Thursday 31 December 2015

साल 2015 का आख़िरी ब्लॉग / विजय शंकर सिंह



वक़्त की गति कभी थमती नहीं है. यह अनादि से ले कर अनंत काल तक चलती रहती है. जीवन है या नहीं इसी गति या स्पंदन से ही तय होता है. आज साल तमामी है. यह एक औपचारिक अवसान और उदय है. समाप्त होने और पुनः प्रारम्भ होने में एक भी क्षणांश या कालांश का भी अंतर नहीं पड़ता है.समय अपनी गति से चलता रहता है. हम उसी गति में कुछ काल खंड छांट कर उत्सव मना लेते है. आमोद के ये कुछ छण उत्सव का एक संसार रच कर मन को तोष प्रदान करते हैं. वैसे तो यह नया साल रोमन या ग्रेगोरियन कैलेंडर से मनाया जाता है पर इसका सभी समाज और संस्कृतियाँ पालन नहीं करती है. अंग्रेज़ी कैलेण्डर के अनुसार जनवरी पहला महीना और उसकी पहली तारीख साल का नया दिन माना जाता है. एक साल , चाहे भला बीता हो या बुरा, कुछ दे कर बीता हो या कुछ समेट कर , जैसे भी हो बीत ही गया, यह भी एक आनंद की ही बात है.उसके विदा और आगत के आगमन के क्षण का स्वागत अंग्रेज़ी परंपरा में कुछ छण के लिए लाइट ऑफ कर और फिर अचानक लाइट जला कर एक शोर के साथ करते हैं. तिथि परिवर्तन , अंग्रेज़ी परंपरा में रात के बारह बजे जिसे 2400 हावर्स या 0001 हावर्स जो भी कह लें होता है. हालांकि रात बारह बजे पूरी दुनिया के कैलेण्डर नहीं बदलते. भारतीय परंपरा या पंचांग , जो पश्चिम से किसी भी मायने में कमतर नहीं, बल्कि काल गणना की परंपरा में उनसे बीस ही ठहरेगी, में तिथि परिवर्तन सूर्योदय से माना जाता है. उदया तिथि की यह परंपरा है. अर्धरात्रि को कभी तारीख नहीं बदलती. लेकिन दुनिया में यूरोपीय या विशेषकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विस्तार और प्रभाव ने अंग्रेज़ी कैलेण्डर जो ग्रिगेरियन कैलेण्डर भी कहा जाता है, के अनुसार पूरी दुनिया में नया साल मनाया जाता है. गुलाम तो हम भी रहे हैं तो नया साल मनाने की परम्परा दो सौ साल की गुलामी ने दे ही दी.  इसी बहाने गुज़रे साल का कुछ न कुछ लेखा जोखा भी ले लिया जाता है. क्या खोया और क्या पाया का हिसाब किताब चलता रहता है. पाना तो अक्सर बिसर जाता है पर खोना तो सालता रहता है कई सालों तक.भारतीय परंपरा में नया साल चैत्र के प्रथम दिन से प्रारम्भ होता है। 

नए साल के जश्न की उत्कण्ठा मुझे कभी नहीं रही. जब तक ज़िले की नौकरी रही, तब तक नए साल का पागलपन भरा उत्सव ठीक ठाक बिना किसी झगडे के बीत जाय, यही फ़िक़्र रही. पर जब एक्टिव पुलिसिंग की नौकरी नहीं रही, तब नया साल नींद में या कभी कभी टीवी पर आ रहे कार्यक्रमों को देखते हुए ही बीता. इस साल भी ऐसी ही खामोशी से नये साल का आगमन होगा. अभी तो ऐसा ही लग रहा है. प्रतीक्षा अगर खामोश हो तो भी वह उत्कण्ठित करती है. सर्दी की रात में , आरामदेह बिस्तर में लिहाफ ओढ़े आप लेटे हों, नींद ने आप को जकड लिया हो और जब सुबह बजती हुयी मोबाइल की घंटी या ट्यून से नींद खुले, आप की अलसाई और उनींदी हेलो के बाद , नए साल की मुबारकबाद बरस जाए तो , जवाब में एक स्टीरियो टाइप वाक्य निकलता है, थैंक्स सेम टू यू. ! मुबारकबाद भी रस्मी, और जवाब ए मुबारकबाद भी रस्मी. पर इन तमाम रस्म अदायगी के बीच में भी खुशबू का झोंका समेटे कुछ मुबारकबाद सच मुच में उस अर्धनिद्रा या तन्द्रा जो भी कह लें को झटक कर अचानक चैतन्य कर देते हैं, और चेहरे पर एक मुस्कान अक्सर उभर आती है।  

