याक़ूब मेमन को आज सुबह फांसी दे दी गयी. यह न तो प्रतिशोध था, और न ही इस कदम से भविष्य में होने वाली किसी आतंकी घटना को ही रोका जा सकेगा. पर इस फांसी ने सबके विविध रंग और दृष्टिकोण भी दिखा दिया है. क़ानून की दृष्टि में यह एक अपराध का दंड था. अपराध जघन्य था तो दंड भी उसी के अनुरूप ही होगा. पर देश में ऐसा माहौल बना दिया गया कि यह सजा विवाद के घेरे में आ गयी. जब किसी विषय पर घोर कौआरोर मचा हो तो उस मसले के फैसले पर निर्णय लेने वाला कोई भी व्यक्ति कितना भी प्रबुद्ध और न्याय प्रिय क्यों न हो थोडा बहुत दबाव में आ ही आ जाता है. आखिर सुप्रीम कोर्ट के जज और राष्ट्रपति मनुष्य ही तो हैं. सभी स्थितप्रज्ञ नहीं होते हैं. अब उसकी फांसी पर भी विवाद हो रहा है. फांसी की सजा दिया जाना उचित है या नहीं यह बहस का विषय है. पर जब तक क़ानून की किताबों में फांसी की सजा का प्राविधान है तब तक अदालतें यह दंड देती रहेंगी. ऐसी ही बहस अफज़ल गुरु के समय भी उठी थी. कुछ लोगों का तर्क है कि वह निर्दोष है या उसका उतना दोष नहीं है कि उसे फांसी पर लटका दिया जाय. मेरा मानना है कि जब उसके मुक़दमें की सुनवाई अदालत में विभिन्न स्तरों पर चल रही थी तो उसके निर्दोषिता या कम अपराध के बारे में क्यों नहीं लोग अदालतों में तर्क रखते हैं. हो सकता है रखा भी गया हो. पर अदालत ने सब सोच समझ कर ही यह सजा दी होगी. सेशन कोर्ट के बाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी ऐसे मुक़दमों को बड़ी बारीकी से सुनती है. अदालतों ने फांसी की सजा को रेयर ऑफ़ द रेयरेस्ट केस के आधार पर ही देने की मानसिकता की बात की है. शायद ही कोई मुक़दमा ऐसा हो जिसके फैसले में कोई न कोई कमी नहीं निकाली जा सके. अगर यही प्रवित्ति हो गयी तो हर मुक़दमे का फैसला विवादित ही हो जाएगा. यह प्रवित्ति न्यायिक अराजकता को ही जन्म देगी.
12 मई 1993 को बम्बई में सीरियल ब्लास्ट की घटना हुयी थी . एक के बाद एक हुए 13 स्थानों पर बम के धमाकों ने देश के इस आर्थिक राजधानी को हिला दिया था. 257 लोग मरे और 713 नागरिक घायल हुए थे. अकेले बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में हुए विस्फोट में 50 लोग मारे गए थे. देशव्यापी प्रतिक्रिया हुयी. कुछ ने इसे बाबरी मस्ज़िद के विध्वंस के प्रकरण से जोड़ कर देखा. कुछ ने पाक प्रायोजित आतंकी घटना माना. पर यह भी सच है यह देश में इस्लामी आतंकवाद की शुरुआत थी. इस शब्द पर चौंकिये और दुखी या प्रसन्न मत होइए. इसी देश में इसके पहले सिख आतंकवाद और बाद में भगवा या हिन्दू आतंकवाद भी हुआ है. उस मुक़दमें की तफ्तीश हुयी. 1994 में याक़ूब दिल्ली में गिरफ्तार हुआ लेकिन कुछ का कहना है कि उसे काठमांडू पुलिस ने गिरफ्तार किया था, और तब पुलिस को सौंपा था. उसके ऊपर बॉम्बे ब्लास्ट का षड्यंत्र रचने, हवाला के ज़रिये धन जुटाने, धमाका करने वालों को प्रशिक्षण देने, और 85 ग्रेनेड धमाका करने के लिए उपलब्ध कराने के आरोप थे. उसके घर से 12 ग्रेनेड बरामद भी हुए थे. सी बी आई ने कुछ और अभियुक्तों को भी गिरफ्तार किया और आरोप पत्र न्यायालय में दिया. एक अभियुक्त दाऊद इब्राहिम देश से फरार है और वह कराची पाकिस्तान में अपने ख्वाबगाह में आराम फरमा रहा है. वहाँ उसकी सुख सुविधा और सुरक्षा की जिम्मेदारी आई एस आई की है. हालांकि पाकिस्तान सरकार बराबर यह इनकार करती रहती है कि वह पाकिस्तान में नहीं है. बल्कि यह सरासर झूठ है और वह पाकिस्तान के शहर कराची में ही है। कुछ सालों पहले एक टी वी न्यूज़ चैनल ने उसके ठिकाने की पूरी फोटो दिखाई थी. और उस पर पूरी रिपोर्ट भी प्रस्तुत की थी.
