Monday 27 February 2017

अपशब्दों के बिना भी असहमति प्रकट की जा सकती है / विजय शंकर सिंह

आरएसएस के कई बड़े पदाधिकारी और उससे जुड़े लोग जो कानपुर के हैं वे मेरे पुराने परिचित हैं और आज भी उनसे बात चीत होती रहती हैं । यहां के स्वर्गीय बैरिस्टर नरेंद्रजीत सिंह तो संभवतः संघ के बहुत ही महत्वपूर्ण शख्शियत रहे हैं । अब वे नहीं पर उनके घर परिवार के अनेक लोग अभी भी हैं जो मिलते जुलते रहते हैं । आरएसएस की विचारधारा से मेरी सहमति प्रारम्भ से ही नहीं रही है और आज भी नहीं है । लेकिन कानपुर में ही स्थित एक प्रतिष्ठित विद्यालय, दीन दयाल इंटर कॉलेज , जो जब मैं आया तो , मेरे ही क्षेत्र स्वरूपनगर जहाँ का मैं सीओ सिटी था के थाना नवाबगंज  में था । मेरा आना जाना वहाँ लगा रहता था । विद्यालय में आने जाने और यहां से जुड़े अन्य गणमान्य लोगों से मिलने जुलने का सिलसिला भी खूब चला । कुछ तो मिलने जुलने की आदत भी मेरी थी और कुछ कानपुर में ही मेरा लंबा सेवाकाल रहा तो जो भी सम्बन्ध वहाँ के लोंगों से बने वे आत्मीय और पारिवारिक बन गए । अवकाश प्राप्ति के बाद आज भी यह सम्बन्ध उस समय के लोगों से हैं। कुछ तो फेसबुक पर ही हैं । यही सम्बन्ध, कांग्रेस, बीजेपी, वामपंथी , सपा, बसपा, व्यापार मंडल और पत्रकारों से भी रहे । उस समय आरएसएस के जो भी पदाधिकारी मिलते थे उनसे बात करने में , असहमति के बावजूद भी अच्छा लगता था क्यों कि उनमे बदजुबानी नहीं थी । जी लगा कर बात करना, और विनम्र व्यवहार का प्रदर्शन अच्छा और प्रभावपूर्ण लगता था । वे यह भली भाँति जानते थे कि उनकी विचारधारा से मेरी सहमति नहीं है पर उनके आत्मीयपूर्ण व्यवहार में कोई कमी नहीं थी । पर इधर सोशल मिडिया पर जब संघ प्रभावित मित्रों को कुछ लिखते देखता हूँ तो यह सोचता हूँ कि यह गाली गलौज, अमर्यादित भाषा, आक्षेप, धमकी भरा स्वर , यह किस संस्कार शाला से इन्होंने सीखा है ? अपने परिवार और विद्यालय से सीखा है या एक रणनीति के अनुसार कभी स्थान स्थान के अनुसार अमर्यादित होते रहते हैं । बहुत कम ही इस मानसिकता के मित्रों का कमेंट बिना अपशब्दों या अहंकार उवाच के पूरा नहीं होता । असहमति तो किसी भी सभ्य समाज और लोकशाही का स्थायी भाव है । आप यह कैसे सोच सकते हैं कि आप की हर भ्रू भंगिमा से सभी सहमत ही होंगे ।

यह बात मैं गुरमेहर कौर के एक वीडियो और उसके एक फ़ोटो जिसमे उन्होंने युद्ध को दोषारोपित करते हुए उसे अपने पिता का हत्यारा कहा । उन्होंने रामजस कॉलेज में हाल ही में हुए एबीवीपी और अन्य छात्रों के बीच एक सेमिनार को रोकने के लिये हुए झगड़े, जिसमे एक अध्यापक बुरी तरह घायल हो गए हैं और कुछ लड़कियों के साथ बदसलूकी और मारपीट हुयी, के सम्बन्ध में एबीवीपी की आलोचना की । यह आलोचना एबीवीपी या समान विचारधारा के लोगों को बर्दाश्त नहीं हुयी और वे उसका तार्किक जवाब देने के बजाय सोशल मिडिया पर गाली गलौज और बलात्कार तक की धमकी देने लगे । यह संस्कार जिसे वे बड़े सम्मान के साथ ओढ़ते हैं उन्होंने कहाँ पाया है ? संघ से या अपने परिवेश से या अपने परिवार से ? गुरमेहर कौर के पिता कारगिल युद्ध के दौरान शहीद हुये थे और 1999 में गुरमेहर कुल 2 साल की थीं । पिता की क्या याद होगी उन्हें इसकी कल्पना भी की जा सकती है । आज वे बड़ी हैं और सब कुछ देख समझ रही हैं । उन्होंने अपने पिता के मृत्यु की जिम्मेदारी पाकिस्तान पर न  डाल कर युद्ध पर डाल दी । यह उनका दृष्टिकोण है । अपने दृष्टिकोण के अनुसार वे किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये वे स्वतंत्र हैं । युद्ध एक परिणाम है । युद्ध अपने आप तो शुरू हुआ नहीं, बल्कि वह पाकिस्तान के करगिल में घुसपैठ के बाद शुरू हुआ । यह घोषित युद्ध नहीं था पर इसमें जनहानि किसी भी घोषित युद्ध से कम नहीं हुयी । ऐसा सरकार द्वारा एलओसी पार न करने देने के निश्चय के कारण हुआ । गुरमेहर के पिता की शहादत पाक द्वारा किया गया युद्ध ही था । यह सच भी है । लेकिन उन्होंने अगर युद्ध को ही जिम्मेदार ठहराया और इसी कारण उनके अनुसार उनके पिता दिवंगत हुए तो उनसे नाराज़गी कैसी ? और वे देशद्रोही कैसी ?  युद्ध और शहादत क्या होती है , इसका दुष्परिणाम कितना भयावह होता है यह मैं भी अनुमान नहीं लगा पाउँगा क्यों कि मेरे घर परिवार का कोई भी व्यक्ति सेना में नहीं है । पर जिन मित्रों ने अपने परिजन युद्धों में खोये हैं वे इसे ज़रूर महसूस कर रहे होंगे ।