मैं बनारस से इलाहाबाद 1975 में  आया था . सिविल सेवा की तैयारी का अभियान उन दिनों चल रहा था. मम्फोर्ड गंज में रहता था. नया साल आया. उस समय कार्ड भेज कर , नया साल विश करने की परम्परा थी. कार्ड चुने जाते थे, उन्हें लिफाफों में सहेज कर रखा जाता था. फिर टिकट लगा कर, उन्हें दोस्तों मित्रों को भेजा जाता था. कुछ के जवाब भी आते थे. कुछ के कार्ड हमें भी मिलते थे. उन्हें हम सजा कर पूरी जनवरी भर रखते थे. बाद में वे बुकमार्क , कंप्यूटर वाला नहीं, किताबों के बीच याददाश्त के लिए रखने वाला कागज़, के रूप में इस्तेमाल करते थे. यह सिलसिला जब तक एस एम एस का युग 1999 तक नहीं आया चलता रहा. कुछ गुरुजन और वरिष्ठ अधिकारीगण जिन्हें हम कार्ड भेजते थे, उनके पत्र जब मिलते थे तो हम उन्हें बड़े चाव से पढ़ते थे. कुछ की तो भाषा आत्मीय रहती थी, और वे आत्मीय थे भी पर अधिकाँश की नितांत औपचारिक. खैर, कार्ड भेजना और शुभकामना प्रेषित करना भी तो एक प्रकार की औपचारिकता ही थी. ज़िंदगी में औपचारिकताएं भी कभी कभी बहुत ज़रूरी होती हैं.

1999 में जब मोबाइल फोन आया तो दुनिया की तस्वीर ही बदल गयी. दुनिया अब गोल नहीं रही. यह चपटी हो गयी. यह वाक्य मेरा नहीं है, बल्कि संचार क्रान्ति के उत्थान के दौर में लिखी गयी एक पुस्तक द वर्ल्ड इस फ्लैट , से उठाया गया है. भौगोलिक रूप से नयी दुनिया या दूसरी दुनिया , जो अमूमन अमेरिका को कहा जाता है वह समाप्त हो गयी. संचार के अतिरेक से श्रव्य और दृश्य माध्यम इतने सुलभ हो गए कि न्यूयॉर्क या कैलिफोर्निया में क्या घट रहा है यह हम अपने शयन कक्ष में बैठे बैठे न केवल देख पा रहे हैं बल्कि उस पर त्वरित टिप्पणियाँ भी ट्विटर या फेसबुक के माध्यम से कर सकने में सक्षम है. पर इस संचार क्रान्ति ने सुलेख कला या खुशखत परंपरा को आघात भी पहुंचाया. अब कागज़ और कलम से लिखना, कंप्यूटर के की बोर्ड पर लिखने से कठिन हो गया है. खुद मेरी आदत भी कागज़ पर लिखने की कम हो गयी है. संक्षिप्त संदेशों , व्हाट्सएप्प आदि ने पत्र लेखन जो साहित्य की एक बेहद आत्मीय विधा थी उसे भी नुक्सान पहुंचाया. खतों के भेजने और उसका जवाब पाने की जो उत्कण्ठा , उस काल अवधि में होती थी , उसका अहसास ही समाप्त हो गया. अब ई मेल जितनी तेज़ी से पहुँचता है, उतनी ही तेज़ी से वापस भी आता है. किसी इंतज़ार के समय का अहसास ही नहीं रहा. पत्र लेखन साहित्य में दो नाम बहुत उल्लेखनीय है. एक तो नैपोलियन का. नैपोलियन ने अपनी प्रेमिका को जो प्रेम पत्र लिखे हैं , वे फ्रेंच साहित्य की धरोहर हैं. वैसे ही ग़ालिब के पत्र समकालीन इतिहास के अध्ययन के एक प्रमुख श्रोत हैं. नेहरू ने इंदिरा को पत्र लेखन शैली में ही पूरी दुनिया का इतिहास पढ़ा दिया. विकास का भी एक अज़ीब सिद्धांत है. पिछले एक हज़ार साल में दुनिया ने जो  तरक़्क़ी नहीं की, उतनी प्रगति तो पिछले पचास साल में ही हो गयी. हर सुबह एक नयी खोज का सूरज ले कर आती है. उम्मीद है यह सिलसिला थमेगा नहीं बढ़ता ही रहेगा.

साल तमाम हो रहा है, न कि इच्छाएं और उम्मीदें. बल्कि नया साल उन इच्छाओं और उम्मीदों को और बढ़ा ही देता है.  उम्मीदों को और धार देता है. साल तमामी एक यात्रा की तरह है. एक अंतहीन यात्रा। दुनिया गोल शायद इसी लिए है कि यात्रा सदैव चलती रही। कारवां के मुसाफिर बदलें पर सफर बरकरार रहे। आप सब की मंगल यात्रा ना तमाम रहे , साल भले तमाम हो कर  इतिहास का एक अंग हो जाय। साल के आख़िरी दिन का सूरज डूब गया. और कल एक नया विहान होगा. आप सब को आगत  नव विहान अत्यंत शुभ और मंगलमय हो. मैं गुलज़ार साहब की एक नज़्म उद्धृत कर रहा हूँ. मुझे यह नज़्म बहुत पसंद आयी है, आशा है आप को भी पसंद आएगी.

