Monday 31 October 2016

पुलिस एनकाउंटर - एक विचार / विजय शंकर सिंह

भोपाल में एनकाउंटर हुआ । 8 जेल से भागे हुए विचाराधीन कैदियों का पुलिस ने पीछा किया और एक मुठभेड़ में मार गिराया । सामान्य लोग एनकाउंटर का केवल एक अर्थ समझते हैं कि मुठभेड़ में मार दिया गया । पुलिस और सीमा पर होने वाली दुश्मन की मुठभेड़ों को एक ही चश्मे से देखेंगे तो चीज़ें कभी कभी धुंधली दिखेंगी । सेना दुश्मन के क्षेत्र में दुश्मन से भिड़ती है । वहाँ अगर हम नहीं मारेंगे तो शर्तिया मारे जाएंगे । पर पुलिस मारने के उद्देश्य से मुठभेड़ नहीं करती है। उसका काम है अभियुक्त को पकड़ना और पकड़ कर कानून की प्रक्रिया का पालन करना । अब काम अदालत का है । यह भी सही है कि अदालतों में देर होती है, गवाह टूट जाते हैं, लोग गवाही देने नहीं जाते हैं, और मुल्ज़िम बरी हो जाते हैं । पुलिस ने जिसने इतने मेहनत से पता लगा कर मुल्ज़िम पकड़ा वह जब छूट जाता है तो पुलिस के मनोबल पर असर पड़े या न पड़े पर अपराधियों के मनोबल पर असर ज़रूर पड़ता है । कुछ अपराधी इतने दुर्दांत होते हैं कि उनकी गिरफ्तारी संभव भी नहीं होती और गिरफ्तार हो भी गए तो उनके खिलाफ कोई गवाही देता भी नहीं है। तब इलाके के जो लोग ऐसे अभियुक्तों से आज़िज आ चुके हैं वे चाहते हैं कि उनका एनकाउंटर हो जाय । उनके लिए एनकाउंटर एक कानूनी प्राविधान जैसा लगता है । वे अपने तर्क देते हैं कि जो पकड़वायेगा उसे ही मुल्ज़िम, जेल से छूट कर मार देगा । कभी कभी तो मुखबिर पुलिस से यह आश्वासन भी चाहता है कि, वह पकड़वा तो देगा पर वही उसे ठोंक देना । यह एक बेहद सामान्य सी बात मैं जैसा होता था वैसा लिख रहा हूँ । था, इस लिए लिख रहा हूँ, अब जब से मानवाधिकार संगठन, और संचार के साधन , नेट आधरित कैमरे जिसमे आप लाइव सब कुछ दिखा सकते हैं और सैकड़ों की संख्या में खबरिया चैनेल आ गए है तब से यह प्रवित्ति कम या बहुत कम हो गयी है । पुलिस उन अभियुक्तों को गिरफ्तार करने का प्रयास करती है और गिरफ्तार करते समय अगर गोलियों का आदान प्रदान होता है तो उसमे या तो मुल्ज़िम मरता है या पुलिस के लोग या दोनों या हो सकता है कोई भी न मरे । इस प्रकार सैद्धांतिक रूप से यही मुठभेड़ का फलसफा है ।

भोपाल मुठभेड़ के बारे में, जो भी खबरे आ रही हैं वह सभी परस्पर विरोधाभासी है । अखबारों की खबरों के आधार पर इसकी मीमांसा करना उचित नहीं होगा । पर सोशल मिडिया में जिस प्रकार से धर्म के आधार पर इस एनकाउंटर को ले कर ध्रुवीकरण हो रहा है वह शुभ संकेत नहीं है । आज धर्म को ले कर यह ध्रुवीकरण हो रहा है कल यह जाति को ले कर हुआ था कभी उत्तर प्रदेश में । 1980 से 83 तक उत्तर प्रदेस में बहुत अधिक मुठभेड़ें हुयी । उस समय आगरा और कानपुर रेंज का इलाक़ा दुर्दांत दस्यु गिरोहों से पटा पड़ा था । मेरी नयी नयी नौकरी थी । मैं अलीगढ और मथुरा में डीएसपी नियुक्त था  । पुलिस बल पर खूब हमले होते थे । जाति के आधार पर दस्यु गिरोह बँट गए थे और इस जाति की मानसिकता की पैठ पुलिस बल में भी हो चुकी थी । उस समय सरकार भी आज़िज आ गयी थी और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे वीपी सिंह । सरकार ने एक अभियान चलाया था, दुष्ट दलन अभियान । और तब मुठभेड़ें बहुत हुयी थी । मुठभेड़ों के साथ एक बात तय होती है कि हर मुठभेड़ की शिकायत होती है । चाहे वह सच में मुठ भेड़ हो पर उस पर यही आरोप लगता है कि यह फ़र्ज़ी है और पकड़ कर मार दिया । यह मानसिकता आज भी बदली नहीं है । उस समय की मुठभेड़ों के बाद उत्तर प्रदेश के नेता विरोधी दल थे मुलायम सिंह । जिन्होंने सीधे आरोप लगाए कि यह मुठभेड़ें , जान बूझ कर पिछड़ी जाति के लोगों को बदमाश बता कर मारने के लिए की जा रहीं हैं । संयोग से उस समय के सभी बड़े और कुख्यात गिरोह यादवों के ही थे । बाद में जब मानवाधिकार संगठन सक्रिय हुए और लोगों ने शिकायतें की तो इनकी सीआईडी जाँचें शुरू हुयी तो कुछ मुठभेड़ें फ़र्ज़ी पायी गयीं और उनमे पुलिस के ही अधिकारी जिन्होंने मुठभेड़ों में भाग लिया था , जेल गए और हाल तक कइयों की इनमे सजा भी हुयी है ।

