श्रीदेवी चली गयी। वही जहां से सब आते हैं और जहाँ सब चले जाते हैं। मृत्यु दुःखद होती ही है। उनकी मृत्यु पर उनको चाहने वालों को दुख है और यह स्वाभाविक भी है।पर एक सवाल उनकी अंत्येष्टि को ले कर उठ रहा है कि उनका राजकीय सम्मान से अंत्येष्टि क्यों की गयी ? खबरों से पता चलता है महाराष्ट्र सरकार ने राजकीय सम्मान की घोषणा की थी। सरकार की इस घोषणा पर कोई ऐतराज नहीं है क्योंकि यह सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है कि वह किसे राजकीय सम्मान दे और किसे न दे। लेकिन सरकार के इस निर्णय पर लोग सवाल उठा रहे हैं कि श्रीदेवी को क्यों यह प्रोटोकॉल दिया गया ?
देश मे सबसे पहली बार राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार की घोषणा महात्मा गांधी के लिये की गयी थी। तब तक अंतिम संस्कार के राजकीय सम्मान का प्रोटोकॉल और दिशा निर्देश नहीं बने थे। पहलीं बार एक निर्देश 1950 में बना, और तब यह सम्मान केवल प्रधानमंत्री, पूर्व प्रधानमंत्रीगण, केन्द्रीय मंत्रिमंडल के वर्तमान और भूतपूर्व सदस्यगण, के लिये ही था। यह नियम सरदार बल्लभ भाई पटेल की मृत्यु के पहले ही बना था। सरदार का भी अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान से हुआ था। फिर इस सूची में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, उपसभापति राज्यसभा , ( वर्तमान और भूतपूर्व ) भी जोड़े गए। इसके बाद राज्यो को अपने अपने राज्यों में राज्यपाल, मुख्यमंत्री, और मंत्रिमंडल के सदस्यों ( वर्तमान और भूतपूर्व ) के अंतिम संस्कार को भी राजकीय सम्मान से करने की अनुमति दे दी गयी।
1972 में इलाहाबाद में स्वतंत्रता सेनानियों का एक बृहद सम्मेलन आयोजित हुआ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उस सम्मेलन का उद्घाटन किया था। उसी सम्मेलन में स्वतंत्रता सेनानियों को ताम्रपत्र दिया गया और उन्हें भी उनकी मृत्यु होने पर राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार किये जाने का आदेश दिया गया। अभी भी स्वाधीनता संग्राम सेनानियों का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान से किया जाता है। हालांकि अब स्वतंत्रता सेनानी बहुत कम ही ज़ीवित होंगे। तभी उनके आश्रितों को सरकारी सेवा में कुछ आरक्षण देने का भी निर्णय हुआ । लेकिन यह आरक्षण उत्तर प्रदेश में तो लागू है पर अखिल भारतीय स्तर पर लागू नहीं है।
सेना में कर्तव्य पालन के दौरान होने वाली मृत्यु पर भी राजकीय सम्मान दिया जाता है। पर इसे सैनिक सम्मान कहते हैं। युद्ध के दौरान होने वाली मृत्यु और अन्य कर्तव्य पालन के दौरान होने वाली मृत्यु में भी अंतर है। जब तक सरकार युद्ध की घोषणा न कर दे तब तक अगर कोई सैनिक कर्तव्य पालन में मरता है तो, उसे युद्ध के नियमों के अनुसार शहीद नहीं माना जाता। युद्ध के दौरान होने वाले शहीदों और युद्धबंदियों के लिये जेनेवा कन्वेंशन के प्राविधान लागू होते है। उनके वीरता पदक भी, वीर चक्र, महावीर चक्र, और परमवीर चक्र अलग होते हैं जब कि अयुद्ध काल मे वीरता के लिये अशोक चक्र का प्राविधान है। पुलिस सेवाओं में पुलिस जन की कर्तव्य पालन में हुयी मौतों को भी राजकीय सम्मान देने की परंपरा है।
राजकीय सम्मान से होने वाले अंतिम संस्कार के सारे बन्दोबस्त राज्य सरकार करती है। शव को अंत्येष्टि स्थल तक ले जाने और अंतिम संस्कार का सारा कर्मकांड सरकार के ही खर्चे पर होता है। शव को राष्ट्रीय ध्वज से सम्मान पूर्वक ढंका जाता है और ठीक अंत्येष्टि के पूर्व सम्मान पूर्वक आर्म्ड गार्ड की सलामी और लास्ट पोस्ट की धुन के बाद सम्मान पूर्वक शव से हटा लिया जाता है।