चल ज़िन्दगी, अभी कई क़र्ज़ चुकाना बाकी है. 

कुछ दर्द मिटाना बाकी है, कुछ फ़र्ज़ निभाना बाकी है.
रफ़्तार में तेरे चलने से कुछ रूठ गए, कुछ छूट गए.

रूठों को मनाना बाकी है, रोतों को हसाना बाकी है. 
कुछ हसरतें अभी अधूरी हैं, कुछ काम भी अभी ज़रूरी हैं. 

ख्वाहिशें जो घुट गयीं इस दिल में, उनको दफ़नाना बाकी है. 
कुछ रिश्ते बन कर टूट गए, कुछ जुड़ते जुड़ते छूट गए. 

उन टूटे छूटे रिश्तों के ज़ख्मों को मिटाना बाकी है. 
तू आगे चल मैं आता हूँ, क्या छोड़ तुझे भी पाउँगा?

इन साँसों पर हक़ है जिनका, उनको समझाना बाकी है.
आहिस्ता चल ज़िन्दगी, अभी कई क़र्ज़ चुकाना बाकी है....  

Sunday 20 December 2015

निर्भया का नाबालिग बलात्कारी - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

बलात्कार , मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही होते रहे हैं और सभ्यता के इति तक होते रहेंगे.  समाज कितना भी प्रतिभाशाली, बौद्धिक, और अग्रगामी हो जाय यह कुंठा जनित अपराध होगा ही . इसे रोकना न तो पुलिस के लिए संभव है और न ही न्याय व्यवस्था के लिए. समाज जब उदात्त और जाग्रत होगा तो हो सकता है इस अपराध पर थोड़ी लगाम लगे. पर इस अपराध की समाप्ति हो जाय यह असंभव है.

निर्भया के साथ जो बलात्कार की घटना हुयी थी, वह ह्रदय विदारक और अत्यंत बीभत्स थी. देश के जन मानस को झकझोर देने वाली इस घटना ने देश में न केवल इस अपराध के लिए अत्यंत कड़े क़ानून बनाने के लिए एक वातावरण तैयार किया बल्कि इस घटना ने समाज में महिलाओं की स्थिति पर भी बहस को आगे बढ़ाया है.  डॉ लोहिया, बलात्कार को अत्यंत घृणित और गर्हित अपराध मानते थे. यह पीड़िता की आत्मा की , उसके निजता की, उसके इच्छा की हत्या है. कभी कभी यह अपराध , शत्रुता जन्य हत्या के अपराध से भी अधिक हेय और गंभीर मुझे लगता है. स्त्री पुरुष संबंधो पर अपने विचार व्यक्त करते हुए, डॉ लोहिया ने कहा था, " बलात्कार और वादाखिलाफी छोड़ कर सारे स्त्री पुरुष सम्बन्ध जायज़ है. "

निर्भया के मामले में बलात्कारियों में से एक अपराधी नाबालिग है. भारतीय क़ानून के अनुसार नाबालिग को जेल नहीं भेजा जा सकता है और उसे फांसी भी नहीं दी जा सकती है. उसे सजा भी बालिग़ अपराधियों की तुलना में कम ही दी जाती है. इस मामले में भी ऐसा ही किया गया है और उसे कुला तीन साल की सजा दी गयी है. अदालतें उसी क़ानून का पालन करती हैं जो क़ानून संसद द्वारा बनाये गए दंड संहिता में उल्लिखित है. इस मामले में ऐसा साबित हुआ है कि अपराध के समय अत्यंत क्रूरतम आचरण इसी अवयस्क अपराधी का रहा है. जब कि इसे कुल सजा केवल तीन साल की मिली. और वह भी सुधारगृह में. इस से जनता में आक्रोश है जो स्वाभाविक भी है.आज वह अपराधी सुधारगृह से मुक्त कर दिया गया और जन मानस में व्याप्त आक्रोश को देखते हुये उसे अज्ञात स्थान पर भेज भी दिया गया. आक्रोश का एक प्रतिफल यह भी है कि बदायूं के जिस गाँव का वह रहने वाला है , उस गाँव के लोगों ने भी उसे गाँव में प्रवेश न करने देने का निर्णय किया है.

