Thursday 29 September 2016

The Full Text of the Press release by DGMO on Surgical Strikes on Sep 29.

Following is the full text of Director General of Military Operations (DGMO) Lt Gen Ranbir Singh statement.

It has been a matter of serious concern that there has been continuing and increasing infiltration by terrorists across Line of Control in Jammu and Kashmir. This is reflected, amongst others, in the terrorist attacks on 11 and 18 September 16 in Punch and Uri respectively. Almost 20 infiltration attempts have also been foiled by the Army at or close to the Line of Control during this year.

During these terrorist attacks and infiltration attempts, we have recovered various stores including GPS and items that clearly indicate their origins in Pakistan. Furthermore, captured terrorists hailing from Pakistan or Pakistan Occupied Kashmir have confessed to their training and arming in Pakistan or territory under its control. The matter had been taken up at highest diplomatic levels and through military channels. India has also offered consular access to these apprehended terrorists for Pakistan to verify their confessions. Furthermore, we had proposed that fingerprints and DNA samples of terrorists killed in Punch and Uri could be made available to Pakistan for investigation.

Despite our persistent urging that Pakistan respect its January 2004 commitment for not allowing its soil or territory under its control to be used for terrorism against India, there has been no let up in infiltration and terrorist actions from across the Line of Control. If damage was limited, this was primarily due to the efforts of our soldiers deployed in our multi-tiered counter-infiltration grid that has been effective in neutralizing infiltrating terrorists. The Indian Armed Forces have been extremely vigilant in the face of this continuing threat.

Based on receiving specific and credible inputs that some terrorist teams had positioned themselves at launch pads along Line of Control to carryout infiltration and conduct terrorist strikes inside Jammu and Kashmir and in various metros in other states, the Indian Army conducted surgical strikes at several of these launch pads to pre-empt infiltration by terrorists. The operations were focussed on ensuring that these terrorists do not succeed in their design to cause destruction and endanger the lives of our citizens.

During these counter terrorist operations significant casualties were caused to terrorists and those providing support to them. The operations aimed at neutralizing terrorists have since ceased. We do not have any plans for further continuation. However, the Indian Armed Forces are fully prepared for any contingency that may arise.

I have been in touch with Pakistan Army DGMO and have informed him of our actions. It is India’s intention to maintain peace and tranquillity in the region. But we cannot allow the terrorists to operate across the Line of Control with impunity and attack citizens of our country at will. In line with Pakistan’s commitment in January 2004 not to allow its soil or territory under its control to be used for attacks against India, we expect the Pakistani army to cooperate with us to erase the menace of terrorism from the region.

© The Indian Express Online Media Pvt Ltd
Sep.29/09/16.

Wednesday 28 September 2016

सऊदी अरब और धर्म का ' रंगभेद ' - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

सुधारवादी आंदोलन सभी धर्मों में चलते रहते है । भले ही वह संख्या बल में कम हो । पर एक बड़ी झील के शांत और गहरे पानी में फेंका गया एक छोटा कंकड़ भी उस पानी को अशांत कर देता है । इस्लाम दुनिया का सबसे रूढ़िवादी और कट्टर धर्म समझा जाता है । कुरआन की किसी आयत के बारे में और हजरत मुहम्मद की परम्पराओं की कथा हदीस के बारे में अगर आप मुस्लिम होते हुए भी शंकालु हैं तो आप कुफ़्र कर रहे हैं और काफ़िर होने का खतरा मोल ले रहे हैं । इन आयतों की व्याख्या भी अगर आप ने परम्परागत सोच के विपरीत की तो भी आप कट्टरपंथ के निशाने पर आ जाएंगे । जब कि सच्चाई यह है कि, कोई भी उद्धरण, कथन और उदाहरण सार्वकालिक नहीं होता है । वह किसी न किसी सन्दर्भ विशेष, या स्थान अथवा काल विशेष में ही कहा गया होता है । स्थान और काल के सापेक्ष ही सब कुछ होता है । निरपेक्ष कुछ भी नहीं होता है । दनिया के सभी धर्मों में एक अद्भुत समानता होती है । वह है धर्म के जानकार, धर्म को रूढ़ बनाये रखना चाहते हैं और वे सभी चाहते हैं कि, धर्म को उन धार्मिक व्यक्तियों के ही नज़रिये से देखा जाय । हर प्रकार की जिज्ञासा , अनुसंधित्सु क्षमता और अध्ययन को वे हतोत्साहित करते हैं । इसी लिए वे नियति, भाग्य , कर्म और जैसी उसकी इच्छा जैसे शब्द गढ़ लेते हैं । ये शब्द कभी कभी हमें अनावश्यक हताशा और श्लाघा से भी बचाते रहते हैं पर धर्म के विभिन्न प्रावधानों के बारे में सवालात तो मन में उठते ही रहते हैं ।

इस्लाम में सवाल कम उठते हैं । इस लिए नहीं कि सवाल वहाँ हैं नहीं या वह पूर्ण धर्म है , बल्कि वहाँ सवाल उठाना कुफ़्र को न्योतना है। हो सकता है कुछ मित्र मेरे इस वाक्य को आक्षेप के रूप में ले लें और वे कुरआन की कोई आयत प्रस्तुत कर के यह साबित करने का प्रयास करें कि, इस्लाम हर शंका का समाधान प्रस्तुत करता है और उदार धर्म है । लेकिन मैं इस से सहमत नहीं हूँ । जहां विचार असह्य और अनुत्तरित होने लगते हैं वहाँ खीज उत्पन्न होने लगती है और वह खीज हिंसा को जन्म देती है । हिंसा, भयभीत करती है । भय उन विचारों और संदेहों को उठने से रोक देता है । इस हिंसा की इजाज़त कुरआन में हो या न हो पर, पर जब आयत न सुनाने पर हिंसा का ही प्राविधान हो तो उस व्यक्ति और उस जमात की सोच पर तरस आता है जो अपने धर्म के लिए लड़ रहा है । दरअसल ये धर्म के रक्षक नहीं है बल्कि धर्म इनकी हिंसा और गर्हित उद्देश्य का एक माध्यम है ।