बाद में राजकीय सम्मान में एक प्राविधान यह जोड़ा गया कि, उपरोक्त महानुभाओं के अतिरिक्त राज्य सरकार अपने विवेक से जिसे चाहे उसे यह सम्मान दे सकती है। ऐसा विवेकाधिकार राज्य और केंद्र सरकार को इस लिये दिया गया कि कुछ महानुभाव बिना किसी पद पर रहे भी देश और राज्य के लिये सम्मनित रहे हैं और उनका योगदान भी अपने अपने क्षेत्रों में कम नहीं रहा है भले ही वे सार्वजनिक जीवन से दूर और एकाकी रहे हों। उनका योगदान समाज औऱ देश के लिये किसी भी पदधारक बीआईपी से कम नहीं होता है। इसी लिये नियमों को शिथिल कर के विशेष परिस्थितियों में राजकीय सम्मान प्रदान करने का अधिकार सरकार को दिया गया। सरकार का यह मानना है कि, यह सरकार का विवेक और विषेधाधिकार है कि वह यह अपने विवेक से यह निर्णय ले कि राजकीय सम्मान से अंत्येष्टि मृतक महानुभाव की सामाजिक हैसियत और देश के प्रति उसके योगदान को देखते हुये दे। इस विवेकाधिकार / विशेषाधिकार का प्रयोग मुख्यमंत्री अपने वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों की सलाह से करता है और फिर इसके आदेश सम्बंधित जिला मैजिस्ट्रेट और पुलिस प्रमुख को भेजे जाते हैं जो इसका अनुपालन करते हैं।
राजनीतिक क्षेत्रों के अतिरिक्त जिन महत्वपूर्ण लोगों को यह सम्मान दिया गया है उनमें ये नाम प्रमुख है। मदर टेरेसा (1997)
पूर्व मुख्य न्यायाधीश भारत, न्यायमूर्ति वाय वी चंद्रचूड़ (2008), गंगूबाई हंग़ल (2009), भीमसेन जोशी (2011) सत्य साईं बाबा ( 2011), बाल ठाकरे (2012), सरबजीत सिंह (2013), मार्शल ऑफ द एयरफोर्स अर्जन सिंह (2017)। यह सूची और लंबी है। मैने कुछ ही नामों का उल्लेख किया है।
मदर टेरेसा को यह सम्मान उनके सेवा कार्यो के लिये सत्य साईं बाबा को उनकी आध्यात्मिक हैसियत के लिये दिया गया था। श्रीदेवी को भी महाराष्ट्र सरकार ने राजकीय सम्मान इसी विवेकाधिकार के अंर्तगत दिया है। सरकार ने जनता में श्रीदेवी की लोकप्रियता को इस सम्मान का मापदंड बताया है।
विषेधाधिकार एक असामान्य प्राविधान है जो असामान्य परिस्थितियों में ही सरकार या किसी अधिकारी को यह अधिकार देता है कि वह अपने विवेक से युक्तियुक्त निर्णय ले। पर सामान्यतया ऐसे विशेष प्राविधान का दुरुपयोग भी होता है। शासन में हर परिस्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती है। कभी न कभी ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है जब कि उस से निपटने के लिये कोई भी प्राविधान कानून की किताब में नहीं होता है। तब प्रशासक परम्पराओं का दराज खंगालता है और सबसे उपयुक्त और तार्किक परम्परा को ढूंढ कर समस्या का समाधान करता है। जब परम्पराएं भी नहीं मिलती हैं तो विवेक से ऐसा निर्णय लेता है जो उसी समय और परिस्थिति के लिये उसे उपयुक्त लगता है। बाद में फिर उसी परिस्थिति से निपटने के लिये कानून बनता है । फिर भी कानून में ही यह विवेकाधिकार / विशेषाधिकार रखा जाता है जो असामान्य परिस्थितियों के लिये होता है। विशेषाधिकार जिसे अंग्रेज़ी में डिस्क्रिशन कहते हैं वह कोई नियम नहीं होता बल्कि समस्या के समाधान के लिये एक अपवाद स्वरूप प्राविधान होता है।
अब यह सरकार और उस अधिकारी का, जिसे यह विवेकाधिकार प्राप्त है का दायित्व है कि वह अपने विवेक का युक्तियुक्त प्रयोग करें, जिस से विवेकाधिकारों पर कोई विवाद उत्पन्न न हो।
© विजय शंकर सिंह