लेकिन यह आक्रोश है किसके प्रति ?
अदालत के प्रति ?
पुलिस के प्रति ?
समाज के प्रति ?
मीडिया के प्रति ?
किसके किसके प्रति ?
या अलक्ष्यित आक्रोश जिसका कोई अर्थ नहीं होता और जो कुंठा को जन्म देता है केवल ?
पुलिस की बड़ी आलोचना इस मामले में हुयी थी. याद कीजिए जंतर मंतर और इंडिया गेट के वे दिन. जली हुयी मोमबत्तियां और टी वी कैमरों के सामने लोगों के आक्रोशित चेहरे. पर पुलिस ने क़ानून के अनुसार अभियुक्तों का पता लगाया और उन्हें गिरफ्तार कर के जेल भेजा. मुक़दमा चला और सज़ाएँ मिली.
अदालतों ने जैसा सुबूत पाया वैसी सजा दी. एक नाबालिग है तो क़ानून की किताब के अनुसार जैसी और जितनी सजा दी जा सकती है उतनी दी गयी. हालांकि यह सजा पर्याप्त और उपयुक्त नहीं है , फिर भी यह कानूनन सही है.
अदालतें वैसे भी न्याय करती हैं या नहीं, ऐसे भारी भरकम शब्द की मायाजाल में पडने की बजाय मैं यह कहूँगा कि वह मुक़दमों का ट्रायल करती हैं. साक्ष्यों की पड़ताल करती हैं. साक्ष्यों के आधार पर उनका परीक्षण भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत ही होता है , और उसी अनुसार अपराध की गुरुता तय होती है और तब जो सजा क़ानून की किताबों में निर्दिष्ट होती है, वह सजा अभियुक्त को दी जाती है. इस मामले में भी ऐसा ही हुआ है.

या तो नाबालिगों के द्वारा किये गए अपराधों के सम्बन्ध में क़ानून लचर है या नाबालिग तय करने का नियम ही गलत है. इस मामले में भी अपराध भले ही नाबालिग द्वारा किया गया हो पर अपराध की प्रकृति और सह आरोपी से अधिक उक्त नाबालिग की उग्र भूमिका से स्पष्ट है कि नाबालिग जो कृत्य कर रहा था, उसके कारण और परिणाम से वह पूर्णतया परिचित था. उसके सारे सह अभियुक्त बालिग़ थे और यह बलात्कार जिस षड्यंत्र के अनुसार  , अत्यंत आपराधिक रूप से किया गया है उस से सिर्फ उम्र कम होने का लाभ इस नाबालिग अभियुक्त को दे दिया जाना मेरे विचार से उचित नहीं है. नाबालिग को न केवल यह पता था कि वह क्या करने जा रहा है बल्कि वह अपने सह अभियुक्तों की तुलना में सक्रिय भी अधिक था. अगर उसकी केवल उपस्थिति होती और इस अपराध में लिप्तता मात्र साथ होने और कौतुहल वश दर्शक की होती तो और बात थी. पर इतनी सक्रिय और घिनौने अपराध में सहभागिता के बावज़ूद , वह केवल इस लिए बच जाय कि उसकी उम्र कुछ महीने कम है तो यह बात समझ से परे हैं.

निर्भया के माता पिता दुखी और आक्रोशित है. किसी के भी परिजन ऐसी परिस्थिति में दुखी और आक्रोशित होंगे. कुछ के तो बदला भी लेंने के सोचते. पर उनका यह अरण्य रोदन किसे विचलित और विगलित करेगा , यह मुझे नहीं मालूम.

( विजय शंकर सिंह )

