Sunday, 31 July 2016

मुंशी प्रेमचंद जयंती पर उनकी एक प्रसिद्ध कहानी - कफ़न

आज 31 जुलाई है। वाराणसी के लमही गाँव में हिंदी साहित्य के इस अनुपम कथा शिल्पी का जन्म हुआ था। उनकी कहानियों का संसार मानसरोवर के आठ भागों में फैला हुआ है। कफ़न एक कालजयी रचना है। आज उनके जन्म दिवस पर उनका विनम्र स्मरण करते हुए उनकी यह कहानी प्रस्तुत है। 

'कफ़न' प्रेमचंद की अन्तिम कहानी है, जो चांद हिन्दी पत्रिका के अप्रेल, 1936 के अंक में प्रकाशित हुई थी। प्रेमचंद ने पहले इसे उर्दू में लिखा था और उर्दू पत्रिका के 'जामियां' के दिसम्बर, 1935 के अंक में छपी थी। यह एक मात्र ऐसी कहानी है, जिसके प्रकाशन की स्वर्ण जयंती 1986 में वर्ष भर मनाई गई।

प्रचलित लोकरीत के अनुसार मुर्दा चाहे जिसी भी धर्म, जाति, समुदाय अथवा वर्ग का हो, उसे रात में जलाया ही नहीं जाता है। अगर किसी की मृत्यु दिन छिपने पर हो जाती है, लाश को रात भर रखा जाता है और दूसरे दिन मृतक का दाह संस्कार किया जाता है। इसके दो व्यावहारिक पहलू है। धर्म की दृष्टि से यह पाप है और अनिष्ट की श्रेणी में आता है। व्यवहार की दृष्टि से रात में दाह संस्कार करने से दिवंगत का क्रियाकर्म ठीक से नहीं हो पाता है। 
- vss 


प्रेमचंद की एक प्रसिद्ध कहानी,
कफ़न ।

झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीबी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था।
घीसू ने कहा-मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ।
माधव चिढक़र बोला-मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूँ?
‘तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!’
‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।’
चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना काम-चोर था कि आध घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता। इसलिए उन्हें कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। घर में मुठ्ठी-भर भी अनाज मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढक़र लकडिय़ाँ तोड़ लाता और माधव बाजार से बेच लाता और जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर-उधर मारे-मारे फिरते। गाँव में काम की कमी न थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर इन दोनों को उसी वक्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता। अगर दोनो साधु होते, तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिलकुल जरूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए जिये जाते थे। संसार की चिन्ताओं से मुक्त कर्ज से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई गम नहीं। दीन इतने कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे देते थे। मटर, आलू की फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते या दस-पाँच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी आकाश-वृत्ति से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद-चिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी खेत से खोद लाये थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए, देहान्त हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जब से यह औरत आयी थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी। जब से वह आयी, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकडऩे भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निब्र्याज भाव से दुगुनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाए, तो आराम से सोयें।
घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा-जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है!
माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ कर देगा। बोला-मुझे वहाँ जाते डर लगता है।
‘डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।’
‘तो तुम्हीं जाकर देखो न?’
‘मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं; और फिर मुझसे लजाएगी कि नहीं? जिसका कभी मुँह नहीं देखा, आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूँ! उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी!’
‘मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!’
‘सब कुछ आ जाएगा। भगवान् दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।’
जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था। हाँ, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहाँ उसकी मण्डली के और लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गाँव उँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते! दोनों आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नहीं खाया था। इतना सब्र न था कि ठण्डा हो जाने दें। कई बार दोनों की जबानें जल गयीं। छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज्यादा खैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुँच जाए। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफी सामान थे। इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते। हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते।
घीसू को उस वक्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताजी थी, बोला-वह भोज नहीं भूलता। तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला। लडक़ी वालों ने सबको भर पेट पूडिय़ाँ खिलाई थीं, सबको! छोटे-बड़े सबने पूडिय़ाँ खायीं और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोज में क्या स्वाद मिला, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज चाहो, माँगो, जितना चाहो, खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पिया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म, गोल-गोल सुवासित कचौडिय़ाँ डाल देते हैं। मना करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिये जाते हैं। और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान-इलायची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी? खड़ा हुआ न जाता था। चटपट जाकर अपने कम्बल पर लेट गया। ऐसा दिल-दरियाव था वह ठाकुर!
माधव ने इन पदार्थों का मन-ही-मन मजा लेते हुए कहा-अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता।
‘अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। सादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोरकर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ, खर्च में किफायत सूझती है!’
‘तुमने एक बीस पूरियाँ खायी होंगी?’
‘बीस से ज्यादा खायी थीं!’
‘मैं पचास खा जाता!’
‘पचास से कम मैंने न खायी होंगी। अच्छा पका था। तू तो मेरा आधा भी नहीं है।’
आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हों।
और बुधिया अभी तक कराह रही थी।
सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी। उसके मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। पथराई हुई आँखें ऊपर टँगी हुई थीं। सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था।
माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे।
मगर ज्यादा रोने-पीटने का अवसर न था। कफ़न की और लकड़ी की फिक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोंसले में माँस?
बाप-बेटे रोते हुए गाँव के जमींदार के पास गये। वह इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे। कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे। चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए। पूछा-क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखलाई भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता।
घीसू ने जमीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा-सरकार! बड़ी विपत्ति में हूँ। माधव की घरवाली रात को गुजर गयी। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गयी। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा मालिक! तबाह हो गये। घर उजड़ गया। आपका गुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा। हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में उठ गया। सरकार ही की दया होगी, तो उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ।
जमींदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह दें, चल, दूर हो यहाँ से। यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है। हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड देने का अवसर न था। जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिए। मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो।
जब जमींदार साहब ने दो रुपये दिये, तो गाँव के बनिये-महाजनों को इनकार का साहस कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिये, किसी ने चारे आने। एक घण्टे में घीसू के पास पाँच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी। कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकड़ी। और दोपहर को घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बाँस-वाँस काटने लगे।
गाँव की नर्मदिल स्त्रियाँ आ-आकर लाश देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।
बाज़ार में पहुँचकर घीसू बोला-लकड़ी तो उसे जलाने-भर को मिल गयी है, क्यों माधव!
माधव बोला-हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिए।
‘तो चलो, कोई हलका-सा कफ़न ले लें।’
‘हाँ, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जाएगी। रात को कफ़न कौन देखता है?’
‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।’
‘कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।’
‘और क्या रखा रहता है? यही पाँच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।’
दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाजार में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस बजाज की दूकान पर गये, कभी उसकी दूकान पर! तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि शाम हो गयी। तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुँचे। और जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गये। वहाँ जरा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे। फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा-साहूजी, एक बोतल हमें भी देना।
उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्तिपूर्वक पीने लगे।
कई कुज्जियाँ ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गये।
घीसू बोला-कफ़न लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो न जाता।
माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो-दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बाँभनों को हजारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!
‘बड़े आदमियों के पास धन है, फ़ूँके। हमारे पास फूँकने को क्या है?’
‘लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफ़न कहाँ है?’
घीसू हँसा-अबे, कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये। बहुत ढूँढ़ा, मिले नहीं। लोगों को विश्वास न आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे।
माधव भी हँसा-इस अनपेक्षित सौभाग्य पर। बोला-बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो खूब खिला-पिलाकर!
आधी बोतल से ज्यादा उड़ गयी। घीसू ने दो सेर पूडिय़ाँ मँगाई। चटनी, अचार, कलेजियाँ। शराबखाने के सामने ही दूकान थी। माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया। पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया। सिर्फ थोड़े से पैसे बच रहे।
दोनों इस वक्त इस शान में बैठे पूडिय़ाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो। न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी की फ़िक्र। इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था।
घीसू दार्शनिक भाव से बोला-हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा?
माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक़ की-जरूर-से-जरूर होगा। भगवान्, तुम अन्तर्यामी हो। उसे बैकुण्ठ ले जाना। हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला वह कभी उम्र-भर न मिला था।
एक क्षण के बाद माधव के मन में एक शंका जागी। बोला-क्यों दादा, हम लोग भी एक-न-एक दिन वहाँ जाएँगे ही?
घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया। वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा न डालना चाहता था।
‘जो वहाँ हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफ़न क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे?’
‘कहेंगे तुम्हारा सिर!’
‘पूछेगी तो जरूर!’
‘तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!’
माधव को विश्वास न आया। बोला-कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में तो सेंदुर मैंने डाला था।
‘कौन देगा, बताते क्यों नहीं?’
‘वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया। हाँ, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएँगे।’
‘ज्यों-ज्यों अँधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज होती थी, मधुशाला की रौनक भी बढ़ती जाती थी। कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपटा जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्हड़ लगाये देता था।
वहाँ के वातावरण में सरूर था, हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाएँ यहाँ खींच लाती थीं और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं। या न जीते हैं, न मरते हैं।
और यह दोनों बाप-बेटे अब भी मजे ले-लेकर चुसकियाँ ले रहे थे। सबकी निगाहें इनकी ओर जमी हुई थीं। दोनों कितने भाग्य के बली हैं! पूरी बोतल बीच में है।
भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडिय़ों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा इनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था। और देने के गौरव, आनन्द और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया।
घीसू ने कहा-ले जा, खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गयी। मगर तेरा आशीर्वाद उसे जरूर पहुँचेगा। रोयें-रोयें से आशीर्वाद दो, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं!
माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा-वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी।
घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला-हाँ, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं?
श्रद्धालुता का यह रंग तुरन्त ही बदल गया। अस्थिरता नशे की खासियत है। दु:ख और निराशा का दौरा हुआ।
माधव बोला-मगर दादा, बेचारी ने जिन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा। कितना दु:ख झेलकर मरी!
वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा। चीखें मार-मारकर।
घीसू ने समझाया-क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गयी, जंजाल से छूट गयी। बड़ी भाग्यवान थी, जो इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिये।
और दोनों खड़े होकर गाने लगे-
‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी।
पियक्कड़ों की आँखें इनकी ओर लगी हुई थीं और यह दोनों अपने दिल में मस्त गाये जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, अभिनय भी किये। और आखिर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े।