ऐसा नहीं ही कि उत्तर प्रदेस पुलिस ही इस मामले में सबसे अधिक निशाने पर रही हो । पर 80 से 84 के काल के बाद यही आरोप पंजाब पुलिस पर लगा कि उसने सिख आतंकवाद के नाम पर निर्दोष सिखों की हत्याएं की । पंजाब ने दस साल का समय आतंकवाद की आग में झुलस कर काटा है । वह एक असामान्य स्थिति थी । वह एक प्रकार का युद्ध काल था । पुलिस ने बहुत सख्त कदम उठाये । स्थिति सुधरी और धीरे धीरे पंजाब सामान्य होता चला गया । पर इसका खामियाजा भी पुलिस ने भुगता । जब पंजाब सामान्य हुआ और उसका उन्माद काल समाप्त हुआ तो फिर बहुत से मुठभेड़ों की शिकायतें हुयी और उनकी जाँचे भी हुयी । जो किसी समय उन मुठभेड़ों के नायक थे वे समाज के खलनायक साबित होने लगे । एक तेज़ तर्रार एसपी जिन्होंने आतंकवाद के विरुद्ध जम कर लोहा लिया था, वे कई मामलों में हत्या के मुल्ज़िम बने और अंत में उन्हें आत्म हत्या करनी पडी । उस कठिन समय में उनके साथ कोई भी नहीं था । न तो विभाग न सरकार, और न ही किसी समय उनकी विरूदावली गाने वाले लोग । यह स्थिति गुजरात में, उत्तर प्रदेश में , जहाँ जहाँ भी मुठभेड़ें जाचों के घेरे में आयी हैं और फ़र्ज़ी साबित हुयी हैं वहाँ वहाँ ऐसी स्थिति आयी है ।

आज सोशल मिडिया बिलकुल बंटा हुआ है । यह विभाजन बहुत साफ दिख रहा है, बिलकुल ध्रुवीकरण के समान । यह ध्रुवीकरण राजनीतिक दलों को रास भी आता है । यह कोई छिपी बात नहीं रही अब । पर यह बेहद खतरनाक स्थिति है । पुलिस की पीठ थपथपाने वाले लोग, यह भूल जा रहे हैं कि यह चुनाव नहीं है । यह एक घटना है जिसकी जांच अनिवार्यतः होगी । मानवाधिकार आयोग का एक स्थायी निर्देश है, हर पुलिस मुठभेड़ की जांच मैजिस्ट्रेट द्वारा होगी । सीआईडी भी जांच कर सकती हैं । जांच उन समर्थकों के पीठ थपथपाने की संख्या पर नही बल्कि उन सुबूतों पर होगी जो जांच दल मांगेगा । तब केवल पुलिस ही निशाने पर रहेगी । एनकाउंटर अगर फ़र्ज़ी है तो यह न्यायिक हत्या भी है । राजनीतिक दलों के आक्षेप तो दलगत सोच और रणनीति से प्रभावित होते हैं । उन पर बहस करना समय की बरबादी होगी । पर जिन परिस्थितियों में यह घटना हुयी हैं उनमे कई सवाल उठते हैं और उन सवालों का उत्तर बिना गहन जांच के नहीं दिया जा सकता । भोपाल एनकाउंटर सही है या फ़र्ज़ी यह अभी केवल हम अपनी अपनी सोच से अनुमान लगा सकते हैं । सोच , वास्तविकता दिखाने में भी कभी कभी भरमाती है ।  

कुछ मित्र अज़ीब तर्क देते हैं । वे कहते हैं मरे तो आतंकवादी ही है चाहे जैसे उन्हें मारो । उनकी बुद्धि पर तरस खाते मैं सिर्फ यह कहूँगा कि अगर कोई मुल्ज़िम सजा पा भी चुका हो और दुर्दांत आतंकी हो तो भी उसकी हत्या एनकाउंटर के रूप में पुलिस नहीं कर सकती है । यह हत्या ही होगी । और इसकी सजा सिर्फ फांसी ही होगी । फिर ये सब तो अभी विचाराधीन कैदी थे । विचाराधीन कैदी और सज़ायाफ्ता में फ़र्क़ होता है । उनके पास भागते समय हथियार कहाँ से आये । भोपाल एनकाउंटर के अन्य तथ्य अभी सामने आने दीजिये । अभी इस जेल से फरारी और मुठभेड़ पर बहुत सवाल उठ रहे हैं । ऐसी हालत में इसकी निष्पक्ष जांच होना बहुत आवश्यक है । और जाँचें सुबूतों के आधार पर निष्कर्ष पर पहुँचती है  भावुकता और धर्म व जाति के उन्माद के आधार पर नहीं ।

( विजय शंकर सिंह )