Sunday 6 December 2015

अयोध्या , 6 दिसंबर 1992 - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह





कुछ के लिए आज शौर्य दिवस है .
यह शौर्य , किस शत्रु के पराभव पर प्रदर्शित हुआ था ?
वह युद्ध किस से लड़ा गया था ?
कौन शत्रु खेत रहा ?
क्या मिला इस शौर्य से देश को ?
यह सारे सवाल मेरे ही नहीं , आने वाली पीढ़ियों के मन में सदैव खटकते रहेंगे.
6 दिसंबर 1992 को , एक अत्यंत उन्मादित भीड़ जो देश भर से , देश के आराध्य राम के नाम पर बटोर कर लायी गयी थी द्वारा अयोध्या स्थित राम जन्म भूमि / बाबरी मस्ज़िद या सरकारी भाषा में कहें तो, विवादित ढांचा को गिरा दिया गया था. अयोध्या में दोराही कुंआ से जब सीता रसोई की और चलेंगे तो सीता रसोई के सामने एक बड़े से टीले पर कभी तीन गुम्बदों वाली एक इमारत खड़ी हुआ करती थी. बीच का गुम्बद बड़ा और अगल बगल के दोनों गुम्बद थोड़े छोटे थे. गुम्बदों पर काई जमी रहती थी. इमारत के अंदर तीन बड़े बड़े दालान थे जो आपस में मिले हुए थे. इमारत के चारों तरफ एक दीवार थी. मोटी और सादी. इमारत के दायीं या उत्तर की तरफ एक छोटा सा लोहे का दरवाज़ा , जैसा अक्सर ब्रिटिश कालीन थानों की हवालात में होता है , था. यह इमारत मीर बाक़ी नामक एक सूबेदार द्वारा बनवाई गयी थी. मीर बाक़ी , मुग़ल बादशाह , बाबर का अधीनस्थ था. यह इमारत 1528 / 29 में खड़ी की गयी थी. जिसे बाबरी मस्ज़िद कहा जाता था. बाबर के अयोध्या या फैज़ाबाद आने का कोई भी प्रमाण इतिहास में नहीं मिलता है. न तो बाबर की आत्मकथा बाबरनामा या तुजुक ए बाबरी में या उसकी बेटी गुलबदन द्वारा लिखी पुस्तक हुमायूँनामा में. पर इस इमारत को बाबर के नाम पर बाबरी मस्ज़िद कहा गया . जन श्रुति है कि भगवान राम का जन्म यहीं हुआ था.
अयोध्या राम की जन्म भूमि है और यह तथ्य अविवादित है. यह भी कहा जाता है कि , मीर बाक़ी ने जहां यह इमारत खड़ी की, वहाँ एक भव्य मंदिर हुआ करता था. जिसे उसने तोड़ कर यह मस्ज़िद खड़ी की. अयोध्या धर्म क्षेत्र है. यहां बहुत से मंदिर हैं . इस स्थान पर भी हो सकता है मंदिर रहा हो. पुरातात्विक उत्खनन इस ओर संकेत भी करते हैं. पर यह मस्ज़िद अयोध्या की अन्य मस्ज़िदों के समान नमाज़ के लिए बहुत अधिक उपयोग में नहीं आती रही है. जुमा की ही नमाज़ यहां पढी जाती रही है. पर 1936 से इस मस्ज़िद में कोई भी नमाज़ नहीं पढी गयी है.
इसी वीरान मस्ज़िद में 22 दिसंबर 1949 को कुछ साधुओं और बाबाओं ने बाल रूप श्री राम , जिन्हें आज राम लला कहा जाता है, की एक छोटी सी प्रतिमा इसके अंदर रख दी. और यह प्रचारित भी कर दिया गया कि राम स्वतः प्रकट हो गए है. बाद में विवाद होने पर , यह इमारत धारा 147 सी आर पी सी के अंतर्गत कुर्क कर दी गयी. मूर्ति की पूजा अर्चना की भी अनुमति दे दी गयी. इस प्रकार एक यथास्थिति बनाये रखे गयी. जो मैं लिख रहा हूँ,वह इतना संक्षिप्त और सरल घटनाक्रम भी नहीं है. यह बहुत रोचक है. उस पर विस्तार से फिर कभी लिखूंगा, क्यों कि उसके लिए थोडा शोध भी करना पड़ेगा.
1986 तक यह मामला शांत रहा. अयोध्या के अन्य मंदिरों की तरह यह स्थान न तो उतना गुलज़ार रहता था और न ही उतनी भीड़ जुटती थी. लोग यहां उत्कण्ठा वश ही अधिक आते थे. तभी एक मुक़दमे का फैसला आता है और इस मंदिर का ताला खुल जाता है. यह भी लोग देख लेते हैं कि, जो जज साहब यह फैसला दे रहे थे तो उनकी अदालत के ऊपर एक बन्दर बैठा था, जो कुछ को हनुमान नज़र आये थे. इसी साल से राम का राजनीति में दुरुपयोग शुरू हुआ. पहले कांग्रेस ने राम और राम मंदिर का राजनैतिक दुरूपयोग किया, और फिर बाद में भाजपा ने तो यह सिलसिला आज तक बनाये रखा है. 1989 में राजीव गांधी की सरकार के समय शिलान्यास का कार्यक्रम रखा था और 1990 में जब लाल कृष्ण आडवाणी की बहु प्रचारित रथ यात्रा प्रारम्भ हुयी तो उनके अयोध्या पहुँचने के दिन कारसेवा का कार्यक्रम रखा गया. 1990 में ही सबसे पहली बार विवादित ढाँचे को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की गयी थी पुलिस को गोली चलानी पडी थी. कुछ लोग उसमे मरे भी थे.