Saturday, 30 July 2016

एक कविता ,... कहा करते थे , अक्सर तुम / विजय शंकर सिंह




कहा करते थे,
अक्सर तुम
कितनी खूबसूरत है ,
मेरी हंसी !

अब
जब चले गए हो दूर
मुझ से ,
समेट ले गए सारी हंसी ,

ठीक ही किया , तुमने,
जिसे पसंद है, जो ,
छोड़ नहीं पाता उसे.
ले गए हंसी ,
जो पसंद थी बेहद तुम्हे !!

मैं संजोये ,
तुम्हारी यादों को ,
खोखली मुस्कान ओढ़े,
वापस पाने की उम्मीद संजोये
खोयी हुयी हंसी
के तलाश में ,
दर ब दर भटक रहा हूँ
आज भी !!

काश ! 
तुम समझ पाते ,
जो हंसी,
मेरे अधरों पर खेलती हुयी ,
तुम्हे पसंद है, 
वह कुछ और नहीं ,
शांत झील में तैरता हुआ
तेरा ही अक़्स है !!
-vss.


Friday, 29 July 2016

भीष्म को क्षमा नहीं किया गया - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक निबंध / विजय शंकर सिंह

आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य परम्परा के अंतिम आचार्य थे । उन्होंने हिंदी साहित्य की सभी विधाओं पर साधिकार लिखा हैब। उपन्यासों में बाणभट्ट की आत्म कथा, चारु चंद्र लेख, अनाम दास का पोथा, आलोचना में कबीर, और ललित निबंधों में कुटज उनकी प्रसिद्ध रचना है । 1974 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में राम चरित मानस की चार सौवीं जयन्ती मनायी जा रही थी कला संकाय के प्रेक्षा गृह में, आयोजन था । देश और विदेश से हिंदी के उद्भट विद्वान् जूटे थे । प्रथम सत्र का प्रथम व्याख्यान आचार्य जी को ही देता था । मंच पर डॉ नामवर सिंह भी उपस्थित थे और डॉ शिवप्रसाद सिंह भी । विद्वान हों और खेमा न बंटे यह संभव ही नहीं । डॉ नामवर सिंह, प्रखर मार्क्सवादी चिंतन के आलोचक और दूसरी तरफ लोहियवादी समाजवाद की विचारधारा के लोग । मैं इतिहास से एमए कर के शोध छात्र के रूप में पंजीकरण के लिए प्रयासरत था । सभागार के ही एक कोने में मित्रों सहित मैं भी बैठा था । मेरे मित्र मार्क्सवादी भी थे और लोहियाइट भी । मानस की पंक्तियाँ , मुकेश के स्वर में परिसर में सुबह से ही गूँज रही थी । तुलसी चार सौ साल बाद भी प्रासांगिक हैं या नहीं , प्रथम दिन इसी विषय, मानस की प्रासांगिकता पर बहस होनी थी । सुबह 10 बजे आचार्य जी ने बोलना शुरू किया और तीन घण्टे तक बिना रुके ज्ञान गंगा बहती रही । आज उन्ही आचार्य हजारी प्रसास द्विवेदी का यह लेख पढ़े । लेख भीष्म पर है । भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के कारण जाने तो जाते हैं पर इतिहास अत्यंत विराट व्यक्तित्व की भी चीड़फाड़ करता है । यह लेख प्रासंगिक है या नहीं यह आप तय करते रहिये । 
- vss.