मेरे एक मित्र खालिद उमर ने फेसबुक पर अपनी एक पोस्ट मेँ लिखा है कि,
" तब्लीगी जमात , ( यह संगठन इस्लाम का प्रचार प्रसार, गैर इस्लामिक देशों में करता है ) को सभी देश अपने अपने देश में प्रवेश करने के लिए तब तक वीसा न दें जब तक कि, सऊदी अरब अपने देश में ईसाई मिशनरी या अन्य धर्मों के प्रचार के लिए अनुमति नहीं देता है । "
खालिद आगे लिखते हैं,
" फ्रांस में 2300 मस्जिदें हैं और अभी सैकड़ों और मस्जिदों के बनने की योजना है । जब कि सऊदी अरब में एक भी चर्च नहीं है । वहाँ किसी भी गैर मुस्लिम के सार्वजनिक उपासना स्थल नहीं हैं । जब कि, वहाँ, एक करोड़ बीस लाख विदेशी कामगार हैं और वहाँ की अपनी जनसंख्या एक करोड़ नब्बे लाख है । वहाँ एक करोड़ बीस लाख ईसाई, दो लाख पचास हज़ार हिन्दू, सत्तर हज़ार बौद्ध और पैंतालीस हज़ार सिख है । ईसाई आबादी वहाँ की जन संख्या की 4.4 % है पर उनके लिए वहाँ एक भी चर्च नहीं है । वहाँ चौथी सदी का बना हुआ एक भग्न चर्च है जो सिर्फ एक खँडहर है जो जुबैल नामक स्थान में है । वहाँ इस्लाम से किसी अन्य धर्म में परिवर्तन एक दंडनीय अपराध है और वह दंड भी , मृत्यु दंड ही है । "

खालिद की पूरी पोस्ट नीचे मूल रूप में दी गयी है ।
( Via Khalid Umer )
All visas for "Tableeghi Jamat" to the non-Muslim states must be banned until Saudi Arabia open its doors for Christian and other missionaries.

In France there are 2300 mosques with hundreds more planned. In Saudi Arabia there are no churches for Christians and public practice of all non-Muslim religions is prohibited.

Remember there are 12 million foreign workers in Saudi Arabia with a population of 19 million citizens. Including 250,000 Hindus, 70,000 Buddhists, 45,000 Sikhs.

There are 1.2 million Christians which is 4.4% of the total population but there is not a single native Christian in Saudi Arabia; all are foreign workers.

Remember the oldest standing Christian Church in the world is from the 4th century and located in Jubail, the present day Saudi Arabia which is in ruins. Celebration of Christmas and Easter must be indoors in private homes.

Conversion by Muslims to another religion is punishable by death in Saudi Arabia whereas hordes of Mullahs roam Europe on proselytising visas. Oil is not more expensive by human blood.
This religious apartheid must end.

खालिद इसके लिए रेलिजस एपार्थीड यानी धार्मिक रंगभेद शब्द का प्रयोग करते हैं । यह धर्मभेद अपने धर्म की शुद्धता की बात भले करे पर दूसरे धर्मों से मिलने और उनसे बहस करने वाद विवाद करने से बचता है । सऊदी अरब या अधिकतर इस्लामी देश दूसरे धर्मों से अपने धर्म में परिवर्तन का तो स्वागत करते हैं पर अपने धर्म से दूसरे धर्म में जाने की इजाज़त नहीं देते हैं । यह एक गंभीर अपराध माना जाता है और इस गुनाह की सजा भी है । सभी धर्म जब एक ही लक्ष्य की ओर जाते हैं , सभी धर्म एक ही ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करते हैं , सभी धर्मों की मौलिक नैतिक शिक्षा भी एक ही प्रकार से है , फिर मेरा ही धर्म सवोपरि और पूर्ण है यह कहना भी एक प्रकार का भ्रम और छल है । संसार और विचार सदैव गतिमान हैं और हर पल वह परिवर्तित होते रहते हैं । कोई भी धर्म पूर्ण नहीं है । उसमे कुछ भी ग्राह्य करने की गुंजायश बनी ही रहती है । धर्म में जब राजनीति का प्रवेश हो जाता है तो वह धर्म स्वार्थ सिद्धि का साधन बन जाता है ।

( विजय शंकर सिंह )

Monday 26 September 2016

जीवेद शरदः शतम् - डॉ मनमोहन सिंह / विजय शंकर सिंह


2014 का चुनाव समाप्त हो गया था । भाजपा को लोकसभा में पूर्ण बहुमत मिल चुका था । कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बुरे दिनों में थी । मोदी का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा था । शपथ ग्रहण के मुहूर्त की प्रतीक्षा थी । इतिहास का यह एक करवट था । मोदी जिस प्रचार और समर्थन के ज़ोर पर दिल्ली की गद्दी पर पहुंचे थे उसकी प्रतिध्वनि सुनायी दे रही थी । इन सब के बीच पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह का एक अख़बार के लिये इंटरव्यू चल रहा था । डॉ सिंह स्वभाव से ही अल्पभाषी और मृदुभाषी हैं । ज़ोर से भी नहीं बोलते और नाटकीयता और मंचीय भंगिमा से दूर , किताबों की दुनिया में रमे रहने वाले शख्श हैं । नियति ने उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया और वे नेहरू , इंदिरा के बाद सबसे अधिक समय तक रहने वाले पीएम बने । अध्यापक , बैंकिंग प्रशासक, रिजर्व बैंक के गवर्नर, वित्त मंत्री के आर्थिक सलाहकार, फिर स्वयं वित्त मंत्री, और अंत में प्रधान मंत्री की कुर्सी तक वे पहुंचे । 1991 के कठिन दिनों में जब देश अस्थिर था, राजीव गांधी की हत्या हो चुकी थी, सांप्रदायिक वातावरण और मण्डल आयोग की संस्तुतियों के माने जाने के कारण जातिगत संघर्ष का वातावरण बन गया था, तब पीवी नरसिम्हाराव ने देश की कमान संभाली और मनमोहन सिंह देश के वित्त मंत्री बने । तब तक दुनिया एक ध्रुवीय बन चुकी थी। सरकार की नीति मुक्त व्यापार की बनी । देश की खिड़कियाँ और दरवाज़े खोल दिए गए । अचानक समृद्धि आयी । पर जीवन की मूल समस्या और नेताओं का प्रिय वाक्य कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति का उत्थान , अफ़साना ही बना रहा । फिर भी इंफ्रास्ट्रक्चर और निजीकरण से नौकरियाँ बढ़ी और जीवन स्तर बढ़ा । फिर वही वित्त मंत्री 2004 से 2014 तक देश के प्रधान मंत्री बने । कार्यकाल के अंतिम तीन साल कठिन बीते । घोटाले हुए, और अकर्मण्यता और उनकी अनदेखी करने के आरोप भी लगे । अंततः 2014 में इनके नेतृत्व में कांग्रेस को अत्यंत शर्मनाक हार झेलनी पडी । उस पत्रकार से बात करते हुए जब एक सवाल उनसे यह पूछा गया कि
" आप अपने कार्यकाल का आकलन कैसे करना चाहेंगे ? "
डॉ सिंह थोड़ी देर चुप रहे । क्या कहते । हार को पचाने में वक़्त लगता है । वह कोई जनाधार वाले लोकप्रिय नेता तो थे नहीं । उनकी थाती ही उनका ज्ञान और उनकी प्रतिभा थी । फिर उन्होंने धीरे से एक वाक्य कहा,
" इतिहास मेरा मूल्यांकन करते समय मेरे प्रति दयालु रहेगा । वह इतना निर्मम नहीं रहेगा जितना की आज मिडिया और विपक्ष है । " 