1991 में उत्तर प्रदेश में चुनाव होता है. भाजपा अपने दम पर जीत कर सरकार में पहली बार आयी. कल्याण सिंह मुख्य मंत्री बने. सारी कैबिनेट अयोध्या जाती है, और वहाँ यह वादा कर के आती है कि राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे. फिर आती है तारीख 6 दिसंबर 1992. यह दिन तय होता है अयोध्या में कार सेवा का. लाखों लोगों को वहाँ इकठ्ठा किया गया. सुप्रीम कोर्ट ने विवादित स्थल की सुरक्षा के लिए उत्तर प्रदेश सरकार से हलफनामा दाखिल कर आश्वस्त करने को कहा. सरकार ने विवादित स्थल को सुरक्षित रखने का आश्वासन दिया. और यह भी कहा कि सरकार या मुख्य मंत्री , अयोध्या में किसी भी परिस्थिति में गोली चलाने का आदेश नहीं देंगे. मैं इतनी लंबी पुलिस सेवा के बाद आज भी यह समझ नहीं पाया हूँ कि सी आर पी सी के किस सेक्शन में सरकार या मुख्य मंत्री को , पुलिस को, क़ानून और व्यवस्था बनाये रखने के लिए, गोली चलाने या न चलाने के लिए आदेश देने का अधिकार कहाँ उल्लिखित है. हमने तो यही पढ़ा है कि यह अधिकार मौके पर उपस्थित मैजिस्ट्रेट का ही है ! कल्याण सिंह को संविधान की रक्षा , शपथ लेकर भी न करने के कारण बाद में सुप्रीम कोर्ट ने सजा भी दी.
भीड़ को उत्तेजित किया गया. भीड़ अनियंत्रित हुयी. पुलिस ने रोकने का प्रयास अवश्य किया पर वह असफल रही. गोली चलनी नहीं थी. गोली चली भी नहीं. और वह इमारत गिरा दी गयी. जब कोई प्रतिरोध ही नहीं, तो शूरता किस पर और जब शूरता ही नहीं तो शौर्य किसका. और शौर्य दिवस किस लिए ? फिर तो जो होना था, हुआ ही. शाम तक कल्याण सिंह की सरकार बर्खास्त कर दी गयी. अयोध्या के ज़िला मैजिस्ट्रेट और एस एस पी निलंबित कर दिए गए. बाद में एस एस पी , भाजपा के टिकट पर सांसद भी हुए. पर जो गलती एक प्रशासक और पुलिस अफसर के रूप में इन्होंने की थी, वह सेवा के आदर्शों के सर्वथा विपरीत थी.
1991 के चुनाव के बाद जितने भी चुनाव उत्तर प्रदेश में हुए उसमे भाजपा फिर अपने दम पर कभी सरकार नहीं बना पायी. मैं इसे राम का ही कोप मानता हूँ. राम मंदिर न तो भाजपा को बनाना था, और न ही उन्हें बनाना है. भाजपा को एक भावनात्मक मुद्दा चाहिए था. राम से अधिक किसने जन मानस को छुआ है ? तो वे राम को ही ले कर चले. बड़ी बड़ी बातें की गयी. पर जब इमारत गिर गयी तो , सब हमने नहीं गिराया के मोड़ में आ गए. जो मुक़दमा 1949 से अदालत में भूमि के स्वामित्व का चल रहा था आज भी वह सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. राम , मस्ज़िद ही कह लें , फिर भी, एक इमारत में तो थे. वहाँ उनकी विधिवत पूजा अर्चना तो होती थी. जिन्हें आस्था थी, वे नज़दीक से उनका दर्शन तो कर लेते थे. इमारत के ठीक बाहर , राम चबूतरे पर न जाने कब से , अखंड हरिकीर्तन तो हो रहा था. मेला लगा हुआ था. अयोध्या का बाज़ार चमक गया था और फल फूल रहा था. बंदर तो भूखे नहीं मर रहे थे. जैसे आज सब गिरा पड़ा कर , तम्बू में राम को रख कर , मुक़दमे के फैसले का सब इंतज़ार कर रहे हैं. तब वैसे भी इंतज़ार किया जा सकता था. कम से कम राम तो टेंट में नहीं रहते! लेकिन तब भाजपा की सरकार कैसे बनती !! उद्देश्य तो सत्ता में आना था. मंदिर बनाना नहीं. इस लिए जब जब चुनाव निकट आता है, राम याद आने लगते हैं.
अयोध्या में राम को अपने सभी भाइयों सहित आत्म हत्या करनी पडी थी. इतिहास की एक त्रासदी यह भी है. राम ने अपने और अपने सभी भाइयों के , पुत्रों को वहाँ से दूर जाने को कह दिया. और खुद भाइयों सहित वे सरयू में समाहित हो गए. राम कभी कैकेई मंथरा द्वारा, तो कभी मारीच, तो कभी अयोध्या के प्रजा द्वारा छले गए. और अब भी छले जा रहे हैं. राम स्वयं तय कर देगे कि, उनका आश्रय गिरा कर पूरे देश में आग लगाना , शौर्य था या नहीं . राम सब को सद्बुद्धि दें. आज यही प्रार्थना है. 
( विजय शंकर सिंह )