भीष्म को क्षमा नहीं किया गया
( आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी )

नारद जी भी ब्रह्मचारी थे। उन्होंने सत्य के बारे में शब्दों पर चिपटने को नहीं, सबके हित या कल्याण को अधिक जरूरी समझा था – सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत। भीष्म ने दूसरे पक्ष की उपेक्षा की थी। वह ‘सत्यस्य वचनम’ को ‘हित’ से अधिक महत्त्व दे गए। श्रीकृष्ण ने ठीक इससे उलटा आचरण किया। प्रतिज्ञा में ‘सत्यम वचनम्’ की अपेक्षा ‘हितम’ को अधिक महत्त्व दिया। क्या भारतीय सामूहिक चित्त ने भी उन्हें पूर्वावतार मानकर इसी पक्ष को अपना मौन समर्थन दिया है?…
एक मित्र हैं, बड़े विद्वान, स्पष्टवादी और नीतिमान। वह इस राज्य के बहुत प्रतिष्ठित नागरिक हैं। उनसे मिलने से सदा नई स्फूर्ति मिलती है। यद्यपि वह अवस्था में मुझसे छोटे हैं, तथापि मुझे सदा सम्मान देते हैं। इस देश में यह एक अच्छी बात है कि सब प्रकार से हीन होकर भी यदि कोई उम्र में बड़ा हो, तो थोड़ा-सा आदर पा ही जाता है। मैं भी पा जाता हूं। मेरे इस मित्र की शिकायत थी कि देश की दुर्दशा देखते हुए भी मैं कुछ कह नहीं रहा हूं, अर्थात इस दुर्दशा के लिए जो लोग जिम्मेदार हैं उनकी भर्त्सना नहीं कर रहा हूं। यह एक भयंकर अपराध है। कौरवों की सभा में भीष्म ने द्रौपदी का भयंकर अपमान देखकर भी जिस प्रकार मौन धारण किया था, वैसे ही कुछ मैं और मेरे जैसे कुछ अन्य साहित्यकार चुप्पी साधे हैं। भविष्य इसे उसी तरह क्षमा नहीं करेगा जिस प्रकार भीष्म पितामह को क्षमा नहीं किया गया। मैं थोड़ी देर तक अभिभूत होकर सुनता रहा और मन में पाप बोध का भी एहसास हुआ। सोचता रहा, कुछ करना चाहिए, नहीं तो भविष्य क्षमा नहीं करेगा। वर्तमान ही कौन क्षमा कर रहा है? काफी देर तक मैं परेशान रहा – चुप रहना ठीक नहीं है, कंबख्त भविष्य कभी माफ नहीं करेगा। उसकी सीमा भी तो कोई नहीं है। पाच हजार वर्ष बीत गए और अब तक विचारे भीष्म पितामह को क्षमा नहीं किया गया। भविष्य विकट असहिष्णु है। काफी देर बाद भ्रम दूर हुआ। मैं भीष्म नहीं हूं। अगर हिंदी में लिखने वाला कोई भीष्म हो जाता हो, तो भी मुझे कौन पूछता है? बहुत ज्ञानी गुणी भरे पड़े हैं। मुझसे अवस्था में, ज्ञान में, प्रतिभा में बहुत आगे। मुझे कोई डर नहीं है। ‘भविष्य’ नामक महादुरंत अज्ञात मुझे किसी गिनती में लेने वाला नहीं है। डरना हो तो वे ही लोग डरें, जिनकी गिनती हो सकती है। तुम क्यों घबराते हो, मनसा राम, तुम तो न तीन में, न तेरह में। बड़ी राहत मिली इस यथार्थ बोध से। मगर यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि थोड़ी देर के लिए ही सही, भीष्म मुझ पर छाए रहे।
प्राचीनकाल में भीष्म जैसा धर्मज्ञ और ज्ञानी खोजना कठिन है। महाभारत का शांतिपर्व इसका गवाह है। कोई समस्या तो भले आदमी ने छोड़ी नहीं। प्राचीन काल के ज्ञानियों में भीष्म मुझे सबसे अधिक प्रभावित करते हैं, अपने अगाध इतिहास बोध के कारण। युधिष्ठिर के हर प्रश्न के उत्तर में वह प्रायः यह कहकर शुरू करते हैं – ‘अत्राप्युदाहरन्तीमितिहासं पुरातनम।’(यहां भी लोग इस पुराने इतिहास की नजीर देते हैं।) किस प्रकार पुराने इतिहास से वह वर्तमान समस्या के सही स्वरूप का उद्घाटन करते हैं और उसका विकासक्रम समझा देते है, वह चकित कर देता है। हर प्रश्न के तह में जाने की उनकी पद्धति आधुनिक युग में भी उपयोगी है। ज्ञान और धर्म के सच्चे रूप को पहचानने में उन्हें कमाल की सफलता मिली थी। यह कहना गलत होगा कि भीष्म के प्रति भारतवर्ष ने कृतज्ञता नहीं दिखाई। आज भी श्रद्धावान लोग भीष्माष्टमी को अपनी श्रद्धा उनके प्रति निवेदन करते ही हैं, परंतु जिस समय मेरे मित्र अत्यंत प्रभावशाली शैली में भीष्म को मेरे ऊपर आरोपित कर रहे थे, उस समय थोड़ी देर के लिए भीष्म का आवेश सचमुच मेरे ऊपर आ गया था। प्रभावशाली भाषा में जादुई शक्ति होती है। उसी से कवि पाठक को अभिभूत करता है, वक्ता उसी के बल पर श्रोता पर छा जाता है। मैं भी कुछ आविष्ट हुआ। भी?म की ही शैली में बोलने की प्रेरणा जाग्रत हुई थी… ‘अत्राप्युदाहरन्तीमितिहासं पुरातनम।’ एक पुराना इतिहास मुझे भी स्मरण हो आया था। वह इतिहास यह है। बात सन् 1935-36 की है। उन दिनों मैं शांतिनिकेतन में था। एक दिन प्रातः भ्रमण के लिए निकला था। मैं साधारणतः प्रातः भ्रमण के लिए तभी निकलता हूं, जब किसी ऐसे उत्साही घुमक्कड़ से, जो श्रद्धेय कोटि के होते हैं, प्रेरणा मिलती है। उन दिनों श्रद्धेय आचार्य क्षितिमोहन सेन की प्रेरणा से प्रातः भ्रमण के लिए निकलता था। सही बात तो यह है कि निकलते वह थे, मैं पीछे हो लेता था। तो उस दिन भी मैं उनके साथ ही निकला। भाग्य उस दिन प्रसन्न था। देखा, गुरुदेव धीरे-धीरे अपने बगीचे में टहल रहे थे। कुछ गंभीर मुद्रा में थे। आचार्य सेन ने कहा, ‘चलो प्रणाम कर लें।’ वह आगे चले, मैं पीछे पीछे। धीरे-धीरे दबे पांव हम लोग उनके पास पहुंच गए। चरण छूकर प्रणाम निवेदन किया। उनका ध्यान भंग हुआ। देखकर प्रसन्न हुए। उन्होंने उस दिन मुझे संबोधित करके कहा – तुमने कभी सोचा है कि भीष्म को अवतार क्यों नहीं माना गया और श्रीकृष्ण को ही क्यों अवतार रूप में सम्मान दिया गया?
मैंने कभी ऐसा सोचा ही नहीं था। क्या जवाब देता? मैं मन ही मन अपने सोचने की शक्ति की दरिद्रता पर लज्जित हो रहा था। आचार्य सेन ने रक्षा की। गुरुदेव ने हंसते हुए कहा -‘आपने तो कुछ सोचा ही होगा। मगर मैं इस पंडित को ही छेड़ना चाहता था। अभी नौजवान है, नया खून, है, मार खाने की अभी शक्ति है, मेरी पीठ तो जर्जर हो चुकी है।’ कहकर गुरुदेव खूब प्रसन्न भाव से हंसे। मैंने विनीत भाव से कहा – ‘ऐसा प्रश्न तो मेरे मन में कभी उठा ही नहीं, परंतु आप कहते हैं तो सोचूंगा। परंतु क्या सोचूं, यह बता दें। गुरुदेव के शब्द याद नहीं हैं, पर उनके कथन की मेरे मन पर जो छाप रह गई है, वह यह है कि शर-शय्या पर पड़े भीष्म ने जब भयंकर नरसंहार देखा होगा, उनके जैसे – ज्ञानी के मन में अपनी प्रतिज्ञा, उसके परवर्ती परिणाम आदि बातें क्या उठी नहीं होंगी? मैंने सोचना शुरू किया था। कई प्रतिभाशाली मित्रों से भी सोचने को कहा था, पर सोचता ही रह गया। जिन्होंने सोचने के लिए उकसाया था, वह चले गए। आज मेरे मित्र ने कहा कि तो बात फिर उमड़कर नए रूप में मानस पटल पर लहरा उठी। लहराई तो क्या होगी। भीष्म शर-शय्या पर सोए उपयुक्त काल की प्रतीक्षा कर रहे थे – मरने के लिए। जैसे-तैसे, जब-तब, जहां-तहां मरना भी ठीक नहीं होता। उचित मुहूर्त में मरना चाहिए। साधारण मनुष्य मुहूर्त का विचार किए बिना ही मर जाते हैं। भीष्म ऐसे नहीं थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। जब तक उत्तम मुहूर्त न आ जाए, तब तक वह मृत्यु नहीं चाहते थे। इसका फायदा उठाया युधिष्ठिर ने। सारी शंकाएं उनसे कह डालीं और उत्तर भी वसूल कर लिए। मेरे एक आदि गुरु ने शर-शय्यावाली कहानी सुनाई थी। उनके कहने का मतलब था कि भीष्म पितामह अनेक बाणों की नोक पर सोए हुए थे।