मनमोहन सिंह एक खलनायक थे उस समय । जनज्वार भी अज़ीब होता है । उमड़ता है तो सारे अच्छे कामों को भी बहा ले जाता है । उसे दो ही श्रेणी दिखाई देती है । या तो देव या दानव । इंसान की कल्पना वह कर ही नहीं सकता । यह उन्माद की मोहावस्था होती है । जो परिपक्व नेता होते हैं वे इन परिस्थितियों को जानते हैं और वे इसकी काट भी रखते हैं । पर डॉ सिंह कोई पेशेवर नेता तो थे नहीं । उनका अपना कोई जनाधार भी नहीं था । बिरादरी , धर्म , जाति के समीकरणों में वे कभी पड़े ही नहीं । नौकरशाही का जो एक सतत आज्ञा पालक भाव होता है , वह उनमें बना रहा । यह उनकी कमज़ोरी भी आप कह सकते हैं और उनकी ताक़त भी । जब शोर कम हुआ और गर्द ओ गुबार थमा, और हनीमून , ( यह शब्द सरकारों के लिए भी अब प्रयुक्त होने लगा है ) बीता तो फिर जिस तस्वीर पर घूल जम चुकी थी , उसे फिर साफ़ किया जाने लगा । वह थोडा बेहतर लगने लगे । किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन समसामयिक काल में नहीं किया जा सकता है । मूल्यांकन सदैव सापेक्ष होता है । उनके दस साल सदैव कसौटी पर परखे जाते रहेंगे , कभी तो उनके पक्ष में या उनके विरोध में । आज उन्ही डॉ मनमोहन सिंह का जन्म दिन है । वे स्वस्थ और सानंद रहें । यही शुभकामनाएं है।
( विजय शंकर सिंह )

Sunday 25 September 2016

पाकिस्तानी कलाकार और राज ठाकरे का फतवा / विजय शंकर सिंह

पाकिस्तानी कलाकार और राज ठाकरे का फतवा ।

पाकिस्तानी कलाकारों को भारत से भगाने का फरमान मनसे के राज ठाकरे ने जारी कर दिया है । यह परिवार पहले मुम्बई को और कभी कभी तो पूरे भारत को अपनी निजी जागीर समझने लगता हैं। बाल ठाकरे ने खुद ही जो कभी इंदौर से जाकर रोजी रोटी की लालच में मुम्बई में बसे थे, ने साठ के दशक में घृणा की राजनीति शुरू की । पहला निशाना इनका दक्षिण भारतीय बने जो मद्रासी कहे जाते थे । फिर उत्तर भारतीय । और मुसलमान तो थे ही। देश और देशवासी की परिभाषा इनकी बदलती रहती है । जब बाल ठाकरे नहीं रहे तो शिवसेना में अंदरूनी सत्ता संघर्ष शरू हुआ और राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नाम से एक नयी पार्टी बनायी । निर्माण सदैव समय , दृष्टि और विवेक की मांग करता है पर विध्वंस के लिए इन सब गुणों की आवश्यकता ही नहीं रहती है । मनसे ने भी यही मार्ग अपनाया । उत्तेजक बयान , कानून की अवहेलना, बदतमीज़ी, और क्षेत्र , जाति तथा धर्म की राजनीति करना ही इनकी आदत बन गयी । पर एक भी स्थान इन्हें पिछले चुनाव में महाराष्ट्र विधान सभा में नहीं मिला । इधर इन्होंने एक और राग छेड़ा है कि पाकिस्तानी कलाकार देश से बाहर जाएँ। कुछ महीनों पहले इन्होंने शिवसेना के साथ मिल कर, मुम्बई में होने वाला गुलाम अली का कंसर्ट रद्द करवा दिया था । गुलाम अली ने फिर अपना शो उत्तर प्रदेश के लखनऊ और वाराणसी में किया । यह भी विडंबना ही है गुलाम अली का वाराणसी शो, संकट मोचन मंदिर के प्रागण में हुआ । यह काशी की विराटता और सनातन धर्म की विशाल हृदयता ही है ।

जब भारत नहीं बँटा था तो, आज के पाकिस्तान के इलाके से फ़िल्म जगत को अत्यंत प्रतिभाशाली और लोकप्रिय कलाकार मिले । पृथ्वीराज कपूर, और उनके पुत्र गण, दिलीप कुमार, राज कुमार, देव आनंद, बी आर चोपड़ा, रामानंद सागर, कादिर खान, बलराज साहनी, सुनील दत्त, आदि आदि । उस समय फिल्मों में या तो पंजाब के लोग थे या बंगाल के । हिंदी पट्टी के लोग भी थे पर वे मूलतः गीतकार और संगीतकार तथा फ़िल्म लेखक थे, पर उनमे से कोई अभिनेता नहीं था । हालांकि साठ के दशक के बाद हिंदी पट्टी के बहुत से अभिनेता सफल हुए हैं । आज कल फिल्मों में जिन्हें महानायक कहा जाता है, वह अमिताभ बच्चन खुद ही इलाहाबाद से हैं । जब भारत बँटा तो फ़िल्मी दुनिया भी बँट गयी । पाकिस्तान का फ़िल्म केंद्र लाहौर बना । कुछ मुस्लिम लेखक जो पाकिस्तान के इलाके के रहने वाले थे वे बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए । इसमें  मशहूर कथाकार सआदत हसन मंटो, प्रसिद्ध गायिका नूर जहां जिन्हें मलिका ए तरन्नुम कहा जाता था, भारत से चले गए । लेकिन वहीं  कुछ मुस्लिम कलाकार भारत में ही बसे रहे ।  इसमें सबसे प्रसिद्ध दिलीप कुमार साहब हैं जो अब एक आख्यान हैं ।