   

Wednesday 2 December 2015

दीनदयाल , फ़ोर्बेस मैगज़ीन नहीं पढता है ! / विजय शंकर सिंह



दीनदयाल , न तो फ़ोर्ब्स मैगज़ीन पढता है और न ही उसने उस मैगज़ीन को देखा है. दीनदयाल की क्या बात करूँ, खुद मैंने भी उस पत्रिका का दीदार नहीं किया है. पर दीनदयाल के घर 6 वोट हैं और उसके गाँव में तो उसके बिरादरी के पांच छह सौ वोट होंगे. मैंने कहा,
' गाँव जाना तो पूछना कि फ़ोर्ब्स मैगज़ीन का नाम तुम्हारे घर वालों ने सुना है कहीं ? '
मैगज़ीन शब्द से उसे कट्टा बन्दूक याद आ गयी और चेहरे पर एक चमक. दोष उसका नहीं है. दोष उस इलाके का है, जहां का वह रहने वाला है. इलाक़ा, खूब लड़ी मर्दानी का है.अँगरेज़ भले 1857  जीत चुके थे, पर वीरांगना का नाम उनके मेरुदंड में सिहरन 1947 तक पैदा कर देता था. जी यह बुंदेलखंड है. महाभारत के शिशुपाल का चेदि, इतिहास का जैजाक भुक्ति और पठारों , पत्थरों और खनिज सम्पदा समेटे धरती के सबसे वृद्ध पर्वत विंध्याचल का क्षेत्र है.  यहां के बारे में जब मैं एस पी बांदा नियुक्त हुआ तो, तो मैंने खुद ही एक कहानी गढ़ ली, और उससे जुडी एक उक्ति भी रच ली. कथा और उक्ति इस प्रकार है,
' मैंने कल्पना की कि अगर ईश्वर साक्षात प्रगट हो जाएँ और पूरा कथाओं में वर्णित वर देने की मुद्रा में आ जाएँ तो अधिकतर लोग तो मोक्ष मांगेंगे. हालांकि मुझे खुद नहीं पता है कि मोक्ष ले कर किया क्या जाएगा. पर बुंदेलखंड का निवासी एक अदद लाइसेंस मांगेगा और, एक बन्दूक. जब तक बन्दूक और लाइसेंस न मिल जाय तब तक वह कट्टा पर ही संतोष कर लेगा. पुलिस का उसे डर नहीं है. इस ज़ुर्म के  लिए वह पुलिस की थाना चौकी मैनेज कर लेगा. ईश्वर को इन सब के लिए तक़लीफ़ नहीं देगा. उसके लिए वही जिला मैजिस्ट्रेट अच्छा और दमदार प्रशासक है जिसने खूब उदारता से लाइसेन्स बांटे है. '
मैगज़ीन पर फिर आएं हम लोग.दीनदयाल ने पहली बार में ही इसे असलहा से ही जुडी चीज़ समझी. जब उसे बताया गया कि यह पढ़ने वाली मैगज़ीन है. और दुनिया भर में हर साल बड़े बड़े और मोटे लोगों की सीढ़ियाँ तय करके उनके दर्ज़े तय करती रहती है तो उसके चेहरे पर न तो कोई भाव आया और न ही आँखे फ़ैली.

उसे फोर्ब्स से क्या लेना देना. खैर फोर्ब्स से तो मुझे भी कुछ लेना देना नहीं है. पर जब कुछ लोग केवल इस मैगज़ीन का हवाला दे कर, मोदी जी का महिमामंडन कर के गौरवान्वित होते हैं तो कभी कभी यह बचपना लगता है. फिर भी थोडा सीना तो बढ़ता ही है. देश के किसी भी नागरिक को विश्व मान्य सम्मान मिले, यह तो गौरव की बात है ही. और जब उस सम्मान का पात्र देश का प्रधान मंत्री हो तो , क्या कहने ! दीनदयाल को मैंने बताया और समझाया  कि दुनिया कितना मान रखती है. वह मुस्कुरा कर रह गया. मैं अपने सामान्य ज्ञान की प्रतिभा पर आत्म मुग्ध हो गया.