गुरमेहर ने रामजस कॉलेज के घटनाक्रम और हिंसा की निंदा की है । दिल्ली पुलिस ने भी अपनी ज्यादती मानी है और अपने कुछ कर्मचारियों को निलंबित भी किया है । गुरमेहर की इस बात का विरोध सोशल मिडिया पर हुआ और हो रहा है । विरोध का अधिकार हर व्यक्ति को है पर गुरमेहर के विरुद्ध गाली गलौज करने और उनकी देशभक्ति पर संदेह करने का अधिकार किसी के पास नहीं है ।  उन्हें धमकी भी मिली है और धमकी भी बलात्कार करने की । बलात्कार मेरी सोच के अनुसार किसी भी महिला के विरुद्ध जघन्यतम अपराध है । यह कौन सा संस्कार है, कौन सी सोच है और कौन सा आचरण है और कौन उन्हें सिखा रहा है तथा कहाँ से सीखा है उन्होंने जब यह सवाल मेरे जेहन में उठ रहे हैं तो आप सब के मन में भी उठ रहे होंगे । यह संघ प्रदत्त संस्कार है या अन्य प्रदत्त यह मैं नहीं जानता हूँ । अपशब्द , गाली गलौज, धमकी,  ट्रोल आदि तर्क क्षीणता और आत्म विश्वास के क्षरण का द्योतक है । यह क्षरण न सिर्फ इन मित्रों में है बल्कि इनके नेताओं में भी है । बिना गाली और अपशब्दों के भी आक्रामक हुआ जा सकता है, आगर तर्क क्षमता और तर्क योग्य सामग्री हो तो ।

देश द्रोह और देश भक्ति का पैमाना क्या है । जब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत जी, पाकिस्तान को छोटा भाई कहते हैं , तो उन्हें कोई देश्द्रोही नहीं कहता है । देशद्रोही का प्रमाणपत्र बांटने वाले, एक शब्द भी नहीं बोलते हैं । कसमसा के रह जाते हों तो मुझे पता नहीं हैं। 
डॉ वेद प्रताप वैदिक जब अंतरास्ट्रीय पाक आतंकी हाफ़िज़ सईद के साथ बैठ कर उनसे गुफ्तगू करते हैं तो भी कोई उनकी देश भक्ति पर संदेह नहीं करता है । 
जब अडानी पाकिस्तान में बिजली का कारखाना लगाते हैं और वहां अपने व्यावसायिक हित तलाशते हैं तो, उन्हें भी कोई देशद्रोही नहीं कहता है । 
लेकिन, 
जब गुरमेहर कौर एक प्लेकार्ड ले कर, जिस पर यह लिखा है कि, मेरे पिता को पाकिस्तान ने नहीं युद्ध ने मारा है तो वे तुरंत देशद्रोही बना दी जाती हैं । 
यह कौन सा तर्क है, यह कौन सी सोच है, यह कौन सी मानसिकता है, यह तो वही जानें जो यह सोच के बैठे हैं कि , उनकी सोच, उनके तर्क, और उनकी मानसिकता के अतिरिक्त और विपरीत हर सोच, हर तर्क, हर मानसिकता देशद्रोह है ! 
जब कभी मन शांत हो तो ज़रा सोचियेगा कि देशद्रोह और देशभक्ति का पैमाना क्या है ?

( विजय शंकर सिंह )

Sunday 26 February 2017

एक कविता - रात ढल रही है / विजय शंकर सिंह

सुबह तो है,
सूरज भी कहीं होगा,
कुहरे में लिपटे ये पेंड, पौधे आकाश,
सब रोक रहे हैं राह,
मेरे पास बने रहो तुम !

तुम्हारे साथ, और तुम्हारे अवलंब से,
मुझे दरिया के पार जाना है.
दरिया पर बना हुआ लकड़ी का पुल,
देखो सोया पड़ा है,
कुहरे की चादर ओढ़े.
उस पार एक और दुनिया है !

सूरज, चाँद, तारे सभी तो हैं उस पार.
कदम से कदम मिला कर,
थामे हुए हाँथ,
आओ पुल तक चलें,
यह कुहरा पार करना है अब,
सूरज जब दिखे तब दिखे,
पर उसका इंतज़ार नहीं है अब.
आओ चलो अब,
रात ढल रही है !!