प्रेमचंद जयंती 31 अक्टूबर पर उनकी एक कहानी - ठाकुर का कुंआ / विजय शंकर सिंह



जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आयी । गंगी से बोला- यह कैसा पानी है ? मारे बास के पिया नहीं जाता । गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाये देती है !
गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी । कुआँ दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था । कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी । जरुर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से?
ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा ? दूर से लोग डाँट बतायेंगे । साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परंतु वहाँ भी कौन पानी भरने देगा ? कोई तीसरा कुआँ गाँव में है नहीं।
जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला- अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता । ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूँ ।
गंगी ने पानी न दिया । खराब पानी से बीमारी बढ़ जायगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती हैं । बोली- यह पानी कैसे पियोगे ? न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाये देती हूँ।
जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- पानी कहाँ से लायेगी ?
ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे?
‘हाथ-पाँव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा । बैठ चुपके से । ब्रह्म-देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक के पाँच लेंगे । गरीबों का दर्द कौन समझता है ! हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे ?’
इन शब्दों में कड़वा सत्य था । गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया ।
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रात के नौ बजे थे । थके-माँदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पाँच बेफिक्रे जमा थे। मैदानी बहादुरी का तो अब न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं । कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमे में रिश्वत दी और साफ निकल गये।कितनी अक्लमंदी से एक मार्के के मुकदमे की नकल ले आये । नाजिर और मोहतमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती । कोई पचास माँगता, कोई सौ। यहाँ बेपैसे- कौड़ी नकल उड़ा दी । काम करने ढंग चाहिए ।
इसी समय गंगी कुएँ से पानी लेने पहुँची ।
कुप्पी की धुँधली रोशनी कुएँ पर आ रही थी । गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इंतजार करने लगी । इस कुएँ का पानी सारा गाँव पीता है । किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते ।
गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा- हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं ? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ? यहाँ तो जितने है, एक- से-एक छँटे हैं । चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें । अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की भेड़ चुरा ली थी और बाद मे मारकर खा गया । इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते है । काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है । किस-किस बात में हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे है, हम ऊँचे । कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!
कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई । गंगी की छाती धक-धक करने लगी । कहीं देख लें तो गजब हो जाय । एक लात भी तो नीचे न पड़े । उसने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अंधेरे साये मे जा खड़ी हुई । कब इन लोगों को दया आती है किसी पर ! बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनो लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी । इस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं ?
कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी । इनमें बात हो रही थी ।
‘खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।’
‘हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है ।’
‘हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियाँ ही तो हैं।’
‘लौडिंयाँ नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी-कपड़ा नहीं पातीं ? दस-पाँच रुपये भी छीन- झपटकर ले ही लेती हो। और लौडियाँ कैसी होती हैं!’
‘मत लजाओ, दीदी! छिन-भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता ! यहाँ काम करते- करते मर जाओ; पर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता ।’
दोनों पानी भरकर चली गयीं, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास आयी। बेफिक्रे चले गऐ थे । ठाकुर भी दरवाजा बंद कर अंदर आँगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणिक सुख की साँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बूझकर न गया हो । गंगी दबे पाँव कुएँ की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था।
उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला । दायें-बायें चौकन्नी दृष्टि से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सुराख कर रहा हो । अगर इस समय वह पकड़ ली गयी, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती-भर उम्मीद नहीं । अंत मे देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया ।
घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता । जरा भी आवाज न हुई । गंगी ने दो- चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे ।घड़ा कुएँ के मुँह तक आ पहुँचा । कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से न खींच सकता था।
गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया । शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।
गंगी के हाथ से रस्सी छूट गयी । रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हिलकोरे की आवाजें सुनाई देती रहीं ।
ठाकुर कौन है, कौन है ? पुकारते हुए कुएँ की तरफ आ रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी ।
घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाये वही मैला-गंदा पानी पी रहा है।

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मुंशी प्रेमचंद, जिनका असल नाम धनपत राय था , का जन्म वाराणसी के पास वाराणसी आजमगढ़ मार्ग पर स्थित गाँव लमही में 31 अक्टूबर 1880 में हुआ था। 
प्रमुख कृतियाँ : उपन्यास : गोदान, गबन, सेवा सदन, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रम, निर्मला, प्रेमा, कायाकल्प, रंगभूमि, कर्मभूमि, मनोरमा, वरदान, मंगलसूत्र (असमाप्त) , कहानी : सोज़े वतन, मानसरोवर (आठ खंड), प्रेमचंद की असंकलित कहानियाँ  , नाटक : कर्बला, वरदान तथा
अन्य विविध निबंध आदि पर  प्रेमचंद :के  विविध प्रसंग,और  प्रेमचंद के विचार (तीन खंडों में) है।
इसके अतिरिक्त उन्होंने जवाहर लाल नेहरू की कृति , पिता  के पत्र पुत्री के नाम का अंग्रेजी से,हिंदी में अनुवाद किया है।
उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन (1936) की  अध्यक्षटा की थी । इनकी अनेक कृतियों पर फिल्में बन चुकी हैं। विभिन्न देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद। 
इनके पुत्र अमृत राय ' ‘कलम का सिपाही  और मदन गोपाल ने ‘' कलम का मजदूर ' ’ शीर्षक से उनकी जीवनी लिखी है।

Friday 28 October 2016

राजनीतिक दलों का मेला ठेला / विजय शंकर सिंह

कभी कभी छोटे बच्चे जब मेले में जाते हैं तो वह कुछ न कुछ लेने के लिए मचल जाते हैं. उनके माता पिता उसे उस से बेहतर चीज़ दिलवाने का भुलावा देते हैं. बच्चा मान भी जाता है, और भूल भी जाता है. पर उसे वह भी नहीं मिलता जिसके लिए वह जिद कर रहा था, और वह भी नहीं जिसके लिए उस से वादा किया गया था. बच्चा बड़ा भी हो जाता है. सब कुछ बिसरा कर नयी बातों में लग जाता है. कुछ लोग जनता को इसी अपरिपक्व मन का समझ बैठते है. खूबसूरत क्षितिज को और इशारा करते हैं. जब कि क्षितिज स्वयं एक भ्रम है छलावा है. जो प्राप्य नहीं है, वह सदैव सुन्दर लगता है, आकर्षित करता है. दूर से कूड़े का पहाड़ भी हरी भरी पहाडी लगता है.