उनका तकिया भी बाणों की नोक का ही बना था। मेरा बालक मन बहुत व्याकुल हो गया था। वह हजार ब्रह्मचारी रहे हों, उन्हें बाणों की नोक तो चुभती ही होगी। बिचारे वृद्ध करवट भी नहीं बदल पाते होंगे। जब बदलते होंगे तब बाण बुरी तरह चुभ जाते होंगे। और उसी में युधिष्ठिर प्रश्नों की बौछार कर रहे होंगे। यद्यपि वह (युधिष्ठिर) तो दयालु थे, तथापि उस समय थोड़ी और दया दिखाते, तो क्या बिगड़ जाता? मैं जब उस दृश्य की कल्पना करता था, तब मुझे बड़ी पीड़ा होती थी, पर दूसरे बच्चे ब्रह्मचर्य की महिमा का अनुभव करते थे और प्रसन्न होते थे। उनकी दृष्टि में ब्रह्मचारी के लिए यह कोई कष्ट की बात ही नहीं थी। मैं भी उसकी महिमा तो समझता था, पर न जाने क्यों मेरा मन दुखी हो उठता था। बाद में मेरे एक विद्वान बुजुर्ग ने बताया कि ‘शर’ सरकंडे को कहते थे। उसी से बाण बनते थे, इसलिए ‘शर’ का अर्थ बाण हो गया। भीष्म वस्तुतः बाणों की नोक पर नहीं, सरकंडों की चटाई पर लेटे थे। वह व्याख्या ठीक है या नहीं, पर मेरे बालक मन को इससे बड़ी राहत मिली थी। सो, भीष्म शर-शय्या पर थे अर्थात सरकंडों की चटाई पर लेटे हुए थे। वैसे, जर्जर वृद्ध के लिए यह भी कम कठोर शय्या नहीं थी, पर चुभने वाली नहीं होगी। समर्थ पौत्रों ने उसे कुछ तो तरीके से बनवाया ही होगा। युधिष्ठिर ने अच्छा ही किया जो उनका मन बातचीत में उलझाए रखा, परंतु जब युधिष्ठिर और अन्य लोग उन्हें विश्राम करने के लिए छोड़कर चले जाते होंगे, तब एकांत में इस बूढ़े के मन में क्या चिंता रहती होगी? कुछ तो सोचते ही होंगे। श्रद्धालु लोग तो कहेंगे कि वह तुरंत ब्राह्मी स्थिति में चले जाते होंगे। भगवान श्रीकृष्ण ने तो कहा ही है कि ब्राह्मी स्थिति प्राप्त हो जाने पर कोई मोह होता ही नहीं। पर जिन्हें श्रद्धा का इतना संबल प्राप्त नहीं है, वे क्या करें? उन्हें लगता है कि भीष्म जैसा ज्ञानी भी कुछ सोचता जरूर होगा।
गुरुदेव पूछते हैं कि भीष्म को अवतार क्यों नहीं माना गया, मेरे यह मित्र कहते हैं कि । क्या दोनों बातों का अर्थ एक ही है? शायद , इसीलिए उन्हें अवतार नहीं माना गया। कुछ बात है अवश्य। भारतवर्ष किसी बात पर मौन भी रह जाता है, तो उसका कुछ अर्थ होता है। किसी ने नहीं कहा कि भीष्म को अमुक अमुक कारणों से अवतार नहीं माना गया और श्रीकृष्ण को अमुक-अमुक कारणों से अवतार माना गया। एक को विष्णु का अवतार नहीं कहा गया, क्योंकि वह नहीं थे, एक को मान लिया गया क्योंकि वस्तुतः थे। हमारे मनीषियों ने इसी ढंग से सोचा है। दिनकरजी महामना और उदार कवि थे। उनसे क्षमा मिल जाने की आशा से इतना तो कहा ही जा सकता है कि भीष्म अपने बम-भोलानाथ गुरु परशुराम से अधिक संतुलित, विचारवान और ज्ञानी थे। पुराने रिकार्ड कुछ ऐसा सोचने को मजबूर करते हैं। फिर भी परशुराम को दस अवतारों में गिन लिया गया और बिचारे भीष्म को ऐसा कोई गौरव नहीं दिया गया। क्या कारण हो सकता है?
एकांत में भीष्म सरकंडों की चटाई पर लेटे-लेटे क्या अपने बारे में सोचते नहीं होंगे? मेरा मन कहता है कि जरूर सोचते होंगे। भीष्म ने कभी बचपन में पिता की गलत आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए भीषण प्रतिज्ञा की थी – वह आजीवन विवाह नहीं करेंगे। अर्थात इस संभावना को ही नष्ट कर देंगे कि उनके पुत्र होगा और वह या उसकी संतान कुरुवंश के सिंहासन पर दावा करेगी। प्रतिज्ञा सचमुच भीषण थी। कहते हैं कि इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही वह देवदत्त से ‘भीष्म’ बने। यद्यपि चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य तक तो कौरव रक्त रह गया था। तथापि बाद में वास्तविक कौरव रक्त समाप्त हो गया, केवल कानूनी कौरव वंश चलता रहा। जीवन के अंतिम दिनों में इतिहास मर्मज्ञ भीष्म को यह बात क्या खली नहीं होगी? भीष्म को अगर यह बात नहीं खली तो और भी बुरा हुआ। परशुराम चाहे ज्ञान-विज्ञान की जानकारी का बोझ ढोने में भीष्म के समकक्ष न रहे हों, पर सीधी बात को सीधे समझने में निश्चय ही वह उनसे बहुत आगे थे। वह भी ब्रह्मचारी थे – बालब्रह्मचारी। पर भीष्म जब अपने निर्वीर्य भाइयों के लिए कन्याहरण कर लाए और एक कन्या को अविवाहित रहने को बाध्य किया, तब उन्होंने भीष्म के इस अशोभन कार्य को क्षमा नहीं किया। समझाने बुझाने तक ही नहीं रुके, लड़ाई भी की। पर भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के शब्दों से चिपटे ही रहे। वह भविष्य नहीं देख सके, वह लोककल्याण को नहीं समझ सके। फलतः अपहृता अपमानित कन्या जल मरी। नारदजी भी ब्रह्मचारी थे। उन्होंने सत्य के बारे में शब्दों पर चिपटने को नहीं, सबके हित या कल्याण को अधिक जरूरी समझा था – सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत।
भीष्म ने दूसरे पक्ष की उपेक्षा की थी। वह ‘सत्यस्य वचनम’ को ‘हित’ से अधिक महत्त्व दे गए। श्रीकृष्ण ने ठीक इससे उलटा आचरण किया। प्रतिज्ञा में ‘सत्यम वचनम्’ की अपेक्षा ‘हितम’ को अधिक महत्व दिया। क्या भारतीय सामूहिक चित्त ने भी उन्हें पूर्वावतार मानकर इसी पक्ष को अपना मौन समर्थन दिया है? एक बार गलत-सही जो कह दिया, उसी से चिपट जाना ‘भीषण’ हो सकता है, हितकर नहीं। भीष्म ने ‘भीषण’ को ही चुना था। भीष्म और द्रोण भी, द्रोपदी का अपमान देखकर भी क्यों चुप रह गए? द्रोण गरीब अध्यापक थे, बाल बच्चे वाले थे। गरीब ऐसे कि गाय भी नहीं पाल सकते थे। विचारी ब्राह्मणी को चावल का पानी देकर दूध मांगने वाले बच्चे को फुसलाना पड़ा था। उसी अवस्था में फिर लौट जाने का साहस कम लोगों में होता है, पर भीष्म तो पितामह थे। उन्हें बाल-बच्चे की फिक्र भी नहीं थी, भीष्म को क्या परवा थी। एक कल्पना यह की जा सकती है कि महाभारत की कहानी जिस रूप में प्राप्त है, वह उसका बाद का परिवर्तित रूप है। शायद पूरी कहानी जैसी थी, वैसी नहीं मिली है। लेकिन आजकल के लोगों को आप जो चाहे कह लें, पुराने इतिहासकार इतना गिरे हुए नहीं होंगे कि पूरा इतिहास ही उलट दें। सो, इस कल्पना से भी भीष्म की चुप्पी समझ में नहीं आती। इतना सच जान पड़ता है कि भीष्म में कर्तव्य अकर्त्तव्य के निर्णय में कहीं कोई कमजोरी थी। वह उचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पाते थे। यद्यपि वह जानते बहुत थे, तथापि कुछ निर्णय नहीं ले पाते थे। उन्हें अवतार न मानना ठीक ही हुआ। आजकल भी ऐसे विद्वान मिल जाएंगे, जो जानते बहुत हैं, करते कुछ भी नहीं। करने वाला इतिहास निर्माता होता है, सिर्फ सोचते रहने वाला इतिहास के भयंकर रथचक्र के नीचे पिस जाता है। इतिहास का रथ वह हांकता है, जो सोचता है और सोचे को करता भी है।