© विजय शंकर सिंह

Saturday 25 February 2017

तेरे वादे पर सितमगर, अभी और सब्र करते - सन्दर्भ देरी से चलती ट्रेनें / विजय शंकर सिंह

दिल्ली कानपुर शताब्दी ट्रेन जब 1988 में पहली बार चली थी और इसे दिल्ली से ले कर जब तत्कालीन रेल मंत्री माधव राव सिंधिया खुद  पूरे फ़ौज़ फाटे के साथ कानपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म न. 1 पर तशरीफ़ लाये थे तो मैं भी वहाँ उपस्थित था । मैं कोई आमंत्रित अतिथि नहीं था बल्कि मैं उस समय सीओ कलक्टरगंज था और ड्यूटी पर था । तब कानपुर से दिल्ली के लिए जहाज उड़ते थे । जहाज अब भी उड़ने लगे हैं , पर तब कानपुर से मुम्बई , कोलकाता दिल्ली के लिये नियमित उड़ानें थीं । जहाज़ों की उड़ान के बावजूद भी सजी धजी हवाई यात्रा की तरह पुश बैक आरामदायक सीटों वाली शताब्दी भी लोकप्रिय हुयी और लोगों ने इसे हांथो हाँथ लिया । बाद में इसका विस्तार लखनऊ तक हो गया । अब यह थोड़ी और आरामदायक हो कर स्वर्ण शताब्दी हो गयी है ।
बाद में एक और शताब्दी कानपुर और दिल्ली के बीच चली जो दिल्ली से शाम को चलती है और सुबह वही वापस दिल्ली को लौट जाती है । आज अखबार में देखा यह ट्रेन 9 घण्टे विलम्ब से चल रही है । ट्रेनों का विलम्ब से चलना कोई हैरानी भरी बात नहीं है, बल्कि ट्रेन जब बिलकुल समय से गंतव्य का प्लेटफार्म स्पर्श कर ले तो समझिये कि जिस आह्लाद की अनुभूति एक अच्छी दौड़ की प्रतियोगिता में फिनिशिंग लाइन स्पर्श करने की होती है वही अनुभूति उन यात्रियों की भी होती है जो बिलकुल ठीक समय पर प्लेटफॉर्म पर पहुँचते हैं । शताब्दी और राजधानी ट्रेनें रेलवे की महत्वपूर्ण गाड़िया है । इनके संचालन पर रेलवे की सतर्क नज़र रहती है और इनके यात्री भी यही सोच कर इन महंगे सफर को अपनाते हैं कि सफ़र आरामदायक तो रहेगा ही और वे समय पर गंतव्य पर पहुंचेंगे ।

इधर कुछ महीनों से कानपुर और दिल्ली के बीच चलने वाली शताब्दी एक्सप्रेस अक्सर देरी से आ जा रही है । आज  27 फ़रवरी के ही अखबार में छपा है कि यह गाड़ी 9 घंटे विलम्ब से कल रवाना हुयी । सफ़र 5 घण्टे का और विलंबिता 9 घण्टे की, यह तो बहुत नाइंसाफी है । कानपुर के आस पास अक्सर रेलवे ट्रैक के कभी खिसकने, कभी धसकने, तो कभी क्रैक तो कभी फ्रैक्चर होने की खबरे भी आ रही हैं । यह गतिविधियाँ इधर थोड़ी अधिक हो भी गयीं हैं । यह कोई गहरी आतंकी साज़िश है या रेलवे ट्रैक का बार्धक्य यह तो रेलवे के इंजीनियर साहबान ही बता पाएंगे , पर पीएम के बयान के अनुसार यह आईएसआई की हरकतें भी हो सकती हैं । एनआईए तथा अन्य जांच एजेंसियाँ इसकी जांच भी कर रही हैं ।

ट्रेनों के विलम्ब पर असुविधा, और आक्रोश तो होता ही है पर तब क्रोध और बढ़ जाता है जब उनके आगमन और प्रस्थान के समय की सही जानकारी समय पर यात्रियों को नहीं मिलती है तो। 139 जो रेलवे का संपर्क सूत्र है वह बड़े प्यार से मनचाही भाषा में स्वागत सत्कार करने के बाद भी कोई सार्थक सूचना नहीं देता है और जब बाद में कुछ सार्थक सूचना देता भी है तो एक विनम्र खेद व्यक्त कर फिर नेपथ्य में चला जाता है । सही सूचना के अभाव में लोग उसी सूचना पर विश्वास कर के स्टेशन पर आ जाते हैं और फिर इंतज़ार का सिलसिला शुरू हो जाता है । आज के सूचना के युग में कोई भी सूचना जन जन तक पहुँचाना कोई मुश्किल काम नहीं है । एसएमएस , एफएम चैनेल , 139 और अन्य माध्यम से यह काम किया जा सकता है । ट्रेन विलम्ब से है तो साफ़ साफ़ बताएं कि कितने घण्टे बाद आएगी ताकि लोग उस समय में कुछ उपयोगी कार्य कर लें पर रेलवे किन कारणों से साफ़ साफ़ नही बताता हैं यह मेरी समझ में नहीं आता है। नेट पर रनिंग ट्रेन स्टेटस से भी उनकी ताज़ा स्थिति कभी कभी नहीं पता लगती है । नेटवर्क भी एक विकट मायाजाल है ।

सुरेश प्रभु जब रेल मंत्री बने तो बड़ा शोर हुआ कि रेलवे के भाग्य जागेंगे । रेलवे में सुविधाओं के बढ़ाने के नाम पर किराये बढ़ाये गए । अखबारों, समाचार चैनलों, सोशल मिडिया में बहुत गुणगान हुआ । बुलेट ट्रेन की खूबसूरत फ़ोटो वायरल बुखार की तरह फैलने लगी । कुछ सच थीं तो कुछ फोटोशाप की हुयी । उसका विरोध भी हुआ कि  पहले गाड़ियां समय से चलें और सबको स्थान मिल जाये यह ज़रूरी है , बुलेट ट्रेन बनती रहेगी । पर यह सब तो हुआ नहीं और इसके विपरीत रेलवे की दशा बिगड़ती ही रही और किराए समय समय पर बढ़ते रहे । यहां तक कि पीएमओ को भी उनके खराब काम पर नाराज़गी जतानी पड़ी ।