पाकिस्तान भले ही धर्म के आधार पर बँटा हुआ हो, पर दोनों देशो की भाषा, रिवाज़, रवायतें , साहित्य के प्रतिमान, प्रतीक और विम्ब, गालियां , ताने, कहावतें आदि आदि सब के सब साझे थे ।  सिर्फ देश बंटा था, पर साहित्य और कला नहीं बटीं थीं। संगीत के वही सुर थे, गीतों का कम्पोजीशन वही था, कहानियाँ और उपन्यासों के कथानक वही थे, इन सब को प्रेरित करने वाली मिटटी से जुडी दन्त कथाएं और लोक कथाएं भी सांझी थी । लेकिन मुम्बई का फ़िल्म उद्योग , बहुत समृद्ध था और तेज़ी से तरक़्क़ी कर रहा था । इस के विपरीत पाकिस्तान अपने जन्म के थोड़े दिनों बाद ही, फौजी हुक्मरानों के बूटों तले आ गया और जब ज़िया उल हक़ का शासन काल आया तो, वहाँ एक तरह की सांस्कृतिक क्रान्ति वहाँ हुयी । यह पाकिस्तान का इस्लामी करण था । जिन्ना का पाकिस्तान बनने के बाद दिया गया प्रथम भाषण अपने शब्दों और भावनाओं सहित दफना दिया गया था । धर्म की कट्टरता बढ़ गयी ।  पाकिस्तान के लिए यह काल संक्रमण और दुविधा का काल था। वह एक तरफ खुद को इस्लाम के खुदमुख्तारी के दम्भ के निर्वाह का बोझ को ढो रहा था, तो दूसरी तरफ पाक की साझी विरासत जो इस भारतीय परम्परा के रूप में वहाँ की मिटटी पानी में मौज़ूद थी , से उलझ रहा था । बुल्ले शाह की अमर कथाएं , आज भी आँखें नम कर देने वाली हीर रांझा के प्रेम की अद्भुत लोक गाथा, और सूफीयाना साहित्य ने इस्लाम के जिस उदार स्वरूप से पाकिस्तान के अतीत को सींचा था, वह राजनीति की रुक्षता के कारण सूखने लगा था । वहाँ के समाज में तमाम प्रतिबंधों के कारण कट्टरता आने लगी और इसका सीधा असर साहित्य, और कला पर पड़ा । जिस साझी विरासत से दोनों देशों की कला और साहित्य विकसित हुए थे, उस के कारण दोनों ही देशों के कलाकार, साहित्यकार और शायर आदि आने जाने लगे ।  दोनों जगह दोनों का स्वागत अत्यंत आत्मीयता से होता था । वहाँ के कलाकार, नुसरत फ़तेह अली खान, राहत फ़तेह अली खान , आबिदा परवीन, गुलाम अली,  शायर फैज़, परवीन शाकिर, फ़हमीदा रियाज़ और भारत के जगजीत सिंह , गुलज़ार , शायरों में वसीम बरेलवी, शहरयार, आदि भी जाते थे । पर पाक के कलाकार अधिक भारत आते हैं ।  एक तो उन्हें यहां लोकप्रियता बहुत मिलती थी और शो अधिक होने से धन भी बहुत मिलता है। फिल्मों में मोहसिन खान और फवाद खान ने तो काम किया ही है , संगीतकार और गायक  अदनान सामी तो यही के नागरिक भी हो गए । पाक के कलाकारों को भारत में काम करने और अपनी कला के प्रदर्शन के लिए अधिक अवसर मिले इस लिए वे इधर आते चले गए , और अब भी आते हैं ।  इस आदान प्रदान और क्रिकेट के खेल को, ट्रैक टू कूटनीति भी कहा जाता है जो जनता का जनता से सीधा संवाद करने की अवधारणा है ।

पाकिस्तान निश्चित रूप से एक दुश्मन देश है । भारत के उस से चार प्रत्यक्ष युद्ध हो चुके हैं और सत्तर सालों से वह आतंक का निर्यात कर भारत के साथ एक छद्म युद्ध लड़ रहा है । हाल ही में पठान कोट और उरी में जो दो हमले और 26 / 11 की आतंकी घटना जिसे मुम्बई हमला ही कहना उचित होगा, में पाक की संलिप्तता, भले ही पाकिस्तान इसे न मानें , पर इन सब में , उसका हाँथ स्पष्ट है । इन रोज़ रोज़ के हमलों, घुसपैठ आदि से पूरा देश आजिज आ चुका है । देश के जनमानस में पाकिस्तान के खिलाफ जनरोष भी बहुत है । अगर पब्लिक मूड या पॉपुलर मूड की बात करें तो, अधिसंख्य लोग सैनिक कार्यवाही के पक्ष में है और युद्ध की बात कर रहे हैं । पर आज के वैश्विक युग में जब दुनिया एक बृहद गाँव बन चुकी और चपटी हो गयी है, तथा एक घटना की प्रतिक्रिया और अनुगूँज दूरस्थ स्थानों पर भी हो सकती है तो सरकार का दायित्व है कि वह कोई ऐसा कदम न उठाये जिस से भविष्य में देश का अहित हो । सरकार कूटनीतिक मोर्चों के अतिरिक्त अन्य विकल्पों पर भी कुछ न कुछ सोच भी रही है । इसी बीच मनसे की यह मांग केवल खुद को वर्तमान परिस्थितियों में प्रासांगिक बनाये रखने की है । मुम्बई में जो भी कलाकार आज़ादी के बाद पाकिस्तान से आते हैं या आये हैं वे सभी यूँ ही फ्रंटियर मेल पकड़ कर जैसे देव आनंद लाहौर से बम्बई कभी आये थे, नहीं आते हैं । वे भारत सरकार की सांस्कृतिक आदान प्रदान की योजना के अंतर्गत या भारत में किसी फ़िल्म के कॉन्ट्रैक्ट के अनुसार या शो के निमंत्रण पर आते हैं । सभी अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार वीसा और पासपोर्ट के साथ आते हैं । भारत ने 1996 में पाकिस्तान को मोस्ट फेवर्ड नेशन यानी सर्वाधिक अनुग्रह प्राप्ति राष्ट्र का दर्ज़ा दे रखा है । लाहौर से दिल्ली और मुनाबाव सीमा बाड़मेर पर दोनों देशों में रेल सम्बन्ध हैं । दिल्ली लाहौर की बस तो रोज़ चलती ही है । कश्मीर में भी श्रीनगर और मुजफ्फराबाद के बीच बस सेवा चलती है । दोनों तरफ से व्यापार भी खूब होता है । और त्योहारों पर बीएसएफ और पाक रेंजर्स के बीच मिठाइयों का आदान प्रदान भी होता है । यह निर्णय सरकार को लेना है कि, वह 1996 के मोस्ट फेवर नेशन के दर्जे को समाप्त या संशोधित करती है या जारी रखती है, कलाकारों के सांस्कृतिक आदान प्रदान पर रोक लगाती है या यथास्थिति ही बनाये रखती है । यही निर्णय रेल और सड़क मार्गों और व्यापारिक रिश्तों के सम्बन्ध में भी लेना होगा । सिंधु जल समझौता भी एक मुद्दा है । इन सब पर निर्णय सरकार को लेना है न कि राज ठाकरे और बदजुबानी के कारण हमेशा खबरों में रहने वाले गायक अभिजीत को ।