Saturday, 23 July 2016

गाय और गाली के शोर में गुम जीवन के असल मुद्दे / विजय शंकर सिंह

अब सब धन धान्य से पूर्ण है । मेह अनुशासित है । जहाँ जितनी ज़रुरत है वहाँ उतना ही बरस रहा है । न कहीं अधिक और न कहीं कम । किसान सुखी है । सब जगह शान्ति है । पेट भरा है सबका । सोचिये अगर ऐसा हो गया तो राजा करेगा क्या ? राजा , का जन्म ही व्ययस्था बनाने और सब कुछ व्यवस्थित चले इस लिए हुआ है ।
आज कहीं भी कोई भी राजनीतिक दल, भय भूख और जीवन से जुडी समस्याओं के प्रति सजग है ?
कोई भी राजनीतिक दल जीवन को छूने वाली बातों से आहत है ?
सभी दल आज विकास का एक अमूर्त एजेंडा सबके सामने ज़रूर रखते है । उसकी एक व्याख्या यह भी है कि चुनिंदा उद्योगपतियों को , पत्रम् पुष्पम् फलम् तोयम सब अर्पित कर दीजिये और वे देश का विकास करेंगे । वे कारखाने लगाएंगे । लोगों को रोज़गार मिलेगा । पर सरकार ने शायद ही कभी इसका अध्ययन किया होगा कि कितने संसाधन किस उद्योगपति को कब सौंपे गए और उनका परिणाम कितना सकारात्मक रहा । अगर किया भी होगा तो मुझे नहीं मालुम, किसी मित्र को ज्ञात हो तो उनका स्वागत है । आज भी जितने व्यक्ति देश में आतंकी घटनाओं में मारे गए हैं उनसे कहीं अधिक किसान आत्म हत्या कर चुके हैं । और इस पर भी बेशर्मी की हद यह है कि, एक सरकार कह रही है कि आत्म हत्या का कारण भूत है । किसान खोर भूत कभी राजनितिक दलों के नेताओं पर कृपा क्यों नहीं करता । क्या वे इन भूतों के लिए, अघ्न्या हैं ।

ताज़ा उदाहरण गाली विमर्श का ही ले लीजिये । गाली के पहले मायावती द्वारा टिकट बेचने या नीलाम करने की जो बात कही गयी थी , उस से कोई भी आहत नहीं हुआ । यह बात किसी को नहीं लगी । संसद में इस पर कोई नहीं खड़ा हुआ । अगर उस अपशब्द के बजाय,  भ्रष्टाचार और टिकट की नीलामी की बात ही कही गयी होती तो एक पत्ता भी नहीं खड़कता । मायावती तब संसद में खड़े हो कर यह कहने का साहस ही नहीं जुटा पातीं कि कैसे उनपर टिकट की नीलामी का आरोप लगाया गया । वे अगर इस विन्दु पर प्रदर्शन का आयोजन करतीं या किसी जांच की मांग करती तो यह राजनीति में शुचिता की एक अच्छी और सुखद पहल होती । पर वे इस तथ्य को गोल कर गयी । दया शंकर भी राजनैतिक सूझ का परिचय न देते हुए , बेहद निंदनीय और अभद्र बात कह गए । जिस से एक राजनीतिक एजेंडा ही बदल गया । आप रोज़, किसी भी नेता को, भ्रष्ट और घोटालों में लिप्त होने की पोस्ट डालिये या आंदोलन कीजिये , किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा पर जैसे ही चरित्र जिसे अमूमन स्त्री पुरुष संबंधों से ही तय होना माना जाता है, पर चिकोटी काटिये, सब बिलबिला कर खड़े हो जाते हैं । चरित्र पतन या उत्थान का यह व्याकरण मेरी समझ में नहीं आया । झूठ बोलना, मिथ्या वादे करना , भ्रष्ट साधनों से धन अर्जित करना, आदि को चरित्र से जोड़ कर देखने की आदत ही हम में विकसित नहीं हुयी । जब कि किसी भी व्यक्ति के चरित्र के इस पक्ष से, समाज सबसे अधिक प्रभावित होता है । यौन सबंधो से जुड़ा चरित्र का विवेचन निजी और परिवार को अधिक प्रभावित करता है । पर झूठ, फरेब, भ्रष्टाचार, आदि समाज पर सीधे असर डालता है ।