आज दिन भर काले धन पर जो घमासान बड़की अदालत में चलेगा उसे सुनिए. काला धन आये न आये, मनसायन तो रहेगा ही. काला धन सदैव से भारतीय ही नहीं विश्व अर्थ व्यवस्था के लिए कैंसर की गाँठ की तरह रहा है. जिस धन पर कर नहीं चुकाया गया है, वह काला धन है. बहुत पहले से तनखाह के ऊपर की इनकम पूछने और जानने का जिज्ञासु भाव सब के मन में उठता रहा है. धन कमाना, संचित करना यह एक मानवीय प्रवित्ति है. चाणक्य ने भी इसे इंगित किया है और तभी से राजस्व समय से और निर्धारित राशि न जमा करने के लिए दंड का प्राविधान किया गया था. आज भी कर प्रशासन ऐसे कई कदम उठाता है जिस से करापवंचन न हो. पर अपराध करना भी एक मानवीय प्रवित्ति है. जब तक समाज और मनुष्य रहेगा अपराध भी रहेगा. विकास के सापेक्ष यह जटिल भी होता जाएगा और बढेगा भी.

हम विदेशों में ज़मा काले धन को ले कर चिंतित हैं. उसकी सूची मय खाताधारकों के सोशल साईट पर वायरल बुखार की तरह फ़ैल रही है. वित्त मंत्री जी नाम न बताये कोई बात नहीं, वह फाइल दबाये रहें, वैसे भी सचिवालय में फाइलें दबने की परम्परा पुरानी है. सुप्रीम कोर्ट को सूची के लिए सरकार को फटकार लगानी पड़े, पर वह सूची पूरे आधिकार के साथ विदेशी बैंक के लेटर हेड पर छपी हुयी रमेश की मोबाइल में मौजूद है. आप सोच रहे होंगे, जेठमलानी, सुब्रमण्यम स्वामी, अरुण जेटली जैसे प्रसिद्ध किरदारों के बीच यह कौन है और कहाँ से नमूदार हो गया. जी, रमेश मेरा कुक है, और वह भी जन धन योजना में स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की एक शाखा में खाता खुलवा कर अपने हिस्से का पंद्रह लाख पाने का स्वप्न लाखों देशवासियों की तरह देख रहा है. उसके लिए धन उसकी आवश्यकता की पूर्ति का साधन ही है. जो न काला है , न लाल न सफ़ेद.

शुरू में बच्चे और मेले की कथा, आप की उत्कंठा बढ़ा रही होगी कि, इसका क्या सम्बन्ध है काले धन से. इसका सम्बन्ध काले धन से नहीं बल्कि इसका सम्बन्ध थोथे आश्वासनों पर टिकी राज नैतिक दलों की मानसिकता से है. जहां हर प्रकार का आश्वासन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है. रोटी देने की बात कोई नहीं करेगा. पर चाँद और ईश्वर देने की बात सभी करेंगे. और जनता उस अपरिपक्व मस्तिष्क के बच्चे के समान भुलावे में आ ही जाती है. लेकिन अब के बच्चे मेले युग के बच्चे नहीं रहे. स्मार्ट फोन के माया जाल ने उन्हें समय से पहले ही स्मार्ट बना दिया है. इस लिए अब भुलावा देना भी कब खतरनाक हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता है.

विदेश से सूची का क्या उप्स्योग एस आई टी करती है. जुर्म साबित होता है या नहीं, धन वापस लाने की क्या प्रक्रिया है, आदि आदि बहुत समय लेने वाली प्रक्रिया है. हो सकता है धन आ जाए हो सकता है, अदालतों में ही उलझ जाए. लेकिन यह धन उद्गमित जहां से होता है उसे भी तो रोकने का प्रयास किया जाय. हालांकि सरकार ने इ टेंडर आदि पारदर्शी व्यवस्था की शुरुआत की है. लेकिन, अभी उसका असर आने में देर लगेगी. ऐसे धन का एक सबसे बड़ा कारण भ्रष्टाचार है. यह कोई रहस्योद्घाटन नहीं कर रहा हूँ, सभी को मालूम है. भ्रष्टाचार के जो मामले सामने नहीं आये हैं उनकी बात छोड़ दें, पर जो मामले जांच में हैं, या अदालतों में हैं उनकी ही सुध ले लें तो कुछ न कुछ असर पड़ेगा. जयललिता को सज़ा देने में अठारह साल लगे. अभी अपील के दो अवसर उनके पास शेष भी हैं. इसी तरह के आंकड़े अगर देश के सभी राज्यों के ए सी बी, और सतर्कता अधिष्ठानों, और सी वी सी के यहाँ से जुटाए जाएँ तो वह हैरान करने वाला भी होगा. जब तक त्वरित और पर्याप्त दंड किसी अपराध का नहीं मिलता है, तब तक उस अपराध में कमी नहीं आती है. मानव मन स्वभावतः अप्राधोन्मुख होता है.