याक़ूब मेमन के मुक़दमे की सुनवाई सत्र न्यायालय में चली और सत्र न्यायालय ने याक़ूब मेमन को दोषी पाते हुए 2007 में फांसी की सजा दी. इसकी अपील हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में हुयी, वहाँ से भी फांसी की सजा बहाल रही. फिर एक पुनर्विचार याचिका दायर की गयी. सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्विचार याचिका भी खारिज कर दी. याक़ूब मेनन ने इसके बाद राष्ट्रपति महोदय के समक्ष दया याचिका दायर की. राष्ट्रपति द्वारा यह दया याचिका भी अस्वीकृत कर दी गयी. इसके बाद सत्र न्यायालय ने डेथ वारंट जारी कर दिया और फांसी की तिथि 30 जुलाई नियत कर दी. फांसी की तिथि घोषित होने और डेथ वारंट जारी हो जाने के बाद याक़ूब मेनन ने सुधारात्मक याचिका पुनः सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर की . अदालत ने यह याचिका भी खारिज कर दी. इसके बाद राष्ट्रपति के समक्ष दुबारा दया याचिका याकूब मेमन द्वारा दायर की गयी. दिनांक 29 / 30 जुलाई की रात को वह याचिका भी निरस्त हो गयी. इसके बाद एक और याचिका सुप्रीम कोर्ट के सामने दायर की गयी. रात में ही जिसकी विशेष सुनवाई हुयी, और वह याचिका भी निरस्त कर दी गयी. अंततः जो डेथ वारंट सत्र न्यायालय द्वारा निर्गत किया गया था उसका क्रियान्वयन कर दिया गया. 30 जुलाई को याक़ूब मेमन को फांसी दे दी गयी.
इस फांसी की सजा ने कई सवाल खड़े किये है.
1. अपराध पर विवेचना और दोषी को दंड देना, राज्य का अनिवार्य कृत्य है. अगर न्यायिक प्रक्रिया अपने तय नियमों और प्राविधानों के अनुसार पूरी की गयी हो और अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने दोष सिद्ध पाते हुए किसी भी अभियुक्त को दी गयी सजा बहाल रखी हो, तो क्या उस सजा पर सोशल मिडिया या अन्य प्रेस में चर्चा होनी चाहिए. और चर्चा भी मुक़दमें की मेरिट पर होनी चाहिए ?
2. क्या किसी भी अभियुक्त को दंड देने के बाद , उस अभिगुक्त के कृत्य से उत्पन्न परिस्थितियों और उस आपराधिक कृत्य से पीड़ितों की वेदना और हानि को ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिए ?
3. क्या दोष सिद्ध होने के बाद भी अभियुक्त के प्रति नरम रवैया अपना कर क्या राज्य को अपनी क्षवि एक सॉफ्ट स्टेट की बनाये रखना चाहिए ?
4. क्या सजा का विरोध या समर्थन धर्म के आधार पर किया जाना चाहिए ?
5. क्या फांसी की सजा, समाप्त कर दी जानी चाहिए ?हो सकता है आप के मन में और भी सवाल कुलबुला रहे हों.