हे प्रभु, रेलें को बिलम्ब से चलने के कई कारण होंगे और हो सकता है इन सब का निदान करना संभव भी न हो अभी, पर कितना विलम्ब है और कब ट्रेन आएगी इसकी सही सही सूचना यात्रियों को देना तो असम्भव नहीं है । स्टेशन चाहे भले वर्ल्ड क्लास हो पर प्रतीक्षा सदैव उबाती है । और तब तो और भी पहाड़ सा वक़्त बीतता है जब आने के समय का कुछ पता ही न हो । लोग स्टेशन के प्लेटफार्म पर चादर या अख़बार बिछाये , अनुकूल या प्रतिकूल मौसम में बैठे बैठे, ऊबते या खीजते रहते हुए समय काटते रहते हैं । कम से कम सही सूचना तो दे दें । शायद ढाढ़स ही बंधे और लोग उसी के अनुसार कुछ खा पी लें या कोई और काम कर लें ।

हम सब वादों पर जीते हैं । वादे उम्मीद ही तो होते हैं । ट्रेन का विलंबन भी एक वादा ही है । अब आएगी और अब आने वाली है । इन्ही वादों की विडंबना और नियति पर दाग देहलवी का एक खूबसूरत शेर पढ़ें , 

तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते,
अगर अपनी ज़िन्दगी पर हमें ऐतबार होता है !!
( विजय शंकर सिंह )

Friday 17 February 2017

नागार्जुन की कविता - गुड़ मिलेगा और इसी बहाने एक प्रतिक्रिया खामोशी पर / विजय शंकर सिंह

                                                                                       

एक छोटी कविता नागार्जुन की पढ़ें । यह कविता खामोशी और चुप्पियों के बारे में है । यह कविता जो कुछ हो रहा है उसे बस देखने और स्वीकार करने के बारे में है । यह कविता सत्ता के सार्वभौम दुर्गुण चाटुकारिता पसंदगीं के बारे में है । यह कविता कोउ नृप होहिं हमे का हानि , की मानसिकता पर है । कविता है, - 

गुड़ मिलेगा
गूंगा रहोगे
गुड़ मिलेगा
रुत हँसेगी
दिल खिलेगा
पैसे झरेंगे
पेड़ हिलेगा
सिर गायब,
टोपा सिलेगा
गूंगा रहोगे
गुड़ मिलेगा !!

चुप्पियों पर आधारित है यह कविता । बोलना किसी भी अधिकार मद संपन्न व्यक्ति को सुहाता नहीं है । वह जब भी सुनना चाहता है मनमाफिक ही सुनना चाहता है । यह ठकुरसुहाती शब्द भी इसी अर्थ को व्यंजित करता है । ठाकुर यूँ हो क्षत्रियों के लिए एक सम्मान जनक सम्बोधन है , पर ठाकुर का अर्थ श्रेष्ठ भी होता है । मथुरा में ठाकुर जी कृष्ण को कहते हैं । ठाकुर का अर्थ अधिकार संपन्न भी है । ठाकुर स्वभावतः प्रशंसा सुनना पसंद करते हैं । यह उनकी एक प्रकार से जातिगत कमज़ोरी भी होती है । इसी लिए राजाओं के दरबार में विरूदावली गाने की प्रथा है । दरबारों में इसी लिए भाट रखे जाते थे । भाट , या चारण राजा की बड़ाई और उपलब्धियाँ खूब बखानते थे । हिंदी साहित्य का वीरगाथा काल इसका एक उदाहरण । प्रशंसा बिना अतिशय उक्ति के हो भी नहीं सकती है , इस लिए इस काल का सारा साहित्य ही अतिशयोक्ति अलंकार का उत्कृष्ट उदाहरण है । भाट और चारणों को इस विरुद गान हेतु इनामात भी मिलते थे । इसी प्रकार  ईश्वर का रूप भी परम अधिकार संपन्न सत्ता का ही होता है । इसी लिए उसकी स्तुति की जाती है और उस स्तुति गान में उसकी क्षमता और उसके सर्वशक्ति भाव का ही वर्णन होता है । प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, राजा भी ईश्वर का ही एक रूप होता है । चाहे वह एक गाँव का हो या पूरे देश का, राजा , राजा होता है । उसमे देवत्व का अंश ही देखा जाता है । राजा अधिकतर क्षत्रिय ही होते थे । अक्षत्रिय राजा के राज्याभिषेक का अमूमन कोई शास्त्रीय विधान भी नहीं था । हालांकि इतिहास में अक्षत्रिय सम्राट और राजाओं के भी उल्लेख मिलते हैं । इतिहास में यह उल्लेख मिलता है कि शिवाजी का राज्याभिषेक कराने के लिये काशी के पंडितों ने मना कर दिया था । उनका कहना था कि शास्त्रोचित राज्याभिषेक केवल क्षत्रिय का ही संभव है । तब शिवाजी को अनुष्ठान के बाद क्षत्रिय घोषित किया गया तब उनका राज्यारोहण हुआ । शिवाजी मराठाऔर कूर्मि क्षत्रिय थे । कर्नल टॉड जिसने राजपूतों के इतिहास पर एक शोधपूर्ण ग्रन्थ , The annals and antiquities of Rajsthan लिखा है में उन्होंने राजपूतों के 12 दुर्गुण भी गिनायें है । उन पर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी, उन दुर्गुणों में एक दुर्गुण प्रशंसा सुनने का भी है । आज भी यह दुर्गुण विद्यमान है । इसी प्रकार ठाकुरों को जो सुहाए वही ठकुरसुहाती है ।
इस प्रकार आज न राज्य हैं न राजा और न ही राजन्य बचे हैं । सत्ता लोकतांत्रिक हो गयी है । जिसे जनता चुनती है वह सत्ता संभालता है । पर आदिम और मध्ययुगीन मनोवृत्ति अभी भी नहीं गयी है । अधिकार का मद सबसे पहले अतीत के इसी हैंगओवर में ले जाता है, जहां तक मेरी हद ए निगाह है वहाँ तक मेरी ही चलती है और चलेगी । जब भी सत्ता निरंकुशता की और कदम बढ़ाती है वह आलोचना के के प्रति असहिष्णु होने लगती है । यह बात भारतीय सन्दर्भ में ही नहीं बल्कि दुनिया भर के सत्ता का स्थापित चरित्र भी है । यह प्रवित्ति  हम अपने गाँव और अतीत बनते जा रहे संयुक्त परिवार के प्रमुख में भी ढून्ढ सकते हैं । नागार्जुन की यह कविता उसी चुप्पी को गूँगे और गुड़ के रुप में व्यक्त करती है । जब चुप्पी रहेगी और हर उस बात पर जो सत्ता के ही हित में हो तो लोग खामोश रहेंगे तो, वे उपकृत भी होंगे । नागार्जुन ने बेहद कम शब्दों में इस कविता के माध्यम से एक ध्रुव सत्य कहा है ।
( विजय शंकर सिंह )