विदेश से धन लाने की जो प्रक्रिया है वह जटिल होगी. क्यों कि उसमे दूसरे देशों का कानून, और अन्तराष्ट्रीय क़ानून भी आड़े आ सकते हैं. वह धन योग बल से नहीं लाया जा सकता है. अतः किसी मुगालते में न रहें. पर जो काला धन देश में पनप रहा है संचित है, और नए नए रूपों में रूपांतरित हो रहा है, उसे सामने लाने में, उनके दोषियों को दंड देने में क्या बाधा है ? मेरी समझ में सिवाय इच्छा शक्ति के कोई बाधा नहीं है. जब जांच और ज़ब्ती आदि की कार्यवाही बढ़ेगी तो स्वतः कालेधन पर अंकुश भी लगेगा और ऐसे सफ़ेद पोश अपराधियों के विरुद्ध न केवल वातावरण बनेगा बल्कि बहुत सी उपयिगी सूचनाएं भी मिलेंगी. अभी यह धारणा बैठ गयी है, कि शिकायत से कुछ नहीं होता, सब सेटिंग कर के अधिकारी निपटा देते हैं. यह बातें बरामदे में घूमने रहने वाले दलाल फैलाते रहते हैं, हालांकि इसमें कुछ न कुछ तथ्य भी रहता है. इस दिशा में ठोस परिणाम की गुंजाइश भी रहती है.

मेले के बच्चे के सामान अपरिपक्व मानसिकता छोडिये, और भ्रम से मुक्त रहना सीखिए. राजनीति अब मार्केटिंग और प्रचार से युक्त हो रही है. मंच, रंग मंच में बदल रहे हैं, नेता मन की बात कम, नाटकों की तरह संवाद अदायगी अधिक करने लगें है. न्यूज़ चैनेल, खबरे कम, और मनोरंजन अधिक परोसने लगें है.

(विजय शंकर सिंह)

Wednesday 26 October 2016

एक कविता ... एक नयी दुनिया / विजय शंकर सिंह

एक नयी दुनिया 
रच ली ही है हमने 
थोड़ी अजब है और थोड़ी गज़ब 
भीड़ भी है , हंगामे भी , 
उथला उथला समुंदर,
टखनों से घुटनों तक डूबे बस ,
इतना पानी लिए 
ज्ञान का भण्डार भी । 
शोर तो है उसमें भी 
खेल भी खेलते हैं बच्चे 
पर उस शोर और खेल में 
उनकी मासूमियत कहीं गायब है, 
और शरारतों पर शातिरपना हावी है । 
वक़्त का तकाज़ा है, 
या गर्द ओ गुबार, 
जिसे, तेज़ी से भागती हुयी दुनिया, 
खुद में समेटे दौड़ रही है । 
मासूमियत और भोलापन, 
बच्चे जिनके लिए प्यार किये जाते थे, 
अब कितनी भी तलाश करूँ, 
उनमें नहीं मिलते !!

( विजय शंकर सिंह )

Monday 24 October 2016

तीन तलाक़ , उलेमा और सरकार - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

तीन तलाक़ के मुद्दे पर मुस्लिम महिलाएं खुल कर सामने आ रही हैं । उन्होंने एक अभियान भी चला रखा है । मुस्लिम समुदाय का एक प्रगतिशील तबक़ा भी खुल कर बोलने लगा है । क़ुरआन जिसकी आड़ ले कर अक्सर उलेमा या धर्मगुरु धर्म की बात कहते रहते हैं से भी जानकार लोग यह उद्धरण दे रहे हैं कि कुरआन के अनुसार तीन तलाक़ मान्य नहीं है । पर एक रूढ़िवादी तबक़ा ज़रूर शरीयत और कुरआन के नाम पर इस महिला विरोधी कदम का विरोध कर रहा है । यह वही तबक़ा है जो हर प्रगतिशील कदम को बेड़ियों से बाँध देता है ।
फिर सरकार को इस ओर कदम बढ़ाने से रोक कौन रहा है ?
बार बार देवबंद और कठमुल्लों को ही क्यों उद्धृत किया जा रहा है ?
उस प्रगतिशील तबके की, जो इस अधार्मिक और मर्दवादी सोच से ग्रस्त प्राविधान के विरुद्ध हैं , क्यों नहीं सुनी जा रही हैं ?
प्रधान मंत्री जब स्वयं मुतमईन हैं तो वे इस तरफ बढ़ते क्यों नहीं ?
अगर वे सोचते हैं कि, सारी मुस्लिम जमात एक जुट हो कर खड़ी होगी तो यह असंभव है । लार्ड विलियम बेंटिंक के समय में भी जब सती प्रथा के खिलाफ राजा राम मोहन रॉय आदि खड़े हुए थे तो बहुसंख्यक बंग समाज के लोग इसके विरुद्ध थे । तब भी धर्मशास्त्रों की व्याख्या मनमाने रूप से की गयी थी । राम मोहन रॉय का बहुत विरोध हुआ था । पर आज वे आधुनिक काल में भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत माने जाते हैं । उनके नेतृत्व में एक छोटे से तबके ने हिम्मत की, और बेंटिक के काल में सती प्रथा को अपराध घोषित कर दिया गया । फिर तो स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह, आदि सुधार अपने आप प्राथमिकता में आ गए ।