मेरा मानना है कि अपराध की विवेचना और अदालत में सुनवाई और उसकी अपील आदि की एक विस्तृत प्रक्रिया है. सभी मुकदमों का निस्तारण इन्ही प्रक्रिया के अनुसार होता है. सुनवाई के हर अवसर पर अभियुक्त पक्ष को पर्याप्त अवसर मिलता है अपनी बात कहने का. इस मामले में 1994 में गिरफ्तारी होने के बाद भी अदालत से सजा सुनाने के वर्ष 2007 तक का पर्याप्त समय याक़ूब मेमन को अपनी निर्दोषिता साबित करने के लिए मिला था. पर अदालत के समक्ष जो साक्ष्य थे वह उसे दोषी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थे . इस घटना में 257 लोग मारे गए थे. अतः इसे अदालत ने इसे रेयर ऑफ़ द रेयरेस्ट मामले में रख कर फांसी की सजा दी. यह सजा अंत तक बहाल रही. इस सजा को लेकर जो आरोप प्रत्यारोपों का दौर चला और अब भी चल रहा है, का एक बेहद गम्भीर परिणाम निकल सकता है. आज बात फांसी की हो रही है, कल हर सजा पर फैसले के बाद अंगुली उठेगी, और हर व्यक्ति जिसे क़ानून और कानूनी प्रक्रियाओं की जानकारी नहीं होगी वह भी हर सजा को अदालत की मन मर्ज़ी ही बताएगा. इस का एक विपरीत प्रभाव यह पड़ेगा कि अदालतें मुक़दमों की सुनवाई और फैसलो के दौरान साक्ष्यों पर कम और सजा के सामाजिक और प्रचारात्मक प्रभाव पर अधिक ध्यान देने लगेंगी. इस से न्याय करते समय बाहरी दबाव अपना प्रभाव डालेंगे और मुक़दमों के फैसले भी प्रभावित होने लग जाएंगे. फिर यह न्याय नहीं रह जाएगा वह एक प्रकार का मात्स्यन्याय ही होगा. सोशल मिडिया के दिन ब दिन लोकप्रिय और गैर जिम्मेदार होने के कारण यह प्रवित्ति और भी बढ़ेगी.
ऐसा नहीं है कि पहली बार किसी फांसी को ले कर ऐसा ध्रुवीकरण हुआ है. याद कीजिये, बेअंत सिंह के हत्या के दोषी राजुआना को भी फांसी की सजा दी गयी थी. पर उस सजा के खिलाफ अकाली दल जो भाजपा का सहयोगी दल है ने सवाल ही नहीं उठाये थे बल्कि पंजाब बंद का आह्वान भी किया था. वह सजा भी फांसी से आजीवन कारावास में बदल दी गयी थी. क्या इस विरोध को किसी ने देश द्रोह से जोड़ा था ? आतंकी घटना तो यह भी थी. पर उसे तब देश द्रोह और देश भक्ति से नहीं जोड़ा गया था. ल देश द्रोह और देश भक्ति का जो पाला अब खींचा जा रहा है उस से देश में वही पतिस्थितियाँ बन रही हैं जो 1940 में मुस्लिम लीग ने बनानी शुरू की थी. यह पाले बाज़ी राजनीतिक लाभ भले दे दे, पर अंततः यह देश का अहित ही करेगी. यह परिस्थिति देश के विघटनकारी ताक़तों को मज़बूत करेगी. हिन्दू होना और हिन्दू हित की ही बात करना जिस दिन देशभक्तिं की परिभाषा बन जाएगी, उसी दिन से देश के विघटित होने का खतरा बढ़ जाएगा. अगर फांसी का विरोध करना है तो फांसी की सजा का सैद्धांतिक विरोध कीजिये. पर इसकी फांसी सही और उसकी फांसी गलत, और वह भी धर्म के आधार पर इस का विभाजन तो आत्मघाती ही होगा. बहुत से प्रबुद्ध लोगों और क़ानून के जानकार हस्तियों ने भी इस सजा की निंदा की है. केवल सजा की निंदा करना और फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल देने की गुहार लगाने से ही उनकी देश भक्ति संदिग्ध नहीं हो जाती है. लेकिन सोशल मिडिया पर सक्रिय देश भक्त मित्र ऐसा दुष्प्रचार कर के देश की एकता को ही नुकसान पहुंचा रहे हैं. दुनिया का कोई भी देश बिना आतंरिक एकता को मज़बूत किये अपने दुश्मन से लड़ नहीं सकता है. सोशल मिडिया का यह अपशब्दों भरा , कुतर्की अंध राष्ट्रवाद अंततः देश का अहित ही करेगा.