पर बिहार ने क्यों नहीं माना ? बिहार के लोग ,वैसे तो अक़्लमंद होते हैं पर एक बार जो उन्हें समझ में आ जाय उस से बिचलते भी नहीं है. इतना ज़ोरदार तर्क देंगे कि तर्क शर छोड़ कर त्राहिमाम करना पड़ता है. दुनिया में उनका कितना भव्य स्वागत हो रहा है. लोग चमत्कृत हैं , अचंभित हैं. और बिहार ने भाव ही नहीं दिया और तर्कों से सिद्ध भी कर दिया कि हम जो कह रहे हैं वही इति सिद्धम् है . फिर अचानक याद आया कि यह तो महान तार्किक बुद्ध की ज्ञान भूमि है. यहां के लोगों से बहस नहीं करना चाहिये. यकीन न हो तो रेल के डिब्बे में राजनीति से ले कर फ़िल्म तक , गांधी से ले कर सत्यजित रे तक, बाढ़ से ले कर अकाल तक, चारु मजूमदार से ले कर लोहिया तक बस बहस छेड़ दीजिये. ट्रेन विलम्ब से चले या चेन पुलिंग से रुक रुक कर, आप को पता ही नहीं चलेगा. पूरा मनसायन रहेगा. हाँ बस शब्द चयन संस्कारी लोगों की तरह न तो कीजियेगा और न ही फोटोशापीय झूठ परोसियेगा. बिहार है. सटला त गईला बेटा !!

वह फ़ोर्ब्स, टाइम और लाइफ मैगज़ीन नहीं पढता है. वह सायकिल से चलता है, और देर शाम जब बाजार उठने को होता है तो सब्ज़ियाँ आदि खरीद के, विकास के बड़े बड़े दावे वाले दानवी होर्डिंग्स को शून्य आँखों से ताकते हुए घर लौटता है. उसकी नज़र , सहन शीलता और असहनशीलता की बहसों से पटे हिंदी दैनिकों पर नहीं पड़ती. उसकी सुबह मेरी तरह नेट से डाउनलोड किये ख़ूबसूरत गुड़ मॉर्निंग के चित्रो और कभी कभी हास्यास्पद प्रतीत होने वाले सुभाषितों से नहीं साइकिल की पैडल से शुरू होती है. बादल उसके मन में कवित्वभाव नहीं उपजाते हैं, बल्कि मौसम के अनुसार कभी मुस्कान बिखेरते हैं तो कभी किसी अनहोनी की आशंका से डरा भी जाते है. हम जब खुद को राष्ट्रभक्त सिद्ध करने के अनावश्यक उत्साह में , झूठे सच भरे फोटोशॉप की गलियाँ तलाशते रहते हैं तब वह दिन कैसे बीते इसी जुगाड़ में लगा रहता है.पर जब वोट देना होता है तो सबसे पहले लाइन में वही लग जाता है. सरकार फोर्ब्स के ओपिनियन से न तो बनती है और न ही बिगड़ती है. यहां दीनदयाल की ही ओपिनियन ही काम आती है. फोर्ब्स की ओपिनियन उसे कुछ भी राहत नहीं देती बल्कि उसे ठग ही लेती है.

जो ओपिनियन दीनदयाल और उसका गाँव बनाता है, फोर्ब्स मैगज़ीन का कवर पृष्ठ उसी आधार पर बनता और बिगड़ता है. दीनदयाल का कबीला , वामपंथ , दक्षिणपंथ, राष्ट्र भक्ति , सेकुलर आदि के पचड़े में नहीं पड़ता  है. जहां राहत मिलती है उसी तरफ दौड़ पड़ता है. मुसीबत और समस्याओं के बाढ़ में वह सुकून और जीने भर की राहत का द्वीप तलाशता है. वह न जीडीपी जानता है और न ही आंकड़ों का माया जाल. सच तो यह है. हम दीनदयाल की स्थिति पर कम यकीन करते हैं बनिस्बत उन आंकड़ों के जो अदम गोंडवी के शब्दों में गुलाबी मौसम समेटे फाइलों से नमूदार होते हैं. अखबारों में तापक्रम पढ़ कर कपडा लादने और उतारने की परिपाटी जहां है वहाँ है. पर हम सब जितनी सर्दी गर्मी महसूस करते हैं उसी के अनुसार ओढ़ते पहनते है. गांधी ने सौ साल पहले ही कह दिया था, कि अंतिम व्यक्ति का हित और उसकी संतुष्टि ही देश का हित और संतुष्टि है. दीनदयाल को कम मत आंकियेगा. इसकी ओपिनियन लुटियन  दिल्ली में रहने वालों की लुटिया डुबा देने की हैसियत रखती है. और अब उसकी ओपिनियन बदल भी रही है. उस कृत्रिम धुंध और स्मॉग से बाहर आइये. यह भी एक प्रकार का जलवायु परिवर्तन है. एक प्रकार का विक्षोभ है.
दीनदयाल एक काल्पनिक व्यक्ति नहीं है. उसका अस्तित्व है. वह मेरा कुक है. और मैं निश्चिन्त भाव से जी सकूं इस लिए उसका प्रसन्न रहना आवश्यक है. और हाँ यकीन मानिये फ़ोर्ब्स मैगज़ीन उसने तो देखी नहीं है और सच में मैंने भी नहीं पढी है.

( विजय शंकर सिंह )