मुस्लिमों में भी सभी तीन तलाक़ को नहीं मानते हैं । शिया समुदाय में तलाक की यह प्रथा मान्य नहीं है । सुन्नियों के भी कुछ फिरकों में यह प्रथा कम चलन में है । तलाक़ का प्रतिशत बहुत नहीं है , पर इस प्रथा का दुरुपयोग बहुत हैं। उलेमा को तीन तलाक की भी उतनी चिंता नहीं है जितनी इस बात की है कि अगर उन्होंने विरोध करना कम नहीं किया तो और धर्मजन्य बुराइयां भी निशाने पर आ जाएंगी । उन्हें अपनी प्रासांगिकता खोने का भय है । जहां तक समान नागरिक संहिता का सवाल है, जब तक सरकार इसका कोई मॉडल ड्राफ्ट नहीं लाती तब तक यह कहना उचित नहीं है कि यह क्या होगा और इसका क्या स्वरूप सरकार चाहती है । विधि आयोग ने एक प्रश्नावली सबको भेजी है । उसने सबसे इन विषयों पर राय भी जाननी चाही है ।  पर इसका आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने बहिष्कार किया है । यह बहिष्कार यह बताता है कि बोर्ड किसी भी वैचारिक बहस से बचना चाहता है । वह शुतुरमुर्गी आचरण कर रहा है । उसे अपने ऐतराज़ सार्वजनिक करने चाहिए ताकि उस पर बहस हो और उसकी धार्मिक स्थिति और बदलते परिवेश में उसकी भूमिका की पड़ताल हो सके । यह कुरआन सम्मत नहीं है इस लिए हम नहीं मानेंगे यह एक भागने का रास्ता हुआ । यह तो स्पष्ट हो कि, क्या कुरआन सम्मत नहीं है और कहाँ क्या लिखा है । बोर्ड अगर उस प्रश्नावली से सहमत नहीं है तो वह अपनी बात कह सकता है । विकल्प सुझा सकता है । यह बता सकता है कि कुरआन के अनुसार उचित और अनुचित क्या है । पर यह तभी सबके संज्ञान में आएगा जब बोर्ड अपनी बात सार्वजनिक करेगा ।

सरकार को 1985 के शाहबानों केस के समान अपने  कदम नहीं खींचने चाहिए । और साथ ही इस मुद्दे को केवल यह दिखाने के लिए कि मुस्लिमों में स्त्री दशा दयनीय है , नहीं उठाना चाहिए । 11 करोड़ आदिवासियों की संस्था ने सामान नागरिक कानून नहीं लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला किया है । आदिवासियों के सारे कायदा कानून अलग होते हैं । वे सनातन धर्म शास्त्र से भी अलग होते हैं । रामायण और महाभारत काल में भी आटविक राज्यों का उल्लेख मिलता रहा है । शाहबानों के समय में भी सरकार ने 125 सीआरपीसी में संशोधन कर के एक बेहद मूर्खता पूर्ण और प्रतिगामी कदम उठाया था । यह उन मुल्लों का तुष्टिकरण ही था, जिन्होंने मुस्लिम वोटों की ठेकेदारी का जिम्मा ले रखा है । उस समय आरिफ मुहम्मद खान जैसे प्रगतिशील सोच के मुस्लिम नेता राजीव गांधी के इस कदम के विरोधी थे । पर तभी एक और मुस्लिम नेता और बड़े पत्रकार जो किशनगंज से कांग्रेस के सांसद थे ने राजीव गांधी पर शाहबानो मामले में संविधान संशोधन के लिए दबाव डाला । वे आज के भाजपा सरकार में विदेश राज्य मंत्री हैं । वे एम् जे अकबर हैं । अकबर प्रगतिशील सोच के माने जाते हैं । वे अंग्रेज़ी साप्ताहिक सन्डे, और समाचार पत्र एशियन एज के संपादक रह चुके हैं । उन्होंने नेहरू पर एक बेहद चर्चित पुस्तक भी लिखी है । पर वह प्रगतिशीलता कहाँ और कैसे तिरोहित हो गयी । यह आज तक नहीं समझा जा सका है ।

प्रधानमंत्री जी ने आज 24 अक्तूबर 2016 की महोबा की जनसभा में यह सवाल उठाया है । सुप्रीम कोर्ट भी अक्सर समान नागरिक संहिता के लिए निर्देश जारी कर रहा है । देश का प्रगतिशील जन मानस स्त्री विमर्श की बात करने वाला एक बड़ा समुदाय भी तीन तलाक़ के पक्ष में नहीं है । अतः इस सम्बन्ध में सरकार को अब आवश्यक कदम उठाने चाहिए । पर्सनल लॉ बोर्ड भी एक मॉडल निकाहनामे और तलाक़ के प्राविधान पर भी काम कर रहा है । लोग आगे की सोच रहे हैं । अब कुछ न कुछ किया जाना चाहिए । उलेमा और धर्म के ठेकेदारों की आड़ ले कर अगर इस मसले पर कदम खींचा गया तो यही सन्देश जाएगा कि, यह सब चुनावी बातें हैं । सरकार को तीन तलाक़ मामले का ड्राफ्ट सामने लाना चाहिए ताकि बहस हो एक ऐसा कदम उठाया जाय जिस से मुस्लिम महिलाओं की इस नारकीय और अतार्किक प्राविधान से मुक्ति मिल सके ।

( विजय शंकर सिंह )