Tuesday 14 February 2017

एक बानगी इश्क़ हक़ीक़ी की - अमीर खुसरो के कुछ दोहे / विजय शंकर सिंह

इश्क़ हक़ीक़ी और इश्क़ मजाजी , सूफी परम्परा के अनुसार प्रेम या इश्क़ के दो पहलू हैं । इश्क़ हक़ीक़ी , हक़ यानी ईश्वर, ईश्वरीय प्रेम या इसे अलौकिक प्रेम भी कह सकते हैं और इश्क़ मजाज़ी लौकिक प्रेम या सामान्य अर्थं जो प्रेम का होता है, वह है । सूफी परम्परा में संत को पिया भी कहा गया है । सूफियों के चार सिलसिले होते हैं । इनमे से हजरत निज़ामुद्दीन औलिया भी एक सिलसिला निज़ामी सिलसिले के संत थे । आप ने एक मशहूर कहावत , हनोज़ दिल्ली दूर अस्त ( अभी दिल्ली दूर है ) सुनी होगी । वह इन्ही सूफी संत से जुडी है। हजरत अमीर खुसरो हिंदवी और फारसी के प्रसिद्ध कवि रहे हैं । इनके कुछ दोहे प्रस्तुत हैं ।

O
खुसरो दरिया प्रेम का सो उल्टी वाकी धार,
जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार !!

खुसरो औ पी एक है, पर देखन में दोय,
मन को मन में तौलिये , तो दो मन कबहुँ न होय !!

पीत करे सो ऐसी करे जा से मन पतियाय,
जने जने की पीत से जनम अकारथ जाय !!

मोह काहे मन में भरे, प्रेम पंथ को जाय
चली बिलाई हज्ज को , नौ सौ चूहे खाय !!

खुसरो पाती प्रेम की, बिरला बांचे कोय,
वेद,  कुरआन पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय !!

O
अमीर खुसरो दिल्ली में ही सोये हैं । वे चिरनिद्रा में लीन है । हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह के पास ही उनकी भी मज़ार है । जब आप दरगाह के भीतर प्रवेश करते हैं तो पहले अमीर खुसरो की ही मज़ार पर सर झुकाया जाता है । गुरु के पूर्व शिष्य का ही वंदन करने की प्रथा है । कारण मुझे पता नहीं है । हो सकता हैं यह मामला भी गुरु गोविन्द दोउ खड़े के दर्शन सरीखा हो । इनकी मजार पर चादर चढाने , और सिर झुकाने के बाद ही हज़रत निज़ामुद्दीन की मजार पर जाने की परम्परा है ।

अमीर खुसरो एटा जिले के पटियाली गांव के रहने वाले थे । वे बाद में दिल्ली आ कर बस गए । उनका पूरा नाम अबुल हसन यमिनुद्दीन खुसरो था । उनका जन्म 1253 ई में और निधन अक्टूबर 1325 ई में दिल्ली में हुआ था । वे भारतीय उपमहाद्वीप के सांस्कृतिक परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी थे । वे सूफी परम्परा में थे । हजरत निज़ामुद्दीन के वे बेहद करीबी शिष्य थे । उन्होंने ग़ज़ल , ख़याल, रुबाई और तराना आदि विधाओं में लिखा । वे मूलतः फारसी में लिखते थे पर बाद में उन्हीने हिन्दवी जिसे आज हिंदी कहा जाता है में लिखने लगे । कहा जाता है उन्हीने सितार और तबले का भी आविष्कार किया । सितार उन्होंने वीणा से विकसित किया । वे क़व्वाली के जन्मदाता कहे जाते हैं । क़व्वाली मूलतः भजन से ही विकसित हुयी है । दरगाह और मज़ारों पर क़व्वाली का प्रचलन इस्लाम पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव है । जहां सूफी संतों के सम्मान में क़व्वाली गायी जाती है ।

धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले विद्वान डॉ प्रमोद पाहवा के अनुसार,
" आध्यत्म की सर्वोच्च पराकाष्ठा है सुफ़िज़्म , ये मत समस्त जीव में ईश्वर का स्वरुप देखता है और प्रेम का स्तर लिंग भेद से बहुत आत्मिक स्वरुप में अनुभव करता हैं।
ईश्वर को प्रेमी मानने की प्रथा में तो सखी सम्पदाय भी है (यू पी पुलिस के उच्चाधिकारी याद होंगे) परन्तु बाबा बुल्ले शाह, दाता दरबार,वारिस शाह सरकार और बहुत हद तक गुरु नानक देव जी भी इसी दर्शन को जीवंत करते रहे,। सुफ़ काले कम्बल को कहते है और उसको धारण करने वालो को सूफ़ी कहा जाने लगा, काले कम्बल के पीछे भी कोई दर्शन अवश्य रहा होगा । "

( विजय शंकर सिंह )

Friday 10 February 2017

09 फरवरी 16, एक साल पहले - जेएनयू का एक प्रकरण / विजय शंकर सिंह

एक साल पहले 9 फरवरी 2016 को जेएनयू पूरे देश के लिए खतरा बन गया था । वहाँ छात्रों के एक आयोजन में देश की अखंडता के खिलाफ कुछ अत्यंत आपत्तिजनक नारे लगाये गए थे । बड़ा शोर मचा । लोगों की भावनायें आहत हुयीं । जेएनयू स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर यह इलज़ाम लगा कि वे इस राष्ट्र विरोधी कृत्य में शामिल है । सारे टीवी चैनेल उसी और लपक गए । खबरों की बहुतायत जो थी । थाने में मुक़दमा कायम हुआ । कन्हैया के साथ दो और छात्र थे । एक अनिर्बान और दूसरा खालिद उमर । ये दोनों तो फरार हो गये । कन्हैया गिरफ्तार हुआ और पुलिस ने उसे रिमांड पर लिया । मामला संगीन था । लोग उत्तेजित थे । आरोप गंभीर था । पुलिस कस्टडी रिमांड यूपी पुलिस को छोड़ कर सभी प्रांतों की पुलिस को विवेचना के दौरान आसानी से मिल जाता है । कन्हैया की पेशी अदालत में हुयी । वकीलों का खून भी खौला । उसके साथ मारपीट हुयी । एक विधायक जी ने देशद्रोही को देखते ही गोली मारने की भीष्म प्रतिज्ञा की नकल भी कर ली । टीवी चैनेल पर , कानून के पहरुओं का यह नंग और गैर कानूनी कृत्य पूरे देश ने देखा । न्यायपालिका ने भी इस कृत्य की निंदा की । नोटिस आदि जारी हुयी। मामला आगे बढ़ा । अदालत में रिमांड के समाप्त होने पर मुल्ज़िम की पेशी हुयी । पुलिस से सुबूत माँगा गया । सुबूत था ही नहीं । बस्सी सर पुलिस आयुक्त थे । उनका रिटायरमेंट नज़दीक था । वे भी दिन ही गिन रहे थे । सुबूत पुलिस इकठ्ठा करती रही । पर जब सुबूत नहीं मिला तो अदालत ने जमानत दे दी । कन्हैया जेल से रिहा हो कर फिर अपने जेएनयू में । मुक़दमा अभी चल रहा है ।

फिर शुरू हुआ जेएनयू के खिलाफ दुष्प्रचार का दौर । सोशल मिडिया पर जिसका एडमिशन किसी कसबे के डिग्री कॉलेज में भी न हो सकता हो वह भी जेएनयू की प्रतिभा, वहाँ के प्रोफेसरों और उसके योगदान पर छींटाकशी करने लगा । किसी माननीय को वहां कंडोम दिखा, तो किसी की आँखे वहाँ की सस्ती फीस से चौड़ी हो गयीं । किसी को मुक्त विचार से परहेज़ हुआ तो किसी को मुक्त रूप और सम भाव से विचरण करती लड़कियां अखरने लगीं । किसी को वामपंथी चुभने लगे तो किसी ने यह भी मशविरा उछाल दिया कि जेएनयू से जवाहरलाल नेहरू का नाम हटा कर सुभाष बाबू का नाम रख दिया । यानी देश की साझी विरासत और एकता को तोड़ने की फितरत अभी भी गयी नहीं है । बस किसी तरह अलगाओ और विलगाओ । पर धीरे धीरे बादल हटा और सब कुछ साफ़ हुआ तो माहौल शांत हुआ । वही एक साल पहले देशद्रोह की नर्सरी कहा जाने वाला जेएनयू आज देश का अकेला विश्वविद्यालय है जो विश्व के मानक पर उतरता है ।

अब किस्सा सुनिए उन सुबूतों का जो कन्हैया के खिलाफ इकठ्ठा किये गए थे । एक टीवी चैनेल ने एक वीडियो टेप दिखाये जिसमे कुछ लड़के मुंह ढंके भारत की बरबादी और टुकड़े होंगे के नारे लगा रहे थे । यह फंक्शन अफज़ल गुरु जो संसद पर हमले ( 2001ई ) का सज़ायाफ्ता था और जिसे फांसी दे दी गयी है के सम्बन्ध में था । बड़ा शोर मचाया विद्यार्थी परिषद और राष्ट्रवादी पार्टी के लोगों ने कि इन छात्रों पर कार्यवाही की जाय । अफज़ल गुरु का महिमामंडन गलत है और इसे सभी निंदनीय मानेंगे । पर लोकतंत्र और राजनीति की यह विडंबना भी देखिये जो अफज़ल प्रेमी गैंग कह कर अपने विरोधियों को कोसते नहीं थकते थे, वे खुद ही अफज़ल प्रेमी पार्टी के साथ जम्मू कश्मीर में सरकार के भागीदार हो गए । सत्ता का चरित्र अजब होता है । कब, कौन , कहाँ , किसके साथ कल होगा, देवो न जानाति कुतो मनुषयः ! तो अफज़ल अब भुला दिया गया है । वह उसी दिन उन्हें याद आयेगा, जब महबूबा बेवफा हो जाएंगी । अभी तो वे जवान हैं !