आज फांसी के समय जो तमाशा नागपुर जेल के सामने हुआ, और याक़ूब के जनाजे में जो भीड़ उमड़ी उस से अगर गंभीरता से पढ़ें तो सन्देश साफ़ दिखेगा. यह साफ़ साफ़ धर्म के आधार पर विभाजन है. एक सवाल बड़ी शिद्दत से पूछा जा रहा है कि बेअंत सिंह के हत्यारे के समय जो सिख जन भावना उमड़ी थी उसका आदर तो किया गया पर इस समय क्यों नहीं इस पर विचार किया गया ? यह सन्देश साफ़ साफ़ संदेह उत्पन्न करता है. एक तर्क यह भी दिया जाता है कि बॉम्बे ब्लास्ट एक बहुत बड़ी आतंकवादी घटना थी और इसमें 257 लोग मरे थे. निश्चित रूप से जब भी हम ऐसे अपराधों की बात करते हैं तो फोकस सिर्फ अभियुक्त ही होता है , घटना के शिकार नेपथ्य में खो जाते हैं. इस मामले में भी ऐसा हुआ है. मानवाधिकार संगठन भी अभियुक्त की ही बात करते हैं और पीड़ित की कोई चर्चा नहीं करते हैं. मैं इस तर्क से सहमत हूँ. पर क्या श्री कृष्णा कमीशन, बाबरी विध्वंस के बाद हुए दंगे, गोधरा के बाद हुए गुजरात के दंगे, मेरठ के दंगे, मलियाना काण्ड, और 84 के सिख विरोधी दंगो के अभियुक्तों के बारे में क्यों नहीं बात उठायी गयी. आप कह सकते हैं कि याक़ूब को छोड़ने का यह आधार नहीं हो सकता है. मैं मानता हूँ कि एक अपराध दुसरे अपराध की इजाज़त नहीं देता है और न ही उसका औचित्य सिद्ध करता है. पर यह सारे घटनाक्रम और घटनाएं न्यायिक व्यवस्था के लिए एक अविश्वास के वातावरण का ही सृजन कर रही हैं. आज ही माया कोडनानी को गुजरात दंगो की सज़ायाफ्ता है, को जमानत मिली है. बाबू बजरंगी को पहले ही जमानत पर छोड़ा जा चुका है. असीमानंद के मामले में सरकारी वकील को पहले ही यह हिदायत कर दी गयी है कि वह पैरवी थोडा धीरे करें. इस से जो भ्रम फ़ैल रहा है उस से न्यायिक व्यवस्था के ही कठघरे में आ जाने का खतरा बढ़ गया है.
सत्ता या क़ानून जो भी हो, उसका सबसे बड़ा आधार उसकी साख होती है. जिस दिन साख पर संकट आ जाएगा उस दिन किसी क़ानून और अदालत का अर्थ नहीं रह जाएगा. न्यायिक प्रक्रिया को बदल कर अगर फांसी की सजा ही ख़त्म करने का इरादा है तो वह काम संसद एक संशोधन के साथ कर सकती है. इसके लिए जो राजनीतिक दल इसमें भी अपना राजनैतिक स्वार्थ देख रहे हैं वह संसद में एक बिल लाएं और फांसी की सजा का खात्मा कराएं. दुनिया के बहुत से देशों में यह सजा समाप्त है. लेकिन किसी भी सज़ा का विरोध अगर धर्म और जाति के चश्में से किया जाएगा तो सवाल भी उठेगा और न्याय खुद ही कठघरे में खड़ा नज़र आएगा।
\( विजय शंकर सिंह )