Sunday 23 October 2016

सेना को भयादोहन से प्राप्त धन की आवश्यकता नहीं है / विजय शंकर सिंह

सरकार इक़बाल से चलती है । इक़बाल साख से बनता है । साख कानून के प्रति निष्ठा से धीरे धीरे उभरती है । निष्ठा , क़ानून का बिना किसी भी भय या लोभ के पालन का नाम है । पर 22 अक्टूबर 16 को जो मुम्बई में एक निर्वाचित सरकार के मुखिया के सामने एमएनएस के राज ठाकरे और फिल्मोद्योग के कुछ फिल्मकारों के बीच हुआ , यह एक निंदनीय दुःखद और सरकार , तंत्र , सारे ताम झाम का राज ठाकरे जैसे एक न्यूसेंस के समक्ष नॉनसेन्स भरा आत्म समर्पण है । राज ने शर्तें रखी। फिल्मकार भी क्या करते ? जिस निज़ाम के भरोसे वे इस उम्मीद में हैं कि वह उनकी सुरक्षा करेगा , वही बिचौलिया बना है तो उन्होंने स्वीकार कर लिया । उनका धन लगा है । उन्हें आगे भी फ़िल्में करनी है । सरकार का आलम यह है , तो ठीक ही है, कुछ पैसे रंगदारी के ही सही । मोहल्ले का निम्न कोटि का चौकी इंचार्ज जैसा सेटल कराता है वैसा ही यह सेटलमेंट हैं। यह बिलकुल नहीं होना चाहिए था । और मुख्य मंत्री के सामने उन्ही के निमंत्रण पर उनके ही कक्ष में । यह तो बिलकुल नहीं । हाँ राज और अन्य फिल्मवाले भले ही बैठ कर आपस में तय कर लें तो कोई बात नहीं । यह तो होता रहता है । गुंडे तो पिछले पचास साल से यह टैक्स वसूल रहे हैं । लोग देते भी हैं । इस लिए कि उनका पुलिस पर यकीन नहीं । वे यह मानते हैं कि उनके ही धन से कुछ अंश पुलिस के पास भी पहुँचता है । यह पुलिस की प्रोटेक्शन मनी है ! पर जब सरकार का मुखिया ही सारे मामले सेटल करा रहा है तो, उनके पास न तो कुछ कहने के लिए शेष बचा और न ही कुछ न मानने के लिए ।

किस्सा की शुरुआत यूँ होती है । ऐ दिल है मुश्किल एक फ़िल्म है करण जौहर की । फ़िल्म में एक पाकिस्तानी एक्टर फवाद खान ने काम किया हैं। फवाद कोई नामचीन नाम नहीं है । पर फ़िल्म में हैं तो हैं वे । फ़िल्म जब बन रही थी तो भारत पाक के रिश्ते प्रत्यक्षतः सामान्य थे । प्रधान मंत्री जी वहाँ सरकारी और निजी रूप से भी एक दो बार जा चुके थे । संघ प्रमुख जिनकी प्रेरणा के बिना इस सरकार के मंत्री कोई काम नहीं करते , भी पाकिस्तान को छोटा भाई कह चुके थे । पर पाकिस्तान के रिश्ते भी बिलकुल पहाड़ी मौसम की तरह हैं । कब धूप खिल जाए और कब आंधी तो कब बादल फट जाए, यह कयास ही नहीं लगाया जा सकता । उसने पठानकोट एयर बेस पर आतंकी हमला करा दिया और दोनों देशों के सम्बन्ध बिगड़ गए । फिर उड़ी में एक बड़ी आतंकी घटना हो गयी । बस अचानक पूरा देश आक्रोशित हो गया और इसका गुस्सा पाकिस्तान पर निकलने लगा । कभी सिंधु जल संबंधी समझौते को तोड़ने की बात चली तो कभी मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्ज़ा समाप्त करने का , और कभी उसे आतंकवादी राज्य घोषिन कराने का अभियान , सरकार चला ही रही है । विश्व जनमत पाक की आतंकी हरकतों को समझ भी रहा हैं। इसी बीच  पाक घृणा पर जीवित रहने वाला मुम्बई के ठाकरे परिवार के एक सदस्य और एमएनएस प्रमुख राज ठाकरे ने एक फरमान जारी किया कि, पाक से आये हुए सभी कलाकार मुम्बई छोड़ कर तीन दिनों में चले जाएँ । वे चले भी गए । पर जिन फिल्मों में उन्होंने काम किया है, वे फिल्में अब प्रदर्शन के लिए तैयार हुईं है । अब यह फरमान निकला कि जिन फिल्मों में पाक कलाकार हैं, उन फिल्मों को प्रदर्शित नहीं होने दिया जाएगा । यह इस व्यवसाय के लिए एक झटका जैसा था । सोशल मीडया पर भी देशभक्ति ब्रिगेड सक्रिय हुयी, टीवी डिबेट भी हुआ और जिसने भी कला संस्कृति की बात करते हुए इसे भौगोलिक सीमाओं से परे रखने की बात की, वह  देशद्रोही करार दे दिया गया । फिर सरकार का बयान आया कि पाक कलाकारों की आवाजाही पर रोक लगाने का सरकार का कोई इरादा नहीं है । इसके बाद सरकार ने फ़िल्म के प्रदर्शन पर किसी भी प्रकार की रोक न लगाते हुए उसे पर्याप्त सुरक्षा देने का आश्वासन दिया ।