आज जितनी चर्चा गाली और अभद्र भाषा पर हो रही है, उसके साथ साथ राजनीति में भ्रष्टाचार पर होती तो शायद राजनीति में धन कमाने के ही उद्देश्य से जो पीढ़ी आ रही है उसका कुछ न कुछ मोहभंग तो होता । किसी भी राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामले में किसी बड़े नेता के खिलाफ कार्यवाही कम ही हुयी है । जब कि जनता हर उस नेता के भ्रष्टाचार को भली भाँति जानती है जो हर पल भ्रष्टाचार के विरोध की ही बात करता है और सत्ता में आने पर भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाही की बात करता है । पर कार्यवाही कभी नहीं होती है और अगर होती भी है तो या तो अदालत के दखल देने पर या, किसी न किसी राजनीतिक विद्वेष या प्रतिशोध वश । इसी प्रकार हर बार यह कोशिश होती है कि मुद्दे बदलें और बहस उन मुद्दों को छू भी न पाएं जिनके लिए सरकारें चुनी जाती हैं । सरकारें चुनी जाती हैं , शांतिपूर्ण , जिम्मेदार और संवेदनशील प्रशासन के लिए, सरकारें चुनी जाती है कि,  लोगों का जीवन स्तर उठे और लोग एक बेहतर जीवन जीयें, सरकारें चुनी जातीं हैं कि, देश में क़ानून का राज सुगढ़ता से स्थापित हो , और सरकारें चुनी जाती हैं कि, लोग एक सभ्य , उन्नत और भ्रष्टाचार रहित समाज में जीयें । पर सरकार और सरकारी पार्टी इन मुद्दों से हमेशा भटकने और लोगों को भटकाने का प्रयास करती है और जान बूझ कर ऐसे मुद्दे उठाती है , जिनका समाधान या तो संभव ही नहीं है या उस से धार्मिक और जातिगत ध्रुवीकरण हो । यह ध्रुवीकरण अपने अपने वोट बैंक को सिर्फ तुष्ट करने का ही एक साधन है।

गौरक्षा का सबसे बड़ा आंदोलन 1966 में देश में हुआ था । लाल बहादुर शास्त्री के ताशकंद में दुःखद निधन के बाद, इंदिरा गांधी देश की प्रधान मंत्री बनी थी । गौरक्षा के आंदोलन में , गौवध पर पूरे देश में प्रतिबन्ध के लिए यह आंदोलन हुआ था । इस आंदोलन का नेतृत्व स्वामी करपात्री जी, जो धर्म शास्त्र के उद्भट विद्वान और अत्यंत पूज्य संत थे, और पुरी पीठ के शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ ने किया था ।  गाय , हिन्दू समाज और धर्म में सदैव से ही एक विशिष्ट और पूजनीय स्थान रखती रही है । हज़ारों की संख्या में साधू संत और लोगों ने संसद का घेराव करने के लिए , संसद की और मार्च किया । गम्भीर शान्ति व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हुयी, और पुलिस को बल प्रयोग करना पड़ा । तब दिल्ली पुलिस में कमिश्नर की व्यवस्था नहीं थी । आई जी पुलिस का पद होता था । बल प्रयोग का असर बहुत ही बुरा हुआ । कई बुज़ुर्ग संत घायल हो गए । इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुयी और पूरे दिल्ली में अफरातफरी फ़ैल गयी । दो दिन कर्फ्यू लगा रहा । पर इंदिरा गांधी ने इनकी मांगे नहीं मानी । डॉ लोहिया जीवित थे तब । उन्होंने इस आंदोलन पर टिप्पणी करते हुए कहा,
"भुखमरी, सामाजिक नाबराबरी और जीवन से जुड़े मुद्दों के विरुद्ध कभी ऐसा व्यापक आंदोलन क्यों नहीं उठता । रोटी का मुद्दा गाय के मुद्दे से दब क्यों जाता है । "
डॉ लोहिया का सवाल आज भी ज़िंदा है और अपने उत्तर की बाट जोह रहा है ।

यही संकेत रामजन्म भूमि आंदोलन और 1977 में इमरजेंसी के विरोध में हुए चुनाव में भी दिखता है । भावनाएं ज्यादा असर दिखाती हैं और लोग इन भावुक मुद्दों के लिए,  मरने मारने को आतुर हो जातें हैं । राजनीतिक दल जनता के इस मनोविज्ञान को अच्छी तरह से जानते हैं और वे उसी कमज़ोर नस को पकड़ लेते हैं । भाजपा हो या बसपा, या कांग्रेस या सपा या किसी भी दल ने राजनीतिक दलों में आर्थिक श्रोत, उनके नेताओं और कार्यकर्ताओं के भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में कभी कोई सवाल नहीं उठाये । जेपी आंदोलन से ले कर अन्ना आंदोलन तक, भ्रष्टाचार पर जो जन समर्थन मिला वह भी तत्कालीन सरकार को अपदस्थ करने के लिए ही इस्तेमाल हुआ । यह भी आधुनिक ढंग के उत्पाद इस्तेमाल करो और भूल जाओ या यूज़ एंड थ्रो के अनुसार ही था । सभी दलों को लगता है कि अगर भ्रष्टाचार पर अगर सब सबकी कहेंगे और पोल खोलेंगे तो, सभी बेनक़ाब होंगे । अतः सभी एक शातिर चुप्पी ओढ़े रहते हैं । टिकट की नीलामी या धन उगाही अकेले बसपा में ही नहीं है बल्कि सभी दलों में कम ओ बेश है । बसपा एकल नेतृत्व का दल है अतः वहाँ मायावती जिन्हें अख़बार अक्सर सुप्रीमो कहते हैं , की मर्ज़ी पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है अतः वहाँ भ्रष्टाचार अधिक दिखता है और सब की निगाहें सुप्रीमो की तरफ ही रहती है । भाजपा और कांग्रेस में सुप्रीमो जैसे किसी तंत्र का अभाव है इस लिए टिकट की नीलामी आदि की खबरें कम आती है और हो सकता हो कम होती भी हों । हालिया उदाहरण राजनीतिक दलों की आर्थिक फंडिंग को आर टी आई के दायरे में लाने और सभी योगदानों का श्रोत बताने का है । कोई भी दल, जो खुद को भ्रष्टाचार का विरोधी बताते और साबित करते थकते नहीं है, इस मुद्दे पर चुप है और सब साथ साथ है । क्यों ?