अब सुबूतों पर आइये । किस्सागोई बहकाती बहुत है । यह पहाड़ी नदी की तरह बल खाती और मचल जाती है । जो वीडियो टेप मिला उसके बारे में यह बचाव पक्ष ने कहा कि वह टेम्पर्ड है । यानी उसके साथ छेड़छाड़ की गयी है । उसकी जांच हुयी । दो दो फोरेंसिक लैब ने जांच की । कन्हैया के खिलाफ अभी तक तो सुबूत नहीं मिला है । अभी मुक़दमा जेरे तफ्तीश है । सो इस पर कोई बात नहीं । बस्सी सर के दिन पूरे हुए । वे रिटायर हुए और तुरंत नौकरी भी पा गये । वे संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य बन गए । सरकारें वफादार अधिकारियों का बहुत ख्याल रखती हैं । इनका भी ख्याल रखा । कोई नयी बात नहीं है । यह सनातन प्रक्रिया है सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक भी । गणेश और कार्तिकेय की कथा इस सन्दर्भ में आप याद कर सकते हैं ।

अब सवाल है,  जो नारे लगा रहे थे , वे कौन थे । एनआईए , दिल्ली पुलिस , आदि आदि लगी रही पर वे बदमाश लड़के कौन थे उनका पता नहीं चल पाया । किसी ने कहा न्यूज़ चैनेल वाले ले कर आये थे । किसी ने कहा वे वामपंथी थे तो किसी ने कहा कि वे कश्मीरी थे । राम तक समझ न पाये इन मायावी लोगों को , खुद ही गच्चा खा गये, तो मेरी पुलिस बेचारी क्या समझेगी । अभी कोई ख़ास प्रगति नहीं है , विवेचना जारी है । यह हमारा बोध वाक्य है । जो सदैव असहज सवालों के समय रेनकोट के रूप में काम आता रहा है । पर थोडा मज़ाक छोड़ें तो यह दिल्ली पुलिस और उन सब लोगों के लिए जो इस मामले में तलाश ए मुल्ज़िम थे, और हैं के लिए चुनौती भी है । आशा है सच सामने आएगा और सत्यमेव जयते की विजय होगी । 

आज भोपाल में एसटीएफ ने 11 लोगों को गिरफ्तार किया है जो आईएसआई को सूचना देते हुए पकड़े गए । उनमे एक ध्रुव भी हैं जो राष्ट्रवादी विचारधारा के दल और संघटन से जुड़े हैं । पकडे जाने वाले तमाम लोग मुस्लिम नहीं है बल्कि हिन्दू हैं। यहाँ भी धर्म , जासूसी के लिए पेटेंट नहीं है जैसा कि अक्सर कहा जाता है । इन सब अभियुक्तों के खिलाफ कार्यवाही की जानी चाहिये और साथ ही साथ , जेएनयू के उन नक़ाब पोश नारेबाज़ों का भी पता लगाया जाना चाहिए ताकि सच सामने आ सके । ऐसा तो नहीं कि जेएनयू को बदनाम करने का वह एक षडयंत्र था । एक साल बीत गया था । सोचा एक रिमाइंडर जारी कर दूँ ! वैसे भी अपराध कहीं भी , किसी भी समय, किसी के साथ और किसी के द्वारा भी हो सकता है । अपराध एक मनोवृत्ति है । यह मनोवृत्ति इंसान में तब से आयी है जब न धर्म था और न ही राजनीति । आदिम समाज में भी अपराध रहा है । जैसे ही विवेक का संज्ञान हुआ , अपराध का जन्म हुआ होगा । गुनाह फितरत ए आदम है ।

( विजय शंकर सिंह )