ठाकरे परिवार तो मुम्बई को अपनी जागीर मानने की मानसिकता से ग्रस्त है ही । वह मुम्बई को ही देश समझता है । खुद बाल ठाकरे ने पूरे जीवन भर भारतीय कानून का पालन नहीं किया । लोकप्रियता का भी एक नशा होता है । इसी नशे से मदहोश शिवसेना  और ठाकरे बंधु, कभी मदरासियों तो कभी गुजरातियों तो कभी उत्तर भारतीयों के पीछे पड़े रहते थे और खदेड़ने रहते थे । मराठी अस्मिता उनके लिए भाव नहीं है, वह उनके लिए व्यापार और सत्ता प्राप्ति का साधन था और आज भी है । यह उनके लिए लूट का साधन भी था कभी । मुम्बई का हर फिल्मवाला उनके यहां हाज़िरी लगाता है, इस लिए नहीं कि उनके प्रति फ़िल्म वालों के दिल में सम्मान था, बल्कि इस लिए कि, उन्हें फ़िल्म व्यवसाय करना है । इस व्यवसाय में काला सफ़ेद होता ही है । पाकिस्तान का विरोध और प्रतिकार आवश्यक है पर इसके नाम पर किसी संगठन को गुंडई करने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए । राज ठाकरे इन कलाकारों का विरोध करने के लिए स्वतंत्र हैं पर वे एक वैध वीसा और पासपोर्ट पर आये व्यक्ति से जो देश के किसी कानून का उल्लंघन नहीं कर रहा है को मुम्बई छोड़ कर जाने के लिए अल्टीमेटम कैसे दे सकते हैं ? हाँ अगर वे व्यक्ति किसी कानून का उल्लंघन करते हैं तो सरकार के पास कार्यवाही करने का पूर्ण अधिकार है और सरकार सक्षम भी है ।

( विजय शंकर सिंह )

Saturday 24 September 2016

भगवती चरण वर्मा की एक कहानी - मुगलों ने सल्तनत बख्श दी / विजय शंकर सिंह

मुगलों ने सल्तनत बख्श दी
( भगवतीचरण वर्मा )

हीरोजी को आप नहीं जानते, और यह दुर्भाग्‍य की बात है। इसका यह अर्थ नहीं कि केवल आपका दुर्भाग्‍य है, दुर्भाग्‍य हीरोजी का भी है। कारण, वह बड़ा सीधा-सादा है। यदि आपका हीरोजी से परिचय हो जाए, तो आप निश्‍चय समझ लें कि आपका संसार के एक बहुत बड़े विद्वान से परिचय हो गया। हीरोजी को जाननेवालों में अधिकांश का मत है कि हीरोजी पहले जन्‍म में विक्रमादित्‍य के नव-रत्‍नों में एक अवश्‍य रहे होंगे और अपने किसी पाप के कारण उनको इस जन्‍म में हीरोजी की योनि प्राप्‍त हुई। अगर हीरोजी का आपसे परिचय हो जाय, तो आप यह समझ लीजिए कि उन्‍हें एक मनुष्‍य अधिक मिल गया, जो उन्‍हें अपने शौक में प्रसन्‍नतापूर्वक एक हिस्‍सा दे सके।

हीरोजी ने दुनिया देखी है। यहाँ यह जान लेना ठीक होगा कि हीरोजी की दुनिया मौज और मस्‍ती की ही बनी है। शराबियों के साथ बैठकर उन्‍होंने शराब पीने की बाजी लगाई है और हरदम जीते हैं। अफीम के आदी हैं; पर अगर मिल जाय तो इतनी खा लेते हैं, जितनी से एक खानदान का खानदान स्‍वर्ग की या नरक की यात्रा कर सके। भंग पीते हैं तब तक, जब तक उनका पेट न भर जाय। चरस और गाँजे के लोभ में साधु बनते-बनते बच गए। एक बार एक आदमी ने उन्‍हें संखिया खिला दी थी, इस आशा से कि संसार एक पापी के भार से मुक्‍त हो जाय; पर दूसरे ही दिन हीरोजी उसके यहाँ पहुँचे। हँसते हुए उन्‍होंने कहा - यार, कल का नशा नशा था। रामदुहाई, अगर आज भी वह नशा करवा देते, तो तुम्‍हें आशीर्वाद देता। लेकिन उस आदमी के पास संखिया मौजूद न थी।

हीरोजी के दर्शन प्राय: चाय की दुकान पर हुआ करते हैं। जो पहुँचता है, वह हीरोजी को एक प्‍याला चाय का अवश्‍य पिलाता है। उस दिन जब हम लोग चाय पीने पहुँचे, तो हीरोजी एक कोने में आँखें बंद किए हुए बैठे कुछ सोच रहे थे। हम लोगों में बातें शुरू हो गईं, और हरिजन-आंदोलन से घूमते-फिरते बात आ पहुँची दानवराज बलि पर। पंडित गोवर्धन शास्‍त्री ने आमलेट का टुकड़ा मुँह में डालते हुए कहा - "भाई, यह तो कलियुग है। न किसी में दीन है, न ईमान। कौड़ी-कौड़ी पर लोग बेईमानी करने लग गए हैं। अरे, अब तो लिख कर भी लोग मुकर जाते हैं। एक युग था, जब दानव तक अपने वचन निभाते थे, सुरों और नरों की तो बात ही छोड़ दीजिए। दानवराज बलि ने वचनबद्ध हो कर सारी पृथ्‍वी दान कर दी थी। पृथ्‍वी ही काहे को, स्‍वयं अपने को भी दान कर दिया था।"

हीरोजी चौंक उठे। खाँस कर उन्‍होंने कहा - "क्‍या बात है? जरा फिर से तो कहना!"

सब लोग हीरोजी की ओर घूम पड़े। कोई नई बात सुनने को मिलेगी, इस आशा से मनोहर ने शास्‍त्रीजी के शब्‍दों को दोहराने का कष्‍ट उठाया - "हीरोजी! ये गोवर्धन शास्‍त्री जो हैं, सो कह रहे हैं कि कलियुग में धर्म-कर्म सब लोप हो गया। त्रेता में तो दैत्यराज बलि तक ने अपना सब कुछ केवल वचनबद्ध होकर दान दिया था।"

हीरोजी हँस पड़े - "हाँ, तो यह गोवर्धन शास्‍त्री कहनेवाले हुए और तुम लोग सुननेवाले, ठीक ही है। लेकिन हमसे सुनो, यह तो कह रहे हैं त्रेता की बात, अरे, तब तो अकेले बलि ने ऐसा कर दिया था; लेकिन मैं कहता हूँ कलियुग की बात। कलियुग में तो एक आदमी की कही हुई बात को उसकी सात-आठ पीढ़ी तक निभाती गई और यद्यपि वह पीढ़ी स्‍वयं नष्‍ट हो गई, लेकिन उसने अपना वचन नहीं तोड़ा।"

हम लोग आश्‍चर्य में पड़ गए। हीरोजी की बात समझ में नहीं आई, पूछना पड़ा - "हीरोजी, कलियुग में किसने इस प्रकार अपने वचनों का पालन किया है?"

"लौंडे हो न!" हीरोजी ने मुँह बनाते हुए कहा - "जानते हो मुगलों की सल्‍तनत कैसे गई?"

"हाँ, अँगरेजों ने उनसे छीन ली।"

"तभी तो कहता हूँ कि तुम सब लोग लौंडे हो। स्‍कूली किताबों को रट-रट कर बन गए पढ़े-लिखे आदमी। अरे, मुगलों ने अपनी सल्‍तनत अँगरेजों को बख्‍श दी।"

हीरोजी ने यह कौन-सा नया इतिहास बनाया? आँखें कुछ अधिक खुल गईं। कान खड़े हो गए। मैंने कहा - "सो कैसे?"