अब मुम्बई में राज ठाकरे पर दबाव पड़ा । तब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने फिल्मकारों और राज ठाकरे के बीच बात करायी और यह फैसला हुआ कि,
- कोई भी फ़िल्मकार भविष्य में किसी भी पाक कलाकार को भारतीय फिल्मों में काम करने के लिए साइन नहीं करेगा ।
- ₹ 5 ,करोड़ , फ़िल्म निर्माता करण जौहर आर्मी रिलीफ फण्ड में देंगे ।
सरकार का इस बातचीत में पड़ना और स्वयं मुख्य मंत्री का इन सभी शर्तों से सहमत होना और बाद में राज ठाकरे का न्यूज़ चैनेल्स पर प्रकट हो कर इन सारी शर्तों का खुलासा करना यह बताता  हैं कि जो उस अराजक संगठन ने चाहा वह उस संगठन ने किया । मुख्यमंत्री मूक दर्शक बने रहे या यह सब उनकी भी सहमति से होता रहा यह समय ही बताएगा। समझौता गुंडों और फिल्मकारों के बीच था । वे कोई मज़दूर संगठन के हैं नहीं कि इनसे भिड़ते । और सरकार जिस पर उन्हें उम्मीद थी वही वहाँ बिचौलिया बनी बैठी है ।  उनसे तो उठक बैठक भी कराइये उस समय तो भी वह राज़ी हो जाएंगे । उनका धन, उनकी फ़िल्म सब तो दांव पर लगी हुयी है । पर सरकार ने जिस सुरक्षा का आश्वासन उन्हें दिया था, उसका क्या रहा ? अब इस से यह निष्कर्ष निकलता है कि फ़िल्में  सेंसर से भले बच जाएँ पर एमएनएस के गुंडों के कैंसर से नहीं बच पाएगी ।

सरकार को इस सम्बन्ध में मनसे के गुंडों और राज ठाकरे को कड़ा सन्देश देना चाहिये था । उन्होंने बहिष्कार का आह्वान किया था । कोई भी बहिष्कार का आह्वान कर सकता है । वह प्रदर्शन, मानव श्रृंखला , बैनर पोस्टर आदि का अभियान आदि चला सकता है । यह सब लोकतांत्रिक विरोध के तरीके हैं । पर '  फिल्म चली तो मल्टीफ्लेक्स वाले अपने नुकसान के स्वयं जिम्मेदार होंगे '  यह कथन यह बताता है कि देश और सेना तो बहाना है । मूल मुद्दा है फिल्मकारों को, जहां काला धन सबसे अधिक उपजता और खपता है, यह सन्देश देना है कि आमची मुम्बई मेरी ही है । समझते बूझते रहिये । गुंडों , माफियाओं और इसी नस्ल के राजनीतिक दलों का यह एक पुराना और आजमाया हुआ दांव है । सरकार को उन सभी एमएनएस के अराजक तत्वों की पहचान कर के उनके खिलाफ आवश्यक कार्यवाही करनी चाहिए थी । पर एक भी धमकी देने वाला गुंडा न तो गिरफ्तार हुआ और न ही उनके खिलाफ मुक़दमा कायम हुआ । और तो और सरगना सरकार की गोद में बैठ कर शर्तें डिक्टेट कर रहा है । और जो वह कह रहा है, उसे ही सब मान भी रहे हैं और किसी का यह साहस भी नहीं कि यह पूछे कि आप ने धमकी क्यों दी और क्यों न आप की धमकी पर आप के खिलाफ भारतीय कानून के अन्यर्गत कार्यवाही की जाय ? यह वही राज ठाकरे हैं जिन्होंने दो साल पहले टोल प्लाज़ा पर कर्मचारियों से मार पीट की थी और आगज़नी की थी । तब भी इन गुंडों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुयी और राज ठाकरे तब भी महाराष्ट्र के इन्ही मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस के साथ चाय पी कर मुस्कुराते निकल आये थे । यह सरकार और कानून का कुछ गुंडों के विरुद्ध साष्टांग दंडवत है ।

इस सेटलमेंट की प्रतिक्रिया तत्काल ही हुयी । अवकाश प्राप्त एयर वाइस मार्शल , बहादुर ने कई ट्वीट कर के इस सेटलमेंट की निंदा की और कहा कि सेना को ऐसे राजनीतिक मामलों में नहीं घसीटा जाना चाहिए । सेना ने राज - सरकार फ़िल्म सेटलमेंट फीस स्वीकार करने से मना कर दिया । सेना के कई भूतपूर्व वरिष्ठ अधिकारीयों ने भी इस क़दम की निंदा की सेना के वर्तमान और भूतपूर्व कई जनरल ने इसे अपमानजनक बताया । ले.जनरल जसवाल ने बताया कि
" सेना कोई भीख का कटोरा ले कर नहीं घूम रही है । जिसे स्वेच्छा से आर्मी रिलीफ फंड में धन देना हो तो जो निर्धारित प्रक्रिया है उसके अनुसार वह धन दे । "
सेना के वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि, भारतीय सेना एक अराजनीतिक और धर्म निरपेक्ष संस्था है और वह इस तरह की राजनीतिक गतिविधियों से उसका कोई सरोकार नहीं है ।
आज अभी समाचार पत्र में यह खबर भी है कि 5 करोड़ रूपये की कोई शर्त नहीं थी । यह उन्होंने स्वेच्छा से माना है । स्वेच्छा दबाव युक्त है या दबाव मुक्त, यह इन खबरों के बीच खो गया है । पर राज ठाकरे और मनसे का ट्रैक रिकार्ड मुम्बई में गुंडई और भयादोहन करने वाले संगठन का रहा है । और इसे सभी जानते हैं ।

( विजय शंकर सिंह )