आज तीन दिन से भाषा विवाद छाया हुआ है । जैसे कि इस तरह की भाषा शैली का प्रयोग पहली बार हुआ हो, और दो मुक़दमों के कायम हो जाने, इतने टीवी शो होने के बाद, और मुक़दमों में कार्यवाही हो जाने के बाद, यह सोच लिया गया हो कि अब आगे ऐसी भाषा का प्रयोग बिलकुल नहीं होगा, और लोग सुभाषित ही बोलने लगेंगे तथा,  सभी वाक् अनुशासन में रहेंगे । यह एक भूल है । हर दल जीवन से जुड़े असल मुद्दे का सामना करना, उसे सुलझाना और उस पर चर्चा करना नहीं चाहता है । वह इस से कतराता है । क्यों कि वह जानता है कि इन समस्याओं के समाधान में न तो उसकी रुचि है और रूचि भी हो तो उसकी दक्षता नहीं है । इसी लिए वह उन्ही मुद्दों को बार बार पर मंच पर ले आता है जो भावनात्मक रूप से जनता को उत्तेजित करते हैं । लेकिन यह एक खतरनाक खेल है और लोग इस खेल को अब समझने भी लगे हैं ।

( विजय शंकर सिंह )

Tuesday, 19 July 2016

एक कविता ... सोचता हूँ , कुछ लिखूं इन पर / विजय शंकर सिंह


उदास शाम और जंगल यादों के, 
इनमे भटकता हुआ 
सोचता हूँ, अक्सर ,
कुछ लिखूं इन पर।
बिखरे पत्तों और 
टूटी हुयी शाखों पर  ,
उन्मत्त पवन, 
उड़ा देता है , जिन्हे अक्सर !

सोता हुआ शहर और ,
नींद की उम्मीद में ,
खुद से लड़ते लोग ,
सोचता हूँ , 
कुछ लिखूं  इन पर। 

कभी, नींद के 
इस मानिनी नायिका की तरह 
इस के फलसफे पर !
तो कभी ,  मौसम 
और पावस के फुहार पर। 

बारिश के परदे में ,
आंसुओं को छुपाये हुए आँखें ,
आँखों में उभरते हुए, 
धुँधलाए अक्स पर कभी ।  

अद्भुत रूपक है यह ! 
है,  न !
बादल , बारिश , आंसूं ,आँखें 
और सावन ,
सोचता हूँ लिखूं , कुछ इन पर।

जंगल से गुज़रती टेढ़ी मेढ़ी राहें ,
दो डग , प्रेम के , 
जिन पर पड़े थे कभी ,
सूखे पत्ते , 
धूल , मिटटी , गर्द ओ गुबार ,
जिसे , निगल गए हैं 
अजदहे की तरह , 
जैसे वक़्त , 
निगल जाता है , सब कुछ !

सोचता हूँ ढूँढूँ वे  राहैं ,
जैसे खोजता है , कोई किस्सा गो ,
हवा में उड़ते अफसानों को।  

मिले कोई जो पहुंचा दे, मुझे ,
अतीत के उन सुन्दर पलों में ,
तो लिखूं , कुछ इन पर !

बसंत के वे सभी स्वप्न,
मेरी पलकों पर टिके थे जो ,
आँखों में महकते ख्वाब 
जो आज भी ख्वाब हैं ,
सोचता हूँ ,
कुछ लिखूं इन पर। 

उमड़ते , घुमड़ते , 
गरजते ,बरसते ,भिंगोते ,
विक्षुब्ध मौसम के मित्रों पर ,
और अधूरे सपनों पर।

पलकें चुन रहीं हैं, 
शब्द दर शब्द ,
बुन रहां हूँ कागज़ों पर , 
ख्वाब दर ख्वाब ,
तेरी आहट , और  
तेरी खिलखिलाहट भी ,
खंडहरों के 
ध्वनि और प्रकाश नाटकों की तरह ,
उतर रहीं हैं  
पर्त दर पर्त, मेरे भीतर। 

पहाड़ों के हिम पात की तरह ,
झर  रही है , 
रूई के फाहे सी बर्फ,
जैसे बरस रहा हो कोई 
अज्ञात आशीर्वाद।
कैसे वक़्त , 
बदल देता है , मृदु हिम को , 
कठोर पाषाण में ,
सोचता हूँ , कुछ लिखूं इस पर !

विरह के पल , 
उदास रातें , उदास दिन ,
कागज़ों पर इन्हे उतारता हुआ ,
सुकून के 
कुछ पल खोज रहा हूँ। 

चन्द  शब्दों की बाज़ीगरी हैं , 
मेरी कवितायें !
भावों से उन्हें गूंथता हुआ ,
खामोशी से 
सारे मौसम पार करता हुआ ,
निरभ्र आकाश में 
गतिमान चाँद को देखते ,
सोचता हूँ कभी ,
तेरी यादें न रहतीं , तो सोचता क्या ?
कैसे कागज़ों पर उतरती, ये शक्लें , 
और फिर ,
अक्षरों के हर खम मैं , तुम
कहीं न कहीं आकार लेने लगते हो !!

( विजय शंकर सिंह )

Saturday, 16 July 2016

शिक्षित आतंकी - सन्दर्भ पाकिस्तान / विजय शंकर सिंह


शिक्षित आतंकी नाम का यह लेख पाकिस्तान से प्रकाशित अखबार द डॉन में खुर्रम हुसैन द्वारा लिखा गया है । इस लेख में संपन्न और शिक्षित युवाओं द्वारा आतंकवाद की तरफ आकर्षित होने के कारणों की पड़ताल की गयी है । यह इनके द्वारा लिखे गए लेखों की श्रृंखला की द्वीतीय और अंतिम कड़ी है ।

यह सवाल उठता हैं कि आखिर इन संपन्न और शिक्षित युवा वर्ग के साथ गड़बड़ क्या हो गयी है कि उनका झुकाव हिंसा और धर्मांध आतंकवाद की और तेज़ी से हो रहा है । आतंक के साथ साथ अत्यंत हिंसक और रक्त पिपासु चेहरा जो इस वर्ग का सामने आ रहा है, वह सच में हैरान करने वाला है ।

इस लेख के पढ़ने से यह स्पष्ट होता हैं कि ये संपन्न और शिक्षित युवा लड़के खुल कर आतंकी घटनाओं में न ही केवल भाग लेते हैं बल्कि ये लड़के अपने हांथों से मध्ययुगीन जल्लादों की तरह निर्दोषों का सिर काट लेते हैं । यह आतंक का आनंद भी एक प्रकार का है । परपीड़न की पराकाष्ठा है । यह कोई विचारधारा का अनुगमन नहीं है बल्कि यह उस से अलग हट कर हिंसक उन्माद है ।

पूरा लेख नीचे है ..

 Educated militants

What’s going on with these affluent few? Their actions have shown a ruthlessness and bloodlust that normal people would recoil from.

These few whose cases we are familiar with have shown a ruthlessness and bloodlust that normal people would recoil from. They have beheaded people with their own hands, shot up busloads of the most innocent members of society while giggling in delight, and slashed people with machetes. This is more than just ideology that they have internalised. Somewhere along the line, their bodies have been taught to shed the inhibitions against such heinous violence that are instilled from a very young age.