"अच्‍छा तो फिर सुनो!" हीरोजी ने आरम्‍भ किया - "जानते हो शाहंशाह शाहजहाँ की लड़की शाहजादी रौशनआरा एक दफे बीमार पड़ी थी, और उसे एक अँगरेज डॉक्‍टर ने अच्‍छा किया था। उस डॉक्‍टर को शाहंशाह शाहजहाँ ने हिन्‍दुस्‍तान में तिजारत करने के लिए कलकत्ते में कोठी बनाने की इजाजत दे दी थी।"

"हाँ, यह तो हम लोगों ने पढ़ा है।"

"लेकिन असल बात यह है कि शाहजादी रौशनआरा - वही शाहंशाह शाहजहाँ की लड़की -हाँ, वही शाहजादी रौशनआरा एक दफे जल गई। अधिक नहीं जली थी। अरे, हाथ में थोड़ा-सा जल गई थी, लेकिन जल तो गई थी और थी शाहजादी। बड़े-बड़े हकीम और वैद्य बुलाए गए। इलाज किया गया; लेकिन शाहजादी को कोई अच्‍छा न कर सका - न कर सका। और शाहजादी को भला अच्‍छा कौन कर सकता था? वह शाहजादी थी न! सब लोग लगाते थे लेप, और लेप लगाने से होती थी जलन। और तुरन्‍त शाहजादी ने धुलवा डाला उस लेप को। भला शाहजादी को रोकनेवाला कौन था। अब शाहंशाह सलामत को फिक्र हुई! लेकिन शाहजादी अच्‍छी हो तो कैसे? वहाँ तो दवा असर करने ही न पाती थी।

"उन्‍हीं दिनों एक अँगरेज घूमता-घामता दिल्‍ली आया। दुनिया देखे हुए, घाट-घाट का पानी पिए हुए पूरा चालाक और मक्‍कार! उसको शाहजादी की बीमारी की खबर लग गई। नौकरों को घूस देकर उसने पूरा हाल दरियाफ्त किया। उसे मालूम हो गया कि शाहजादी जलन की वजह से दवा धुलवा डाला करती है। सीधे शाहंशाह सलामत के पास पहुँचा। कहा कि डॉक्‍टर हूँ। शाहजादी का इलाज उसने अपने हाथ में ले लिया। उसने शाहजादी के हाथ में एक दवा लगाई। उस दवा से जलन होना तो दूर रहा, उलटे जले हुए हाथ में ठंडक पहुँची। अब भला शाहजादी उस दवा को क्‍यों धुलवाती। हाथ अच्‍छा हो गया। जानते हो वह दवा क्‍या थी?" हम लोगों की ओर भेद भरी दृष्टि डालते हुए हीरोजी ने पूछा।

"भाई, हम दवा क्‍या जानें?" कृष्‍णानन्‍द ने कहा।

"तभी तो कहते हैं कि इतना पढ़-लिख कर भी तुम्‍हें तमीज न आई। अरे वह दवा थी वेसलीन - वही वेसलीन, जिसका आज घर-घर में प्रचार है।"

"वेसलीन! लेकिन वेसलीन तो दवा नहीं होती," मनोहर ने कहा।

हीरोजी सँभल कर बैठ गए। फिर बोले - "कौन कहता है कि वेसलीन दवा होती है? अरे, उसने हाथ में लगा दी वेसलीन और घाव आप-ही-आप अच्‍छा हो गया। वह अँगरेज बन बैठा डॉक्‍टर - और उसका नाम हो गया। शाहंशाह शाहजहाँ बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्‍होंने उस फिरंगी डॉक्‍टर से कहा - ''माँगो।" उस फिरंगी ने कहा - ''हुजूर, मैं इस दवा को हिन्‍दुस्‍तान में रायज करना चाहता हूँ, इसलिए हुजूर, मुझे हिन्‍दुस्‍तान में तिजारत करने की इजाजत दे दें।" बादशाह सलामत ने जब यह सुना कि डॉक्‍टर हिंदुस्‍तान में इस दवा का प्रचार करना चाहता है, तो बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्‍होंने कहा - ''मंजूर! और कुछ माँगो।" तब उस चालाक डॉक्‍टर ने जानते हो क्‍या माँगा? उसने कहा - ''हुजूर, मैं एक तंबू तानना चाहता हूँ, जिसके नीचे इस दवा के पीपे इकट्ठे किए जावेंगे। जहाँपनाह यह फरमा दें कि उस तंबू के नीचे जितनी जमीन आवेगी, वह जहाँपनाह ने फिरंगियों को बख्श दी।" शाहंशाह शाहजहाँ थे सीधे-सादे आदमी, उन्‍होंने सोचा, तंबू के नीचे भला कितनी जगह आवेगी। उन्‍होंने कह दिया - ''मंजूर।"

"हाँ तो शाहंशाह शाहजहाँ थे सीधे-सादे आदमी, छल-कपट उन्‍हें आता न था। और वह अँगरेज था दुनिया देखे हुए। सात समुद्र पार करके हिंदुस्‍तान आया था! पहुँचा विलायत, वहाँ उसने बनवाया रबड़ का एक बहुत बड़ा तंबू और जहाज पर तंबू लदवा कर चल दिया हिंदुस्‍तान। कलकत्ते में, उसने वह तंबू लगवा दिया। वह तंबू कितना ऊँचा था, इसका अंदाज आप नहीं लगा सकते। उस तंबू का रंग नीला था। तो जनाब, वह तंबू लगा कलकत्ते में, और विलायत से पीपे-पर-पीपे लद-लदकर आने लगे। उन पीपों में वेसलीन की जगह भरा था एक-एक अँगरेज जवान, मय बंदूक और तलवार के। सब पीपे तंबू के नीचे रखवा दिए गए। जैसे-जैसे पीपे जमीन घेरने लगे, वैसे-वैसे तंबू को बढ़ा-बढ़ा कर जमीन घेर दी गई। तंबू तो रबड़ का था न, जितना बढ़ाया, बढ़ गया। अब जनाब, तंबू पहुँचा प्‍लासी। तुम लोगों ने पढ़ा होगा कि प्‍लासी का युद्ध हुआ था। अरे सब झूठ है। असल में तंबू बढ़ते-बढ़ते प्‍लासी पहुँचा था, और उस वक्‍त मुगल बादशाह का हरकारा दौड़ा था दिल्‍ली। बस यह कह दिया गया कि प्‍लासी की लड़ाई हुई। जी हाँ, उस वक्‍त दिल्‍ली में शाहंशाह शाहजहाँ की तीसरी या चौथी पीढ़ी सल्‍तनत कर रही थी। हरकारा जब दिल्‍ली पहुँचा, उस वक्‍त बादशाह सलामत की सवारी निकल रही थी। हरकारा घबराया हुआ था। वह इन फिरंगियों की चालों से हैरान था। उसने मौका देखा न महल, वहीं सड़क पर खड़े होकर उसने चिल्‍ला कर कहा - ''जहाँपनाह, गजब हो गया। ये बदतमीज फिरंगी अपना तंबू प्‍लासी तक खींच लाए हैं, और चूँकि कलकत्ते से प्‍लासी तक की जमीन तंबू के नीचे आ गई है, इसलिए इन फिरंगियों ने उस जमीन पर कब्‍जा कर लिया है। जो इनको मना किया तो इन बदतमीजों ने शाही फरमान दिखा दिया।'' बादशाह सलामत की सवारी रुक गई थी। उन्‍हें बुरा लगा। उन्‍होंने हरकारे से कहा - "म्‍याँ हरकारे, मैं कर ही क्‍या सकता हूँ। जहाँ तक फिरंगियों का तंबू घिर जाय, वहाँ तक की जगह उनकी हो गई, हमारे बुजुर्ग यह कह गए हैं।'' बेचारा हरकारा अपना-सा मुँह ले कर वापस आ गया।

