत में अपना पक्ष रखने को कहा, फिर यह अंतरिम आदेश भी जारी कर दिया। अंतरिम आदेश की प्रकृति भी अंतिम आदेश की तरह है अतः हाईकोर्ट के उक्त अंतरिम आदेश को रोक दिया जाय और सुप्रीम कोर्ट सभी पक्ष को सुनकर अंतिम निर्णय दे। तब सुप्रीम कोर्ट ने अहमदाबाद हाईकोर्ट के उक्त आदेश को रोक दिया और मामले की सुनवायी की।

31 जुलाई 2009 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना निर्णय सुनाया और निम्न निर्देश जारी किये,

* किसी भी दशा में सरकार किसी भी अनधिकृत स्थान, सार्वजनिक स्थल, सड़क, सार्वजनिक पार्क, या अन्य सार्वजनिक स्थान पर किसी मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारा, चर्च आदि के निर्माण के लिये अनुमति नहीं देगी।

* यदि किसी धर्मस्थल का किसी अनधिकृत स्थल पर निर्माण किया जा रहा है तो उसे उक्त धर्मस्थल विशेष के बारे में अध्ययन कर के उसे रुकवाने के लिये राज्य सरकारें और केंद्र प्रशासित क्षेत्र अग्रिम आवश्यक कार्यवाही करें।

सुप्रीम कोर्ट के यह निर्देश भारत सरकार द्वारा इसी आशय के दिये गए हलफनामे पर आधारित था, जो सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों से एकत्र सूचना और उनकी राय पर आधारित था।

नोयडा के सेक्टर 58 के सार्वजनिक पार्क में होने वाली नमाज़ को रोकने के लिये सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले को आधार बनाया गया है। इस फैसले के दिये निर्देश के अनुसार, सेक्टर 58 के सार्वजनिक पार्क में धार्मिक गतिविधियां रोकी जा सकती है। इसी आदेश के अनुपालन के लिये नोयडा प्रशासन ने सभी 23 कम्पनियों को, जिनके कर्मचारियों के बारे में कहा जाता है कि वे नमाज़ पढ़ने जाते हैं यह नोटिस जारी करके यह निर्देश दिया गया कि वे अपने कर्मचारियों को यह हिदायत दें कि वे सार्वजनिक पार्क में नमाज़ न पढ़े। कम्पनियों ने सरकार का आदेश से अपने कर्मचारियों को अवगत करा दिया। लेकिन कम्पनियों को यह अधिकार नहीं प्राप्त है कि वह किसी को किसी स्थान विशेष पर उपासना करने से रोक दें।

कल 28 दिसंबर को शुक्रवार था। उम्मीद थी कि लोग भारी संख्या में नमाज़ के लिये सेक्टर 58 के पार्क में जुटेंगे। पर ऐसा नहीं हुआ और मुसलमानों ने भी ऐसी जगह जहां नमाज़ की अनुमति नहीं है, नमाज़ पढ़ने से मना कर दिया। पर फिर भी कुछ लोग नमाज़ पढ़े, कुछ हिरासत में भी लिये गये और सब कुछ शांति से निपट गया। खबर है कि तीन कम्पनियों ने नमाज के लिये जगह भी उपलब्ध कराने की बात की है और उन कम्पनियों ने अपनी छतों पर नमाज़ के लिये जगहें भी दी हैं।

यह आदेश बिल्कुल सही है कि कोई भी उपासना स्थल किसी अनधिकृत और अतिक्रमण कर के कब्ज़ियाये गये ज़मीन पर नहीं होना चाहिये। पर शायद की कोई शहर हो जहां पर अनधिकृत रूप से बने मंदिर, दरगाहें आदि न मौजूद हों। दरगाहें तो रेलवे ट्रैक के बीच मे भी मैंने कई जगहों पर देखीं है। कुछ तो धार्मिक आस्था और कुछ धर्म का भय इन अतिक्रमण को मान्यता दिलाते हुए इन्हें बनाये रखता है। कभी जब सड़कें चौड़ी करनी होती हैं, या नया रेलवे ट्रैक बनाना होता है या फ्लाई ओवर पुल बनाना होता है तो अवैध बने ये उपासनास्थल कानून व्यवस्था की समस्या उतपन्न कर देते हैं।

नोयडा सेक्टर 58 के पार्क में नमाज़ पर रोक के साथ ही गौतम बुद्ध नगर के ही ग्रेटर नोयडा शहर में सेक्टर 37 में भी एक पार्क में एक धर्मिक आयोजन को लेकर विवाद खड़ा हो गया। वहां कोई नमाज़ का मसला नहीं था, बल्कि वहां मामला भागवत कथा का था। भागवत कथा को भी इसी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अंतर्गत रोका गया। यह आदेश अगर सचमुच में नोयडा के सेक्टर 58 के पैटर्न और इरादे के आधार पर लागू किया गया तो अक्सर होने वाले धार्मिक समारोह, दुर्गा पूजा, गणपति पूजा, रामलीलाएं , रासलीलाएं, भागवत या रामकथा के आयोजन, भी बाधित होंगे या इन्हें लेकर आयोजकों और प्रशासन में विवाद भी उठेगा। क्योंकि अधिकतर सार्वजनिक पूजा पंडाल और कथा वार्ताएं अक्सर पार्कों , यातायात द्वीपों, चौड़ी सड़कों के एक किनारे को घेर कर ही की जाती हैं। सार्वजनिक पार्क तो ऐसे आयोजनों की सबसे प्रमुख पसंद होते हैं। सरकार कोई ऐसा आदेश या निर्देश लिखित रूप से दे भी नहीं सकती कि केवल जुमा की नमाज़ को ही रोका जाए और शेष आयोजनों को होने दिया जाय। ऐसा आदेश, आदेश देने वाला भी समझता है कि अवैध आदेश है और वह अदालत में चैलेंज हो जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट का 2009 का यह आदेश उचित है और इसका पालन, बेहतर शहरी जीवन, प्रदूषण रहित वातावरण, और कानून व्यवस्था के लिहाज से सरकारों द्वारा किया जाना चाहिये। धार्मिक गतिविधियों को उनके लिये निर्दिष्ट स्थान में ही किया जाना चाहिये। सरकार को यह भी चाहिये कि वह उपासनास्थल के निर्माण या धार्मिक गतिविधियों के लिए विभिन्न धर्मों और आस्था के अनुसार स्थान भी उपलब्ध करावे। सार्वजनिक पार्कों के लिये, क्या करें क्या न करें के नियम बनाये जांय, उन्हें पार्को के गेट पर प्रदर्शित किया जाय, नियमानुसार प्रवेश और पार्को का उपयोग हो ताकि पार्क भी सुव्यवस्थित रहें और उनका दुरूपयोग भी न हो। यातायात द्वीपों, और सड़कों को भी किसी भी धार्मिक पर्व पर या विवाह आदि उत्सवों में उनका अतिक्रमण न होने दें । साथ ही अतिक्रमण कर के अवैध बने स्थलों को भी सम्मान पूर्वक कहीं स्थानांतरित करने पर विचार किया जाय। वैसे सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का पालन आसान नहीं है। इसके लिये एकं दृढ़ इच्छाशक्ति वाली सरकार की ज़रूरत हैं अन्यथा इस आदेश का अनुपालन समस्याओं का समाधान कम, समस्याएं अधिक पैदा करेगा।

© विजय शंकर सिंह