So where does ferocity of this sort come from in the mind and body of a youngster raised in a bourgeois life? This is not blind rage, nor is it desperation. It is something far less edifying that is speaking through the actions of these youngsters. A basic anomie, a ruthless sensory indulgence, a disconnect with the world around them that sets them on a shallow and misguided search for answers.

I do not pretend to know all the answers to how youth from affluent and bourgeois backgrounds gets mixed up in such heinous acts. But I do have a few insights from once having been a teacher.

First is the absence of any meaningful liberal arts education. With no real critical thinking abilities, young minds are left particularly vulnerable to shallow interpretations of events. As the world becomes more violent, and the actions of states lose all moorings in morality and ethics, a quest for answers burns brighter in the minds of the youth, who are usually smarter than their parents and in most cases, smarter than their teachers too. Their experience tells them that those who make up the little, bubble-like life they lead in their elite enclaves know nothing about the great conflicts and petty injustices that are devouring the world around them, and worse still, that none of them really cares beyond paying lip service.

Second is a dysfunctional relationship with their parents. I have been struck at the number of times I see youngsters living multiple lives that are neatly compartmentalised. One is the life they live for the benefit of their parents, a theatre dominated by deferential silence and ritualised forms of obedience in their day-to-day interactions. The other is their real life, lived with their peers.

At its root, this dysfunction owes itself to a shallow idea of what being a parent really means. On many occasions, I have observed parents who only spoke to their children to either shout at them or lecture them, never to just talk or discuss things. What’s more, the message the children often received from their parents was that nothing beyond a high-paying career matters. Take no courses that will not directly lead to a high-paying job, they advised. Encourage no hobbies, no reading habits, no informed discussion about anything in life, the world, nature, science. Get a job in a tech firm or a bank. Nothing else matters.

Many of the youth were able to operate within the narrow confines of this world, but others rebelled. Even amongst those who obeyed, many had problems later in life, for instance in keeping their marriages intact.

So for a youngster whose mind is fired by the rapid descent of the world into chaos and conflict, who finds no foothold to establish his or her bearing in the confusing flux of this rapidly changing world, and is not equipped to mount a search for answers at all, it is only natural that he or she turn to those who proclaim that they have all the answers, and embrace the notion that a simple ideology can explain it all.

But the embrace of ideology does not explain the de-conditioning of the body to perpetrate extreme violence. Clearly, these youngsters have been able to evade parental monitoring and secretly undertake training that overrides their reflexes. In the case of Saad Aziz, for instance, we know he travelled to Fata to undertake exactly such training, whether or not his parents knew. In the case of the Bangladesh four, it was pathetic to watch their parents sob before interviewers, saying they had “no idea” that their son had become mixed up with such elements. The only way they could have “no idea” of the changes going on in the lives of their own offspring, who lived in the same house, was if the disconnect between parent and child was so complete as to blind the elders totally to the truth about their own offspring.

The writer is a member of staff.
khurram.husain@gmail.com
Twitter: @khurramhusain
Published in Dawn, July 14th, 2016

आतंक की ज़द में संपन्न और शिक्षित युवाओं का झुकाव - एक खतरनाक संकेत / विजय शंकर सिंह

आतंकवाद का उद्देश्य और थ्रिल केवल कम पढ़े लिखे लोगों और बेरोज़गार लड़कों को ही नहीं आकर्षित करता रहा है  , बल्कि अब थोड़ी स्थिति बदल गयी है । बांगला देश के ताज़ा आतंकी वारदात के मामले में जो लड़के शामिल थे वे सभी संपन्न और पढ़े लिखे आधुनिक सोच वाले परिवार के लड़के थे । कोई गरीब , कम पढ़े और बेरोजगार लड़को का समूह यह नहीं है । बेरोज़गार और गरीब तबके के लड़के धन की लालच में आतंकी समूहों का शिकार बनते ही रहते हैं । अभी कश्मीर के कुछ पत्थरबाजों के बारे में जानकारी मिली है कि उन्हें हुर्रियत नेता गिलानी से 500 500 रूपये पत्थर फेंकने के लिए दिए गए थे । लेकिन संपन्न परिवार और पढ़े लिखे परिवारों के लड़कों का आतंक की और आकर्षित होना एक खतरनाक संकेत है ।

द नडॉन पाकिस्तान का एक प्रतिष्ठित अखबार है । इस अखबार में दो छोटे छोटे लेख प्रकाशित हुए हैं । लेख में इसी तथ्य की और ध्यान आकर्षित किया गया है और इस संकेत की समीक्षा भी की गयी है । यह लेख डॉन के ही संपादकीय मंडल द्वारा लिखा गया है । अक्सर यह माना जाता रहा है कि अपराध का का कारण विपन्नता और आवश्यकता होती है । मैं आर्थिक अपराधों की बात नहीं कर रहा हूँ । मैं उन अपराधों की बात कर रहा हूँ जिन्हें समाज सच में अपराध मानता है । पर यह एक नया ट्रेंड चल निकला है । संपन्न घरों के लड़के अपराधोन्मुख हो रहे हैं ।

इस्लामी आतंकवाद का एक सीधा सा उद्देश्य है । वह है सऊदी मार्का इस्लाम को स्थापित करना । वहाबी इस्लाम जो प्रतिगामी विचारों और मक्षिका स्थाने मक्षिका के मनोभाव से इस्लाम को देखता और मानता है को ही पूरी दुनिया में। फैलाना है । यही धर्म सर्वश्रेष्ठ है का भाव ही इस्लाम को दुनिया भर में एक आतंक फैलाने वाले धर्म के रूप में प्रस्तुत कर रहा है और जिसे इस्लामोफोबिया कहते हैं वह पनप रहा है । इस्लाम में। सुधारवादी आंदोलन उपेक्षित भी रहे हैं इस लिए इस्लाम का समय के साथ साथ जो उदारवादी चेहरा सामने आना चाहिए, वह सामने नहीं आ पा रहा है । लेख में कहा गया है कि आतंक की ज़द में संपन्न और पढ़े लिखे लोगों की जमात का बाहुल्य नहीं है और वह अभी इक्का दुक्का ही है पर यह भी चिंताजनक संकेत है ।
- vss.

Bored young Killers

A new phenomenon has me rather troubled: bored youngsters embracing extremist ideologies who end up perpetrating heinous crimes. The path to radicalisation of these youngsters is not understood, hence the puzzlement and astonishment when we hear of such incidents.

A recent example is that of the Bangladesh four, who came from affluent backgrounds and had high levels of education. Earlier, we have the example of Saad Aziz and Faisal Shahzad. And even earlier there was Omar Sheikh. These are just the Pakistanis. What we don’t know is how many youngsters from other countries are also following similar paths.

In the entire galaxy of militant fighters across the world, this breed of youngsters might not be in a majority, but the increasing numbers who are taking up arms is an alarming trend. Those who join militias as basic fighters might well come from deprived backgrounds — who are not fighting in the name of any ideology. And those who are radicalised in religious seminaries similarly tend to come from backgrounds where the full spectrum of opportunities afforded by the modern world is not available to them.

But what’s going on with these affluent few? If this was a simple case of thrill-seekers who join up in a fight because they understand it to be a little like a video game, that would be one thing.
( Khurram Hussain.
The Dawn , Pakistan. )