"हरकारा लौटा और इन फिरंगियों का तंबू बढ़ा। अभी तक तो आते थे पीपों में आदमी, अब आने लगा तरह-तरह का सामान। हिंदुस्‍तान का व्‍यापार फिरंगियों ने अपने हाथ में ले लिया। तंबू बढ़ता ही रहा और पहुँच गया बक्‍सर। इधर तंबू बढ़ा और उधर लोगों की घबराहट बढ़ी। यह जो किताबों में लिखा है कि बक्‍सर की लड़ाई हुई, यह गलत है भाई। जब तंबू बक्‍सर पहुँचा, तो फिर हरकारा दौड़ा।

"अब जरा बादशाह सलामत की बात सुनिए। वह जनाब दीवान खास में तशरीफ रख रहे थे। उनके सामने सैकड़ों, बल्कि हजारों मुसाहब बैठे थे। बादशाह सलामत हुक्‍का गुड़गुड़ा रहे थे -सामने एक साहब जो शायद शायर थे, कुछ गा-गा कर पढ़ रहे थे और कुछ मुसाहब गला फाड़-फाड़ कर ''वाह-वाह' चिल्‍ला रहे थे। कुछ लोग तीतर और बटेर लड़ा रहे थे। हरकारा जो पहुँचा तो यह सब बंद हो गया। बादशाह सलामत ने पूछा - "म्‍याँ हरकारे, क्‍या हुआ - इतने घबराए हुए क्‍यों हो?" हाँफते हुए हरकारे ने कहा - "जहाँपनाह, इन बदजात फिरंगियों ने अंधेर मचा रखा है। वह अपना तंबू बक्‍सर खींच लाए।" बादशाह सलामत को बड़ा ताज्‍जुब हुआ। उन्‍होंने अपने मुसाहबों से पूछा - "म्‍याँ, हरकारा कहता है कि फिरंगी अपना तंबू कलकत्ते से बक्‍सर तक खींच लाए। यह कैसे मुमकिन है?" इस पर एक मुसाहब ने कहा - "जहाँपनाह, ये फिरंगी जादू जानते हैं, जादू !" दूसरे ने कहा - "जहाँपनाह, इन फिरंगियों ने जिन्‍नात पाल रखे हैं - जिन्‍नात सब कुछ कर सकते हैं।" बादशाह सलामत की समझ में कुछ नहीं आया। उन्‍होंने हरकारे से कहा - "म्‍याँ हरकारे, तुम बतलाओ यह तंबू किस तरह बढ़ आया।" हरकारे ने समझाया कि तंबू रबड़ का है। इस पर बादशाह सलामत बड़े खुश हुए। उन्‍होने कहा - "ये फिरंगी भी बड़े चालाक हैं, पूरे अकल के पुतले हैं।" इस पर सब मुसाहबों ने एक स्‍वर में कहा - "इसमें क्‍या शक है, जहाँपनाह बजा फरमाते हैं।" बादशाह सलामत मुस्‍कुराए - "अरे भाई, किसी चोबदार को भेजो, जो इन फिरंगियों के सरदार को बुला लावे। मैं उसे खिलअत दूँगा।" सब मुसाहब कह उठे - ''वल्‍लाह! जहाँपनाह एक ही दरियादिल हैं - इस फिरंगी सरदार को जरूर खिलअत देनी चाहिए।" हरकारा घबराया। वह आया था शिकायत करने, यहाँ बादशाह सलामत फिरंगी सरदार को खिलअत देने पर आमादा थे। वह चिल्‍ला उठा - "जहाँपनाह! इन फिरंगियों ने जहाँपनाह की सल्‍तनत का एक बहुत बड़ा हिस्‍सा अपने तंबू के नीचे करके उस पर कब्‍जा कर लिया है। जहाँपनाह, ये फिरंगी जहाँपनाह की सल्‍तनत छीनने पर आमादा दिखाई देते हैं।" मुसाहब चिल्‍ला उठे - "ऐ, ऐसा गजब।" बादशाह सलामत की मुस्‍कुराहट गायब हो गई। थोड़ी देर तक सोच कर उन्‍होंने कहा - "मैं क्‍या कर सकता हूँ? हमारे बुजुर्ग इन फिरंगियों को उतनी जगह दे गए हैं, जितनी तंबू के नीचे आ सके। भला मैं उसमें कर ही क्‍या सकता हूँ। हाँ, फिरंगी सरदार को खिलअत न दूँगा।" इतना कह कर बादशाह सलामत फिरंगियों की चालाकी अपनी बेगमात से बतलाने के लिए हरम में अंदर चले गए। हरकारा बेचारा चुपचाप लौट आया।