Thursday 9 February 2017

बातहि हांथी पाइये , बातहि हांथी पाँव / विजय शंकर सिंह

अटल जी सिर्फ इस लिये ही नहीं याद किये जाते हैं कि वे भारत के 6 वर्ष तक प्रधानमंत्री रहे हैं बल्कि इस लिए भी कि वे न केवल एक प्रखर और ओजस्वी वक्ता रहे हैं अपितु लोकतांत्रिक मूल्यों में उनकी आस्था निरंतर बनी रही है । वे भी आरएसएस से जुड़े रहे हैं और खुद को एक स्वयंसेवक के रूप में कहने हुए उन्हें गर्व भी है । 1957 में वे पहली बार लोक सभा के लिए बलराम पुर से चुने गये थे । उन्होंने चुनाव भी हारा है । भाजपा का उत्थान भी देखा है और पतन के भी वे साक्षी रहे हैं । आरएसएस का गांधी  नेहरू से पुराना वैर है । यह वैर वैचारिक तो है ही पर अब इस विचार विरोध में इतनी घृणा का समावेश हो चुका है यह दोनों महानुभाव आरएसएस के कैडर द्वारा अक्सर  देश के खलनायक के रूप में ही प्रस्तुत किये जाते हैं । आज जब संसद , सड़क में तब्दील हो रही है, भाषणों के तथ्यों को तो दरकिनार कीजिए, भाषा और देह भाषा का स्तर फूहड़ता से लिप्त हो रहा हो तो अटल बिहारी बाजपेयी के उस भाषण की याद आना स्वाभाविक है । यह भाषण अटल जी ने तब दिया था जब वे जवाहरलाल नेहरू का निधन हो गया था । ऐसा नहीं कि अटल जी ने नेहरू की आलोचना नहीं की है या नेहरू ने गलतियां नहीं की है । लेकिन संसद , गली का कोई नुक्कड़ नहीं है और न ही कोई चंडूख़ाना, कि जो भी मन में आ जाय बोल दिया जाय । यह तर्क दिया जा सकता है कि विरोधी दलों के नेताओं के बयान भी कम शर्मनाक नहीं रहे हैं । यह बात सच है । पर प्रधानमंत्री केवल सत्ताधारी दल के ही नेता ही नहीं बल्कि वे सदन के भी नेता है । रेनकोट के प्रतीक से अगर वे यह बताना चाहते हैं कि मनमोहन सिंह कांग्रेस के घोटाले में लिप्त न रहते हुए भी उनसे अवगत थे और जानबूझ कर उन्होंने आँखों को बन्द कर रखा था, तो उन्हें इस आरोप पर जो स्वयं उनके संज्ञान में है कार्यवाही की जानी चाहिये । आप कितने भी ऊंचे हो कानून आप से बड़ा है । संसद कोई चुनावी मंच नहीं है और न ही कोई अनौपचारिक वार्तालाप कक्ष कि कुछ भी आप किसी के बारे में कह सकते हैं । वहाँ की सारी कार्यवाही लिपिबद्ध होती है और स्पीकर के आदेश से जो अंश उसकी समझ में अमर्यादित होते हैं उन्हें हटा भी दिया जाता है । निश्चित रूप से मोदी जी अकेले और पहले ऐसे सांसद नहीं है जिन्होंने आपत्तिजनक या आक्रामक बात कही है । 1952 से अब तक की कार्यवाही का विवरण देखा जाय तो, ऐसे प्रकरण और भी मिलेंगे । पर प्रधानमंत्री और सदन के नेता के रूप में यह भी पहली ही बार हुआ है जब किसी प्रधानमंत्री ने पहली बार ऐसी बात कही है जिसे अमर्यादित कहा जा रहा है ।

नेहरू को श्रद्धांजलि देते हुए अटल जी का यह वक्तव्य उनके व्यक्तित्व का एक नया आयाम दिग्दर्शित करता है । यह अंश wordpress ब्लॉग से लिया गया है । मूल भी आप लिंक में पढ़ सकते हैं ।

" Sir, a dream has been shattered, a song silenced, a flame has vanished in the infinite. It was the dream of a world without fear and without hunger, it was the song of an epic that had the echo of the Gita and the fragrance of the rose. It was the flame of a lamp that burnt all night, fought with every darkness, showed us the way, and one morning attained Nirvana.
Death is certain, the body is ephemeral. The golden body that yesterday we consigned to the funeral pyre of sandalwood was bound to end. But did death have to come so stealthily? When friends were asleep and guards were slack we were robbed of a priceless gift of life. Bharat Mata is stricken with grief today – she has lost her favourite prince. Humanity is sad today – it has lost its devotee. Peace is restless today – its protector is no more. The down – trodden have lost their refuge. The common man has lost the light in his eyes. The curtain has come down. The leading actor on the stage of the world displayed his final role and taken the bow.
In the Ramayana Maharashi Valmiki has said of Lord Rama that he brought the impossible together. In Panditji’s life we see a glimpse of what the great poet said. He was a devotee of peace and yet the harbinger of revolution, he was a devotee of non-violence but advocated every weapon to defend freedom and honour.
He was an advocate of individual freedom and yet was committed to bringing about economic equality. He was never afraid of a compromise with anybody, but he never compromised with anyone out of fear. His policy towards Pakistan and China was a symbol of this unique blend. It had generosity as well as firmness. It is unfortunate that this generosity was mistaken for weakness, while some people looked upon his firmness as obstinacy.
I remember I once saw him very angry during the days of the Chinese aggression when our Western friends were trying to prevail upon us to arrive at some compromise with Pakistan on Kashmir. When he was told we would have to fight on two fronts if there was no compromise on the Kashmir problem he flared up and said we would fight on both fronts if necessary. He was against negotiating under any pressure.
Sir, the freedom of which he was the general and protector is today in danger. We have to protect it with all our might. The national unity and integrity of which he was the apostle is also in danger today. We have to preserve it at any cost. The Indian democracy he established, and of which he made a success is also faced with a doubtful future. With our unity, discipline and self-confidence we have to make this democracy a success. The leader is gone, the followers remain. The sun has set, now we have to find our way by the light of the stars. This is a highly testing time. If we all could dedicate ourselves to the great ideal of a mighty and prosperous India that could make an honourable contribution to world peace for ever, it would indeed be a true tribute to him.
The loss to Parliament is irreparable. Such a resident may never grace Teen Murti again. That vibrant personality, that attitude of taking even the opposition along, that refined gentlemanliness, that greatness we may not again see in the near future. In spite of a difference of opinion we have nothing but respect for his great ideals, his integrity, his love for the country and his indomitable courage.
With these words I pay my humble homage to that great soul."

( विजय शंकर सिंह )