"जनाब! उस तंबू ने बढ़ना जारी रखा। एक दिन क्‍या देखते हैं कि विश्‍वनाथपुरी काशी के ऊपर वह तंबू तन गया। अब तो लोगों में भगदड़ मच गई। उन दिनों राजा चेतसिंह बनारस की देखभाल करते थे। उन्‍होंने उसी वक्‍त बादशाह सलामत के पास हरकारा दौड़ाया। वह दीवान खास में हाजिर किया गया। हरकारे ने बादशाह सलामत से अर्ज की कि वह तंबू बनारस पहुँच गया है और तेजी के साथ दिल्‍ली की तरफ आ रहा है। बादशाह सलामत चौंक उठे। उन्‍होंने हरकारे से कहा - "तो म्‍याँ हरकारे, तुम्‍हीं बतलाओ, क्‍या किया जाय?" वहाँ बैठे हुए दो-एक उमराओं ने कहा - "जहाँपनाह, एक बड़ी फौज भेज कर इन फिरंगियों का तंबू छोटा करवा दिया जाय और कलकत्ते भेज दिया जाय। हम लोग जा कर लड़ने को तैयार हैं। जहाँपनाह का हुक्‍म भर हो जाय। इस तंबू की क्‍या हकीकत है, एक मर्तबा आसमान को भी छोटा कर दें।" बादशाह सलामत ने कुछ सोचा, फिर उन्‍होंने कहा - "क्‍या बतलाऊँ, हमारे बुजुर्ग शाहंशाह शाहजहाँ इन फिरंगियों को तंबू के नीचे जितनी जगह आ जाय, वह बख्‍श गए हैं। बख्‍शीशनामा की रूह से हम लोग कुछ नहीं कर सकते। आप जानते हैं, हम लोग अमीर तैमूर की औलाद हैं। एक दफा जो जबान दे दी वह दे दी। तंबू का छोटा कराना तो गैरमुमकिन है। हाँ, कोई ऐसी हिकमत निकाली जाय, जिससे फिरंगी अपना तंबू आगे न बढ़ा सकें। इसके लिए दरबार आम किया जाय और यह मसला वहाँ पेश हो।"

"इधर दिल्‍ली में तो यह बातचीत हो रही थी और उधर इन फिरंगियों का तंबू इलाहाबाद, इटावा ढकता हुआ आगरे पहुँचा। दूसरा हरकारा दौड़ा। उसने कहा - "जहाँपनाह, वह तंबू आगरे तक बढ़ आया है। अगर अब भी कुछ नहीं किया जाता, तो ये फिरंगी दिल्‍ली पर भी अपना तंबू तान कर कब्‍जा कर लेंगे।" बादशाह सलामत घबराए - दरबार आम किया गया। सब अमीर-उमरा इक्‍ट्ठा हो गए तो बादशाह सलामत ने कहा - "आज हमारे सामने एक अहम मसला पेश है। आप लोग जानते हैं कि हमारे बुजुर्ग शाहंशाह शाहजहाँ ने फिरंगियों को इतनी जमीन बख्‍श दी थी, जितनी उनके तंबू के नीचे आ सके। इन्‍होंने अपना तंबू कलकत्ते में लगवाया था; लेकिन वह तंबू है रबड़ का, और धीरे-धीरे ये लोग तंबू आगरे तक खींच लाए। हमारे बुजुर्गों से जब यह कहा गया, तब उन्‍होंने कुछ करना मुनासिब न समझा; क्‍योंकि शाहंशाह शाहजहाँ अपना कौल हार चुके हैं। हम लोग अमीर तैमूर की औलाद हैं और अपने कौल के पक्‍के हैं। अब आप लोग बतलाइए, क्‍या किया जाए।" अमीरों और मंसबदारों ने कहा - "हमें इन फिरंगियों से लड़ना चाहिए और इनको सजा देनी चाहिए। इनका तंबू छोटा करवा कर कलकत्ते भिजवा देना चाहिए।" बादशाह सलामत ने कहा - "लेकिन हम अमीर तैमूर की औलाद हैं। हमारा कौल टूटता है।" इसी समय तीसरा हरकारा हाँफता हुआ बिना इत्तला कराए ही दरबार में घुस आया। उसने कहा - "जहाँपनाह, वह तंबू दिल्‍ली पहुँच गया। वह देखिए, किले तक आ पहुँचा।" सब लोगों ने देखा। वास्‍तव में हजारों गोरे खाकी वर्दी पहने और हथियारों से लैस, बाजा बजाते हुए तंबू को किले की तरफ खींचते हुए आ रहे थे। उस वक्‍त बादशाह सलामत उठ खड़े हुए। उन्‍होंने कहा - "हमने तय कर लिया। हम अमीर तैमूर की औलाद हैं। हमारे बुजुर्गों ने जो कुछ कह दिया, वही होगा। उन्‍होंने तंबू के नीचे की जगह फिरंगियों को बख्‍श दी थी। अब अगर दिल्‍ली भी उस तंबू के नीचे आ रही है, तो आवे! मुगल सल्‍तनत जाती है, तो जाय, लेकिन दुनिया यह देख ले कि अमीर तैमूर की औलाद हमेशा अपने कौल की पक्‍की रही है," - इतना कह कर बादशाह सलामत मय अपने अमीर-उमरावों के दिल्‍ली के बाहर हो गए और दिल्‍ली पर अँगरेजों का कब्‍जा हो गया। अब आप लोग देख सकते हैं, इस कलियुग में भी मुगलों ने अपनी सल्‍तनत बख्‍श दी।"

हम सब लोग थोड़ी देर तक चुप रहे। इसके बाद मैंने कहा - "हीरोजी, एक प्‍याला चाय और पियो।"

हीरोजी बोल उठे - "इतनी अच्‍छी कहानी सुनाने के बाद भी एक प्‍याला चाय? अरे, महुवे के ठर्रे का एक अद्धा तो हो जाता।"
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भगवती चरण वर्मा.
चित्रलेखा उपन्यास आप को याद है ? अच्छा कोई बात नहीं, फ़िल्म जिस में अशोक कुमार और प्रदीप कुमार ने अभिनय किया था स्वामी का और प्रदीप कुमार ने राजा का । भगवती चरण वर्मा इस उपन्यास से लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे और उन्होंने अपने घर का ही नाम चित्रलेखा रख दिया । आज उन्ही भगवती चरण वर्मा की एक कहानी पढ़ें , मुगलों ने सल्तनत बख्श दी । भगवती चरण वर्मा, केवल  चित्रलेखा के ही कारण प्रसिद्ध नहीं हुए । बल्कि अपने कालजयी उपन्यास भूले बिसरे चित्र , सबहि नचावत राम गुसाई सहित अन्य उपन्यासों और ढेर सारी कहानियों के लिए भी जाने जाते हैं । उनका जन्म 30 अगस्त 1903, उन्नाव ज़िले के शफीपुर ग्राम में और शिक्षा इलाहाबाद में हुयी थी। उन्होंने वहाँ से बी.ए. एल-एल. बी. की उपाधि ली । प्रारंभ उन्होंने कविता लेखन किया फिर वे उपन्यास लेखन की ओर मुड़ गए । १९३६ में फ़िल्म कारपोरेशन कलकत्ता में कार्य किया। विचार नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन संपादन और फिर इसके बाद बम्बई में फ़िल्म कथा लेखन तथा दैनिक नवजीवन का संपादन किया। उन्होंने आकाशवाणी के कई केन्द्रों में कार्य किया और  1957 से स्वतंत्र लेखन करने लगे थे । उनके उपन्यास  'चित्रलेखा' पर दो बार फ़िल्म निर्माण और भूले बिसरे चित्र पर उन्हें  साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला । भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से भी सम्मानित किया और वे राज्यसभा के मानद सदस्य भी रहे ।
उनका निधन 5 अक्टूबर 1981 में हुआ ।

( विजय शंकर सिंह )